Golendra Gyan

Wednesday, 24 February 2021

हाशिये पार की संवेदना : सीमांकन यादव - गोलेन्द्र पटेल

 

         सीमांकन यादव


 हाशिये पार की संवेदना


हमारे देश में संवेदना
केन्द्र में नहीं वरन् 
हाशिये पर है,
जोकि आवश्यकता पड़ने पर आती है केन्द्र में-अस्थाई तौर पर꫰
तबकि जब लुट चुकी होती है
किसी स्त्री की अस्मिता,
याकि हो जाती है निर्मम हत्या꫰
अन्ततः फिर लौटने लगती है संवेदना
हाशिये पर!

ठहरिये हुज़ूर! कुर्ता झाड़ लीजिए
हाँ कपासी कुर्ता,जो आता है किसानी खेत से,
छप्पन भोग खाते जाइये
हाँ गन्ना-अन्न-सब्जी से बना छप्पन भोग,जो आता है किसानी खेत से,
ग़ौर फ़रमायेंगे तो पायेंगे
कि आप चलते हैं किसानी खेत से,
लेकिन आज किसान खेत की मेड़ पर नहीं,
बैठा है लम्बे अरसे से अधखुले वितान तले
प्राचीरों के शहर में,आपकी तरफ टकटकी बाँधे꫰
आप कुछ नहीं कहना चाहते हुज़ूर?
कोई बात नहीं,मैं कहता हूँ आपकी चुप्पी को -'हाशिये पार की संवेदना',
जो कभी नहीं आती केन्द्र में꫰

2.

सरकारी बसंत

सुना है बसंत चल रहा है!
लेकिन, कहाँ?
किसान के खेतों में?
या बेरोज़गार हाथों में?
या महँगाई की दुनिया में?
या ये कहें कि बसंत का निजीकरण हो गया है,
अब वह चल रहा है सरकारी आदेश में,
पूँजीपतियों के इशारे पर!

- सीमांकन यादव
मो.न.- 6387482349
(रायबरेली,उत्तर प्रदेश)
परास्नातक,प्रथम वर्ष(हिन्दी)
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय꫰



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★ संपादक संपर्क सूत्र :-

नाम : गोलेन्द्र पटेल

{काशी हिंदू विश्वविद्यालय का छात्र}

ह्वाट्सएप नं. : 8429249326

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Monday, 22 February 2021

जारी है संकलन : "पतंग और पतंगा" / मकरसंक्रांति : पतंग पर केंद्रित कविताएँ

जारी है संकलन : "पतंग और पतंगा"



 

 ◆"पतंग" पर केंद्रित कविताएँ◆


1.

 

पतंग : आलोक धन्वा

(एक)

उनके रक्तो से ही फूटते हैं पतंग के धागे
और
हवा की विशाल धाराओं तक उठते चले जाते हैं
जन्म से ही कपास वे अपने साथ लाते हैं

धूप गरुड़ की तरह बहुत ऊपर उड़ रही हो या
फल की तरह बहुत पास लटक रही हो-
हलचल से भरे नींबू की तरह समय हरदम उनकी जीभ
                                       पर रस छोड़ता रहता है

तेज़ आँधी आती है और चली जाती है
तेज़ बारिश आती है और खो जाती है
तेज़ लू आती है और मिट जाती है
लेकिन वे लगातार इंतज़ार करते रहते हैं कि
कब सूरज कोमल हो कि कब सूरज कोमल हो कि
कब सूरज कोमल हो और खुले
कि कब दिन सरल हों
कि कब दिन इतने सरल हों
कि शुरू हो सके पतंग और धागों की इतनी नाज़ुक दुनिया
 
(दो)

सबसे काली रातें भादों की गयीं
सबसे काले मेघ भादों के गये
सबसे तेज़ बौछारें भादों की
मस्तूतलों को झुकाती, नगाड़ों को गुँजाती
डंका पीटती- तेज़ बौछारें
कुओं और तलाबों को झुलातीं
लालटेनों और मोमबत्तियों को बुझातीं
ऐसे अँधेरे में सिर्फ़ दादी ही सुनाती है तब
अपनी सबसे लंबी कहानियाँ
कड़कती हुई बिजली से तुरत-तुरत जगे उन बच्चोंह को
उन डरी हुई चिड़ियों को
जो बह रही झाड़ियो से उड़कर अभी-अभी आयी हैं
भीगे हुए परों और भीगी हुई चोंचों से टटोलते-टटोलते
उन्होंने किस तरह ढूँढ लिया दीवार में एक बड़ा सा सूखा छेद !

चिड़ियाँ बहुत दिनों तक जीवित रह सकती हैं-
अगर आप उन्हें मारना बंद कर दें
बच्चेप बहुत दिनों तक जीवित रह सकते हैं
अगर आप उन्हें मारना बंद कर दें
भूख से
महामारी से
बाढ़ से और गोलियों से मारते हैं आप उन्हें
बच्चों को मारने वाले आप लोग !
एक दिन पूरे संसार से बाहर निकाल दिये जायेंगे
बच्चों को मारने वाले शासकों !
सावधान !
एक दिन आपको बर्फ़ में फेंक दिया जायेगा
जहाँ आप लोग गलते हुए मरेंगे
और आपकी बंदूकें भी बर्फ़ में गल जायेंगी

(तीन)

सबसे तेज़ बौछारें गयीं भादों गया
सवेरा हुआ
ख़रगोश की आँखों जैसा लाल सवेरा
शरद आया पुलों को पार करते हुए
अपनी नयी चमकीली साइकिल तेज़ चलाते हुए
घंटी बजाते हुए ज़ोर-ज़ोर से
चमकीले इशारों से बुलाते हुए
पतंग उड़ानेवाले बच्चों के झुंड को
चमकीले इशारों से बुलाते हुए और
आकाश को इतना मुलायम बनाते हुए
कि पतंग ऊपर उठ सके-
दुनिया की सबसे हलकी और रंगीन चीज़ उड़ सके
दुनिया का सबसे पतला काग़ज़ उड़ सके-
बाँस की सबसे पतली कमानी उड़ सके-
कि शुरू हो सके सीटियों, किलकारियों और
तितलियों की इतनी नाज़ुक दुनिया

जन्म से ही वे अपने साथ लाते हैं कपास
पृथ्वी घूमती हुई आती है उनके बेचैन पैरों के पास
जब वे दौड़ते हैं बेसुध
छतों को भी नरम बनाते हुए
दिशाओं को मृदंग की तरह बजाते हुए
जब वे पेंग भरते हुए चले आते हैं
डाल की तरह लचीले वेग से अक्सर
छतों के खतरनाक किनारों तक-
उस समय गिरने से बचाता है उन्हें
सिर्फ़ उनके ही रोमांचित शरीर का संगीत
पतंगों की धड़कती ऊचाइयाँ उन्हें थाम लेती हैं महज़ एक धागे के सहारे
पतंगों के साथ-साथ वे भी उड़ रहे हैं
अपने रंध्रों के सहारे
अगर वे कभी गिरते हैं छतों के खतरनाक किनारों से
और बच जाते हैं तब तो
और भी निडर होकर सुनहले सूरज के सामने आते हैं
पृथ्वीन और भी तेज़ घूमती हूई आती है
उनके बेचैन पैरों के पास।

1976 , कविता संग्रह  : "दुनिया रोज़ बनती है" से

आलोकधन्वा

आलोकधन्वा

परिचय

जन्म : 2 जुलाई, 1948

भाषा : हिंदी

विधाएँ : कविता

मुख्य कृतियाँ

कविता संग्रह : दुनिया रोज़ बनती है

सम्मान

पहल सम्मान, नागार्जुन सम्मान, फ़िराक़ गोरखपुरी सम्मान, गिरिजा कुमार माथुर सम्मान, प्रकाश जैन स्मृति सम्मान

फोन

09931611041



2.

पतंग


अपनी ही नदी के तरंगों में फंसी रेत की तरह

यह एक पतंग है 

जो पत्तों  में उलझकर फड़फड़ा रही है


यह नहीं है इसकी थकान

नए उड़ान की तैयारी है


हवा शिथिल है 

विषाक्त जीवाणुओं से भरे इस समय में 

शिशिर की कठुआती छुवन के बीच 

अभी भी खूब चटकदार हैं इसके रंग


वह जानती है कि बसंत की नर्म हवाओं के भीतर से 

उठेगा कोई हाथ 

जिसका तप्त स्पर्श पा

वह लहरा उठेगी 

एक नए समय में!

(©श्रीप्रकाश शुक्ल : 18/1/2021)


श्रीप्रकाश शुक्ल

श्रीप्रकाश शुक्ल

परिचय

जन्म : 18 मई 1965


भाषा : हिंदी

विधाएँ : कविता, आलोचना

मुख्य कृतियाँ

कविता संग्रह : अपनी तरह के लोग, जहाँ सब शहर  नहीं होता, बोली बात, रेत  में आकृतियाँ, ओरहन और अन्य कविताएँ
आलोचना : साठोत्तरी हिंदी कविता में लोक सौंदर्य, नामवर की धरती 
संपादन : परिचय (साहित्यिक पत्रिका)

सम्मान

मलखानसिंह सिसोदिया पुरस्कार, नरेश मेहता कविता  पुरस्कार (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान)

संपर्क

909 काशीपुरम कॉलोनी, सीर्गोवर्धन वाराणसी, उत्तर प्रदेश -221005

फोन

09415890513

ई-मेल

shriprakashshuklabhu@gmail.com










3.

१).
पतंग : गोलेन्द्र पटेल


पीढ़ी दर पीढ़ी की पीड़ा
परित्रस्त पूर्वजों के पत्र में दर्ज
कन्नी खाती हुई 
मेरी पतंग पढ़ती है 
आसमान में मौन

आँसुओं की बूँदें टपकती हैं
खेतों की दरार में
जड़ें मिट्टी से सोख लेती हैं
किसानी का पसीना
हवा में फैल जाती है
श्रम की गंध
जीवन की डोर खिंचती है पतंग

उमंग उड़ रही है
संबंधों के सारे रंग
बिखर गये हैं
घास में

गेहूँ बिता भर 
बढ़ा है
ठिगना चना संग मटर
खड़ा है
बथुआ खोट कर 
चली है
बूढ़ी माँ घर की ओर
मेंड़ पर
सरसों फूली है
तरुणी तीसी की पत्ती हिल रही है
पास में

धूप खिल गयी है
पेड़ पर
रिश्ते की रेशमी रील
लिपट रहा हूँ
प्रेम के परेते में
चमकती हुई 
चेतना की चमकिदी गुड्डी उड़ रही है
आकाश में

जिस तरह भूख बढ़ने पर खूँटे से बँधी गाय
तोड़ डालती है मजबूत से मजबूत पगहा
ठीक उसी तरह उखड़ कर 
चिड़ियों के भाँति नापना चाहती है धरती 
मेरी पतंग

नहीं नहीं
यह संभव नहीं है
आत्मा पूछती है पीड़ा से
तुम कौन?

मेरी पतंग...!

(©गोलेन्द्र पटेल : 29-12-2020)


२). आसमान में पतंग 

चाह है कि 
पावन पर्व पर प्यार बढ़े
रोष की रस्सी टूटे
प्रसन्नता की पतंग तने आसमान में

चेहरे पर चेतना की चमक चढ़े
बुरी आदत छूटे
सभी सहृदय बने इंसान में

हर कोई खुद को गढ़े
मानवता की महक हरदम जूटे
जिंदगी के जहान में

हर कोई परोपकारिता का पाठ पढ़े
बच्चे खुशियाँ लूटे
समय के सीवान में।

(©गोलेन्द्र पटेल : 14/01/2021)

३).

पीड़ा की पंतग

तकलीफ़ की ताँत में बधी हुई
पीड़ा की पंतग
तनती है जब आसमान में
तब मेरी स्मृति का चाँद
ख़त पढ़ने के लिए
उतर आता है बादलों पर
पर बुरी नज़र की नख़
पढ़ने से पहले ही काट देती है
उसकी प्रसन्नता की पतंग!

रचना : 14-01-2022

गोलेन्द्र पटेल




परिचय

जन्म : 5 अगस्त 1999

भाषा : हिंदी

विधाएँ : कविता , कहानी, आलोचना, उपन्यास एवं अन्य विधाएँ।

संपर्क

ग्राम-खजूरगाँव , पोस्ट-साहुपुरी , जिला-चंदौली , उत्तर प्रदेश , भारत 221009

फोन

08429249326

ई-मेल

corojivi@gmail.com            





"पतंगा" पर केंद्रित कविताएँ

1.

एक पतंगा

इस लोह-खम्भ से एक पतंगा उड़ता हुआ
अभी-अभी टकराया है बुरीतरह

कुछ देर तड़पा और शांत हो गया
मुझे लगा शायद मर गया 

लेकिन नहीं,
थोड़ी देर बाद उसमें हुई थोड़ी हलचल 
खाई अलटी-पलटी पँख फैलाए कोशिश की उड़ने की
कई बार लुढ़का गश्त खाकर
फिर उठा और उड़ा कुछ देर
फिर उठा और उड़ा और कुछ दूर
फिर उठा और और उड़ा अधिक देर
अधिक दूर 

इस बार उठकर उड़ा तो निकल गया कहाँ-का-कहाँ
पता नहीं

कुछ देर बाद उड़कर आए लोह-खम्भ के आसपास 
कुछ वैसे ही पतंगें
कुछ लटके और कुछ जा बैठे लोह-खम्भ के शिखर पर
और नोंचने लगे पाँवों से खम्भ का लोहा

शिनाख़्त बहुत मुश्किल है, कि इनमें तो शामिल नहीं
मौत से टकराकर जीना सीखा है 
जिसने अभी-अभी
एक पतंगा !

                                                     -वसंत सकरगाए-
                                                       23/02/2021


*कवि परिचय : संक्षेप में*


कवि वसंत सकरगाए 2 फरवरी 1960 को हरसूद(अब जलमग्न) जिला खंडवा मध्यप्रदेश में जन्म। म.प्र. साहित्य अकादमी का दुष्यंत कुमार,मप्र साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी सम्मान,शिवना प्रकाशन अंतरराष्ट्रीय कविता सम्मान तथा अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्यिक पत्रकारिता के लिए ‘संवादश्री सम्मान।
-बाल कविता-‘धूप की संदूक’ केरल राज्य के माध्यमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम में शामिल।
-दूसरे कविता-संग्रह ‘पखेरु जानते हैं’ की कविता-‘एक संदर्भ:भोपाल गैसकांड’ जैन संभाव्य विश्विलालय द्वारा स्नातक पाठ्यक्रम हेतु वर्ष 2020-24 चयनित।दो कविता-संग्रह-‘निगहबानी में फूल’ और ‘पखेरु जानते हैं’

संपर्क-ए/5 कमला नगर (कोटरा सुल्तानाबाद) भोपाल-462003


कवि : स्वप्निल श्रीवास्तव

पूर्वी उ प्र के जनपद सिद्धार्थनगर के एक गांव में 05 अक्टूबर 1954 को जन्म । शुरुवाती शिक्षा गांव में हुई । हाई स्कूल इंटर जनपद कुशीनगर के एक कस्बे में । गोरखपुर विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम ए के साथ यल यल बी । उ प्र सरकार में एक अधिकारी के रूप में राज्य के अनेक जनपदों में तैनाती । कवि के साथ कहानी लेखन ।
 कविता संग्रह
ईश्वर एक लाठी है , ताख पर दियासलाई , मुझे दूसरी पृथ्वी चाहिए , जिंदगी का मुकदमा ,जब तक है जीवन
 कहानी संग्रह 
एक पवित्र नगर की दास्तान , स्तूप और महावत 
 संस्मरणों की किताब - जैसा मैंने जीवन देखा ।
 कविता के लिए , भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार के साथ फ़िराक सम्मान , केदार सम्मान , शमशेर सम्मान ।
   तथा रूस का अंतराराष्ट्रीय पुश्किन सम्मान ।
  कविताओं के अनुवाद रूसी नेपाली , बंगाली , मराठी ,पंजाबी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में ।
 फिलहाल सेवानिवृत्त के बाद फैज़ाबाद में स्थायी निवास ।
सम्पर्क -510 -अवधपुरी कालोनी , अमानीगंज 
फैज़ाबाद -224001
मोबाइल - 9415332326


कविता

पतंग उड़ाते बच्चे : स्वप्निल श्रीवास्तव

टेलिफ़ोन के तारों के बीच फँसी हुई है पतंग
बच्चे डोर का आख़िरी सिरा खोज रहे हैं
वे उसे उड़ाएंगे नए आकाश में

पतंग बच्चों के हाथ में है
जिससे वे छुएंगे आकाश
और विद्युत की कंपन महसूस करेंगे अपने शरीरों में
बच्चों के शरीरों में आएगी स्फूर्ति
वे दौड़ेंगे-- इस छत से उस छत
पतंग के साथ

छत पर तमाम बच्चे हैं
आकाश में तमाम पतंगें
माता-पिता मना करते हैं बच्चों को
बच्चे परवाह नहीं करते
वे जोख़िम उठाने के लिए रहते हैं हर वक़्त तैयार

पतंग उड़ाते हुए वे नहीं सोचते कि
उनके पीछे कहाँ ख़त्म हो रही है छत
या ज़मीन पर कहाँ है अन्धा कुँआ
उनकी आँखों में है नीला आकाश
आकाश में तैरती हुई पतंगें
पतंगें-- जैसे ग्लास-टैंक में तैर रही हों
रंग-बिरंगी मछलियाँ

पतंग उड़ाते बच्चे आकाश को भेजते हैं संदेश
कि वे आकाश को जीतने आ रहे हैं

(साभार- कविता कोश)



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★ संपादक संपर्क सूत्र :-

नाम : गोलेन्द्र पटेल

{काशी हिंदू विश्वविद्यालय का छात्र}

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◆ संकलन कर्ता : आलोचक अर्जुन◆



 


Saturday, 20 February 2021

मीरा के गुरु : सद्गुरु संत शिरोमणि रविदास(रैदास) | जयंती स्पेशल

 


मीरा के गुरु : सद्गुरु संत शिरोमणि रविदास(रैदास) 644 वां जयंती स्पेशल 2021 :- 27 फरवरी , शनिवार

हिन्दू कैलेंडर के अनुसार गुरु रविदास जयंती, माघ महीने में पूर्णिमा (माघ पूर्णिमा) के दिन पर मनाया जाने वाला गुरु रविदास का जन्मदिवस है। संत रविदास जयंती शनिवार को हर्षोल्लास के साथ मनाई जाएगी। रविदास के जन्म को रविदास जयंती के रूप में मनाया जाता है। जातिवाद और आध्यात्मिकता के खिलाफ काम करने के कारण रविदास पूजनीय हैं।वह एक आध्यात्मिक व्यक्ति थे। काशी के सीर गोवर्धनपुर गाँव में जन्मे रविदास (रैदास) का समय 1482-1527 ई. के बीच हुआ माना जाता है। एक लोक मत के अनुसार , उनकी माता का नाम श्रीमति कलसा देवी और पिता का नाम श्रीसंतोख दास जी था। सर्वमान्य मत निम्नलिखित है :-

"चौदह से तैंतीस कि माघ सुदी पन्दरास। दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री रविदास।"

पूरा नाम : संत रविदास
अन्य नाम : रामदास , गुरु रविदास , संत रैदास
जन्म : १३९८ ई. (लगभग)
जन्म भूमि : काशी , उत्तर प्रदेश
मृत्यु : १५१८ ई.
अभिभावक : रग्घु और घुरविनिया
पत्नी : लोना
कर्म भूमि : काशी
कर्म-क्षेत्र : कवि
विशेष योगदान : समाज सुधारक
नागरिकता : भारतीय
प्रसिद्ध वाक्य : मन चंगा तो कठौती में गंगा
रचनाएँ : 'रविदास के पद', 'नारद भक्ति सूत्र' और 'रविदास की बानी' 

एक पौराणिक कथा के अनुसार, रविदास जी पिछले जन्म में एक ब्राह्मण थे। अपनी मृत्युसैया पर वह चमार जाति की एक महिला की ओर आकर्षित हो गये, और उन्होंने उस खूबसूरत महिला को अपनी माँ बनने की कामना की। मृत्यु के बाद, उन्होंने उसी स्त्री के गर्भ से रविदास जी के रूप में पुनर्जन्म लिया। वे कबीर जी के समकालीन थे, और अध्यात्म पर कबीर जी के साथ कई संवाद उपलब्ध हैं।

बचपन से ही रविदास साधु प्रकृति के थे और ये संतों की बड़ी सेवा करते थे। इस कारण इनके पिता रघु इन पर अक्सर नाराज हो जाते थे। इनकी संत-सेवा में सब कुछ अर्पित कर देने की प्रवृत्ति से क्रुद्ध होकर इनके पिता ने इन्हें घर से बाहर कर दिया और खर्च के लिए एक पैसा भी नहीं दिया। फिर भी रविदास साधुसेवी बने रहे. ये बडे अलमस्त-फक्कड़ थे। संसार के विषयों के प्रति इनमें जरा भी आसक्ति नहीं थी। ये अपनी गृहस्थी जूता-चप्पल बनाकर अत्यंत परिश्रम के साथ चलाते थे। इनकी पत्‍‌नी भी सती-साध्वी थीं।

भारत संतों की भूमि है। यहां समय-समय पर संतों और ज्ञानियों ने अपने ज्ञान से समाज में विकास की रफ्तार को मजबूत किया और एकता का प्रचार किया है। लेकिन संत बनना भी कोई आसान काम नहीं। इच्छाओं का अंत हो जाने पर ही मनुष्य संत की श्रेणी में आ सकता है।

संत रैदास के 40 सबद गुरूग्रंथ में : 


संत रविदास ने सभी को प्रेम और भाईचारे के साथ रहने की सीख दी। संत रविदास के 40 सबद गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज हैं। जिसका सम्पादन गुरु अर्जुन सिंह देव ने १६ वीं सदी में किया था । उनकी एक कहावत ‘जो मन चंगा तो कठौती में गंगा' काफी प्रचलित है। इस कहावत को जोड़कर एक कथा भी है। कहते हैं कि एक बार एक महिला संत रविदास के पास से गुजर रही थी। संत रविदास लोगों के जूते सिलते हुए भगवान का भजन करने में मस्त थे।

रविदास जी कैसे बने संत

एक कथा के अनुसार रविदास जी अपने साथी के साथ खेल रहे थे। एक दिन खेलने के बाद अगले दिन वो साथी नहीं आता है तो रविदास जी उसे ढूंढ़ने चले जाते हैं, लेकिन उन्हे पता चलता है कि उसकी मृत्यु हो गई। ये देखकर रविदास जी बहुत दुखी होते हैं और अपने मित्र को बोलते हैं कि उठो ये समय सोने का नहीं है, मेरे साथ खेलो। इतना सुनकर उनका मृत साथी खड़ा हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि संत रविदास जी को बचपन से ही आलौकिक शक्तियां प्राप्त थी। लेकिन जैसे-जैसे समय निकलता गया उन्होंने अपनी शक्ति भगवान राम और कृष्ण की भक्ति में लगाई। इस तरह धीरे-धीरे लोगों का भला करते हुए वो संत बन गए। सामाजिक जीवन में जाति व्यवस्था के अनुसार, नीची जाति में जन्मे रविदास जी के विचारों के वजह से पूरे भारत में उनके अनुयायी हैं



मीरा के गुरु थे संत रविदास-
संत रविदास भगवान कृष्ण की परमभक्त मीराबाई के गुरु थे। मीराबाई उनकी भक्ति भावना से प्रभावित होकर उनकी शिष्या बन गई। संत रविदास का मानना था कि अभिमान और बड़प्पन का भाव त्यागकर विनम्रतापूर्वक व्यवहार करने वाला व्यक्ति ही ईश्वर का भक्त हो सकता है। संत रविदास जी ने लोगों को बिना भेदभाव के आपस में प्रेम करने की शिक्षा दी।

मीराबाई ने स्वयं अपने पदों में बार-बार रविदास जी को अपना गुरु बताया है।

“खोज फिरूं खोज वा घर को, कोई न करत बखानी।
सतगुरु संत मिले रैदासा, दीन्ही सुरत सहदानी।।
वन पर्वत तीरथ देवालय, ढूंढा चहूं दिशि दौर।
मीरा श्री रैदास शरण बिन, भगवान और न ठौर।।
मीरा म्हाने संत है, मैं सन्ता री दास।
चेतन सता सेन ये, दासत गुरु रैदास।।
मीरा सतगुरु देव की, कर बंदना आस।
जिन चेतन आतम कह्या, धन भगवान रैदास।।
गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुर से कलम भिड़ी।
सतगुरु सैन दई जब आके, ज्याति से ज्योत मिलि।।
मेरे तो गिरीधर गोपाल दूसरा न कोय।
गुरु हमारे रैदास जी सरनन चित सोय।।”


मन चंगा तो कठौती में गंगा

संत रविदास की अपने काम के प्रति प्रतिबद्धता इस उदाहरण से समझी जा सकती है एक बार की बात है कि रविदास अपने काम में लीन थे कि उनसे किसी ने गंगा स्नान के लिए साथ चलने का आग्रह किया। संत जी ने कहा कि मुझे किसी को जूते बनाकर देने हैं यदि आपके साथ चला तो समय पर काम पूरा नहीं होगा और मेरा वचन झूठा पड़ जाएगा। और फिर मन सच्चा हो तो कठौती में भी गंगा होती है आप ही जाएं मुझे फुर्सत नहीं। यहीं से यह कहावत जन्मी मन चंगा तो कठौती में गंगा।

सामाजिक भेदभाव का विरोध

संत रविदास ने अपने दोहों व पदों के माध्यम से समाज में जागरूकता लाने का प्रयास भी किया। सही मायनों में देखा जाए तो मानवतावादी मूल्यों की नींव संत रविदास ने रखी। वे समाज में फैली जातिगत ऊंच-नीच के धुर विरोधी थे और कहते थे कि सभी एक ईश्वर की संतान हैं जन्म से कोई भी जात लेकर पैदा नहीं होता। इतना ही नहीं वे एक ऐसे समाज की कल्पना भी करते हैं जहां किसी भी प्रकार का लोभ, लालच, दुख, दरिद्रता, भेदभाव नहीं हो।


ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन, पूजिए चरण चंडाल के जो होने गुण प्रवीण : संत रविदास जी ने अपनी वाणी से हमेशा धर्म और जाति के नाम पर होने वाली असमानता को मिटाने की कोशिश की है। वैसे आज के समय में दूसरी जाति के लोगों के साथ असमानता में कमी तो आई है लेकिन स्थिति अब भी संतोषजनक नहीं है। ऐसे में रविदास जी का ये दोहा लोगों को जरूर समझना चाहिए। इस दोहे में उन्होंने कहा है कि मनुष्य की पहचान उसकी जाति से नहीं बल्कि उसके कर्म से होती है।


क्रोध करने से बनते काम भी बिगड़ जाते हैं: आज के समय में गुस्सा लोगों के नाक पर ही बैठा रहता है। ऐसे में रविदास जी का ये दोहा आपको बहुत कुछ सिखा सकता है। रैदास कहै जाकै हदै, रहे रैन दिन राम, सो भगता भगवंत सम, क्रोध न व्यापै काम। इस दोहे में संत रविदास भक्ति की शक्ति का वर्णन करते हैं। उनके अनुसार जिस हृदय में दिन-रात बस राम के नाम का ही वास रहता है, ऐसा भक्त स्वयं राम के समान हो ता है। राम नाम की ऐसी माया है कि इसे दिन-रात जपने वाले लोगों को न तो स्वयं गुस्सा आता है और न ही दूसरों के गुस्से से वो विचलित होते हैं।

रविदास साधु प्रकृति के होने के अलावा समाज के लिए भी बेहद सतर्क रहते थे। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज की बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई।

इनकी रचनाओं की विशेषता लोक-वाणी का अद्भुत प्रयोग था, जिसका मानव धर्म और समाज पर अमिट प्रभाव पड़ता है।'रविदास के पद', 'नारद भक्ति सूत्र' और 'रविदास की बानी' उनके प्रमुख संग्रह हैं।


संत रविदास जी के प्रमुख दोहे-
-जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात, रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात 
-मन ही पूजा मन ही धूप, मन ही सेऊ सहज सरूप  
-करम बंधन में बन्ध रहियो, फल की न तज्जियो आस, कर्म मानुष का धर्म है सत् भाखै रविदास  
-अब कैसे छूटे राम नाम रट लागी  
-हरि सा हीरा छांड के, करै आन की आस

ऐसा चाहू राज मैं, मिले सभी को अन्न।
छोटे-बड़े समबसे, रैदास रहे प्रसन्न॥

प्रभु जी तुम चंदन हम पानी / रैदास


प्रभु जी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग-अंग बास समानी॥
प्रभु जी तुम घन बन हम मोरा। जैसे चितवत चंद चकोरा॥
प्रभु जी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिन राती॥
प्रभु जी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहिं मिलत सोहागा।
प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै 'रैदासा॥

राम बिन संसै गाँठि न छूटै / रैदास

राम बिन संसै गाँठि न छूटै।
कांम क्रोध मोह मद माया, इन पंचन मिलि लूटै।। टेक।।
हम बड़ कवि कुलीन हम पंडित, हम जोगी संन्यासी।
ग्यांनी गुनीं सूर हम दाता, यहु मति कदे न नासी।।१।।
पढ़ें गुनें कछू संमझि न परई, जौ लौ अनभै भाव न दरसै।
लोहा हरन होइ धँू कैसें, जो पारस नहीं परसै।।२।।
कहै रैदास और असमझसि, भूलि परै भ्रम भोरे।
एक अधार नांम नरहरि कौ, जीवनि प्रांन धन मोरै।।३।।

हरि हरि हरि हरि हरि हरि हरे / रैदास

।। राग आसा।।
  
हरि हरि हरि हरि हरि हरि हरे।
हरि सिमरत जन गए निसतरि तरे।। टेक।।
हरि के नाम कबीर उजागर। जनम जनम के काटे कागर।।१।।
निमत नामदेउ दूधु पीआइया। तउ जग जनम संकट नहीं आइआ।।२।।
जनम रविदास राम रंगि राता। इउ गुर परसादि नरक नहीं जाता।।३।।

पांडे कैसी पूज रची रे / रैदास

।। राग सोरठी।।
  
पांडे कैसी पूज रची रे।
सति बोलै सोई सतिबादी, झूठी बात बची रे।। टेक।।
जो अबिनासी सबका करता, ब्यापि रह्यौ सब ठौर रे।
पंच तत जिनि कीया पसारा, सो यौ ही किधौं और रे।।१।।
तू ज कहत है यौ ही करता, या कौं मनिख करै रे।
तारण सकति सहीजे यामैं, तौ आपण क्यूँ न तिरै रे।।२।।
अहीं भरोसै सब जग बूझा, सुंणि पंडित की बात रे।।
याकै दरसि कौंण गुण छूटा, सब जग आया जात रे।।३।।
याकी सेव सूल नहीं भाजै, कटै न संसै पास रे।
सौचि बिचारि देखिया मूरति, यौं छाड़ौ रैदास रे।।४।।

नहीं बिश्रांम लहूँ धरनींधर / रैदास

।। राग विलावल।।
  
नहीं बिश्रांम लहूँ धरनींधर।
जाकै सुर नर संत सरन अभिअंतर।। टेक।।
जहाँ जहाँ गयौ, तहाँ जनम काछै, तृबिधि ताप तृ भुवनपति पाछै।।१।।
भये अति छीन खेद माया बस, जस तिन ताप पर नगरि हतै तस।।२।।
द्वारैं न दसा बिकट बिष कारंन, भूलि पर्यौ मन या बिष्या बन।।३।।
कहै रैदास सुमिरौ बड़ राजा, काटि दिये जन साहिब लाजा।।४।।

त्राहि त्राहि त्रिभवन पति पावन / रैदास

।। राग धनाश्री।।
  
त्राहि त्राहि त्रिभवन पति पावन।
अतिसै सूल सकल बलि जांवन।। टेक।।
कांम क्रोध लंपट मन मोर, कैसैं भजन करौं रांम तोर।।१।।
विषम विष्याधि बिहंडनकारी, असरन सरन सरन भौ हारी।।२।।
देव देव दरबार दुवारै, रांम रांम रैदास पुकारै।।३।।

जग मैं बेद बैद मांनी जें / रैदास


।। राग सारंग।।
  
जग मैं बेद बैद मांनी जें।
इनमैं और अंगद कछु औरे, कहौ कवन परिकीजै।। टेक।।
भौ जल ब्याधि असाधिअ प्रबल अति, परम पंथ न गही जै।
पढ़ैं गुनैं कछू समझि न परई, अनभै पद न लही जै।।१।।
चखि बिहूंन कतार चलत हैं, तिनहूँ अंस भुज दीजै।
कहै रैदास बमेक तत बिन, सब मिलि नरक परी जै।।२।।

माया मोहिला कान्ह / रैदास


।। राग कानड़ा।।
  
माया मोहिला कान्ह।
मैं जन सेवग तोरा।। टेक।।
संसार परपंच मैं ब्याकुल परंमांनंदा।
त्राहि त्राहि अनाथ नाथ गोब्यंदा।।१।।
रैदास बिनवैं कर जोरी।
अबिगत नाथ कवन गति मोरी।।२।।

राम मैं पूजा कहा चढ़ाऊँ / रैदास

राम मैं पूजा कहा चढ़ाऊँ ।
फल अरु फूल अनूप न पाऊँ ॥टेक॥

थन तर दूध जो बछरू जुठारी ।
पुहुप भँवर जल मीन बिगारी ॥१॥

मलयागिर बेधियो भुअंगा ।
विष अमृत दोउ एक संगा ॥२॥

मन ही पूजा मन ही धूप ।
मन ही सेऊँ सहज सरूप ॥३॥

पूजा अरचा न जानूँ तेरी ।
कह रैदास कवन गति मोरी ॥४॥

सो कत जानै पीर पराई / रैदास

।। राग सूही।।
  
सो कत जानै पीर पराई।
जाकै अंतरि दरदु न पाई।। टेक।।
सह की सार सुहागनी जानै। तजि अभिमानु सुख रलीआ मानै।
तनु मनु देइ न अंतरु राखै। अवरा देखि न सुनै अभाखै।।१।।
दुखी दुहागनि दुइ पख हीनी। जिनि नाह निरंतहि भगति न कीनी।
पुरसलात का पंथु दुहेला। संग न साथी गवनु इकेला।।२।।
दुखीआ दरदवंदु दरि आइआ। बहुतु पिआस जबाबु न पाइआ।
कहि रविदास सरनि प्रभु तेरी। जिय जानहु तिउ करु गति मेरी।।३।।

मेरी प्रीति गोपाल सूँ जिनि घटै हो / रैदास

।। राग धनाश्री।।
  
मेरी प्रीति गोपाल सूँ जिनि घटै हो।
मैं मोलि महँगी लई तन सटै हो।। टेक।।
हिरदै सुमिरंन करौं नैन आलोकनां, श्रवनां हरि कथा पूरि राखूँ।
मन मधुकर करौ, चरणां चित धरौं, रांम रसांइन रसना चाखूँ।।१।।
साध संगति बिनां भाव नहीं उपजै, भाव बिन भगति क्यूँ होइ तेरी।
बंदत रैदास रघुनाथ सुणि बीनती, गुर प्रसादि क्रिया करौ मेरी।।२।।

ऐसी मेरी जाति भिख्यात चमारं / रैदास


।। राग आसा।।
  
ऐसी मेरी जाति भिख्यात चमारं।
हिरदै राम गौब्यंद गुन सारं।। टेक।।
सुरसुरी जल लीया क्रित बारूणी रे, जैसे संत जन करता नहीं पांन।
सुरा अपवित्र नित गंग जल मांनियै, सुरसुरी मिलत नहीं होत आंन।।१।।
ततकरा अपवित्र करि मांनियैं, जैसें कागदगर करत बिचारं।
भगत भगवंत जब ऊपरैं लेखियैं, तब पूजियै करि नमसकारं।।२।।
अनेक अधम जीव नांम गुण उधरे, पतित पांवन भये परसि सारं।
भणत रैदास ररंकार गुण गावतां, संत साधू भये सहजि पारं।।३।।

आज दिवस लेऊँ बलिहारा / रैदास

आज दिवस लेऊँ बलिहारा ।
मेरे घर आया रामका प्यारा ॥टेक॥

आँगन बँगला भवन भयो पावन ।
हरिजन बैठे हरिजस गावन ॥१॥

करूँ डंडवत चरन पखारूँ ।
तन-मन-धन उन उपरि वारूँ ॥२॥

कथा कहै अरु अरथ बिचारैं ।
आप तरैं औरन को तारैं ॥३॥

कह रैदास मिलैं निज दासा ।
जनम जनमकै काटैं पासा ॥४॥


निष्कर्षतः :-
असल में संत रविदास को सच्ची श्रद्धांजलि तब होगी जब इस भारत भूमि पर सभी वर्णों, जातियों, समाजों और वर्गों के लोग एक मार्ग पर चलें। रविदास जी के संदेश आज भी हमें समाज कल्याण का मार्ग दिखाते है। संत रविदास ने अपने जीवन के व्यवहार से यह प्रमाणित किया है कि इंसान चाहे किसी भी कुल में जन्म ले लेकिन वह अपनी जाति और जन्म के आधार पर कभी महान नहीं बनता है। इंसान महान तब बनता है जब वह दूसरों के प्रति श्रद्धा और भक्ति का भाव रखते हुए समाज के प्रति अपना जीवन न्योछावर कर दे।

2022 , 2023 ,2024 में रविदास जयंती :-
माघ शुक्ल पूर्णिमा की तिथि अंग्रेजी कलेंडर के अनुसार गुरु रविदास की 645वाँ जन्म वर्षगाँठ 16 फरवरी 2022 ,बुधवार को है इसलिये इसी दिन गुरु रविदास जी का 645 वाँ जन्म वर्षगाँठ मनाया जाएगा , 646वाँ जन्म वर्षगाँठ 5 फरवरी 2023 रविवार को और 647 वाँ जन्म वर्षगाँठ 24 फरवरी 2024 ,शनिवार को मनाया जाएगा।

©गोलेन्द्र पटेल


संदर्भ :-

1.गूगल 

2. विकिपीडिया

3. भिन्न भिन्न ई-न्यूज़पेपर एवं ई-पत्र-पत्रिकाएं

4. सलेब्स बुक

5. एवं अन्य।


नोट :- उपर्युक्त लेख कोई स्वतंत्र लेख न हो कर ; संकलन है जिसे आप नोट्स की तरह पढ़ सकते हैं।



★ संपादक संपर्क सूत्र :-

नाम : गोलेन्द्र पटेल

{काशी हिंदू विश्वविद्यालय का छात्र}

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