Golendra Gyan

Wednesday, 27 October 2021

कविता का किसान : गोलेन्द्र पटेल || kavita ka kisaan : Golendra Patel

 कविता का किसान // गोलेन्द्र पटेल



कविता अत्यंत गतिशील विधा होने की वजह से किसी परिधि विशेष की परिभाषा में स्वयं को कैद होने से मुक्त रखती है और इसकी गतिशीलता की बड़ी विशेषता यह है कि इसकी गति कवि के मन की गति की तरह है। यह हमारी मनुष्यता को बचाये रखने वाली समय की शक्ति है जो कि प्रत्येक मनुष्य के जीवन में किसी न किसी रूप में विद्यमान होकर उसकी सौंदर्यमयी सृष्टि की कल्पना को मूर्तरूप देती है। हमारी जिजीविषा को जिंदा रखने में अहम भूमिका अदा करती है और मनुष्य में जीने की ललक पैदा करती है। यह ललक ही लोक को लक्ष्य तक पहुँचती है और लोग को योग तक। यहाँ हम योगत्रयी की बात कर रहे हैं। जिसके अंतर्गत ज्ञानयोग, कर्मयोग व भावयोग आते हैं। भावयोग को अनुभूति की अभिव्यक्ति की भक्ति की तरह देख सकते हैं। यह अपनी यात्रा में आधुनिकता की आँखों और परंपरा की पुतलियों से जिंदगी के जीवद्रव्य को देखती हुई अविचलाविराम आग बढ़ती रहती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कविता अपने समय और समाज की परिवेशगत उपज होने के साथ-साथ जीवन की यात्रा में जिम्मेदारी की ज्योति है।


संस्कृत साहित्य से लेकर हिन्दी-अंग्रेजी के तमाम विद्वानों ने काव्य के विविध रूपों पर चर्चा-परिचर्चा एवं विचार-विमर्श किये हैं। यहाँ हम काव्य का संदर्भ कविता से ले रहे हैं। आलोचकों ने भी आलोचना की आलोकित दृष्टि से कवियों की कला व कौशल की खुब प्रशंसा की और करते रहेंगे। बस, कविता में वे तत्व व तथ्य मौजूद होने चाहिए जो सृष्टि के जीवन को सौंदर्यता प्रदान करने में सक्षम हों। परंतु आज का दौर कविता की बाढ़ का दौर है। ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं कि इस समय हमें सोशल मीडिया पर संवेदना का समुद्र दिखाई दे रहा है। जहाँ सुकवियों का मोती व शंख हैं तो कुकवियों का घोंघा व कंख भी। इस दैन्य दैनिकी दृश्य से हम अच्छी कविता और अच्छे कवि का चुनाव करने में काफी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। नवोदित कवियों की रचनाधर्मिता की प्रतियोगिता में प्रतिष्ठित कवि भी अपने कवि-कर्म से विमुख होते हुए दिखाई देते हैं। कुछ तो अपने समकालीन रचनाकारों के होड़ में जीतोड़ लगे हुए कि वे हमसे अधिक रचना कैसे कर सकते हैं। वे हमसे अधिक पुस्तकें कैसे लिख सकते हैं या सकती हैं? और विडंबना यह है कि इन्हीं प्रतिष्ठितों के चक्कर में प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाएँ नवोदित रचनाकारों की प्रतिष्ठित रचनाओं को छाप भी नहीं रहे हैं। संभवतः आप कुछ के संपादकीय दृष्टि से परिचित भी हैं। ऐसे में यदि कोई संपादक किसी नवोदित रचनाकार से उसकी रचनाओं को माँग कर और अपने मार्गदर्शन के साथ छापता है। तो हमें अत्यंत खुशी होती है और हम उन्हें ही अपने समय का सच्चा संपादक समझते हैं।


चेतना का चित्र संकेतधर्मिता के साँचे में प्रस्तुत करने वाली शक्ति है कविता। जो गद्य की सपाटबयानी से परे संवेदनागत सर्जनात्मक संसार का संवेदन है और यहाँ जो गूँज है वह कल्पना और यर्थाथ के संगम पर सुनाई देने वाला समय का स्वर है। कवि के शब्दों में उसके युग का ताप होता है जिसकी वजह से उसकी अभिव्यक्ति में आँच महसूस होती है। जहाँ आँच उसकी शितलता का पूरक है। जिसे मैं जीवन रूपी जल के दर्पण में देख रहा हूँ और मेरे भीतर का कवि मुझसे कह रहा है कि जैसा दौर होता है वैसा दर्पण होता है और इस दर्पण का निर्माण रचनाकार की मानवीय दृष्टि करती है। जिस रचनाकार की दृष्टि जितनी अधिक दीर्घी होगी उसका दर्पण उतना ही अधिक मजबूत और टिकाऊ होगा। यानी किसी भी रचनाकार का दृष्टिकोण ही उसे दीर्घजीवी बनाता है और उसकी रचना को दीर्घजयी। दुनिया की हर चीज रचनात्मक भूमि का बीज है। बसरते उसे बोने से पहले कोई रचनाकार अपनी भूमि को अपने श्रम से कितना उपजाऊ बनाया है और बोने के बाद उसकी कितनी देखभाल करता है। एक बात और कि उस बीज का भावी भविष्य मौसम पर निर्भर करता है। जिसे मैं मानस का मौसम कहता हूँ। दरअसल मनुष्य की अनुभूति की अभिव्यक्ति में परिवर्तन की प्रक्रिया का वह समय जब इसका मानसून मन को विचलित करता है तब कोई बीज अंकुरित हो रहा होता है। जो आगे चलकर उस भूगोल को उम्मीद की उपज देता है। जहाँ उसे उगाया गया है।


इस उगाने की चाहत में चित्त चयन करता है कविता का उर्वर प्रेदश। इस प्रदेश में नये किसानों के लिए बहुत सारी समस्याएं हैं, चुनौतियाँ हैं। लेकिन जो अपने पूर्वजों से कृषि का संस्कार ग्रहण किया है या कि उनके साथ रहा है उसे उतनी दिक्कत नहीं होगी। जितनी परेशानी सामान्य नवोदित कृषक को होती है। खैर, इस मामले में तो मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मेरे अनेक अनुभवी मार्गदर्शक हैं जिन्हें आप कविता का किसान कह सकते हैं। जिनके जीवन से मैं सीख रहा हूँ कविता की खेती करना। इसलिए मेरी कविताओं के केंद्र में गाँव की गाथा होती है, मिट्टी की मिठास होती है और खेतों की ख़ुशबू होती है। ऐसा नहीं है कि शहर मेरे यहाँ गायब है। वह भी उतना ही है जितना गाँव है। जब गाँव का धुआँ और धूल शहर जाती है। उस शहर, जहाँ फ़सल का मूल्य तय होता है तो किसान की मृत्यु दर बढ़ जाती है। तब उस शहर के प्रति और शहर के शिक्षितों के प्रति मेरे कवि की दृष्टि थोड़ी रूखी हो जाती है। असल में यहाँ रूखा होना प्रतिरोधी होना है और प्रतिरोधी होना पीड़ा से परिचित होना है। जाहिर सी बात है कि जो पीड़ित है वह प्रतिरोध का स्वर अपनायेगा ही और समाज के नीचले तबके लोगों के प्रति उसकी साहनुभूति होगी। एक तरह से कह लिया जाये तो वह दमित, दलित, शोषित, उपेक्षित, मजदूर, मजबूर गरीब किसान, कोयरी, कुर्मी, कुम्हार, लोहार, चमार, चूड़ीहार, गोड़, नट, मुसहर एवं धोबी-खटिक आदि की आवाज़ है। बहरहाल एक कवि का वक्तव्य उसकी कविताएँ ही होती हैं।


©गोलेन्द्र पटेल

     ■■★■■ संक्षिप्त परिचय :-


नाम : गोलेन्द्र पटेल

उपनाम : गोलेंद्र ज्ञान

जन्म : 5 अगस्त, 1999 ई.

जन्मस्थान : खजूरगाँव, साहुपुरी, चंदौली, उत्तर प्रदेश।

शिक्षा : बी.ए. (हिंदी प्रतिष्ठा) , बी.एच.यू.।

भाषा : हिंदी

विधा : कविता, कहानी व निबंध।

माता : उत्तम देवी

पिता : नन्दलाल

पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन :

कविताएँ और आलेख -  'प्राची', 'बहुमत', 'आजकल', 'व्यंग्य कथा', 'साखी', 'वागर्थ', 'काव्य प्रहर', 'प्रेरणा अंशु', 'नव निकष', 'सद्भावना', 'जनसंदेश टाइम्स', 'विजय दर्पण टाइम्स', 'रणभेरी', 'पदचिह्न', 'अग्निधर्मा', 'नेशनल एक्सप्रेस', 'अमर उजाला', 'पुरवाई', 'सुवासित' आदि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित।


विशेष : कोरोनाकालीन कविताओं का संचयन "तिमिर में ज्योति जैसे" (सं. प्रो. अरुण होता) में मेरी दो कविताएँ हैं।


ब्लॉग्स, वेबसाइट और ई-पत्रिकाओं में प्रकाशन :-

गूगल के 100+ पॉपुलर साइट्स पर - 'हिन्दी कविता', 'साहित्य कुञ्ज', 'साहित्यिकी', 'जनता की आवाज़', 'पोषम पा', 'अपनी माटी', 'द लल्लनटॉप', 'अमर उजाला', 'समकालीन जनमत', 'लोकसाक्ष्य', 'अद्यतन कालक्रम', 'द साहित्यग्राम', 'लोकमंच', 'साहित्य रचना ई-पत्रिका', 'राष्ट्र चेतना पत्रिका', 'डुगडुगी', 'साहित्य सार', 'हस्तक्षेप', 'जन ज्वार', 'जखीरा डॉट कॉम', 'संवेदन स्पर्श - अभिप्राय', 'मीडिया स्वराज', 'अक्षरङ्ग', 'जानकी पुल', 'द पुरवाई', 'उम्मीदें', 'बोलती जिंदगी', 'फ्यूजबल्ब्स', 'गढ़निनाद', 'कविता बहार', 'हमारा मोर्चा', 'इंद्रधनुष जर्नल' , 'साहित्य सिनेमा सेतु' इत्यादि एवं कुछ लोगों के व्यक्तिगत साहित्यिक ब्लॉग्स पर कविताएँ प्रकाशित हैं।


प्रसारण : राजस्थानी रेडियो, द लल्लनटॉप , वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार एवं अन्य यूट्यूब चैनल पर (पाठक : स्वयं संस्थापक)

अनुवाद : नेपाली में कविता अनूदित


काव्यपाठ : मैं भोजपुरी अध्ययन केंद्र (बीएचयू) में तीन-चार बार अपनी कविताओं का पाठ किया हूँ और 'क कला दीर्घा' से 'साखी' के फेसबुक पेज़ पर दो बार लाइव कविता पाठ। अनेक राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय काव्यगोष्ठी में।


सम्मान : अंतरराष्ट्रीय काशी घाटवॉक विश्वविद्यालय की ओर से "प्रथम सुब्रह्मण्यम भारती युवा कविता सम्मान - 2021" और अनेक साहित्यिक संस्थाओं से प्रेरणा प्रशस्तिपत्र।


संपर्क :

डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।

पिन कोड : 221009

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com

Sunday, 17 October 2021

"सतरंगी संवेदना" :: मैं अपनी माँ को छल रहा हूँ : वसंत सकरगाए {©Vasant Sakargaye} | गोलेन्द्र पटेल

 

                                       {चर्चित कवि व लेखक : वसंत सकरगाए}

{आज यहाँ अहिन्दी भाषी एवं विदेशी (मारीशस ,सिंगापुर व नेपाल आदि) साहित्य प्रेमियों/साथियों के माँग पर आत्मीय कवि वसंत सकरगाए की कविताएँ प्रस्तुत करते हुए मुझे अत्यंत आनंद की अनुभूति हो रही है...|खैर|}


1).

*जग़ह*

                         

पायदान पर पाँव रखा ही था और 

तुम लोगों ने उसे रोक दिया बस में चढ़ने से

कहकर कि सीट खाली नहीं है!


हालाँकि बहुत मिन्नते कीं उसने

किसी से नहीं कहेगा थोड़ा-थोड़ा खिसकने को

तुम्हारी निर्धारित जग़हों के बीच

नहीं बनाएगा कोई जग़ह अपने लिए


मुँह से मुँह मिलाकर

कोई खलल नहीं डालेगा तुम्हारी बातों में

बल्कि तुम्हारी सीट के ऊपर बने केबिन से

तुम्हें ज़रूरत होगी अपने सामान से किसी चीज़ की

तुम्हें ज़हमत नहीं उठानी पड़ेगी

हिचकोले खाते हुए खड़े होने की

उतारकर तुम्हें दे देगा तुम्हारा सामान

एक कृतज्ञ की भाँति


बावजूद इसके कि तुम्हें ज़रा भरोसा नहीं उस पर

मगर एक पक्के भरोसे की तरह वह

तुम्हें थाम लेगा सामान उतारते वक़्त

अपने किसी सहयात्री

पर गिरते समय


पर तुम्हें लगा, रेलिंग पकड़कर खड़ा यह ठूँठ 

तुम्हें देखने नहीं देगा

एक-दूसरे को


वह देखता रहा बस को 

आँखों से ओझल होने तक

और तुमने पलटकर भी नहीं देखा

एक आदमी कितना वंचित हो गया जीवन से


यह आख़िरी बस थी 

और उसे

अपने घर लौटना था!

रचना : 18/10/2021



2).

* मैं अपनी माँ को छल रहा हूँ *


बचपन में जो-जो छल-कपट माँ ने किए मुझसे

अब उसका सारा हिसाब 

चूकता कर रहा हूँ माँ से


वे तमाम चीज़ें जो सख़्त नापसंद थीं खाने में मुझको

जिन्हें देखते ही मुँह फेर लेता था दूसरी तरफ़

उसी तरफ़ से कोई ज़ाएकेदार छलावा  

ईज़ाद कर लेती थी माँ

मेरी अच्छी सेहत के ख़ातिर


आटे में गूँद देती थी घिसकर रात का गला बादाम

इतना महीन पिसती थी अखरोट की गिरियाँ

कि संभव न था तरकारी के रसे में उसकी शिनाख़्त करना

कटोरे भर-भर खीर पी जाता था

मगर पता नहीं चलता था कि इसमें घुला है

लाल मस्से जैसा चिंरोजी का बीजा


दवाई की शीशियों में अनार-मौसम्बी का रस भर देता हूँ

दूध में घिसकर बादाम

माँ कहती है सिर्फ़ दो मुनक्का और मैं

तवे पर गर्म करते समय

छ: मुनक्कों की बनाता हूँ दो परतें


माँ तुम्हीं तो कहती हो

जैसा देव 

वैसी पूजा!

                                 रचना : 15/ अक्टूबर/2021



3).

*स्मृतिशेष बरगद*


किसी ने दिया हो कुछ भी नाम उसे

अनुरूप काम के अपने बनाया हो धाम उसे

पर मुझे बहुत माक़ूल लगा

उसे कहना

प्रतीक्षालय !


अधीन नहीं था वो किसी घर-आँगन का

पर सुनता था दु:ख-सुख

राष्ट्र, समाज और कितने ही बाखल-बरामदों का

कि जटाओं से जिसकी लूम-झूम लेते थे

स्कूल आते-जाते कितने ही बच्चे

कि स्त्रियों ने बाँध रखी थीं

तन पर जिसके कच्चे सूत की पक्की मन्नतें

कि ताज की तरह ही उसके भी तन पर

उकेरे गए कितनी ही मुमताजों के नाम

कि जिसके पत्ते-पत्ते पर गूँजते रहे

परिंदों की प्रणय-लीलाओं के गीत-मधुर

कि चुनावों में उसके देवत्व की लेकर शपथ

दिए गये झूठे आश्वासन

कि राष्ट्रीय समस्याओं पर आड़ से उसकी

शब्दवीरों ने छोड़े तीर भोथरे

कि चाल-ढाल में बेढब निपट लोगों तक ने

बैठकर नीचे उसके कोसा,समय के ढब को कितनी ही बार

कि जिसके साये में पनपी तक नहीं

जातपात धर्मभेद की कोई मीमांसा कभी


और क्या प्रमाण दूँ कि वो था कितना व्यवाहरिक!

वो एक जीवंत प्रतीक्षालय था

कुछ ग्रामीण बस-यात्रियों का

अंधाधुंध विकास के हाथों

जिबह किया गया जिसे

दिन दहाड़े एक दिन


फ़िलहाल जो बस-यात्री हैं विस्थापित

उनके लिए  प्रस्तावित है

प्रायोजक किसी निजी बड़ी  कम्पनी का यह विज्ञापन

कि आकर्षक रंग-रोगन और सुविधाओं से लैस

बनेगा एक प्रतीक्षालय

स्मृतिशेष उस विराट बरगद की जग़ह

जिसकी उखड़ी-बिखरी यहाँ-वहाँ पड़ी जड़ों में

उखड़-बिखर गई हैं हाल-फ़िलहाल

प्राकृतिक बोध, परम्परा की मजबूत जड़ें


एक अदृश्य में दृष्टिगत और स्पष्ट है जो

आसन्न किसी नए भ्रष्टाचार की

जड़रहित अमरबेल की अदृश्य जड़ें

जो जमती हैं प्रायः

किसी विराट चरित्र को काटकर ही

खड़े-खड़े

देखते-देखते ही।

                              ('निगहबानी में फूल' से)


4).

*मेरे तकिए में डाकिया रहता था*


पिंजारे के पास अपना तकिया ले जाता हूँ और कहता हूँ धून दो इसके कपास का रेशा-रेशा

अर्से से परेशान हूँ कि कहाँ ग़ायब हो गया पता नहीं

कि इसके भीतर कभी एक डाकिया रहता था


पिंजारे की हैरत भरी नज़रों को खूब समझता हूँ

मगर अब बड़ा मुश्किल है उसे समझा पाना

कि इस तकिए से निकलकर एक डाकिया

अक्सर मेरे सपनों में आता था

पत्र-पत्रिकाओं का एक पुलिंदा 

स्वीकृत-अस्वीकृत रचनाओं की चिट्ठियाँ

और छपी रचनाओं का मानदेय

मनीऑर्डर फॉर्म पर दस्तख़त लेकर दे जाता था

वह तो वापस चला जाता था लेक़िन

उसके दिए रुपये और चिट्ठियों को अक्सर

अपने इसी तकिए के नीचे रख लेता था

और अपनी इसी ख़ुशबू में छुपकर

एक डाकिया मेरे तकिए में रह जाता था


दूसरों के सुख-दुख बाँटते-बाँटते 

कभी फुर्सत में होता तो अपना दुखड़ा सुनाता था 

कि चढ़ना-उतरना होता है दस-दस माले

सुरसा की तरह बढ़ते इस शहर के मुँह में 

उसकी हैसियत मच्छर जैसी

इस मोहल्ले में ऐसा कौन था जिसे वह नहीं जानता था

और पूरा मोहल्ला उसे जानता था

वह हर घर का पारिवारिक सदस्य होता था


ईमेल व्हाट्सएप मैसेज मैसेंजर और 

ऑनलाइन पेमेंट के इस दौर में

अर्सा हुआ दिखा नहीं डाकिया

आता होगा तो सिक्युरिटी-गार्ड ले लेता है चिट्ठी-पत्री


एक डाकिया कभी मेरे तकिए में रहता था

और अक्सर मेरे सपनों में आता था

रचना : 09/10/2021



5).

*मैं तुम्हारा अपराधी हूँ माँ!*


अस्पताल के बिस्तर पर 

यह जो रह-रहकर तुम चीख़ रही हो माँ!

हड्डियों के दर्द से तड़पकर

इस दर्द से बावस्ता

कितनी ही तारीख़ें चीख़ रही हैं मेरे भीतर

और मेरी पलकें भींग रही हैं बारहा


और कितना ज़ालिम खूँखार यह दर्द तुम्हारा 

कि देखते ही तान देता है 

अस्थिरोग विशेषज्ञ पर बंदूक

और वह हाथ खड़े कर देता है


मैं तुम्हारी प्रथम प्रसव-पीड़ा का कारण 

कि मेरे जन्म के दौरान

तुम्हारी हड्डियों में पैबस्त हुआ होगा यह दर्द पहली बार

मानो टूट ही गई थी

तुम्हारी देह की एक-एक हड्डी


तुम्हारी हड्डियों रक्त माँस-मंजा से निर्मित 

कि चीख़ना चाहूँ तो चीख़ नहीं पाता हूँ

इतना लाचार बेबस निरुपाय 

मैं तुम्हारा अपराधी

मुझे क्षमा कर दो

माँ!

रचना : 30/सितम्बर/2021



6).

*मेरी प्रिय पुस्तक*


कितनी तो जुगत की और क्या-क्या नहीं किए धतकरम 

हाथोंहाथ उठवायी,बिकवायी चेले-चपाटियों से

शोधार्थियों से अकाल पड़वाया 

छपे कई-कई संस्करण 

क्या संतरी और क्या मंत्री

किसके नहीं लगाए चक्कर

यहाँवहाँ पुस्तक खपवायी

बचा नहीं कोई विश्वविद्यालय-पुस्तकालय


कहाँ नहीं आया पहाड़-झरना

रसूल हमज़ातोव का उकाब बैठाया डाल पर

पिरोये इतने सूत्र जैसे रिल्के की चिट्ठियाँ 

और चीफ की दावत का मर्म कहाँ परोसा नहीं

छत्तीस पकवानों से भरे थाल में 

दुबका रहा एक कली अचार

चाटुकारिता के लिए 


छूटा नहीं कोई सिद्ध आलोचक 

तुलसी ग़ालिब टॉलस्टॉय चेखव नेरुदा की

जिसने नहीं दी दुहाई 

गढ़े नहीं कसीदे


और इस साहित्य-समर में कौन ऐसा प्रतिस्पर्धी

जहाँ न मिले पानी

ऐसी जग़ह जिसे निपटाया नहीं


पर,हाय री क़िस्मत!

किसी भी पाठक की "प्रिय पुस्तक"

हो न सकी-

'मेरी पुस्तक' !                                      

                                           रचना : 29/09/2021

लिंक :-  https://youtu.be/Fb5mddPCT80

7).

*निर्भीकता एक ज़िद है*


मुझे पता है धँस सकती ज़मीन और 

मेरा घर हो सकता है धराशायी

इसका मतलब यह तो नहीं

मैं छोड़ दूँ घर बनाना


मुझे पता है धँस सकती है सड़क 

हो जाऊँ जम़ीदोज़,लौटकर न आऊँ घर

इसका मतलब यह तो नहीं

निकलूँ ही नहीं घर से


गोली लगने से एक पक्षी

मर जाता है आसमान में

इसका मतलब यह तो नहीं

पक्षी बंद कर देते हैं उड़ना


हर भय के विरुद्ध एक ज़िद है

निर्भीकता!

रचना : 16/09/2021


■■■★★★■■■



संक्षिप्त परिचय :- कवि वसंत सकरगाए 2 फरवरी 1960 को हरसूद(अब जलमग्न) जिला खंडवा मध्यप्रदेश में जन्म। म.प्र. साहित्य अकादमी का दुष्यंत कुमार,मप्र साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी सम्मान,शिवना प्रकाशन अंतरराष्ट्रीय कविता सम्मान तथा अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्यिक पत्रकारिता के लिए ‘संवादश्री सम्मान।

-बाल कविता-‘धूप की संदूक’ केरल राज्य के माध्यमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम में शामिल।

-दूसरे कविता-संग्रह ‘पखेरु जानते हैं’ की कविता-‘एक संदर्भ:भोपाल गैसकांड’ जैन संभाव्य विश्विलालय द्वारा स्नातक पाठ्यक्रम हेतु वर्ष 2020-24 चयनित।दो कविता-संग्रह-‘निगहबानी में फूल’ और ‘पखेरु जानते हैं’


संपर्क-ए/5 कमला नगर (कोटरा सुल्तानाबाद) भोपाल-462003

मो.नं. : 9893074173

ईमेल : vasantsakargaye@gmail.com

                              {ई-सम्पादक : गोलेन्द्र पटेल}

★ संपर्क सूत्र :-

नाम : गोलेन्द्र पटेल

{कवि , लेखक व सम्पादक : साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक ,

 काशी हिंदू विश्वविद्यालय का छात्र}

संपर्क :
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पिन कोड : 221009
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Friday, 15 October 2021

"श्रीप्रकाश शुक्ल : कविता का समुज्ज्वल पक्ष और कोरोजीविता" :: गोलेन्द्र पटेल

कविता का समुज्ज्वल पक्ष और कोरोजीविता// गोलेन्द्र पटेल



इकीसवीं सदी की त्रासदी की तान का जन्म कोई आकास्मिक घटना नहीं है बल्कि इसका बीज महामारियों के ऐतिहासिक जमीन में कई सदी पूर्व ही अंकुरित हो चुका था पर वह पल्लवित और पुष्पित नहीं हुआ और यह जन्म के ज्वर को सहन न कर सकने की वजह से शीघ्र ही महामारी की मिट्टी में मुँह के बगल लम्बे समय के लिए सो जाती थी पर सर्जनात्मकता की सृष्टि में संवेदना की शीतलता व उष्णता, अनुभूति की आर्द्रता और सर्जक की छींक से कभी-कभी कुछ समय के लिए जग जाती थी। कोरोनाकाल में इसी तान की तरंग कविता की ताकत बनकर संसार में गूँज रही है और यही ताकत जिन कविताओं में पायी जा रही है उसे आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल 'कोरोतान' के अंतर्गत रखते हुए, सुतर्क की कसौटी पर 'कोरोजीवी कविता' की सैद्धांतिकी निर्मित कर रहे हैं। जिसका हिन्दी जगत ही नहीं बल्कि गैर हिन्दी जगत भी खुलकर स्वागत कर रहा है। 


आगे आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल इस कोरोजयी सिद्धांत को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि "इस कोरोजीवी कविता का महत्व इस कारण से नहीं है कि यह महामारी के बावजूद लिखी जा रही है जिसमें युगबोध की उपस्थिति तो है ही, साथ ही साथ इतिहासबोध की नयी अंतर्दृष्टि भी है।" इस संदर्भ में 'क्षीरसागर में नींद' संग्रह की कविता "संभवतः" की निम्नलिखित पंक्तियों को देखिये :-

"जब-जब इतिहास को नये तथ्यों की जरूरत महसूस हुई है/

यह सम्भवतः ही है जिसने सम्भव किया है/

मनुष्य के लिए एक नया इतिहास!" ('क्षीरसागर में नींद' / 31)


तो आइए, अब हम सब मिलकर महामारी से पूर्व गुरुदेव की दृष्टि पर अपनी पैनी दृष्टि डालते हैं और एकटक देखते हैं उनकी कविताओं को, कि कैसे वे अपनी कविताओं में भावी त्रासदी को दर्ज करते हुए नज़र आ रहे हैं। 


"घर में कितने ही वायरस का प्रवेश है" ('बोली बात' / 80)

"उनके घर में बच्चा उनका कितना बीमार है/

पत्नी उसकी इस बीमारी पर अपनी बीमारी कितना भूल चुकी है/

इससे कुछ भी लेना-देना नहीं है उन्हें" (('बोली बात' / 96)

"यह मित्रताओं के टूटने का समय है'/.../ 

'तब कमरे में बिखरे अखबारों के बीच/ 

गिरे किसी लिफाफे के वजूद की तरह/ 

टूटेगी हमारी मित्रता'/.../ 

'तब हमारी मित्रता के टूटने के दिन होंगे" ('बोली बात' / 14)


"महाश्मशान की लपटों में कितनी आर्द्रता है" ('बोली बात' / 112)


"बाढ़ आए

बादल फटे

सूखा पड़े

फसल सूखे

किसान मर जाएँ

महामारी घर कर जाए" ('क्षीरसागर में नींद' / 77)


मास्क , फेसशील्ड , सोशल टिस्टेंशिंग, स्प्रेडर, सुप्ररस्प्रेडर , क्वारंटाइन, सेनेटाइजर , लॉक डाउन, फ्रंटलाइन वारियर ,  होम डिलेवरी , वर्क फ्राम होम , ऑनलाइन क्लासेज ,ऑक्सीजन, वेबिनार, शव, श्मशान, कबरिस्तान, मेडिकल व दवाओं का नाम आदि शब्दों के प्रयोग करने से कोई कविता 'कोरोजीवी कविता' नहीं होती है बल्कि इन सबके बजाय उसमें कोरोजीविता का तत्व होना चाहिए। ऐसा नहीं है कि यह तत्व कोरोनाकाल से पहले की कविताओं में मौजूद नहीं है। जो भी कोरोजयी कवि है यह तत्व उनके यहाँ पहले से ही मौजूद है। जिसका जीता जागता उदाहरण स्वयं सिद्धांतकार श्रीप्रकाश शुक्ल हैं। यदि आपको कोरोजीविता के तत्वों को बारिकी से समझना है तो आप सिद्धांतकार के साथ-साथ आचार्य अरुण होता एवं युवा आलोचक अनिल कुमार पाण्डेय के लेखों को पढ़ सकते हैं। 


एक ओर कोरोजीवी कविता समय की शहनाई का स्वर है तो दूसरी ओर ढोलक की धधकती ध्वनि है और जहाँ परिवेशगत संलग्नता में सभ्यता व संस्कृति का संगीतात्मक समन्वय इसकी विशेषता का चरम विकास है। जो पूर्ववर्ती काव्यपरंपरा में छायावाद से अधिक विकसित है, छायावादी कवियों के यहाँ भी दुःख है पर यह उनका स्थाई भाव नहीं। जो है कि हम कोरोजयी कवियों के यहाँ इसे देख रहे हैं। अतः प्रकृति की सूक्ष्म चेतना का परम प्रसार ही बुद्धि के विस्तार का समुज्ज्वलतम पक्ष है जिसका आधार मानवीय जिजिविषा है। हम कह सकते हैं कि कोरोजीवी कविता साहसपूर्ण आनंद की अनुभूति की अभिव्यक्ति है और इसके सर्जक निराशा में निराकरण कवि हैं। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि जब संवेदना संक्रमित हो रही हो, तब कविता में केवल उत्साहधर्मिता, कविता की प्रकृति को क्षति पहुँचाती है। जिसे कोरोजयी सर्जक अपने-अपने भूगोल व वय के अनुसार शक्ति में परिवर्तित करते हुए नज़र आ रहे हैं और यही इनकी कविता की ताकत भी है जो जड़ता को जड़ से उखाड़ने के बजाय पहले उसकी शाखाओं को, फिर तने को, फिर जड़ को क्रमशः काट रही है। यानी यह लोकधर्मिता के संस्कार से उपजी उम्मीद की कविता है और इसकी पहचान ही इसकी गतिशीलता है। 


कुछ हैं जो कुछ करते तो नहीं है पर यहाँ-वहाँ इनसे-उनसे शिकायत करते रहते हैं और वे अपनी ऊर्जा का उपयोग उगाने में नहीं, बल्कि उगे हुए को नष्ट करने में लगाते हैं ताकि इतिहास उन्हें भी याद रखे। जैसा कि आप कोरोनाकाल में ही नहीं, बल्कि हर संकट के समय में उन्हें देखते हैं।


आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल की एक कविता है 'शिकायत'। जो इसी विडंबना को दर्ज करनेवाली सजीव दहकती हुई लपट की तरह है, जो कोरोनाकाल से बहुत पहले लिखी गयी थी। जिसकी आँच उन्हें एकबार में सुधारने में सक्षम है। जिसकी निम्नलिखित पंक्तियों के जरिये, आप समझ सकते हैं। वे लिखते हैं कि 

"मुझे शिकायत है उन बहुत सारे लोगों से/

सारा जीवन करते रहे शिकायत जो/

कभी स्वयं से/

कभी समाज से" ('बोली बात' / 28)


पहली लहर से लेकर दूसरी लहर तक 'लौटना' नामक खतरनाक क्रिया की दहशत से हम सभी लोग भली-भाँति परिचित हैं और यह क्रिया हर रचनाकार के यहाँ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मौजूद है। जो मजदूर शहरों में कई वर्षों से रह रहे थे। कुछ के तो अपने निजी घर थे पर वे भी अपनी पुस्तैनी घर लौट रहे थे। लौटने की प्रक्रिया में छूटने का जो दुःख होता है। उसे एक कोरोजयी कवि कोविडकाल से पहले कैसे महसुस कर कर अपनी कविता में ढ़ालता है यह काबिल तारीफ है। गुरुवर लिखते हैं कि "जिस मकान में हम वर्षों से रह रहे थे/

जब उसके छूटने की बारी आई/

तब बिदा होती बेटी की तरह/

हमारे भीतर कुछ टूट रहा था" ('बोली बात' / 25)


इसकी परिधि पर नहीं बल्कि केंद्र में स्पर्श की स्पर्धा है। जो एक तरह की मनोवैज्ञानिक भूमि का निर्माण करती है। जिसकी मिट्टी मानवता की मिट्टी की तरह उपजाऊ है। इसके बीज 'श्रम', 'संघर्ष', एवं 'प्रयत्न' आदि होने के कारण केवल उग ही नहीं रहे हैं बल्कि विमर्श का विशाल वृक्ष उन 'भूखे', 'थके', 'हारे' आदि लोगों के लिए बन रहे हैं। जो इसके 'फल','फूल' एवं 'छाया' आदि के अधिकारी हैं। इस संबंध में आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल कहते हैं कि "यह जो कोरोजीवी कविता है, प्रतिभा से अधिक, श्रम के महत्व की शिनाख्त करने वाली कविता है।" अर्थात् इसमें श्रम का सौंदर्य और संवेग की सुगंध दोनों एक साथ मौजूद हैं। अतः हम कह सकते हैं कि 'कोरोजीवी कविता' केवल कहने वाली ही नहीं है बल्कि करने वाली भी है।


सभ्यता व संस्कृति के समन्वय का संगीतात्मक रस, राजनीति का द्वंद्वात्मक राग तथा अनुभूति के अनुराग से लबालब भरी है 'कोरोजीवी कविता'। यदि हम जिज्ञासा की भाषा में कहें तो यह कह सकते हैं कि चेतना की चित्रात्मक अभिव्यक्ति ही संकट के समय में सर्जक का मूल स्वर होता है। अतः यह चुनौतियों के विरुद्ध चमक की कविता है। जहाँ उम्मीद की उजाला स्थाई है और वहीं पर 'कोरोजयी कवि' क्रमशः 'लोकधर्मी', 'क्रांतिधर्मी' एवं 'युगधर्मी' के रूप में उपस्थित है। जिसकी मानवीय संवेदना भय की भूमि में हताश, उदास, निराश, दीन-दुखी एवं असहाय मनुष्य के भीतर उम्मीद, उजास, आशा, सम्भावना,एवं जिजीविषा को जन्म देने वाली है। जब-जब मनुष्यता पर आफ़त आयी है कला, साहित्य एवं संस्कृति के शुभचिंतकों ने अपनी अहम भूमिका निभाये हैं। रचनात्मकता का रूप निखरा है और संवेदनशीलता का स्वरूप सार्थकता के साँचे में ढला है। अर्थात् समाज में सृजनात्मक सजगता बढ़ी है।


तीसरी लहर के दौरान महामारी के महासागर में शवों को तैरते हुए तथा श्मशान में चिता के लिए कम पड़ी लकड़ी का दर्दनाक दृश्य को हमने अपनी आँखों से देखा है। दिल और दिमाग को झकझोरने वाले अनेक दृश्य आज भी हमारी पुतलियों में कैद हैं। ट्रेन के पटरियों पर बिखरी लाशों का चित्र हो या प्लेटफार्म पर मृत पड़ी माँ से चिपके शिशु की संवेदना का साक्षात्कार हो या फिर बाढ़ में डूबी दुनिया का दर्शन हो। ये सभी तस्वीरें सत्ता की क्रूरता से कुश्ती करने के लिए उद्धत हैं। जो शब्दों के चित्रों का सामर्थ्य है और कोरोजयी कवि की कालजयी कला भी। महामारी से पूर्व इस भयावह भविष्य का दर्शन करने वाले आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल लिखते हैं कि

"इस सभा में शव के लिए प्रार्थनाएँ की गयीं/.../

ठीक जैसे किसी लेखक की गम्भीर बीमारी में उसके बारे में पुराने पन्ने पलटे जाते हैं/

कि न जाने श्रदांजलि के दो शब्द बोलने का प्रस्ताव कब आ जाय!" ('क्षीरसागर में नींद' / 81)


इस महामारी के मुख में हिंदी के कवि मंगलेश डबराल से लेकर उर्दू के शायर डॉ. राहत इंदौरी तक अनेक साहित्य साधक समा गये हैं। सुबह-सुबह सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलि का सुमन समर्पित करना, ऐसा लग रहा था मानो दुःख के दिन सूर्य को अर्घ्य देना है। 


ऐसे में कवि की आत्मा अत्यंत दुखी थी और आँखों में था आँसू का समुद्र। फिर भी वह 'आपदा को अवसर' के रूप न देखकर, बल्कि मन की नवीन दृष्टि से उसे 'कोरोना में क्रियेशन' के रूप देख रहा था तथा महामारियों का मूल्यांकन करते हुए नये सूत्रों के संदर्भों की तलाश कर रहा था। दरअसल, यह तलाशने की प्रक्रिया इस त्रासदी से बहुत पहले ही शुरू हो चुकी थी। जिसकी उपज है 'कोरोजीवी कविता' का सिद्धांत। कुछ गिनेचुने हैं जो बिना विचारे ही विरोध की लाठी लेकर निकल पड़े हैं तो उनके लिए आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल की निम्नलिखित पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं :-

"जिसके साथ ठीक से हुआ नहीं जा सकता/

उसके विरोध में कुछ कहा नहीं जा सकता/.../

विरोध की ठीक-ठीक उपस्थिति का इतिहास/

समर्पण के बार-बार अपमानित होने का इतिहास है" ('क्षीरसागर में नींद' / 15)


■■★■■ संक्षिप्त परिचय :-


नाम : गोलेन्द्र पटेल

उपनाम : गोलेंद्र ज्ञान

जन्म : 5 अगस्त, 1999 ई.

जन्मस्थान : खजूरगाँव, साहुपुरी, चंदौली, उत्तर प्रदेश।

शिक्षा : बी.ए. (हिंदी प्रतिष्ठा) , बी.एच.यू.।

भाषा : हिंदी

विधा : कविता, कहानी व निबंध।

माता : उत्तम देवी

पिता : नन्दलाल

काव्यगुरु : श्रीप्रकाश शुक्ल

मार्गदर्शक : सदानंद शाही, सुभाष राय, मदन कश्यप, स्वप्निल श्रीवास्तव, जितेंद्र श्रीवास्तव, अरुण होता, कमलेश वर्मा, वसंत सकरगाए, शैलेंद्र शांत, गिरीश पंंकज , विन्ध्याचल यादव एवं अन्य।


पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन :

कविताएँ और आलेख -  'प्राची', 'बहुमत', 'आजकल', 'व्यंग्य कथा', 'साखी', 'वागर्थ', 'काव्य प्रहर', 'प्रेरणा अंशु', 'नव निकष', 'सद्भावना', 'जनसंदेश टाइम्स', 'विजय दर्पण टाइम्स', 'रणभेरी', 'पदचिह्न', 'अग्निधर्मा', 'नेशनल एक्सप्रेस', 'अमर उजाला', 'पुरवाई', 'सुवासित' आदि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित।


विशेष : कोरोनाकालीन कविताओं का संचयन "तिमिर में ज्योति जैसे" (सं. प्रो. अरुण होता) में मेरी दो कविताएँ हैं।


ब्लॉग्स, वेबसाइट और ई-पत्रिकाओं में प्रकाशन :-

गूगल के 100+ पॉपुलर साइट्स पर - 'हिन्दी कविता', 'साहित्य कुञ्ज', 'साहित्यिकी', 'जनता की आवाज़', 'पोषम पा', 'अपनी माटी', 'द लल्लनटॉप', 'अमर उजाला', 'समकालीन जनमत', 'लोकसाक्ष्य', 'अद्यतन कालक्रम', 'द साहित्यग्राम', 'लोकमंच', 'साहित्य रचना ई-पत्रिका', 'राष्ट्र चेतना पत्रिका', 'डुगडुगी', 'साहित्य सार', 'हस्तक्षेप', 'जन ज्वार', 'जखीरा डॉट कॉम', 'संवेदन स्पर्श - अभिप्राय', 'मीडिया स्वराज', 'अक्षरङ्ग', 'जानकी पुल', 'द पुरवाई', 'उम्मीदें', 'बोलती जिंदगी', 'फ्यूजबल्ब्स', 'गढ़निनाद', 'कविता बहार', 'हमारा मोर्चा', 'इंद्रधनुष जर्नल' , 'साहित्य सिनेमा सेतु' इत्यादि एवं कुछ लोगों के व्यक्तिगत साहित्यिक ब्लॉग्स पर कविताएँ प्रकाशित हैं।


प्रसारण : राजस्थानी रेडियो, द लल्लनटॉप , वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार एवं अन्य यूट्यूब चैनल पर (पाठक : स्वयं संस्थापक)

अनुवाद : नेपाली में कविता अनूदित


काव्यपाठ : मैं भोजपुरी अध्ययन केंद्र (बीएचयू) में तीन-चार बार अपनी कविताओं का पाठ किया हूँ और 'क कला दीर्घा' से 'साखी' के फेसबुक पेज़ पर दो बार लाइव कविता पाठ। अनेक राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय काव्यगोष्ठी में।


सम्मान : अंतरराष्ट्रीय काशी घाटवॉक विश्वविद्यालय की ओर से "प्रथम सुब्रह्मण्यम भारती युवा कविता सम्मान - 2021" और अनेक साहित्यिक संस्थाओं से प्रेरणा प्रशस्तिपत्र।


संपर्क :

डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।

पिन कोड : 221009

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com


कविता का समुज्ज्वल पक्ष और कोरोजीविता (केंद्र में आ. श्रीप्रकाश शुक्ल) : गोलेन्द्र पटेल || भाग-दो

 

2. कविता का समुज्ज्वल पक्ष और कोरोजीविता//

इसकी परिधि पर नहीं बल्कि केंद्र में स्पर्श की स्पर्धा है। जो एक तरह की मनोवैज्ञानिक भूमि का निर्माण करती है। जिसकी मिट्टी मानवता की मिट्टी की तरह उपजाऊ है। इसके बीज 'श्रम', 'संघर्ष', एवं 'प्रयत्न' आदि होने के कारण केवल उग ही नहीं रहे हैं बल्कि विमर्श का विशाल वृक्ष उन 'भूखे', 'थके', 'हारे' आदि लोगों के लिए बन रहे हैं। जो इसके 'फल','फूल' एवं 'छाया' आदि के अधिकारी हैं। इस संबंध में आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल कहते हैं कि "यह जो कोरोजीवी कविता है, प्रतिभा से अधिक, श्रम के महत्व की शिनाख्त करने वाली कविता है।" अर्थात् इसमें श्रम का सौंदर्य और संवेग की सुगंध दोनों एक साथ मौजूद हैं। अतः हम कह सकते हैं कि 'कोरोजीवी कविता' केवल कहने वाली ही नहीं है बल्कि करने वाली भी है।

सभ्यता व संस्कृति के समन्वय का संगीतात्मक रस, राजनीति का द्वंद्वात्मक राग तथा अनुभूति के अनुराग से लबालब भरी है 'कोरोजीवी कविता'। यदि हम जिज्ञासा की भाषा में कहें तो यह कह सकते हैं कि चेतना की चित्रात्मक अभिव्यक्ति ही संकट के समय में सर्जक का मूल स्वर होता है। अतः यह चुनौतियों के विरुद्ध चमक की कविता है। जहाँ उम्मीद की उजाला स्थाई है और वहीं पर 'कोरोजयी कवि' क्रमशः 'लोकधर्मी', 'क्रांतिधर्मी' एवं 'युगधर्मी' के रूप में उपस्थित है। जिसकी मानवीय संवेदना भय की भूमि में हताश, उदास, निराश, दीन-दुखी एवं असहाय मनुष्य के भीतर उम्मीद, उजास, आशा, सम्भावना,एवं जिजीविषा को जन्म देने वाली है। जब-जब मनुष्यता पर आफ़त आयी है कला, साहित्य एवं संस्कृति के शुभचिंतकों ने अपनी अहम भूमिका निभाये हैं। रचनात्मकता का रूप निखरा है और संवेदनशीलता का स्वरूप सार्थकता के साँचे में ढला है। अर्थात् समाज में सृजनात्मक सजगता बढ़ी है।


तीसरी लहर के दौरान महामारी के महासागर में शवों को तैरते हुए तथा श्मशान में चिता के लिए कम पड़ी लकड़ी का दर्दनाक दृश्य को हमने अपनी आँखों से देखा है। दिल और दिमाग को झकझोरने वाले अनेक दृश्य आज भी हमारी पुतलियों में कैद हैं। ट्रेन के पटरियों पर बिखरी लाशों का चित्र हो या प्लेटफार्म पर मृत पड़ी माँ से चिपके शिशु की संवेदना का साक्षात्कार हो या फिर बाढ़ में डूबी दुनिया का दर्शन हो। ये सभी तस्वीरें सत्ता की क्रूरता से कुश्ती करने के लिए उद्धत हैं। जो शब्दों के चित्रों का सामर्थ्य है और कोरोजयी कवि की कालजयी कला भी। महामारी से पूर्व इस भयावह भविष्य का दर्शन करने वाले आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल लिखते हैं कि

"इस सभा में शव के लिए प्रार्थनाएँ की गयीं/.../

ठीक जैसे किसी लेखक की गम्भीर बीमारी में उसके बारे में पुराने पन्ने पलटे जाते हैं/

कि न जाने श्रदांजलि के दो शब्द बोलने का प्रस्ताव कब आ जाय!" ('क्षीरसागर में नींद' / 81)


इस महामारी के मुख में हिंदी के कवि मंगलेश डबराल से लेकर उर्दू के शायर डॉ. राहत इंदौरी तक अनेक साहित्य साधक समा गये हैं। सुबह-सुबह सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलि का सुमन समर्पित करना, ऐसा लग रहा था मानो दुःख के दिन सूर्य को अर्घ्य देना है। 


ऐसे में कवि की आत्मा अत्यंत दुखी थी और आँखों में था आँसू का समुद्र। फिर भी वह 'आपदा को अवसर' के रूप न देखकर, बल्कि मन की नवीन दृष्टि से उसे 'कोरोना में क्रियेशन' के रूप देख रहा था तथा महामारियों का मूल्यांकन करते हुए नये सूत्रों के संदर्भों की तलाश कर रहा था। दरअसल, यह तलाशने की प्रक्रिया इस त्रासदी से बहुत पहले ही शुरू हो चुकी थी। जिसकी उपज है 'कोरोजीवी कविता' का सिद्धांत। कुछ गिनेचुने हैं जो बिना विचारे ही विरोध की लाठी लेकर निकल पड़े हैं तो उनके लिए आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल की निम्नलिखित पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं :-

"जिसके साथ ठीक से हुआ नहीं जा सकता/

उसके विरोध में कुछ कहा नहीं जा सकता/.../

विरोध की ठीक-ठीक उपस्थिति का इतिहास/

समर्पण के बार-बार अपमानित होने का इतिहास है" ('क्षीरसागर में नींद' / 15)


(©गोलेन्द्र पटेल

15/10/2021)

मो.नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com



Thursday, 14 October 2021

कविता का समुज्ज्वल पक्ष और कोरोजीविता (केंद्र में आ. श्रीप्रकाश शुक्ल) : गोलेन्द्र पटेल

 कविता का समुज्ज्वल पक्ष और कोरोजीविता//

इकीसवीं सदी की त्रासदी की तान का जन्म कोई आकास्मिक घटना नहीं है बल्कि इसका बीज महामारियों के ऐतिहासिक जमीन में कई सदी पूर्व ही अंकुरित हो चुका था पर वह पल्लवित और पुष्पित नहीं हुआ और यह जन्म के ज्वर को सहन न कर सकने की वजह से शीघ्र ही महामारी की मिट्टी में मुँह के बगल लम्बे समय के लिए सो जाती थी पर सर्जनात्मकता की सृष्टि में संवेदना की शीतलता व उष्णता, अनुभूति की आर्द्रता और सर्जक की छींक से कभी-कभी कुछ समय के लिए जग जाती थी। कोरोनाकाल में इसी तान की तरंग कविता की ताकत बनकर संसार में गूँज रही है और यही ताकत जिन कविताओं में पायी जा रही है उसे आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल 'कोरोतान' के अंतर्गत रखते हुए, सुतर्क की कसौटी पर 'कोरोजीवी कविता' की सैद्धांतिकी निर्मित कर रहे हैं। जिसका हिन्दी जगत ही नहीं बल्कि गैर हिन्दी जगत भी खुलकर स्वागत कर रहा है। 

आगे आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल इस कोरोजयी सिद्धांत को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि "इस कोरोजीवी कविता का महत्व इस कारण से नहीं है कि यह महामारी के बावजूद लिखी जा रही है जिसमें युगबोध की उपस्थिति तो है ही, साथ ही साथ इतिहासबोध की नयी अंतर्दृष्टि भी है।" इस संदर्भ में 'क्षीरसागर में नींद' संग्रह की कविता "संभवतः" की निम्नलिखित पंक्तियों को देखिये :-

"जब-जब इतिहास को नये तथ्यों की जरूरत महसूस हुई है/

यह सम्भवतः ही है जिसने सम्भव किया है/

मनुष्य के लिए एक नया इतिहास!" ('क्षीरसागर में नींद' / 31)


तो आइए, अब हम सब मिलकर महामारी से पूर्व गुरुदेव की दृष्टि पर अपनी पैनी दृष्टि डालते हैं और एकटक देखते हैं उनकी कविताओं को, कि कैसे वे अपनी कविताओं में भावी त्रासदी को दर्ज करते हुए नज़र आ रहे हैं। 


"घर में कितने ही वायरस का प्रवेश है" ('बोली बात' / 80)

"उनके घर में बच्चा उनका कितना बीमार है/

पत्नी उसकी इस बीमारी पर अपनी बीमारी कितना भूल चुकी है/

इससे कुछ भी लेना-देना नहीं है उन्हें" (('बोली बात' / 96)

"यह मित्रताओं के टूटने का समय है'/.../ 

'तब कमरे में बिखरे अखबारों के बीच/ 

गिरे किसी लिफाफे के वजूद की तरह/ 

टूटेगी हमारी मित्रता'/.../ 

'तब हमारी मित्रता के टूटने के दिन होंगे" ('बोली बात' / 14)


"महाश्मशान की लपटों में कितनी आर्द्रता है" ('बोली बात' / 112)


"बाढ़ आए

बादल फटे

सूखा पड़े

फसल सूखे

किसान मर जाएँ

महामारी घर कर जाए" ('क्षीरसागर में नींद' / 77)


मास्क , फेसशील्ड , सोशल टिस्टेंशिंग, स्प्रेडर, सुप्ररस्प्रेडर , क्वारंटाइन, सेनेटाइजर , लॉक डाउन, फ्रंटलाइन वारियर ,  होम डिलेवरी , वर्क फ्राम होम , ऑनलाइन क्लासेज ,ऑक्सीजन, वेबिनार, शव, श्मशान, कबरिस्तान, मेडिकल व दवाओं का नाम आदि शब्दों के प्रयोग करने से कोई कविता 'कोरोजीवी कविता' नहीं होती है बल्कि इन सबके बजाय उसमें कोरोजीविता का तत्व होना चाहिए। ऐसा नहीं है कि यह तत्व कोरोनाकाल से पहले की कविताओं में मौजूद नहीं है। जो भी कोरोजयी कवि है यह तत्व उनके यहाँ पहले से ही मौजूद है। जिसका जीता जागता उदाहरण स्वयं सिद्धांतकार श्रीप्रकाश शुक्ल हैं। यदि आपको कोरोजीविता के तत्वों को बारिकी से समझना है तो आप सिद्धांतकार के साथ-साथ आचार्य अरुण होता एवं युवा आलोचक अनिल कुमार पाण्डेय के लेखों को पढ़ सकते हैं। 


एक ओर कोरोजीवी कविता समय की शहनाई का स्वर है तो दूसरी ओर ढोलक की धधकती ध्वनि है और जहाँ परिवेशगत संलग्नता में सभ्यता व संस्कृति का संगीतात्मक समन्वय इसकी विशेषता का चरम विकास है। जो पूर्ववर्ती काव्यपरंपरा में छायावाद से अधिक विकसित है, छायावादी कवियों के यहाँ भी दुःख है पर यह उनका स्थाई भाव नहीं। जो है कि हम कोरोजयी कवियों के यहाँ इसे देख रहे हैं। अतः प्रकृति की सूक्ष्म चेतना का परम प्रसार ही बुद्धि के विस्तार का समुज्ज्वलतम पक्ष है जिसका आधार मानवीय जिजिविषा है। हम कह सकते हैं कि कोरोजीवी कविता साहसपूर्ण आनंद की अनुभूति की अभिव्यक्ति है और इसके सर्जक निराशा में निराकरण कवि हैं। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि जब संवेदना संक्रमित हो रही हो, तब कविता में केवल उत्साहधर्मिता, कविता की प्रकृति को क्षति पहुँचाती है। जिसे कोरोजयी सर्जक अपने-अपने भूगोल व वय के अनुसार शक्ति में परिवर्तित करते हुए नज़र आ रहे हैं और यही इनकी कविता की ताकत भी है जो जड़ता को जड़ से उखाड़ने के बजाय पहले उसकी शाखाओं को, फिर तने को, फिर जड़ को क्रमशः काट रही है। यानी यह लोकधर्मिता के संस्कार से उपजी उम्मीद की कविता है और इसकी पहचान ही इसकी गतिशीलता है। 


कुछ हैं जो कुछ करते तो नहीं है पर यहाँ-वहाँ इनसे-उनसे शिकायत करते रहते हैं और वे अपनी ऊर्जा का उपयोग उगाने में नहीं, बल्कि उगे हुए को नष्ट करने में लगाते हैं ताकि इतिहास उन्हें भी याद रखे। जैसा कि आप कोरोनाकाल में ही नहीं, बल्कि हर संकट के समय में उन्हें देखते हैं।


आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल की एक कविता है 'शिकायत'। जो इसी विडंबना को दर्ज करनेवाली सजीव दहकती हुई लपट की तरह है, जो कोरोनाकाल से बहुत पहले लिखी गयी थी। जिसकी आँच उन्हें एकबार में सुधारने में सक्षम है। जिसकी निम्नलिखित पंक्तियों के जरिये, आप समझ सकते हैं। वे लिखते हैं कि 

"मुझे शिकायत है उन बहुत सारे लोगों से/

सारा जीवन करते रहे शिकायत जो/

कभी स्वयं से/

कभी समाज से" ('बोली बात' / 28)


पहली लहर से लेकर दूसरी लहर तक 'लौटना' नामक खतरनाक क्रिया की दहशत से हम सभी लोग भली-भाँति परिचित हैं और यह क्रिया हर रचनाकार के यहाँ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मौजूद है। जो मजदूर शहरों में कई वर्षों से रह रहे थे। कुछ के तो अपने निजी घर थे पर वे भी अपनी पुस्तैनी घर लौट रहे थे। लौटने की प्रक्रिया में छूटने का जो दुःख होता है। उसे एक कोरोजयी कवि कोविडकाल से पहले कैसे महसुस कर कर अपनी कविता में ढ़ालता है यह काबिल तारीफ है। गुरुवर लिखते हैं कि "जिस मकान में हम वर्षों से रह रहे थे/

जब उसके छूटने की बारी आई/

तब बिदा होती बेटी की तरह/

हमारे भीतर कुछ टूट रहा था" ('बोली बात' / 25)


(©गोलेन्द्र पटेल

14/10/2021)

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ईमेल : corojivi@gmail.com