Golendra Gyan

Wednesday, 21 September 2022

तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' के बहाने मनुष्यता की स्थापना : विनय विश्वा / हिंदी की सबसे लंबी कविता

 


"तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' के बहाने मनुष्यता की स्थापना"

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कोरोजयी कवियों में गोलेन्द्र पटेल का नाम कनिष्ठिकाधिष्ठित है। गोलेन्द्र पटेल जो वर्तमान में काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी में परास्नातक के छात्र हैं, जिनमें काव्य प्रतिभा कूट- कूट कर भरी है। उनकी चिन्तन की भावधारा भूत,भविष्य को देखती हुई वर्तमान के कलेवर में हिन्दी साहित्य के लिए नए रंग भर रही है। उम्र कम है जरूर लेकिन साहित्य के जैसे पुरनियाँ, पुरोधा लगते हैं। इन्हें वर्तमान में प्रथम सुब्रमण्यम भारती सम्मान और साथ ही रविशंकर उपाध्याय स्मृति सम्मान मिल चुका है और देश के अन्यान्य महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाओं से एक नया हिन्दी लोक गढ़ रहे हैं। इनकी कविता की भाषा शुद्ध गंवई है और उनकी कविताओं में किसान, मजदूर, जंगरैत स्त्रियाँ, खेत,पशु-पक्षी, घास-फूस, सूक्ष्म से सूक्ष्मतर तत्वों पर नजर पड़ती है जिस प्रकार नागार्जुन की कविताओं में है। ये अपनी परम्पराओं  जड़ता और अपने ही इर्द -गिर्द से अपनी कविता के लिए खनिज लेते हैं । ' आपकी कविता शब्दों की प्रयोगशाला है' औऱ वस्तुतः जहां प्रयोग होगा वहां खनिज प्रचुर मात्रा में होगी ही अगर नहीं होगी तो हवा(ऑक्सीजन, हाइड्रोजन) का मिश्रण कर जिस तरह जलधारा बनाई जाती है वैसे ही कवि गोलेन्द्र की हर एक कविताओं में नित नए शब्दों का प्रयोग हुआ है और यह यूँ ही नहीं है एक विशेष अर्थ भी छोड़ता है जो हिन्दी साहित्य शब्दकोश में बढियाती सार्थक शब्द नजर आती है।

     यहाँ हम  कवि गोलेन्द्र की हिन्दी साहित्य में अब तक की सबसे लम्बी कविता 'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' की समीक्षात्मक वर्णन करेंगे। उससे पहले हम हिन्दी की परम्पराओं में जाएंगे और बहुत दूर नहीं आधुनिक समय में छायावादी कवियों से शुरू करते हैं । छायावादी कवियों में सुमित्रानंदन पंत से शुरुआत करते हैं, इनकी 'परिवर्तन' कविता जो पल्लव में 1924 ई में छपी है में कवि प्रकृति को मानवीकरण बनाते हुए अपने तत्सम रूपी शब्दों से एक नया सौंदर्य शब्दचित्र गढ़ते हैं जैसे- 

  "आधि,व्याधि,बहु वृष्टि,वात,उत्पात,अमंगल,

     वह्नि,बाढ़, भू-कम्प,-तुम्हारे विपुल सैन्य दल;

आहे निरंकुश! पदाघात से जिनके विह्वल 

    हिल- हिल उठता है टल-मल

    पद-दलित       धरा-तल!

'परिवर्तन' कविता निराशा की  केंद्रीय मनोदशा को अनेक मुक्तक छंद में परोसती है। आगे जैसे बढ़ते हैं 'जयशंकर प्रसाद' की लम्बी कविता 'प्रलय की छाया' (1933,लहर से) जिसमें  नाटकीयता ,ऐतिहासिक इतिवृत्त पर आधारित है  जो आख्यानपरक है,वही 'राम की शक्तिपूजा'(1937,अनामिका से) रामकथा के आख्यान से अपना उपजीव्य ग्रहण करती है।

    शब्दों के समायोजन से भी हिन्दी की उत्तरोत्तर विकास को देखा जा सकता है -

    "लौटे युग-दल। राक्षस -पतदल पृथ्वी टलमल"

                                                        - राम की शक्तिपूजा

यह शब्दांश 'परिवर्तन' में भी आई और उसके बाद की कविता 'राम की शक्तिपूजा ' में भी देखी जा सकती है वैसा ही शब्दों का मेल मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में' और गोलेन्द्र पटेल की कविता 'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' में देखने को मिलेगी भले ही उसका अर्थ- विन्यास अलग हो पर उपजीव्यता ,परम्परा को जोड़ते हुए एक नया वितान रचना ही एक रचनाकार की सफलतम उपलब्धि है।

इसी लम्बी कविता की श्रृंखला में अज्ञेय की 'असाध्य वीणा'(1961 ई) जो आख्यान के रूप में हैं और प्रयोगवाद के प्रारंभिक दौर और कुछ समय पश्चात नई कविता का दौर आता है तो कविताएं अब यहां पूरी तरह धरातल पर हो जाती है और जनतंत्र की बातें कवि अपनी कविताओं में धड़ल्ले से करते हैं। साठोत्तरी के समय गजानन माधव मुक्तिबोध की लंबी कविता 'अंधेरे में ' एक नए कलेवर में हिन्दी कविता में आती है, जो आत्मचेतस, कविता में कविता ,फ्लैश बैक/फंतासी होते हुए देश, जनतंत्र, मनुष्य की बातें रखते हैं और उससे आगे धूमिल के यहाँ 'पटकथा' में कविता पूरी तरह से  खुल जाती है और यह लम्बी कविता की श्रृंखला राजकमल चौधरी(मुक्ति-प्रसंग), रघुवीर सहाय(आत्महत्या के विरुद्ध), लीलाधर जगूड़ी(बलदेव खटिक) से होते हुए गोलेन्द्र पटेल (तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव) तक आती है।

'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' अब तक की  हिन्दी की सबसे लम्बी कविता है जिसकी रचना वर्ष 2020 है, उस वक्त गोलेन्द्र स्नातक के छात्र थे। जो कोरोजीवी की उपज है, जो अपनी परम्पराओं और सभ्यता को जोड़ते हुए चलती है। यह कविता एक यात्रा की तरह है जिसमें कई पात्र और पड़ाव है, जो मनुष्यता का बोध कराती हैं। एक व्यक्ति जो बुजुर्ग है वो अपनी सभ्यता-परम्परा  को ढोने वाला है,  वहीं आगे चलकर शोधार्थी के आरेखों में  भी दिखाई देता है, जो कहीं न कहीं नए को अपनी  पुरातनता को याद और उससे जुड़ने की बात करता है । इस कविता को पढ़ने के पश्चात ऐसा लगता है कि यह मुक्तिबोध की कविता'अंधेरे में' की अगली कड़ी है, वहां 'फंतासी' है यहां 'फ्लूअन्सि' है। समाज में जो घटनाएं घटित हो रही है देश, समाज, जनता ,जनतंत्र हर एक पर दृष्टि पड़ी है कवि की।भौतिकता, काम-वासना, प्रेम इत्यादि बिम्बों का वितान देखने को मिलता है । यह कविता संवाद रूप में  चलती है और  वह भी एक प्रौढ़ पढा-लिखा शोधार्थी के रूप में जो अपनी सभ्यता और संस्कृति की पड़ताल करने निकला है जो  भारत देश में अब हम खुद उसे कहीं न कहीं छोड़ रहे हैं इस बाज़ारवाद में । उसी विरासत को सहेजने की एक सफल कोशिश कवि करते हैं इस  उजाड़ होती सभ्यता ,संस्कृति, भयावह होता घर-परिवार, खतरनाक होती राजनीतिक मूल्यों को।

कविता की कुछ पंक्तियों को उधृत करते हुए देखेंगे पहली ही पंक्तियों  में अपनी सभ्यता और संस्कृति को समन्वित करने की बात होती है, एक शोधार्थी के द्वारा जो नए जमाने का है ,और उस रास्ते में अब इतनी कँटीली झाड़ियां उग आई हैं कि उसे साफ करने में समय लगेगा पर विश्वास  है। वह कँटीली झाड़ियां (जो प्रतीक है), असभ्य होता समाज,भाषा, मानवीय मूल्य सभी ओर इंगित करता है ,खासकर भाषा की बड़ी ही दुर्दशा हुई है जिसके कारण कँटीली झाड़ियाँ उग आई हैं जो राह चलते देह को छिल देती है पहली ही पंक्ति में कवि समस्या को खड़ा करते हैं और उसके निदान के लिए जो आत्मा,चेतना ठहर सी गई है उसे एक नई दृष्टिबोध के द्वारा जाग्रत होने की बात करते हैं इससे पता चलता है कि कवि कितना जाग्रत अवस्था में हैं।

"सभ्यता और संस्कृति की समन्वित सड़क पर/ निकल पड़ा हूँ शोध के लिए /झाड़ियों से छिल गई हैं देंह / थक गए हैं पाँव कुछ पहाड़ों को पारकर/सफर में ठहरी है आत्मा/ बोध के लिए"


यहां मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में' का एक अंश देखते हैं -

   "वह रहस्यमय व्यक्ति /अब तक न पाई गई मेरी अभिव्यक्ति है/पूर्ण अवस्था वह / निज- सम्भावनाओं,निहित प्रभावों ,प्रतिमाओं की मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव /हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह/आत्मा की प्रतिमा"।

यहाँ ज्ञान का तनाव हृदय में रिस रहा है और आत्मा प्रतिमा में स्थापित हुई है ,जबकि 2020 में गोलेन्द्र की कविता में अब वह बुद्धि को लिए हुए लिखे का शोध करने जा रही है नए दृष्टिकोण से जो परिपक्वता की निशानी होगी,जहां सहेजना ,समेटना,कुछ खुरदुरे को चिकना करना होगा।


मुक्तिबोध के यहाँ बरगद का पेड़ है और गोलेन्द्र के यहाँ भी जो बरगद एक प्रतीक है वट- वृक्ष पूरा राष्ट्र भारत है ,जहां मुक्तिबोध के यहाँ व्यक्ति खड़ा है ,नौजवान है पर यहाँ अब वहीं बरगद (विशाल वृक्ष) है लेकिन वह व्यक्ति अब बूढा हो गया है बैठा है जंग लग गया है उसे एक सहारे की जरूरत है जहाँ गोलेन्द्र की कविता में एक शोधार्थी के रूप में मौजूद है।

  "मैं इस बरगद के पास खड़ा हूँ

   कंधे पर बैठ गया बरगद पात एक

बरगद-आत्मा का पत्र है वह क्या?

      कौन सा इंगित"?

                         - मुक्तिबोध

"बरगद के नीचे बैठा कोई बूढा पूछता है 

      अजनबी कौन है?

 जी, मैं एक शोधार्थी हूँ"।

                            - गोलेन्द्र

'शोधार्थी' जिसके कन्धों पर बड़ी जिम्मेदारी है। वह उस प्रथम प्रेम का साक्ष्य ढूंढ रहा है जो कबीर के ढाई आखर प्रेम में था जो इस आधुनिकता/भौतिकतावादी/बाजारी दुनियां में कहीं खो गई है उसे वह बेचैनी से ढूंढ रहा है क्योंकि नए पीढ़ी पर बड़ी जवाबदेही है इसलिए उसे अब सजग रहना होगा। कवि की जड़े इतनी गहरे होते जा रही हैं जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिना अपने अतीत अपनी जड़ों में गए वर्तमान को सुदृढ़ नहीं कि जा सकती जो दस्तावेज रूप में है उसे उलट-पुलट कर देखनी होगी क्योंकि अतीत की ही प्रतिकृति वर्तमान है।

 "सोच के आकाश में/देख रहा है/अस्थियों के औज़ार/ पत्थरों के बने हुए औज़ारों से मजबूत है।"


कवि की चेतना इस कविता में हर उस पहलू को स्पर्श करते चलती है जो एक स्वस्थ राष्ट्र समाज के निर्माण में महत्ती भूमिका होती है जिसमें (समाज, वातावरण, पर्यावरण, जनतंत्र, हासिए के लोग,नैतिक मूल्य, राष्ट्र) और भविष्य की ओर निगाहें हैं।

एक पंक्ति देख सकते हैं आज की भयावहता को लेकर जो सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है जलवायु परिवर्तन  जो पुरी दुनिया में असर डाले हुए हैं अभी ताजा उदाहरण पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में भीषण बाढ़ के रूप में देखी जा सकती है और वही ग्लेशियर का पिघलना ,मौसम का बदलना,सूखा पड़ना ये सारी समस्याओं को अपनी कविता में दर्ज करते हैं जो मानव विकास की अंधी दौड़ में इतना सरीक हो गया है कि वह अपने घर को ही भूल गया है जो एक कवि चिंता कर रहा है पर्यावरण को बचाने की कोशिश-

"जंगल के विकास में/इतिहास हँस रहा है/पेड़-पौधे कट रहे हैं/पहाड़-पठार टूट रहे हैं/ नदी-झील सूख रही है/ सड़कें उलट रही है/सागर सहारा का रेगिस्तान हो रहा है"।

कहीं ऐसा प्रकृति का  प्रकोपभाजन न हो जाय की दूसरा 'मृतकों का टीला' बन जाए,इस पर गम्भीरता से पूरी मानव जाति को विचार करनी होगी तभी एक स्वस्थ समाज और राष्ट्र का निर्माण हो सकता है, क्योंकि प्रकृति बची रहेगी तो मानव जाति बनी रहेगी।

कवि का चिंतन व्यापकत्व के कैनवास पर अपने शब्दों से एक वृत्तचित्र बनाते नज़र आती है जो सभ्यता और संस्कृति के समन्वित सड़क पर चलते हुए मनुष्य को मनुष्य बनाने की जो पहल है उन सारे दृश्यों को अपनी लेखनी से उकेरने की एक सफल कोशिश की गई है।

"प्रकृति से होते हुए नारी/पुरुष तक,आदिवासी समाज(हासिए के लोग) से होते हुए शिष्ट समाज तक,गुरु से होते हुए शिष्य और सच्चे मित्र तक" आते हैं जो मनुष्य को मनुष्य होने के लिए पर्याप्त है।

कवि संदिग्ध इतिहास में न जाते हुए सीधे वर्तमान में उतरते हैं जो आवश्यक है जिस 'आदिवासी-विमर्श', जल-जंगल-जमीन की बात होती है वहाँ से शुरुआत करते हैं आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी उनकी स्थिति वैसी ही है यह सोचने का विषय है। 

कवि उनके बारे में बताने की सफल कोशिश करते हैं कि आदिवासी समाज कितना सच है जो हम अपने आपको शिष्ट समझते हैं उनकी भाषा रहन-सहन पर हँसते हैं जबकि हम खुद को देवता कहते हैं जो कि सत्य नहीं है हम कितने असभ्य हैं ये हम खुद ही जानते हैं (हमे सुधरना होगा ) यहां एक प्रकार से व्यंग करते हैं-

   "ये वनजाति

(अर्थात आदिवासियों के पूर्वज)

हम देखने में देवता हैं

   ये राक्षस

   लेवता हैं

खैर,ये सच्चे इंसान हैं।"

हमें इन आदिवासी, पिछड़े समाज को लेकर चलने की बात करते हैं उनपे हँसने की बजाय।

वर्तमान समय में पितृसत्तात्मक(पुरूष वर्चस्ववादी) समाज में जिस तरह 'नारी-विमर्श'की बातें हो रही है आए दिन,उस नारी समाज को पकड़ने की कोशिश अपनी कविताओं में करते हैं,आज एक बड़ा प्रश्न-चिन्ह खड़ा होता है कि लड़कियां अपनी संस्कृति को भूलकर सात्विक प्रेम को भुलाकर दैहिक(मांसलवाद) सुख की ओर प्रवृत्त हो रही हैं और ऐसा पुरुष समाज भी कर रहा है जो एक सभ्य समाज के लिए ठीक नहीं है। उसे स्वस्थ (सुधार की जरूरत)होने की बातें कहते हैं ।

             " माँ से

    क्या आप मुझे जीने देंगी

      अपनी तरह

   क्या मैं स्वतंत्र हूँ?

अपना जीवनसाथी चुनने के लिए

       आपकी तरह।

मुहब्बत के मुहूर्त में मिलना है पिछवाड़े

            प्रियतम से

       आड़े- आड़े......


कवि गोलेन्द्र उस नारी-शक्ति की बात करते हैं जो आए दिन घरों में,तलाक को लेकर कचहरियों में ,पुरुष समाज से प्रताड़ित होते देखी जाती है जो स्वस्थ समाज के लिए जघन्य है, जिसे प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों, कहानियों, में स्थापित करने की कोशिश की औऱ उसी विषय को उत्तर छायावादी रचनाकार राष्ट्रकवि दिनकर अपने निबन्ध 'अर्धनारीश्वर'में उठाते हैं और आधुनिक महिला साहित्यकार भी इस मुद्दे पर जोर दी हैं ,उसी समस्या को एक बार फिर अपनी कविता के माध्यम से 'कोरोजीवी',किसान कवि गोलेन्द्र पटेल उठाते हैं और सभ्य कहने मानने वाले पुरुष पर चोट करते हैं और मनुष्य को मनुष्य होने की बात करते हैं।

"एक असुर का कहना है/ की पत्नी का क़ातिल होना/ असल में आदमी की आदमियत की मृत्यु होना है/कम से कम इस संदर्भ में /हमारी जाति/अभी कलंकित नहीं हुई है/यानी हमें देवत्व का दम्भ त्याग कर /असुरों की अच्छाई अपनाना चाहिए/तभी/हम सही अर्थ में मनुष्य हो पाएंगे।"


मनुष्यता का अब न होना चिंता सता रही है, और मनुष्य वही है जो दूसरों के लिए समर्पित हो लेकिन कवि को विश्वास है कि जो शेष बचे हैं वही इस धरा-धाम पर मनुष्यता को गढ़ सकते हैं, इसमें कवि का अपना जीवन संघर्ष भी है और सुपथमार्गी मित्र का होना भी जीवन में जरूरी बताते हैं।

 "सपनों का मरना/ जीते जी जिंदा लाश हो जाना है"

कवि की जड़ता की यह पहचान है कि वे अपने लोक/परम्परा को मजबूती से पकड़े हैं वे प्रेमचंद, निराला, मुक्तिबोध, धूमिल तक जाते हैं और भक्ति काल में जायसी,तुलसी,कबीर तक जाते हैं-"नाव में नदी को लेकर"।

प्रेम के सहारे पाप-पुण्य तक जाना जो जीवन की अंतिम परिणति है वहाँ तक कवि जाते हैं अपने वेद उपनिषद में जहां से दर्शन लेते हैं -

"वासना के वृक्ष पर बैठे /दो पंक्षी/ देखते हैं कि/वे अपनी बेचैनी को बाँध कर/बहा दिए हैं/नदी में।"

यहाँ प्रतीक के माध्यम से एक दर्शन है , वासना रूपी शरीर जो एक वृक्ष है जिसपर दो पंक्षी बैठा है एक शीर्ष पर और एक नीचे,शीर्ष पर वाला साक्षी है वह सिर्फ देखता है जबकि नीचे वाला वह कर्ता है वह बेचैन है कि क्या कमा लूं, क्या बना लूं, क्या बचा लूं आदि इस भौतिक सुख के लिए उसे तृप्ति नहीं है। 

धर्म का एक नैतिक रूप है जो नीचे की पंक्षी को बदलने की कोशिश करता है, और धर्म का परम रूप आध्यात्मिक होगा।

"धर्म का जो अध्यात्म है वह कहता है कि तुम्हारे भीतर एक साक्षी (देखने वाला)है  क्योंकि साक्षी का जन्म नहीं होता,यह तो कर्ता है जो जन्म में भटकता है, क्योंकि मरते वक्त तुम्हारी वासना तृप्त नहीं होती।

'वासना की डोर तुम्हें नये जन्म में ले जाती है उसी नदी की तरह'।

प्रेम की पराकाष्ठा  जहां सूफी दर्शन है और साथ ही जो ज्ञान में परिवर्तित होता है जो कबीर के यहाँ दिखता है।

 कवि बार-बार अपनी जड़ों से खनिज लेकर नए प्रयोग नए साहित्य को गढ़ रहे हैं।

इक्कीसवीं सदी का सबसे भयावह समय कोरोना महामारी का समय लॉकडाउन की स्थिति और नदियों में जो लाशें बह रही थी। जिसकी चीत्कार हर घर में दहाड़ मार रही थी, जो इस भयावह समय की याद दिलाती रहेगी, इसी समय बहुत से मजदूर लौट रहे हैं

यहां चलना क्रिया और लौटना क्रिया की अच्छी पड़ताल की गई हैं, वहाँ लौटना इतिहास में लौटना था जिसका इतिहास मनुष्यता की लहू से लिखा जा रहा है और एक तरफ चलना क्रिया जीवन की सार्थक क्रिया है जब चलेंगे नहीं तो इतिहास कैसे बनाएंगे।

' मनुष्यता की लहू से इतिहास का लिखना'

आज जनतंत्र का राजा जिन्न बन के खड़ा है जो सभी को अपनी माया से जला रहा है।

यहां मनुष्य की उत्कट जिजीविषा ही है जिससे कोरोजीवी सार्थक है । इस महामारी में पूरी कायनात बदल रही है जिसमें भाषा ,शब्द,अर्थ,मुहावरे इत्यादि के बदलते स्वरूप दिखाई दे रहे हैं और नए-नए विमर्श खोले जा रहे हैं। गोलेन्द्र पटेल की कोरोजीवी कविता में नई सम्वेदना,रागानुरागी प्रवृत्ति, जनपक्षधरता,मुक्ति मार्ग,मन-मस्तिष्क में नई ऊर्जा संचार भरते हुए चलती है एक बेचैनी है बदलाव की "कोरोजीवी से कोरोजयिता तक"।

कवि जिस गुरु से सीख रहे हैं उस परम्परा को बरकरार रखना चाहते हैं न की शिक्षक दिवस मना कर भूलने जैसी बात। कवि सृजनात्मक साधना अर्थात कर्म पर ध्यान देने की बात करते हैं क्योंकि सार्थक कर्म ही जीवन की सार्थक उपलब्धि है। श्रद्धा,भक्ति बाद में पहला कर्तव्य कर्मरत/श्रमशील शिष्य होना । अगर शिष्य गुरु मानता है तो उनके सच्चे और अच्छे विचारों को लेकर चलना ही जीवन की सार्थकता है। जैसे स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस उस गुरु शिष्य परम्परा का होना जीवन की सर्वोत्तम शिष्य परम्परा है अपने और राष्ट्र के लिए।

"शिष्य सर्जक की भूमिका में/गुरु की रचना से गुजरते हुए केवल और केवल सृजनात्मक साधना पर ध्यान दे/ न कि साधन और साधक पर/न कि श्रद्धा और भक्ति पर /न कि शिष्य के प्रति उनकी सहजता पर।"

इस संसार का सबसे अनमोल रिश्ता 'मित्रता'है  कवि चलते-चलते उस रिश्ते को अपनी कविता में रेखांकित करते हैं। हम मनुष्य अपनी अंतरतम की बातें, यादें एक सच्चे मित्र से ही कहते हैं चाहे वह घोर निराशा वाली बातें हो या खुशी की बातें। मित्रता को 'तिमिर में ज्योति ' की उपमा दे रहे हैं और एकाकार हो जाने की बातें करते हैं।

    "तुम्हारा होना 

    असल में मेरा होना है"

कोई भेद रह ही नहीं जाता है कितना विराट हृदय है कवि का।

'मित्रता और मुहब्बत' इस संसार में मानव के लिए अनमोल ख़जाने की तरह है जिसे मिल जाए तो दुनियां सच में जन्नत हो जाए। उस मित्रता और मुहब्बत में 'विश्वास' रूपी एक डोर है जो पूरी सृष्टि को बाँधे रखती है।


हिंदी साहित्य के इतिहास में लम्बी कविताओं का जब भी जिक्र किया जाएगा तब इक्कीसवीं सदी के कोरोजयी कवि 'गोलेन्द्र पटेल' का नाम जरूर लिया जाएगा। यह कविता कवि के चिंतन की सर्वश्रेष्ठ उपज है जो  दूषित होती मनुष्यता,पर्यावरण, परिवेश, लोक,जनतंत्र, समाज आदि मूलभूत चीजों को ध्यान में रखते हुए एक सम्पूर्ण जन्नत भरी लोक रचते हैं जहाँ सिर्फ मनुष्य ही नहीं पर्यावरण, पशु-पक्षी,प्रकृति, रिश्ते हर जगह साम्य, सौम्यता, प्रेम हो। 

जिस प्रकार रैदास 'बेगमपुरा' की कल्पना करते हैं, कबीर  तोड़-फोड़ कर सुधार करने की कोशिश करते हैं ,सुदामा पांडेय धूमिल एक नए 'प्रजातंत्र' की बात करते हैं ठीक उसी प्रकार कवि गोलेन्द्र पटेल एक नए समाज, राष्ट्र,लोक की बात करते हैं अपनी कविता 'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' में। यह मात्र एक रचना कृतिकार को स्थापित करने में काफी है, जैसे बिहारी 'बिहारी के दोहे' लिखकर अमर हो गए। फिर भी रचनाकार बैठता कहां है।  उसकी चिंतन तो नए-नए आयामों को छूते रहती है।

'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' यह शीर्षक ही अपने आप में कुछ कह जा रही है, जो हमारे भारतीय परम्परा संस्कारों में निहित है जब हम किसी (आत्मीय) को आशीर्वाद देते हैं तो अपनत्व की भाव जन्म लेती है ।

जैसे बड़े बुजुर्ग(पुरखें) आशीर्वाद देते हैं- बनल रहअ।

यह लम्बी कविता आख्यानों,काव्य खण्ड की तरह न होकर वर्तमान परिस्थितियों  घटनाओं को लेकर रूपक की तरह चलती है कविता में कविता  गढ़ते हुए जिसमें भावों की अभिव्यक्ति, अभिव्यंजना है जहाँ भाषा ,शब्द,अर्थ सबका रूप बदलता हुआ जान पड़ता है। कविता नदी की धारा की तरह प्रवाहित होती चली जा रही है। कहीं ठहराव नहीं है। जिसका उत्स सभ्यता, संस्कृति, परम्पराओं में निहित है, जिसका उत्स और उत्कर्ष यति में नहीं, गति में है। यह कविता हमारे समय का प्रत्याख्यान और हमारी चेतना का मानचित्र बन चुकी है । दूसरे शब्दों में, "गोलेन्द्र पटेल की काव्यभाषा उनकी विचार-संवेदना की सच्ची अनुगामिनी है। वे भाषा का नया मुहावरा गढ़ने वाले कवि हैं। कोरोजीवी कविता में उनकी संवेना और सोच जनपक्षधरता और उसकी मुक्ति की आकांक्षा है। उनकी कविताओं से गुज़रने के बाद हम अपने मन-मस्तिष्क में नवीन ऊर्जा को महसूस करते हैं। अतः 'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' गोलेन्द्र पटेल की कविता हमारे समय के स्वभाव और स्वरूप का केंद्रीय रूपक या प्रतिनिधि पाठ है।"


सभ्यता और संस्कृति का समन्वय अपनी जड़ों की ओर जाना वहां से खनिज लेते हुए प्रकृति का सानिध्य प्राप्त करना जहां लोग प्रकृति से कटते जा रहे हैं। इस वर्तमान समय में आजादी के पचहत्तर सालों बाद भी आदिवासी ,हासिए के समाज पर ध्यान न देना उन्हें असभ्य समझना ,जिसको लेकर कवि सभ्य औऱ असभ्य(आदिवासी) समाज को स्थापित करना चाहते हैं। इस संसार का सबसे अनमोल व्यक्ति(नर-नारी) में मेल कराना जो 'अर्धनारीश्वर' बन जाए इसकी स्थापना, गुरु-शिष्य की स्थापना(मूल रूप से कर्तव्य) और सच्ची मित्रता स्थापित करना यह कवि का अपना कैनवास है ।

कवि की भाषा सहज और सरल है अपने गंवई (देशज) परम्पराओं से ली हुई शब्दों को स्थापित करने की कोशिश है, अनुप्रास अलंकार ,बदलता मुहावरा, और नए शब्दों का निर्माण बखूबी देखी जा सकती है। जैसे- लोचन की लय में लेह,आह रे माई,प्रेम की 

पईना, घास,आड़े-आड़े,नेह, मेह ,भँवर के भाव में व ताव में, रेह,गेह,बेना, सेना,सरसराहट, हम देखने में देवता हैं ये राक्षस लेवता हैं, नाउन, मेहरारू, इतवार,लीख, बलम,होलापात,गठरियाँ, चपलवा,खटिया,बाधी,पाटी, भरकुंडी, ढीठ,छाँह,रहिया,हमार हिरवा,जैसे अनगिनत शब्दों का प्रयोग हुआ है यह कवि का खनिज है जहाँ से लेते हैं।

यहां कवि, रैदास की तरह सहज और सरल भाषाई अर्थों में अपनी बातें कहते हैं  कबीर व धूमिल की तरह प्रतिरोधी नहीं।

'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' हिंदी साहित्य की एक मुकम्मल लम्बी कविता है जो सही अर्थ देती है जिसमें मानवीय मूल्यों की सजग अभिव्यक्ति हुई है, मनुष्य होने की सर्वश्रेष्ठ रचना है।

                   © विनय विश्वा

     

'परिचय'

विनय विश्वा/विश्वकर्मा

ग्राम- मोहनियां, जिला-कैमूर(भभुआ),बिहार,

       भारत

शिक्षा-काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी,(हिंदी विभाग)

वर्तमान में- शिक्षक सह शोधार्थी

देश के महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित




Thursday, 8 September 2022

कवितांश : 'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' से

 


क्या आज घूमने चलना है अजंता और एलोरा की गुफाएँ?
या फिर कोणार्क मंदिर?
मुँह क्यों लटकाए हो?
क्या हुआ?
बोलते क्यों नहीं?
चुप क्यों हो?
चुपचाप
उसने देश का प्रतिष्ठित दैनिक समाचारपत्र
दिया मेरे हाथों में

दृश्य दर्दनाक है!

अख़बार का कोई चित्र
चिर रहा है दिल

दुख दुसाध्य है जो
मुक्ति की शिक्षा देता है
बुरे वक्त में परीक्षा लेता है
अपनों का अपने वह

दुखहरन दृष्टिकोण में
मित्र!
जूते बताते हैं
कैरेक्टर
जैसे चप्पलें बताती हैं
चरित्र

निःसंदेह
देह का दर्शन है विचित्र!

मन में बहुत रेह है
रूह की ऊह नेह की भाषा में
गेह की कूह है

लोकलय और शब्द के अध्ययन का प्रतिमान
संगीत में संस्कृति का गान है
आँखों की बारिश में अंतःकरण की कौंध
पीड़ा की पौध है

आँसू की बूँदों के इंतज़ार में
पसीने की बूँदें
आह की राह तक रही हैं
साँसें सन्नाटे में बहक रही हैं

आसमान में आत्मा की आकृति है
धरती पर खड़े
सदी के बड़े चित्रकार की
जो कभी-कभी जीवन के रंगमंच पर
किसी भावी नाटक का नायक घोषित होता रहता है

अँधेरे में मुसाफ़िर के माथे पर
पाथेय का प्रदीप जलाना
अपने पुरखों के पास जाना है
समुद्री चश्मे से देख रहा हूँ मैं
मछलियाँ जल के भीतर
सोने में असमर्थ हैं

कबूतर का अपने खोते में लौटना
बाज़-चील-गिद्ध को खलता है
शहर की प्रार्थना सुनकर
बरफ़ का पर्वत पिघलता है
और गाँव डूब जाता है
जहाँ अपना सपना जलता है
और प्रश्नों के पट पर पटकथा चलने लगती है
इस धरती के जीवन की और इस धरती की!

तो क्या
आज घूमने नहीं चलोगे?
घूमना! घू...म...ना!!
घूम तो हम रहें
पर,
कर्ज की कील की नोक पर
रोज़ मर-मर
डर-डर
हम किसान-मजबूर है न!

किसानों का घूमना केवल मेंड़ पर
लिखा है
और मजदूरों का घूमना मजदूरमंडी में
या फिर मकान के मुरेड़ पर
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या गिरजाघर में नहीं
वहाँ तो वे जाते हैं जो मोटे हैं
हम तो छोटे हैं

हमारे घूमने का अर्थ है
अपने बच्चों का पेट काटना!

यह क्या इस पृष्ठ पर तो खेल खेलने वालों को
नौकरी देने की चर्चा है
एक क्रिकेटर को सेनापति
एक पहलवान को रेल का अधिकारी
एक हॉकी प्लेयर को इंस्पेक्टर
इस खेल के खिलाड़ी को यह पोस्ट
उस खेल के खिलाड़ी को वह पोस्ट
किसान को केवल खेत
और मजदूर को केवल बेत
वाह रे सरकार!

मित्र!
इस यात्रा में बहुत खर्चा है
मैं नहीं चलूँगा
मेरे जिगर के जेब में सदियों पुरानी
बेगमपुर की चिट्ठी
और रामराज्य का पर्चा है
जिसे आज पढ़ना है
स्वयं को गढ़ना है

सत्ता से शब्द को लड़ना है
लड़ना है लड़ना है लड़ना है...!!

बिना कहे भी जानते हैं शब्द
कि उसकी पीठ पर सूरज
कितना तपता है
कि उसकी कई क्रियाओं की किरणें
दिन-दिन भर
दुखते हुए द्वीप पर कई विशेषण के साथ
गतिशील हैं, अक्सर
उसका अर्थ आकाश छूता हुआ
नज़र आता है
उम्र की ढलान से ऊपर एकदम ऊपर
उम्मीद से ताकने पर

किसी ठूँठ पेड़ पर दो-चार पत्तों का हिलना
भाषा में सम्भावना के सुमन का खिलना है
उसकी नंगी डाल से झूलता हुआ
बुद्ध पूर्णिमा का चाँद
गोया गाय की नाँद में रो रहा है

क्या आप विश्वास करेंगे
खूँटे से खुर की दूरी
हवा में हड़प्पाकालीन हड्डियों के हँसने की मजबूरी है
तत्सम को तदभव में रूपांतरित करने
से पहले जरूरी है
कि कारक की बेचैनी कोई बात हो
जुगनुओं की रात अपनी रात हो

मैं पूरी ताकत के साथ फेंकना चाहता हूँ
दोस्त का दुखड़ा
उस दिशा में उधर
जिधर मुक्ति का मार्ग जाता है
समय स्वयं कोई गीत गाता है
गूँगे स्वर में गूँजहीन तिमिर की तान
इस ज्योति की जान है

बिजलियाँ बारिश के विरुद्ध हैं
आँधी चल रही है
घड़ी की सुई लौट रही है बार-बार
लगातार
अपने बजने के बहाने
दिशा की निश्चित धुरी पर
जहाँ कोई स्याह चेहरा है
चमकती हुई चेतना चट्टान से टकरा रही है
चिनगारियाँ उत्पन्न हो रही हैं

उन्हें जनहित के लिए
संसद की सड़क पर लंबी दूरी तय करनी है
उनको पसंद हैं छंद के द्वंद्व
उनको पसंद हैं पिजड़े में बंद
शेर, भालू व चीता
जर्जर रामायण, महाभारत व गीता

उनमें गहन अग्नि के अधिष्ठान हैं
परंपरा के प्रकाश प्राणवान हैं
उनमें आधुनिक सभ्यता की सुबह का संदेश है
यह कैसा देश है?

कि घूमती संस्कृति के सोच
नोच रहे हैं जीती गाय को
असहाय को, आह! मैं देख रहा हूँ
देखता रहा हूँ
देखता रहूँगा कब तक?
कब तक?
यह मेरा स्वयं से सवाल है दोस्त!

प्रगाढ़ प्रेम परिभ्रमण करता रहेगा जीवन भर
एक आदमी से दूसरे आदमी में
अनवरत-निरंतर
नित्य नींद में सफलता की सीढ़ी
चढ़ रही है मेरी पीढ़ी
मगर
महामारी में मुहावरों की मौत
कवि के लिए चिंता का विषय है
चारों ओर भय है
पर, नीति निर्भय है

ज़हरीली हो रही है हवा
मुस्कुरा रहा है पत्थर
और
ख़ून के अँधेरे में आश्वासन के अक्षर
या यों कहें
कि संकल्प-धर्मा चेतना का लहुलूहान स्वर
कि लय के लश्कर
सड़क पर चलता हुआ आदमी
अपनी छाया में कैद है
कविता में
दिमाग दिल का वैद्य है
ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से भीतर

मानवी अंतर्कथाएँ जन्म ले रही हैं
तुम्हारी आँखों में दोस्त
हृदय के घाव हरे-भरे हैं
नींद में निर्भार होने लगी है नज़र

बस अनस्तित्व का समुद्र उमड़ा है
दोस्त, तुम्हारी नसों के अंदर

मैं चाहता हूँ
कि तुम रोशनी ढोता जिस्म सा
जीव के रूप में पूरी रात मेरे साथ रहना
मैं लालसा और घृणा से भर देने वाली चमक से कोसों दूर हूँ
एक संबोधन उपजा है
तुम्हारे लिए सिर्फ़ तुम्हारे लिए
कि तुम
सत्य हो बाकी सब मिथ्या
हे आत्मस्थ विचार!!

©गोलेन्द्र पटेल

(शुक्रवार, 27-11-2020 / कवितांश : 'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' से)

संपर्क :
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com




Tuesday, 6 September 2022

रविशंकर उपाध्याय स्मृति युवा कविता पुरस्कार से सम्मानित कवि गोलेन्द्र पटेल की 30 कविताएँ

 



रविशंकर उपाध्याय स्मृति युवा कविता पुरस्कार से सम्मानित कवि गोलेन्द्र पटेल की 30 कविताएँ :-

1).

जँगरैत स्त्रियाँ
_______________________________________

जँगरैत स्त्रियाँ
भोरहरी में उठती हैं
और तब तक खटती रहती हैं
जब तक कि चेहरे पर बारह नहीं बज जाता

जैसे ही बजता है बारह
बीत चुकी होती है
आधी रात

नींद के विरुद्ध
आँखों से टपकती हैं बूँदें
बहता है हरहराकर आँसू
और उनकी बेचैनी
स्वप्न में बड़बड़ाती है
दुःख की बात

उन्हें लगता है
कि सूरज आ चुका है
चूल्हे के पास
उनका चाँद डूब रहा है
उदास

उनकी ऋतुएँ
जाड़ा-गरमी-बरसात
उनके साथ
उनकी तरह रोती हैं

वे चैन से नहीं सोती हैं किसी भी दिन
उन्हें डर है कि कहीं उन्हें उजाले में शौच न लग जाय
कहीं उनकी पड़ोसी सखियाँ
उन्हें छोड़कर चली न जायँ
खेतों की ओर
जहाँ वे अक्सर अपना दुख-सुख साझा करती हैं

जब वे लौटती हैं चूल्हानी
तो पहले पकाती हैं भात
फिर सब्जी
फिर सेंकती हैं रोटियाँ
और याद करती हैं
बचपन के खेल
इतना पानी घघो रानी
चोटियाँ और गोटियाँ

आह! आज है
उनकी आँखों में सागर से अधिक पानी!

घर के सभी देवगण
थाली लेकर उपस्थित हैं
वे परोस रही हैं पकवान अपने भगवान को
जो अक्सर उन्हें जँगरचोर की संज्ञा देते हैं
और कहते हैं कि "अबला जीवन हाय,
तुम्हारी यही कहानी,
आंचल में है दूध
और आंखों में पानी।"

वे अपनी भूख को काबू करने की कला में सिद्धहस्त हैं
इसका गवाह हैं
वे जली हुई रोटियां और कड़ाही के मसाले
जिन्हें वे अंत में खाती हैं
पानी के सहारे

पानी की पहचान दरअसल उनकी पीड़ा की पहचान है
जिसे गुप्त जी ने महसूस किया था कभी
और कुछ अन्य लोगों ने भी

चौका बरतन करना इतना आसान नहीं है
जितना आसान है बाहर जाना
और कमाना

अरे श्रेष्ठ देवताओ!
एक दिन घरेलू कार्य करके तो देखो
तुम्हें तुम्हारी नानी न याद आ गयी
तो फिर कहना कि
तुम्हारी जोरू जँगरैत नहीं है!

2).

गोड़िन
_______________________________________

कुओं की भरकुंडी प्यास रही हैं

चोर खोल ले जा रहे हैं चपाकल
नलकूपों को नगद चाहिए पैसे 

गोड़िन का गोड़ भारी है
गला सूख रहा है!

निःशुल्क है नदी का पानी

भरसाँय झोंक रही है भूख
आग पी रही हैं आँखें

कउरनी कउर रही है कविता 

जो दाने ममत्व पाना चाहते हैं
उछल उछल कर जा रहे हैं आँचल में

और जो उचक उचक कर देख रहे हैं माथे पर पसीना
वे गिर रहे हैं कर्ज़ की कड़ाही में
मेरा मक्का मटर भुन गया है
चना चावल बाकी है!

कोयरी टोला में कोई टेघर गया है
अर्थी का पाथेय -
लाई भून रही हैं

जिसे छिड़कने हैं अंतिम सफ़र में
भूख के विरुद्ध!

सभी दाना भुनाने वाले जा रहे हैं कोयरीटोला
आदमी जवान है
डेढ़ बरस और तीन बरस की बच्चियाँ देह से लिपट कर रो रही हैं
चीख रही हैं चिल्ला रही हैं कह रही हैं उठा पापा जागा पापा.....

उसकी औरत को एक वर्ष पहले ही डँस लिया था साँप
हे देवी-देवताओ!
देहात का देहांत दृश्य देख दिल दहल गया

आह विधवा व्यथा!
गोड़ भी छोड़ गया है गर्भ में प्यार की निशानी
गोड़िन के नयन से निकली है गंगा
प्यासी पथराई उम्मीदों के विरुद्ध
इस कोरोना समय में!

3).

थ्रेसर
_______________________________________

थ्रेसर में कटा मजदूर का दायाँ हाथ
देखकर
ट्रैक्टर का मालिक मौन है
और अन्यात्मा दुखी
उसके साथियों की संवेदना समझा रही है
किसान को
कि रक्त तो भूसा सोख गया है
किंतु गेहूँ में हड्डियों के बुरादे और माँस के लोथड़े
साफ दिखाई दे रहे हैं

कराहता हुआ मन कुछ कहे
तो बुरा मत मानना
बातों के बोझ से दबा दिमाग
बोलता है / और बोल रहा है
न तर्क , न तत्थ
सिर्फ भावना है
दो के संवादों के बीच का सेतु
सत्य के सागर में
नौकाविहार करना कठिन है
किंतु हम कर रहे हैं
थ्रेसर पर पुनः चढ़ कर -

बुजुर्ग कहते हैं
कि दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा होता है
तो फिर कुछ लोग रोटी से खेलते क्यों हैं
क्या उनके नाम भी रोटी पर लिखे होते हैं
जो हलक में उतरने से पहले ही छिन लेते हैं
खेलने के लिए

बताओ न दिल्ली के दादा
गेहूँ की कटाई कब दोगे?

4).

डोमिन
_______________________________________

सवत्स सत्य सुनो , डोम में छुपा ओम
शव के साथ शुरू--जिन्दगी , शव के साथ खत्म होती है!

संवेदनाओं के श्मशान पर चेतना की चिता को
इंद्र भी बुझा नहीं सके बरसात में
फिर मर्दमेघ मड़रा रहे हैं क्यों?

शिव! सुबह से शाम तक शवाग्नि सोख रहे हैं सूर्य

चिलम खींच रहे हैं डोम , व्योम पी रहे हैं धूम
चिता की अधजली लकड़ी , चूल्हे में जल रही है
डकची में पक रहा है डोड़हा
ड्योढ़ी पर बैठी डोमिन , डिबरी जला बुन रही है चावल से कंकड़ व कीड़ें
भूखे बच्चे सो रहे हैं
कुत्ते अँधेरे में रो रहे हैं

जगी बेटी पूछ रही है
पिता की पगड़ी से क्यों आ रही है गंध मुर्दों की

माँ! उत्तर देती है
तुम्हारे पिता मसान से आ रहे हैं

माँ! हमारे पिता को सब डोम राजा कहते हैं
तो फिर हम क्यों सोते हैं भूखे

डोमिन उत्तर देती है-
ऐसे प्रश्न से अक्सर आँखें डबडबा जाती हैं
और अबोध बच्चियाँ ढूँढ लेती हैं उत्तर
चमकती मौन मोतियों में!

कभी कभी डोम के दरवाज़े पर स्वतः बजता है डमरू
लोकतंत्र की डगर से आते हैं देवगण
मोक्ष देने वाले को मोक्ष देने

उनका स्वार्थ जब पहुँचता है पास
तब परमार्थ में परिवर्तित हो जाता है

राजा हरिश्चंद्र बन जाते हैं देवगण
जिसे देख कर गंगा गाने लगती है
रोहित की माता तारा का करुणगीत

और अनेक अनुश्रुतियाँ दोहराती हैं
दुधमुंही के दिन खदकते चावल की बुदबुदाहटें

अंत में डोमिन कहती है
अब सो जा बिटिया सवेरा हो रहा है!

5).

चुड़िहारिन 
_______________________________________

बूढ़ी पत्तियाँ हर वर्ष
नयी पत्तियों को अपनी जगह देती हैं सहर्ष

आकाश का शासक शिकारी है
टहनियों पर चुपचाप बैठी हैं चिड़ियाँ

चुड़िहारिन चिल्ला रही है
संसद की सड़क पर 
चूड़ी ले लो....!

चुचकी चूचुक चूस रहा है शिशु
खोपड़ी का खून पी रही हैं जूँ

चमचमाती धूप चमड़ी जला रही है
चौंधियाई आँखें अचकचा रही हैं
टोकरी में जीवन का बोझ ढो रही हैं
लोकतंत्र की लोकल लड़की....!

सफ़र अभी शेष है
अँतड़ी में आँधी चल रही है
सूरज ढल रहा है , रात्रि आ रही है

खटिया के खटमल जाग रहे हैं

विश्राम कहाँ करें कर्षिता -
हे बाज़! चहक कर पूछ रही हैं चुप्पी चिड़ियाँ
उत्तर दो!!

6).

मजदूर थककर हो गए हैं चूर
_______________________________________

मैं अपनी एक लुंगी पहनता हूँ
और एक ओढ़ता हूँ
और उसी से बाँधता हूँ पगड़ी
जब उससे टपकता है
श्रम का शहद
और गमकती है
जिंदगी की गंध
तब सब कहते हैं
कि रब ने बनाया है मुझे मजदूरों का कवि
और मेरी कविता प्रस्तुत करती है
शोषितों की छवि
जिसमें उन्हें हँसती हुई दिखाई देती है
हाशिए पर खड़ी नयी पीढ़ी
अचानक उनकी दृष्टि की सृष्टि कंपित होती है
और दीवार से फिसलने लगती है सीढ़ी
फिसलने वाले गाने लगते हैं
कि हर बार फिसलने पर सहारा देती है
शब्द की सत्ता
इस बार भी देगी

निर्भयता से बाँस की सड़ी सीढ़ी पर
कोई गिट्टी की भरी तगाड़ी
तो कोई बालू की झउआ लेकर चढ़ रहा है
कोई लोक रहा है
तो कोई नीचे से ऊपर फेंक रहा है ईंट
कोई मिला रहा है अढ़ाई एक कऽ मसाला
तो कोई करनी चला रहा है तेजी से
कोई बतिया रहा है साहुल-सूत के भाषा में
तो कोई खिसिया रहा है अपनी खिंचाई होते देखकर
ढलाई हो रही है ताबड़तोड़
जीतोड़ काम करने के बाद एक मजदूर दुःख की गठरी खोल रहा है
उसके चेहरे का रंग बोल रहा है
कि मजदूरी कम देने के लिए कमरतोड़ दाँव लगा रहे हैं साहब

सारे मजदूर थककर हो गए हैं चूर
हिसाब हो रहा है
पगड़ी में पोंछकर आँसू थाम रहे हैं पैसे
ऐसे लोगों का कैसे चलेता है परिवार
जो रोज़ कुआँ खोदकर पानी पीते हैं
क्या बताऊँ कि उनके बच्चे अक्सर भूखे सोते हैं
तो साहब दे देंगे पैसे?

7).

जोंक

रोपनी जब करते हैं कर्षित किसान ;
तब रक्त चूसती हैं जोंक!
चूहे फसल नहीं चरते
फसल चरते हैं
साँड और नीलगाय.....
चूहे तो बस संग्रह करते हैं
गहरे गोदामीय बिल में!
टिड्डे पत्तियों के साथ
पुरुषार्थ को चाट जाते हैं
आपस में युद्ध कर
काले कौए मक्का बाजरा बांट खाते हैं!
प्यासी धूप
पसीना पीती है खेत में
जोंक की भाँति!
अंत में अक्सर ही
कर्ज के कच्चे खट्टे कायफल दिख जाते हैं
सिवान के हरे पेड़ पर लटके हुए!
इसे ही कभी कभी ढोता है एक किसान
सड़क से संसद तक की अपनी उड़ान में!

8).

उम्मीद की उपज
_______________________________________

उठो वत्स!
भोर से ही
जिंदगी का बोझ ढोना
किसान होने की पहली शर्त है
धान उगा
प्राण उगा
मुस्कान उगी
पहचान उगी
और उग रही
उम्मीद की किरण
सुबह सुबह
हमारे छोटे हो रहे
खेत से….!

9).

बारिश के मौसम में ओस नहीं आँसू गिरते हैं
_______________________________________

एक किसान
बारिश में
बाएं हाथ में छाता थामे
दाएं में लाठी 
मौन जा रहा था 
मेंड़ पर

मेंड़ बिछलहर थी

लड़खड़ाते-संभलते...
अंततः गिरते ही देखा एक शब्द
घास पर पड़ा है

उसने उठाया
और पीछे खड़े कवि को दे दिया

कवि ने शब्द लेकर कविता दी
और उसने कविता को
एक आलोचक को थमा दिया

आलोचक ने उसे कहानी कहकर
पुनः किसान के पास पहुँचा दिया

उसने उस कहानी को एक आचार्य को दिया
आचार्य ने निबंध कहकर वापस लौटा दिया

अंत में उसने उस निबंध को एक नेता को दिया
नेता ने भाषण समझ कर जनता के बीच दिया

जनता रो रही है
किसान समझ गया
ये आकाश से गिरे
पूर्वजों के आँसू हैं
जो कभी इसी मेंड़ पर भूख से तड़प कर मरे हैं

बारिश के मौसम में ओस नहीं
आंसू गिरते हैं!

10).

गड़ेरिया
_______________________________________

१)
एक गड़ेरिये के
इशारे पर
खेत की फ़सलें
चर रही हैं
भेड़ें
भेड़ों के साथ

मेंड़ पर
वह भयभीत है
पर उसकी आँखें खुली ताक रही हैं
दूर
बहुत दूर
दिल्ली की ओर

२)
घर पर बैठे
खेतिहर के मन में
एक ही प्रश्न है
इस बार क्या होगा?

हर वर्ष
मेरी मचान उड़ जाती है
आँधियों में
बिजूकों का पता नहीं चलता
और
मेरे हिस्से का हर्ष
नहीं रहता
मेरे हृदय में
क्या
इसलिए कि मैं हलधर हूँ

३)
भेड़ हाँकना आसान नहीं है
हलधर
हीरे हिर्य होरना
बाँ..बाँ..बायें...दायें
चिल्लाते क्यों हो
तुम्हारे नाधे
बैलें
समझदार हैं

४)
मेरी भेड़ें भूल जाती हैं
अपनी राह
मैं हाँक रहा हूँ
सही दिशा में
मुझे चलने दो
गुरु
मैं गड़ेरिया हूँ
भारत का !

11).

रोपनहारिन माँ
_______________________________________

१).
जब आकाश से गिरते हैं
पूर्वजों के संचित आँसू
तब खेतिहर करते हैं मजबूत
अपनी मेंड़

मेंड़ तो मजबूत नहीं हुई
पर फरसी-फरसा लाठी-लाठा झोटी-झोटा मारी-मारा उठा-पटक....
अंत में थाने!

२).
रोपनी के समय
रोटी के लिए
संडा जब कबारते हैं मजदूर
तब रक्त चूसती हैं - जोंक

दोहरे दोहित दलित दुबली पतली देह थककर
विश्राम जब करती हैं बिस्तरे पर
तब शेष शोणित - खटमल

३).
मेंड़ पर सोए शिशु को च्यूँटे काट रहे हैं
चीख सुन रहे हैं मालिक मौन
उन्हें क्या फर्क पड़ता है कि वह कौन है?
मजदूरनी माँ कहती है शांत रह लल्ला
अभी एक पैड़ा और बचा है
रोप लेने दे

बच्चे के पास पहुंचा तो देखा
एक दोडहा , दो तीन बिच्छुएँ और एक केकड़ा थोड़ी दूरी पर हैं

पैर में काट लिया है बर्र
मैं शिशु को घिंनाते-घिंनाते उठाया
क्योंकि वह अपने मल-मूत्र से तरबतर था

तुरंत बर्रों के मंत्रों का पाठ किया
फिर अपनी चाची को बुलाया -
बिच्छू झाड़ी-फूँकी
चमरौटी से बुलाया बुढउ दादा को
जो दोडहा झाड़े-फूँके
वे हर तरह के किरा झारते हैं
जैसे - साँप, करइत, गूँगी व दोडहा इत्यादि

बिच्छू-दोडहा तो तसल्ली के लिए झाड़ा गया
गाँव में सभी को पता है कि मैं कुछ मंत्र जानता हूँ
जैसे - बर्र, भभतुआ, थनइल, नज़र व रेघनी इत्यादि
सीखा तो बिच्छू-साँप का भी था
पर उसे तभी भूल गया जब विज्ञान का विद्यार्थी था
जो स्मृतियों में जीवित हैं उसे भी भूल गया हूँ
ऐसा कहता हूँ सभी से

मंत्रों से आँखें कचकचाई हैं
होठों की हँसी हृदय में हर्ष से हहराई है
फूँकने पर केश लहराएँ हैं
कर्षित कली की मेंड़ पर

आज मुझे लग रहा है मंत्र सीखना सार्थक रहा
हे समय!
इस महामारी में मंत्र से मेडिकल तक की यात्रा जारी है
पर, यह यात्रा कब रुकेगी?

12).

लकड़हारिन
(बचपन से बुढ़ापे तक बाँस)
_______________________________________

तवा तटस्थ है चूल्हा उदास
पटरियों पर बिखर गया है भात
कूड़ादान में रोती है रोटी
भूख नोचती है आँत
पेट ताक रहा है गैर का पैर

खैर जनतंत्र के जंगल में
एक लड़की बिन रही है लकड़ी
जहाँ अक्सर भूखे होते हैं
हिंसक और खूँखार जानवर
यहाँ तक कि राष्ट्रीय पशु बाघ भी
 
हवा तेज चलती है
पत्तियाँ गिरती हैं नीचे
जिसमें छुपे होते हैं साँप बिच्छू गोजर
जरा सी खड़खड़ाहट से काँप जाती है रूह
हाथ से जब-जब उठाती है वह लड़की लकड़ी
मैं डर जाता हूँ...!

13).

मूर्तिकारिन
_______________________________________

राजमंदिरों के महात्माओं
मौन मूर्तिकार की स्त्री हूँ

समय की छेनी-हथौड़ी से
स्वयं को गढ़ रही हूँ

चुप्पी तोड़ रही है चिंगारी!

सूरज को लगा है गरहन
लालटेनों के तेल खत्म हो गए हैं

चारों ओर अंधेरा है
कहर रहे हैं हर शहर

समुद्र की तूफानी हवा आ गई है गाँव
दीये बुझ रहे हैं तेजी से
मणि निगल रहे हैं साँप

और आम चीख चली -
दिल्ली!

14).

श्रम का स्वाद 
_______________________________________

गाँव से शहर के गोदाम में गेहूँ?
गरीबों के पक्ष में बोलने वाला गेहूँ
एक दिन गोदाम से कहा
ऐसा क्यों होता है
कि अक्सर अकेले में अनाज
सम्पन्न से पूछता है
जो तुम खा रहे हो
क्या तुम्हें पता है
कि वह किस ज़मीन की उपज है
उसमें किसके श्रम का स्वाद है
इतनी ख़ुशबू कहाँ से आई?
तुम हो कि
ठूँसे जा रहे हो रोटी
निःशब्द!

15).

उर्वी की ऊर्जा 
_______________________________________

उम्मीद का उत्सव है
उक्ति-युक्ति उछल-कूद रही है
उपज के ऊपर

उर है उर्वर
घास के पास बैठी ऊढ़ा उठ कर
ऊन बुन रही है
उमंग चुह रही है ऊख
ओस बटोर रही है उषा

उल्का गिरती है
उत्तर में
अंदर से बाहर आता है अक्षर
ऊसर में
स्वर उगाने

उद्भावना उड़ती है हवा में
उर्वी की ऊर्जा
उपेक्षित की भरती है उदर
उद्देश्य है साफ
ऊष्मा देती है उपहार में उजाला
अंधेरे से है उम्मीद।

16).

ऊख 
_______________________________________

(१)
प्रजा को
प्रजातंत्र की मशीन में पेरने से
रस नहीं रक्त निकलता है साहब!

रस तो
हड्डियों को तोड़ने
नसों को निचोड़ने से
प्राप्त होता है

(२)
बार बार कई बार
बंजर को जोतने-कोड़ने से
ज़मीन हो जाती है उर्वर

मिट्टी में धँसी जड़ें
श्रम की गंध सोखती हैं
खेत में
उम्मीदें उपजाती हैं ऊख

(३)
कोल्हू के बैल होते हैं जब कर्षित किसान
तब खाँड़ खाती है दुनिया
और आपके दोनों हाथों में होता है गुड़!

17).

ईर्ष्या की खेती
_______________________________________

मिट्टी की मिठास को सोख
जिद की ज़मीन पर
उगी है
इच्छाओं की ईख

खेत में
चुपचाप चेफा छिल रही है
चरित्र
और चुह रही है
ईर्ष्या

छिलके पर  
मक्खियाँ भिनभिना रही हैं
और द्वेष देख रहा है
मचान से दूर
बहुत दूर
चरती हुई निंदा की नीलगाय !

18).

किसान है क्रोध 
_______________________________________

निंदा की नज़र
तेज है
इच्छा के विरुद्ध भिनभिना रही हैं
बाज़ार की मक्खियाँ

अभिमान की आवाज़ है

एक दिन स्पर्द्धा के साथ
चरित्र चखती है
इमली और इमरती का स्वाद
द्वेष की दुकान पर
और घृणा के घड़े से पीती है पानी

गर्व के गिलास में
ईर्ष्या अपने
इब्न के लिए लेकर खड़ी है
राजनीति का रस

प्रतिद्वन्द्विता के पथ पर

कुढ़न की खेती का
किसान है क्रोध !

19).

जवानी का जंग
_______________________________________

बुरे समय में
जिंदगी का कोई पृष्ठ खोल कर
उँघते उँघते पढ़ना
स्वप्न में
जागते रहना है

शासक के शान में
सुबह से शाम तक
संसदीय सड़क पर सांत्वना का सूखा सागौन सिंचना
वन में
राजनीति का रोना है

अंधेरे में
जुगनूँ की देह ढोती है रौशनी
जानने और पहचानने के बीच बँधी रस्सी पर
नयन की नायिका का नींदी नृत्य करना

नाटक की नाव का
नदी से
किनारे लगना है

फोकस में
घड़ी की सूई सुख-दुख पर जाती है बारबार
जिद्दी जीत जाता है
रण में
जवानी का जंग

समस्या के सरहद पर खड़े सिपाही
समर में
लड़ना चाहते हैं
पर, सेनापति के आदेश पर देखते रहते हैं
सफ़र में
उम्र का उतार-चढ़ाव

दूरबीन वही है
दृश्य बदल रहा है
किले की काई संकेत दे रही है
कि शहंशाह के कुल का पतन निश्चित है
दीवारे ढहेंगी
दरबार खाली करो

दिल्ली दूह रही है
बिसुकी गाय
दोपहर में

प्रजा का देवता श्रीकृष्ण नाराज हैं
कवि की भाँति!

20).

सफ़र

सरसराहट संसद तक बिन विश्राम सफ़र करेगी
_______________________________________

तिर्रियाँ पकड़ रही हैं
गाँव की कच्ची उम्र
तितलियों के पीछे दौड़ रही है
पकड़ने की इच्छा
अबोध बच्चियों की!

बच्चें काँचे खेल रहे हैं
सामने वृद्ध नीम की डाल पर बैठी है
मायूसी और मौन  

मादा नीलकंठ बहुत दिन बाद दिखी है
दो रोज़ पहले मैना दिखी थी इसी डाल पर उदास
और इसी डाल पर अक्सर बैठती हैं 
चुप्पी चिड़ियाँ!

कोयल कूक रही है
शांत पत्तियाँ सुन रही हैं
सुबह की सरसराहट व शाम की चहचहाहट चीख हैं
क्रमशः हवा और पाखी की

चहचहाहट चार कोस तक जाएगी
फिर टकराएगी चट्टानों और पर्वतों से
फिर जाएगी ; चौराहों पर कुछ क्षण रुक
चलती चली जाएगी सड़क धर
सरसराहट संसद तक बिन विश्राम किए!

21).

चिहुँकती चिट्ठी 
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बर्फ़ की कोहरिया साड़ी
ठंड की देह ढंक
लहरा रही है लहरों-सी

स्मृतियों की डार पर
हिमालय की हवा
नदी में चलती नाव का घाव है

सहलाती हुई
होंठ चूमती है चुपचाप

क्षितिज
वासना के वैश्विक वृक्ष पर
वसंत का वस्त्र
हटाता हुआ देखता है

बात-बात में
चेतन से निकलती है
चेतना की भाप

पत्तियाँ गिरती हैं नीचे
रूह काँपने लगती है

खड़खड़ाहट खत रचती है
सूर्योदयी सरसराहट के नाम
समुद्री तट पर

एक सफेद चिड़िया उड़ान भरी है
संसद की ओर
गिद्ध-चील ऊपर ही
छिनना चाहते हैं
ख़ून का खत

मंत्री बाज का कहना है
गरुड़ का आदेश आकाश में
विष्णु का आदेश है

आकाशीय प्रजा सह रही है
शिकारी पक्षियों का अत्याचार
चिड़िया का गला काट दिया राजा ने

रक्त की छींटे गिर रही हैं
रेगिस्तानी धरा पर

अन्य खुश हैं
विष्णु का आदेश सुन कर
मौसम कोई भी हो
कमजोर....
सदैव कराहते हैं
कर्ज की चोट से

इससे मुक्ति का एक ही उपाय है
अपने एक वोट से
बदल दो लोकतंत्र का राजा
शिक्षित शिक्षा से
शर्मनाक व्यवस्था

पर वास्तव में
आकाशीय सत्ता तानाशाही सत्ता है
इसमें वोट और नोट का संबंध धरती-सा नहीं है

चिट्ठी चिहुँक रही है
चहचहाहट के स्वर में सुबह-सुबह
मैं क्या करूँ?

22).

मुसहरिन माँ 
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धूप में सूप से
धूल फटकारती मुसहरिन माँ को देखते
महसूस किया है भूख की भयानक पीड़ा
और सूँघ मूसकइल मिट्टी में गेहूँ की गंध
जिसमें जिंदगी का स्वाद है

चूहा बड़ी मशक्कत से चुराया है
(जिसे चुराने के चक्कर में अनेक चूहों को खाना पड़ा जहर)
अपने और अपनों के लिए

आह! न उसका गेह रहा न गेहूँ
अब उसके भूख का क्या होगा?
उस माँ का आँसू पूछ रहा है स्वात्मा से
यह मैंने क्या किया?

मैं कितना निष्ठुर हूँ
दूसरे के भूखे बच्चों का अन्न खा रही हूँ
और खिला रही हूँ अपने चारों बच्चियों को

सर पर सूर्य खड़ा है
सामने कंकाल पड़ा है
उन चूहों का
जो विष युक्त स्वाद चखे हैं
बिल के बाहर
अपने बच्चों से पहले

आज मेरी बारी है साहब!

23).

कोहारिन काकी की कला 
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लटक रहा है
मानस के सिकहर पर
मक्खन से भरा
मथुरा का मार्मिक मटका

इस पर उत्कीर्ण है
कोहारिन काकी की कला।

गंध सूँघ रहा है बन-बिलार
बिल्ली थक कर बैठी है नीचे

मक्खियाँ भिनभिना रही हैं
चूहे चढ़ कर चाट रहे हैं मक्खन

अंततः बन-बिलार फोड़ दिया घर का घड़ा।

पूर्वजों ने ठीक ही कहा है
कला का महत्व मनुष्य जानते हैं
जानवर नहीं।

जानवर तो अपना ही जोतते रहते हैं

काकी ठीक कहती हैं
भूख कला को जन्म देती है।

कुछ भी हो
बन-बिलार बलवान के साथ-साथ चतुर भी है
क्योंकि वह मक्खन और चूहे को एकसाथ खा रहा है।

24).

सब ठीक होगा
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धैर्य अस्वस्थ है
रिश्तों की रस्सी से बाँधी जा रही है राय
दुविधा दूर हुई
कठिन काल में कवि का कथन कृपा है
सब ठीक होगा
अशेष शुभकामनायें!

प्रेम ,स्नेह व सहानुभूति सक्रिय हैं
जीवन की पाठशाला में
बुरे दिन व्यर्थ नहीं हुए
कोठरी में कैद कोविद ने दिया
अंधेरे में गाने के लिए रौशनी का गीत

आँधी-तूफ़ान का मौसम है
खुले में दीपक का बुझना तय है
अक्सर ऐसे ही समय में संसदीय सड़क पर
शब्दों के छाते उलट जाते हैं
और छड़ी फिसल जाती है

अचानक आदमी गिर जाता है

वह देखता है जब आँखें खोल कर
तब किले की ओर
बीमारी की बिजली चमक रही होती है
और आश्वासन की आवाज़ कान में सुनाई देती है

गिरा हुआ आदमी ख़ुद खड़ा होता है
और अपनी पूरी ताकत के साथ
शेष सफ़र के लिए निकल पड़ता है!!

25).

देह विमर्श
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जब
स्त्री ढोती है
गर्भ में सृष्टि
तब
परिवार का पुरुषत्व
उसे श्रद्धा के पलकों पर
धर
धरती का सारा सुख देना चाहता है
घर ; 

एक कविता
जो बंजर जमीन और सूखी नदी की है
समय की समीक्षा-- 'शरीर-विमर्श'
सतीत्व के संकेत
सत्य को भूल
उसे बाँझ की संज्ञा दी।

26).

नदी बीच मछुआरिन
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जलदेवी की तपस्या से
मछुआरे को मिल गया है मोक्ष
नदी बीच स्थिर है नाव
मछुआरिन फेंकती है जब जाल
तब केकड़े काट देते हैं

मछलियाँ कहती हैं
माता मुझे अभी मुक्ति नहीं चाहिए-
नदी से!

27).

👁️आँख👁️
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1.
सिर्फ और सिर्फ देखने के लिए नहीं होती है आँख
फिर भी देखो तो ऐसे जैसे देखता है कोई रचनाकार
2.
दृष्टि होती है तो उसकी अपनी दुनिया भी होती है
जब भी दिखते हैं तारे दिन में, वह गुनगुनाती है आशा-गीत
3.
दोपहरी में रेगिस्तानी राहों पर दौड़ती हैं प्यासी नजरें
पुरवाई पछुआ से पूछती है, ऐसा क्यों?
4.
धूल-धक्कड़ के बवंडर में बचानी है आँख
वक्त पर धूपिया चश्मा लेना अच्छा होगा
यही कहेगी हर अनुभव भरी, पकी उम्र
5.
आम आँखों की तरह नहीं होती है दिल्ली की आँख
वह बिल्ली की तरह होती है हर आँख का रास्ता काटती
6.
अलग-अलग आँखों के लिए अलग-अलग
परिभाषाएँ हैं देखने की क्रिया की
कभी आँखें नीचे होती हैं, कभी ऊपर
कभी सफेद होती हैं तो कभी लाल !

28).

गुढ़ी
________________________________________

लौनी गेहूँ का हो या धान का
बोझा बाँधने के लिए - गुढ़ी
बूढ़ी ही पुरवाती है
बहू बाँकी से ऐंठती है पुवाल
और पीड़ा उसकी कलाई !

29).


घिरनी
________________________________________

फोन पर शहर की काकी ने कहा है
कल से कल में पानी नहीं आ रहा है उनके यहाँ

अम्माँ! आँखों का पानी सूख गया है
भरकुंडी में है कीचड़
खाली बाल्टी रो रही है
जगत पर असहाय पड़ी डोरी क्या करे?

आह! जनता की तरह मौन है घिरनी
और तुम हँस रही हो।

30).
मेरे मुल्क का मीडिया
________________________________________

बिच्छू के बिल में
नेवला और सर्प की सलाह पर
चूहों के केस की सुनवाई कर रहे हैं-
गोहटा!

गिरगिट और गोजर सभा के सम्मानित सदस्य हैं
काने कुत्ते अंगरक्षक हैं
बहरी बिल्लियाँ बिल के बाहर बंदूक लेकर खड़ी हैं

टिड्डे पिला रहे हैं चाय-पानी

गुप्तचर कौएं कुछ कह रहे हैं
साँड़ समर्थन में सिर हिला रहे हैं
नीलगायें नृत्य कर रही हैं

छिपकलियाँ सुन रही हैं संवाद-समीक्षा
सेनापति सर्प की
मंत्री नेवला की
राजा गोहटा की....

अंत में केंचुआ किसान को देता है श्रधांजलि
खेत में
और मुर्गा मौन हो जाता है
जिसे प्रजातंत्र कहता है मेरा प्यारा पुत्र
मेरे मुल्क का मीडिया!
संक्षिप्त परिचय :-

नाम : गोलेन्द्र पटेल

मूल नाम : गोलेंद्र ज्ञान
जन्म : 5 अगस्त, 1999 ई.
जन्मस्थान : खजूरगाँव, साहुपुरी, चंदौली, उत्तर प्रदेश।
शिक्षा : बी.ए. (हिंदी प्रतिष्ठा) व एम.ए. (अध्ययनरत), बी.एच.यू.।
भाषा : हिंदी व भोजपुरी।
विधा : कविता, नवगीत, कहानी, निबंध, नाटक, उपन्यास व आलोचना।
माता : उत्तम देवी
पिता : नन्दलाल

पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन :

कविताएँ और आलेख -  'प्राची', 'बहुमत', 'आजकल', 'व्यंग्य कथा', 'साखी', 'वागर्थ', 'काव्य प्रहर', 'प्रेरणा अंशु', 'नव निकष', 'सद्भावना', 'जनसंदेश टाइम्स', 'विजय दर्पण टाइम्स', 'रणभेरी', 'पदचिह्न', 'अग्निधर्मा', 'नेशनल एक्सप्रेस', 'अमर उजाला', 'पुरवाई', 'सुवासित' ,'गौरवशाली भारत' ,'सत्राची' ,'रेवान्त' ,'साहित्य बीकानेर' ,'उदिता' ,'विश्व गाथा' , 'कविता-कानन उ.प्र.' , 'रचनावली', 'जन-आकांक्षा', 'समकालीन त्रिवेणी', 'पाखी', 'सबलोग', 'रचना उत्सव', 'आईडियासिटी', 'नव किरण' आदि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित।

विशेष : कोरोनाकालीन कविताओं का संचयन "तिमिर में ज्योति जैसे" (सं. प्रो. अरुण होता) में मेरी दो कविताएँ हैं और "कविता में किसान" (सं. नीरज कुमार मिश्र एवं अमरजीत कौंके) में कविता।

ब्लॉग्स, वेबसाइट और ई-पत्रिकाओं में प्रकाशन :-

गूगल के 100+ पॉपुलर साइट्स पर - 'कविता कोश' , 'गद्य कोश', 'हिन्दी कविता', 'साहित्य कुञ्ज', 'साहित्यिकी', 'जनता की आवाज़', 'पोषम पा', 'अपनी माटी', 'द लल्लनटॉप', 'अमर उजाला', 'समकालीन जनमत', 'लोकसाक्ष्य', 'अद्यतन कालक्रम', 'द साहित्यग्राम', 'लोकमंच', 'साहित्य रचना ई-पत्रिका', 'राष्ट्र चेतना पत्रिका', 'डुगडुगी', 'साहित्य सार', 'हस्तक्षेप', 'जन ज्वार', 'जखीरा डॉट कॉम', 'संवेदन स्पर्श - अभिप्राय', 'मीडिया स्वराज', 'अक्षरङ्ग', 'जानकी पुल', 'द पुरवाई', 'उम्मीदें', 'बोलती जिंदगी', 'फ्यूजबल्ब्स', 'गढ़निनाद', 'कविता बहार', 'हमारा मोर्चा', 'इंद्रधनुष जर्नल' , 'साहित्य सिनेमा सेतु' , 'साहित्य सारथी' , 'लोकल ख़बर (गाँव-गाँव शहर-शहर ,झारखंड)', 'भड़ास', 'कृषि जागरण' ,'इंडिया ग्राउंड रिपोर्ट', 'सबलोग पत्रिका', 'वागर्थ', 'अमर उजाला', 'रणभेरी', 'हिंदुस्तान', 'दैनिक जागरण' इत्यादि एवं कुछ लोगों के व्यक्तिगत साहित्यिक ब्लॉग्स पर कविताएँ प्रकाशित हैं।

प्रसारण : 'राजस्थानी रेडियो', 'द लल्लनटॉप' एवं अन्य यूट्यूब चैनल पर (पाठक : स्वयं संस्थापक)

अनुवाद : नेपाली में कविता अनूदित

काव्यपाठ : अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय काव्यगोष्ठियों में कविता पाठ।

सम्मान : अंतरराष्ट्रीय काशी घाटवॉक विश्वविद्यालय की ओर से "प्रथम सुब्रह्मण्यम भारती युवा कविता सम्मान - 2021" , "रविशंकर उपाध्याय स्मृति युवा कविता पुरस्कार-2022" और अनेक साहित्यिक संस्थाओं से प्रेरणा प्रशस्तिपत्र।

मॉडरेटर : 'गोलेन्द्र ज्ञान' , 'ई-पत्र' एवं 'कोरोजीवी कविता' ब्लॉग के मॉडरेटर और 'दिव्यांग सेवा संस्थान गोलेन्द्र ज्ञान' के संस्थापक हैं।

संपर्क :
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com

■■■★★★■■■

--Golendra Patel
BHU , Varanasi , Uttar Pradesh , India

धन्यवाद!

■■★★■■

(दृष्टिबाधित विद्यार्थियों के लिए अनमोल ख़ज़ाना)

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