Golendra Gyan

Tuesday, 18 April 2023

आलोचक कवि बन रहे हैं / वह कवि होना चाहता है / त्रयी की चाह : गोलेन्द्र पटेल

 

आलोचक कवि बन रहे हैं


अब जब 'खोजो कम खोदो जादा' 

हर विमर्श का नारा है

तब आलोचना, समालोचना, समीक्षा, टीका, टिप्पणी,

नुक्ताचीनी, छिद्रान्वेषण और भाष्य

क्रिटिसिज़म की क्यारी में कविता को कहानी बता रहे हैं

और निबंध को नाटक...

खैर, बिना पैर के संबुद्ध संपादक व प्रबुद्ध पाठक ख़ुश हैं 

कि कोरोना ने आलोचक को कवि बना दिया


किसी भी भाषा में कवि होना, विशेष होना है

काव्य-हेतु पर बात करते हुए 

दण्डी जैसे आचार्यों ने अभ्यास पर ज़ोर दिया है

शायद इसीलिए अब प्रतिभा से अधिक अभ्यास के

कवि जन्म ले रहे हैं

और आलोचक कवि बन रहे हैं

कवि तो खैर आलोचक होता ही है

ऐसे में सवाल यह है कि आज की आलोचना की

स्थिति क्या है?


क्या आलोचक होना 

व्युत्पत्ति के व्याकरण को समझना है?

या सिर्फ़ यश की चाह में कलम का

रोना है?


या उत्तर-कोरोना में करुणा लोक का श्लोक बन रही है

और उनके भीतर वाया वाल्मीकि का उदय हो रहा है

बात जो भी हो, 

उनकी आलोचना पर उनकी कविता हँस रही है

और मुझ जैसे अबोध शोधार्थी भी!


वे शब्द के पथिक हैं

उनके पास अनुभव अधिक है

उनकी उम्र उनकी रचना में बोलती है

उनके विचारों को खोलती है

क्या सच में वे नवोदितों में शामिल होना चाहते हैं?

या फिर ढंग का आलोचक न बन पाने का दुःख है उन्हें

अपनी उम्र के कवि को देखकर


उनके मन की पीड़ा 

उनकी रचना में एक टीस की तरह मौजूद है

अधेड़ या वरिष्ठ होकर कवि होना

समय का सृजनात्मक सूद है


उनसे अन्य आलोचक प्रेरणा ले सकते हैं

कि कवि होना, आलोचक होना है

किन्तु आलोचक होना, कवि होना नहीं है

कविता लिखने से कोई कवि थोड़े होता है

कविता तो पुरखे आलोचक भी लिखे हैं

तो क्या वे कवि हैं?

वह कवि होना चाहता है


लोचन तो उसके पास है ही नहीं

उसकी आलोचना से 'लुच्' धातु गायब है

वह 'लुच्चा' तो नहीं,

लेकिन उसका नायब है

क्योंकि 'लुच' से 'लुच्चा' बना है न?


आजकल वह देखता कम, 

दिखता ज़्यादा है

शायद भाषा में माँदा है!


उस पर कवि बनने का भूत सवार है

अब वह शब्द के अर्थ को उछालने की

कला सीख रहा है और

पद्य की जगह गद्य लिख रहा है


उसे याद है- 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्।'

वह वाक्यों का कवि होना चाहता है

दूसरे कवियों को पढ़कर!


(©गोलेन्द्र पटेल  / 18-04-2023)

त्रयी की चाह


5 अगस्त 2021 के दिन

कवि होता हुआ आलोचक ने फोन पर मुझसे कहा—

मुझे ऐसी संस्था का युवा प्रतिनिधि के रूप में चुना गया है

जिसमें साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत 

चार कवि हैं और

दो मेरे कक्षा अध्यापक हैं यानी प्रोफ़ेसर

फिर मुझे बधाई और शुभकामनाएँ दीं!


मैंने बातचीत के क्रम में पूछा कि आप तो आलोचक हैं न?

अभी पाँच-छह महीने से आपकी कविताएँ आ रही हैं

तो मैं आपको वरिष्ठों की लिस्ट में रखूँ, 

या फिर युवाओं की लिस्ट में,

या फिर नवोदितों की लिस्ट में, किसमें रखूँ?

क्योंकि आजकल कवि, आलोचक व आचार्य की त्रयी

पाने की होड़ लगी है

आप दो तो थे ही! बस कवि की कमी थी

उसने भी अभ्यास के आगे घुटने टेक दी


आपकी कविता अच्छी न हो, 

फिर भी आप अच्छे कवि मान लिये जाएंगे


ऊपर से आप इस संस्था के सचिव हैं

क्या आलोचना में आपका पाँव नहीं जमा सर?


खैर, मैं आपकी संस्था से जुड़ नहीं सकता

क्योंकि मेरी क्या औकात है कि इतने बड़े रचनाकारों को

कुछ सलाह दे सकूँ या कि कह सकूँ कि आपने गलत निर्णय लिया है!


सर, मुझे पूँछ पकड़ कर तैरने की आदत नहीं है

मैं स्वयं एक मल्लाह मछुआरा हूँ

नदी-सागर की भाषा में मनुष्यता का मज़दूर हूँ

मुझे बाढ़ से डर नहीं है भले ही मेरे पास

घर नहीं है, मैं गोधूलि में लौटता हूँ

जैसे लौटते हैं चौपाये या पंक्षिगण


मैं लौटता हूँ अतीत से वर्तमान में

और देखता हूँ खुले आसमान में अपने हिस्से का चाँद!


(©गोलेन्द्र पटेल  / 19-04-2023)

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Tuesday, 11 April 2023

प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल के संग्रह 'वाया नई सदी' में 'कोरोजयी लय' : गोलेन्द्र पटेल

 


 'वाया नई सदी' में 'कोरोजयी लय': गोलेन्द्र पटेल


भाषा के माध्यम से प्रत्येक मनुष्य अपने विचारों, भावों एवं अनुभूतियों आदि को दो प्रकार से व्यक्त करता है। पहला गद्य रूप में और दूसरा पद्य रूप में। गद्य शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के 'गद्' धातु के साथ 'यत्' प्रत्यय जोड़ने से होती है, जिसका अर्थ होता है- बोलना, बताना या कहना। और पद्य से तात्पर्य है- काव्य या कविता। काव्य वह छंदोबद्ध, छंदमुक्त एवं लयात्मक साहित्यिक रचना है, जो श्रोता या पाठक के मन में भावात्मक आनंद की सृष्टि करती है। काव्य के दो पक्ष होते हैं- भाव-पक्ष एवं कला-पक्षा। अर्थात् कविता के दो स्वरूप होते हैं- १. बाह्य स्वरूप। जिसके अंतर्गत लय, तुक, ताल, शब्द-योजना, लक्षण, व्यंजना, रीतियाँ, रस, छंद, अलंकार एवं भाषा आदि तत्व आते हैं और २.आंतरिक स्वरूप। जिसके अंतर्गत अनुभूति की तीव्रता, अनुभूति की व्यापकता, कल्पनाशीलता, रसात्मकता और सौंदर्यबोध, भावों का उदात्तीकरण एवं रागात्मकता आदि अवयव आते हैं। ये दोनों एक-दूसरे के सहायक और पूरक होते हैं। भाव-पक्ष का संबंध काव्य की वस्तु से है और कला-पक्ष का संबंध आकार-शैली से है। सामन्यतः विचारात्मकता और भावात्मकता गद्य और पद्य साहित्य के भेदक तत्व माने जाते हैं लेकिन इसका यह कतई आशय नहीं है कि गद्य भावात्मक और पद्य विचारात्मक नहीं हो सकता। ये दोनों तत्व दोनों में हो सकते हैं बल्कि आधुनिक काव्य में ख़ासकर साठोत्तरी कविता में इन दोनों तत्वों को एक साथ देखना सुखद है। इस संदर्भ में स्वयं पहले तार-सप्तक (1943 ई.) के कवि गजानन माधव मुक्तिबोध ने संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना की चर्चा की है। गद्य साहित्य में बौद्धिक चेष्टाएँ और चिंतनशील मनःस्थितियों की अभिव्यक्ति सहजता से होती है और पद्य साहित्य में भावपूर्ण मनःस्थितियों की। 


गद्य और पद्य मिश्रित रचना को चम्पु काव्य कहते हैं। जैसे "नल चम्पू" जिसकी रचना त्रिविक्रमभट्ट ने 10वीं शताब्दी में की और हिन्दी में मैथिलीशरण गुप्त की "यशोधरा" को चम्पू काव्य माना जाता है। काव्य के दो भेद किये जा सकते हैं- १.श्रव्य काव्य और २.दृश्य काव्य । श्रव्य काव्य में रसानुभूति पढ़कर या सुनकर होती है, जबकि दृश्य काव्य में रसानुभूति अभिनय एवं दृश्यों के द्वारा ही संभव है। अब 'रस क्या है?' मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है। यह प्रश्न जितना छोटा है, इसका उत्तर उतना ही जटिल और बड़ा है। संस्कृत काव्यशास्त्र में कहा गया है- 'रसस्यते असौ इति रसाः।' या 'रस्यते आस्वाद्यते इति रसः।' अर्थात् जिसका आस्वादन किया जाए वही रस है। रस का व्युत्पत्तिपरक अर्थ आस्वाद है। इसे काव्यानंद भी कहा जाता है। आचार्य भरतमुनि ने 'रस' और 'भाव' का विवेचन 'नाट्यशास्त्र' के षष्ठ और सप्तम अध्यायों में किया है। उनके अनुसार, 'विभावानुभावव्यभिचारि संयोगाद्रसनिष्पत्तिः।' अर्थात् विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव (संचारी भाव) के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। अब इस सूत्र के 'संयोग' और 'निष्पत्ति' के अर्थ को लेकर रस की अवस्थिति किस में होती है? इस संदर्भ में इसकी व्याख्या करने वाले आचार्य चतुष्टय हैं- १.भट्टलोल्लट (मीमांसा दर्शन), २. श्रीशंकुक (न्याय "), ३.भट्टनायक (सांख्य '') एवं ४.अभिनवगुप्त (शैव ")। इन व्याख्याओं का प्रभाव हिंदी के आचार्य रामचंद्र शुक्ल और डॉक्टर नागेंद्र आदि पर पड़ा है। इसके अंतर्गत भट्टनायक का साधारणीकरण प्रमुख है। 'रस' और 'कविता' के संदर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने निबंध 'कविता क्या है?' में लिखा है- "जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं।" (चिंतामणि, संजय बुक सेंटर, वाराणसी। पृष्ठ संख्या-83)


श्रव्य काव्य के भी दो उपभेद हैं- १.प्रबंध काव्य और २.मुक्तक काव्य। प्रबंध काव्य में कोई महान कथा होती है, जबकि मुक्तक काव्य में स्वतंत्र पदों के रूप में भावाभिव्यक्ति की जाती है। प्रबंध काव्य के भी दो प्रकार हैं- १.महाकाव्य और २.खण्डकाव्य। यहाँ पर मुझे बिहारी के मुक्तक के संदर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कथन स्मरण हो रहा है, वे कहते हैं कि 'यदि प्रबंधकाव्य एक विस्तृत वनस्थली है तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता है।' मुक्तक काव्य के दो भेद हैं- १.पाठ्य मुक्तक एवं २.गेय मुक्तक। महाकाव्यों और खंडकाव्यों के नाम से तो आप सब परिचित ही हैं। जैसे (रचना-कवि)- पृथ्वीराजरासो-चंद्रबरदाई,  पद्मावत-जायसी, रामचरितमानस-तुलसीदास, साकेत-मैथिलीशरण गुप्त, प्रियप्रवास- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' एवं कामायनी-जयशंकर प्रसाद आदि महाकाव्य और हल्दीघाटी-श्यामनारायण पाण्डेय, पथिक-रामनरेश त्रिपाठी एवं रश्मिरथी-रामधारी सिंह 'दिनकर' आदि खंडकाव्य है।

  

पंत की 'पतझड़', निराला की 'भिक्षु', 'वह तोड़ती पत्थर', एवं श्रीप्रकाश शुक्ल की 'हड़परौली' आदि पाठ्य मुक्तक हैं और गेय मुक्तक के अंतर्गत गीति, प्रगीति, लोकगीत, गीत, नवगीत एवं ग़ज़ल रचनाएँ आदि आती हैं। इसमें भावप्रवणता, आत्माभिव्यक्ति, सौंदर्यमयी कल्पना, संक्षिप्तता, संगीतात्मकता की प्रधानता होती है। रविदास, कबीरदास, सूरदास, तुलसीदास, रसखान, रहीमदास, मीराँ, बिहारी, मतिराम, देव , महादेवी वर्मा आदि की रचनाएँ इसी कोटि में आती हैं। दृश्य काव्य के अंतर्गत नाटक, एकांकी एवं पटकथा आदि आती हैं।


साहित्य समाज का दर्पण है। वह एक सृजनात्मक अभिव्य्क्ति है। साहित्य जीवन का सौंदर्य है। सौंदर्य प्रियता मनुष्य की एक प्रधान मनोवृत्ति है। उसकी इस मनोवृति की प्रेरणा से ही सभ्यता, संस्कृति, कला, साहित्य एवं सिनेमा का विकास हुआ है। मानव भावों, विचारों, कल्पनाओं एवं अनुभूतियों की लालिल्यपूर्ण अभिव्यक्ति ही साहित्य है। असल में साहित्य भाषा में पुनर्जीवन है। प्रत्येक भाषा का साहित्य उस भाषा को बोलने वाले समाज का सजीव चित्र होता है। इस संदर्भ में आप आचार्य रामचंद्र शुक्ल की आगामी पंक्तियों को पढ़िए- 'प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है।' (हिंदी साहित्य का इतिहास, काल विभाग) साहित्य को परिभाषित करना कठिन है लेकिन विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से इस पर चिंतन किये हैं। एक और महत्त्वपूर्ण कथन आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी का देखें- 'ज्ञान-राशि के संचित कोष का नाम साहित्य है।' या फिर बालकृष्ण भट्ट की परिभाषा देखें- 'साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है।' अतः भाषा के द्वारा जीवन की मार्मिक अनुभूतियों की कलात्मक अभिव्यक्ति को ही साहित्य कहते हैं। साहित्य उस समाज को बदलने और उसको प्रगति की प्रेरणा देने का समर्थ साधन भी है।


'सौंदर्य' को केंद्र में रखते हुए पाश्चात्य विद्वान एडगर एलन पो ने लिखा है- 'Poetry is a rhythmic creation of beauty.' अर्थात् कविता सौंदर्य का लयात्मक सृजन है। मानव, जिसे प्रकृति द्वारा अभिव्यक्ति की अद्भुत क्षमता प्राप्त है, सृष्टि की सुंदरतम् देन है। कवि मानवीय सौंदर्य का पक्षधर है। उसके भावों की अभिव्यक्ति शब्दों के माध्यम से होती है। कविता शब्दों की नवनवोन्मेषशालिनी सृष्टि है। कविता में अंतःसौंदर्य का बोध होने के कारण इसे गद्य से ऊँची स्थिति प्राप्त है। कविता का सौंदर्य उपयुक्त शब्द-चयन द्वारा ही दृष्टव्य होता है। जीवन के सुख-दुख के प्रति कवि की प्रतिक्रिया कविता के रूप में फूट पड़ती है। कविता रचते समय जैसी अनुभूति कवि को होती है, वैसी ही अनुभूति वह पाठकों एवं श्रोताओं के मन में जगाना चाहता है। कवि-कर्म और कविता के महत्व को स्पष्ट करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा है कि 'कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-संबंधों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य भाव-भूमि पर ले जाती है, जहाँ जगत की नाना गतियों के मार्मिक स्वरूप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूति का संचार होता है' (चिंतामणि, संजय बुक सेंटर, वाराणसी। पृष्ठ संख्या-83) नक्सलवाड़ी कविता के दौर में धूमिल ने कविता के बारे में कहा है कि 'कविता भाषा में आदमी होने की तमीज़ है।'



युग और युगधर्म में बिंब और प्रतिबिंब भाव से प्रतिभाषित होता है। कवि और युग एक-दूसरे पर अन्योन्याश्रित हैं। कवि के अंर्तमन की गंभीर अनुभूति कविता का रूप धारण करती है। सृजन पूर्व कोई भी कवि एक अंतःप्रकृति से गुज़रता है जिसमें उसे सृजन के कई घटक तत्त्वों से जूझना पड़ता है।


कविता, मनुष्य-चेतना की सबसे महत्तम रचना है। वह भावनात्मक प्रतिक्रिया पैदा करने के लिए शब्दचित्र, अर्थचित्र, ध्वनात्मक, बिंबात्मक, लयबद्ध और तालबद्ध भाषा विकल्पों के माध्यम से व्यक्त अनुभव के बारे में कल्पनाशील जागरूकता होती है। लय और तुक कविता को सहज गति और प्रवाह प्रदान करती हैं। कविता की एक समान गति को लय कहा जाता है। संगीत में लय की तीन कोटियाँ हैं- १.विलंबित लय, २.मध्य लय एवं ३.द्रुत लय। लेकिन कविता में मोटे तौर दो ही लय होती हैं, पहली शब्दलय और दूसरी अर्थलय। कविता लयबद्ध तथा तालबद्ध हो कर ही मनुष्य को आनंद और रस की अनुभूती करा सकती है। वह चाहे गद्यात्मक ही क्यों न हो? उसमें लय मौजूद होती है। क्योंकि वह मानव जीवन का सार है। संगीतात्मकता कविता की हृदय-गति होती है। लय, ताल एवं स्तरों के अरोहावरोह के कारण ही कविता के भाव भरकर आते हैं। लय-तत्व सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। झरने से लेकर सागर की लहरों में, चींटी से लेकर हाथी की चिंघाड़ तक में, चिड़ियों की चहचहाहट से लेकर भूख से बिलखते चूहे तक में, जंगल के जलने से लेकर पहाड़ टूटने तक में, आग में, पानी में और हवा में। वह हर जगह है।


लय मनुष्य के जीवन का आधार है। प्रकृति के एक रूप में लय के दर्शन होते हैं। सार्थक शब्दों के सुव्यवस्थित क्रम से कालजयी लय की व्युत्पत्ति होती है। इस लय में सत्य के स्वर, ताल और तान के सन्तुलित मिश्रण की मधुर सुरीली जय है। जो मनुष्यमात्र के चित्त को आनंदित करने के साथ-साथ उसके चेतना को जाग्रत करती है। इसी से हृदय में रंजक प्रस्फुटन होता है। इसके अभाव में कविता का कार्य संचालन नितान्त असंभव है। क्योंकि मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन लय से ही नियंत्रित होता है और इसको प्रकट करने की प्रक्रिया नाम ताल है। इसकी पहचान गति है। अलौकिक साहित्य में सामवेद गेय है, उसमें लय के प्रारंभिक स्वरूप को देखा जा सकता है। आचार्य भरतमुनि के नाट्यशास्त्र लेकर आधुनिक कविता पर विचार करने वाले चिंतकों ने 'लय और प्रवाह' के महत्त्वपूर्ण को स्पष्ट किया है। लय के द्वारा मनोभावों के प्रदर्शन में रमणीयता, रोचकता, माधुर्य, सुन्दरता और उदात्तता आती है। इसकी कोई सीमा नहीं है, यह तो सभी सीमाओं से परे है। लेकिन मज़ेदार बात यह है कि लोकोन्मुखी लय महान लय होती है और इस अर्थ में कोरोजयी लय अद्वितीय है।


कोरोजयी लय रचना की युगीन यथार्थ को इंगित करती हैं। सफल व सार्थक कविता लिखने के लिए अर्थ की लय निर्वाह जरूरी हैI कवि को भाषा के संगीत की पहचान होनी चाहिए। कोरोजीवी कविता में आंतरिक लय का निर्वाह गुरुवर प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल की कविता 'कोइलिया जल्दी कूको ना' में द्रष्टव्य है। इसमें लोक-संगीत के तत्व मौजूद हैं। यह एक ऐसी कोरोजीवी गीतात्मक कविता है जो अँधेरे की आकृति के विरुद्ध चेतना के चित्र सा चमक चुकी है। इसमें मनुष्यता का मानवीय स्वर है। अर्थात् इसमें आत्मा की आवाज़ की उदात्त लय है और इस लय में जीवन की जय की आलोकितालोड़ित अनुभूति है। जो युग बदलाव का मार्ग प्रशस्त करने में सक्षम है। वह अपनी सम्पूर्णता में जीवन है। प्रकृति, परिवेश, समय और समाज लय के प्रमुख स्रोत हैं। उसका समस्त राग कविता के एक सुन्दर शब्द में समाहित होता है। क्योंकि कविता एवं संगीत में चेतन और अवचेतन दोनों महत्त्वपूर्ण होते हैं। मैंने इस कविता को कई बार चर्चा की है। इसलिए उनकी एक अन्य कविता 'सुबह-ए-बनारस' की पंक्तियाँ देखें-

"पूर्णमदः की गूँजों से जब

पूर्णमिदं परिपूर्ण हुआ

कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभू

सजल स्नेह

शत घूर्ण हुआ।" (वाया नई सदी, पृष्ठ संख्या-100)


इस कविता की भाषा तत्सम प्रधान है। इसमें बनारस के शास्त्रीय संगीत को सुना जा सकता है। इस संगीतात्मकता की पृष्ठभूमि में रविदासिया राग की ऊँची अनुगूँज है। (क्रमशः)


©गोलेन्द्र पटेल

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Sunday, 9 April 2023

प्रो. विजय बहादुर सर की स्मृति को समर्पित बारह कविताएँ : गोलेन्द्र पटेल (छात्र, हिंदी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय)


ॐ शांति!😭

बीएचयू हिन्दी विभाग के अध्यक्ष व कला संकाय प्रमुख, प्रो. विजय बहादुर सर का असमय जाना मन को व्यथित कर गया। ईश्वर पुण्यात्मा को शान्ति व परिजनों को इस अपार दुःख को सहन करने की शक्ति प्रदान करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!!


प्रिय पथप्रदर्शक प्रो. विजय बहादुर सर की स्मृति को समर्पित बारह कविताएँ :-गोलेन्द्र पटेल

1). 


शताब्दी अध्यक्ष


हे शताब्दी अध्यक्ष!

मैंने सोचा—

रात की ख़बर

सुबह झूठ साबित होगी

लेकिन ऐसा हुआ नहीं,

यह सच अनहोनी है!


हे शिष्यों के शुक्लपक्ष!

भावभूमि और मनोभूमि के मानवीय मणि

ज्ञान के द्रष्टा, शब्दाग्नि के सर्जक

वक्त के वक्ता, प्रबुद्ध प्राचार्य

प्रिय पथप्रदर्शक विजय बहादुर सर


एक शिकायत है कि आपने कभी मेरी कक्षा ली नहीं

आपकी कक्षा जिन्होंने ली वे भी संवादप्रिय हैं

मैंने आप से पढ़ा नहीं

पर आपको पढ़ा है सर

जब-जब आपके साथ छपा हूँ


खैर , जायसी कहते हैं—

‘फूल मरै पै मरै न बासू।’


हे हिंदी के हृदय !

यह भावभीनी श्रद्धांजलि का समय है

और मैंने यह शिकायत संस्मरण में रोते हुए की है


ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!!


2).


करवटें


करवटें

बिस्तर पर कहती हैं—


वह नींद

नींद नहीं होती है

जिसके पीछे सपने पड़े हों ;


या फिर आँखों में

उनके स्मरण अड़े हों


जो चले गए हैं!


3).


उदास


नीम बौरा गया है

मौसम है उदास ;


मुरझा गए हैं फूल

खिले रहें जो पास!


4).


दहन-राग


हृदय के भीतर

हृदय का फूटा

दहन-राग ;


दुखी है विभाग!


5).


निःशब्दता


पेड़

यात्रारत हैं ;


परछाइयाँ निःशब्द हैं

सड़क पर!


6).


चिड़ियों की भाषा


चेखुर का

बबूल पर

चढ़ना व्यर्थ है ;


चिड़ियों के पास

बची है

उनकी भाषा

क्योंकि

उनके शब्दों के पास

अर्थ है!


7).


बरछी


सपने 

अजीब हैं ;


बरछी की तरह

नींद

आँखों में

चुभ रही है!


8).


अवाक्


ख़ामोशी

सागर की ;


अवाक् कर देती है

नदी को!


9).


स्मृति-प्रसंग


स्मृति

आँखों में

फँस गई है

नींद उड़ गई है 


डोर 

कट गई है 

पतंग की


आसमान भहरा गया

धरती पर!


10).


विदा


यादें

विदा होती हैं

आँसू की बूँदें बन कर

आँखों से ;


जैसे 

धरती से नर!


11).


महाप्रयाण


जब कोई अंतिम यात्रा पर
जाता है तब

स्मृतियों के झुरमुट से
गुज़रता हुआ
समय
भावभीनी भावभूमि पर
श्मशान वैराग्य का
गीत गाता है

अभिव्यक्ति के अखाड़े में
शब्द चित है
ज्योति शेष में अटका
प्राण है
स्तब्ध और दुखी भाषा में
भावोद्गार उचित है
जहाँ मिट्टी की महक का
महाप्रयाण है!

12).


मृत्यु


हे मन!
‘मृत्यु’
वैसे ही सत्य है

जैसे जीवन!!


©गोलेन्द्र पटेल


नाम : गोलेन्द्र पटेल (युवा कवि व लेखक)
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