Golendra Gyan

Monday, 22 June 2020

प्रतिभा श्री के कुछ कविताओं पर गोलेन्द्र पटेल....."स्त्री / भूख / श्रमिक / पलायन / आत्महत्या / एक पन्ना / उत्तर आधुनिक कविताएँ / फर्क"


"स्त्री / भूख / श्रमिक / पलायन / आत्महत्या / एक पन्ना / उत्तर आधुनिक कविताएँ / फर्क" : प्रतिभा श्री【बीएचयू】
गोलेन्द्र पटेल


नवोदित प्रख्यात युवा कवयित्री प्रतिभा श्री के काव्य-क्यारी में कर्षित कलि युक्त नवांकुरित कविता "स्त्री" 'स्त्री विमर्श वाटिका' का सुंदरतम सुमन है।जिसके प्रत्येक पंखुड़ी में पितृसत्तात्मक भौरों के लिए विशेष विष या मधु है जो रुढ़िवादी पुरुषार्थ के लिए चुनौती है और समाज के श्यामपट्ट पर लिखे जा रहे है इतिहास के लिए "सैन कोश"।इस सैनकोश के निर्माण में कवयित्री का कविकर्म निम्नलिखित पंक्तियों से सस्पष्ट है -
"जब दुनिया के / तमाम पन्नों पर/लिखे जा रहे थे/पुरुषार्थ के प्रशस्ति गान / तब / समाज ने हासिये पर/लिखा दिया  तुम्हारा नाम/तब भी तुम रचती रही./हसिये से समाज /सृजन के गर्भ से/जन्म देना चाहती रही/एक समतामूलक समाज" आज भी समाज में स्त्रियाँ 'देह दशा दोहरे दर्द' को ; दो दिवारों के बीच से अपने चीख के प्रतिध्वनि को किस प्रकार खुले आँगन तक पहुँचा रही हैं। यह इस कविता के संवेदना का सुगंध है जिसे एक सहृदय ही सूँघ सकता है।

वर्तमान स्थिति ऐसा ही है कि बच्चों के पेट में पर फैले उड़ते पक्षियों के उड़ान को देखना भूख के उबलते अदहन में खदकते चावल के ध्वनि को सुनना है "भूख की  उबाल /अदहन में खदकते चावल से / होती है/बहुत अधिक/इसलिए बार-बार जीतती है 'भूख' / दिन में दो-तीन बार/बड़ी तीव्रता के साथ/इसे महसुसा जा सकता है/उस भूख की तीव्रता को मापा जाना चाहिये /जिसे नहीं मिलती /दो वक्त की रोटी।"
'भूख के साथ भूखे का उम्र पकना' आजकल 'कोरोना के संकट में रोटी के लिए रोड़ पर रोना' आँख के आयु का पकना ही है।....
"पकते हुए चावल के साथ-साथ / पकती है तुम्हारी उम्र/जैसे कोई फल हो/ अब गिरे... तब गिरे../ मेरी संतोषी/भात के पकने तक/ तुम्हें रखना होगा धैर्य /  रोटी की लड़ाई में /पानी को बनना पड़ता है /भोजन का विकल्प/बार -बार / बदहजमी/और भूख मिटाने वाली दवा के बीच /एक अदद पेट है/जो लड़ता है रोटी से/मुझे सपने में दिखाई देते हैं/भूख से तड़पते बच्चे /मैं पकाना चाहती हूं /कटोरी भर भात
भूख के विरुद्ध"
                  
श्रमिकों के पसीने से लिखे गए इतिहास को पढ़ते वक्त उन्हें कितना याद किया जाता है यह आप सभी जानते हैं।उनके प्रति प्रेम का आवाहन करती और शोषित मजदूरों के दर्द का दर्शन करती हुई कवयित्री कहती है
-
"जब तुम प्रेम और युद्ध के द्वंद में फंसे थे /कोई लिख रहा था/ उस वक्त अपने पसीने से /"परिश्रम"/ तुम्हारे महलों के दरवाजे पर/ टांग दिया गया था उसका स्वप्न/उसे चेतावनी दी गई थी कि /वह आगे से ना देखे कोई स्वप्न /न सोते होते हुए / न जागते हुए....जब तुम चांद  पर जाने की तैयारी में थे /कोई दे रहा था हाशिए से आवाज/ अंततः जब  तुमने  चुन लिया  युद्ध /कोई  करना चाहता था तुमसे प्रेम /सिर्फ प्रेम।"

यह दौर श्रमिकों के "पलायन" का दौर है वे लौट रहे हैं महानगरों से एक गठरी में जीवन को गठियाये हुए गाँव। इस संघर्ष के संसार में 'सफ़र-ए-सड़क' का अंतिम पड़ाव अपना सदन है जिसे "मुक्ति-मकान" कहते हैं मजदूर मुसाफ़िर और आकाश के आँधियों से तंग चिड़ियाँ "घर-ए-घोसला"।इसे पढ़ते वक्त टॉमस स्टर्न्स इलियट(१८८८-१९६५) की कथन *कविता कवि-व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं ,व्यक्तित्व से पलायन है।* का स्मरण होना 'पलायन' के महत्व को रेखांकित करता है...इस लौटने के त्रासदी का जीवंत उदाहरण -
वे ऐसे  लौट रहे हैं /जैसे किसी तूफान के उठने से पहले/ पंछी लौट जाना चाहते हैं /अपने घोसले में/वे लौट रहे हैं /अपनी जिंदगी की सारी कमाई/ गठ्ठरी में बांधे /नंगे पांव /लहूलुहान है उनके पैर /सड़कें खून से रंग गयी हैं/समय की आग से/ झुलस गए हैं उनके चेहरे /जिन्होंने सभ्यता के विकास में /अपना श्रम और पसीना दिया है /आज उनसे उनका लहू भी
मांगा जा रहा है/वे लहू भी देने को तैयार हैं क्योंकि-
वह जानते हैं /लोकतंत्र में " मजदूरी" का पर्याय "मजबूरी" होता  है / वे मजबूर हैं/ जिन सडको को बनाया है उन्होंने /वही सड़के/उनके खून की प्यासी हो गई हैं /रेल की  पटरियों के आगोश में /समा चुकी है कई जिंदगियां /धरती अपने अक्ष से हिल गई है /मानो वह कह रही हो/ यह विस्थापित युग है /निर्वासित युग हैं/ इस "भेड़तंत्र" में /जन प्रतिनिधि को /जनता ने "विधाता" की संज्ञा दी है/और उसी "विधाता"ने  उनके/भाग्य में लिख दिया है /"निर्वासन","पलायन" ,"दमन"और "शोषण"/वे बार-बार अपनी "जन्म कुंडली" टटोलकर देखते हैं ,/और निराश हो जाते हैं/वे लौट रहे हैं क्योंकि/ उनके पास ज्यादा वक्त नहीं है/ इससे पहले कि वह दूसरे/शोषण के शिकार हो/वे लौट जाना चाहते हैं /अपने गांव/इसी वादे के साथ कि /अब वे दोबारा लौट कर नहीं  जाएंगे।"
'आत्महत्या' शीर्षक नामक कविता में साहित्यिक सृजन सामर्थ्य को सड़क छाप मंच पर किस प्रकार पराजित किया जा रहा है उसी यथार्थ का यथा वर्णन-
  कविताओं की भी होती है हत्या/कवि के गर्भ में /भूख से तड़पते पेट में...मैंने देखा है /दम तोड़ती कविता को /हर वर्ष कत्ल भी की जाती हैं सैकड़ों कविताएं...विश्वविद्यालय के मंच पर जो हुआ था
वह कत्ल ही थी/विश्वविद्यालयों के भेंट चढ़ जाती हैं अनेकों कविताएँ/कवि सम्मेलन और गोष्ठियों से
कर दी जाती है निष्कासित /अच्छी कविताएं/और अच्छे कवि उपेक्षित...
कवयित्री को भविष्य के कविकर्म की चिंता है वह चाहती है कि भविष्य के गर्भ में छुपे यथार्थ के असहमतियों को दर्ज करने और लोकतंत्र के भावी प्रश्नों को पूछने के लिए अपने काव्यकागज़ का 'एक पन्ना' रिक्त छोड़ दिया जाय।यथा- "जब तुम लिखना कविता /तो एक पन्ना  छोड़ना रिक्त/ आने वाली पीढ़ी के लिए/ आने वाली पीढ़ी / लिखेगी उस पर/उस युग का यथार्थ/एक  पन्ना छोड़ना /इसलिए भी आवश्यक है /यह बताने के लिए/ कि तुम लोकतांत्रिक हो
उस पन्ने पर दर्ज की जाएंगी असहमतियाँ/ पूछे जाएंगे सवाल/ जिरह के लिए भी छोड़ना एक पन्ना/क्योंकि कविता का मतलब/ तानाशाही नहीं होता।
'आत्माभिव्यक्ति का नाम कला है' और कला के कई भेद-उपभेद हैं।उसी कला में कविकर्म के सहृदय से शब्द सुमन रस छन छंद बन कंठ से फूट कविता बन जाती है जिसके विषय में आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं कि "आत्मा के मुक्तावस्थ को ज्ञानदशा कहते हैं और हृदय के मुक्तावस्था को रसदशा कहते हैं।हृदय के मुक्ति के साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है ,उसे कविता कहते हैं।
"उत्तर आधुनिक  कविताएं" शीर्षक नामक कविता में कविता के कठिन दौर का सजीव चित्रण किया गया है-
जहां कविता विज्ञापन है /और/कला सूचना मात्र /अतार्किकता /असंगति/प्रतिमानों का विस्मरण/यह उत्तर आधुनिकता के खतरे हैं/ नहीं देता कोई निश्चित उत्तर...जहां मतभेद सबूत है जिंदा होने का/ एकरूपता पर नहीं की जाती है विश्वास / क्या कठिन समय में यह देंगी हमारा साथ? / उत्तर आधुनिक कविताएं।"
                          
     "फर्क" कविता में कवियत्री बढ़ते प्रतिस्पर्धा के जड़ों को उजागर करती हुई 'संघर्ष' सुख की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहती है-
"कंधे से कंधा /और कदम से कदम मिलाने में/ फर्क है मेरे मित्र/ जब तुम कदम से कदम/ मिलाने को
राजी होते हो तो / तुम साथ चलने को होते हो राजी/ लेकिन जब कंधा मिलाकर /चलने की करते बात/तो जन्म लेती है एक प्रतिस्पर्धा /तुम्हें अच्छा नहीं लगता कि/मेरा कंधा तुम्हारे कंधे से हो ऊँचा/यही होड/ अंततः संघर्ष के जन्म देती है ।
©गोलेन्द्र पटेल
【बीएचयू】
रचना : २१-०६-२०२०
नोट : कम से कम शब्दों में समेटा हूँ
💐आत्मीय धन्यवाद!

इस लिंक पर प्रोफेसर हैं अवश्य देखें -
https://www.youtube.com/playlist?list=PLHsxjpPyxBWj76Ddxni2RD4RgfktNSHR1


Sunday, 21 June 2020

कब्र-ए-माँ : तस्वीर-ए-मोहब्बत दफ़न! // गोलेन्द्र पटेल // Golendra Patel




                 *कब्र-ए-माँ : तस्वीर-ए-मोहब्बत दफ़न!*
                ---------------------------------------------------
सखी!
गर्भ में
सृष्टि का सृजन
ढोना
सत्य-ए-संज्ञा
संकेत का क्षण
होना
"माँ" शब्द है!
मुल्क-ए-मर्ज़
अदृश्य भारत-
                   भूख-ए-भविष्य!
गाँव छोड़ चले थे
महानगर में ; महामजदूर-
                                  हिन्दुस्तान-ए-हविष्य!
"घर"
लौट रहे हैं
आँख में आँसू-
                    आँत में अकड़न ले
                    पाथेय ;
संघर्ष की सड़क धर
रेल के पटरियों पर-
                           पैदल पैदल...!
बहुत-सी मजदूरनी गर्भवती हैं
बहुत-सी सूखी छाती चुचकी चाम से
चमचमाती घाम में ;
अपने नवजात शिशु का भूख-प्यास शांत कर
चल रही हैं निरंतर
शांत शोषित सड़क पर
निराश निशब्द निःसहाय निरोपाय..... 
अपने घर की ओर!
शोषित सड़क टूटे फूटे गड्ढेदार कंकडीले पथरीले हैं
जिस पर पड़े सारे गिट्टी पैर का प्रश्न-ए-पीर ;
जिसे देख नयन-ए-नीर
नदी बन गयी
और औरतें दोहरे दर्द-ए-देह!!-१
एक विधवा गीत गाती-
देश में वह भी स्थान है
जहाँ न भोजन न ज्ञान है
फिर भी हम कहते हैं ;
हमारा पहचान 'हिन्दुस्तान' है!
कभी चूल्हा हँसता है
कभी चूल्हा रोता है ;
कभी पेट भरा होता है
कभी भूखे पेट सोता है
रोज़ कुआँ खोदकर प्यास बुझाने वाला परिवार!
चूल्हे की मुखिया 'माता' 
अंत में कड़ाही पोंछ कर सूखी रोटी खाकर पानी पीती है ,
अपने एक दो तीन चार पाँच वर्षीय बच्चों के लिए
और गर्भ में पलने वाले पति के अंतिम प्रेम के लिए ;
रेल की पटरी उनके जीवन का गठरी छीन ली वक्त से पहले
अब वे इस दुनिया में नहीं रहे!
कविता के सरिता में
अनेक पथिकों के चिता को विसर्जित करते 
देख रहा हूँ ;
अनेक कवियों द्वारा मुक्ति का मंत्र भी सून रहा हूँ 
बच्चें नदी बीच पंडित के वक्तव्य जो दोहरा रहे हैं उसे भी!
एक भूखी बच्ची रेलवेस्टेशन पर जगा रही है
अपनी क्षीरदाई जननी को
जो भूख का चादर ओढ़ सो गई है सदा के लिए ;
एक अनाथ बच्चा अपनी नन्ही परी बहन को
अपने हाथों से खाना खिला रहा है सान सान!
एक माँ का बेटा दम तोड़ बैग पर लेटा 
एक माँ की बेटी घर के पथ पर चलते चलते स्वर्ग चली गई!
एक पुत्री साईकिल से पिता को घर पहुँचाई
लॉकडाउन में श्रवण कुमार-सा धर्म निभाई
यह समय भयावह है
जिसे एक "स्त्री" 
अपने कथा-कहानी-कविता-गीत-प्रगीत में 
कहर-ए-कंठ से कोयल-सी स्वर दे रही हैं!
और वे स्वयं अनुभूतियों के भीतर 
स्थिर हो जाती हैं
अनुभूति स्त्रियों का घर है ;
पुरुष उन्हें ,जब खोजते हैं देह में
तब नहीं मिलती हैं ,वे अंत तक उन्हें
आख़िरी में लाचार आदमी
लौटना चाहता है बार बार युवावस्था में
जैसे लौटना चाहते हैं फँसे मजदूर अपने घर!
निर्जन द्विप के अकेले मुसाफ़िर मनु थे क्या?
क्या कोई विधुर एकाकी होता है?
या कोई नायक नायिका के विरह में?
सफ़र-ए-कहर में
एक मर्द अपने मंजिल के द्वार पर जा गिरा 
एक वीर वन के बाहर
वीर पति पुत्र पिता में से कोई एक हो सकता है ;
अपनो को गिरा देख स्त्रियाँ रोती हैं
और उनकी यही रुदन संवेदना के सुमनवाटिका में
सुगंध बिखेरने लगती है 
हवा में फैली गंधपथ धर भौंरें चले आ रहे हैं
रुदनरस को चूसने!
कुछ चूसते हैं कुछ सोखते हैं
कुछ रंगों के मोह में भटकते हैं फूलों पर
कुछ अधखिले कलियों को देखते आँखें फार
देखना प्रायः प्रातःकाल और संध्याकाल की क्रिया है
पर भूखे काले भौंरें दोपहर में भी दिखते हैं
अलग अलग फूलों पर मँडराते हुए!
उनका वहाँ मँडराना फूल का ताज़ा रहना है
धूप के विरुद्ध ,
मालिन सोहती नेरती सिंचती कर्षित क्यारी को
जो आकर्षित करती भ्रमरी बेचारी को
भ्रमरी शहर घूँम-घाम आती है खेत में
खेतहरीन सूरजमुखी पर कपड़े बाँध रही होती हैं ;
वह दुःखी हो पहुँची मजदूरों के समाधि स्थल
जहाँ अनेक फूल हैं स्थूल में सूक्ष्म मूल हैं
वहाँ बैठ स्त्रियों के समाधि लेख पढ़ रही होती है 
कि कोरोना से पीड़ित हो मरी स्त्री का शव आता है
मृतक माँ को सीधे अस्पताल से लाया गया है यहाँ
वरिष्ठ अधिकारियों के देख रेख में कफ़न दे कर
फिर भी कबरिस्तान के आत्मा उसे वहाँ
दफ़नाने से रोक रहे हैं....!
उसका कब्र उसके पति के ठिक बगल में खोदा गया था
जो दो वर्ष पूर्व ही कब्र में जा उसकी प्रतिक्षा कर रहे हैं
शव वहाँ से लौट जाती है उसी सरकारी गाड़ी में
पति की आत्मा विरोधी आत्माओं से हार
लाचार बेबस कब्र से चिल्ला चिल्ला पूकार रहा है
मेरी प्रियतमा को मत ले जाओ मुझसे दूर
हे ख़ुदा! रहम करो रहम करो मुझ पर रहम करो!
उसका बच्चा उन दोनों के इश्क-ए-मजाज़ी को
इश्क-ए-हकिकी में बदल दिया
कब्र में माँ का तस्वीर-ए-मोहब्बत दफ़ना
माता-पिता प्रसन्न हुए पुत्र के इस पावन कार्य से
आशीर्वाद दे कबरिस्तान से आधीरात घर भेज दिए उसे
भ्रमरी इस घटना को सार्वजनिक करने के लिए
उस बालक के साथ उसके मुहल्ले पहुँची
घटना सार्वजनिक हो गयी कानो-कान
कोरोना ने जब ले लिया मुल्क-ए-जान!!-२...

-©युवा कवि गोलेन्द्र पटेल
०१-०६-२०२०
*शेष और कभी*
https://www.youtube.com/playlist?list=PLHsxjpPyxBWj76Ddxni2RD4RgfktNSHR1 : By Professors BHU ,JUN ,DU ,etc.

Tuesday, 2 June 2020

"कब्र-ए-माँ : तस्वीर-ए-मोहब्बत दफ़न!" - गोलेन्द्र पटेल // golendra patel // golendra gyan // गोलेन्द्र ज्ञान // #COVID19 #Coronavirus #Wuhan_Virus #कोविड_19 #कोरोना_वायरस #WHO_2020 #BHU #JNU #Indian




                 *कब्र-ए-माँ : तस्वीर-ए-मोहब्बत दफ़न!*
                ---------------------------------------------------
सखी!
गर्भ में
सृष्टि का सृजन
ढोना
सत्य-ए-संज्ञा
संकेत का क्षण
होना
"माँ" शब्द है!
मुल्क-ए-मर्ज़
अदृश्य भारत-
                   भूख-ए-भविष्य!
गाँव छोड़ चले थे
महानगर में ; महामजदूर-
                                  हिन्दुस्तान-ए-हविष्य!
घर
लौट रहे हैं
आँख में आँसू-
                    आँत में अकड़न ले
                    पाथेय ;
संघर्ष की सड़क धर
रेल के पटरियों पर-
                           पैदल पैदल...!
बहुत-सी मजदूरनी गर्भवती हैं
बहुत-सी सूखी छाती चुचकी चाम से
चमचमाती घाम में ;
अपने नवजात शिशु का भूख-प्यास शांत कर
चल रही हैं निरंतर
शांत शोषित सड़क पर
निराश निशब्द निःसहाय निरोपाय
अपने घर की ओर!
शोषित सड़क टूटे फूटे गड्ढेदार कंकडीले पथरीले हैं
जिस पर पड़े सारे गिट्टी पैर का प्रश्न-ए-पीर ;
जिसे देख नयन-ए-नीर
नदी बन गयी
और औरतें दोहरे दर्द-ए-देह!!-१
एक विधवा गीत गाती-
देश में वह भी स्थान है
जहाँ न भोजन न ज्ञान है
फिर भी हम कहते हैं ;
हमारा पहचान हिन्दुस्तान है!
कभी चूल्हा हँसता है
कभी चूल्हा रोता है ;
कभी पेट भरा होता है
कभी भूखे पेट सोता है
रोज़ कुआँ खोदकर प्यास बुझाने वाला परिवार!
चूल्हे की मुखिया माता
अंत में कड़ाही पोंछ कर सूखी रोटी खाकर पानी पीती है ,
अपने एक दो तीन चार पाँच वर्षीय बच्चों के लिए
और गर्भ में पलने वाले पति के अंतिम प्रेम के लिए ;
रेल की पटरी उनके जीवन का गठरी छीन ली वक्त से पहले
अब वे इस दुनिया में नहीं रहे!
कविता के सरिता में
अनेक पथिकों के चिता को विसर्जित करते देख रहा हूँ ;
अनेक कवियों द्वारा मुक्ति का मंत्र भी सून रहा हूँ
बच्चें नदी बीच पंडित के वक्तव्य जो दोहरा रहे हैं उसे भी!
एक भूखी बच्ची रेलवेस्टेशन पर जगा रही है
अपनी क्षीरदाई जननी को
जो भूख का चादर ओढ़ सो गई है सदा के लिए ;
एक अनाथ बच्चा अपनी नन्ही परी बहन को
अपने हाथों से खाना खिला रहा है सान सान!
एक माँ का बेटा दम तोड़ बैग पर लेटा
एक माँ की बेटी घर के पथ पर चलते चलते स्वर्ग चली गई!
एक पुत्री साईकिल से पिता को घर पहुँचाई
लॉकडाउन में श्रवण कुमार-सा धर्म निभाई
यह समय भयावह है
जिसे एक स्त्री अपने कथा कहानी कविता गीत-प्रगीत में
कहर-ए-कंठ से कोयल-सी स्वर दे रही हैं!
और वे स्वयं अनुभूतियों के भीतर स्थिर हो जाती हैं
अनुभूति स्त्रियों का घर है ;
पुरुष उन्हें जब खोजते हैं देह में
तब नहीं मिलती हैं वे अंत तक उन्हें
आख़िरी में लाचार आदमी
लौटना आना चाहता है बार बार युवावस्था में
जैसे लौटना चाहते हैं फँसे मजदूर अपने घर!
निर्जन द्विप के अकेले मुसाफ़िर मनु थे क्या?
क्या कोई विधुर एकाकी होता है?
या कोई नायक नायिका के विरह में?
सफ़र-ए-कहर में
एक मर्द अपने मंजिल के द्वार पर जा गिरा
एक वीर वन के बाहर
वीर पति पुत्र पिता में से कोई एक हो सकता है ;
अपनो को गिरा देख स्त्रियाँ रोती हैं
और उनकी यही रुदन संवेदना के सुमनवाटिका में
सुगंध बिखेरने लगती है
हवा में फैली गंधपथ धर भौंरें चले आ रहे हैं
रुदनरस को चूसने!
कुछ चूसते हैं कुछ सोखते हैं
कुछ रंगों के मोह में भटकते हैं फूलों पर
कुछ अधखिले कलियों को देखते आँखें फार
देखना प्रायः प्रातःकाल और संध्याकाल की क्रिया है
पर भूखे काले भौंरें दोपहर में भी दिखते हैं
अलग अलग फूलों पर मँडराते हुए!
उनका वहाँ मँडराना फूल का ताज़ा रहना है
धूप के विरुद्ध ,
मालिन सोहती नेरती सिंचती कर्षित क्यारी को
जो आकर्षित करती भ्रमरी बेचारी को
भ्रमरी शहर घूँम-घाम आती है खेत में
खेतहरीन सूरजमुखी पर कपड़े बाँध रही होती हैं ;
वह दुःखी हो पहुँची मजदूरों के समाधि स्थल
जहाँ अनेक फूल हैं स्थूल में सूक्ष्म मूल हैं
वहाँ बैठ स्त्रियों के समाधि लेख पढ़ रही होती है
कि कोरोना से पीड़ित हो मरी स्त्री का शव आता है
मृतक माँ को सीधे अस्पताल से लाया गया है यहाँ
वरिष्ठ अधिकारियों के देख रेख में कफ़न दे कर
फिर भी कबरिस्तान के आत्मा उसे वहाँ
दफ़नाने से रोक रहे हैं....!
उसका कब्र उसके पति के ठिक बगल में खोदा गया था
जो दो वर्ष पूर्व ही कब्र में जा उसकी प्रतिक्षा कर रहे हैं
शव वहाँ से लौट जाती है उसी सरकारी गाड़ी में
पति की आत्मा विरोधी आत्माओं से हार
लाचार बेबस कब्र से चिल्ला चिल्ला पूकार रहा है
मेरी प्रियतम को मत ले जाओ मुझसे दूर
हे ख़ुदा! रहम करो रहम करो मुझ पर रहम करो!
उसका बच्चा उन दोनों के इश्क-ए-मजाज़ी को
इश्क-ए-हकिकी में बदल दिया
कब्र में माँ का तस्वीर-ए-मोहब्बत दफ़ना
माता-पिता प्रसन्न हुए पुत्र के इस पावन कार्य से
आशीर्वाद दे कबरिस्तान से आधीरात घर भेज दिए उसे
भ्रमरी इस घटना को सार्वजनिक करने के लिए
उस बालक के साथ उसके मुहल्ले पहुँची
घटना सार्वजनिक हो गयी कानो-कान
कोरोना ने जब ले लिया मुल्क-ए-जान!!-२...
-©युवा कवि गोलेन्द्र पटेल
०१-०६-२०२०
*शेष और कभी*
https://www.facebook.com/golendrapatelkavi/


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