यह टिप्पणी आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय वंदना चौबे जी ने कवि नीरज खरे जी की कविताओं को सुनने के बाद लिखी है।आभार सहित यहाँ साझा किया जा रहा है।आप भी पढ़ें-
यह समकालीन हिन्दी कविता का मूल्यांकन या कोई समीक्षा नहीं है!इसे फ़िलहाल कविता की दुनिया मे अपने इलाके (बनारस-विशेष रूप से हिन्दी विभाग और अध्यापन)से एक नए उभरते कवि के बारे में मेरी एक तात्कालिक सीधी प्रतिक्रिया समझें!
[संदर्भ- कल नीरज खरे की कुछ कविताओं से गुज़रते हुए!].
"मैं बहुत धीरे से जागता हूँ कि हवा का बारूद सोता रहे
इतना धीमे बोलता हूँ कि सबसे कमजोर आवाज को भी भरोसा रहे अपनी ताकत पर
सच को इतने सधे हाथों से छूता हूँ कि वह गवाही तक जीवित रहे."(भग्नावशेष)
महत्वपूर्ण युवा कवि वीरू सोनकर Veeru Sonker की पंक्तियों के साथ-
अव्वल समकालीन हिन्दी कविता में एक साथ कई पीढ़ियाँ सक्रियता से लिख रही हैं।कविता का दायरा असीम ढंग से विस्तृत हुआ है!इस विस्तार के भीतर वजूद-विमर्शों के खण्ड-खण्ड रूप भी अपरिमित हुए हैं।
दूसरे संचार-क्रांति के कारण समकालीन कविता का क्षेत्र-विस्तार फ़िलहाल पकड़ से बाहर है और कविता का कोई रचनात्मक आलोचक दिखाई नहीं पड़ रहा।यूँ समग्रतः आलोचना का क्षेत्र ही ख़ाली है।इसका कारण भी संचार-क्रांति और बाजार है हालांकि इसी के समानांतर विभिन्न संचार माध्यम साहित्य में सामंती गढ़ों को तोड़ने का भी काम कर रहे हैं।
तीसरे अनेक स्रोतों और रास्तों से निकल रही हिन्दी कविता को बाज़ार और ग़ैर जवाबदेह आवारा पूंजी ने ढेले पकड़ा दिए हैं।सामान्यीकरण से बचते हुए कहूँगी कि चूंकि यह ढेले सत्ता के गठजोड़ी बाज़ार के ही बनाए हुए हैं अतः कविता का सत्ता से लड़ना फ़िलहाल बड़े, खूँखार, विशालकाय, विशालमुख, विशाल जबड़ों और सब कुछ रचा-पचा जाने वाली सत्ता को एक-एक ढेला मारकर ताली बजाने जैसा है।
अपनी समझ से यह कह सकती हूँ कि बाजार और पूँजी सबको लील जाएगी।वह सारी समस्यायों और वाद-विमर्शों को समायोजित कर सकता है!
अंततः शायद सबको विमर्शों से ज़्यादा पर्यावरण की लड़ाई लड़नी पड़े।साफ़ भोजन,साफ हवा,साफ पानी और जीने की लड़ाई!सबसे बड़ा मध्यवर्ग बाज़ार ने बनाया इसीलिए वे हर हाल में बाजार के लिए जीने को अभिशप्त होंगे।
ऐसे में जब सब तरफ़ से ढेले चलने लगें तो यह समझना ज़रूरी है कि सभी एक साथ एक तरह से विरोध में कैसे खड़े हो गए हैं?क्यों खड़े हैं और इतने ढेले मारने के बावजूद हिन्दी के लेखक से शासन-सत्ता को क्यों अंतर नहीं पड़ता?
और चौथी बात कि बहुधारा हिन्दी कविता में अमूमन अब भी प्रेमचंद के किसान,प्रेमचंद का गाँव और मुक्तिबोध के समय का पूंजीवाद आदि की काल्पनिकता है और वह इस कदर हावी कि नॉस्टैल्जिक रोमांटिक बनाए हुए है।परम्परा का सतत चलना,उससे आगे की ज़मीन मजबूत करना एक बात है लेकिन परम्परा को 'बैक-अप' समझकर पितृसत्तात्मक उत्तराधिकार की तरह उपयोग किया जाय तो 'सेल्फ़-मेड' का आत्मविश्वास नहीं बनता।प्रतिरोध और प्रतिबद्धता के ढंग पुराने हैं जबकि बाज़ार और सत्ता के रूप बहुत तेजी और चौतरफ़ा बदल रहे हैं।बाजार इतना क्रूर है कि पुराना सामंती ढाँचा भी रोमांटिक लगने लगा है।
जनवादी, प्रगतिवादी, स्त्रीवादी,दलितवादी,पिछड़ावादी, आदिवासी,अल्पसंख्यकवादी,लोकवादी, थर्ड जेंडर या कलावादी सभी ज़रूरी क्षेत्रों में काम होने के बावजूद बिखरे-बिखरे हैं।कोई आलोचक नहीं जो इन्हें एकमुश्त कर ताकत के साथ प्रस्तुत करे।खण्ड-खण्ड और घर-घरानों में बंटी आलोचना है।कमोबेश पहले भी थी ही,अब और बेहतर हो गई है।
इस गड्डमड्ड कविता की दुनिया में कल नीरज खरे की कविता ने कुछ देर बैठने की जगह दी।उनकी कविताओं में विचार-विचारधाराएं आए!अस्मिताएं ने उकसाया!बाज़ार के शिकंजे मिले!लोक की शक्ति,दुख और उसका सम्मोहन आए,छोटे-छोटे बनते बिगड़ते जीवन-दर्शन सामने आए लेकिन कविता ने ठहराया और सुनने में संदेह का दख़ल नहीं हुआ!
ऐसा नहीं कि नीरज जी की कविताओं में घात-प्रतिघात, सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक दबाव और आधुनिक विमर्श नहीं हैं लेकिन इस दबाव में बड़बोला प्रतिरोध नहीं है और न ही स्थितियों की बेचारगी और लाचारी!बेबात-बेमतलब कवि का अहं भी नहीं और बेज़ारी भी नहीं।उनका कवि-व्यक्ति बेहद तटस्थ है जबकि उनकी कविता अपने निज में गहरी,संवेदनशील और चुपचाप सटीक सवाल करती है और यही उनमें सबसे बड़ी चीज़ है।चरित्र-कविताएँ तो स्मृति में संयोजित हो जाती हैं।व्यवस्था के संत्रास में घुटे होने के बावजूद इन कविताओं के चरित्र बेबस नहीं लगते हैं।नीरज जी का कवि पाठक पर चढ़ नहीं बैठता न अकड़ता है न सहानुभूति लेता है न ही ख़ुद को थोपता है न ही वैचारिक-पांडित्य से ऊबचूभ कर देता है!आज के समय-साहित्य से अनुमान लगाइए कि पाठक के लिए यह कितनी राहत की बात है।पाठक को स्पेस देती हैं ये कविताएँ कि वे ठहरकर अपने ढंग से सोच-समझ सकें।कवि उनकी खोपड़ी पर हावी नहीं है।
नीरज जी मूलतः मध्यप्रदेश से हैं।वे कोई सुपरिचित, बड़े कवि या बड़ा और ग्लैमरस नाम नहीं हैं बल्कि अभी वे कवि ही कहाँ हुए हैं लेकिन ढेला मार कविता के दौर में उनकी कविताएँ बड़ी सादगी और संकोच से अपने आप को बचाए हुए हैं क्योंकि उनको यह नहीं मालूम कि वे कवि हैं।उन्होंने कविता पर सप्रयास काम नहीं किया इसीलिए उनकी कविता के कथ्य और भाषा पर बाहरी और टेक्निकल 'प्रेशर' कम है और वे कृत्रिमता से बची हुई लगती हैं!ग़ैर-पेशेवर और स्वाभाविक।नीरज जी कथालोचना में काम करते रहे हैं और बेहतर है कि अपने कविमन से बेफ़िक्र हैं!
'हानूश' नाटक में हानूश कुफ़्लसाज़ है।जिस दिन से वह कुफ़्लसाज़ी छोड़ घड़ी बनाने में माथा खपाने लगा यानी 'विशेष प्रकार' से फ़ोकस हुआ घड़ी उससे दूर हो गई।घड़ी तभी सध सकी जब हानूश ने यह समझ लिया कि वह कुफ़्लसाज है!न उससे कम न उससे ज़्यादा।
शुभकामनाओं के साथ!अपने कवि से बेफ़िक्र नीरज खरे कथाआलोचना करें!
आभार : वन्दना चौबे
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