Golendra Gyan

Saturday, 15 August 2020

डॉ.विपिन कुमार {आचार्य~बीएचयू} की "सत्रह कोरोजीवी कविताएँ"

 






१.

एक ही नहीं थे

कई जोड़े थे

दो बजे के बाद

जब स्कूल 

बंद हो जाता था

शांत वातावरण में

पुलिया पर बैठकर

गुलजार किये रहते थे

शांत माहौल को


स्कूल की बाउंड्री और पुलिया

मेरे सरकारी आवास के मित्र हैं

परिचय बना रहता है लगातार

वहाँ के कार्यसेवकों से

आते-जाते, घूमते-टहलते

नित्य देखता रहता हूँ

उन परिन्दों को

जो उस पुलिया पर आश्रय लेते हैं


कालोनी के कई मित्रों को देखा है

डाट-फटकार कर उड़ाते हुए

वे मानते कहाँ है

सैर-सपाटा कर फिर आ बैठ जाते हैं

मुझे बहुत सुख मिलता है उन्हें देख

मैं कभी छेड़ता नहीं हूँ उन्हें

वे मुझसे बेफिक्र रहते हैं

जैसे मेरी दोस्ती हो गयी हो उनसे


कभी लड़की पुलिया पर बैठी है

और लड़का साइकिल पर

गाल पर हाथ रखे धीमे स्वर में

होंठ हिलते पर आवाज न आती

कभी लड़का पुलिया पर

लड़की स्कूटी पर बैठी होती

कभी लड़की का पैर तो 

हाथ छूने की कामयाब कोशिश


कभी ऐसा भी दिखता

दोनों कमर में हाथ डाले बैठे

राहगीरों की आवा-जाही को

अनदेखा कर आलिंगन करते

कभी तो अच्छी खासी नोक-झोक

कलह में बदल जाती है

गाली-गलौज और संबंध विच्छेद की

स्थिति आयी है कई बार


ऐसा नहीं कि उनकी सारी हरकतें

मुझे अच्छी ही लगती हैं

कुछ तो बहुत अश्लील होती हैं

सोचता हूँ इस उमर में नहीं तो कब

सोचता हूँ इस बेरोजगारी के दौर में

नौकरी न सुकून बस परेशानी

कुछ न सही कुछ पल के लिए

प्रेम ही सही भले चोरी छुपे ही सही

कभी-कभी मुँह से निकल जाता है

लगे रहो कोई गम नहीं


कुछ दिनों से पुलिया सूनसान पड़ी है

बरबस निगाहें उधर पहुँच जाती हैं

कमी बहुत खल रही है

चाहे-अनचाहे वे जोड़े 

अपने से लगने लगे थे

सोचता हूँ कि उन परिंदों पर

क्या बीत रही होगी आज कल

जो केवल इतना ही सीख पाये थे

प्रेम तो लोक के बंधन से परे है।

१० अप्रैल

2.

आवारा आग जलाती है

केवल जलाती है

पहचानती नहीं वह

किसी रिश्ते को

आग को आवारा छोड़ने वाला

भूल जाता है कि

रास्ते में उसका भी घर है

जलेगा सब तो

बचेगा वह भी नहीं

आवारा आग जलाती है

केवल जलाती है।

२० अप्रैल

3.

सदाबहार के पत्ते

पीले हो रहे हैं

माली की तरफ देख रहे हैं

माली ने वादा किया था

समय- समय पर पानी देने का

तपती धूप और लू के दिनों में


तपन बढ़ती ही जा रही है

कुछ के पत्ते सूख रहे हैं

कुछ के तने सूख गये हैं

कुछ मृत हो चुके हैं

कुछ अभी इंतज़ार में खड़े हैं

झेल रहे हैं तीखी धूप की मार

झेल रहे हैं तेज लू के थपेड़ों को


माली आता-जाता है

उसी रास्ते से बार-बार

सुनकर भी अनसुना कर देता है

कराह को, पुकार को

देखकर आँखे चुराता है

ठिठकता भी नहीं, ठहरता भी नहीं

कभी सहलाता था, खुश होता था

देखकर हरियाली को


आज संकट में है सदाबहार के पौधे

माली के वाले याद आते हैं बार- बार

छलावा था माली का वादा

गीत से लगते हैं उसको

सदाबहार के  दुख-दर्द और कराह

अब वह मुंह नहीं दिखाता

ढंक लिया है चेहरे को

कपड़े के अजीब से टुकड़े से

इस उम्मीद में कि

वक्त गुजरने के बाद छल सके

जिन्दा बचे कुछ सदाबहार को।

२५ अप्रैल

4.

लॉकडाउन के 30 दिन पूरा होने पर 


देश की गरीब जनता को सलाम! 

जिसने जीवन बीज बचाने के लिए 

भूखों रहने का संकल्प लिया


सलाम! उन हाथों को जिसने

भाईचारा को जिंदा रखने के लिए

लाखों भूखों को निवाला दिया


सलाम! उन डॉक्टरों को जिसने

जाति-धर्म से ऊपर उठकर

पीड़ितों का इलाज किया


सलाम! उन सफाई कर्मियों को

जिसने सड़क से अस्पताल तक को साफ रखा


सलाम! उन दुकानदारों को

जिसने दवा और राशन दिया


लड़ाई अभी जारी है

सलाम! लड़ने के हर एक जज्बात को।

२५ अप्रैल

5.

निगाहें टिकी हुई हैं

टीवी स्क्रीन पर लगातार

विश्व के सभी देशों में

गिनती जारी है

कौन आगे है और कौन पीछे

यह जानने की

बेताबी लगातार बनी हुई है


कहीं हजार में तो कहीं लाख

जो आगे है वह दुखी है

जो पीछे है वह भी दुखी है

जो दोनों की होड़ में नहीं है

वह होड़ में आना भी नहीं चाहता

जब कोई गिनती

अपने आस-पास आ जाती है

हलक सूख जाता है

चिंता बढ़ जाती है


व्यक्ति खुद को देखता है

परिवार को देखता है

आँखे भर आती हैं

मासूमों को देख

न चाहते हुए भी बार- बार

मन में आ ही जाता

पहले कौन? 

आँखे बंद हो जाती हैं

चेतना शून्य में

विचरण करने लगती हैं


यह पहली गणना है

जिसमें सारे देश

पीछे रहने की जद्दोजहद में हैं

कोई किसी से

आगे नहीं निकलना चाहता

आज का चुनाव 

किसी व्यक्ति के लिए नहीं है

इसमें देश खड़े हैं मैदान में


हार जीत का फैसला

अधिक संख्या पर नहीं है

कम से कम संख्या पर है

विजेता तो वही होगा

जिसकी संख्या शून्य होगी

यह जीवन बचाने का चुनाव है


ताज इंतज़ार कर रहा है

किसी नेता का नहीं

किसी योद्धा का नहीं

उस देश के वैज्ञानिक का

उस देश के डॉक्टर का

जो खोज लायेगा

जीवन की सुरक्षा के लिए वह दवा

जिससे दुनिया में गिनती रूक जाय।

२७ अप्रैल

6.

सरकार की तरफ से

जरूरी और सराहनीय कदम

आम परिवार की औरतें और बच्चे

चालीस दिनों से

टी वी ड्रामा देखकर ऊब चुके थे

आज से उनको लाइव ड्रामा

देखने का सुअवसर मिलेगा


आज से फिर एक बार

आम आदमी का घर

चीख पुकार से गुंजायमान होगा

साहब ने साहब के लिए

जाम की व्यवस्था कर दी है

साहब तो साहब के सुकरगुजार हैं

पड़ोसी भी साहब के सलामगार

लॉकडाउन में बैठे बिठाये

एक और मनोरंजन होता रहेगा


साहब ने साहब के लिए नहीं

साहब ने साहब के बहाने

अपने साहब के लिए रास्ता बनाया है

चालीस दिन साहब ने

अपने साहब की हरकतों को

इसी वादे के झांसे में झेला है


अपने साहब के वादे

निभाने के लिए

साहब सारे वादे तोड़ आये हैं

आम जनता के सहारे

अपने लिए रास्ता बनाये हैं

गिनती अभी जारी है

कोई उपाय आना अभी बाकी है

फिर भी सबको कतार में

खड़ा कर आये हैं


पिओ और पीते रहो

४ म

7.

बस यहीं तक जिन्दगी


रूक जा तू

कदम है मेरा

मानता क्यों नहीं?

सुन रहा है किसकी? 

कहाँ ले चलेगा? 

क्यों ले चलेगा? 


सुनता ही नहीं

समझता ही नहीं

है मेरा ही कदम

बगावत कर बैठा है

जोर नहीं है मेरा

चल दिया है किधर


मन घूमता है

रोटी तलाश में

मन रोकता है

जिन्दगी की आश में

कदम कह रहा

यहाँ न रोटी न जिन्दगी


मांगा रोटी

वर्दी से टोपी से

वर्दी से मिली लाठी

टोपी तो कहीं खो गयी

किस बात का इंतज़ार

मन रे चल कदम के साथ


इंतज़ार में हैं

बूढ़ी आँखें जहाँ

लिए हाथ में सूखी रोटी

कमाई सूखी हडिड्यों से

आज के लिए ही

लाल के लिए भी


पेट तू सब्र कर

कदम तेरे साथ है

तू अकेला नहीं रे

दायें-बायें देख ले

तेरी जिम्मेदारी भी

है तेरे साथ में


मुन्ना-मुन्नी सिसक रहे हैं

अपनी माँ की गोद में

पहाड़ सा दुख लिए

कदम सरक रहा है

दूरी ज्यादा नहीं है

हजार मील की बात है


कहीं पानी मिले तो

प्यास मैं बुझाता हूँ

भूख का नाम मत लेना

भूख ने ही मारा है

मन रे चलता रहा

कदम तुम्हारे साथ है


थक चली हैं सासें

ढह चली हैं उम्मीदें

कदम ने भी छोड़ा साथ

मन हुआ अब हताश

न मिली माँ न मिली मंजिल

बस यहीं तक जिन्दगी। 

बस यहीं तक जिन्दगी।

१५ मई

8.

मझधार में हैं तो सहारा, 

खुद ही बनना पडे़गा। 

उसकी तरफ मत देखो, 

घर पत्थर का बना रखा है। 

आप की बेबसी का आलम, 

परिन्दों की बेबसी में है। 

परिन्दों को कब से उसने, 

पिजड़े में बन्द किये रखा है।

११जून

9.

यह कुआँ 

रोज खोदने

और पानी पीने वाला नहीं

यह मिला है

पहले से खुदा हुआ

पानी भरा हुआ है

बाल्टी है जगत पर

रस्सी के सहारे


पानी साफ नहीं है

गंदला है

नीचे झांकने पर

उसकी गंदगी और बदबू 

स्वादहीन रंग बिखेर रही है

प्यास अपार है

पर पीने का साहस नहीं है


मेरे सामने ही आकर

प्यास के बस भेट चढ़े

कुछ ने साहस किया

कुछ ने सांस छोड़ दी

कुछ छटपटा रहे हैं

कुछ कतार में हैं


ये वही लोग हैं

जिन्होंने बेच दिये थे

अपने सभी सपने

अपने कल के लिए

सपनों की कीमत पर

उन्हें मिला था यही कुआँ

पीना तो है 

मरने के लिए

या जीने के लिए

उनके हिस्से का

यही है एक कुआँ

१३जून

10.

हरवाह


यह एक मजबूरी और 

बेबसी भरा शब्द है

वैसे तो है भारी-भरकम

यह ढोता रहता है

भूमिहर काश्तकारों का

खेत-खलिहान, पशु-परानी

क्षीणकाय जर्जर कंधों पर


व्यक्ति हरवाह बनने की

योग्यता तब रखता है

जब वह भूखों मरने लगे

परिवार दाने-दाने को

तरसने लगे

यहाँ तक कि शरीर पर

फटे चिथड़े के सिवा

कोई दूसरी अमानत न हो

और योग्यता पर जीने के

सारे रास्ते बंद हो चुके हों


फिर शुरू होती है

हरवाह बनने की परीक्षा

इसके लिए गिड़गिड़ाना

सबसे सफल प्रमाण पत्र है

जूठन खाना और 

गंदगी साफ करना

साथ ही मनुष्यता के

सारे लिबास उतार देना

फिर बैल के साथ

बैल जैसा जीवन जीना

सहायक प्रमाण पत्र हैं


चेतना में आग ढोना

व्यवहार में 

बादल जैसा बरसना

धीरे-धीरे आग को

पानी में बदल देना

पूंछ न होते हुए भी

हमेशा पूंछ हिलाना

हँसी न आते हुए भी

खुद के लिए गाली पर

हँसी की आदत डाल लेना

चारित्रिक विकास है

विश्वासपात्र बनने की कला

अनायास दो-चार लात 

हमेशा खाने के लिए तैयार रहना 


आज हरवाह की कोटि

बदल चुकी है

हरवाह के मायने 

बदल चुके हैं

आज लोग मजबूरी में नहीं

स्वार्थ में हरवाह बनते हैं

गला काटने के लिए भी

हरवाह बनते हैं लोग

गले लटकने के लिए

हरवाह बनते हैं लोग

गला छुड़ाने के लिए

हरवाह बनते हैं लोग

सिद्धांत बेंचकर

हरवाह बनते हैं लोग

संवेदना का सौदा करके भी

हरवाह बनते हैं लोग


बड़ा बिस्तार हुआ है

आज हरवाह का

गाँव में मिल जायेंगे हरवाह

कस्बे में मिल जायेंगे हरवाह

शहर में मिल जायेंगे हरवाह

गली में मिल जायेंगे हरवाह

अॉफिस में मिल जायेंगे हरवाह

संसद में मिल जायेंगे हरवाह

एक बार पहचान जाइये

हर जगह मिल जायेंगे हरवाह

२५जून

11.

कपड़ा सीधा करना

कपड़ा लोहा करना

चिंगुरन छुड़ाना

कपड़ा प्रेस करना

इसके लिए एक शब्द समूह

और अाता है

कपड़ा इस्त्री करना


जब कपड़े की बात आती है

मन यहाँ पहुँचकर 

कुछ देर के लिए

ठहर जाता है

सबसे अधिक चलन में

यही वाक्य है

अमूमन यह काम

स्त्रियाँ ही करती हैं

वे भी बार-बार 

यही वाक्य दुहराती हैं


स्त्रियाँ कोमलांगी, मृदुभाषी

सुशील, सुन्दर और

बेहद ही सीधे-साधे 

स्वाभाव की होती हैं

छल-कपट से परहेज करती हैं

सीधी रेखा में

जीवन जीती हैं


बार-बार सोचता हूँ

सिकुड़न युक्त कपड़े को

सीधा करने के लिए

इस्त्री करना ही क्यों

प्रयोग किया जाता है

पुरुष करना क्यों नहीं

जबकि पुरुष तो

स्वाभाव से एकदम 

आड़ा-तिरछा होता है


लगता तो यही है कि

यह वाक्य पुरुषों द्वारा

स्त्री को उसकी

पुरुष पराधीनता को

बनाये रखने के लिए

पुरुष द्वारा गढ़ा गया

मुकम्मल वाक्य है

ताकि स्त्री काम भी करती रहे

पुरुष पराधीनता को

महसूस भी करती रहे

२६जून

12.

एक बाज मडरा रहा था

आज सुबह से

घर के आस-पास

कौवे तो अक्सर दिख जाते थे

पर बाज

बहली बार दिखा था

जितना कि मुझे याद है

बीते दस सालों में


दस साल पहले दिखा था

वह कोई दूसरा था

आज जो मडरा रहा था

उसका रूप रंग

पहले जैसा नहीं था

मंसा नहीं समझ पाया था

ऐसे ही आ गया होगा

समझ कर

घर के अंदर चला गया


अभी कल की बात है

बेटे ने बड़ी उत्सुकता से

हाथ पकड़ा और

यह कहते हुए

बाहर ले गया कि

देखो! अमरूद के

छोटे वाले पेड़ पर

चिड़िया घोसला बनायी है

थोड़ी दूर से 

दोनों देख ही रहे थे कि

एक छोटी सी काली चिडि़या

आकर घोषले में बैठ गयी


उसको कुछ असहज न लगे

इसलिए हम दोनों

धीरे से वहाँ से हट लिए

बेटे ने सारी बात

अपनी मम्मी को बतायी

उन्होंने एक मुट्ठी चावल लिया

पेड़ के नीचे बिखेर आयीं

रात बीती 

आज की सुबह से

उसकी आवा-जाही बनी रही


दरवाजे पर रोज

चिड़ियों को देखते रहते हैं

इसलिए वह उत्सुकता

ज्यादा देर तक न रही

और बाज की साज़िश भी

न भाप सका 

आज शाम को जब

मैं सपरिवार बाहर बैठा था

तभी घोसले में चिड़िया

आराम से बैठी थी


बेटे ने एक बार फिर

उसकी तरफ

ध्यान आकर्षित किया

इस सवाल के साथ

पापा! वह क्या कर रही है? 

बिना कुछ सोचे 

मैंने जवाब दिया

अंडा से रही है

उसने फिर पूछा कि

पापा! फिर तो बच्चा निकलेगा? 

मैं हाँ में जवाब दिया

उसने चहकते हुए कहा

तो मैं उसे पालूंगा

बात पूरी ही हुई थी कि

बाज ने झपट्टा मारकर

उसे अपने पंजों में दबोच लिया

हमारे मुँह

खुले के खुले रह गये।

२९जून

13.

झुरमुट


कंटीली झाडियों और

घास-फूस का 

एक सघन आकार

इसके पीछे 

छुपा जाता है

इसके अंदर भी

छुपा जाता है

विषधर और विष विहीन

आश्रय लेते रहते हैं


विषधर छिपता है

शिकार के लिए

विष विहीन छिपता है

आश्रय के लिए

कुछ झुरमुट प्राकृतिक

तो कुछ मानवीकृत

मानवीकृत 

सजग रूप से

बनाये जाते हैं

कटीले मानवों से

ये होते हैं

चलते-फिरते झुरमुट


कटीले मानवों के झुरमुट में 

घास-फूस मानव

समय-समय पर

झुरमुट से अलग होकर

अपने कांटे 

बिखराने के लिए

उतर जाता है

मानव समाज में

बिखेर जाता है

जहरीले कांटे


कुछ अवसर पर

पूरा झुरमुट 

उतर आता है

मानव बस्तियों में

दिलों में दहशत

फैलाने के लिए

ये झुरमुट मानव नहीं

मानव विध्वंशक रोबोट हैं

जो बनाये जाते हैं

पीछे छिपने के लिए

विध्वंशक आकाओं द्वारा


ये झुरमुट बसते हैं

सभ्य बस्तियों में

रहते हैं उनके जैसे ही

उनके बीच

समय-समय पर

बढ़ाते रहते हैं

अपनी झाडि़यों की संख्या

सघनता बढ़ाने के लिए

संख्या बढ़ाने का हथियार

लालच और बेरोजगारी


एक छोटी सी झाड़ी

होती है बहुत विषैली

बनी ऐसे मानवों से

बहुत मुश्किल होता है

पहचान पाना

कौन है झुरमुट का हिस्सा

शांति के दिनों में

अचानक 

चेहरा सामने आता है

हाथ में हथकड़ी लगते ही

भौचक्की निगाहें

घूरने लगती हैं


एकाध झाड़ियों के

नष्ट हो जाने पर

कुछ असर नहीं दिखता

आकाओं पर

जब झुरमुट आ जाता है

कानून के गिरफ्त में

आकाओं की चाल

सामने आने लगती है

वह सामने नहीं आता

दूसरे झुरमुट के पीछे छिपकर

नारा लगवाता है

मानवाधिकार का।

३०जून

14.

हथियार बनाने वालों ने 

अपने और एक 

बिगड़े हुए हथियार को 

तोड़ दिया

आप के अंदर का भय

भगाने के लिए नहीं

अपनी पहचान

छुपाने के लिए


कोई बात नहीं

आप निश्चिंत मत होइये

उनके गोदाम में 

ऐसे अनगिनत हथियार हैं

कल कोई नया हथियार 

जरूर लान्च होगा 

जो इससे अधिक मारक 

और घातक होगा


आप का भय

उनकी ताकत है

अपनी ताकत को

बनाये रखने के लिए

वे तोड़-फोड़ का खेल

खेलने में माहिर हैं

नया हथियार

जब बिगड़ेगा

उसे भी तोड़ देंगे

यह सिलसिला

चलता रहेगा

और आपका भय

बरकरार रहेगा।

१०जुलाई

15.

#समुद्र#


दाहिने भुखमरी गरीबी का समुद्र 

और लाचार तड़पती जिंदगी

बायें मजबूरी खड़ी है 

और बेबसी से सजा हूँ। 

मैं तो समुद्र के बीच खड़ा हूँ। 


आगे बेरोजगारी का साया

और हर शहर भटक कर आया हूँ

पीछे देखने की हिम्मत नहीं

मां-बाप की आशायें छोड़ आया हूँ

लोग समुद्र देखने जाते हैं

मैं तो समुद्र के बीच खड़ा हूँ। 


अफवाहों को वादे समझ बैठा था

विश्वास की जमीन सोचकर

चला था साथ उनके हर कदम

कदम गिनने की फुर्सत में नहीं हूँ

लोग समुद्र देखने जाते हैं

मैं तो समुद्र के बीच खड़ा हूँ। 


देखा है रोज उनके हाथों को

खून से लथपथ अखबारों में

पुरस्कार की तख्त है आज

सजी उनकी बाहों में

लोग समुद्र देखने जाते हैं

मैं तो समुद्र के बीच खड़ा हूँ।

२१जुलाई

16.

एक बार व्यवस्था बदलकर देखो

तुम उनकी आरती उतारो

उनकी भी कलाइयों को सजने दो

एक बार उनसे भी रक्षा भीख मांगकर देखो


मांगने में कितना सुख है

एक बार तुम भी भोगकर देखो

कब तक वही मांगती रहेगी सुरक्षा की भीख

कब तक रहेगी वह असुरक्षित

एक बार तुम भी असुरक्षित होकर देखो


मुबारक

३अगस्त

17.

बारिश बहुत विषैली है

जहरीले कीड़े

चारों तरफ फैल चुके हैं

पत्तों को खाकर

तार-तार कर रहे हैं


दवा का छिड़काव

अब जरूरी हो चुका है

जड़ों में घुस जायेंगे तो

चारों तरफ

वीरान ही नजर आयेगा


समय रहते कुछ करो

पेड़-पौधों का रस 

बहुत तेजी से चूस रहे हैं

कुछ के मुँह में

खून लगा देखा है


जल्दी करो

ऐसा न हो कि

ये कीड़े

हमारी पीढ़ियां ही 

खत्म कर दें

१०अगस्त

 
साहित्यिक परिचय :-

जन्म : १जनवरी १९८०

शिक्षा : एम.ए., नेट, डी.फिल.

प्रकाशित रचनाएँ :-

सर्द हवाओं में, काफी नहीं इतना {कविता संग्रह} ;

कहत कबीर सुनहु रे तुलसी {कहानी संग्रह} ; अंतिम विकल्प {उपन्यास} ; दलित समाज और साहित्य {संपादित}

संपादन :- अनिश {साहित्यिक पत्रिका}

संप्रति :- असिस्टेंट प्रोफेसर{स्टेट-३}, हिन्दी विभाग, बीएचयू-वाराणसी 221005

संपर्क :- एल-12 , तुलसीदास कॉलोनी , बीएचयू-वाराणसी।

ई-मेल :- bipink317@gmail.com

मो. :- 8765625611


https://www.youtube.com/c/GolendraGyan

संपादक संपर्क सूत्र :-

ई-मेल :- corojivi@gmail.com

मो. :- 8429249326

नाम :- गोलेन्द्र पटेल

बीएचयू , बी.ए. द्वितीय वर्ष ,चतुर्थ सत्र

नोट :-  अहिंदी भाषी साथियों के इस पेज़ पर आप का आत्मिक अभिवादन ,अभिनंदन व सादर स्वागत है।

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