Golendra Gyan

Thursday, 20 August 2020

रंजना गुप्ता (बीएचयू~हिन्दी विभाग : शोधार्थी) की १० कोरोजयी कविताएँ / गोलेन्द्र पटेल

 

१.

स्त्रियाँ---

चर्चाएं अब आम हो गयीं
किसी सड़क ,
किसी चौराहे,
स्त्रियां तो हर बात पर बदनाम हो गयीं।

चर्चाएं अब आम हो गयीं
मुस्करा दे
दुआ सलाम कर दे
तो मत पूछो
वो सरेआम हो गयीं
स्त्रियां तो हर बात पर बदनाम हो गयीं।

चर्चाएं अब आम हो गयीं
ये नजर,
कर जाती है बेअसर,
ऐसी जाहिल बातें
अब खुलेआम हो गयीं
स्त्रियां तो हर बात पर बदनाम हो गयीं।

चर्चाएं अब आम हो गयीं
वो सजतीं हैं,
वो सँवरती हैं
अब तो आँखों की जाम हो गयीं
ऐसी वाहियात बातों से
आज स्त्रियां हर शख्स के नजरों में गुनहगार हो गयीं
स्त्रियां तो हर बात पर बदनाम हो गयीं।


२.

मां मेरा क्या दोष

मैं क्यों इतना पैदल चलूँ,
मुझे भूख लगी है
कुछ खाने को दो।

मां अपने पति से,
कहाँ से ले आऊं
बच्चों के लिए खाना,
खुद तो आ गए परदेश
मुझे भी ले आये
मुझे बच्चों का पेट भरना है
कुछ खाने को दो।

पति ईश्वर से
कहां चले गए
तुम अन्न दाता
मेरे बच्चे और पत्नी भूखे हैं
तुम्हारे दर पर रेंगते हुए आऊंगा
अभी कुछ खाने को दे दो

ईश्वर स्वयं से
कहां से भेज दूं फरिस्ता
बाँटने वाला आज ख़ुद भूखा है।

३.

सीने से कलेजा निकाल वह
छोड़ आयी
उस पहली कदम के साथ
शहर की भयावहता को।

शहर से गांव की ओर
अपने हाथों से खिंचती
अपने रोते-बिलखते बच्चों को,
अपने सीने में दफ्न
किये अपने लाचारी को।

अपनी बेबसी से लाचार
बीच सड़क पर उतरती,
आज माँ अपनी
हृदय की कठोरता को
घुट-घुट कर निहारती।

एक माँ आज
अपनी जुबान को सिल,
अपनी ममता को पिस
ईश्वर को नहीं पुकारती।

४.

बेवजह तुम वजह पूछते गये

और मैंने हर बार कहा
वजह सिर्फ तुम थे
ये सिलसिला
ये रुसवाईयाँ
एक वक्त के साथ शुरू हुई थी
और आज तक जारी हैं
फिर भी
बेहदों में हद करते रहे
और मैंने हर बार कहा
वजह सिर्फ तुम थे
मैंने सोचा कि चलो
इस बार माफ कर दूंगी
जो भी वजह हो ........
उसे साफ कर दूंगी
इस वक्त के साथ,
बुरे वक्त को बेइल्जाम कर दूंगी
बैठ जाऊंगी
उस हसीन पल को याद करके
उठा लूंगी वो आईना
जिसे पहले कभी देर तक निहारा करती थी
सुलझाया करती थी अपने बाल
और बन जाती थी मैं,
एक अनकही कहानी का किस्सा
आज फिर से दोहराउंगी
शायद इस बार
किस्से में शामिल तुम हो
पर वजह मैं खुद,
इसकी वजह भी
सिर्फ तुम थे।

५.

मुझे
इंतजार है कि
ओस की बूंदे
भींगा दे मुझे
और तोड़ दे मेरा भ्रम
तोड़ दे मेरे भीतर में छिपी
तपती हँसी को
मुझे
इतंजार है कि
ये बूंदे एक-एक कर
मेरे अंदर छिपे मोह को निकाले फेंके
साख से पतझड़ की तरह
उड़ा ले जाए
इन्हें वहां
जहाँ ,
इकट्ठे होते है बूंद
बादल बन फटने के लिए
मुझे
इतंजार है कि
ये बादल फटे
वहाँ जहां, खूलेआम
चर्चाओं का अड्डा हो ।


६.

हजार सपनों का सच

मैंने हजार सपनों के साथ
एक सच लिखा............
अपनी एकाग्रता में
आंखें बंद कर
हजार सपनों के साथ
तुम्हारा सच देखा.........
मैंने जब-जब कोशिश की
कि लौट आऊं,
हजार सपनों के साथ
तुम्हारे हाथों को.........
अपनी कलाई पर बंधते देखा
मैंने कोशिश की
कि तुम्हारे हाथों के...
लकीरों के निशान
मेरी कलाई में बंध जाए,
और सिमटकर रह जाये
यहीं ये पल |
इन हजार सपनों के साथ...
मेरे सपनें जो हर क्षण
बड़े आवेग से बढ़ रहे थे ,
मैंने कोशिश की
कि इन सपनों का हिस्सा मैं बनूं.....
पर हजार सपनों के साथ
मेरे मैं ......
में भी तुम बने
मेरे जेहन में तुम
मेरे रूह से होते हुए
मेरे नब्ज़ तक का रास्ता तलाशते गये |
मैंने कोशिश की
कि इन हलचलों को चलते रहने दूं
आंखे तब तक बंद रखूँ
जब तक तुम मंजिल ना पा लो
मेरे हजार सपनों के साथ.......
मैं जब-जब सांस भरती गयी
तुम एक-एक कर
इन सांसो के साथ उतरते गए, 
मैंने चाहा !
वक्त ना बदले,
वक्त ने मेरे हजार सपनों के साथ
एक कहानी रची
कहानी में तुम थे
मैं तो कहानी का जरिया थी
कहानी की शुरुआत भी ......
कुछ इस कदर हुई
सपनें हजार सजे,
हजार सपनों में
प्रवाह बन तुम बहे....।

७.

मैं चाहती हूं....
धूप का एक टुकड़ा
मेरे मुठ्ठी में बंद हो जाये
और जब भी कभी
मन विचलित हो,
दूर तलक अंधेरा घना हो,
तब मैं मुठ्ठी धीरे-धीरे खोलूँ
और चुपचाप वहाँ रख आऊं
इस धूप के टुकड़े को ।

मैं चाहती हूं.....
चांदनी रात की चंद तारों भरी टिमटिमाहट
मेरे पास आ बैठ जाए
और जब भी कभी
मैं अंधेरे से डरने लगूँ,
मेरी मंजिल मुझसे दूर होने लगे,
तब मैं जुगनुओं की भांति
धीरे-धीरे उठूँ
और चुपचाप इनकी टिमटिमाहट
से साथ निकल पडूं ।

८.

मैं अपनी कविताओं को पंख देना चाहती हूं,
ताकि वह समुद्र, पहाड़, पर्वत,
नदी को पार करती हुई
अनन्त आकाश की सैर करें।
अपने मन-मर्जी से बैठे जाये
पेड़ की डालियों पर
और बनाये एक घोंसला
जिसमें वह जन्में
प्राकृतिक पंख वाली कविता ।

९.
---हत्याएं---

इच्छाओं का दब जाना
किसी हत्या से कम नहीं
और हर बार जब दबे
तो हत्या आत्महत्या से कम नहीं ।

इच्छाएं कब शून्य होती चली जाती हैं
पता नहीं चलता ,
कभी-कभी आत्महत्या का साहस
इतने सहजता से आता है कि
कुछ भी कहने-सुनने को नहीं बच पाता ।

अकेले में अनेकोबार
दम घूँटता है,
कभी-कभी भीड़ की आहट भी
विचलित कर देती है पूरी होती इच्छाओं को ।

घुटन इस हद तक बढ़ जाता है कि
फैसला लेते देर हो जाता है
और इच्छाएं.....
सरेआम कत्ल हो जाती है।

आत्महत्या के पहले
कई संकेतों को अंजाम दिया जाता है,
पर इन संकेतों को जब तक लोग समझ पाते है
आत्महत्या अपना निर्णय ले चुकी होती है ।

१०.
देखो.....
कुछ दिन के लिए मैं जा रही हूं,
जब लौटूं तो वैसे ही मिलना
जैसे पहली बार मिले थे।

देखना मुझे .....
उस पहली नजर की तरह
और जो-जो इच्छाएं हो रही थी उस वक्त
वही इच्छाएं इस वक्त भी रखना ।

©रंजना गुप्ता

बीएचयू-हिंदी विभाग

{शोध छात्रा}


संपादक :-

गोलेन्द्र पटेल , बीएचयू , बी.ए.

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