कवि परिचय : रविशंकर उपाध्याय (12 जनवरी, 1985 - 19 मई, 2014)
रविशंकर उपाध्याय का जन्म ग्राम अकोढ़ी, जिला कैमूर (बिहार) के एक मध्यवर्गीय किसान परिवार में हुआ। इन्होंने प्रारम्भिक और माध्यमिक शिक्षा गाँव से प्राप्त की और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक और परास्नातक हुये। यहीं से कुँवर नारायण की कविताओं पर शोध किया और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में 'अखिल भारतीय युवा कवि संगम’ का सफल आयोजनकर्ता रहे।
अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ एवं आलेख प्रकाशित। का.हि.वि.वि. के हिन्दी विभाग की पत्रिका 'सम्भावना’ के आरम्भिक तीन अंकों का सम्पादन तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की सृजनशीलता पर केन्द्रित 'संवेद’ पत्रिका के फरवरी, 2013 अंक का अतिथि सम्पादन। निधन के बाद 'उम्मीद अब भी बाकी है' (कविता संग्रह) राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित।
युवा कवि रविशंकर उपाध्याय का 19 मई 2014 को बीएचयू अस्पताल में तीस वर्ष की अवस्था में ही ब्रेन हैमरेज से निधन हो गया था।
उनकी स्मृति में 'रविशंकर उपाध्याय स्मृति युवा कविता पुरस्कार’ क्रमशः पहला पुरस्कार वर्ष 2015 में रांची की युवा कवयित्री जसिंता केरकेट्टा को ,दूसरा पुरस्कार वर्ष 2016 में बलिया के अमृत सागर को,तीसरा पुरस्कार वर्ष 2017 में दिल्ली के निखिल आनंद गिरि को , चौथा पुरस्कार वर्ष 2018 बलिया के अदनान कफ़ील दरवेश को , पांचवां पुरस्कार सीतापुर के शैलेन्द्र कुमार शुक्ल को , छठवाँ गोसाईंगंज(अम्बेडकर नगर) युवा कवि संदीप को और सातवाँ दिल्ली के गौरव भारती को दिया जा चुका है।
सम्मान समिति के सम्मानित सदस्य :-
कवि अरुण कमल(पटना), आलोचक अरुण होता (कोलकाता), कवि मदन कश्यप(दिल्ली),कथाकार अखिलेश(लखनऊ), और कवि प्रोफेसर श्रीप्रकाश शुक्ल(वाराणसी) ,वंशीधर उपाध्याय एवं अन्य।
आज रविशंकर की जन्मतिथि है. इस अवसर पर उन्हें याद करते हुए। आज उनकी एक कविता 'सम्भावना समूह' में प्रस्तुत है...
उम्मीद अब भी बाकी है
जब धुंधली होने लगती है
उम्मीद की किरण
जब टूटने लगता है आशा और विश्वास
तभी प्रकृति की अनंत दुनिया में से
आती है आश्वासन की एक आवाज
जो धीरे-धीरे भर देती है
एक ललक जीवन की उद्दाम आकांक्षाओं की
भय और विश्वास के बीच
जीतता सदैव विश्वास ही है
भले ही सीता को हर ले जाए रावण
भले ही भिक्षा में मांग ले जाए इंद्र कवच-कुंडल
भले ही कारागार में डाल दिए जाय देवकी और वासुदेव
भले ही अनसुनी कर दी जाए
नागासाकी और हिरोशिमा से उठती कराह…
भले ही मिट्टी में मिला दी जाए
करुणा और शांति की आदमकद प्रतिमाएं
भले ही बार-बार प्रहार करें
मनुष्यता के दुश्मन बनारस और लाहौर पर
भले ही न बख्शा जाए
घंटे की ध्वनि और अजान की आवाज
भले ही न बख्शी जाए
गंगा और जमुना की अजस्र धारा
भले ही न छोड़ी जाए
कोयल की कोकिल कंठी तान से मुलायम हो रही डाल
भले ही उजाड़ दिए जाएं
चिड़ियों के घोंसले
अपने वजूद और अपनी मिट्टी से
जुड़े लोगों को
उनकी आदिम आकांक्षाएं बचा ही लेंगी
जब तक बची रहेगी
पृथ्वी!
रविशंकर उपाध्याय की अन्य कविताएँ निम्न लिंक पर प्रस्तुत हैं...
https://golendragyan.blogspot.com/2020/12/drravishankar-upadhyaya.html
-गोलेन्द्र पटेल , बीएचयू
मो.नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com
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