Golendra Gyan

Monday, 8 February 2021

प्रिय कवि चंद्रेश्वर की कुछ कविताएँ || 2020-21 की कविताएं || गोलेन्द्र पटेल || Chandreshwar

आत्मीय कवि , आलोचक व आचार्य चंद्रेश्वर की कुछ कविताएँ :-

संक्षिप्त परिचय :-

नाम - चंद्रेश्वर, जन्मः 30 मार्च, 1960 ,आशा पड़री, बक्सर,बिहार | पिता का नाम श्री केदार नाथ पांडेय और माता का नाम श्रीमती मोतीसरा देवी | लेखन के आरंभ में वाम लेखक संगठनों से  गहरा जुड़ाव |  उच्च शिक्षा आयोग ,प्रयागराज से चयनित होने के बाद 01 जुलाई सन् 1996 से एसोसिएट प्रोफेसर एवं  हिन्दी विभागाध्यक्ष,

एम.एल.के.पी.जी.कॉलेज,बलरामपुर,उत्तर प्रदेश | हिन्दी की लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में सन् 1982-83 से कविताओं और आलोचनात्मक लेखों का लगातार प्रकाशन | अब तक चार पुस्तकें प्रकाशित | दो कविता संग्रह -'अब भी '(2010),'सामने से मेरे' (2017) ; एक शोधालोचना की पुस्तक 'भारत में जन नाट्य आंदोलन'(1994) एवं एक साक्षात्कार की पुस्तिका 'इप्टा-आंदोलनःकुछ साक्षात्कार' (1998) का प्रकाशन

एक भोजपुरी गद्य में पुस्तक--'हमार गाँव' (स्मृति आख्यान) |

शीघ्र प्रकाश्य हिन्दी पुस्तकें ---1.तीसरा कविता संग्रह 'डुमराँव नज़र आयेगा',2.'हिन्दी कविता की परंपरा और समकालीनता' (आलोचना),

3. 'बात पर बात और बलरामपुर',

4. 'इयाद में आरा'(भोजपुरी)|

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संपर्क सूत्र :-

संपर्क


631/58 ज्ञान विहार कॉलोनी, कमता, चिनहट, लखनऊ-226028 (उत्तर प्रदेश)

फोन

09236183787

ई-मेल

cpandey227@gmail.com

👁️कविताएँ👁️

1.बदलाव


कुछ जगहें या चीज़ें बदलती नहीं

जब देखो तब दिखतीं

यकसाँ 

जैसे आगरे का ताज़महल

जैसे वह शिलाखंड

केन किनारे

जैसे वो स्मारक

एक राजा का

सुरेमनपुर में 

जैसे वृंदावन की गलियाँ

जैसे काशी की मणिकर्णिका

जैसे हवामहल

जैसे जलमहल

जैसे किला आमेर का

जयपुर में 


कुछ लोग भी होते ऐसे ही

जगहों या चीज़ों की तरह 

जब मिलो उनसे दिखते नहीं बदले 

तनिक भी 

वहीं पुरानी मनहूसियत छाई रहती

काली बदली की तरह 

उनके चेहरे पर

दुनिया चाहे जितनी बदल जाये 

वे खूँटे की तरह रहते गड़े

अपने दरवाज़े के सामने की 

ख़ाली ज़मीन पर 

लाख बदलाव हो मौसम में

हेमंत हो या वसंत 

वे खोए रहते अपनी ही किसी लंतरानी में 


पत्थर भी सराबोर हो सकता 

पानी से

हो सकता रससिक्त

उगाई जा सकती उसपर 

नरम-नरम दूब


यमराज भी हो सकते कृपालु 

पर कुछ चेहरे बने रहते 

भावहीन...

जड़वत...

मूर्तिवत...

जिनका कोई लेना-देना नहीं 

आसपास की दुनिया से


ऐसी जगहों 

ऐसे लोगों से मिलकर 

नाउम्मीद होते हम


बदलती जगहें

बदलती स्थितियाँ

बदलते लोग 

बदलाव को स्वीकार करते लोग

अच्छे लगते मुझे

एक चिराग जल उठता

काँपते लौ वाला मेरे भीतर 

उम्मीद का ...!


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2.प्रेमपत्र


पहली बार किसी मामूली कर्मचारी ने कहा होगा

दिलग्गी या हँसी- मज़ाक में

किसी सरकारी दफ़्तर में

अपने बॉस या हाक़िम के विरोधपत्र को

प्रेमपत्र तो कितनी उर्वरता 

और ज़िन्दादिली से

भरा रहा होगा

उसका मन- मस्तिष्क

ग़लत विरोधों और आरोपों की 

उड़ाता हुआ धज्जियाँ

ताक़त और पद के दुरूपयोग का 

बनाता हुआ मज़ाक

यह एक शब्द 'प्रेमपत्र' 

कितना भारी पड़ा होगा !


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3. एक तो वैसे ही 


एक तो वैसे ही 

उदास करती 

फरवरी 

ऊपर से जबरन पिला रहे 

लेक्चर पर लेक्चर

कुछ बात निकल कर आती नहीं 

काम की

हमारा घाव जाने कब से 

टभक रहा  

और तुम दूर से ही मचा रहे

चिल्लपों

क़रीब आते नहीं

तुम्हें अंदाज़ा  ही नहीं 

कि कितना असह्य होता है 

टभकना

किसी घाव का 

ख़ाली सब्जबाग़ दिखा रहे 

दूसरों के दामन पर दाग़ दिखा रहे

अपने कंधे पर सफ़ेद चादर डाले हो

पर दिल -दिमाग़ में तो सड़ा पड़ा है

कचरा जो मार रहा बदबू


कम से कम अभी तो  

हम जनवरी के पाला और कोहरा से 

थे परेशान

फरवरी को तो बक़्श दो 


हे हमारे शब्दवीर !

हम सच में अब कचुवा गए हैं

बुरी तरह से पक गए हैं 

सुनते -सुनते तुम्हारी

खलबानी !


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4.किसी मुल्क में 


एक मुल्क था

उस मुल्क में मरते ही रहते थे लोगबाग

कभी बाढ़ से,कभी सुखाड़ से

कभी बीमारी-महामारी से,भूख से कभी


कभी रेल हादसे से,कभी दंगे-फ़साद से

कभी अात्महत्या से ,मॉब लिंचिंग से कभी


एक मुल्क था

उस मुल्क में बेमानी था उठाना सवाल रोज़गार का

रोटी कपड़ा मकान का,महँगाई का

अपने किसी हक़-हक़ूक का


एक मुल्क था

उस मुल्क में  एक नेता था

उस नेता की एक पार्टी थी

उस पार्टी की एक सरकार थी

उसपर या उसकी सरकार पर शक करना

देशद्रोही हो जाना था


एक मुल्क था

उस मुल्क की एक राजधानी थी

उसका नाम दिल्ली था

दिल्ली में जंतर-मंतर था

जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन था

नारे थे जोशीले प्रतिरोध की चेतना से अाप्लावित

उनके बीच था एक टीवी पत्रकार

उसका नाम था रवीश कुमार

रवीश कुमार बन चुका था आवाज़

लोकतंत्र का उस मुल्क में अकेले दम पर


यह वही मुल्क था जिसमें ईरोम शर्मीला रहती थी

जो कभी-कभी चमक उठता था 

मेधा पाटकर के अनशन से

किसानों के आंदोलन से 


एक मुल्क था जिसमें कवि भी थे,शायर भी थे

जो होते ही रहते थे गुत्थमगुत्था आपस में

फेंकते रहते थे कीचड़ एक-दूसरे पर


लिखना नहीं ,थूकना या छींकना ही जिनकी  नियति बन चुकी थी


एक मुल्क था-------!

      


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5.पूँजी की माया


पूँजी दूर करती अपनी जड़ों से ही

बनाती हमें अनुदार ......अनैतिक...... अविश्वासी


अश्लीलता प्रदान करती हमारे व्यक्तित्व को

अपनों के सम्मोहन से

वतन की माटी के जादू से भी अलग करती


ग़लत पाठ पढ़ाती

क्रूरता में तलाशती सौन्दर्य

संचय करना सिखाती


सत्ता को जोड़ती

अमंगल के विधान से

सताती किसान-मज़दूर को


वह काला-अँधियारा बादल बन बरसती

कीचड़ ही कीचड़ करती पैदा


कभी घना कोहरा बन कहर बरपाती

तो कभी प्रचंड धूप बन झुलसाती

किसी ग़रीब का तन-बदन


वह बकौल कवि धूमिल 'अकाल में दया' बन 

सामने आती

( "दया अकाल की पूँजी है !")

कभी बेवा के चेहरे पर दिखती हया बनकर झूठमूठ


ज़रूरतमंद को ललचाती

कान पकड़वाकर करवाती उठा-बैठक


वह क्या नहीं करती

भलमानुस को बना डालती अमानुस !


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6.ऐन मौके पर ही


बड़ा से बड़ा तैराक़ डूब जाता 

पोरसा भर पानी में

घर के पास की गड़ही में ही


रात -रात भर जागकर पढ़ने वाला विद्यार्थी 

हो जाता फेल वार्षिक परीक्षा में ही 


अखाड़े में अपने ऐन मौके पर ही

जाता भूल दाँव असल

अव्वल पहलवान 


मंचीय कवि हो जाता हूट

अच्छे गले के बावज़ूद

अपने ही  शहर में


आउट हो जाता जीरो पर

महान बल्लेबाज

अपने ही देश की ख़ूबसूरत पिच पर

नहीं ले पाता एक भी विकेट

महान गेंदबाज


कार हादसे में जाता मारा बेमौत

सबसे ज़्यादा कुशल ड्राइवर ही

अपने इलाक़े की 

जानी- पहचानी सड़क पर


भूल जाता बात मुख्य

महान वक्ता मंच पर ही 

अपने चिर -परिचित श्रोताओं के सामने


निपुण रसोइया ही भूल जाता 

डालना नमक दाल में !

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7. स्मृतियाँ


उम्र गुज़रने के साथ-साथ दृश्य अनगिन 

दबते जाते हमारी स्मृतियों के तहख़ाने में

कई -कई चेहरे जाने-पहचाने,बेपहचाने भी 

जगहें, चीज़ें, उन सब की शक़्लें बस दबती चली जातीं

वे  नष्ट नहीं होतीं तबतक  

मिट नहीं जाता जबतक

हमारा दिमाग़ कि पूरा वज़ूद

हर पल कुछ भरता रहता इस तहख़ाने में

ये कुदरत का करिश्मा या अनमोल तोहफ़ा 

कि सारे दृश्यों के बावज़ूद भी बची रहतीं

कुछ और दृश्यों के लिए रिक्त जगहें ......

और कमाल कि सारे दृश्य एक -दूसरे से नहीं होते क्षतिग्रस्त चाहे लाख करे कोई बमबारी इस पर

बना रहेगा यह ता -उम्र 

जबतक ज़िंदा इंसानियत मेरे भीतर !

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8.फेफना वाले गुड्डू यादव उर्फ़ पहलवान जी


अच्छी चाय के लिए 

ज़रा -सा वक़्त चाहिए ;

देश को बचाने के लिए 

नया भगत सिंह चाहिए |

तप्त अंगारे से उतारकर 

कुल्हड़ 

उबालते हुए 

चाय तंदूरी,

बोले गुड्डू यादव उर्फ़ पहलवान जी--

किसानों और भूखे-नंगे 

इंसानों के लिए 

अब इंसाफ़ चाहिए ;

अमानी-अदानी नहीं,

मिले महादानी का प्यार ;

चलाने के लिए देश

अदद एक सरकार चाहिए |

कवि जी तो कहते हैं

शब्दों पर ज़ोर देकर, 

गुड्डू यादव उर्फ़ पहलवान जी को

कंधे पर अवश्य ही 

चार-चार स्टार चाहिए !

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9.विज्ञापन 


दैनिक अख़बारों के मुख पृष्ठ ढके 

एक कार्पोरेट की पुण्य तिथि के

महँगे...चमकीले विज्ञापनों से 

गोया तेईस जनवरी को पैदा हुआ था 

महान देशभक्त के रूप में 

ये ही

 

किसी प्रमुख अख़बार के

किसी पृष्ठ पर 

दो शब्द भी नहीं छपे

'नेता जी' के लिए 


एक सच्चे देश नायक की

जन्म तिथि के दिन 

ये विज्ञापन कर रहा 

कोशिश 

उनकी स्मृतियों को पोंछने की


खेल जारी...पूँजी,बाज़ार एवं 

कार्पोरेट की दुनिया का 


विज्ञापन ढँक रहे चेहरे 

असली देश नायकों के

जनता बेख़बर

कम लोग बचे हुए 

अपनी स्मृतियों के साथ 


कोई जैसे ही करता 

बात असहमति की

करार दे दिया जाता 

देशद्रोही 

 

ये ऐसा दौर जब 

असली और नक़ली की जंग में 

लाली और हरियाली दिखती

नक़ली चेहरों पर  ही !


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10.अगर मनुष्य हम


अगर ठंड ज़्यादा हो तो सिकुड़ने और 

जमने लगते हैं विचार 


अगर ताप ज़्यादा हो तो पिघलने और 

गलने लगते हैं विचार  


सिकुड़ना या जमना 

पिघलना या गलना

विचारों का  

सही नहीं होता 

हर हाल में 


अगर हम मनुष्य 

तो रहना ही होगा सजग हमें 

मौसम की 

उलटबाँसियों के ख़िलाफ़ !


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11.कल हो कि आज

कि आनेवाला कल 

कि गुज़र गया पल 

अभी -अभी का  

कोई भी समय 

होता नहीं निरपेक्ष 


ऐसा भी नहीं कि 

कि एक समय पूरा हो 

सपाट...   परती या नीलाम 

किसी 'एक' के नाम 


वह 'एक'

किसी एक समय का

चाहे जितना बली हो कि 

हो महाबली 


किसी एक समय के

कई -कई पाठ

बनते रहते अनवरत


किसी एक ही समय में 

कोई देख लेता

'उम्मीद' की वापसी 

तो किसी को दिख जाती 

खल मायावी की  वापसी !


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12.मनुवा बेपरवाह 


जाड़े में जाड़ा कम

गर्मी में गर्मी कम

बारिश में बारिश कम


नदी -पोखर में पानी कम

घास में हरापन कम

गन्ने में मिठास कम

दूध में मलाई कम


ताप कम सूरज में

धवलता कम चाँदनी में


इन्सानियत कम इन्सान में

बड़प्पन कम बड़ों में

मर्दानगी कम मर्दों में

स्त्रीत्व कम स्त्रियों में

बालपन कम बालकों में


आचार में विचार कम

आतिथ्य में सत्कार कम


कविता में संवेदना कम

शब्द में अर्थ कम

रोशनाई में चमक कम

सियासत में सफ़ेदी कम


जीवन में साँस कम

साँस में कम दम

फिर भी मनुवा बेपरवाह! 

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13.बहरहाल 


एक अरसे बाद दिखा

झुंड भेड़ों का 

सड़कों पर

अपने गड़रियों के साथ 

वे चल रही थीं 

बाँस की पतली छड़ी के इशारों पर

डरी-सहमी-सकुचाई-सी


उनकी न तो कोई क़तार बन पा रही थी 

न उनको कोई अलग राह ही सूझ रही थी

 

वे गिर -भहरा रही थीं एक-दूसरे पर


वे मंज़िल का पता नहीं जानती थीं

सिर्फ़ चलना जानती थीं


अब तो बहुत ही कम बचे थे

उनके लिए घास के मैदान......

पलिहर खेत......

जहाँ उनको हिराया जाता रहा है


अपने-अपने पलिहर खेतों में 

उनको हिरवाने के लिए आतुर-उत्सुक 

खेतिहर किसान ही कितने बचे थे

जो बचे थे उनकी आँखों से 

जैसे नीर नहीं

टपकता रहता मानो रक़्त


बहरहाल, भेड़ें तो भेड़ें थीं

तमाम उम्र अपनी-अपनी पीठों पर 

ऊन की बेहतरीन फ़सल उगाने के बाद भी 

थीं वे किसी बुरे वक़्त के हवाले

वे भेड़चाल के क़िस्सों ...और मुहावरों के नाम पर 

पहले से  बहुत बदनाम थीं !


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14.पहले और अब


पहले पैसेन्जर रेलगाड़ियाँ भी चलती थीं

पहले सरकारी ग़लत नीतियों के विरोध में 

रैलियाँ और जनसभाएँ भी होती थीं

लोग रेलगाड़ियों और बसों में भर-भर कर जाते थे 

दिल्ली पटना लखनऊ जयपुर कोलकाता भोपाल और चेन्नई तक

बड़े-बड़े मैदान गुलज़ार हो उठते थे

जन के पदचापों से खिल उठती थी

वहाँ की धरती

नारों के शोर से आसमान कुछ और चौड़ा दिखने लगता था

डर नाम की चिड़िया विलुप्त हो जाती थी 

बड़े से बड़ा शासक भी निकल आता था

महल से बाहर 

फरियाद सुनी जाती थी 

वादे किए जाते थे

कि ज़रूर हल कराये जायेंगे

मसले आगामी दिनों में 

चाहे वे जितने विकट हों 

अब तो फरियाद और फरियादी बचे हुए हैं 

उनको सुनने वाला सुनकर भी महटियाए हुए है

पता नहीं किससे गलबहिया मिलाए हुए है

ताऊ कहते हैं कि वे सब  सठियाए हुए हैं !


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15.आज़ादी 


सबसे ज़्यादा ख़राब और ख़तरनाक माना गया

मेरा वो ख़्याल जिसमें शामिल 

मेरी आज़ादी


साहब की आँखों की 

किरकिरी था इसी के नाते


यार भी कहाँ निभाते थे

यारी 

यारी में ईमान था अब

गुज़रे ज़माने की बात 

सब करना चाहते थे

अपहरण

किसी न किसी तरीके से 

इसी  आज़ादी का

परिजन -दुर्जन सबके निशाने पर थी

यही एक चीज़

मेरी आज़ादी


गिरोह या कि संघ

दल या कि मंच

सब लगे थे छीनने में

इसी एक आज़ादी को

जिससे बनती या आकार पाती थी

मेरी शख़्सियत


इसकी चाहत ने नहीं छोड़ा मुझे

कहीं का


हर किसी को पसंद आती थी 

मेरी चुप्पी 

मेरी  वैचारिक विकलांगता


हर किसी को चाहिए था 

मेरा समर्थन


मैं एक ऐसे ही दौर में था 

विवश और अभिशप्त

जीने के लिए !

      🔘

16.बारहमासा दलदल


मेरी कॉलोनी के एक ख़ाली प्लॉट में डेयरी है नंदू की

डेयरी में कोई दो दर्ज़न भैंसे 

गायें हैं नौ-दस

इन भैंसों और गायों में से 

कुछ के पड़वे और बछड़े जीवित हैं


डेयरी में कीचड़ ही कीचड़ 

दलदल बना रहता बारहमासा

गायें और भैंसे अकुलाती रहतीं 

चारा -पानी को 

बँधीं खूँटों से बेबस 

जब निकालना होता दूध 

तभी नंदू सामने लाता इनके नादों में

भूसा -दाना -पानी

मानो नेता हो वह  

किसी प्रजातंत्र में

वोट लेने के समय जो प्रजा के सामने 

जोड़ता अपने दोनों हाथ

कि पेन्हाने के समय इनके सामने 

फेंकता कुछ चारा-पानी


गायों और इन भैंसों और इन पड़वों 

और इन बछड़ों की देखता 

रोज़ सुबह-शाम की लाचारी

नंदू महाराज की हत्यारी

फिर भी बना रहता मूकदर्शक

निज स्वार्थ में मैं भी


नंदू की भी होगी कोई न कोई लाचारी

निज घर -बार चलाना 

उसको भी तो

बच्चों को करना 

पाल-पोसकर बड़ा 

लिखा -पढ़ाकर करवानी 

उनसे सरकारी नौकरी

उसने भी तो  सजा रखा सपना कि

अपनी भावी पीढ़ियों को निकालेगा

इस बारहमासा दलदल कि 

बदबूदार कीचड़ से बाहर ! 


🔘


17.( क )दुःख 


मैंने अपना दुःख कहा

तुमसे

तुम मुझसे ज़्यादा

दुःखी हुई

आगे से बंद कर दिया 

बताना मैंने

तुमसे

अपना कोई दुःख! 

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(ख) सुख


तुम धँसी थी

दलदल में

दुःख के गहरे

तुम्हारा चेहरा भर दिखता था

मैंने अपने सुख की पोटली को

रहने दिया

बँधा का बँधा ही

मैं लौटा था 

एक लंबे सफ़र से! 

🔘


( ग) क़िस्से


मेरे पास क़िस्से ही क़िस्से थे

सुख के

हँसी और ठहाकों से 

गुलज़ार 

एक दुनिया थी

अतीत की

तुम्हारे पास यातनाएँ थीं

दुःख ही दुःख थे

जो क़िस्से नहीं बने थे !


🔘

( घ)ईश्वर और मफलर


तुम ईश्वर को तलाश रही थी 

मैं तुमको

तुम पूरा बदल चुकी थी 

तलाशते हुए

एक अदद ईश्वर को

इस सर्द दिसंबर की

दोपहर में 

ईश्वर से भी बड़ा दिखता था

मुझे मेरा मफलर

मेरा फुल स्वेटर 

काला कंबल 

और सामने भाप छोड़ता कप 

चाय से भरा! 

🔘

18.वैसे सच पूछिए तो ......!


मेरा हिन्दुस्तान पहचान में नहीं आ रहा

उसकी शक्ल को कुछ शासकों ने

तो कुछ कोरोना ने 

बिगाड़ कर रख दिया 


अब रेलगाड़ियाँ पहले की तरह 

नहीं चल रहीं

क्या पता,कब चलेंगी

कैसे चलेंगी


बसों में भीड़ है भारी

उनमें सवार लोग

एक-दूसरे को धकियाते-रगड़ते हुए

कर रहे महँगा सफ़र


पीएम जी के दूर्दरशन पर 

बार-बार के आग्रहों के बाद भी

ग़ायब सोशल डिस्टेंसिंग

मास्क पहने दिखते 

एकाध चेहरे ही

एकाध ही दिखते 

लिए हाथ में 

सेनेटाइजर की बोतल

किसी पिस्टल या रिवॉल्वर की तरह


भूख की आग कबतक सही जा सकती 

सब निकल पड़े दुबारा

रोज़ी-रोज़गार की तलाश में

सड़कों पर

कोई मोची हो या रिक्शावाला

ठेलेवाला हो या खोंमचेवाला

फेरीवाला हो या दूधवाला

फूल-माला वाला हो या पंक्चर बनाने वाला

चायवाला हो या फलवाला

मंदिर का पुजारी हो या मस्ज़िद का मौलाना....


इंतज़ार की भी एक हद होती ......


लोग अब कोरोना से कम 

भूख से ज़्यादा बेहाल

फिर लोग भाग रहे 

बड़े शहरों की तरफ़

ये कहते हुए कि गाँव में 

रखा ही क्या


एक ओर तमाम सरकारी हिदायतें

गोया कितना ख़्याल रखती हो वह 

अपनी प्यारी-सी पब्लिक का

दूसरी ओर चुनाव पर चुनाव

जन सभाएँ

सभाओं में धक्का-मुक्की करती भीड़

पता नहीं,नेताओं से क्या पाना 

शेष रह गया अब भी

आज़ादी के इतने बरसों बाद भी


इन सभाओं में क्या सुनने जाती भीड़

क्या सुनती भीड़

उसे तो बुरी तरह से 

जकड़ दिया गया 

जाति-बिरादरी 

धर्म-मज़हब के सींकचों में


नेताओं की ज़ुबान से सच 

वैसे ही नदारद 

जैसे ग़रीब के बुझे चूल्हे से

तसला भात का


मेरा हिन्दुस्तान नहीं आ रहा

पहचान में

साल भर में बढ़ी महँगाई 

कई गुना


सत्ता बन बैठी 

हरज़ाई बालम


शिक्षा ऑनलाइन

नेट बाधित


सबकुछ डिजिटल

अटल कुछ भी नहीं 

नर्वस हर पल


बलात्कार......उत्पीड़न

हत्या की 

ख़बर-दर-ख़बर

हाँफता लोकतंत्र


शहर से भगा दिए 

गँवई मज़दूर

कोरोना-कोरोना का 

मचाकर 

कर्कश शोर

वे शापित जीने को

मज़बूर


चीख-चीख....

भूख-भूख......

महँगाई-महँगाई.....

बेरोज़गारी-बेरोज़गारी.......

गुम चोट की मार


ऐसे में क्या बिसात 

कोरोना महामारी की


वैसे सच पूछिए तो 

कोरोना है


नहीं भी है  !


🔘

19. बहुत पीछे 


अब नहीं बाँधता बाईं कलाई पर घड़ी


साइकिल खड़ी पड़ी दीवार के सहारे स्टोर रूम में


तसले का भात माड़ पसाया


बटलोही में बनी दाल अरहर की 


लोहे की कड़ाही में बनी सब्जी सतपुतिया की


तवे की रोटी मिट्टी के चुल्हे पर की नहीं खाया बरसों से


मिठाइयों में कुटकी- पटौरा और ... जलेबी गुड़ही

नहीं मिली एक लंबे अरसे से परदेस में


पता नहीं किस जुनून में जीता रहा

देखा नहीं मुड़कर...और पार कर गया साठ

देशी स्वाद को छोड़ते हुए बहुत पीछे !

🔘


20. याद को करना याद  


कई पुराने दोस्तों से मिलने का निकाल नहीं पाया वक़्त


भागमभाग में रहा हरदम


दोस्त भी थे मेरी तरह ही

जी रहे थे वे भागते हुए


वक़्त नहीं था किसी के पास


कितनी सुखद थीं यादें

जिन्हें यादकर हुआ जा सकता था सुखी ...

पर उन सुखद यादों को करना याद भी 

कितना मुश्किल  !

🔘


21. उजबक 


वो तो कहिए कि मेरे बूढ़े पिता एक दिन मोबाइल पर 

बात करते -करते मुझसे नहीं,मेरी पत्नी से जब रो पड़े फफक-फफक कर इस कोरोना काल में तो जाना कि 

उनको दरकार है सेवा की...और वे बूढ़े हो चले हैं

कोरोना की आड़ में सरकारें ही नहीं

संवेदनशील इंसान भी होते जा रहे थे

हद से ज़्यादा पर्सनल और निर्मम


देखते ही देखते गाँव बेगाना लगने लगा था


मैं कितना बड़ा उजबक कि बसाये हुए था दिल में

बचपन के गाँव को

अब भी !

🔘


22. बदल जाना


जब लिखना शुरू किया था कविता तो अक्सर 

आरा-पटना जाता

मिलता साथियों और अग्रज कवियों से


एक दिन लखनऊ में मुलाक़ात हो गई अचानक

एक पुराने अग्रज कवि से किसी सरकारी संस्थान में 

जो कविता लिखना कब का छोड़ चुके थे

और देते चल रहे थे व्याख्यान


सबकुछ कितना बदल जाता है

वक़्त के बदलने के साथ


बाहर भी.........

भीतर भी.........!


©चंद्रेश्वर



     {विषय :- नक्सलबाड़ी और कविता : प्रो. चंद्रेश्वर}

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 #चंद्रेश्वर #कविचंद्रेश्वर



3 comments:

  1. स्तरीय और समसामयिक मुद्दों, व्यवहारों की पोल खोलती कविता ।

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  2. समय के पटल पर अंकित मानवीय संवेदना से परिपूर्ण और पारिवारिक रिश्तों को झकझोरती रचनाएं चन्द्रेश्वर जी की ताकत हैं।

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  3. सभी बाईस-पच्चीस कवितायें अपने समय और समाज की विरोधाभासी विडम्बनाओं का ज़ायजा लेती कवितायें हैं |कवि का वैचारिक चिन्तन इन कविताओं में स्पष्ट दिखाई देता है | कवि चन्द्रेश्वर जी को बधाई |

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