गोलेन्द्र पटेल की कविताएँ :-
1.
👁️आँख👁️
••••••••••••••
1.
सिर्फ और सिर्फ देखने के लिए नहीं होती है आँख
फिर भी देखो तो ऐसे जैसे देखता है कोई रचनाकार
2.
दृष्टि होती है तो उसकी अपनी दुनिया भी होती है
जब भी दिखते हैं तारे दिन में, वह गुनगुनाती है आशा-गीत
3.
दोपहरी में रेगिस्तानी राहों पर दौड़ती हैं प्यासी नजरें
पुरवाई पछुआ से पूछती है, ऐसा क्यों?
4.
धूल-धक्कड़ के बवंडर में बचानी है आँख
वक्त पर धूपिया चश्मा लेना अच्छा होगा
यही कहेगी हर अनुभव भरी, पकी उम्र
5.
आम आँखों की तरह नहीं होती है दिल्ली की आँख
वह बिल्ली की तरह होती है हर आँख का रास्ता काटती
6.
अलग-अलग आँखों के लिए अलग-अलग
परिभाषाएँ हैं देखने की क्रिया की
कभी आँखें नीचे होती हैं, कभी ऊपर
कभी सफेद होती हैं तो कभी लाल !
2.
पुदीना की पहचान
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दुख की दुपहरिया में
मुर्झाया मोथा देख रहा है
मेंड़ की ओर
मकोय पककर गिर रही है
नीचे
(जैसे थककर गिर रहे हैं लोग
तपती सड़क पर...)
और
हाँ,यही सच है कि पानी बिन
ककड़ियों की कलियाँ सूख रही हैं
कोहड़ों का फूल झर रहा है
गाजर गा रही है गम के गीत
भिंड़ी भूल रही है
भंटा के भय से
मिर्च से सीखा हुआ मंत्र
मूली सुन रही है मिट्टी का गान
बाड़े में बोड़े की बात न पूछो
तेज़ हवा से टूटा डम्फल
ताड़ ने छेड़ा खड़खड़ाहट-का तान
ध्यान से देख रही है दूब
झमड़े पर झूल रही हैं अनेक सब्जियाँ
(जैसे - कुनरू , करैला, नेनुआ, केदुआ, सतपुतिया, सेम , लौकी...)
पास में पालक-पथरी-चरी-चौराई चुप हैं
कोमल पत्तियों पर प्यासे बैठे पतंगें कह रहे हैं
इस कोरोना काल में
पुदीने की पहचान करना कितना कठिन हो गया है
आह! आज धनिया खोटते-खोटते
खोट लिया मैंने खुद का दुख!
(©गोलेन्द्र पटेल
25-04-2021)
3.
घिरनी
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फोन पर शहर की काकी ने कहा है
कल से कल में पानी नहीं आ रहा है उनके यहाँ
अम्माँ! आँखों का पानी सूख गया है
भरकुंडी में है कीचड़
खाली बाल्टी रो रही है
जगत पर असहाय पड़ी डोरी क्या करे?
आह! जनता की तरह मौन है घिरनी
और तुम हँस रही हो।
4.
गुढ़ी
•••••
लौनी गेहूँ का हो या धान का
बोझा बाँधने के लिए - गुढ़ी
बूढ़ी ही पुरवाती है
बहू बाँकी से ऐंठती है पुवाल
और पीड़ा उसकी कलाई !
(पुवाल = पुआल)
5.
थ्रेसर
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थ्रेसर में कटा मजदूर का दायाँ हाथ
देखकर
ट्रैक्टर का मालिक मौन है
और अन्यात्मा दुखी
उसके साथियों की संवेदना समझा रही है
किसान को
कि रक्त तो भूसा सोख गया है
किंतु गेहूँ में हड्डियों के बुरादे और माँस के लोथड़े
साफ दिखाई दे रहे हैं
कराहता हुआ मन कुछ कहे
तो बुरा मत मानना
बातों के बोझ से दबा दिमाग
बोलता है / और बोल रहा है
न तर्क , न तत्थ
सिर्फ भावना है
दो के संवादों के बीच का सेतु
सत्य के सागर में
नौकाविहार करना कठिन है
किंतु हम कर रहे हैं
थ्रेसर पर पुनः चढ़ कर -
बुजुर्ग कहते हैं
कि दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा होता है
तो फिर कुछ लोग रोटी से खेलते क्यों हैं
क्या उनके नाम भी रोटी पर लिखे होते हैं
जो हलक में उतरने से पहले ही छिन लेते हैं
खेलने के लिए
बताओ न दिल्ली के दादा
गेहूँ की कटाई कब दोगे?
6.
ईर्ष्या की खेती
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मिट्टी के मिठास को सोख
जिद के ज़मीन पर
उगी है
इच्छाओं के ईख
खेत में
चुपचाप चेफा छिल रही है
चरित्र
और चुह रही है
ईर्ष्या
छिलके पर
मक्खियाँ भिनभिना रही हैं
और द्वेष देख रहा है
मचान से दूर
बहुत दूर
चरती हुई निंदा की नीलगाय !
7.
ऊख
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(१)
प्रजा को
प्रजातंत्र की मशीन में पेरने से
रस नहीं रक्त निकलता है साहब
रस तो
हड्डियों को तोड़ने
नसों को निचोड़ने से
प्राप्त होता है
(२)
बार बार कई बार
बंजर को जोतने-कोड़ने से
ज़मीन हो जाती है उर्वर
मिट्टी में धँसी जड़ें
श्रम की गंध सोखती हैं
खेत में
उम्मीदें उपजाती हैं ऊख
(३)
कोल्हू के बैल होते हैं जब कर्षित किसान
तब खाँड़ खाती है दुनिया
और आपके दोनों हाथों में होता है गुड़!
8.
किसान है क्रोध
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निंदा की नज़र
तेज है
इच्छा के विरुद्ध भिनभिना रही हैं
बाज़ार की मक्खियाँ
अभिमान की आवाज़ है
एक दिन स्पर्द्धा के साथ
चरित्र चखती है
इमली और इमरती का स्वाद
द्वेष के दुकान पर
और घृणा के घड़े से पीती है पानी
गर्व के गिलास में
ईर्ष्या अपने
इब्न के लिए लेकर खड़ी है
राजनीति का रस
प्रतिद्वन्द्विता के पथ पर
कुढ़न की खेती का
किसान है क्रोध !
9.
उम्मीद की उपज
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उठो वत्स!
भोर से ही
जिंदगी का बोझ ढोना
किसान होने की पहली शर्त है
धान उगा
प्राण उगा
मुस्कान उगी
पहचान उगी
और उग रही
उम्मीद की किरण
सुबह सुबह
हमारे छोटे हो रहे
खेत से….!
10.
ठेले पर ठोकरें
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तीसी चना सरसों रहर आदि काटते वक्त
उनके डंठल के ठूँठ चुभ जाते हैं पाँव में
फसलें जब जाती हैं मंडी
तब अनगिनत असहनीय ठोकरें लगती हैं
एक किसान को - उसकी उम्मीदों के छाँव में
उसकी आँखों के सामने ठेले पर ठोकरें बिकने लगती हैं -
घाव के भाव
और उसके आँसुओं के मूल्य तय करती है
उस बाजार की बोली
खेत की खूँटियाँ कह रही हैं
उसके घाव की जननी वे नहीं हैं
वे सड़कें हैं जिससे वह गया है उस मंडी !
11.
"जोंक"
-----------
रोपनी जब करते हैं कर्षित किसान ;
तब रक्त चूसते हैं जोंक!
चूहे फसल नहीं चरते
फसल चरते हैं
साँड और नीलगाय.....
चूहे तो बस संग्रह करते हैं
गहरे गोदामीय बिल में!
टिड्डे पत्तियों के साथ
पुरुषार्थ को चाट जाते हैं
आपस में युद्ध कर
काले कौए मक्का बाजरा बांट खाते हैं!
प्यासी धूप
पसीना पीती है खेत में
जोंक की भाँति!
अंत में अक्सर ही
कर्ज के कच्चे खट्टे कायफल दिख जाते हैं
सिवान के हरे पेड़ पर लटके हुए!
इसे ही कभी कभी ढोता है एक किसान
सड़क से संसद तक की अपनी उड़ान में!
12.
कविता की जमीन
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कविता के लिए
अज्ञेय आकाश से शब्द उठाते हैं
केदारनाथ धूल से
श्रीप्रकाश शुक्ल रेत से
पहला - निर्वात है
कह नहीं सकता
ताकना तुम
तर्क के तह में सत्य दिखेगा
दूसरी - गुलाब है
गंध आ रही है
नाक में
तीसरी - नदी है
जिसमें एक नाव है
जो औंधे मुंह लेटी पड़ी है !
13.
मेरे मुल्क की मीडिया
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बिच्छू के बिल में
नेवला और सर्प की सलाह पर
चूहों के केस की सुनवाई कर रहे हैं-
गोहटा!
गिरगिट और गोजर सभा के सम्मानित सदस्य हैं
काने कुत्ते अंगरक्षक हैं
बहरी बिल्लियाँ बिल के बाहर बंदूक लेकर खड़ी हैं
टिड्डे पिला रहे हैं चाय-पानी
गुप्तचर कौएं कुछ कह रहे हैं
साँड़ समर्थन में सिर हिला रहे हैं
नीलगाय नृत्य कर रही हैं
छिपकलियाँ सुन रही हैं संवाद-
सेनापति सर्प की
मंत्री नेवला की
राजा गोहटा की....
अंत में केंचुआ किसान को देता है श्रधांजलि
खेत में
और मुर्गा मौन हो जाता है
जिसे प्रजातंत्र कहता है मेरा प्यारा पुत्र
मेरे मुल्क की मीडिया!
14.
मुसहरिन माँ
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धूप में सूप से
धूल फटकारती मुसहरिन माँ को देखते
महसूस किया है भूख की भयानक पीड़ा
और सूँघा मूसकइल मिट्टी में गेहूँ की गंध
जिसमें जिंदगी का स्वाद है
चूहा बड़ी मशक्कत से चुराया है
(जिसे चुराने के चक्कर में अनेक चूहों को खाना पड़ा जहर)
अपने और अपनों के लिए
आह! न उसका गेह रहा न गेहूँ
अब उसके भूख का क्या होगा?
उस माँ का आँसू पूछ रहा है स्वात्मा से
यह मैंने क्या किया?
मैं कितना निष्ठुर हूँ
दूसरे के भूखे बच्चों का अन्न खा रही हूँ
और खिला रही हूँ अपने चारों बच्चियों को
सर पर सूर्य खड़ा है
सामने कंकाल पड़ा है
उन चूहों का
जो विष युक्त स्वाद चखे हैं
बिल के बाहर
अपने बच्चों से पहले
आज मेरी बारी है साहब!
15.
देह विमर्श
--------------
जब
स्त्री ढोती है
गर्भ में सृष्टि
तब
परिवार का पुरुषत्व
उसे श्रद्धा के पलकों पर
धर
धरती का सारा सुख देना चाहता है
घर ;
एक कविता
जो बंजर जमीन और सूखी नदी का है
समय की समीक्षा-- 'शरीर-विमर्श'
सतीत्व के संकेत
सत्य को भूल
उसे बाँझ की संज्ञा दी।("कवि के भीतर स्त्री" से)
16.
गड़ेरिया
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१)
एक गड़ेरिये के
इशारे पर
खेत की फ़सलें
चर रही हैं
भेड़ें
भेड़ों के साथ
मेंड़ पर
वह भयभीत है
पर उसकी आँखें खुली ताक रही हैं
दूर
बहुत दूर
दिल्ली की ओर
२)
घर पर बैठे
खेतिहर के मन में
एक ही प्रश्न है
इस बार क्या होगा?
हर वर्ष
मेरी मचान उड़ जाती है
आँधियों में
बिजूकों का पता नहीं चलता
और
मेरे हिस्से का हर्ष
नहीं रहता
मेरे हृदय में
क्या
इसलिए कि मैं हलधर हूँ
३)
भेड़ हाँकना आसान नहीं है
हलधर
हीरे हिर्य होरना
बाँ..बाँ..बायें...दायें
चिल्लाते क्यों हो
तुम्हारे नाधे
बैलें
समझदार हैं
४)
मेरी भेड़ें भूल जाती हैं
अपनी राह
मैं हाँक रहा हूँ
सही दिशा में
मुझे चलने दो
गुरु
मैं गड़ेरिया हूँ
भारत का !
17.
चिहुँकती चिट्ठी
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बर्फ़ का कोहरिया साड़ी
ठंड का देह ढंक
लहरा रही है लहरों-सी
स्मृतियों के डार पर
हिमालय की हवा
नदी में चलती नाव का घाव
सहलाती हुई
होंठ चूमती है चुपचाप
क्षितिज
वासना के वैश्विक वृक्ष पर
वसंत का वस्त्र
हटाता हुआ देखता है
बात बात में
चेतन से निकलती है
चेतना की भाप
पत्तियाँ गिरती हैं नीचे
रूह काँपने लगती है
खड़खड़ाहट खत रचती है
सूर्योदयी सरसराहट के नाम
समुद्री तट पर
एक सफेद चिड़िया उड़ान भरी है
संसद की ओर
गिद्ध-चील ऊपर ही
छिनना चाहते हैं
खून का खत
मंत्री बाज का कहना है
गरुड़ का आदेश आकाश में
विष्णु का आदेश है
आकाशीय प्रजा सह रही है
शिकारी पक्षियों का अत्याचार
चिड़िया का गला काट दिया राजा
रक्त के छींटे गिर रहे हैं
रेगिस्तानी धरा पर
अन्य खुश हैं
विष्णु के आदेश सुन कर
मौसम कोई भी हो
कमजोर....
सदैव कराहते हैं
कर्ज के चोट से
इससे मुक्ति का एक ही उपाय है
अपने एक वोट से
बदल दो लोकतंत्र का राजा
शिक्षित शिक्षा से
शर्मनाक व्यवस्था
पर वास्तव में
आकाशीय सत्ता तानाशाही सत्ता है
इसमें वोट और नोट का संबंध धरती-सा नहीं है
चिट्ठी चिहुँक रही है
चहचहाहट के स्वर में सुबह सुबह
मैं क्या करूँ?
18.
श्रम का स्वाद
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गाँव से शहर के गोदाम में गेहूँ?
गरीबों के पक्ष में बोलने वाला गेहूँ
एक दिन गोदाम से कहा
ऐसा क्यों होता है
कि अक्सर अकेले में अनाज
सम्पन्न से पूछता है
जो तुम खा रहे हो
क्या तुम्हें पता है
कि वह किस जमीन का उपज है
उसमें किसके श्रम की स्वाद है
इतनी ख़ुशबू कहाँ से आई?
तुम हो कि
ठूँसे जा रहे हो रोटी
निःशब्द!
19.
लकड़हारिन
(बचपन से बुढ़ापे तक बाँस)
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तवा तटस्थ है चूल्हा उदास
पटरियों पर बिखर गया है भात
कूड़ादान में रोती है रोटी
भूख नोचती है आँत
पेट ताक रहा है गैर का पैर
खैर जनतंत्र के जंगल में
एक लड़की बिन रही है लकड़ी
जहाँ अक्सर भूखे होते हैं
हिंसक और खूँखार जानवर
यहाँ तक कि राष्ट्रीय पशु बाघ भी
हवा तेज चलती है
पत्तियाँ गिरती हैं नीचे
जिसमें छुपे होते हैं साँप बिच्छू गोजर
जरा सी खड़खड़ाहट से काँप जाती है रूह
हाथ से जब जब उठाती है वह लड़की लकड़ी
मैं डर जाता हूँ...!
20.
गोड़िन
•••••••
कुओं की भरकुंडी प्यास रही हैं
चोर खोल ले जा रहे हैं चपाकल
नलकूपों को नगद चाहिए पैसे ;
गोड़िन का गोड़ भारी है
गला सूख रहा है!
निःशुल्क है नदी का पानी
भरसाँय झोंक रही है भूख
आग पी रही हैं आँखें
कउरनी कउर रही है कविता ;
जो दाने ममत्व पाना चाहते हैं
उछल उछल कर जा रहे हैं आँचल में
और जो उचक उचक कर देख रहे हैं माथे पर पसीना
वे गिर रहे हैं कर्ज़ की कड़ाही में
मेरा मक्का मटर भून गया
चना चावल बाकी है!
कोयरी टोला में कोई टेघर गया है
अर्थी का पाथेय -
लाई भून रही हैं
जिसे छिड़कने हैं अंतिम सफ़र में
भूख के विरुद्ध!
सभी दाना भुनाने वाले जा रहे हैं कोयरीटोला
आदमी जवान है
डेढ़ बरस और तीन बरस की बच्चियाँ देह से लिपट कर रो रही हैं
चीख रही हैं चिल्ला रही हैं कह रही हैं उठा पापा जागा पापा.....
उसकी औरत को एक वर्ष पहले ही डँस लिया था साँप
हे देवी-देवताओं!
देहात की देहांत दृश्य देख दिल दहल गया
आह विधवा व्यथा!
गोड़ भी छोड़ गया है गर्भ में प्यार की निशानी
गोड़िन के नयन से निकली है गंगा
प्यासी पथराई उम्मीदों के विरुद्ध!
21.
मूर्तिकारिन
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राजमंदिरों के महात्माओं
मौन मूर्तिकार की स्त्री हूँ
समय की छेनी-हथौड़ी से
स्वयं को गढ़ रही हूँ
चुप्पी तोड़ रही है चिंगारी!
सूरज को लगा है गरहन
लालटेनों के तेल खत्म हो गए हैं
चारो ओर अंधेरा है
कहर रहे हैं हर शहर
समुद्र की तूफानी हवा आ गई है गाँव
दीये बुझ रहे हैं तेजी से
मणि निगल रहे हैं साँप
और आम चीख चली -
दिल्ली!
22.
रणभेरी
•••••••••••
गूँज उठी रणभेरी
काशी कब से खड़ी पुकार रही
पत्रकार निज कर में कलम पकड़ो
गंगा की आवाज़ हुई
स्वच्छ रहो और रहने दो
आओ तुम भी स्वच्छता अभियान से जुड़ो न करो देरी
गूँज उठी रणभेरी
घाटवॉक के फक्कड़ प्रेमी
तानाबाना की गाना
कबीर तुलसी रैदास के दोहें
सुनने आना जी आना
घाट पर आना --- माँ गंगा दे रही है टेरी
गूँज उठी रणभेरी
बच्चे बूढ़े जवान
सस्वर गुनगुना रहे हैं गान
उर में उठ रही उमंगें
नदी में छिड़ गई तरंगी-तान
नौका विहार कर रही है आत्मा मेरी
गूँज उठी रणभेरी
सड़कों पर है चहलपहल
रेतों पर है आशा की आकृति
आकाश में उठ रहा है धुआँ
हाथों में हैं प्रसाद प्रेमचंद केदारनाथ की कृति
आज अख़बारों में लग गयी हैं ख़बरों की ढेरी
गूँज उठी रणभेरी
पढ़ो प्रेम से ढ़ाई आखर
सुनो धैर्य से चिड़ियों का चहचहाहट
देखो नदी में डूबा सूरज
रात्रि के आगमन की आहट
पहचान रही है नाविक तेरी पतवार हिलोरें हेरी
गूँज उठी रणभेरी
धीरे धीरे
जिंदगी की नाव पहुँच रही है किनारे
देख रहे हैं चाँद-तारे
तीरे-तीरे
मणिकर्णिका से आया मन देता मंगल-फेरी
गूँज उठी रणभेरी !
23.
किसान की गुलेल
•••••••••••••••••••
गुलेल है
गाँव की गांडीव
चीख है
शब्दभेदी गोली
लक्ष्य है
दूर दिल्ली के वृक्ष पर!
बाण पकड़ लेता है बाज़
पर विषबोली नहीं
गुरु!
गरुड़ भी मरेंगे
देख लेना
एक दिन
राजनीति के रक्त से बुझेगी
ग्रामीण गांडीव की
प्यास!
24.
क्यों मर रही हैं संवेदनाएँ?
••••••••••••••••••••••••••
गाय मरी
चमार को बुलाओ
आदमी मरा
इसे बुलाओ
उसे बुलाओ
नाउ को बुलाओ
लोहार को बुलाओ
डोम को बुलाओ
और हाँ पण्डित को बुलाओ
संवेदना मरी
उस साहित्यकार को बुलाओ...
या उसे
जिससे मर रही हैं
मातृभाषाएँ!
25.
मैं माली नहीं , मजदूर हूँ !
••••••••••••••••••••••••••
सामने सूरजमुखी
देख रहा है
सूरज को
गुड़हल पर बैठी गौरया
सूँघ रही है
गेंदे का गंध
चमेली पर चुपचाप
चढ़ रही हैं
चींटियाँ
और
आम से
चिखुरी उड़ाना चाहती है
चेतना की चिड़िया
दिल्ली की ओर
चहचहाहट गूँज रही है
हवा में
मैं देख रहा हूँ
आजकल
साहित्य के सरोवर में
खिला है
क्रोध का कमल
और
कविता के क्यारी में
गुस्से का गुलाब
दोनों में से
उनके
स्वागत के लिए
किसे चुनूँ
मैं माली नहीं
मजदूर हूँ...!
26.
भट्टे पर भूखी भूषा //
(भट्टे पर भूखे पेट काम करने वाली :
भूषा के बहाने पियक्कड़ पुरुषों से परेशान परिवार की यथार्थ छवि)
आँसुओं में गूँथी हुई अपनी आशाओं के आटें
तकलीफ के तवे पर
रो रो कर
रोटी के सदृश
पो पो कर
नशेबाज पति के पत्तल पर रखती है
भट्टे पर ईंट पाथने वाली
भूषा
नाम की एक असहाय औरत ;
माथे पर श्रम की सूक्ति है
चेहरे पर थकान
आँखों में भय है
और
उदर में दौड़ रहा है ऊँट
बाहर बच्चें चख रहे हैं
मिट्टी का स्वाद
भीतर सारी रोटियाँ
उनके पिता के पेट में पच रही हैं
लौटते वक्त
उसके थरिया में देखा दुख की दरिया है
जिसे वह पी रही है चुपचाप
और मेरे मुख से निकला निम्न वाक्य
कितने पीड़ादायक होते हैं
पियक्कड़ पति-पुत्र-पिता
परिवार के लिए !
27.
भों-भों से भय
••••••••••••••
ट्रेन के आगेबकरी की तरह
मातृभाषा में
काहें
मेमिया
रहे हो
हे बैलों
तुम्हारा बें-बाँय चिल्लाना
दिन-पर-दिन
सड़क के सरकारी
सीटीयों में
गुम होता जा रहा है
तुमसे अच्छे
तो कुत्ते हैं
जिनके भौंकते पर
मैं क्या
वे भी डरते हैं
28.
माँ को मूर्खता का पाठ पढ़ता बचपन
•••••••••••••••••••••••••••••••••••••
जन मूर्ख-दिवस पर रो रहा है मेरा मन
माँ को मूर्खता का पाठ पढ़ता बचपन
लौट रहा है स्मृतियों की गठरी लेकर
हृदय के किसी कोने में विश्राम के लिए
लंगोटिया यारों के संग
गुल्ली-डंडा होला-पाती बुल्ली-कऽ-बुल्ला
तरह-तरह के खुरपाती खेलों का खुल्लम-खुल्ला
तड़क-भड़क ताजी तरंग
गाजर-गुजरिया लुका-छिपी डाकू-पुलिस
गोली-सोली टीवी-उवी खो-खो सो-खो किस-
किस को याद करूँ सब में सामिल है
एक ही बहाना - झूठ
माई मैदान जात हई
जैसे हम माँ को मूर्ख बनाते थे बचपन में
आज कोई हमें बना रहा है
हम क्या करें
माँ बन जायें
या फिर पिता की तरह उसे समझायें
ना समझे तो कान भी ऐंठें
और घुड़कें-सुड़कें!
29.
आवाज़ जा रही है - नहीं !...
••••••••••••••••••••••••••••
जब शब्द का अक्षर ही गायब है
तो वाक्य का क्या कहना
अर्थ तो आप ख़ूब समझ रहे हैं
आप मोबाइल को पढ़ा रहे हैं
और वह हमें
बीच-बीच में ससुरा इंटरनेट रोक रहा है
आपकी आवाज़ - सीख की चीख
ऐड अच्छा है
गूगल गुरु का शिष्य बनने में क्या हर्ज है
गुरु गाँव है न!
30.
तलाक के बाद नवजात बच्ची की रुदन
•••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
बिना टेनी मारे
प्रेम का फल
न्याय के तेराज़ू पर
तलाक के बटखरे से
तौलता है - जब न्यायाधीश
तब महसूसकर
अपनी ही आँखों पर पट्टी
हमारी रूह काँप जाती है
और देखती हैं बंद आँखें
दाम्पत्य जीवन के कचहरी में
सारे संबंध टूट चुके हैं
दोनों के ससुर सस्वर बोलते हैं
कि कुल की इज्ज़त लूट चुके हैं
तहकीकात के प्रश्न सुनकर
शून्य के विरुद्ध
चिंघाड़ती है चेतना की हथिनी
नवजात बच्ची
छः बरस माँ के पास रहेगी
फिर पिता के साथ
रोयेगी !
31.
जंगल में मृग का जनम-मरण
••••••••••••••••••••••••••••
हे बहनी!
छैनी हथौड़ी चकधारा टाकी घन
रम्मा गइता फावड़ा लोहनी
झउआ भर गिट्टी धन
तन पर मिट्टी
चेहरे पर धूल है मेरी पहचान
मैं हूँ पहाड़िन पत्थर तोड़ने वाली
अनपढ़ औरत!
हे बहनी!
अपनी पहचान बताओ!
औजारों में
आरी कुल्हाड़ी करनी-बसूली सूता-पाटा
सुबह-शाम में चाटा
मेरी बोहनी
मैं हूँ एक मजदूर की पत्नी
बस
यही है मेरी पहचान!
मैं सुनने आई हूँ
आपकी कविता : "जंगल में मृग का जनम-मरण"
तो सुनो!
आह! दोहरी दोहित देह की गंध
चिलचिलाती धूप में सूँघ रही है लू
छाँह कहीं भी नहीं है, अरे! अंध
खोपड़ी का खून चूस रही है जूँ
दैनिक दर्दनाक दृश्य देख दृग से
श्रम का शुद्ध स्वाद टपक रहा है
एक शिकारी खेल रहा है मृग से
एक उसके बच्चे पर लपक रहा है
आस-पास के बूढ़े वृक्ष बोल रहे हैं
उन्हें छोड़ कर भागो, भागो, भागो
इस जंगल के शहंशाह पधार रहे हैं
कोई चिल्ला रहा है चुप रहो सावधान
रात नहीं है, प्रजा जागो जागो जागो
देखो! देव दुख का द्वार खोल रहे हैं
गोधूलि बेला में गिरगिटें डोल रहे हैं
बनिया बाजारी बातों को तोल रहे हैं
और क्या कहूँ कुछ कवि सच कहे हैं
हमारे कृपासिंधु के पेट में पच रहे हैं -
मृग और उसके बच्चें!
32.
दुखियारिन दादी का घर//
ख्वाबों के शब्दकोश में
सबसे सुंदर शब्द है गाँव
गाँव से भी सुंदर है
वहाँ के घर
घर सबको प्यारा है
वह चाहे शहर में हो
या गाँव में
सबसे अधिक प्यार यदि किसी से है
तो
वह है घर
नींद गहरी है
स्वप्न-सागर में डूबता हुआ
चाँद
कल्पना के यात्रियों को देखता है
उगते सूरज के पीछे हाँफते हुए दौड़ रहे हैं
जिसके आगे आगे दौड़ रही हैं
कुछ स्मृतियाँ
शून्य सड़क पर
हवा ठहर गयी है
दुख के टीले पर उम्मीदें देख रही हैं
बूढ़े बरगद के नीचे बैठी है
एक असहाय पकी उम्र
वहाँ उसे पककर गिरा गोंद समझ कर खा रही हैं
चिंता की चिटियाँ
आह! कई च्यूँटें एक साथ काट रहे हैं
दुखियारिन दादी को
घर कहाँ है दादी
लो पानी पी लो
मैं हूँ फलाने गाँव का चरवाहा
रोती लाठी
कराहती देह दे दी अनंत दुआएँ
और बोली
बेटा बस इस टीले से उतार दो मुझे
मैं चली जाऊँगी अपने घर!
33.
टें//
चुनाव से चुनचुना रही है देह
कराहती उम्र भय के भूमि में डर का बीज अंकुरित होते देख रही है
और उनकी उम्मीदें उलाहना की उपज ओसा रही हैं खलिहान में
तेज़ हवा के दिशा में गूँज रही है खाँसी खाँव-खाँव
कलकत्ता से दिल्ली की ओर
गर्म बवंडर उड़ाते जा रहे हैं मन की बात
और सुनो
अचकचाई आँखें एक ही जबान में बोलती हैं
कि टूअर-टापर बच्चों को टुहराना आपको शोभा नहीं देता है बाबूजी
हाँ
यह सच है
कि सृष्टि की सारी परछाइयों के मिलने पर होती है रात
और आपके सारे काने-बहरे साथी कह रहे हैं
कि वे बहुत डरे हुए हैं
क्योंकि उन्हें प्रकाश के विरुद्ध घुप अंधेरे की आवाज़ अधिक गतिमान नज़र आ रही है
अतः आपका शीघ्र ही टें होना तय है
फिर भी आप डर नहीं रहे हैं!
34.
नोनियाँ
••••••••
मौसम लू का है
चौराई-पालक क्यारी में हैं नहीं
फिर माँ किस घास का बना है - साग
चिलचिलाती धूप में
करती रही दिनभर निराई-गुड़ाई -
घाम में काम
पेट की चिंता चेहरे पर है
चाम जला रही है चूल्हे की आग
बताओ न माँ
साग किस घास की है?
श्रम का नमकीन स्वाद है इसमें
भूखी आत्मा तृप्त हुई
नाम है - नोनियाँ !
35.
दुख में दोस्त
••••••••••••
रेणु राजस्थान से आई हो, तो देखो
प्रकृति में दोस्ती का दोहन कैसे कर रहे हैं नये दोस्त
चलो गाँव की ओर
मोथे से दूब की दोस्ती देखकर
कुश दुखी है
पथरी प्रसव पीड़ा में
पतलो से कह रही है
पालक प्रसन्न है
धनिये के पास हरी क्यारी में
पानी है
परंतु प्यासा आलू रोता रहा रात भर
मेथी के पत्ते पर टिका है
भंटा का टपका हुआ आँसू
मूली गाजर चुकंदर प्याज एक-दूसरे से हैं नाराज
फिर भी सलाद में नफरत भूल जाते हैं साथी
लेहसुन को लड़ते देख
लौकी हँस रही है नीम के डाली पर लटक कर
नेनुआ केदुआ तरोई सतपुतिया करैला एवं अन्य
झमड़े पर फहरा रहे हैं विजय का झंडा
कुनरू की करुण कहानी सुन रही है परोरा
सूरन सोया है मेंड़ के किनारे
चौराई-चरी चुप हैं
फलों के पेड़ कुछ दूरी पर क्या बतिया रहे हैं
सुनना चाहता है सूरजमुखी
धूप में धूल से नहाई लू
ककड़ियों के कलियों पर कुलबुला रही है
फूट फूट फूटकर रो रहा है खेत में
मेरे दोस्त किसान की तरह!..
36.
पाँव पुजाई प्रतियोगिता
••••••••••••••••••••••
कुछ अंड बंड ही सही
पर बात एकदम सही है
कि देवताओं को दिल नहीं होता
वे दिल से कोई निर्णय नहीं करते
उनके दिमाग में केवल और केवल देवता होने का भान है
पाँव पुजाई प्रतियोगिता में
उनका पाँव सबसे पहले जो छुयेगा
उसका सम्मान है
झुंड के बीच उनके मुंड पर
अब वे क्या करें
जिनकी यादत हो गयी है पाँव छूना
जिन्हें संस्कार में सीखाया गया
कि बड़ो का पाँव छूना
उन्हें सम्मान देना है
क्या इन्हें
उपर्युक्त प्रतिभागियों के श्रेणी में रखना अच्छा है?
इन्हें भय है
कि देवता और देखने वाला
इन्हें भी प्रतिभागी न समझ ले
फिर भी यादत से मजबूर पाँव छू लेते हैं
कुछ जो देवता नहीं
पर दिव्यात्मा तो जरूर हैं
क्योंकि इन्हें भी भय है
कि कहीं इन्हें उन देवताओं के वर्ग में न रखा जाए
ये तो रहें मनुष्यता के मार्गदर्शक
जिनसे अक्सर मुलाकाते होती रहती है
अब आईये उनके पास
जिन्हें पाँव पुजाई से कुछ फर्क नहीं पड़ता
कि पाँव कौन छू रहा है
बस बस बस ब...स
खुश रहो! मस्त रहो! स्वस्थ रहो!...
यही संदेश है
कि मनुष्य को मनुष्य की तरह जीना चाहिए
न देवता , न दिव्यात्मा
हम मनुष्य हैं-
सामान्य मनुष्य!
37.
नाक-कान छेदाना जारी है
•••••••••••••••••••••••••
कुछ पढ़ी-लिखी विदुषियाँ
परिवर्तन का परिधान पहन कर
स्त्री-विमर्श पर खूब बोल रही हैं
अतीत का मुँह खोल रही हैं
पर सच यह है
कि वे पुरुषों से अधिक
अपने घर की स्त्रियों का शोषण कर रही हैं
और क्या कहूँ
बेकायदे अपनी बच्चियों का नाक-कान छेदवा कर
उन्हें स्त्री के साँचे में गढ़ रही हैं
सौंदर्य-बनाम-श्रृंगार मढ़ रही हैं
अरे! माई रे माई! आउर का बताईं!
जो बच्चियाँ दूसरी बच्चियों के नाक-कान से निकलते खून को देखकर
बहुत डर गयी हैं/रो रही हैं
भयभीत होकर भाग रही हैं
उन्हें उनकी मम्मी पकड़ कर कस कर तमाचा जड़ रही हैं
और सब बुढ़िया खूश होकर बकबका रही हैं
उनके पिता चुपचाप हैं
आह! नाक-कान छेदाना जारी है
छेदने वाली बोली
हम स्त्री हैं बच्ची
हमारी पहचान है हमारा परिधान
छेदा लो दर्द नहीं होगा!
38.
मुट्ठी भर रोशनी
•••••••••••••••
मन चिंता के गहरे कूप में उतर रहा है
देखो! दिल दहकती धूप में जर रहा है
तन चिता पर चुरते-चुरते चीख रहा है
आह! हर आँखों में आँसू दिख रहा है
कोलाहल कविता कहानी लिख रहा है
पर व्यक्ति जीने की कला सीख रहा है
महांधकार में मुट्ठी भर रोशनी ढूँढ रहा है
अपने ही घर में कैदी की तरह कुढ़ रहा है
39.
"माँगे हुए शब्दों से माँ पर कविता : 'माँ का दुख"
(दुख और रिश्ता का घनिष्ठ संबंध)
(एक)
शैशवावस्था में
माँ के पिचकी छाती से
चूस-चूसकर
दूध नहीं
दुख पिया था हमने
और वही दौड़ रहा है हमारी रगों में
परवरिश का पैगाम
पढ़ते हुए
पिता से पुत्र को
या
कहूँ
हमें आपस में मजबूती से बाँधें रखता है :
बुनियादी रिश्ता
सरदियों में धर्म का धूप सोखती
हमारी सभ्यता
संस्कार के सरोवर में खिले सफेद कमल की तरह है
लेकिन हमारी मनुष्यता
गम के गमले में खिले गुलाब की तरह है
बिल्कुल लहू-सा लाल
जिंदगी की सूक्ति में
माँगे हुए शब्दों का सार्थक समुच्चय है
अतः ब्रम्हांड में जब तक रहेगा दुख
हम यूहीं बँधे रहेंगे
आपस में
दुख का होना अच्छा है
कितना अच्छा है नये संदर्भ में
दुख
आपसी संबंध के लिए ?
(दो)
दुनिया की सारी दुखियारिन रगड़ रगड़कर माँजती हैं
देवताओं के जूठे बासन
लेकिन उन्हें माँजता है उनका दुख
चूल्हानी बैठी बहन सुना रही है हमें
'दुख' शीर्षक मदन कश्यप की कविता
(दुःख इतना था उसके जीवन में
कि प्यार में भी दुःख ही था...)
40.
यमुना में नींद
•••••••••••••
नये विहान विहग पूछे
भोरहरी है
नहीं
नयी सुबह है
दोपहरी है
नहीं
नयी शाम है
कोई बात है
नहीं
रात है
कोई डेरा है
नहीं
अंधेरा है
ठीक है
नावी ठीक है
खेने दो
नाव
लहरों को
ऐसा मैंने सुना है
बहुतों से
कि तुम
अक्सर यमुना नदी में सो जाते हो
हवा को
अनुकूल देख
गंगा के केवट भी यही कह रहे थे
काशी में
तुम्हारे नौकादौड़ से
भयभीत होकर
किनारों पर
झुंड-झुंड में
उड़ रहे हैं पंक्षीगण
मैं भी बहुत डरा हुआ हूँ
क्योंकि मुझे तैरना नहीं आता है
या यह कहूँ
तैराकी सीखने के लिए
कोई सरोवर ही नहीं है हमारे यहाँ
जहाँ यह हाल है
तो वहाँ आने वाली पीढ़ी का क्या होगा
तुम गहरी नींद में हो
और मैं मर रहा हूँ
तुम्हें सोने की अनुमति प्रदान कर
नदी बीच नाव पर !
42.
वृक्ष पर बूढ़ा
••••••••••••
बिजली आकाश में बोती है
ध्वनि से पहले रोशनी का बीज
धरती से देख-सुन कर काँप जाता है
एक बूढ़ा किसान , जो बैठा है
उस बूढ़े वृक्ष के नीचे
जिस पर कल कोई लटका था
सन्नाटे की अध्यक्षता में होती है
कोलाहल की सभा...
तो समाप्त होने से पहले ही सूर्य
पेट के प्रश्नों को
नजरअंदाज कर पहाड़ पर चले गये
उन पत्तियों की पीड़ा
ठूँठी टहनियों पर टहलने लगी
जो बुरे समय की छाया में
गिर पड़ी हैं निसहाय
खो चुकी हैं अपनी पहचान
खेत की मिट्टी माथे पे पोत
आज फिर कोई लटका है उस पेड़ से
दुख आ गयी है दबे पाँव
सन्नाटे को तोड़ने के लिए
बूढ़े के साथ उसके गाँव!
43.
कहीं सुख की छाँव नहीं है
••••••••••••••••••••••••
१.
कहीं सुख की छाँव नहीं है
भूख का ब्याज
कर्ज़ की काँटा कोंचता है
कर्षित के कर में
उम्मीद जाग उठी है
ऊषा से पहले
बूढ़ी उम्र के उर में
रोशनी का बीज बोता है गाँव
शहर में!!
२.
आसमान से टपका पूर्वजों का आँसू
बूढ़ा बरगद रोते रोते रोपता है
चाँदनी की साड़ी पहनी
पतोह पत्तियों के पीड़ा पछोड़ती है
घर में
संघर्ष के सूप से
जीने की आशा पल रही है पेट में
आँखें देख रही हैं
जर्जर दीवारें गिरना चाहती हैं ऊपर
देह का दर्द दफना रहा है
स्मृति की तस्वीर
नाउन बोली बेटा हुआ है
बेटी को बधाई...!
44.
प्रेम की पतवार
•••••••••••••••••
कसम से
प्यार में जीत
एकदम से
हार गया
तुम से
सनम सब्र की सब दाँव
शबनम से
हर मौसम में
दूब का प्यास नहीं बुझती है
हवस से
जवान होती हवा कहती है
प्रेम की पतझड़ में
पत्ते छूते हैं
पेड़ की पाँव
धूप तेज है
बाहर आँधी चल रही है
भीतर बवंडर उठ रहा है
मन फँस गया है
रेगिस्तान में
रेतों के तपती तवे पर
तन थउँस गया है
आँखें टिक गयी हैं
टीलों के छाँव
अनुराग के आग में
आगे बढ़ता ऊँट
आँत की आवाज सुन
खा रहा है
बबूल की काँटा
नाधा क्या जाने
नरम नागफनी का स्वाद
ओह! आज
मुहब्बत का भूखा मुसाफिर पहुँचा
मरुस्थलीय गाँव
जहाँ स्नेह में स्नान के बाद
रुदन की रूप रचता है
अंधेरे का गीत
भूख सुनती है
देह की दीवारों से सट कर
सिसकियों के स्वर
दिल देख रहा है
द्वंद्व के दुनिया में
विस्थापन की पीड़ा
ढूँढ रही है ठाँव
पसीने की पिचपिचाहट से
पुरुषत्व की पगड़ी में
होती है
पुरुष की पहचान
चावल की बुदबुदाहट से
बेलन की चेतना में
होती है
स्वतंत्र संवेदना
चुल्हा-चौका की ज्ञान
केवल नहीं
स्त्री की पहचान
नहीं , नहीं
केवल उसके लिए नहीं है
मर्यादा की रेखा
भीतर की भाव
देखा
हृदय की हाव
लेखा
पानी के पन्नों पर
हिल्लोल-सा
खे रहा है
ज़िंदगी की नाव!
45.
पुआल और पाला
•••••••••••••••••
पुआल के बिस्तर पर आज भी ठिठुरते हैं
बूढ़े किसान
खर्च कर जवानी
गेहूँ के खेत में पानी
भरते हैं जाग
सारी रात
खाँसी खोजती है
खलिहान में
कउड़े की सैंठाती आग
देह देती है आवाज
एक आँटा और जलाओ
पुआल
जाड़े के विरुद्ध
जिंदगी का जंग जीतने के लिए
अक्सर बूढ़ी त्वचा
दोपहर में
धूप सोखती है
और अँकुरित उम्र उबटन की मालिश कराती है
माँ से
कोरोना से
इस कोहरा के कहर में
प्रत्येक की पीड़ा
पूरब से पश्चिम
उत्तर से दक्षिण
दौड़ रही है
चारो ओर
शोर
उठ रही है
पाला पड़ा है भयंकर पाला से
आसमान के आँखों से टपक रहा है
बर्फ
पेड़-पौधे रो रहे हैं
कुत्ते सो रहे हैं
भरसाँय में
भूसे पर बैठती बिल्ली
चूल्हे को बनाया घर
नानी नाराज हैं
रोटियाँ जूठी देख कर
अब उसे वहाँ रहने नहीं देंगी
गोन्हरी बुन कर गरीब
बिछाता है
जमीन पर
गड़ेरिया छिड़कता है
भेड़ालय में
गोड़ से माँगा हुआ राख
आह!
नींद नहीं आ रही है
क्यों?...
46.
कंगाली की कविता
**********************
कंगाल किसान के कुटिया में
कवि के कंठ से कविता
सुन रहे हैं कथाकार-आलोचक
कंबल ओढ़ हुँकारी भर रहे हैं
गीता का तकिया लगाए
संविधान के रक्षक-भक्षक
कंकालें ढूँढ रहे हैं
इतिहासकार साहित्यकार के बगल में
आह! किस की अस्थि है
खटिया पर?
कंज़्यूमर! कविता पूछ रही है
तुम से
47.
यथार्थ
••••••••
साहित्य में शायद एक शब्द
उस हाथी की तरह है
जिसे आँखों पर पट्टी बंधे
कुछ लोग लोक में
कुछ को कुछ कहते हैं
शायद
यह संज्ञा है यथार्थ !
48.
रोटी की रोशनी
••••••••••••••
प्लाटिंग सेे पेट
उदास है
रेट की भेंट
देख रही है
सिकुड़ती
खेत
पसरती
भूख
रेत की तरह
नदी में
इंटरनेट
खास है
इंद्रिय महसूस कर रही है
आँच
उस ज्वालामुखी का
जिससे कभी जलेगी
जनता
भीषण डेट
पास है
हवा हँसे कैसे
रात में
ढिबरी बुझा के
रोगी के
कान में
खीं-खीं करती
धीरे धीरे
संकट की सेट
संत्रास है
मन ढो रहा है स्मृति
तन खो रहा है धैर्य
खाँसी खिलखिला रही है
खेतिहर के
मचान पर
फटी-चिथड़ी
चेतना की चादर
ओढ़ कर
रोजमर्रा की रफ में
दर्ज कर रहा है
एक किसान
अपने कुदालीय कलम से
रोटी की रोशनी
जिससे जिंदगी की अंकुरित होती है बीज।
49.
कैवल्य का कुआँ
••••••••••••••••
एक समय
नदी स्वस्थ थी
सागर स्वच्छ
द्वीप था
भूखा
प्यासे थे
बुद्ध व वर्द्धमान
दुःखी थे
दोनों दयनीय दृश्य देखकर
दुनिया
डूब रही थी
एक गिलास
दुःख में
आँसू
सिंच रहे थे
जंगल
पीपल बता रहा है
बूढ़े बरगद से
बोधिवृक्ष की गाथा
पर्वत दिखा रहा है
पथ में
पदचिह्न
आज
कैवल्य के कुएँ से
खिंच रहे हैं
कोविद व कवि
भरी बाल्टी
रात देख रही है
मुट्ठी भर रौशनी
बिखर रहे हैं
कोरोजयी
अंधेरे के विरुद्ध
घर-घर में।
50.
लोक कहता है कोई बाँझ नहीं
••••••••••••••••••••••••••••
बीच नदी में
नाव पर तनाव धर
साँझ की सखी बाँझ
दे रही है
वट-वृक्ष को पानी
बूढ़ी रात रो रही है आग
नाग फुँफकार रहा है
कच्चा फोड़ा फोड़ रहा है परिवार
दीवार दरक गयी चीख से
शांत सोया समुद्र जाग उठा
पहाड़ खो दिया है धैर्य
हवा ढो रही है सिसकी और साँस
जुगनूँ के पीठ पर बैठी
ठंड जा रही है
चाँद के पास
देह का दर्द गाने
धुआँ उठा है ऊपर
इच्छाएँ जली हैं चूल्हे में
बेड़ियों में कैद पैर
आजाद हो गये हैं
पर उन्हें चलना है पथरीली पथ पर
तपते रेगिस्तान में
या कहूँ पुरुषार्थ के अँगुलियों के दिशा में
खुद की अँगुलियाँ जलाना है
बटुई की चावल टो-टो
या तवे पर रोटी पो-पो
पर भूख कभी नहीं मिटेगी
पुरुष को चाहिए पुरुष
(यानी पति को चाहिए पुत्र)
तुम्हारा प्रेम वह पुष्प है
जो पुजारी के हाथ नहीं
पियक्कड़ के हाथ लगा है
और तुम्हारे पड़ोसियों का वही हाल है
कि सामने गाय का घाव खोद रहा है कौआ
दुध-दही का व्यापारी व्यंग्य कस कर हँसता रहे
कीलीयर में बल्टा लटकाए
अब रोना बंद कीजिए
माँ हो मेरी और मेरे जैसों की
क्योंकि माँ "जात" नहीं जन्मती
मैं तुम्हारा बेटा
रक्त से नहीं हुआ तो क्या हुआ
लोक से हूँ
क्योंकि लोक से आप हमारी बड़ी माँ हैं।
51.
चेहरे पर चेतना की चाँदनी का चुम्बन
•••••••••••••••••••••••••••••••••••
संभावना के स्वर में
सुबह गा रही है उम्मीद का गीत
हे सखी
शाम आ रही है
नाव पर
धारा के विपरीत पतवार खेओ!
तरंग टकरा रही है तन से
नदी उचक उचक कर उर छू रही है मन से
हवा का गंध तैर रही है सतह पर
तकलीफों के तूफान पर फतह कर
तकदीर उत्साहित है
मछली की तरह ;
आशाएँ आती हैं आकाश से
मछुआरिन की कीचराई आँखें चमकती हैं
चेहरे पर चेतना की चाँदनी चूमती है
प्रेम की तुहिन ताप बुझाता है
तरुणी का तरणी पहुँच जाती है किनारे!
52.
जवानी का जंग
••••••••••••••••
बुरे समय में
जिंदगी का कोई पृष्ठ खोल कर
उँघते उँघते पढ़ना
स्वप्न में
जागते रहना है
शासक के शान में
सुबह से शाम तक
संसदीय सड़क पर सांत्वना का सूखा सागौन सिंचना
वन में
राजनीति का रोना है
अंधेरे में
जुगनूँ की देह ढोती है रौशनी
जानने और पहचानने के बीच बँधी रस्सी पर
नयन की नायिका नींद का नृत्य करना
नाटक के नाव का
नदी से
किनारे लगना है
फोकस में
घड़ी की सूई सुख-दुख पर जाती है बारबार
जिद्दी जीत जाता है
रण में
जवानी का जंग
समस्या के सरहद पर खड़े सिपाही
समर में
लड़ना चाहते हैं
पर सेनापति के आदेश पर देखते रहते हैं
सफर में
उम्र का उतार-चढ़ाव
दूरबीन वही है
दृश्य बदल रहा है
किले की काई संकेत दे रही है
कि शहंशाह के कुल का पतन निश्चित है
दीवारे ढहेंगी
दरबार खाली करो
दिल्ली दूह रही है
बिसुकी गाय
दोपहर में
प्रजा का देवता श्रीकृष्ण नाराज हैं
कवि के भाँति!
53.
स्त्री की पीड़ा
•••••••••••••••
आँसू से सनता है आटा
पसीने से सीमेंट
परंपरा का काँटा पैरों में चुभता है
बोल रहे हैं गाँव-शहर
ठहर कर खाती है जहर
हर घर की अभिव्यक्ति
इच्छाएँ तलती हैं तवे पर
चूल्हे के पास बैठी अनुभूति
आँचल में आग की आँच सोखती है
ऐ! दोहरे चरित्र का चित्रण
सफर में धूप हो या बारिश
स्त्री जीवन की छाता सदैव साथ लेकर चलती है
कष्ट की कोठली है काया
पकी उम्र की बूढ़ी छाया पकती है कड़ाही में
चिंता की चटनी पीसती है चेतना
चुपचाप शील के सिल पर
धैर्य धर अंतःकरण की आहें कहती हैं
अक्सर आदीवासी औरतें ओखली में कूटती हैं
अपनी अनंत अभिलाषा के साथ एक भाषा
इतिहास के रफ में
जनता के दुःख को भूख की भाषा में
खून से लिख दिया जाता है
अंततः उक्त रफ की आखिरी पन्ना पलटती है हवा
सरसराहट सुबह से शाम तक पढ़ती है
अस्मिताओं के छटपटाहट का एकैक अक्षर
देह का दर्द अर्थ स्पष्ट करता है
सूर्योदय से सौंदर्य का सुमन खिलता है
सृष्टि में सुगंध बिखर जाती है
कुछ चिड़ियाँ चीखती हैं कुछ चहचहाती हैं
सोए का सुखद स्वप्न टूटता है
इच्छाओं की कुमुदिनी मुर्झाती है
आँखें अदहन की आवाज़ में गाती हैं स्त्री की पीड़ा!...
54.
मौन के मैदान में मैराथन
•••••••••••••••••••••••
कोविड के कोच साहब!
मौन के मैदान में मैराथन है
चीख दौड़ रही है पूरी ताकत से
उम्मीद के नाक से स्वास ले रहे हैं कवि-कोविद
शहर से संवेदना के शब्द हो रहे हैं गायब
गंवई हवा खो रही है गंध
चरवाहे की चेतना चलना चाहती है
चालीस कोस और पैदल
पर पथ में पशु-पथिक थउस गए हैं भूख से
और प्यास से सूख गए हैं सारे पेड़
सामने खड़े हैं जंगल के राजा शेर
लोमड़ी पढ़ रही है आश्वासन के पत्र
अपने आश्वासन के आरोही क्रम में
प्रासाद से पेट तक की यात्रा निश्चित है
पहले उसे ही राहतकोष दिया जाएगा
जो सबसे कमजोर होगा
पारी-पारा प्रत्येक को प्रवेश करना है गुफे में
चीखने की आवाज़ आ रही है
संकट के सन्नाटे में डरा है शेर
चीख कहीं जीत न जाए मैराथन!
55.
चेतना की चिराग
•••••••••••••••••
१.
आँधी-पानी की भीषण घड़ी है
भूख की बड़ी छड़ी गर्भ में गड़ी है
जंग दर्द की दवा के लिए लड़ी है
जन ढिबरी भीतर जो दिव्य मणि है
२.
अंधेरे में आँसू टपकता है
चिंता के शीशी में रोप लेती है रोशनी
चौखट पर खड़ी चीख जलाती है
चेतना की चिराग
उदीप्त किरणें कमरे के अंदर
खूँटी पर टँगी खड़ाऊँ पहन कर
पदचिह्न छोड़ती हुई दौड़ती हैं
खौफ खत्म हो जाता है खुद
खिड़की से आती है हवा
पसीने का गंध पिता के पगड़ी से
बिखर जाते हैं खेत में
अनुराग के बीज अँकुआते हैं
सोई जिन्दगी जाग जीवन की राग
गाने लगती है सूर्योदय के स्वर में
जनतंत्र के जंगल की आग
आदिवासी की आँख सोख लेती है।
56.
सब ठीक होगा
••••••••••••••
धैर्य अस्वस्थ है
रिश्तों की रस्सी से बाँधी जा रही है राय
दुविधा दूर हुई
कठिन काल में कवि का कथन कृपा है
सब ठीक होगा
अशेष शुभकामनाएं
प्रेम ,स्नेह व सहानुभूति सक्रिय हैं
जीवन की पाठशाला में
बुरे दिन व्यर्थ नहीं हुए
कोठरी में कैद कोविद ने दिया
अंधेरे में गाने के लिए रौशनी का गीत
आँधी-तूफ़ान का मौसम है
खुले में दीपक का बुझना तय है
अक्सर ऐसे ही समय में संसदीय सड़क पर
शब्दों के छाते उलट जाते हैं
और छड़ी फिसल जाती है
अचानक आदमी गिर जाता है
वह देखता है जब आँखें खोल कर
तब किले की ओर
बीमारी की बिजली चमक रही होती है
और आश्वासन के आवाज़ कान में सुनाई देती है
गिरा हुआ आदमी खुद खड़ा होता है
और अपनी पूरी ताकत के साथ
शेष सफर के लिए निकल पड़ता है।
57.
दस दस बीस
(जहाँ पाँव रेत में और जूते हाथ में)
••••••••••••••••••••••••••••••••
ऊपर
धूप खड़ी है
नीचे
अपने ही छाया में कैद कवि
जनतंत्र के जूते को
कर में लटकाए
टहल रहा है
रेत पर!
भीतर स्मृति है
बाहर आकृति अनंत
हवा हँस रही है
नाव पर बैठा संत
नज़र गड़ाया
नदी में डूबते
ऐत पर!
देखा
दुःख-सुख के बीच का सेतु है
रक्तिम रेखा
जिस पर
हर नर की घड़ी रुक गयी
पर समय चलता रहा किनारे
जिजीविषा की नाव
इस पार से
उस पार पहुँच गयी
खेत पर!
पेट के लिए
पुदीना की पत्ती पीस
दस दस बीस लिख दिया हूँ
फावड़ा-कुदाल के
बेत पर!
58.
उर्वी की ऊर्जा
••••••••••••••
उम्मीद का उत्सव है
उक्ति-युक्ति उछल-कूद रही है
उपज के ऊपर
उर है उर्वर
घास के पास बैठी ऊढ़ा उठ कर
ऊन बुन रही है
उमंग चुह रही है ऊख
ओस बटोर रही है उषा
उल्का गिरती है
उत्तर में
अंदर से बाहर आता है अक्षर
ऊसर में
स्वर उगाने
उद्भावना उड़ती है हवा में
उर्वी की ऊर्जा
उपेक्षित की भरती है उदर
उद्देश्य है साफ
ऊष्मा देती है उपहार में उजाला
अंधेरे से है उम्मीद।।
59.
जनतंत्र की जिह्वा
•••••••••••••••••
मेह से नहीं
देह से होती है-बारिश
प्रतिदिन
आत्मा डूबती है
बालुओं के बाढ़ में
आह!
नदी का भीतरी
सीन
मीन तड़पती है
बिन विश्राम
पानी में
सर्प
बाज़ार में बजती है
बीन
कान खड़ा कर लो
रेगिस्तानी राही
अक्सर अग्नि का लाल आलपीन
चुभती है
पैरों में
और आँखों में
तिन
भरी दोपहरी में
(आँधी-तूफ़ान-लूँ चल रही है)
सड़क पर मरे हुए सड़े हुए ऊँटों से उठ रही है गंध
नाक छोटी कर लो
त्वचा काँप रही है
गर्म हवा के स्पर्श से
जाड़े के अभिनंदन में जनतंत्र की जिह्वा ले रही है
बुरे समय की स्वाद।
60.
छौंक से छींक
(नाव में घाव)
•••••••••••••
भीतर की सागर सूख रहा है
आत्मा पक रही है खौलते कड़ाही में
स्वप्न तल रहा है तवे पर
अदहन की आवाज़ आ रही है
और अहरा के आग में आँखें भूनी जा रही हैं
त्वचा तप रही है
उम्मीद उबल रही है
ढिबरी भभक-भभक कर जल रही है
चावल की बुदबुदाहटीय चीख है चूल्हे के पास
छौंक से छींक
रोजमर्रा की रोग है ख़ास
प्यास पी रही है ख़ून
भूख खा रही है हृदय
हथेली में लेकर पकौड़े की भाँति!
दुःख है बासी
थके हुए का थाती
है उसकी खाँसी
तड़प है ताज़ी
मृत्यु है राज़ी
सड़क पर सेवा हेतु
नहर से आती चीख
खेत में नहीं उगाती ईख
खेतीहर को ही नहीं सभी को पता है
नाव में घाव खोद रहे हैं कौए
(नाविक का घाव)
नाविका के आह से निकला-
शब्द तोड़ रहा है सत्ता का सेतु
नदी नाराज़ नहीं है
सेतु के टूटने से!
61.
वसंत का छलकता यौवन ?
•••••••••••••••••••••••••
केले के पत्तों पर
किरणें करुणा लिख रही हैं
और तेज हवा में
चंचल चिखुरी चीख रही है
सिसक रहे हैं
सरसों के फूल
कलियों के काजल
गुलाब के गालों पर
हँस रहे हैं
पत्तियों पर चिपकी है धूल
भौंरें चाट रहे हैं
मोथा की माथा
गौरया गा रही है
गम की गाथा
अन्य पंक्षी पढ़ रहे हैं
पलायन की भाषा
चौपाये चिंतित खड़े हैं
उनके पेट बड़े हैं
सड़कों पर
बिखर गयी है आशा
बौरें कह रहे हैं
बगीचे के माली से
बादल के रोने पर
हम भी रोते हैं
हल्कु के कुत्ते
हरदम भूखे सोते हैं
गाँव से गयी गंध
पूछ रही है रानी से
इस वर्ष
हर्ष कहाँ है ?
और उत्साह के उपवन में
वसंत का छलकता यौवन
मौन क्यों है ?
तुम्हारी तरह
बिल्कुल तुम्हारी तरह!
62.
कोरोना में कविता की यात्रापथ
••••••••••••••••••••••••••••••
भारी दिन है
भूख बड़ी
यात्रा कठिन है
धूप कड़ी
सब कैद हैं
इस घड़ी
अपने ही छाया में
या कहूँ
कविता है
खड़ी
निम्न चार सड़कों के संगम पर
जिसमें से
एक जाती है
श्मशान से संसद की ओर
दूसरी जाती है
मंत्र से मेडिकल की ओर
तीसरी जाती है
क्रोध से करुणा की ओर
और चौथी जाती है
वहाँ
जहाँ कविता को जाना है...!
63.
हर्ष की हवा
••••••••••••
सो कर उठा
सीधे
बरधवानी में
पहुँचा
तन-मन से
कल के
जन्मे
बछड़े के साथ
हम
और हमारे भाई
खेल रहे हैं
ठेल रहे हैं
आँखों में है
आनंद की बवंडर
हृदय में
हर्ष की हवा
खींच रहा हूँ
मैं...!
गऊ माता की जय!
64.
बाल वाला!
(बचपन लौट आया कुछ क्षण के लिए)
••••••••••••••••••••••••••••••••••••
डमरू की ध्वनि सुन
हर घर के
बच्चे दौड़ते हैं
गली में
मैं सोचता हूँ
शायद मदारी है
पर तत्क्षण
बाँसुरी के बदले
सुनाई देती है
बेसुरा
सीटी की प्रतियोगिता
या
कहूँ कनकोंचनी
आवाज
सिर्फ़
बाल दो , सामान लो
हमें सीटी दो
हमें गुब्बारा
हमें यह दो
हमें वह
औरतें खोजती हैं
मुक्कियों में खोसी गयी
मुठ्ठी भर
खोपड़ी का झड़ा बाल
कच्ची उम्रें
साइकिल को घेर रखी हैं
कोई बच्चा ले कर आया
मूड़न का बाल
बालों का सबसे लघु व्यापारी बोला
वर्जिन हेयर चाहिए
(8 इंच से बड़े बाल)
कोई चिरपरिचित
पूछी क्या है हाल
एक आलपीन दो
और एक फूलना
वह दे कर तो चला गया
पर
मैं खिड़की से देखता रहा
पचपन में
कुछ क्षण के लिए
अपना लौटा हुआ
बचपन!
65.
पतंग
••••••
पीढ़ी दर पीढ़ी की पीड़ा
परित्रस्त पूर्वजों के पत्र में दर्ज
कन्नी खाती हुई
मेरी पतंग पढ़ती है
आसमान में मौन
आँसुओं के बूँद टपकते हैं
खेत के दरार में
जड़ें मिट्टी से सोख लेती हैं
किसानी पसीना
हवा में फैल जाती है
श्रम की गंध
जीवन की डोर खिंचती है पतंग
उमंग उड़ रही है
संबंधों के सारे रंग
बिखर गये हैं
घास में
गेहूँ बिता भर
बढ़ा है
ठिगना चना संग मटर
खड़ा है
बथुआ खोट कर
चली है
बूढ़ी माँ घर की ओर
मेंड़ पर
सरसों फूली है
तरुणी तीसी की पत्ती हिल रही है
पास में
धूप खिल गयी है
पेड़ पर
रिश्ते की रेशमी रील
लिपट रहा हूँ
प्रेम के परेते में
चमकती हुई
चेतना की चमकिदी पतंग उड़ रही है
आकाश में
जिस तरह भूख बढ़ने पर खूँटे से बँधी गाय
तोड़ डालती है मजबूत से मजबूत पगहा
ठीक उसी तरह उखड़ कर
चिड़ियों के भाँति नापना चाहती है
धरती को मेरी पतंग
नहीं नहीं
यह संभव नहीं है
आत्मा पूछती है पीड़ा से
तुम कौन?
©गोलेन्द्र पटेल
©सर्वाधिकार सुरक्षित;
गोलेन्द्र पटेल
युवा कवि , आलोचक, संपादक
( बीएचयू)
■■■■संक्षिप्त परिचय■■■■
नाम: गोलेन्द्र पटेल
शिक्षा: काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्ययनरत(हिंदी आनर्स : स्नातक अंतिम वर्ष का छात्र)
जन्मतिथि: 05 अगस्त ,1999 ई.
माता: श्रीमती उत्तम देवी
पिता: श्री नंदलाल
जन्भूमि: खजूरगाँव, साहुपुरी, चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत 221009
कर्मभूमि: वाराणसी, उत्तर प्रदेश, भारत
शौक: कवि,लेखक व दिव्यांगसेवी (दृष्टिबाधित विद्यार्थियों का सेवक)
भाष: हिंदी
विविध: रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होती रहती हैं और कविताओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद। फिलहाल मेरी कविताओं पर कुछ सुप्रसिद्ध वरिष्ठ एवं युवा आलोचकों का लेख जारी है।
मोबाइल नंबर: 8429249326
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