मजदूर थककर हो गए हैं चूर//
मैं अपनी एक लुंगी पहनता हूँ
और एक ओढ़ता हूँ
और उसी से बाँधता हूँ पगड़ी
जब उससे टपकता है
श्रम का शहद
और गमकती है
जिंदगी की गंध
तब सब कहते हैं
कि रब ने बनाया है मुझे मजदूरों का कवि
और मेरी कविता प्रस्तुत करती है
शोषितों की छवि
जिसमें उन्हें हँसती हुई दिखाई देती है
हाशिए पर खड़ी नयी पीढ़ी
अचानक उनकी दृष्टि की सृष्टि कंपित होती है
और दीवार से फिसलने लगती है सीढ़ी
फिसलने वाले गाने लगते हैं
कि हर बार फिसलने पर सहारा देती है
शब्द की सत्ता
इस बार भी देगी
निर्भयता से बाँस की सड़ी सीढ़ी पर
कोई गिट्टी की भरी तगाड़ी
तो कोई बालू की झउआ लेकर चढ़ रहा है
कोई लोक रहा है
तो कोई नीचे से ऊपर फेंक रहा है ईंट
कोई मिला रहा है अढ़ाई एक कऽ मसाला
तो कोई करनी चला रहा है तेजी से
कोई बतिया रहा है साहुल-सूत के भाषा में
तो कोई खिसिया रहा है अपनी खिंचाई होते देखकर
ढलाई हो रही है ताबड़तोड़
जीतोड़ काम करने के बाद एक मजदूर दुःख की गठरी खोल रहा है
उसके चेहरे का रंग बोल रहा है
कि मजदूरी कम देने के लिए कमरतोड़ दाँव लगा रहे हैं साहब
सारे मजदूर थककर हो गए हैं चूर
हिसाब हो रहा है
पगड़ी में पोंछकर आँसू थाम रहे हैं पैसे
ऐसे लोगों का कैसे चलेता है परिवार
जो रोज़ कुआँ खोदकर पानी पीते हैं
क्या बताऊँ कि उनके बच्चे अक्सर भूखे सोते हैं
तो साहब दे देंगे पैसे?
(©गोलेन्द्र पटेल
14-06-2021)
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