Golendra Gyan

Thursday, 22 July 2021

बिना पढ़ें किसी स्त्री साहित्यकार का कैसे करें मूल्यांकन : केंद्र में रश्मि भारद्वाज : गोलेन्द्र पटेल

 

बिना पढ़ें किसी स्त्री साहित्यकार का कैसे करें मूल्यांकन : केंद्र में रश्मि भारद्वाज

                       -गोलेन्द्र पटेल


आओ सीखें कि कैसे एक स्त्री साहित्यकार को बिना पढ़ें स्त्री विमर्श, स्त्री-अस्मिता, 'मैं' की चिंता, अस्मिता का बोध-शोध, सिसकियों के स्वर में मानवीय संवेदना की खोज, चेतना की चिंता और चिंतन, अभिव्यक्ति की आजादी का प्रश्न इत्यादि बिंदुओं को केंद्र में रखकर मूल्यांकन करते हैं। जैसा कि आप सभी जानते हैं कि समाज में समय के साथ परिवर्तन होता रहता है। पर प्राचीन काल से अब तक स्त्रियों की दशा में कोई खास सुधार नहीं हुआ है। जैसा शोषण सूत्र उस वक्त था कुछ वैसा ही अब भी समाज में मौजूद है।


              वैदिक एवं उत्तर वैदिक काल से लेकर आज तक के साहित्य में स्त्री को एक विशिष्ट स्थान दे दिया गया है ; जैसे -मनुस्मृति में कहा गया है कि "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।/यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।।" (मनुस्मृति ३/५६ ) कह कर उन्हें आसमान के आसान पर बैठाया गया तो भक्तिकाल में तुलसीदास जैसे जनधर्मी चिंतक यह कहकर सम्मानित किये हैं कि "ढोल , गवार, पशु , शूद्र , नारी ये सब है ताडन के अधिकारी " इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए द्विवेदी युग में मैथिलीशरण गुप्त लिखते हैं कि "अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी!, आँचल में है दूध और आँखों में पानी!!"('यशोधरा' से) आगामी स्वर्ण युग में जयशंकर प्रसाद अपने कामायनी महाकाव्य में दर्ज करते हैं कि "नारी! तुम केवल श्रद्धा हो" ('लज्जा' सर्ग से) 


                            ये तो रहा नारी को शील और सौंदर्य की कसौटी पर उन्हें साहित्यिक समाज में गढ़ने का प्रमुख काम । खैर जब से मैं साहित्य को समझना शुरू किया हूँ तब से यही वाक्य सुन रहा हूँ कि 'साहित्य समाज का दर्पण है और सिनेमा आईना।' कोई साहित्यकार इसमें अपना शक्ल देखता है तो कोई अपने अक्ल की आखों से उसके पीछे का यथार्थ।


         सजग सर्जक इस सामाजिक दर्पण के पीछे के यथार्थ में समय की सच्चाई का सजीव तस्वीर अपने सोच के अनुसार गढ़ता है और उसे अपनी बुद्धि के रंगों से रंगता है। उसमें हम जीवन के वास्तविक छवि का दर्शन करते हुए यह कहते हैं कि साहित्य एक नदी  है। जिसका जल जमीन के अनुसार कलकल निनाद करता हुआ बहता चला जा रहा है समय के सागर की ओर। जिसके तट पर एक सहृदय समाज सुन रहा है कि "सिसकन के स्वर में उपजी मानवीय संवेदना सम्भावना की सैक्सोफोन और 'स्व' की सरसराहट बुद्धि की बैंजो विमर्श के नाव में एक नारी के लिए बजा रही है।"


                 जिसे समकालीन साहित्य में मृदुला गर्ग,प्रभा खेतान, उषा प्रियंवदा, मन्नु भंडारी, ममता कालिया,सूर्यबाला,रजनी पन्नीकर, चित्रा मुद्गल,शिवानी,राजी सेठ, गीताश्री, कृष्णा अग्निहोत्री, कृष्णा सोबती,मणिका मोहनी,शशिप्रभा शास्त्री,मृणाल पाण्डेय,नासिरा शर्मा,मैत्रयी पुष्पा,मंजूल भगत,मेहरुन्निसा परवेज़,दीप्ति खंडेलवाल,कुसुम अंचल, अनामिका, सुधा सिंह, सुधा उपाध्याय, चंद्रकला त्रिपाठी, शशिकला त्रिपाठी, रचना शर्मा, अनुराधा 'ओस', रश्मि भारद्वाज, जसिंता कैरकेट्टा एवं प्रतिभा श्री इत्यादि महिला साहित्यकारों ने शब्दबद्ध किया है जिसे हम उनकी रचनाओं में सुन सकते हैं।


इन लेखिकाओं ने बड़े वैचारिक ढ़ंग से स्त्री विमर्श, स्त्री अस्मिता और 'स्व' की पहचान को उद्घाटित किया है। साथ ही साथ नारी सशक्तिकरण के सार्थक समीकरण को भी गढ़ा है और समय के साथ गढ़ रही हैं। उल्लेखित प्रतिष्ठित साहित्यकारों का विमर्श आधुनिकता बोध की उपज है जहाँ गहन चिन्तन-मनन, सोच-विचार, विचार-विनिमय, वाद-विवाद-संवाद से साहित्य के वे सुमन खिले हैं जो कभी न मुर्झानेवाले हैं, सदैव सुगंध देनावाले हैं।


         भाषा वैज्ञानिक भोलानाथ तिवारी का मानना है कि विमर्श का अर्थ है "तबादला-ए-ख्याल, पारामर्श, मशविरा, राय-बात, विचार विमर्श सोच। अतः इसी विमर्श को केंद्र में रखते हुए रश्मि भारद्वाज का मूल्यांकन :-


                रश्मि भारद्वाज का जन्म 11 अगस्त 1983ई. को मुजफ़्फ़रपुर, बिहार में हुआ है । इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं क्रमशः "एक अतिरिक्त अ", "मैंने अपनी माँ को जन्म दिया है" (कविता संग्रह)। जिन आधुनिक कवयित्रियों (लेखिकाओं) ने बदलते संदर्भ में स्त्री की बदलती मानसिकता, स्त्री-अस्मिता के प्रश्न और स्त्री की समस्याओं को केंद्र रखकर अपनी रचना संसार समृद्धि करते हुए स्त्री संवेदना को  सशक्त स्वर रूप में प्रस्तुत किया है और कर रही हैं उनमें से एक नाम रश्मि भारद्वाज का है । इनकी कविता में इनकी संवेदनशीलता ही इनकी सबसे बड़ी पहचान है।

     "आसान है कुछ उजले दिनों में दोहराना/वही उकताए हुए शब्द/जिनमें आँच देह की तीली से सुलगती हो/जल कर तुरन्त बुझ जाने के लिए/..../हमारे एकान्त का संगीत बन जाए/तुम राग कहना/तुम साज कहना/हम सब गुनेंगे, सब कहेंगे/बस, प्रेम के सिवा/प्रेम हमें गढ़ लेगा" (कविता 'बस, प्रेम के सिवा' से)


रश्मि अपनी कविताओं में स्त्री की बात, स्त्री मुक्ति की प्रतिरोधी स्वर बेबाक ढंग से सहजता के संस्कार में प्रस्तुत करती हुई कहती हैं कि "आग की लौ हर बार कुछ नया रचती है/संहार में भी सृजन के कण दीप्त किए/अपने फ़ैसलों का भार मुझ पर ज़्यादा है/अब एक बार इन्हें तुम सबके हवाले कर/मैं मुक्त होना चाहती हूँ।"(कविता: 'भारहीन' से)


रश्मि अपनी "चरित्रहीन" शीर्षक नामक कविता में स्त्री के बेहयापन को विमर्श के बंजर भूमि में उगाकर मानवीयता एवं मनुष्यता का फल देनेवाला पेड़ के रूप में स्त्री के वास्तविक पीड़ा को प्रस्तुत करते हुए उस ओर संकेत किया है जिस ओर यशपाल की चर्चित पात्र दिव्या सामाजिक विडंबनाओं ,विसंगतियों,कुरितियों, रूढ़ियों,परंपराओं से तंग आ कर सभी को चुनौती देती हुई "स्व" के पहचान के लिए वेश्यावृत्ति को धारण करती है और कहती है कि "वेश्य स्वतंत्र नारी है।" या हम यह कहें कि कृष्णा सोबती के मित्रो की तरह अल्हड़पन और आवारेपन में औरत के अस्मिता की आवाज है रश्मि की यह कविता :-

              "बड़ी बेहया होती है वे औरतें-जो लिखी गई भूमिकाओं में/बड़े शातिराना तरीके से कर देती है तब्दीली/..../बड़ी चालाक होती है ये बेहया औरतें/..../सुनते हैं, ज़िन्दगी को लूटने की कला जानती हैं यह आवारा औरतें/इतिहास में लिखवा जाती हैं अपना नाम/मरती नहीं अतृप्त।"


मानवीयता, एकांगिता, वैयक्तिकता, सहिष्णुता, सहजता के साँचे में औरत के आजादी के आन्दोलन का अनुगूँज से ओतप्रोत हैं रश्मि की रचनाएँ। अतः अपनी रचनाओं में स्त्री को स्त्री के रूप में चित्रित करना,उसकी व्यापकता को यथार्थ के धरातल पर खड़े होकर देखना और परखना,...अपने समय को अभिव्यक्त करनेवाली,सच को साहस के साथ कहनेवाली सजग सर्जक हैं रश्मि भारद्वाज।

      


             दिनांक : 22-07-2021

                                 लेखक : गोलेन्द्र पटेल

नोट:-

रश्मि भारद्वाज मैम का मैं क्षमा प्रार्थी हूँ क्योंकि मैं आपको बिना पढ़े और बिना पूछे ही उदाहरण के लिए चुना हूँ खैर जब आपको अध्ययन अनुशीलन के साथ पढ़ूँगा तब आपका मूल्यांकन करुंगा।


            ■★■

 संपादक : गोलेन्द्र पटेल

{युवा कवि व लेखक : साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक}

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Tuesday, 13 July 2021

श्री सुरेंद्र प्रजापति को "मसि कागद छुयो नहिं" सम्मान 2021 से सम्मानित किया गया : गोलेन्द्र पटेल

 मसि कागद छुयो नहिं, कलम गह्यो नहि हाथ।

चारों जुग कै महातम कबिरा मुखहिं जनाई बात।।

         ~कबीरदास

                                  प्रथम सम्मान
आ. सुरेंद्र प्रजापति जी को मसि कागद छुयो नहिं सम्मान से सम्मानित किया जाता है। हम आपके उज्ज्वल साहित्यिक भविष्य की कामना करते हैं।

                                     कवि परिचय :-
नाम- सुरेन्द्र प्रजापति

जन्म-8 अप्रैल 1985
जन्म स्थान :-
ग्राम- असनी
पोस्ट-बलिया
थाना-गुरारू
जिला-गया, बिहार
पिन न.-824205

पिता-स्वर्गीय श्री जगदीश प्रजापत
माता-स्वर्गीय श्रीमती मैना देवी
पाँच भाई, दो बहनें
अपने माता पिता का तृतीय पुत्र
पिता से हमेशा संघर्ष शील बने रहने की प्रेरणा, वही माँ से विनम्र बने रहने का पाठ

"शिक्षा"-प्राइमरी स्कूल पांचवी तक, पढ़ाई छोड़ने के आठ वर्ष बाद किसी तरह मैट्रिक
"पेशा" इंटरनेशनल मार्केटिंग कम्पनी में स्वतंत्र डिस्ट्रीब्यूटर
"शौक" साहित्य पढ़ना, कहानी, कविताएँ लिखना

साहित्यिक उपलब्धि :-
कुछ कविताएँ समाचार पत्रों में प्रकाशित

एक कहानी संग्रह "सूरज क्षितिज में" प्रकाशित

संपर्क सूत्र:-
मोबाइल न.-
7061821603, 9006248245
ईमेल-
surendraprar01@gmail. Com


श्री सुरेंद्र प्रजापति जी दस कविताएँ प्रस्तुत हैं :-


1).

एक सुंदर कविता

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गुलाब काँटो में

कैसे खिलता है?

सूर्य की प्रखर किरणो में

तपकर भी-

सुगन्ध कहाँ से लाता है?

कैसे बनती है

एक सुंदर कविता


पूछो इससे 

बंजर मिट्टी को तोड़ते

पसीने को जलाते

इंसान को पढ़ो

क्या तुम सुन रहे हो,

कि यह टूटते पत्थर का

रुदन है या

मिट्टी में सने

खून का चीत्कार


शब्दों में ढूंढो, 

जीवन की एक मुकम्मल तस्वीर

पढ़ो, संवेदना की गूँज

समर्पण का उच्छवास

सत्य का प्रकाश।



2).

फसल मुस्कुराया

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देखो, भूमिपुत्र...!

उषा की बेला में

उम्मीद की लौ से सिंचित

मिट्टी में दुबका बीज

धरती की नमी को सोखकर

आकाश में हँस रहा है

तुम्हारे थकान को

उर्वरक का ताप दिखाकर

ऊसर में बरस रहा है


ऐ खेत के देवता...

तुम्हारी वेदना, तुम्हारा सन्ताप

बहते श्वेद कण का प्रताप

शख्त मिट्टी में मिलकर

ओस की बूंदों में सनकर

जगा रहा है कंठ का प्यास

उपज में सोंधी मिठास


आस की भूख सता रही है 

कई-कई दिनों से निर्मित

आत्मा की फीकी मुस्कुराहट

जीवन का रहस्य बता रही है

कि कसैला स्वाद चखने वाला

चीख-हार कर, गम खानेवाला

बासमती धान का भात कैसे खाए

जिसपर संसद का कैमरा

फोकस करता है...

जिसपर शाही हुक्मरान

प्रबल राजनीत करता है...



3).

वह नियति को कोसता है

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किसान!

मिट्टी की खुश्बू से

पहचान लेता है

धरती की नमीं, 

उष्णता की मिठास

फसल की गरमी


कि कौन सा फसल उपयुक्त है

मिट्टी के किस रंग में

कौन सा उपज लगेगा


जैसे एक गर्भवती माँ

अपने पेट में पलते शिशु के

झिलसागर में तैरते

हलचल को महसूस करती है

अपने लोरियों में पिरोती है

नवजात शिशु की थपकी

मुस्कानों में अंकित करती है

ममत्व का चुम्बन


जैसे सता के तलबगार लोग

अपने षडयंत्रो के चाबुक से

थाह लेता है 

प्रजा का भूख

और तैयार करता है

नफरत के अग्नि पर

एक छलता हुआ सुख


किसान प्रकृति के प्रत्येक थपेड़ों से

निर्भयता के साथ सामना करता है

लड़ता है झंझा के तूफानों से

लेकिन सत्ता के गलियारे से

उसके खिलाफ किए गए फैसले का

सामना नहीं करता

सिर्फ नियति को कोसता रहता है



4).

जीवन का कर्ज

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संध्या समय में, जब घर लौटा

थकान, दर्द से विलाप करते

कुछ टुटे स्वप्नों, निराशाओं से हाथ मलते

निढाल ढोते निर्बल शरीर के साथ

अपनी साँसों को नियंत्रित कर रहा था


आसमान में पुरी चन्द्रमा

अपनी स्निग्ध शीतलता उड़ेल रही थी

मैं, उसके चंचल उजाले में बैठ

शीतल सुधामय वायु के साथ

अपने जख्मों को लगाना चाहा मलहम

ताकि प्राण लहरियों में फिर से

हरियाली आ जा सके


तभी, दरवाजे पर दस्तक हुआ

और मैं उस ओर थथम कर देखने लगा

उस महाजन को, जिसका मैं कर्जदार था

वह मुझे ऐसे घुर रहा था जैसे

उसके सबसे अनमोल धरोहर पर

मैं किसी घिनौने जीव की भांति

घात लगाए बैठा हूँ


मेरी आँखों में व्याप्त कातरता

उसके चेहरे पर उत्पन्न भर्त्सना में

थोड़ी सी मोहलत और याचना के

निर्बल, निःशब्द गुहार लगा रही थी

उसने तीखे शब्दों का प्रहार किया

मेरी विवशता थी, उसे स्वीकार किया

उसने अपशब्दों, कुशब्दों का चाबुक फेंका

मेरी दीनता थी, उसे मुक सुनता रहा

निर्लजों की तरह, पुरी हया को भुलकर


उसने कहा 'कामचोर'

और मेरा कठोर श्रम

संघर्षों में ईमानदार पसीना बहाते

लहूलुहान होकर बिखर गया


मेरी वफादारी, मेरी विनम्रता

मेरी ही आत्मा से सवाल करने लगा

उद्धार हो जाओ,

साहुकार से, बेचारी किस्मत से

जिंदगी भी एक साहुकार है

उसका भी कर्ज चुकाने होंगे, बन्धु !


5).

ग्राम-जीवन

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मैं मलिन बस्तियों में गया

सड़ांध और बदबुदार 

रोशनी को देखा

और जी भर कर रोया


वहाँ जीवन कैसे रचता है

अपना कौतुक?

उत्सुकता से ठहर कर 

जानना चाहा


वहाँ गांव का गंवईपन

निर्लिप्त उज्ज्डता

गंवार और भोले-भाले 

लोगों की आत्मीयता


कि वे रात्रि के पिछले प्रहर से ही

करते हैं, ईश्वर भजन

साझा करते हैं 

एक दूसरे के सुख-दुःख


मिट्टी की सुगंध लिए

वायु की आत्ममुग्धता में

अपने हृदय की व्यथा को धोया

और मीठे स्वप्न में

मैं नींद भर सोया।


6).

आँसू और मुस्कान

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जब-जब आँखों में आँसू

दिल मचल-मचल छलकता है,

पीड़ा का क्रंदन होता है

अंतर में टिस उभरता है।


किस दुःख का व्यापार हुआ

कौन रूठा, किया कौन प्रस्थान,

किस विरह में मोती टूटा

या हुआ, जीवन का अवसान।


मित्र, कुटुम्ब चकित होते

प्रश्नाकुल! दृष्टि पुछती है,

कोलाहल भीड़ स्तब्ध हुआ

हर व्यथा संशय में दिखती है।


स्वप्न बिखरा, उम्मीद पिटी

आशाएँ जीवन की अवरुद्ध,

उमंग मौन, उत्साह क्षीण

फफोले  जीवन के विरुद्ध।


बेसुध हृदय, नित्य रागरंग

मुस्कान तड़पकर सोती है,

चंचल, चपल और शोख किरण

आहें धिक-धिक कर रोती है।


मुस्कान सजाता मुखमंडल

आँखों में तेज चमकता है,

शृंगार छेड़ता तान मधुर

जीवन का दीप दमकता है।


आकाश में तारे सजते हैं

वीणा के तार श्रृंखलित होते,

आशा दीप जगमग करता

सृजन पल्लव विकसित होते।


लहरों में उन्माद सजाता

हर स्वप्न नीर सी बहती है,

मुस्कान आत्मा का वैभव

कण-कण में नूपुर सी बजती है।


आँसू है दुःख का वियोग-

विरह गीत, रति का विलाप,

मुस्कान सुख का आभूषण

चन्द्रकला, मन का मिलाप।



7).

कल्पने, धीरे-धीरे बोल

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कल्पने, धीरे-धीरे बोल।


बोल रही जो स्वप्न उबलकर

विह्वल दर्दीले स्वर में,

कुछ वैसी ही आग सोई है 

मेरे, लघु अंतर में।

इस पुण्य धरा पर देखो, 

खड़ा मृत्यु मुख खोल

           कल्पने धीरे-धीरे बोल


फल्गु का जल सुख गया,

धारा में पड़ी दरारें,

मन्दिर के देवता ऊंघ रहे हैं

मन्त्र करती चित्कारें।

शिखा सुलग रही है मन मे

जीवन रहा है डोल,

       कल्पने! धीरे-धीरे बोल।


श्री विष्णु का चरणचिह्न

अमृत से भय खाता,

अंधेरों का दीप जलाकर

वेदना का गीत गाता।

सुधामयी पवन में संक्रमण

विष रहा है घोल,

       कल्पने! धीरे-धीरे बोल।


आज प्रभात की किरनें  भयभीत

सुलग रहे हैं तारे,

फूलों से खुश्बू निर्वासित

झड़ते तप्त अँगारे।

मन की दीप्ति संभाल,

अब जीवन का बोलो मोल

       कल्पने! धीरे-धीरे बोल।


जल रही है रजनी दाह से

सुलग उठी चिंगारी,

जल रही चिताएं तट पर

जलता केशर क्यारी।

वीणा की लय में, काँप रहा 

है, सारा विश्व भूगोल

       कल्पने! धीरे-धीरे बोल।


भाग्य विचित्र खेल खेलता

छूट गए हैं अपने,

साध-साधना दहक रही है

टूट गए हैं सपने।

किसी दुष्ट दानव की ईर्ष्या

विष, रहा है खौल

       कल्पने! धीरे-धीरे बोल।


दया शांति का संदेश,

तेरा वसन जला जाता है,

मानव, मानव के स्वर में

प्रलय घिर-घिर आता है।

आंसुओं के आवेग से जग का

हृदय रहा है डोल

       कल्पने! धीरे-धीरे बोल।


लाखों मानव के आंखों से

झरने रोज बहेगें,

अंतर की पगडंडियां टूटी

शिखा की व्याल दहेंगे।

जीवन की घावों को कुरेदना

लगा पाप का बोल,

कल्पने! धीरे-धीरे बोल।


एक युक्ति है सुनो मित्रवर!

दर्द में तुम हंस लो,

मन की पीड़ा, विश्वास से जीतो

विपत्तियों में बस लो।

शृंगार करेगी व्यथा, कथा में

होंगे मीठे बोल,

       कल्पने! धीरे-धीरे बोल।



8).

आँख का स्वप्न

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आँख सिर्फ आँसू बहाने के लिए

कहाँ होती है ?

वह स्वप्न भी देखती है, चमकदार

उसके जबड़े होते हैं, शिल्पगत कारगर

हाथ जुड़ते हैं, दाता के सामने

तो बंदूक भी सम्हालते हैं

आतिशबाजियां करनेवाली अंगुलियाँ

स्वतंत्र शब्द भी रचती है

नसों में बहने वाली लहु

क्या जमीन को नहीं रंगती ?


सुमनों की चंचल सुरभि से

मुग्ध होने वाले मस्तिष्क में

क्या विचारों की चिंगारी नही उड़ती ?


दाता कहने वाला मुख

अपना भाग्य विधाता भी कहता है

स्थिर जल में कंकड़ डालो तुम

उसमें, तरंगे फुफकरता है 

लपकता है, लहलहाते आग की तरह

तिस पर मैं एक मनुष्य हूँ

क्रिया करता हूँ 

तो क्या प्रतिक्रिया करने का

अधिकार नहीं है मेरा ?

मुक्त बहती हवाएँ

अविरल बहती जलधारा

किसने रोका कभी


फिर तुम मुझे जंजीरों में बाँधोगे,

हरियाली को सींचती बाग

बगैर, रक्तरंजित होते रह सका है

किसी युग, किसी काल में


अपमान, घृणा और जिल्लत भरी

कसमसाती जिंदगी की आँखों मे झाँको

मुक्ति का बवंडर चलेगा वहाँ भी

और हिला देगा तुम्हारी

स्याह में डूबी सता को

और मैं अपने कविता की

एक-एक पंक्ति की 

प्रत्येक शब्द की तरह

अपने एक-एक कतरे खुन को

न्योछावर कर दूँगा


मैं दिनकर के प्रचंड ताप पर

और तपाउँगा अपनी महत्वाकांक्षा को

अपने जीवन की उर्बर मिट्टी पर

मानव नद के निर्मल तटों पर

हरियाली का मौसम

जल के लाल कणों में ही सींचेग्गे



9).

जीवन जगमग कर दे

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ज्ञान प्रकाश का अमृत देकर

जीवन जगमग कर दे,

वीणा की तारों को कसकर, माँ

दे वरदान! सरल कर दे।


बसंत के अनुनय प्यार भरे हैं

सुमन दल के अनुराग बहे हैं,

नव पल्लव के कोमल नेह में

शब्दों के नवीन श्रृंगार बहे हैं।


है अभिलाषा माँ! पगडंडी का

गान अचल कर दे,

ज्ञान प्रकाश का अमृत देकर

जीवन जगमग कर दे।


घोर अंधेरे में, चंचल स्वर चहका

ग्राम-प्रवासिनी, प्रभात कर दहका,

भावो में घुलता श्रद्धा भक्ति का

निश्छल बिनोद, कलरव में महका।


कविता में माँ प्यार लिखूँगा

मान धवल कर दे,

ज्ञान प्रकाश का अमृत देकर

जीवन जगमग कर दे।


सुर-साधिका, मधुर भाषिणी

दो वर प्रखर, माँ वर दायिनी,

मेरे काव्य में, तेरी आराधना

स्वर दो शिखा का, यही कामना।


तेरे स्वर्ण द्वार पर याचक आया

झंकार प्रबल कर दे,

ज्ञान प्रकाश का अमृत देकर

जीवन जगमग कर दे।


10).

मैं कहीं भी होता हुँ

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मैं कभी भी, कहीं भी होता हूँ   

जिम्मेवारियों के साथ होता हूँ         

बच्चों की जरूरतें, गृहस्थी का बोझ,  

चाहे जहाँ भी होता हूँ,      

उत्तरदायित्वों के साथ होता हूँ।    


पसीना बहाते, खेतों में।                  

गीत गाते, खलिहानों में                    

सरिता के तट पर , 

या उदासी लिपे, रेगिस्तानों में।


आश्चर्य ये कि...वहां--

जीवन के तमाम लिपि के वावजूद 

कविता  नहीं  होती जैसे---

राम राज्याभिषेक के समय, सीता नहीं होती।


हाँ उस वक्त...

जब, मैं भी नहीं होता हूँ, वहाँ पर 

कहीं भी नहीं, 

न घर-न बाहर, गांव, न नगर 

जब मैं कविता  लिखता हूँ, 


एक एक शब्दों से लड़ता, झगड़ता,  

जीवन के अर्थ ढूंढता  

कलाबाजियां करता, कभी पिटता 

मैं यदा, कदा मुस्कुरा पड़ता हूँ     


जब मैं कविता के शूक्ष्म तारों को छूता  

कहीं और ही होता हूँ 

अक्षरों की गलबाहीं करता, 

अभ्यस्त होता हूँ....


एक आदत की फितरत में दम  भरता

मैं जाना चाहता हूँ...

एक ही समय में अंतरिक्ष तक, विचित्र ग्रहों पर 

सागर की अनन्त गहराइयो में 

ज्वालामुखी के वृहत खाइयों में  


फिर मैं अपने में लौटना हूँ 

एक साथ सबमें लौटता हूँ 

जैसे लाल, नीले ग्रहों से छूकर लौटती है, 

जीवन की तरंग, 

कई कई सम्भावनाओं के संग........

                                             ©सुरेन्द्र प्रजापति

                                        संपादक

नाम : गोलेन्द्र पटेल

{युवा कवि व लेखक : साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक}

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

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Saturday, 10 July 2021

कोरोजीवी प्रश्न (corojivi quetion) || कोरोनाकाल के साहित्यिक प्रश्न || कोरोजयी प्रश्न

 

कोरोजीवी प्रश्न दृष्टिबाधित साथियों के कहने पर तैयार किया जा रहा है अतः आप सहयोग करने की कृपा करें!

प्रश्न-१ : "उत्तर कोरोना' (आत्माएं होंगी, आत्मीयता न होगी)" कविता के रचनाकार कौन है ?


अ) मदन कश्यप

ब) सुभाष राय

स) सदानंद शाही

द) श्रीप्रकाश शुक्ल



प्रश्न-२ : "एक चिट्ठी ज्योति बेटी के नाम" कविता के रचनाकार कौन है ?


अ) सुभाष राय

ब) जितेंद्र श्रीवास्तव

स) स्वप्निल श्रीवास्तव

द) संजय कुंदन



प्रश्न-३ : निम्नलिखित पंक्तियाँ किसकी है ?

"वह एक तुम्हारा स्पर्श ही तो था

कि जिससे ईश्वर के होने की अनुभूति होती थी

कोरोना ने मुझे निरीश्वर कर दिया!"


अ) मंगलेश डबराल

ब) मदन कश्यप

स) मनोज जैन

द) बोधिसत्व



प्रश्न-४ : "तिमिर में ज्योति जैसी" काव्य-संग्रह का संपादक कौन है ?

अ) अरुण होता

ब) अरुण कमल

स) अरुणाभ सौरभ

द) अनिल पाण्डेय



प्रश्न-५ : "बुद्धम् शरणम् गच्छामि" कहानी का लेखक कौन है ?

अ) शैलेंद्र शांत

ब) चंद्रेश्वर

स) पंकज श्रीवास्तव

द) स्वप्निल श्रीवास्तव


नोट:- मित्रों! अभी हमारी परीक्षाएं हो रही हैं इसलिए हम कुछ दिन बाद कोरोजीवी प्रश्न बनाएंगे। साथ ही साथ सभी प्रश्नों को दृष्टिबाधित(दिव्यांग) साथियों के निम्नलिखित चैनल पर हल किया जाएगा। अतः आप से निवेदन है कि आप चैनल से जुड़ें रहें। जो मित्र एवं सुधीजन प्रश्न बनाकर हमें भेजना चाहते हैं वे निम्न संपर्क पर भेज सकते हैं।


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