बिना पढ़ें किसी स्त्री साहित्यकार का कैसे करें मूल्यांकन : केंद्र में रश्मि भारद्वाज
-गोलेन्द्र पटेल
आओ सीखें कि कैसे एक स्त्री साहित्यकार को बिना पढ़ें स्त्री विमर्श, स्त्री-अस्मिता, 'मैं' की चिंता, अस्मिता का बोध-शोध, सिसकियों के स्वर में मानवीय संवेदना की खोज, चेतना की चिंता और चिंतन, अभिव्यक्ति की आजादी का प्रश्न इत्यादि बिंदुओं को केंद्र में रखकर मूल्यांकन करते हैं। जैसा कि आप सभी जानते हैं कि समाज में समय के साथ परिवर्तन होता रहता है। पर प्राचीन काल से अब तक स्त्रियों की दशा में कोई खास सुधार नहीं हुआ है। जैसा शोषण सूत्र उस वक्त था कुछ वैसा ही अब भी समाज में मौजूद है।
वैदिक एवं उत्तर वैदिक काल से लेकर आज तक के साहित्य में स्त्री को एक विशिष्ट स्थान दे दिया गया है ; जैसे -मनुस्मृति में कहा गया है कि "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।/यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।।" (मनुस्मृति ३/५६ ) कह कर उन्हें आसमान के आसान पर बैठाया गया तो भक्तिकाल में तुलसीदास जैसे जनधर्मी चिंतक यह कहकर सम्मानित किये हैं कि "ढोल , गवार, पशु , शूद्र , नारी ये सब है ताडन के अधिकारी " इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए द्विवेदी युग में मैथिलीशरण गुप्त लिखते हैं कि "अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी!, आँचल में है दूध और आँखों में पानी!!"('यशोधरा' से) आगामी स्वर्ण युग में जयशंकर प्रसाद अपने कामायनी महाकाव्य में दर्ज करते हैं कि "नारी! तुम केवल श्रद्धा हो" ('लज्जा' सर्ग से)
ये तो रहा नारी को शील और सौंदर्य की कसौटी पर उन्हें साहित्यिक समाज में गढ़ने का प्रमुख काम । खैर जब से मैं साहित्य को समझना शुरू किया हूँ तब से यही वाक्य सुन रहा हूँ कि 'साहित्य समाज का दर्पण है और सिनेमा आईना।' कोई साहित्यकार इसमें अपना शक्ल देखता है तो कोई अपने अक्ल की आखों से उसके पीछे का यथार्थ।
सजग सर्जक इस सामाजिक दर्पण के पीछे के यथार्थ में समय की सच्चाई का सजीव तस्वीर अपने सोच के अनुसार गढ़ता है और उसे अपनी बुद्धि के रंगों से रंगता है। उसमें हम जीवन के वास्तविक छवि का दर्शन करते हुए यह कहते हैं कि साहित्य एक नदी है। जिसका जल जमीन के अनुसार कलकल निनाद करता हुआ बहता चला जा रहा है समय के सागर की ओर। जिसके तट पर एक सहृदय समाज सुन रहा है कि "सिसकन के स्वर में उपजी मानवीय संवेदना सम्भावना की सैक्सोफोन और 'स्व' की सरसराहट बुद्धि की बैंजो विमर्श के नाव में एक नारी के लिए बजा रही है।"
जिसे समकालीन साहित्य में मृदुला गर्ग,प्रभा खेतान, उषा प्रियंवदा, मन्नु भंडारी, ममता कालिया,सूर्यबाला,रजनी पन्नीकर, चित्रा मुद्गल,शिवानी,राजी सेठ, गीताश्री, कृष्णा अग्निहोत्री, कृष्णा सोबती,मणिका मोहनी,शशिप्रभा शास्त्री,मृणाल पाण्डेय,नासिरा शर्मा,मैत्रयी पुष्पा,मंजूल भगत,मेहरुन्निसा परवेज़,दीप्ति खंडेलवाल,कुसुम अंचल, अनामिका, सुधा सिंह, सुधा उपाध्याय, चंद्रकला त्रिपाठी, शशिकला त्रिपाठी, रचना शर्मा, अनुराधा 'ओस', रश्मि भारद्वाज, जसिंता कैरकेट्टा एवं प्रतिभा श्री इत्यादि महिला साहित्यकारों ने शब्दबद्ध किया है जिसे हम उनकी रचनाओं में सुन सकते हैं।
इन लेखिकाओं ने बड़े वैचारिक ढ़ंग से स्त्री विमर्श, स्त्री अस्मिता और 'स्व' की पहचान को उद्घाटित किया है। साथ ही साथ नारी सशक्तिकरण के सार्थक समीकरण को भी गढ़ा है और समय के साथ गढ़ रही हैं। उल्लेखित प्रतिष्ठित साहित्यकारों का विमर्श आधुनिकता बोध की उपज है जहाँ गहन चिन्तन-मनन, सोच-विचार, विचार-विनिमय, वाद-विवाद-संवाद से साहित्य के वे सुमन खिले हैं जो कभी न मुर्झानेवाले हैं, सदैव सुगंध देनावाले हैं।
भाषा वैज्ञानिक भोलानाथ तिवारी का मानना है कि विमर्श का अर्थ है "तबादला-ए-ख्याल, पारामर्श, मशविरा, राय-बात, विचार विमर्श सोच। अतः इसी विमर्श को केंद्र में रखते हुए रश्मि भारद्वाज का मूल्यांकन :-
रश्मि भारद्वाज का जन्म 11 अगस्त 1983ई. को मुजफ़्फ़रपुर, बिहार में हुआ है । इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं क्रमशः "एक अतिरिक्त अ", "मैंने अपनी माँ को जन्म दिया है" (कविता संग्रह)। जिन आधुनिक कवयित्रियों (लेखिकाओं) ने बदलते संदर्भ में स्त्री की बदलती मानसिकता, स्त्री-अस्मिता के प्रश्न और स्त्री की समस्याओं को केंद्र रखकर अपनी रचना संसार समृद्धि करते हुए स्त्री संवेदना को सशक्त स्वर रूप में प्रस्तुत किया है और कर रही हैं उनमें से एक नाम रश्मि भारद्वाज का है । इनकी कविता में इनकी संवेदनशीलता ही इनकी सबसे बड़ी पहचान है।
"आसान है कुछ उजले दिनों में दोहराना/वही उकताए हुए शब्द/जिनमें आँच देह की तीली से सुलगती हो/जल कर तुरन्त बुझ जाने के लिए/..../हमारे एकान्त का संगीत बन जाए/तुम राग कहना/तुम साज कहना/हम सब गुनेंगे, सब कहेंगे/बस, प्रेम के सिवा/प्रेम हमें गढ़ लेगा" (कविता 'बस, प्रेम के सिवा' से)
रश्मि अपनी कविताओं में स्त्री की बात, स्त्री मुक्ति की प्रतिरोधी स्वर बेबाक ढंग से सहजता के संस्कार में प्रस्तुत करती हुई कहती हैं कि "आग की लौ हर बार कुछ नया रचती है/संहार में भी सृजन के कण दीप्त किए/अपने फ़ैसलों का भार मुझ पर ज़्यादा है/अब एक बार इन्हें तुम सबके हवाले कर/मैं मुक्त होना चाहती हूँ।"(कविता: 'भारहीन' से)
रश्मि अपनी "चरित्रहीन" शीर्षक नामक कविता में स्त्री के बेहयापन को विमर्श के बंजर भूमि में उगाकर मानवीयता एवं मनुष्यता का फल देनेवाला पेड़ के रूप में स्त्री के वास्तविक पीड़ा को प्रस्तुत करते हुए उस ओर संकेत किया है जिस ओर यशपाल की चर्चित पात्र दिव्या सामाजिक विडंबनाओं ,विसंगतियों,कुरितियों, रूढ़ियों,परंपराओं से तंग आ कर सभी को चुनौती देती हुई "स्व" के पहचान के लिए वेश्यावृत्ति को धारण करती है और कहती है कि "वेश्य स्वतंत्र नारी है।" या हम यह कहें कि कृष्णा सोबती के मित्रो की तरह अल्हड़पन और आवारेपन में औरत के अस्मिता की आवाज है रश्मि की यह कविता :-
"बड़ी बेहया होती है वे औरतें-जो लिखी गई भूमिकाओं में/बड़े शातिराना तरीके से कर देती है तब्दीली/..../बड़ी चालाक होती है ये बेहया औरतें/..../सुनते हैं, ज़िन्दगी को लूटने की कला जानती हैं यह आवारा औरतें/इतिहास में लिखवा जाती हैं अपना नाम/मरती नहीं अतृप्त।"
मानवीयता, एकांगिता, वैयक्तिकता, सहिष्णुता, सहजता के साँचे में औरत के आजादी के आन्दोलन का अनुगूँज से ओतप्रोत हैं रश्मि की रचनाएँ। अतः अपनी रचनाओं में स्त्री को स्त्री के रूप में चित्रित करना,उसकी व्यापकता को यथार्थ के धरातल पर खड़े होकर देखना और परखना,...अपने समय को अभिव्यक्त करनेवाली,सच को साहस के साथ कहनेवाली सजग सर्जक हैं रश्मि भारद्वाज।
दिनांक : 22-07-2021
लेखक : गोलेन्द्र पटेलनोट:-
रश्मि भारद्वाज मैम का मैं क्षमा प्रार्थी हूँ क्योंकि मैं आपको बिना पढ़े और बिना पूछे ही उदाहरण के लिए चुना हूँ खैर जब आपको अध्ययन अनुशीलन के साथ पढ़ूँगा तब आपका मूल्यांकन करुंगा।
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संपादक : गोलेन्द्र पटेल
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