Golendra Gyan

Saturday, 21 August 2021

बाढ़ और बनारस के कवि श्रीप्रकाश शुक्ल पर केंद्रित चार कविताएँ : गोलेन्द्र पटेल

 बाढ़ और श्रीप्रकाश शुक्ल पर केंद्रित युवा कवि गोलेन्द्र पटेल की चार कविताएँ :


1).


भँवर में भगवान//


इश्क में इनसान

भँवर में भगवान

डूब रहे हैं


डूब रहे हैं

दुःख में देश 

बुरे समय में संदेश


डूब रही हैं

पीड़ा में पहचान

आँसुओं में आन 


आह! डूब रही है

बाढ़ में बस्ती

मँझधार में मस्ती


डूब रही हैं

तकलीफ़ में तान

बारिश में शान


डूब रही हैं

जिंदगी-बंदगी

दुनिया-जहान


डूब रहे हैं

घर के रोशनदान

और साज़-सामान


डूब रहे हैं

गंगा में गान

पउड़ते पिता के कान

जिसमें एक नन्ही बच्ची

अपने पिता से कह रही है

मुझे छोड़ दीजिए

और खुद को बचाइए


लेकिन कोई पिता 

भला  पुत्री को  कैसे छोड़ सकता है

डूबने के लिए

और पिता  उसे लेकर साथ पउड़ पड़ते हैं

बीच नदी में!


ठीक इसी समय मुझे याद आतें हैं अपने गुरु के वे कथन

जो उन्होंने घाट पर कहे थे

इस पिता के संदर्भ में-


संघर्ष के शब्दों से बनी हुई कविता

बढ़ियाई सरिता में 

डूबते हुए  मनुष्य को

धारा के विपरीत तैरने के लिए ताकत देगी


और उम्मीद की उमंगें 

उसे तरंगों से अधिक बल देंगी


जिससे वह जल को पीछे ठेलता हुआ

किनारे की ओर आगे बढ़ेगा

और जान बचाने की संभावना बढ़ जायेगी ।


इस डूबते  पिता के पास थकान की थाप है

जो पानी पर थप-थप पड़ रही है

जिसके सहारे  मौत से लड़ते लड़ते

दोनों ही किनारे पर आ गये!


रचना : 20/08/2021

2).

मँझधार में माँ//


सावन में सत्ता के सेतु पर सेल्फी खींचने वाले 

बहुत हैं 

बाढ़ में डूबी बस्तियों को देखने वाले 

बहुत हैं

घड़ियाली आँसू बहाने वाले 

बहुत हैं 


और हां

कविता लिखने वाले भी बहुत हैं !

लेकिन परपीड़ा को प्रत्येक पंक्ति में 

दर्ज करने वाले कौन हैं

यह हम सब जानते हैं 


पानी का एक इतिहास यह भी है 

कि मनुष्यता का मरना

लाशों की गणना करना

उम्मीदों को अग्नि देना

और सुख को छीन लेना

यानी हर आन्दोलन का जड़ है पानी


मँझधार में माँ कह रही है

कि कुएँ का जल जहर है 

तो अमृत भी है


नदियाँ प्रश्न हैं

तो उत्तर भी!


बाढ़ की विभीषिका

मृत्यु का खेल खेलती है

लहरें आ रही हैं पास

सावधान! गड़बहना!

मुझे कसकर पकड़े रहना


माँ! मुझे जोर से भूख लगी है 

एक शिशु चिचोड़ रहा है चूचुक

एक को लगी है प्यास

पीड़ा की पतवार 

केले की बेड़ी को खे रही है

किनारे की ओर


बेचारी लाचारी वक्त की मारी विधवा नारी

फँसी है भय के भँवर में 

अपने बच्चों के साथ

हाथ में लिए लम्बा बाँस


मैं उसके दुःख को लिख नहीं पाऊँगा

आह! मेरा आँसू टपक रहा है

मैं एक गोताखोर की तरह 

गम की गंगा में डुबकी लगा रहा हूँ

जहाँ मुझे अपने गुरु से प्राप्त हो रही  है

श्वास रोकने की शक्ति

और वह रेत की आकृति भी 

जिसे उन्होंने गढ़ा है मेरे लिए


केवल कवि की कविता का ही नहीं

बल्कि इस वक्त रेत की माँ का कल-कल कराह भी

शामिल है इस माँ के दुःख में

इन बिलखते बच्चों के रुदन में!


रचना : 19/08/2021

3).

छत पर चिता //


इच्छाओं की इमारतें भहरा रही हैं

गम के गड्ढे में

इनसानियत देख रही है

तालिबान की आँखों में बढ़ियाई हुई है नदी


व्यवस्थाएं ख़ुश हैं

अपने अपने  मत पर


ढेर सारी आत्मा डूब चुकी हैं रक्त में

बची हुई डूब रही हैं 

आँसुओं में


आह! श्मशान घाट पर नहीं

न ही सड़क पर

लाशें जल रही हैं छत पर!


मेरे गुरु की गली में कीचड़ है

कमल उगेगा या नहीं

पर काशी में जिसका चिह्न है 

वह साला लीचड़ है


लोकतंत्र के लाल रंग में रंगा हुआ लंपट है

उसके द्वारा भाषणों में फेंका गया

आश्वासन का शब्द

दुःख के दरवाजे की चौखट है!


मेरी कविताएँ यात्रा कर रही हैं

शहर से गाँव की ओर

गड़ही में खिली है कुमुदिनी

और खिले हैं चहुंओर अनेक प्रकार के फूल

मुरेड़ पर बैठी हुई चिड़िया 

सुना रही है अपना हालचाल


इस गोधूलि वेला में 

धुएँ के साथ धूल

बारिश के विरुद्ध 

जा रही है वहाँ 

जहाँ उसे जाना है


खैर जैसे जंगल का शहंशाह

जब हथनी के बच्चे का करता है शिकार

तब वह चिंघाड़ती है

पूरी ताकत के साथ


ठीक वैसे ही

चिता के पास चिंघाड़ रही हैं इस समय हिलोरें!


रचना : 18/08/2021

4).

बाढ़ में बेचारा//


आने और जाने के बीच है

खतरनाक क्रिया का क्रंदन

कवि, कोविद और किसान के नयन में 

बढ़ियाई नदी का नहीं हुआ अभिनंदन


देख रही है कविता

और देख रही है

कि सीढ़ियों पर से जा रहा है सावन

जहां वसंत की प्रतिक्षा में बैठे हैं श्रीप्रकाश शुक्ल


संवेदना की सरिता में आई बाढ़

एक न एक दिन लौट जाती है

पर आँसुओं की बाढ़ डटी रहती है

ज्यों का त्यों दिल के दरवाजे पर


दिमाग का दीया जला रहा है दृश्य

मनुष्यता की मणि चमक रही है चहुंओर 

जिसकी किरणें तैर रही हैं नदी में

जहां स्नेह के गेह में फैल रहा है  उजास


हवा के विरुद्ध

उम्मीद की उमंग खे रही है नाव

घाव ताजा कर लौट चली है धार

अपने गंतव्य पथ पर


पर आह!घाट  'बेचारा' पर दोहरा घात

जहां गुरु के सजल नयन में देख रहा हूँ

कि  इस बार भी

आश्वासन की कटिया में चारा गूँथकर

उसे मारा जाएगा

बेमौत मछली की तरह


घर पर नहीं

इसी घाट पर


क्योंकि घर जो है उसका 

वह तो ढह गया है!


रचना : 17/08/2021

                                                              {संपादक : गोलेन्द्र पटेल}

नाम : गोलेन्द्र पटेल

{युवा कवि व लेखक : साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक}

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com












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