Golendra Gyan

Thursday, 18 November 2021

2. अंतर्दृष्टि के अन्वेषी कवि हैं अनिल कुमार पाण्डेय : गोलेन्द्र पटेल

2. अंतर्दृष्टि के अन्वेषी कवि हैं अनिल कुमार पाण्डेय : गोलेन्द्र पटेल



समय का सूर्य पहाड़ की आड़ में छुपता हुआ नज़र आ रहा है और साँझ आ रही है हमारी ड्योढ़ी की ढिबरी से बतियाने। रोशनदान से देख रहा हूँ। रात रो रही है। चाँद चिहुँक रहा है। तारे तकलीफ़ में सिसक रहे हैं। उल्का गिर रही है नीचे और हवा हँस रही है। मेरे भीतर भयंकर युद्ध छिड़ा है। जहाँ अनूभूति की अभिव्यक्ति की चाहत में शब्द का शस्त्र लेकर दौड़ रही है संवेदना और उसका समय की सत्ता से संग्राम जारी है। बिल्ली मेरे हिस्से का दूध पीकर ख़ुश है। परंतु दादा के दिमाग की दही जमा रहे हैं कुत्ते। द्वन्द्व व्यंग्य की बात सुनकर कुछ समय के लिए रूक गया है। बच्चे उड़ा रहे हैं खिल्ली नये विचारों और नवीन स्थापनाओं का। मैं भी हवा की तरह उनके पास से हँसता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ। सोच रहा हूँ कि अनिल कुमार पाण्डेय की आगामी पंक्तियों की आँच आज की सरसराहट में सुबह से शाम तक बनी रही है। जिसकी वजह से मेरी देह थोड़ी गरमी महसूस कर रही है और मेरा दिल दुहरा रहा है कि "समय और मेरे बीच का युद्ध समाप्त हो गया है/ कभी कभी आता है ऐसा विचार/ हँसता हूँ और आगे बढ़ जाता हूँ।" आगे बढ़ने के संदर्भ में मेरे गुरु श्रीप्रकाश शुक्ल भी अपने आत्मकथ्य में कहते हैं कि "मैं राह के पत्थरों से नहीं टकराता और न ही उन्हें तराशने की कोशिश करता हूँ लेकिन जहां स्पन्द देखता हूँ, फिर वह कंकड़ ही क्यों न हो, उसे उठाकर समष्टि गत चित्त की धारा में रख देता हूँ। अब वह बहे या रहे, उसे तय करना है।"  विचारों के ब्रम्हांड में मेरे मन का घोड़ा दौड़ रहा है। पर उसका पूरा पैर है धरती पर। वह देखना चाहता है जन-जमीन-जंगल और जल को। पूरी की पूरी सृष्टि चेतना की आँखों में नाच रही है। एक कुम्हार कवि की भूमिका निभा रहा है। उसकी परिवेशगत संलग्नता मानवता की मिट्टी खाच रही है। चिंतन का चाक चल रहा है अपनी धुरी पर। मैं विचारों की दुनिया से बाहर की बस्ती में झाँक आना चाहता हूँ। जैसे कवि व लेखक अपनी खुली आँखों से भ्रमण कर रहे हैं भूख के भूगोल में। जहाँ अक्सर होता है भय का जन्म। जहाँ अक्सर होती है मृत्यु की मचान। जहाँ के चूल्हे में अक्सर जलती हैं मसान की अधजली हुई लकड़ियाँ। ऐसे स्थानों पर मैं भी दौड़ कर जाना चाहता हूँ और अपने आत्मीय कवि अनिल पाण्डेय की तरह पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाना चाहता हूँ। वे कहते हैं कि "दस कदम दौड़ लगा आना चाहता हूँ / पूरे परिवेश में।"  यहाँ आप दस कदम दसों दिशाओं के लिए कवि का वामन अवतार रूपी मावनवीय जिजीविषा का एक-एक कदम समझे तो बेहतर है। अपने वातावरण का वास्तविक दुःख देखना है तो कुछ पल के लिए अपनी पुतलियों को पत्थर करना ही होगा।


दुःख देवताओ की तरह सार्वभौमिक होता है। देवगण भले ही कोरोना के कहर से डरकर अपने केत में कैद थे। परन्तु दुःख सबकी ख़बर लेता रहा। सबके पास जाता रहा। लोग सबको अपने पास आने से रोक सकते हैं परंतु इसे नहीं। यह बहुत बेहया और असंवेदनशील होता है। यह किसी का नहीं सुनता है और किसी का परवाह नहीं करता है। पूरी सृष्टि इसकी चपेट में है, हम कह सकते हैं कि कब्जे में है। यह जहाँ चाहे वहाँ राज करे। मैं तो इसे संकट का सम्राट कहता हूँ और इसकी सम्राज्ञी किसी भी बिमारी को। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि महामारी इसकी राजमाता होती है। इसकी वजह से प्रत्येक जीव परेशान रहते हैं। इसे दूर से ही देखकर सुख मनुष्य का साथ छोड़ देता है। वह अपने समय से पहले ही भाग जाता है। कहीं किसी अज्ञात स्थान पर। मैं भी मानता हूँ कि होनी को कोई टाल नहीं सकता है परंतु दुःख को दूर से देखकर हम अपने सुख को समय से पहले नहीं जाने की सौगंध तो ले ही सकते हैं। सौगंध हमें सुख की सड़क पर चलना सीखाती है और संघर्ष के सफ़र में शक्ति देती है। जिसे जिद कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है। यदि आप में जिद है तो आप कोई भी जंग जीत सकते हैं। अतः जहाँ जिद है वहीं जीत है। जिसे लक्षित करते हुए अनिल कुमार पाण्डेय कहते हैं कि "ठीक है कि दुःख का आना/ रोक नहीं सकता कोई/ सुख को न जाने देने की जिद अपनी है।" 


©गोलेन्द्र पटेल


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Wednesday, 17 November 2021

अंतर्दृष्टि के अन्वेषी कवि हैं अनिल कुमार पाण्डेय : गोलेन्द्र पटेल

 अंतर्दृष्टि के अन्वेषी कवि हैं अनिल कुमार पाण्डेय// गोलेन्द्र पटेल



मेरे गाँव से बनारस में बहुत से लोग राजगीरी का काम करने जाते हैं। बनारस में ही मेरे पिता भी मजदूरी करते हैं। वहीं उनके काम पर एक राजगीर उनसे कहता है कि आपका लड़का फेल हो गया है और मेरे फेल होने की यह झूठी सूचना उस मिस्त्री को वहीं पर काम करने वाला मेरे गाँव का एक सज्जन मजदूर ने अतिशयोक्ति भरी बात-बात में दी। इस सूचना को सच मानकर पिताजी घर आते हैं और माँ को बताते हैं कि मैं बी.ए. में फेल हो गया हूँ। रातभर माँ पर क्या बीती होगी इसका अनुमान आप खुद लगा सकते हैं। जब सोकर उठा तो तुरंत माँ ने सहजता से कहा कि सुना है। तुम फेल हो गए हो? बेटा! क्या यह सच है? मैं कुछ देर शांत रहा फिर धीरे से कहा कि हाँ। जबकि इस बात को सुनते ही मेरे हृदय में हँसी की हिलोरें उठने लगी। लेकिन मैंने उसे भीतर ही दबाते हुए अपने चेहरे पर चिंता की रेखा खींची। जिसे देखकर माँ को यकीन हो गया कि मैं फेल हो गया हूँ। खैर, मनुष्य कब तक हँसी को कंट्रोल करेगा? हँसना तो तय था और खुब हँसा, जी खोलकर हँसा। माँ की दशा को देखकर आँखों का रस टपकना चाहता था। परन्तु उसी समय अनिल कुमार पाण्डेय की आगामी कुछ पंक्तियाँ याद आईं। वे कहते हैं कि "स्वप्न माँ का था/ अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊँ/ इच्छा भाईयों की थी/ संभालने लगूँ कुछ ज़िम्मेदारियाँ/ गुरुओं ने चाहा था/ योग्यता का क्षरण न हो किसी भी रूप में/" और फिर क्या था इन पंक्तियों पर विचार करने लगा। 'फेल' के फलक पर युवा पथप्रदर्शकों का प्रकाश दिखाई देने लगा। जहाँ से मेरी यात्रा शुरू हुई। वहीं पर मेरी इच्छाएँ और जिज्ञासाएँ एक साथ दौड़ने के लिए उद्धत हुई। मैंने महसूस किया कि अँधेरे में आदमी की चाल उजाले की अपेक्षा तेज हो जाती है और योग्यता की शक्ति सड़क पर पथिक की गति को खुद-ब-खुद बढ़ती है। चाहे भले ही सड़क पैदल चलने के अनुकूल न हो। लेकिन जब हम सफ़र में बुरे समय से संघर्ष करते हुए आगे बढ़ते हैं। तब उम्मीद की उर्जा हमें हमारे लक्ष्य तक कभी न कभी पहुँचाती है। इस बात की पुष्टि मैं अनिल पाण्डेय की आगामी पंक्तियों कर रहा हूँ। वे लिखते हैं कि "अब निकले हैं कदम/ पहुंचेंगे तो ज़रूर/ कहीं न कहीं समय से/ या फिर अपने स्वभाव में देर से ही सही"


भारतीय लोक संस्कृति में प्रसिद्ध है कि माँएँ सुबह सुबह स्नान कर के एक लोटा जल का अर्घ्घ सूर्य या तुलसी को देने के बाद उनसे अपने संतान के लिए सुख-सुविधा मांगती हैं। इस एक लोटा अर्घ्य के द्वारा माँओं में संतानों की सरकारी नौकरियां और पदोन्नति की चाहत दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। पर इस संदर्भ में मैंने कभी भी अपनी माँ को अर्घ्य देते हुए नहीं देखा है। हाँ, नवरात के दिनों में जब गाँव की सभी माताएं देवियों को पानी देती हैं तो मेरी माँ भी धार, कपूर व फूल वगैरह लेकर उनके साथ जाती है। गाँव के कुछ लोक देवी-देवताओ का नाम माँ से सुना हूँ जैसे कि जीउतिया माई, सम्मो माई, कोटि माई, बनसत्ति माई, भवानी माई, डीह बाबा, बरम बाबा, दइतरा बाबा, चकिया बाबा, तीन तड़वा बाबा इत्यादि। वैसे मेरी माँ नियमित पूजारिन है पर मिट्टी के चूल्हे का, जिसे वह रोज सुबह लीपती पोती है। माँ चूल्हे की राख उठा रही है। पिताजी आते ही पूछ रहे हैं कि रिजल्ट कैसा है? कहीं फेल तो नहीं हो गए। उन्हें चक्की से आटा लाने जाना था इसलिए कोई मजाक नहीं, क्योंकि ऐसे प्रश्न पर पिता से मजाक भारी पड़ सकता है। यही सोचकर तुरंत कहा कि नहीं, मैं पास हूँ। तभी टपाक से टपक पड़े एक भाई साहब। वे कह रहे हैं कि अनिल कुमार पाण्डेय कौन हैं? चर्चा परिचर्चा में किसी का परिचय पाना अच्छी बात है। परंतु भाइया जी का फार्म भर भरकर एम.फिल. तक पहुंचने की यात्रा में छूपी जिज्ञासा जब बीच में टोकती है तो कुछ खटकता है कि वे हिंदी के कितने महान विचारक व चिंतक हैं। बहरहाल बड़े हैं इसलिए मेरी बेबसी गई तेल लेने। उन्हें बताना पड़ा कि अनिल पाण्डेय कौन हैं। बताने की प्रक्रिया में एक वाक्य अनायास ही निकला है पर है महत्वपूर्ण। वह यह है कि कविताई अवनि की अंतर्दृष्टि के अन्वेषी कवि हैं अनिल कुमार पाण्डेय।


सुबह का संवाद शब्दबद्ध कर रहा हूँ। तो सोच रहा हूँ कि ये मानवीय रिश्ते-नाते-संबंध ही जीवन का बुनियादी आधार होते हैं। जो हमारी मनुष्यता को दीर्घजीवी बनाते हैं। घर परिवार रिश्तेदार सब के सब इस आधार पर टीके हैं और इसकी केंद्रीय बिंदु पर समाज का वह खूँटा है जिससे हम सब बँधे हैं। जहाँ दुनिया सुख दुःख में एक दूसरे से बातें करती हैं। वहीं इस महामारी के दौर में बातें तो दूर की बात है। हम अपने सगे संबंधियों को ठीक से याद भी नहीं करते थे कि कहीं हमारी वजह से किसी को हुँटकी न आया जाये और वह चला न आये कोरोना को लेकर हमारे पास। फिर भी इसी समाज का सबसे संवेदनशील प्राणी कवि व लेखक अपने सगे संबंधियों को याद करते थे। वे उन्हें उन लोगों को भी याद करते थे जिन्हें व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानते थे। मौका मिलने पर कोरोना से कुश्ती भी लड़ते थे। कई कवियों व लेखकों को

कोरोना ने पटका तो कई कवियों ने कोरोना को। मेरे अत्यंत आत्मीय कवि मंगलेश डबराल को कोरोना ने पटक पटक कर मारा है, तो वहीं मेरे प्रिय मार्गदर्शक व कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव ने उसे पटक पटक कर उस पर विजय पाई है। संभवतः जब वे चारपाई पर थे तब वे यादों के यात्री रहे होंगे। यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि जब मनुष्य स्मृति के सागर में डुबकी लगता है तो उसका परिवेशगत प्रेम पहले की अपेक्षा बढ़ जाता है। उसके सृजनात्मक संसार में प्रेम का प्रसार होता है। प्रेम मनुष्य की रक्षा करता है और परिवेश की रक्षा करने की सलाह देता है। प्रेम का होना, जीवन के जागतिक जगत का होना है। यह हमें जागते हुए गंतव्य तक जाने की प्रेरणा देता है। इसी दिशा में अनिल कुमार पाण्डेय की दीर्घदृष्टि दौड़ती हुई कहती है कि हमें उन्हें याद करना चाहिए, जो हमारी जिंदगी की नाव का निर्माण करते हैं। कम से कम उस वक्त अवश्य याद करना चाहिए, जब नदी में उफान हो और उस पार जाने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़े। ऐसी परिस्थितियों में अनिल पाण्डेय की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं कि "सोचा कि याद कर लूँ एक बार/ घर परिवार, नात रिश्तेदार सगे सम्बन्धियों को/ याद अक्सर जो करते हैं मुझे/ समय इतना नहीं कि कह सकूं उन्हें/ मैं तुम सबके साथ हूँ/ प्रेम भाव पहले से कहीं /अधिक है इधर के दिन/ कई बार सोचा बता दूं/ आज तक बस सोच रहा हूँ सोचता जा रहा हूँ।"


आज यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में साथ खड़े होने वाले बहुत कम कवि व लेखक हैं। ऐसे में यदि कोई कवि या लेखक केवल खड़ा ही नहीं, बल्कि साथ साथ सहयात्री बनकर चल रहा है तो वह निश्चय ही पाठकों के स्मृतियों में जिंदा रहने वाला कोई कोरोजयी ही है।


©गोलेन्द्र पटेल


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Saturday, 13 November 2021

गोलेन्द्र पटेल को रविशंकर उपाध्याय स्मृति युवा कविता पुरस्कार-2022

 गोलेन्द्र पटेल को रविशंकर उपाध्याय स्मृति युवा कविता पुरस्कार-2022

      (डॉ. रविशंकर उपाध्याय)

बी .एच .यू . ‘हिंदी विभाग’ के शोध छात्र रहे युवा कवि डॉ. रविशंकर उपाध्याय की स्मृति में प्रति वर्ष दिया जाने वाला 'रविशंकर उपाध्याय स्मृति युवा कविता पुरस्कार :2022 , खजूरगांव,चंदौली,उत्तर प्रदेश के रहने वाले युवा कवि गोलेन्द्र पटेल को  दिया जायेगा। 5 अगस्त 1999 को जन्में  गोलेन्द्र पटेल वर्तमान में कला संकाय बी.एच.यू. में स्नातक के छात्र हैं।वे साहित्यिक रुचि रखने वाले सचेत रचनाकार और वर्तमान युवा कविता के उभरते हुए एक संभावनशील युवा कवि हैं।उनकी काव्य रुचि और रचनात्मकता को ध्यान में रखते हुए इस समिति के निर्णायक मण्डल ने उन्हें इस वर्ष के पुरस्कार के लिए चुना है।

(कवि गोलेंद्र पटेल)

इस पुरस्कार का निर्णय महत्वपूर्ण कवि मदन कश्यप (दिल्ली), प्रतिष्ठित आलोचक अरुण होता (कोलकाता), प्रसिद्ध कवि अरुण कमल (पटना), चर्चित कथाकार अखिलेश(लखनऊ) और  महत्वपूर्ण कवि श्रीप्रकाश शुक्ल(वाराणसी) की समिति ने सर्वसम्मति से किया है।यह पुरस्कार 12 जनवरी 2022 को रविशंकर उपाध्याय के जन्मदिन पर बनारस में आयोजित एक कार्यक्रम में दिया जायेगा।

(आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल)

निर्णायक मंडल के  सदस्य के रूप में गोलेन्द्र पटेल  के नाम की अनुशंसा करते हुए महत्वपूर्ण कवि श्रीप्रकाश शुक्ल ने लिखा  है कि -'युवतर पीढ़ी के कवियों में गोलेन्द्र पटेल एक समर्थ व ऊर्जावान कवि के रूप में अपनी कविताओं से चकित करते हैं। उनके यहाँ एक असहाय आदमी का दुःख तो है लेकिन इस दुःख पर विजय की आकांक्षा भी है।उनकी कविताओं की भावभूमि व भाषा हिंदी कविता में धूमिल की याद दिलाती है ।कह सकते हैं कि निराशा में निराकरण के कवि के रूप में लक्षित किये जाने योग्य गोलेन्द्र हिंदी कविता के शानदार भविष्य हैं जिनके यहां संवेदना का विस्तार और अभिव्यक्ति का  संघर्ष  चकित करता है।'


ध्यातव्य है कि प्रतिभाशाली युवा कवि डॉ. रविशंकर उपाध्याय का 19 मई 2014 को बी .एच .यू .के अस्पताल में तीस वर्ष की अवस्था में ब्रेन हैमरेज से निधन हो गया था। वे छात्रों के बीच काफी लोकप्रिय थे और बी. एच. यू. में 'युवा कवि संगम' जैसे आयोजन के संस्थापकों में थे। उनका पहला कविता संग्रह "उम्मीद अब भी बाकी है" नाम से उनकी मृत्यु के बाद वर्ष 2015 में प्रकाशित हुआ था। उनकी स्मृति में पहला पुरस्कार वर्ष 2015 में रांची की युवा कवयित्री जसिंता केरकेट्टा को ,दूसरा पुरस्कार  वर्ष 2016 में बलिया के अमृत सागर को, तीसरा पुरस्कार वर्ष 2017 में दिल्ली के निखिल आनंद गिरि को ,  चौथा पुरस्कार वर्ष 2018 में  बलिया  के अदनान कफ़ील दरवेश को, पांचवा पुरस्कार वर्ष 2019 में सीतापुर के शैलेन्द्र कुमार शुक्ल को, छठा पुरस्कार वर्ष 2020 में संदीप तिवारी को तथा सातवां पुरस्कार वर्ष 2021 में दिल्ली के गौरव भारती को दिया जा चुका है।

(डॉ. वंशीधर उपाध्याय)


प्रेषक/

वंशीधर उपाध्याय

सचिव 

रविशंकर उपाध्याय स्मृति संस्थान,वाराणसी

फोन-08448771785


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Thursday, 4 November 2021

जिंदगी ही जुआ है : गोलेन्द्र पटेल

 जिंदगी ही जुआ है//



इस दीवाली पर दुनिया डूब रही है दुःख में। मैं तलाश कर रहा हूँ स्मृतियों के सागर में मानवीय मोती और अँधेरी गुफाओं में मणि। हताश-निराश जनता खेल रही है जुआ-ताश। वे कच्ची उम्र दुखी दिख रही हैं। जिनके घर की पकी उम्र पी रही है दारू-दक्कड़। लक्कड़-फक्कड़ देहाती दोस्त पूछ रहे हैं कि मैं जुआड़ी से जिज्ञासु विद्यार्थी कैसे बना। इस में कोई संदेह नहीं है कि हर किसी की जिंदगी ही जुआ है।लुच्चों-लफंगो की संगत का असर कुछ न कुछ तो जीवन पर पड़ता ही है पर यह एक विचित्र कहानी है। मेरा जन्म गाँव में हुआ है। मेरी देह और दिमाग का विकास खेत में हुआ है। वैसे मैं किसान नहीं हूँ न ही मेरे पिता। हाँ, मेरे पिता के पिता किसान थे पर मेरे पिता मजदूर हैं और मेरी मजबूरी थी खेतों में खटना। मेरी बाललीला में गँवई खेल के साथ खुरपातीपन के रंग भी शामिल रहे हैं। यहाँ गँवई खेल का आशय है गुल्ली-डण्डा, गोली-कौड़ी, होला-पाती, गाजर-गुजरिया, लुक्का-छीपी, आइस-पाइस, डाकू-पुलिस, खो-खो सो-खो, कबड्डी-सबड्डी, फोटो-सोटो, जुआ-ताश, तुल-भाई-तुल, हाँकी व सटर्रा आदि और खुरपातीपन यानी होलिका माई में किसी की टाटी-छप्पर को झोंकना, किसी के खेत में रात को धावा बोलना, किसी के पेड़ का फल-फूल तोड़ना, किसी के ब्याह में बिना नेवता का भोजन करना आदि। मैं अपने खुरपातीपना की वजह से बहुत डांट खाया हूँ। मेरी माँ अँगूठा छाप है पर पिता दस्तख़त करना जानते हैं। पिता पिटते नहीं थे पर माँ खुब पिटाई करती थी। यहाँ तक की रात में घर से भगा देती थी। लेकिन मैं भी कम टेकी नहीं था। घर से निकल जाता था। रात भर पड़ोसी दोस्त के यहाँ सोता था। यही किस्सा सभी साथियों का था। सब एक-दूसरे के घर ऐसे हालात में सोते थे। जब मुझे दोस्तों के साथ गुल्ली-डंडा या कोई अन्य खेल खेलना होता था तब मैं शौच का बहाना बनाता था। जब टीवी देखना होता था तब किसी मंदिर पर रामकथा सुनने जाने का। खैर, माँ मुझे पढ़ाना चाहती थी पर माँ को 'क', 'ख' , 'ग' , 'घ', 'ङ'.... पूरा अक्षर नहीं आता था। अंग्रेजी वर्णमाला भी नहीं आती थी और न ही पहाड़ा वगैरह। 


पिता भी पढ़ें लिखे नहीं हैं इसलिए पढ़ाते कम थे। पर हर-किर्तन और रामकथा सुनने के लिए दूर-दूर दूसरे गाँव में ले जाते थे। मैं तो केवल हलवा-पूड़ी और प्रसाद खाने के चक्कर में जाता था। मेरे कुछ मित्र जो मेरे साथ गाय-भैंस चराते थे। वे बहुत हरामी थे। जो  राम-कृष्ण के भक्त उनके आगे बैठकर कथा सुनते थे। वे सब पीछे से उनका कूरता काट देते थे। मैं जहाँ भी उन मित्रों के साथ रामकथा सुनने गया हूँ। देखा हूँ कि वे सब ब्लेड लेकर जाते थे और अपना खुरपाती हुनर दिखाते थे। बचपन में फोटो-ताश के लिए शिवरात्रि का मेला प्रसिद्ध था। वहाँ सभी दोस्त यह खेल जमकर खेलते थे। मुझे याद है कि एक बार शिवरात्रि के मेला में ही एक मित्र कोहड़वा वाली मिठाई चुराकर भाग रहा था और ठीक भारतीय स्टेट बैंक के सामने उस ठेलेवाले का लड़का जो कि हमउम्र का था। उसे पकड़ लिया था और संजोग से मैं वहीं खड़ा होकर किसी अन्य मित्र का इंतजार कर रहा था। आखिर बचपन में पडोसी ही मित्र होते हैं। कौन गलत है कौन सही? इस पर बिना विचार किये ही ठेलेवाले के लड़के पर टूट पड़ा मैं। उसको पिटने के बाद हम दोनों चले आयें घर। फिर कुछ सालों के बाद ठेलेवाले का लड़का छठवीं कक्षा में मेरा सहपाठी बना। एक साल तक मैं उसके साथ पढ़ा। हम दोनों के बीच कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं हुआ। लेकिन अन्य लड़कों से हुरा-फाइटिंग और उठा-पटक खुब हुआ। मैं सातवीं-आठवीं कक्षा में दूसरे विद्यालय में चला गया और वहाँ भयंकर युद्ध हुआ। विद्यालयों में युद्ध का कारण तो आप लोग जाते ही हैं। इस भयंकर युद्ध में दो गाँव झोंका गये थे। बहरहाल बचपन से ही पिता के साथ माइनस (इस जुआ में चार लोग एक साथ खेलते हैं। प्रत्येक को तेरह-तेरह ताश के पत्ते मिलते हैं।) खेल रहा था। 


जब मेरे घर दो जुआड़ी आते थे तब तीसरे जुआड़ी पिताजी होते थे और चौथा स्वयं मैं था। मैं उन्हें कई बार हरा भी देता था। ताश का लगभग सभी खेल खेला हूँ; जैसे कि तिरेल (तीन पत्ते), नहला-दहला-पक्कड़-पक्कड़, माइनस, जोड़ पत्ती और खींच पत्ती आदि। अतः आज से लगभग सात साल पहले मैं पक्का जुआड़ी था और प्रतिदिन खेलता था। यानी मैं नवीं कक्षा से जुआ खेलना छोड़ दिया हूँ। मैं जुआ के पास जाता भी नहीं हूँ पर जुआ मेरे पास आता है। जब मैं परीक्षा हाल मैं बैठता हूँ तब भीतर का जुआ जाग जाता है और मैं अपने पिता जी को कोसने लगता हूँ कि जिनसे आज मेरा कंपटीशन है जब इनके पिता इन्हें पढ़ना-लिखना सीखा रहे थे। इनके भावी भवन की मजबूत दीवार खड़ा कर रहे थे तब मेरे पिता मुझे जुआ खेला रहे थे और मेरी जिंदगी को जुआमय कर रहे थे। यहाँ एक बात तो तय है कि कोई जन्म से जुआड़ी नहीं होता है। वह अपने परिवेश से सीखता है या फिर मेरी तरह अपने परिवार से। मेरी नज़र में जुआ खेलना गलत नहीं है बस जुआ से जीवन का पतन वाली स्थिति न हो। जुआ तो श्रीकृष्ण भी खेलते थे पर वे जब खेलते थे तब जीतते थे। क्योंकि वे मनुष्य नहीं थे। मनुष्य तो धर्मराज युधिष्ठिर थे, जो अपनी पत्नी तक को इसी जुए में हार गये। जिसे आप उनके जीवन का कलंक कहो या फिर पतन। पर मनुष्यता की प्रकृति तो यही कहती है कि जुआ जीवन के लिए खतरनाक सिद्ध होता रहा है। जनतंत्र में जुआ खेलना अपराध माना जाता है। लेकिन लोकतंत्र में लोग खेल रहे हैं। बस ताश की जगह कुछ और है। जिसे हम सब जाते हैं कि वह क्या है।


दीपोत्सव तो असल में जुआड़ियों का उत्सव ही है। जहाँ देखो वहाँ जुआ हो रहा है। बाजार के भाव से लेकर संसद भवन तक नज़र दौड़ाई तो यही दिखेगा कि राजनीति व पूँजीपतियों की प्रत्येक चाल पर प्रजा की शक्ति क्षरित हो रही है अर्थात् जनता जिंदगी की ज्योति जुआ में हार रही है। जीवन के पथ में प्रजा की जिजीविषा का जन्म होने पहले ही उसकी भ्रूण हत्या हो जा रही है। जुआ बहुतों को जहर देता हुआ, मुझे दिखाई देता है। मैं उसे खाने से किसी को रोक नहीं पाता हूँ। किसी को रोकना उसके रोष को जगाना है और समझना उससे झगड़ा करना है। जुआ की जगह पर विचित्र बात यह है कि जुआड़ियों के पास नोट दस रुपये का हो या हजार रुपये का। उसे आप उनके पैरों तले दबते हुए देखते हैं और उनके मुँह से गालियाँ गीता के श्लोक की तरह उच्चरित होती हैं। अगल-बगल की धरती सुरती, सर, एवन, गुटका व पान की पीक से प्रकाशित हो रही होती है। हर गेम में एक जुआड़ी खड़ा-खड़ा कहता है कि इतना तू मान जा, शेष मैं मान रहा हूँ। यहाँ मानना असल में अपनी ताकत दिखना है। जिसकी वजह से लोग आपकी हिम्मत की दाद देते हैं।


जीतने वाले की प्रशंसा करना तो हमारी परंपरा रही है। हमें कोई फर्क नहीं पड़ता है कि जीत कहाँ हुई है और क्या जीते हैं। वर-वधू का जुआ हो या फिर ताश का जुआ। जीतने पर खुशी तो सभी को होती है और सभी जीतना चाहते हैं। आजकल जीतने की ललक लोगों में कुछ जादा होती जा रही है। कोई हारना नहीं चाहता है। पर जब कोई हारकर जीतता है तब उसे बाज़ीगर कहा जाता है। बाजीगर होना बहादुर होना नहीं है बल्कि विपरीत परिस्थितियों में दुर्गम पथ का पथिक होना है। मैं ये सब प्रथम प्रश्नकर्ता के सामने बक ही रहा था कि अचानक बिजली चली गई और आवाज आई कि कुएँ की जगत पर दीया लुटने वाला कोई बच्चा जर गया है। एक किसान जो कि पास में ऊख चूह रहा है। वह पूछ रहा है कि क्या हुआ। तो मैं बताते वक्त बात-बात में एक लघु कविता रचकर पढ़ डाली। जिसका शीर्षक है "हुआ"। जिसका संदर्भ उक्त जगत से नहीं है बल्कि उस जगत और जमीन से है। जहाँ से जीवन है। जो कि निम्नलिखित है :-


हुआ//


हुआ यह कि

एक दिन नदी ने कहा 

खेत से

कि मैं उलटकर हो जाती हूँ दीन

और मेरे दुःख को देखकर

वायु हो जाती है युवा


टंग जाता है जिसके कंधे पर जुआ

वह अक्सर है रुआ!


(©गोलेन्द्र पटेल

04/11/2021)

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