जिंदगी ही जुआ है//
इस दीवाली पर दुनिया डूब रही है दुःख में। मैं तलाश कर रहा हूँ स्मृतियों के सागर में मानवीय मोती और अँधेरी गुफाओं में मणि। हताश-निराश जनता खेल रही है जुआ-ताश। वे कच्ची उम्र दुखी दिख रही हैं। जिनके घर की पकी उम्र पी रही है दारू-दक्कड़। लक्कड़-फक्कड़ देहाती दोस्त पूछ रहे हैं कि मैं जुआड़ी से जिज्ञासु विद्यार्थी कैसे बना। इस में कोई संदेह नहीं है कि हर किसी की जिंदगी ही जुआ है।लुच्चों-लफंगो की संगत का असर कुछ न कुछ तो जीवन पर पड़ता ही है पर यह एक विचित्र कहानी है। मेरा जन्म गाँव में हुआ है। मेरी देह और दिमाग का विकास खेत में हुआ है। वैसे मैं किसान नहीं हूँ न ही मेरे पिता। हाँ, मेरे पिता के पिता किसान थे पर मेरे पिता मजदूर हैं और मेरी मजबूरी थी खेतों में खटना। मेरी बाललीला में गँवई खेल के साथ खुरपातीपन के रंग भी शामिल रहे हैं। यहाँ गँवई खेल का आशय है गुल्ली-डण्डा, गोली-कौड़ी, होला-पाती, गाजर-गुजरिया, लुक्का-छीपी, आइस-पाइस, डाकू-पुलिस, खो-खो सो-खो, कबड्डी-सबड्डी, फोटो-सोटो, जुआ-ताश, तुल-भाई-तुल, हाँकी व सटर्रा आदि और खुरपातीपन यानी होलिका माई में किसी की टाटी-छप्पर को झोंकना, किसी के खेत में रात को धावा बोलना, किसी के पेड़ का फल-फूल तोड़ना, किसी के ब्याह में बिना नेवता का भोजन करना आदि। मैं अपने खुरपातीपना की वजह से बहुत डांट खाया हूँ। मेरी माँ अँगूठा छाप है पर पिता दस्तख़त करना जानते हैं। पिता पिटते नहीं थे पर माँ खुब पिटाई करती थी। यहाँ तक की रात में घर से भगा देती थी। लेकिन मैं भी कम टेकी नहीं था। घर से निकल जाता था। रात भर पड़ोसी दोस्त के यहाँ सोता था। यही किस्सा सभी साथियों का था। सब एक-दूसरे के घर ऐसे हालात में सोते थे। जब मुझे दोस्तों के साथ गुल्ली-डंडा या कोई अन्य खेल खेलना होता था तब मैं शौच का बहाना बनाता था। जब टीवी देखना होता था तब किसी मंदिर पर रामकथा सुनने जाने का। खैर, माँ मुझे पढ़ाना चाहती थी पर माँ को 'क', 'ख' , 'ग' , 'घ', 'ङ'.... पूरा अक्षर नहीं आता था। अंग्रेजी वर्णमाला भी नहीं आती थी और न ही पहाड़ा वगैरह।
पिता भी पढ़ें लिखे नहीं हैं इसलिए पढ़ाते कम थे। पर हर-किर्तन और रामकथा सुनने के लिए दूर-दूर दूसरे गाँव में ले जाते थे। मैं तो केवल हलवा-पूड़ी और प्रसाद खाने के चक्कर में जाता था। मेरे कुछ मित्र जो मेरे साथ गाय-भैंस चराते थे। वे बहुत हरामी थे। जो राम-कृष्ण के भक्त उनके आगे बैठकर कथा सुनते थे। वे सब पीछे से उनका कूरता काट देते थे। मैं जहाँ भी उन मित्रों के साथ रामकथा सुनने गया हूँ। देखा हूँ कि वे सब ब्लेड लेकर जाते थे और अपना खुरपाती हुनर दिखाते थे। बचपन में फोटो-ताश के लिए शिवरात्रि का मेला प्रसिद्ध था। वहाँ सभी दोस्त यह खेल जमकर खेलते थे। मुझे याद है कि एक बार शिवरात्रि के मेला में ही एक मित्र कोहड़वा वाली मिठाई चुराकर भाग रहा था और ठीक भारतीय स्टेट बैंक के सामने उस ठेलेवाले का लड़का जो कि हमउम्र का था। उसे पकड़ लिया था और संजोग से मैं वहीं खड़ा होकर किसी अन्य मित्र का इंतजार कर रहा था। आखिर बचपन में पडोसी ही मित्र होते हैं। कौन गलत है कौन सही? इस पर बिना विचार किये ही ठेलेवाले के लड़के पर टूट पड़ा मैं। उसको पिटने के बाद हम दोनों चले आयें घर। फिर कुछ सालों के बाद ठेलेवाले का लड़का छठवीं कक्षा में मेरा सहपाठी बना। एक साल तक मैं उसके साथ पढ़ा। हम दोनों के बीच कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं हुआ। लेकिन अन्य लड़कों से हुरा-फाइटिंग और उठा-पटक खुब हुआ। मैं सातवीं-आठवीं कक्षा में दूसरे विद्यालय में चला गया और वहाँ भयंकर युद्ध हुआ। विद्यालयों में युद्ध का कारण तो आप लोग जाते ही हैं। इस भयंकर युद्ध में दो गाँव झोंका गये थे। बहरहाल बचपन से ही पिता के साथ माइनस (इस जुआ में चार लोग एक साथ खेलते हैं। प्रत्येक को तेरह-तेरह ताश के पत्ते मिलते हैं।) खेल रहा था।
जब मेरे घर दो जुआड़ी आते थे तब तीसरे जुआड़ी पिताजी होते थे और चौथा स्वयं मैं था। मैं उन्हें कई बार हरा भी देता था। ताश का लगभग सभी खेल खेला हूँ; जैसे कि तिरेल (तीन पत्ते), नहला-दहला-पक्कड़-पक्कड़, माइनस, जोड़ पत्ती और खींच पत्ती आदि। अतः आज से लगभग सात साल पहले मैं पक्का जुआड़ी था और प्रतिदिन खेलता था। यानी मैं नवीं कक्षा से जुआ खेलना छोड़ दिया हूँ। मैं जुआ के पास जाता भी नहीं हूँ पर जुआ मेरे पास आता है। जब मैं परीक्षा हाल मैं बैठता हूँ तब भीतर का जुआ जाग जाता है और मैं अपने पिता जी को कोसने लगता हूँ कि जिनसे आज मेरा कंपटीशन है जब इनके पिता इन्हें पढ़ना-लिखना सीखा रहे थे। इनके भावी भवन की मजबूत दीवार खड़ा कर रहे थे तब मेरे पिता मुझे जुआ खेला रहे थे और मेरी जिंदगी को जुआमय कर रहे थे। यहाँ एक बात तो तय है कि कोई जन्म से जुआड़ी नहीं होता है। वह अपने परिवेश से सीखता है या फिर मेरी तरह अपने परिवार से। मेरी नज़र में जुआ खेलना गलत नहीं है बस जुआ से जीवन का पतन वाली स्थिति न हो। जुआ तो श्रीकृष्ण भी खेलते थे पर वे जब खेलते थे तब जीतते थे। क्योंकि वे मनुष्य नहीं थे। मनुष्य तो धर्मराज युधिष्ठिर थे, जो अपनी पत्नी तक को इसी जुए में हार गये। जिसे आप उनके जीवन का कलंक कहो या फिर पतन। पर मनुष्यता की प्रकृति तो यही कहती है कि जुआ जीवन के लिए खतरनाक सिद्ध होता रहा है। जनतंत्र में जुआ खेलना अपराध माना जाता है। लेकिन लोकतंत्र में लोग खेल रहे हैं। बस ताश की जगह कुछ और है। जिसे हम सब जाते हैं कि वह क्या है।
दीपोत्सव तो असल में जुआड़ियों का उत्सव ही है। जहाँ देखो वहाँ जुआ हो रहा है। बाजार के भाव से लेकर संसद भवन तक नज़र दौड़ाई तो यही दिखेगा कि राजनीति व पूँजीपतियों की प्रत्येक चाल पर प्रजा की शक्ति क्षरित हो रही है अर्थात् जनता जिंदगी की ज्योति जुआ में हार रही है। जीवन के पथ में प्रजा की जिजीविषा का जन्म होने पहले ही उसकी भ्रूण हत्या हो जा रही है। जुआ बहुतों को जहर देता हुआ, मुझे दिखाई देता है। मैं उसे खाने से किसी को रोक नहीं पाता हूँ। किसी को रोकना उसके रोष को जगाना है और समझना उससे झगड़ा करना है। जुआ की जगह पर विचित्र बात यह है कि जुआड़ियों के पास नोट दस रुपये का हो या हजार रुपये का। उसे आप उनके पैरों तले दबते हुए देखते हैं और उनके मुँह से गालियाँ गीता के श्लोक की तरह उच्चरित होती हैं। अगल-बगल की धरती सुरती, सर, एवन, गुटका व पान की पीक से प्रकाशित हो रही होती है। हर गेम में एक जुआड़ी खड़ा-खड़ा कहता है कि इतना तू मान जा, शेष मैं मान रहा हूँ। यहाँ मानना असल में अपनी ताकत दिखना है। जिसकी वजह से लोग आपकी हिम्मत की दाद देते हैं।
जीतने वाले की प्रशंसा करना तो हमारी परंपरा रही है। हमें कोई फर्क नहीं पड़ता है कि जीत कहाँ हुई है और क्या जीते हैं। वर-वधू का जुआ हो या फिर ताश का जुआ। जीतने पर खुशी तो सभी को होती है और सभी जीतना चाहते हैं। आजकल जीतने की ललक लोगों में कुछ जादा होती जा रही है। कोई हारना नहीं चाहता है। पर जब कोई हारकर जीतता है तब उसे बाज़ीगर कहा जाता है। बाजीगर होना बहादुर होना नहीं है बल्कि विपरीत परिस्थितियों में दुर्गम पथ का पथिक होना है। मैं ये सब प्रथम प्रश्नकर्ता के सामने बक ही रहा था कि अचानक बिजली चली गई और आवाज आई कि कुएँ की जगत पर दीया लुटने वाला कोई बच्चा जर गया है। एक किसान जो कि पास में ऊख चूह रहा है। वह पूछ रहा है कि क्या हुआ। तो मैं बताते वक्त बात-बात में एक लघु कविता रचकर पढ़ डाली। जिसका शीर्षक है "हुआ"। जिसका संदर्भ उक्त जगत से नहीं है बल्कि उस जगत और जमीन से है। जहाँ से जीवन है। जो कि निम्नलिखित है :-
हुआ//
हुआ यह कि
एक दिन नदी ने कहा
खेत से
कि मैं उलटकर हो जाती हूँ दीन
और मेरे दुःख को देखकर
वायु हो जाती है युवा
टंग जाता है जिसके कंधे पर जुआ
वह अक्सर है रुआ!
(©गोलेन्द्र पटेल
04/11/2021)
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