एक).
कबीर तार्किक हैं
बुद्धिवादी हैं
सत्यवादी हैं
सत्यान्वेषी हैं
सजग-सच्चे साधक एवं जननायक हैं
वे हर चीज़ को तर्क के तेराजू पर तौलते हैं
अब वह चाहे परिभाषिक शब्द हो
या फिर कोई बात
कबीर बुनकर हैं
युगद्रष्टा हैं
क्रांतिकारी हैं
समाज-सुधारक हैं
सामाजिक वैज्ञानिक हैं
निर्गुण भक्ति मार्ग के अनुयायी हैं
वैष्णव भक्त हैं
मानवधर्म-प्रवर्तक हैं
मानवताप्रेमी कालजयी कवि हैं
दार्शनिक हैं
साधना के क्षेत्र में युग-पुरुष हैं
काव्य के संभाव्य स्रष्टा हैं
भ्रमणशील व्यक्ति हैं
सारग्राही संत हैं
और अब कबीर किताबों के भीतर कराह रहे हैं
वे नहीं सोये हैं वाया रात
वे नाथों से प्रभावित हैं
सिद्धों से प्रभावित हैं
बुद्ध से प्रभावित हैं
और हम उनसे!
दो).
मेरे कबीर किसी किताब के कबीर नहीं ,
बल्कि जनमानस के कबीर हैं
इसलिए कोई कितना ही बड़ा कोविद क्यों न हों
मैं उनकी वही बातें ग्रहण करता हूँ
जो लोकमन की कसौटी पर खरी उतरती हैं!
-गोलेन्द्र पटेल
कबीर का करघा : गोलेन्द्र पटेल
विषय :- 'कबीर : कल और आज'सम्मानित मंच एवं प्रिय पथप्रदर्शक गुरुवर श्रीप्रकाश शुक्ल जी, प्रिय गुरुजन एवं सहृदय साथियो! आज कबीर की 625वीं जयंती के अवसर मुझे कुछ बोलने और कविता पाठ का मौका मिला है। यह मेरे लिए अत्यंत हर्ष का पल है।
कबीर को वाणी का डिक्टेटर कहने वाले आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहना है कि 'कबीर की वाणी वह लता है जो योग के क्षेत्र में भक्ति का बीज पड़ने से अंकुरित हुई।' मुझे लगता है कि उस भक्ति के बीज का बीज मैं हूँ।
चौदह सौ पचपन साल गए, चंद्रवार एक ठाठ ठए।
जेठ सुदी बरसात को पूरणमासी तिथि प्रकट भए।
घर गरजे दामिनी दमके बूँदें बरसें झर लाग गए।
लहर तलाब में कमल खिले तँह कबीर भानु प्रकट भए।
कबीर का जन्म 1455 संवत में हुआ या संवत 1456 में या किसी अन्य तिथि-विथि को। मुझे डेट को लेकर फर्क़ नहीं पड़ता। मैं व्यक्तिगत तौर मध्यकाल के किसी भी कवि के जन्म तिथि व जन्मस्थान और उनके निर्वाण तिथि, मृत्यु-स्थान को लेकर ज़्यादा विचार विमर्श नहीं करता हूँ। मेरा मानना है कि कवि का जन्म तब होता है जब उसे कोई दिशा दिखाने वाला मिलता है या कोई पथप्रदर्शक उसे पा जाता है। जैसे कबीर को उनके गुरु रामानंद ने पाया था, या कि कबीर ने रामानंद को। उनके प्रथम मिलन को ही मैं उनका जन्मदिन मानता हूँ। खैर, कबीर के संदर्भ में यह मिलन तिथि भी विवादस्पद है।
कबीर काशी के दूसरे वरिष्ठ कवि हैं जिन्होंने अपने प्रखर व तेजस्वी व्यक्तित्व के कारण न केवल मध्यकालीन भक्ति-साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान दर्ज कराई बल्कि पंद्रहवीं शताब्दी की संपूर्ण सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक व्यवस्था में व्याप्त तमस को अपनी ज्ञान-रश्मियों की आभा से दूर करने का प्रयास किया। कबीर की प्रासंगिकता उनकी वाणी की व्यापकता से है। कबीर की वाणी 'तेरा मेरा मनवा कैसे एक होई रे!' इस दिशा में समानता, सद्भावना और समृद्धि का समाज बनाने के लिए सांस्कृतिक पहल है। कबीर के बारे में किसने क्या कहा है? उन्हें ज़्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए, जो कबीर के परिवेश से आते हैं। जो उनके पेशे से अभी भी जुड़ें हैं। जैसे कि मैं किसी पर ध्यान नहीं देता हूँ।
कबीर भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति के प्रमुख सूत्रधार हैं। वे मृत्युंजय कलाकार हैं और कलाकारों की एक ही जाति होती है मनुष्यता। लेकिन दुःख की बात यह है कि कबीर के अधिकांश अध्येताओं ने कबीर को अपनी-अपनी जाति की आँखों से देखा है और कबीर को अपनी जाति का सिद्ध करने का (कु)प्रयास किया है। वे सब कबीर के कुछ पदों को लेकर हिंदू-मुस्लिम के बीच झुल रहे हैं। जैसे- 'जाति जुलाहा नाम कबीरा। बनि-बनि फिरौं उदासी।।' और 'परिहर काँम राँम कहि बौर सुनि सिख बंधू मोरी। हरि कौ नाँव अभैपददाता, कहै कबीरा कोरी।।' इनमें 'जुलाहा' (मुसलमान) और 'कोरी' (हिन्दू) शब्द उनकी बहस के बीजतत्व के रूप में उपस्थित हैं। किसी ने कोरी को जुगी (न हिंदू न मुसलमान अर्थात् एक भ्रष्ट जाति) बताया, तो किसी ने बनिया, तो किसी ओबीसी। कबीर पेशे से बुनकर थे यानी मध्यकाल के जुलाहे थे। इसलिए मुझे कबीर करघे पर मानवीय चेतना के चादर बिनने वाले कवि नज़र आते हैं। उनकी बुनकरी के ताने-बाने में जीवन के नये गाने और ज्ञान के मोती हैं। जिसे आप 'झीनी झीनी बीनी चदरिया' पद में सुन सकते हैं इस संदर्भ मुझे अपने प्रिय पथप्रदर्शक शब्द-शिक्षक कवि व विभागाध्यक्ष सदानंद शाही जी की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं वे कहते हैं कि
'मुरदों के गांव में सब मर जायेंगे
कबीर नहीं मरेंगे
जब तक संसार जलता रहेगा
कबीर धाह देते रहेंगे
जब तक कागज की लेखी
खड़ी करती रहेगी भ्रम की टाटी
आती रहेगी ज्ञान की आंधी
बैठे ठाले पंडे और पुरोहित
चादर मैली करते रहें-
कबीर का करघा चलता रहेगा
और नई चादर बुनी जाती रहेगी'
कबीर नाथों-सिद्धों की तरह ही बुद्ध से भी बहुत प्रभावित हैं। इसीलिए वे अनुभव पर बल देते हैं।
'तू कहता कागद की लेखी,
मैं कहता आँखिन की देखी।
मैं कहता सुरझावन हारि,
तू राख्यौ उरझाई रे!!'
मेरे मन में कुछ सवाल ये हैं कि क्या हम कबीर के वारिस हैं? हम कबीर को कितना जीते हैं? हमें कबीर पढ़ाने वाले शिक्षक कबीर को कितना जीते हैं? क्या कबीर किताब की चीज़ हैं? आज कबीर के करघे की क्या स्थिति है? आख़िर जुलाहों को अपना जीवन ज़हर क्यों लग रहा है? आख़िर मेरे पिताजी अपने करघे बेच क्यों दिये? इन सवालों का जवाब हम सब को पता है।
आज हमें जरूरत है कि हम कबीर को जीयें। ताकि मुट्ठी भर लोग हमारी जीवटता की हत्या न कर सकें।
अंत में गुरुवर रामाज्ञा राय शशिधर जी के शब्दों में इतना ही कि
'करघा खेत कपास सब चले मौत की रेस।
बुन बुनकर बेहाल हूँ फिर भी नंगा देस।।'
-गोलेन्द्र पटेल (क्रमशः)
आज के क्रान्तिचेता कवि करघे पर
बहुत समय पहले ही कबीर का करघा
कोई चुराया लिया है धरम...
चरखा तो गाँधी तक चला भी
वे बुनकरों पर कविता लिखते हैं
ताकि वे कबीर कहला सकें
कबीर नहीं तो कबीर के वंशज कहला सकें
कबीर होना इतना आसान नहीं है
कबीर इतना आसान होना भी इतना आसान नहीं है
कबीर हिंदी के पहले क्रान्तिचेता कवि हैं न!
वे कबीर पर लिखी कविता किसी ए.सी. कमरे में पढ़ते हैं
वे करघे के 'खाटी-राग' क्या जानें?
वे टेकुए की चुभन क्या जानें?
वे कपास का काला होना क्या जानें?
वे तानी की तान क्या जानें?
वे क्या जानें कि कैसे बुनी जाती है
करघे पर नई चेतना की नई चादर!
वे क्या जानें कि कपड़ों के थान का गान कैसा है
कि मानवीय रेज़े का रंग कैसा है
कि धरती की गति किस ढरकी की गति जैसी है!
वे कबीर के शब्द किताबों से सीखते हैं न?
वे धन्य हैं कि वे कबीर के कोविद हैं
और काशी धन्य है कि कबीर उसके यहाँ के हैं
और हम धन्य हैं कि कबीर पेश से हमारे पुरखे हैं!
(©गोलेन्द्र पटेल / 01-06-2023)
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