Golendra Gyan

Friday, 27 March 2020


नई रोशनी नई धुन
सोमवार, 9 मार्च 2020
काज़ी नजरुल इस्लाम की प्रसिद्ध कविता 'विद्रोही', अनुवाद- सुधा सिंह

बोलो वीर-
बोलो उन्नत मम शीश !
निहारता नत हो हिमाद्री शिखर, तव शीश !
बोलो वीर-
ब्रह्माण्ड के महाकाश को भेद,
चंद्र सूर्य ग्रह ताराओं को पीछे छोड़,
कर भेदन भूलोक, द्योलोक और गोलोक का,
खुदा के आसन सिंहासन को छिन्न कर,
विश्वविधाता के चिर आश्चर्य सदृश, उठा हूँ मैं !
भाल पर मेरे तेज रूद्र का—शोभित, जयश्री का राजतिलक !
बोलो वीर—
चिर उन्नत मम शीश !
मैं चिर दुर्दम, दुर्विनीत, नृशंस,
महाप्रलय का मैं नटराज, मैं साइक्लोन मैं ध्वंस !
मैं महाभय, मैं पृथ्वी का अभिशाप,
मैं दुर्वार,
मैं तोड़-फोड़ कर नष्ट कर दूँ सब कुछ !
मैं नियमहीन, उच्छृंखल,
मैं बहा दूँ सारे बंधन, सारे नियम, क़ानून श्रृंखलाएँ !
मैं मानूं न कोई क़ानून
मैं भरी हुई नौकाएँ डूबो दूँ, मैं तारपीडो, मैं तैरती हुआ खान !
मैं रूद्र, मैं समयपूर्व कालबैशाखी की रौद्र ओला-वृष्टि
मैं विद्रोही, मैं विद्रोही पुत्र हूँ विश्वविधाता का !
बोलो वीर—
चिर उन्नत मम शीश !
मैं झंझा, मैं तूफान,
मैं पथ में जो आए करता चूर्ण ।
मैं नृत्य-पागल छंद ,
निज ताल पर नाचता, मैं मुक्त जीवन आनंद।
मैं वज्र, मैं छायानट, मैं हिंडोल,
मैं चल-चंचल, उछल ठिठक
रास्ते पर चकित अचंभित
चिढ़कर लेता हूँ तीन कूद ;
मैं चंचल – चपल झोंका ।
जब जो चाहता है मन मेरा, मैं वही करता हूँ भाई,
मैं शत्रु को देता हूँ धिक्कार और मृत्यु से करता हूँ लड़ाई ,
मैं उन्माद मैं झंझा !
मैं महामारी, भय हूँ इस धरती का ;
मैं शासन-त्रासन, संहार मैं उष्ण चिर – अधीर !
बोलो वीर—
बोलो चिर उन्नत मम शीश !
मैं चिर दुरंत दुर्मद,
मैं दुर्दम, मेरे प्राणों का प्याला मद - पूरित सदा।
मैं होम – शिखा, मैं अग्नियुक्त जमदग्नि,
मैं यज्ञ, मैं पुरोहित, मैं स्वयं अग्नि।
मैं सृष्टि, मैं ध्वंस, मैं जीवन, मैं मृत्यु,
मैं अवसान, मैं निशावसान।
मैं इंद्राणी-पुत्र, हाथों में चंद्र भाल पर सूर्य
मेरे एक हाथ में मधुर बाँसुरी दूसरे में रण-तूर्य ;
मैं नील-कंठ, व्यथा – समुद्र मंथन का विष किये पान।
मैं व्योमकेश, स्वच्छंद गंगोत्री को किये धारण ।
बोलो वीर—
चिर उन्नत मम शीश !
मैं संन्यासी, मैं सुर-सैनिक,
मैं युवराज, राजवेश में बैरागी।
मैं खानाबदोश, मैं चंगेज़,
मैं अपने अलावा किसी को करता नहीं सलाम !
मैं वज्र, मैं ईशान-विषाण ओंकार,
मैं ईसाफील का श्रृंगार महा हुंकार,
मैं पिनाक-पाणि का डमरू - त्रिशूल, धर्मराज का दण्ड,
मैं चक्र औ महाशंख, मैं प्रणव नाद प्रचंड !
मैं आक्रोशित दूर्वासा, विश्वामित्र का शिष्य,
मैं दावानल की दाह, दहन करूंगा विश्व।
मैं उन्मुक्त हँसी - उल्लास, मैं सृष्टि – शत्रु महात्रास,
मैं महाप्रलय के द्वादस रवि का राहू ग्रास !
मैं कभी प्रशान्त कभी अशान्त अनंत स्वेच्छाचारी,
मैं युवा, नव रक्त मेरा, मैं विधि का दर्पहारी !
मैं प्रभंजन का उच्छ्वास, मैं सागर का महाकल्लोल,
मैं उज्ज्वल, मैं प्रोज्ज्वल,
मैं उच्छल छल-छल जल, चंचल लोल लहरों की पेंग !
मैं द्रौपदी की मुक्त वेणी, तन्वी नयनों की आग
मैं युवती – हृदय का उद्दाम प्रेम, मैं धन्य !
मैं उन्मन मन उदासी,
मैं विधवा - हृदय का करुण विलाप निःश्वास, निरूत्साही का हताश ।
मैं पथवासी औ चिर बेघर की वंचित व्यथा,
मैं अपमानित की मर्म-वेदना, विष-ज्वाल, प्रिय-लांछितों का नव उत्साह
मैं अभिमानी, चिर क्षुब्ध हृदय की कातरता, व्यथा सघन
चित्त चुंबन चौर्य कंपन, मैं युवती का थर थर प्रथम परस !
मैं सलज्ज प्रिया की चकित चाह, चोरी से देखना क्षण-क्षण,
मैं चंचल युवती का प्यार, कंगन-चूड़ी की खन-खन !
मैं चिर – शिशु, चिर किशोर,
मैं अज्ञातयौवना ग्राम बाला का कस – लिपटा आँचल !
मैं उत्तरी मलयानिल उदार पुरवाई,
मैं चारण कवि की गंभीर रागिनी, वेणु बीना पर गाया गीत ।
मैं अतृप्त आकूल प्यास, मैं रौद्र – रूद्र- रवि
मैं मरू प्रांतर का झरना, मैं धरा की श्याम हरित छवि !
मैं तूरीयानन्द उन्मन् , मैं उन्मद् !
मैं सहसा परिचित आत्म , मुक्त बंध !
मैं उत्थान, मैं पतन, मैं बेसुध चित्त चेतन ,
मैं जग तोरण पर वैजयंती, मानव जय केतन ।
दौड़ा करता हूँ झंझा का करताल बजाता,
हाथों में मेरे स्वर्ग और मर्त्य,
ताजी बोरराक और उच्चश्रवा वाहन मेरे
हिम्मत से हूंकारता बढ़ता हूँ आगे !
मैं धरती के सीने पर आग्नेय पर्वत, वाड़वाग्नि, कालानल !
मैं पाताल की उन्मत्त अग्नि-पत्थरों का घर्षण- कोलाहल !
मैं विद्युत गति, लेता ऊँची कूद,
आततायी धरती पर भूकंप वाही मैं।
पकड़ता हूँ वासुकी का फन झपटकर
पकड़ता हूँ स्वर्गदूत जिब्राइल का आग उगलता सर्प,
मैं देवशिशु, मैं चंचल,
मैं धृष्ट, दाँतों से खींचता हूँ विश्व माँ का आँचल !
मैं अर्फ़ियासर की बाँसुरी,
महासिंधु की उत्ताल उमड़-घुमड़।
मैं दे निद्रा का चुंबन, सुलाता हूँ विश्व
निद्रा जो पसरती है मेरी बाँसुरी की तान से
मैं श्याम के हाथों की बाँसुरी।
मैं क्रुद्ध हो दौड़ता हूँ, छूने को महाकाश,
भय से सप्त वैतरणी पार नरक, काँप मंद मलिन हो जाता !
मैं अखिल विश्व का विद्रोह-दूत !
मैं सावन की बाढ़,
कभी बनाता हूँ धरती को वरेण्य, कभी विपुल ध्वंस धन्य-
मैं छीन लाऊँगा विष्णु-वक्ष से युगल कन्या !
मैं अन्याय, मैं उल्का, मैं शनि,
मैं छिन्नमस्ता चण्डी, मैं रण में सर्वनाश,
मैं नर्काग्नि में बैठ विहँसता मधुर हास !
मैं मृण्मय, मैं चिन्मय,
मैं अजर, अमर, अक्षय, मैं ही अव्यय !
मैं मानव, दानव, देवता का भय,
विश्व में मैं चिर-दुर्जेय,
जगदीश्वर, ईश्वर मैं, पुरुषोत्तम सत्य,
मैं ता थैया ता थैया कर दौड़ता फिरता – स्वर्ग-पाताल-मर्त्य !
मैं उन्माद, मैं उन्माद !!
मैंने पहचाना है आज स्वयं को, खुल गए सब बंध मेरे !!
मैं परशुराम का कठोर कुठार
निःक्षत्रिय करूँगा विश्व, लाऊँगा शांति शांत उदार !
मैं बलराम के कंधे का हल।
नव सृष्टि के महानंद से पूरित मैं ,
उखाड़ फेंकूँगा पराधीन विश्व की समस्त अवहेलना।
महाविद्रोही मैं रण-क्लान्त
मैं उसी दिन होऊँगा शान्त,
जब चारों तरफ पीड़ितों का क्रंदन गूँजेगा नहीं-   
अत्याचारियों की खडग्-कृपाण-ध्वनि, भीषण रणभूमि में देगी नहीं सुनाई-
विद्रोही रण क्लान्त
मैं उसी दिन होऊँगा शान्त ।
मैं विद्रोही भृगु , ईश्वर के हृदय पर अंकित करूँगा पद-चिह्न !
मैं स्रष्टा-सूदन, शोक-ताप हर लेने वाली काल्पनिक दुनिया करूँगा छिन्न-भिन्न!
मैं चिर-विद्रोही-वीर-
विश्व को पीछे छोड़ उठा हूँ अकेला लेकर उन्नत शीश !





















सुधा सिंह, प्रोफेसर,हिंदी विभाग,दिल्ली विश्वविद्यालय पर 6:34 am
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2 टिप्‍पणियां:
डॉ रमेश यादव9 मार्च 2020 को 10:27 am
मैम बहुत सटीक अनुवाद हुआ है। जैसा कि मुझे लगा मैं मौलिक रचना पढ़ रहा हूँ। बहुत बधाई मैम💐
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सुधा सिंह, प्रोफेसर,हिंदी विभाग,दिल्ली विश्वविद्यालय9 मार्च 2020 को 7:59 pm
बहुत बहुत आभार आपका रमेश।
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