Golendra Gyan

Friday, 27 March 2020





**जलकुंभी**
अंबर में
बिन डोर के
पतंग-ताव का
तनना
दाहती है
तन!
जीवन-सागर में
बिन पतवार के
भाव-नाव का
तैरना
डाहती है
मन!
उपर्युक्त उक्ति
सोचकर
वो
जलीय-पौधा
जो
दो सप्ताह में
दोगुना होती।
गगनगंगा में
जमी जलकुंभी
भागीरथीनाव
बनना
चाहती है
जन!
तीव्र गति से
आती उमंग
गीत मति से
गाती तरंग
तट तक
जाती तरंग
जलीय संग।
पोखरे में
जलकुंभीनाव से
सैर कर
लौट आयी
किनारे
कवि की कविता।
शब्दशक्ति-सरिता
के पुकारने पर
पर कुछ
नई चेतना
और
नई संवेदना
के साथ
आयी।
स्वागत है
नई कविता का
नई सरिता में
और
नये समाज में।।
-गोलेन्द्र पटेल
रचना : 16-01-2020

1 comment: