Golendra Gyan

Saturday, 11 April 2020

कवि के भीतर स्त्री : गोलेन्द्र पटेल // स्त्री -/- स्त्री चेतना -/- स्त्री साहित्य -/- कविता में स्त्री -/- स्त्री विमर्श

**कवि के भीतर स्त्री**
 भोजपुरी अध्ययन केंद्र 【बीएचयू】 में
अर्चनीय आचार्यों से आशीर्वाद प्राप्त करते हुए गोलेन्द्र पटेल : प्रो.श्रीप्रकाश शुक्ल , प्रो.विजयनाथ मिश्र , प्रो.सुमन जैन , प्रो.चम्पा सिंह, वरिष्ठ नवगीतकार डॉ.इंदीवर जी , डॉ.अभय ठाकुर एवं अन्य।

एक नदी भीतर बहती
एक नदी बाहर

प्रेम गली में कहती
गीत गज़ल चलती
कविता में दुःखी रहती
संघर्ष सुख सहती

द्वीप बीच अकेला हँसती
धूप में धूल महती
डाहती दुनिया से दहती
कर्षित माँ बन वसुमती!!
और नदी त्रासदी में पति
समुद्र के संभोग से रति

शब्द रहस्य पुत्र प्राप्ति
सती समय की गति
समझती सृष्टि में स्त्री यति
सत्यमुर्ति करती ऋति

सरस्वती-सी उसकी मति
बह्मांड ॐ नारी नति
दया करुणा स्नेह ज्योति
भक्ति शक्ति सर्वोन्नति! !
सुबह शाम पूण्य प्रगति
परमार्थ पथ पद्धति

वाष्पित विज्ञप्ति विरचित
प्रकाशित शीर्षक  स्पंदित
स्मृति में आई बन व्यक्ति
उम्मीद ऊपर स्थित

उर्वशी श्रद्धा इड़ा रति
उत्तम उच्च उचित
उदाहरण प्रस्तुत चरित
महाकाव्य में वर्णित!!
प्रसाद व दिनकर कथित
साहित्य निधि कंपित

उपनिषद् की उपस्थित
स्त्री सत्य उपेक्षित
उपदेश वचन-प्रति
आज का नवोदित

प्रगीत नई चेतना चित्त
मीरा सुभद्रा वर्मा हित
चाहती उज्जवल उत्साहित
प्रकृति के साथ रेखांकित!!
सुबह ओस सुधा से
खिली कली  कर्षित

शाम तक रूपरस से
सूरज को  आकर्षित
कर धीरे धीरे अपने
देह को बुढ़ी  करती

सूख  जाते हैं  सपने
भौरों के ,तरंग तैरती
उमंग संग सहानुभूति
रंग   अनंत   अनुभूति।।
लाती लाद पीठ पर
गाती गाद दीठ दर

दुःख व दर्द असहनीय
यथार्थ दृश्य अकथनीय
वैसे घाव है हरती
जैसे नाव है धरती

स्त्री सूचक शब्द अनेक
एक यहाँ से एक वहाँ से फेंक
कभी नीचे से कभी ऊपर से केक
ग्लोबल के गुरिया से काव्य-माला नेक।।
भविता के स्त्रीत्व को पहनाती
नदी नारी पृथ्वी के पास जाती

संवेदना के सुमन का सुगंध सूँघने
या धूप से सूखते शहद को सोखने
साहित्य वाटिका में वटवृक्ष पर
एक विशाल बनाना चाहती घर

जिसे दुनिया कहती मधुमक्खियों की छत्ता
वास्तव में वृक्ष के एकैक कली फूल व पत्ता
समय के संदेश कटोरी में
चापलूसी शब्दों के चोरी में।।
भौरों को भोजन परोस
सुबह शाम परम संतोष

पा ,पाप-पुण्य का युद्ध
भयंकर भूख के विरुद्ध
कर ,काव्य की कहानी
मकरंद-सी मिठी पानी

बन सहृदय उपवन की
प्यास बुझाती मन की
सड़क के रोरी में
माँ की लोरी में।।
स्नेह व ममत्व भरी
आँचल के ओरी में

नवजात के लिए धरी
नव चाशनी डोरी में
ऊषा से आगे अरुणोदय ने
प्रातःकाल उठ महोदय ने

अपने औरत के आँसू ओस
प्रेमरश्मि के किरणों से पोंछ
एक स्त्री का पुरुष से नाता
तीन रूप में गाता विधाता।।
ओ कभी किसी की बेटी
तो कभी किसी की पत्नी

तो कभी किसी की माता
जो नारी से ही नर है आता
वही इन्हें जहाँ-तहाँ परिवार में
पितृसत्तात्मक सत्ता से सताता

जैसे नदी को यहाँ-वहाँ संसार में
औद्योगीकरणवाद के आधुनिक नाले
और भगवती पृथ्वी को प्लास्टिक
भूख के जमीन पर भूखों को काले...।।

न करुणा किसी में न दया
न परोपकार भाव न हया

बस वासना का नामकरण
पहले प्रेम फिर पाणिग्रहण
स्वागत में पति का समर्पण
नयी नवेली दुल्हन का चरण

गृह में लाते ही हर क्षण
प्रताड़ना का पुष्प अर्पण
कुछ दिन में शुरू किया
ससुर ने जो जख्म दिया।।
उसे देखकर स्वर्गीय
सास का साँस अटक गया

स्वर्ग में पुनः एकबार
जैसे मैं आज बनी उनकी असली बेटी
पूर्वजों के पावन धरती पर
निर्दयी निर्लज्ज नाहक ही पटक गया

लक्ष्मी रूपी कच्चा घड़ा को
ऐसे हैं लाज समाज का सड़क पर लेटी


अकेल असहाय गीरे पत्तियों के भाँति
एक चतुर चिड़िया के घोसला में भाति।।
सूखी पत्तियाँ विपरीत परिस्थितियों में
तूफानी बारिश से शिशुओं को बचाती 

वही सूखी पत्तियाँ जो सड़क पर गिरी थी
पतझड़ से पहले ही लकड़हारे के जुल्म से
तंग होकर निःसहाय धरने के लिए
स्त्रियों के साथ घोर अन्याय हो

और पेड़ पर पड़ी रहें चुपचाप पत्तियाँ
यह अब हो नहीं सकता क्योंकि
शिक्षित हैं हरी पत्तियाँ सूखी पत्तियों के स्थान पर
एकजुट हो धरना प्रदर्शन की आन-बान-शान पर।।
नई राजनीति के रास्ते
मान-सम्मान के वास्ते

चुल्हा चौका का ज्ञान
छुपा नहीं सका पहचान
चूरते चावल का अनुभव
शंखनाद की कर्कश रव

सीधे मुख के बाणों पर बैठ
रे मंंतव्य गंतव्य पथ पर ऐंठ
चला परिधि से केंद्र की ओर
रे सन्नाटे में ख़ूब मचा है शोर।।
बात बात में बात को चखी
उल्लू कहती चुप रह सखी

शिघ्र रात ढ़लेगी होगी भोर
देख आया राष्ट्रीय पक्षी मोर
बुलबुल एकटक निहारी उसको
पकड़ रही है बारी बारी नस को

बोली जो पी रही बेचारी रस को
बहेलिया आने वाला है घसको
इस पेड़ से दूर निर्जन जंगलों में
कौन देखेगा दुनिया के दंगलों में।।
सताई हुई स्त्रियों के दर्द को
कौन अच्छा कहेगा मर्द को

जो चिड़ीमार है परिवार में
जो डूब गया है अहंकार में
सो रहे हैं पिता पुत्र पति पोढ़
पुरुष पुरुषार्थ का चादर ओढ़

प्यासे पक्षियों का गागर फोड़
मोक्ष रूपी परम आनंद छोड़
और कुछ नहीं चाहते तिनों
महात्मामहर्षिमर्द इन दिनों।।
लोकतंत्र का खेत कोड़
महामंत्र का जाप जीतोड़

कर रहे हैं महायज्ञ में हवि छोड़
स्त्री चेतना का साहित्य में होड़
इक्कीसवीं सदी का उत्थान है
इतिहासिक पन्नों पर ध्यान है

भावभूमि भविष्य का भान है
स्त्रीत्व इस कविता का जान है
सभ्यता का आचरण औरत
संस्कृति के शरण में बहुमत।।
सत्य वरण भरण-पोषण कर्ता
जगत जननी है दया-धर्म धर्ता

हड़प्पाकालीन मूर्ति मातृसत्ता
मानव विकास का प्रथम पता
पुरातात्विक उत्खनन आदि खोज
कागज़ पर कलम की ताकत रोज़

सत्यविचार-विमर्श व्यक्त कर रहा है
विनय-विवेक विशेष वक्त धर रहा है
समाज के श्यामपट्ट पर धीरे धीरे
माँ-बेटी बच गई खाईं में गीरे गीरे।।
घूँघट के लाज घिग्घी बँधना
कुटुंब नाव का लग्घी रखना

सहधर्मिणी के हाथ खेवाना
नदी बीच पत्नीव्रता ने ठाना
अवनि-अंबर का चुंबन क्षितिज
स्वयं अकेला गवाह बना भिज

प्रेमवर्षा के बूंदाबूंदी में ताक रहा
देखो कैसा परिवर्तन है काप रहा
थरथर-२ ,पुरूरवा गोधूलि वेला में
और पुरुषार्थ प्रेमक्रिड़ा के मेला में।।...

-युवा कवि गोलेन्द्र पटेल

【काशी हिन्दू विश्वविद्यालय विद्यार्थी साहित्यकार】
नोट : उपर्युक्त रचना पक्तियाँ लम्बी कविता "कवि के भीतर स्त्री" से उद्धृत हैं। इस सम्पूर्ण कविता को पढ़ने के लिए इस नंबर 【+918429249326】 पर ह्वाट्सएप करें या golrndrapatel4512@gmail.com पर ईमेल करें।👉🇮🇳🤳निःशुल्क में पढ़ने के लिए आप तक लिंक भेज दिया जाएगा।

रचना प्रकाशित दिनांक : 10-04-2020

जन्म : 05-08-1999

शिक्षा : बी.ए.【बी.एच.यू.】

माता : श्रीमती उत्तम देवी

पिता : श्री नन्दलाल पटेल

काव्यगुरु : प्रो.श्रीप्रकाश शुक्ल【BHU】

आशीर्वाद : माता-पिता-गुरु एवं आपका।
रचनाएँ : कविता का कर्षित कृषक पुत्र हूँ , साहित्य से संस्कार , बैरों से बदला (आत्मकथा) , घास एवं अन्य।
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आत्मीय धन्यवाद!

-गोलेन्द्र पटेल

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