Golendra Gyan

Sunday, 12 July 2020

कोरोना काल की महत्वपूर्ण कविताएँ // कोरोजीवी कविता संग्रह // कोरोजीवी~कोरोजयी // कवि व कोविड // golendra patel


◆कोरोजीवी कविता~कोरोजयी कविता◆
कोरोना काल की महत्वपूर्ण कविताएँ // कोरोजीवी कविता संग्रह : गोलेन्द्र पटेल , बीएचयू~बीए द्वितीय वर्ष.
१.अंतर्कथा//

कविता के वर्तमान पर लाइव बोलते हुए 
एक अतीतोन्मुखी  आचार्य उठने को हुए ही थे 
कि उनकी ढीली ढाली  पैंट से एक पर्ची गिरी 
और मोबाइल पर नाक सटाये हुए एक कवि की तरह 
उस आचार्य को घूरने लगी!

आचार्य निष्कर्ष देने ही वाले थे 
कि अचकचाए 
और अपने कंठिल मष्तिष्क पर  जोर देकर कहे कि इसे भी पढ़ ही दूं
अन्यथा बेचारे बहुत दुखी होंगे!

बेचारे दुखी होंगे 
यह एक कालजीवी वाक्य था 
जो उनके अंतर्मन से  
कालजयी होकर फूट पड़ा था!

यूँ तो आचार्य कवि को दुख -तंत्र से मुक्त करना चाहते थे
लेकिन जाने अनजाने उनकी झोली में दुख टपका ही दिए 
जिसे कवि के अलावा हर किसी ने देखा!

अब जबकि कवि 
इस आचार्य के साथ खुद को जोड़कर 
अपनी कविता में सुख खोजने निकले है
लोग हँस दे रहे  हैं 

कवि को अंत तक पता नहीं चल पा रहा है 
कि लोग हँस क्यों रहे हैं 
जबकि उधर आचार्य हैं  कि सूक्ति लिखने वाले
अपने एक बहुत पुराने कवि शिष्य के साथ
अपनी सनातन शैली में ठहाके लगाये जा रहे हैं
और कवि को बेचारा बताते हुए 
'अंतर्कथा' पर प्रवचन दे रहे हैं!

(18/6/2020©श्रीप्रकाश शुक्ल)

२.कचकचिया(Babbler)//

घोंसला बन रहा है
सृष्टि के विधान में एक नई सांस का उदय हो रहा है

स्पर्श सुख का कहना ही क्या
नेह गान  थिरक रहा है

यह कचकचिया के आगमन  का समय है
जिनके सामूहिक कचराग के बीच 
एक नई संस्कृति आकार ले रही है

सभ्यता  में तमाम सामाजिक  दूरियों के बीच
नजदीकियों का आसमान उतर रहा है

फूलों में रस भरा है
उदास सड़कों पर गुल मोहर खिलखिला रहे हैं

चारों तरफ सन्नाटा है
मगर आस पास के पेड़ों से 
मुँहमुहीं  आवाजें उठ रही हैं

मैं इन आवाजों को सुन रहा हूं
जिसमें एक सन्नाटा टूट रहा है!

(12/06/2020©श्रीप्रकाश शुक्ल)


३.रोटी//

रोटी बन रही है

अनेक के इंतज़ार में
लोई पड़ी है

लोई से रोटी बनने के बीच एक जगह है
जहां उम्मीद है

रोटी रोज़ ही इस उम्मीद के साथ निकलती हैं
लेकिन हलक़ के नीचे उतरने से पहले ही 
बिखर जाती है 

रोटी का बिखरना 
नहीं है कोई घटना

जनता अभी भी सड़क पर है 
और उसके पलट प्रवाह के बीच 
देश आत्म निर्भर हो रहा है

आत्म निर्भर होता देश अब 
रोटियों  से आगे निकल चुका है!

(08/06/2020©श्रीप्रकाश शुक्ल)

४.फोकस के बाहर//

क्या मैं दिख रहा हूँ
जी

क्या आप मुझे सुन पा रहे हैं
जी

तो शुरू करूँ!
नहीं।

क्यों?????
क्योंकि आप बार बार फोकस के बाहर चले जा रहे हैं!

तब?

तब क्या?

पहले फोकस ठीक कर लीजिए
और हिलना डुलना बंद कीजिए

हां, एक बात याद रखियेगा 
ज्यादा हिलना और हिलाना 
फोकस के बाहर जाना है 

भंते,यह वाच पार्टी है
विकल काल का विमल महोत्सव
फोकस के भीतर रहना है तो -

लिखना कम है दिखना  ज्यादा
सिझना कम है  खिझना ज्यादा 
भिदना कम है छिदना  ज्यादा 
सिट पिट कम है गिट पिट ज्यादा

गरदन तो बाद में देखी जाएगी
झुकना जरूरी है
अन्यथा फोकस के बाहर जाने से कोई नहीं बचा सकता!

(5/6/2020©श्रीप्रकाश शुक्ल)

५.डर//

बहुत ताकत बहुत डर पैदा करती है
जो बहुत ताकतवर होता है
डरा होता है!

बहुत ताकत का होना असल में 
बहुत के शोषण से संभव होता है 
और यह शोषण ही बहुत ताकत के तकिए के नीचे दबा होता है
जो डराता रहता हैं

डरने का मुंह हमेशा एक सुरंग की ओर खुलता है
जिसमें  बचे रहने  की आशा से अधिक
बचाये रखने  की निराशा होती है

यह नहीं है कोई साधारण क्रिया
इसकी नाभि में ही अतिरिक्त का आकर्षण है 
जो रह रह कर परेशान करता है!
(2/6/2020:©श्रीप्रकाश शुक्ल)

६.इंतज़ार//

एक दृश्य देखता हूँ
दूसरा उछलने लगता है

एक आंसू पोछता हूँ
अनेक टपकने लगते हैं 

एक क्रिया से जुड़ता हूँ
अनेक प्रति क्रिया कुलबुलाने लगती है

दूर बहुत दूर कोई मां रो रही है
अर्थ तो बचा नहीं
भाषा भी खो रही है

जीवन  महज़ एक घटना बन गया है
अनेक के इस्तक़बाल में!

हाय कैसे कहूँ कि हर क्षण एक  बीतता हुआ क्षण है 
और जो बीत  रहा है
वह किसी अनबीते का महज़  इंतज़ार लगता  है
जिसमें सीझती हुई करुणा 
गुजरते समय की उदासी बन
कंठ में अटक सी  गई है!
(30/05/2020©श्रीप्रकाश शुक्ल)
लौटना//

भूख तो बड़ी थी लेकिन उन्हें सिर्फ पहुंचना था

उन तक पहुंचाए गए सारे आश्वासन अब तक बेकार हो चुके थे
अनुशासन के नाम पर 
उनके पास अब सिर्फ एक जिद बची थी 
कि उन्हें घर पहुंचना है

उनकी जिद व घर के बीच  एक  गहरा तनाव था 
जिसमें घर लगातार निथर रहा था!

मुश्किलें विकराल हो रही थीं  
जिनके  समाधान के लिये वे घर  पहुंचना चाह रहे थे
मानों  ख़ैर ख्वाह यह घर 
उनके ख़ैर -मकदम के लिए वर्षों से खड़ा हो!

उनकी जिद लगातार बड़ी हो रही थी 
और इस जिद में बड़ी हो रही थीं उनकी उम्मीदें
जिसे अब एक घर से ही  संभव होना था 

कितना ताकतवर था यह 'पहुंचना' कि 
एक पथियाई पथरीली जमीन पर कभी सायकिल से  तो कभी पैदल चलते 
ठंडे पानी की तरह बह रहा था  उनके भीतर
जिससे लौटने से अधिक पहुंच पाना संभव हो रहा था

घर लौटने से अधिक पहुंचने के लिए होता है 
यह  तब  पता चला जब वे तप्त सड़कों पर
संतप्त भाव से लौट रहे थे 
और अपनी पुरानी स्मृतियों को सहलाते 
नंगे  पांव उस सड़क पर दौड़ रहे थे 
जिससे कभी वे गए थे।

जाना नहीं  रही अब  एक  ख़तरनाक क्रिया
नई  सदी में लौटने की यह क्रिया 
जाने से  कहीं अधिक  ख़ौफ़नाक  है!

(25/05/2020:©श्रीप्रकाश शुक्ल)

७.बच्चा//

सड़क पर अटैची है
और अटैची पर अटा पड़ा एक बच्चा
जो पहियों के बल सरक रहा है 

बच्चा डोरी से बंधा है
जिसे मां एक टांग से खींच रही है
अपनी दूसरी टांग से सड़क को नापती

बच्चा मां की मदद कर रहा है 
वह चुप्प है
कि ओह!
सब कुछ घुप्प है!

बच्चे की यह चुप्पी उसके खिलखिलाने की आवाज से  ज्यादे बड़ी है!

मां को नहीं पता कि सामान ने बच्चे को पकड़ा है 
या फिर बच्चे ने  सामान को

वह बच्चे की नींद से भी अनजान है 
जिसे जागते हुए कई दिन से खींच रही है

यह लगातार बड़ी होती  जाती एक  खबर है
कि जेठ की इस तपती दोपहरी में 
सड़क के ठीक बीचो बीच एक बच्चा शांत है
और मां की गर्दन की तरह सड़क को
दोनों हाथ से जकड़ रखा है 

सड़क लगातार चौड़ी होती जा रही है 
और बच्चा है कि दूरियों से बेखबर
अपनी पकड़ को मजबूत बनाये हुए है!

आज का यह शांत बच्चा
किसी भी अशांत नागरिक से ज्यादे मुखर है 
जिसमें एक मां लगातार बढ़ी जा रही है  

बच्चा चला जा रहा है 
और चली जा रही है यह माँ भी
जिसके साथ लटक गई है यह कविता 

न तो माँ को पता है 
न ही इस कविता को 
कि इनको  किस पते पर जाना है!
(17/05/2020-©श्रीप्रकाश शुक्ल)

खिलखिलाते गुलमोहर के बीच सर्वविद्या की राजधानी बीएचयू में ,एक अंतराल के साथ व बाद,आज सुबह---

८.गुलमोहर//

धूप खड़ी है
हवा स्तब्ध है

जेठ की धरती पपड़िया गई है
पगडंडियां चिलचिला रही हैं

सड़क सुनसान है
और आदमी अपनी ही छाया में कैद है

एक ज़हर है 
जिसमें पूरी बस्ती नीली हो गई है

बस बचा है केवल गुलमोहर
जो अपने चटक लाल रंगों में  
अभी भी खिलखिला रहा है !
(16/05/2020©श्रीप्रकाश शुक्ल)
केवल हरे बबूल!

इस निर्जन में सब कुछ ठहरा
बासी हैं सब फूल 
सूख गई है मन की काया
केवल हरे बबूल!

कोइलिया जल्दी कूको ना!!

देखो कैसा चांद उगा है
तन का शीतल तप्त हुआ है
गंगा निरमल कल कल छवि में
घाट विहसता जप्त हुआ है

इस उदास सी काया में अब 
जीवन जग संशप्त हुआ है

कोइलिया  जल्दी कूको ना!

श्रमिक चल पड़े आहें भरते
सूनीं सड़कें गुलज़ार हुईं
गिरते पड़ते पहुंचे घर फिर
हलचल गांव में चार हुईं

थके पांव हुलसित  दौड़े जब
आंखें सब बेज़ार हुईं 

कोइलिया जल्दी कूको ना!

घर की मलकिन देख रही है
'वे' आएंगे सोच रही है
चूल्हे पर अदहन डाल हठीली
बातें कुछ कुछ बोल रही है

हुलस उठी तब दौड़ पड़ी पर
भर उदास अब लौट रही है

कोइलिया जल्दी कूको ना!

गौरैया भी  जगी हुई है
तिनका तिनका बीन रही है
सृजन राग  से इस दुनिया में 
जाग , भाग को साध रही है

हुआ सवेरा दौड़ी आयी 
मिला नहीं जो ढूंढ रही है!

कोइलिया  जल्दी कूको ना!

उठी लहर आया एक झोंका
ज़हर हवा ले
कहर रही है
नहीं चहकते कुत्ते बिल्ली
'जन' गायब क्यों 
पूछ रही है

कोइलिया जल्दी कूको ना!

(13/05/2020-©श्रीप्रकाश शुक्ल)

९.फुलसुंघी//

फुलसुंघी घोंसला बना रही है
लटकी हुई लता पर
अपना पता लिख रही है

सदी के तमाम महा वृतांतों को सुनते गुनते 
कई  तरह की हवाई घोषणाओं के बीच
वह निकल पड़ी है
फूलों से 
रस चिचोड़ने 

बाहर सब कुछ विखर गया है
फिर भी वह तिनका तिनका बीन रही है
जिससे उसे छाजन बनाना है

गुजरते हुए वैशाख के बादल बहुत जल्दी में हैं 
आंधियों के बीच छुपे हुए वे 
आकाश  को अपनी लपलपाती हुई तलवार से चीरते हुए 
धरती को बार बार कंपा   रहे हैं 

एक निर्वात सा फैला है जीवन चहुँ ओर
जिंदगी अवसाद की मानिंद खिलखिला रही है 
जिसमें सूखी हुई पत्तियों के बीच
उसने डेरा डाल दिया है

अब वह घेरकर बैठ गई  है अपने हिस्से का आकाश
जिसमें दौड़ेगा एक नया जीवन
सभी विभाजित सीमाओं को ध्वस्त करता हुआ!
(11/05/2020,©श्रीप्रकाश शुक्ल)
कोरोना में कोयल//
(इस विराट सी बबुरहनी  में...)

क्यों बोली तू कोयल!

इस निर्जन के ब्रह्मपास में
विकल काल के नागपास में
भय संचालित चंद्रहास में 
जग जीवन की  रुकी आस में 

शोर मचाती सार सुनाती
क्यों बोली तू कोयल!

शब्द असंख्य के अर्थ भेद में 
श्रमिक जनों के लक्ष्य भेद में
गहन निशा के  प्रात भेद में
रुके रूधिर के स्वांस भेद में

नर काया को नेह लुटाती 
क्यों बोली तू कोयल!

हृदय डाल पर अवलंबित हो
मन की शाख सहित पुलकित हो 
चेतन रस से आप्लावित  हो
बुद्धि मार्ग पर सत भाषित हो

जग मंगल का गीत सुनाती
क्यों बोली तू कोयल!

ऋतु बसंत के पाग छोड़कर
छक रसाल के बाग कोड़कर
खुले गगन के  राग  तोड़कर
रकत नैन के झाग फोड़कर

इस विराट सी बबुरहनी में 
क्यों बोली तू कोयल!

राग विहाग सी होठ हिलाती 
अंगराग सी  गंध पिलाती
दिन उदास के शिथिल परों को
निज गीतों से गति में लाती

जीवन राग सुनाती
क्यों बोली तू कोयल

जो बोली तू कोयल!!

(01/05/2020"©श्रीप्रकाश शुक्ल)

(अपने पड़ोसी प्रिय प्रो. Srikrishna Tripathiश्रीकृष्ण त्रिपाठी और Rakeshwar Singh राकेश्वर सिंह के विशेष अनुरोध पर ये पंक्तियां लिखी गई हैं जो अपने मुहल्ले की 'बबुरहनी' में पिछले पंद्रह दिन से लगातार बोलती हुई कोयल के स्वर से प्रभावित होकर इन्हें लिपिबद्ध करने की बात कर रहे थे।मैँ सीरगोवर्धन के इस काशीपुरम मुहल्ले में पिछले एक दशक से अपने स्थायी आवास में रह रहा हूँ लेकिन चारों तरफ  बबूलों से घिरे इस आवासीय परिसर में इसके  पहले कोयल की ऐसी अहर्निश आवाज कभी नहीं सुनाई पड़ी।अद्भुत है यह समय ।यह भी कोरोना का एक चमत्कार ही है-लेखक)

***


१०.कोरोना में किचेन!
(पत्नी सुनीता के लिए)

एक ऐसे समय में जहां बाहर कोयल कूक रही है
और भीतर तुम्हारा यह कूकर
मैँ मदद करना चाहता हूं
और तुम हो कि खिसिया रही हो

जब जब घुसता हूँ रसोई घर में
जब जब सोचता हूँ बेलन उठा ही लूं
छिली हुई मटर व आलू को छौंक ही दूं आज 
तुम दौड़ी चली आती हो 

फैलाने,बिखराने, लीपने ,पोतने, के साथ 
तहस नहस करने की कई धाराओं के बीच 
चालान कर देती हो 

सब इधर उधर कर दिया 
कहीं कुछ मिल नहीं रहा
जैसा कुछ बड़बड़ाने  लगती हो 

माना कि यह तुम्हारा परिसर है
तुमने इसे बहुत मेहनत से सजाया है 
तुम्हारे लिए यह तुम्हारे पूजाघर से भी पवित्र है
जहां सिर खुजलाना और रोटी बेलना एक साथ संभव नहीं है 

इसके साथ इसे भी मानने में कोई हर्ज नही है 
कि अपने  प्रेम में तुम इतनी उदार तो हो ही 
कि आटा गूंथते समय एक फोटो की इजाजत दे ही सकती हो 
जिसे  मैं  चावल धोने और सब्जी चलाने की तस्वीर के साथ 
तुम्हारे प्रति प्रेम के दस्तावेज के रूप में किसी दीवार पर टांग ही सकता हूँ----

कि प्रेम भी तो एक टंगी हुई तस्वीर ही है!
जिसे छूकर यह बताया  जा ही सकता है
मैंने भी इस कठिन समय में कुछ न कुछ तुम्हारा खयाल  रखा ही था !

लेकिन तनिक सोचो भी कि विषाक्त  जीवाणुओं  से भरे इस संसार में
जहां फिलहाल कोई भी  चीज अपनी जगह पर नहीं रह गई है 
कुछ कहने को आतुर हुए होठ
आंखों के एक रूखे इनकार में खुल रहे हों 

कोरोना में किचन का व्यवस्थित रहना 
कितना उचित है!

ठीक ऐसे समय में 
जहां नजदीकियां योजन भर  की दूरियों में रूपांतरित हो गई हैं
नदियां फैलकर समुद्र बन गई हैं 
और सड़कें उलटकर आकाश 

चम्मच का चम्मच की जगह पड़े रहना
क्या हमारे प्रेम का ठहर जाना नहीं है!

जीवन कई बार रखाव में नहीं विखराव में होता है
स्वाद पकी दाल  में ही नहीं 
जले भात में भी होता है!
(28/04/2020©श्रीप्रकाश शुक्ल )

(शास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिउ....)
११.चमगादड़!

(©श्रीप्रकाश शुक्ल)

मैं एक चमगादड़ हूँ
हज़ारों प्रजातियों में विकसित मेरा परिवार 
इस जगत का सबसे बड़ा समुदाय है 

कुछ मुझे पक्षी कहते हैं क्योंकि मैं उड़ सकता हूँ
कुछ मुझे पशु कहते हैं क्योंकि मैं स्तनधारी हूँ
कुछ मुझे लक्ष्मी कहते हैं
क्योंकि दीपावली के अवसर पर मैं 
अक्सर धनधारी हूँ

कुछ मुझे  स्पर्श गंधी कहते हैं क्योंकि मैं हवाओ में तैर सकता हूँ
और हर बुरे विषाणु में घुलकर
उसे धुन सकता हूँ

अपवित्र  ही सही
एक फर्ज अदा कर सकता हूँ

सुनते हैं कि बनारस के 'बाबा' भी अपने सठियापे में कौये के बहाने कहीं लिख गए हैं कि मैं एक अवतार भी हूँ
दुनिया के सभी निंदकों का 
एक पपियाया हुआ निचोड़ हूँ!

कुछ देशभक्त तो मुझे सभ्यता की समाप्ति का सूचक मानते हैं 
और इसलिए उनके लिए 
प्रकाश से दूर
एक अंतहीन रात हूं

जहां भी हूँ
उनके कूकर  से फेंका हुआ
भात हूँ!

मैं दुनिया का सबसे शापित प्राणी
भर दिन उलझा रहता हूँ पेड़ों की शिराओं में  
और टहनियों में उल्टा लटककर 
पेड़ बाबा की तरह योग में लीन रहता हूँ
जहां  कभी कभार कुछ लोग  आकर  खुश होते हैं
और अपनी मंगलकामना की इच्छा से 
मेरी  पूजा भी करते हैं

आखिर मैं किससे कहूँ कि मैं भी इसी वसुधा का नागरिक हूँ
जिसे एक देश के 'गीले बाजार' में ठोस दाम पर बेच दिया गया हूँ
जहां जबरिया मेरी गर्दन को 
एक प्रयोगशाला में डाल दिया गया है

यह एक 'चीनी  भूप 'का किस्सा है
जिसके लिए मैं महज सूप हूँ!

जब मेरे चीखने,चिल्लाने,गुर्राने, बर्राने का कोई मतलब नहीं रहा 
यह जानते हुए भी की सांस के साथ 
खाना व पाखाना के नाम पर  एक ही छिद्र है
मेरी नसों को नाथ दिया गया

मै एक क्रूर आततायी के नाख़ूनी पंजों से भाग निकला
जहां  दुनिया ने  मेरे ऊपर  ईनाम घोषित कर दिया।

क्या आपने कभी सोचा कि आख़िरकार
यह  मेरी भी तो धरा है 
मुझे भी तो इस पर जीने का हक है 

मैने जब जब जीने का हक माँगा
आपने मुझे बुरी तरह कैद कर लिया
एक निरपराध अपराधी की तरह मेरा मुंह बंद कर दिया
और अपने चीरघर  में मेरी  हत्या की कोशिश की 

मानो मेरी जिंदगी का योग अब 
आपके लिए प्रयोग है!

अब जब आपके इस वधशाला से भाग निकला हूँ
आप मुझे हत्यारा कहते हैं
जैसे मैं ही आपका संकट निकट हूँ
अपनी यातना में एक वायरस विकट हूँ।
(23/04/2020©श्रीप्रकाश शुक्ल)

१२.उत्तर - कोरोना...... (Post-Corona)
(आत्माएं होंगी,आत्मीयता न होगी!)
@श्रीप्रकाश शुक्ल)

मैने तुम्हें फोन किया और तुम मुझसे उत्तर मांग रहे हो 

समय सुबह का है 
सूरज की चमक थोड़ी गाढ़ी हुई ही थी 
कि नदियों के स्वच्छ होते जल और वातावरण में बढती हुई आक्सीजन के बीच  
आसमान में निचाट सन्नाटा  है
और तुम कहते हो 
यह उत्तर- कोरोना तो नहीं है!

कितना विकट समय है कि जब दुनिया का सारा विज्ञान एक रोएं के हजारवें भाग से भी छोटे वायरस की काट नहीं खोज पा रहा है 
लगभग एक ब्रह्म की सूक्ष्म सत्ता की तरह इधर उधर छिटक रहा है
अपने स्वरूप को लगातार बदलता हुआ हर क्षण धरती का खून पी रहा है
तुम मुझसे उत्तर की अपेक्षा कर रहे हो

अब जबकि वर्तमान से बाहर आने की उम्मीद  कम ही  बची  है
चिडियों की बढ़ती चहचहाहट  के बीच 
दुनिया के सारे देवता असहाय व असुरक्षित हो गए हैं
अल्लाह,ईसा ,मूसा और ईश्वर 
सबके सब मुंह बांध कर अपने अपने कमरे में कैद हैं
और पुतलियों की जाती हुई गति से दुनिया को आते  हुए देख रहे हैं 
तुम कोरोना के उत्तर से उत्तर -कोरोना की बात क्यों कर रहे हो

क्या तुम जानते हो 
यह आस्थाओं के फड़फड़ाने का दौर है
जिसमें संत कवियों की एक बार फिर से वापसी हो रही है
जब उन्होंने कहा था कि इस जगत में एक ही ब्रह्म की सत्ता है
बाकी सब मिथ्या  है!

ठीक इसी जगह पर दुनिया बदल रही है
और बदलते हुए कोरोना के चरित्र में 
खुद के लिए एक उत्तर खोज रही है
शायद उत्तर कोरोना का उत्तर-----

जहाँ अभिव्यक्तियाँ होंगी
लेकिन आस्वाद न होगा
लोग लौट रहे होंगे
लेकिन लौटने के लिए कुछ न होगा

आत्माएं होंगी आत्मीयता न होगी
एक देह होगी जिसको एक आत्मा ढो रही होगी

यह चिंताओं व शंकाओं  के संघर्ष का दौर होगा 
जिसमें हर कुछ एक भय की  तरह समर्पित होगा 
जहां स्वीकारने के अलावा और कुछ न होगा
और संघर्ष के मोर्चे पर हर बार विवेक ही मारा जायेगा 

आदतें कुछ ऐसी होंगी
एक खास जंग के जैसी होंगी
जीवन निर्वात होगा
संघर्ष हवाओं का होगा
सत्ताएं उदार होंगी 
शासन सख्त होगा

देश का हर आदमी लड़ेगा सिपाही की तरह
लेकिन हर बार मारा जाएगा एक नागरिक के मोर्चे पर

शासक बहुत उदार होंगे 
लेकिन उनमें सब कुछ को पाने की एक जल्दी होगी
लगभग इस समय की वाचाल मीडिया की तरह
जहाँ ब्रेक के बाद भी 
एक पुराना ही चीखता है 

अद्भुत होगा यह समय की अद्भुत जैसा कुछ नही होगा
केवल एक पुरातन की स्मृति होगी
और सभ्यता के एक वायरल इफेक्ट जैसा
खोने व पाने का संघर्ष होगा
हर नए विकल्प को  अनचाही आस्थाओं का आदिम स्वर देता हुआ

यह असहाय कथाओं के सर्जन का समय होगा
जिसमें कथाएं तो बहुत होंगी
काव्यत्व उतना ही कम होगा
स्मृति में मनोरंजन की सुविधाएं होंगी
आकांक्षा में ढेर सारी दुविधाओं के बीच

यह एक दूसरे की तारीफ का दौर होगा
जिसमें सराहनाएं भी शातिर होंगी 
जहां एक ताकत दूसरे को आजमा  रही होगी

खोए हुए को पाने की जिद में 
दुनिया दौड़ रही होगी
जिसकी जद में  आयी हुई सभ्यता
अपनी संपूर्णता में कराह रही होगी

यह एक नई शुरुआत होगी 
लेकिन शुरू करने के लिए कोई न होगा

क्या तुम जानते हो 
वायरस का कोई पूर्व काल नहीं होता
उसका सिर्फ एक वर्तमान होता है
जो सदा एक उत्तर में बदल रहा होता है

यह विचार नहीं
व्यवहार समझता है
और तुम्हारा व्यवहार है कि इसकी आकंठ उलाहनाओं के बीच
पूंजी  की ताकत के सामने सदा झुका रहता है
एक स्थायी विनम्रता की तरह!

@श्रीप्रकाश शुक्ल-12-4-2020)



नोट :- {परिचय=श्रीप्रकाश शुक्ल}
{कवि ,आलोचक व आचार्य}
जन्म : १८ मई , १९६५
जन्म स्थान : बरवाँ , सोनभद्र【उत्तर प्रदेश】
शिक्षा : एम.ए. ,पीएचडी।
◆पी.जी. कॉलेज , गाजीपुर में लम्बे समय तक कार्य करने के बाद २९ अक्टूबर ,२००५ से काशी हिंदू विश्वविद्यालय ~ वाराणसी के हिंदी विभाग में कार्यरत।
नब्बे के दशक के महत्वपूर्ण कवि और आलोचक
श्रीप्रकाश शुक्ल इलाहाबाद विश्विद्यालय से  एम. ए(हिन्दी) व पीएचडी हैं. उन्होंने हिन्दी कविता की आंतरिक लय के दायरे में अपनी कविता में लोकधर्मी परंपरा का विस्तार किया है जहां लोक रूढ़ न होकर एक गतिशील अवधारणा है।एक कवि के रूप में वे हिंदी कविता की  प्रतिरोधी परंपरा के  महत्वपूर्ण कवि हैं।शास्त्र से लेकर  लोक तक में उनकी गहरी रुचि है और उनकी कई  कविताओं में अनेक देशज शब्द प्रयुक्त होकर नया अर्थ प्रकट करते हैं।अभी अभी 'वागर्थ' जुलाई,2020 के अंक में प्रकाशित  अपने  एक साक्षात्कार में वे कहते हैं कि 'कवि कविता की संसद का  स्थायी प्रतिपक्ष होता है'।
उत्तर आधुनिकता और पूंजीवाद का यह दौर है।इस दौर में जहां एक तरफ आधुनिकता के नाम पर मानवीय संबंधों में आत्मीयता और नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है वहीं दूसरी तरफ श्रीप्रकाश शुक्ल जी इन संबंधों में जान डाल रहे हैं।।जहां एक तरफ एक नयी पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ी से अबोला कायम कर रही है वहीं शुक्ल जी अपनी कविताओं के जरिए पीढ़ियों के बीच अपनत्व भरा संवाद कायम करने में प्रयासरत हैं।...
उनकी प्रकाशित  कृतियाँ हैं---
कविता संग्रह:---
”अपनी तरह के लोग”,”जहाँ सब शहर नहीं होता” ,”बोली बात” ,”रेत  में आकृतियाँ”, ”ओरहन और अन्य कवितायेँ ”. "कवि ने कहा" .
'क्षीरसागर में नींद' .
*आलोचना:----
”साठोत्तरी हिंदी कविता में लोक सौन्दर्य “ और “नामवर की धरती “ .
*संपादन:---“परिचय “ नाम से एक साहित्यिक पत्रिका का संपादन.
*पुरस्कार:--- कविता के लिए “बोली बात ” संग्रह पर वर्तमान साहित्य का मलखानसिंह सिसोदिया पुरस्कार , “रेत  में आकृतियाँ” नामक कविता संग्रह पर उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान का नरेश मेहता कविता  पुरस्कार,. "ओरहन और अन्य कवितायेँ" नामक कविता संग्रह के लिए  उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का ‘विजय देव नारायण साही कविता पुरस्कार’ ।
ई मेल: shriprakashshuklabhu@gmail.com
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Account Name : SETU PRAKASHAN
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★वरिष्ठ कवि सुभाष राय★

जन्म : जनवरी ,१९५७
जन्म स्थान : बड़ागाँव , मेऊ ,उ.प्र.

शिक्षा : आगरा विश्वविद्यालय के ख्यातिप्राप्त संस्थान के. एम. आई. से हिंदी साहित्य और भाषा में स्रातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। उत्तर भारत के प्रख्यात संत कवि दादू दयाल की कविताओं के मर्म पर शोध के लिए इन्हें डाक्टरेट की उपाधि मिली।

रचना : सलीब पर सच{काव्य} , जाग मछन्दर जाग{लेख संग्रह}
★"समकालीन सरोकार" पत्रिका का एक वर्ष संपादन ,


नोट : लखनऊ से प्रकाशित होने वाले हिन्दी दैनिक जनसंदेश टाइम्स और हिन्दी मासिक पत्रिका समकालीन सरोकार के प्रधान संपादक हैं।

सम्मान : नयी धारा रचना सम्मान , माटी रतन सम्मान

कविताएँ :- १.
कुछ ध्वनियां हैं अंतरिक्ष में
जो अभी तक हमारे पास नहीं पहुंची
कुछ रोशनियां भी हजारों साल से 
चली आ रही हैं हमारी ओर
कुछ कविताएं हैं उनमें 
गूंजती हुई, चमकती हुई

दरवाजे, खिड़कियाँ खोल दो 
दीवारों से बाहर निकल जाओ
बहुत सरल नहीं होती है प्रतीक्षा 
एक बार ठीक से सोच लो फिर आओ
आओ तो, अनंत समय लेकर आओ


१९/६/२०२०

२.
प्रतिष्ठित पत्रिका 'आजकल' के ताजा अंक में मेरी एक लंबी कविता। आभार कवि संपादक राकेशरेणु का।

सुभाष राय की लम्बी कविता
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अंधेरे के अंत का गीत
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रात है कि खत्म नहीं हो रही
एक स्वप्न बार-बार 
हो रहा स्वप्नभंग का शिकार
खत्म होकर भी खत्म नहीं हो रहा
गहरी अंधेरी रात में कहीं दूर से
आती एक मद्धम टिमटिमाहट की तरह

अखंड सन्नाटे में हर पल नदी में 
गिर रहे अरार धम्म-धम्म
पूरे के पूरे घर बहे जा रहे अक्षत
किसी अनहोनी से अनजान पुल की ओर
एक विकराल टक्कर का इंतजार है
कुछ ही पलों में समूचे स्वप्न के साथ
मैं भी ढह जाने वाला हूँ अथाह जल में

एक पहाड़ दिखता है 
निश्चिंत अपने वैभव के प्रति 
भीतर सुरक्षित गहराई में गड़ा हुआ
मगर अचानक भहराकर गिरने लगता है
उन पौधों के साथ, जो लाल‌ से हरे हो रहे थे 
अपनी जड़ें जमा नहीं पाये थे अभी
उखड़ गये सभी भूस्खलन में 
स्वप्न में गिरा मैं भी उन पौधों के साथ
सड़क पर अचेत, अन्हुवाया सा

हवा चल रही थी बहुत तेज
एक विकट दृश्य था, लोग बचने के लिए 
समुद्र की ओर भागे चले जा रहे थे
बड़े दांतों वाली मछलियां आ गयीं थीं बाहर
मास्क में छिपाये अपने विध्वंसक मंसूबे
‌आदमखोर दैत्यों ने दूर तक फेंक दिये थे जाल 
लोग फंस कर चीख रहे थे
अदृश्य नाखूनों से घायल
मैं पूरी ताकत से चीखना चाह रहा था 
पर आवाज बार-बार गले में फंस जा रही थी 

मंदिरों के कंगूरों पर बैठे 
मुंह पर सफेद गमछा बांधे
कुछ देवता स्वर्ग फल लिये 
आसमान की ओर अंजुरी उठाये 
लगातार प्रार्थना कर रहे थे
मनुष्यों को सलाह भी दे रहे थे मंत्र भाषा में
इस समय सबसे खतरनाक है
मनुष्य का मनुष्य के पास होना
दूर ही रहना किसी भी मनुष्य से
चाहे वह जितने भी कष्ट में क्यों न हो
नितांत अकेला हो गया हो
भूखा हो, घायल हो, थककर बेहाल हो
गिर पड़ने वाला हो या गिर गया हो
मर जाने वाला हो या मर गया हो
बच्चों के पास मत जाना
चाहे वे जितने भी भूखे हों
उन्हें दूध के नाम पर खून पिलाती 
स्त्रियों से भी बचना
चाहे वे जितनी निरुपाय हों, अकेली हों
मृत्यु के लिए अभिशप्त ही क्यों न हों

देखना कहीं आत्मा न जाग उठे
किसी करुणापूरित दृश्य से पसीजकर
कोई डूबती हुई आवाज या कोई‌ 
मरती हुई पुकार सुनकर

क्रोध में तप रही थी पृथ्वी
उसने बार-बार संदेश दिया
कई-कई दिन घनघोर बारिश के जरिये
अकाल के हाथों खत भेजकर
फाड़कर अपना सीना भी दिखाया
पर माना नहीं आत्मघात के लिए कटिबद्ध 
निर्मम‌, लालची और क्रूर मानव 
जो असल में था दानव
अब धैर्य रख पाना मुश्किल था 
पृथ्वी को लग रहा था कि और प्रतीक्षा की तो 
अपनी ही मृत्यु की घोषणा करनी पड़ेगी 
चारा नहीं था कोई संसार के 
सीमित संहार के अतिरिक्त

विकट क्षोभ का एक दृश्य था चारों ओर
कांप रही धरती, थरथरा रहे बिजली के खंभे
उखड़ कर उड़ रहे मिसाइलों की तरह पेड़
छतें घरों को छोड़ कर निकल जाना चाह रहीं 
तट से टकरा रहा फेनिल महासागर 
शहरों में दाखिल होने को उतावला
लहरों को घुमा रही वात; तेज, और तेज
बस्तियाँ उड़ा ले जाने को आतुर  

प्रकृति के इसी अनहद अपराजेय 
विक्षोभ से उपजा है मृत्यु का लघु-दूत
मारक‌ शक्ति ले अकूत

डर ने इस तरह बांटा कि एक 
देश में‌ बन गये अनेक देश 
कुछ छोटे, कुछ बहुत छोटे
सीमाओं पर प्रहरी दिन-रात नजर रखे हुए
हर आने-जाने वाले पर संदेह करते
कौन हो तुम, प्रश्न उछालते
परिंदे को भी प्रवेश नहीं 
जो बाहर से आये भागते-भूगते
कुछ पेड़ों पर आ जमे, कुछ गड्ढों में जा छिपे
अगली‌ सुबह के इंतजार में
फूट- फूट कर रोना चाहते थे होंकाड़ फाड़
लेकिन कोई जगह नहीं बची थी रोने के लिए 
खुद के देश में बदल गया है हर मनुष्य
स्वतंत्र, स्वायत्त, खुदमुख्तार
लाठी को तेल पिला कांधे डाल
घूम-घूम लेता सारे जवार का हाल-चाल
खुद ही खुद की तलवार, ढाल

बुद्धिवादी डरे हुए थे सबसे ज्यादा
कोई आ नहीं रहा, कोई सुनने को तैयार नहीं
बातें बहुत हैं कहने के लिए
बातें ही तो रहीं हमेशा उनके पास
अकेले पड़े, बड़बड़ाने लगे दीवारों से
बाहर के भूकम्प, चक्रवात से तो सुरक्षित थे
मगर भीतर जो उठ रही थीं लहरे़ं
उनसे बच कर कहां जायं

आत्ममुग्ध, करते तो क्या करते
संदेह और असमंजस से भरे  
अपनी ही पीठ पर लादे खुद को
निकल पड़े अंतरिक्ष में
अपना दुख अपने को ही बांटते हुए
अपनी हंसी देखकर हंसते हुए 
अपने से ही सवाल करते हुए
बातें शुरू हुईं दुख से तो जा पहुंची ईर्ष्या तक 
भीतर भरा कचरे का पहाड़ ढहने लगा  
कालिख की तरह लोकरुदन की निर्मलता पर

जो किचिंत समझदार थे, उदार थे
जिनके भीतर दूसरों के उजाड़े गये संसार थे
वे निकले अपने चुने हुए रास्ते
तमाम बाधाओं से जूझते, टकराते

स्वप्न आ रहा है, जा रहा है
डूबता- उतराता दु:स्वप्न में उभ-चुभ
मेरी नींद बार-बार उचट रही है
मैं ठीक से सो नहीं पाया महीनों से
पूरी तरह जागे रहना भी मुश्किल है
सपने जो देखे थे कभी, करक रहे हैं भीतर
कभी बंद दरवाजे से बाहर आ जाता
तो कभी बिना ताला खोले गेट से निकल जाता
कभी सपनों के अचानक बिखर जाने से
आहत लोगों की आंखों  के पास जा बैठता
दर्द के निर्मल, निर्दोष आंसुओं में भीगता

किसी गहरे कुएं से जैसे एक आवाज आ रही है
क्या हुआ, सो गये क्या
उन्होंने मुझे अखबारों पर झुके हुए देखा
अच्छा हुआ, उन्होंने रात में मुझे 
सड़क पर चलते हुए नहीं देखा
अच्छा हुआ अन्यथा बहुत बुरा होता
अगर मैं देख लिया जाता किसी और 
दरवाजे पर दस्तक देता हुआ
मैं तो निकल जाना चाहता था 
उन लोगों के पास, जो एक साथ 
रात से, तूफान से और छल से घिरे थे
जिनके पास कोई रास्ता नहीं था
रास्ता था भी तो वह कहीं जाता नहीं था
वे वहां जा रहे थे, जहां उनका इंतजार नहीं था
जहां उन्हें बहुत पहले ही 
मरा हुआ मान लिया गया था
एक मर्मांतक स्वप्नभंग के बाद
उससे भी कठोर एक और स्वप्नभंग 
वहां उनका इंतजार कर रहा था
वे घर जा रहे थे लेकिन घर नहीं था कहीं उनका
घर होने का आभास भर था जो कभी भी
भरभराकर ढह जाने की कगार पर था

बहुत दूर से वे आवाज दे रही हैं, उठो! उठो! 
सुबह हो गयी है, कब तक सोते रहोगे
पर सुबह कहां हुई थी
उनकी आवाज मुझे किसी 
सुंदर स्वप्न से गुजर कर आती लग रही थी
मेरी नींद टूट तो रही थी लेकिन हर अगले क्षण
वह मुझे और ताकत से दबोच ले रही थी
यह मेरी नींद नहीं थी, यह उनकी नींद थी
जो अपने देश जाते हुए भूख और 
फासले की थकान से पस्त थे
मैं देख‌ना चाहता था नींद में आगे बढ़कर
मैं मृत्यु की ओर बढ़ते हूजूम से पहले 
वहां पहुँच जाना चाहता था
ताकि उन्हें रोक सकूं, उनके मुंह पर 
पानी के छींटे मार सकूं
उन्हें बता सकूं कि नींद चाहे जितनी गहरी हो 
यह सोने का वक्त नहीं है 
कुछ ही देर में ट्रेन आने वाली है
पटरी के साथ चलना ठीक नहीं है
ट्रेनें अक्सर पटरी से उतर जाती हैं

अब लगातार आ रही थीं उनकी आवाजें
मानों वे चलकर मेरे पास आ गयी हों
माथे पर कुछ गरम स्पर्श सा अहसास  
बार-बार हो रहा था मुझे
उनकी सुबह हो गयी थी
उनकी सुबह रोज इसी तरह होती है
मेरी सुबह कहां थी, पता नहीं
मेरी सुबह उनके साथ है 
जिनकी सुबह में अभी काफी देर है
जिनकी सुबह  रात से लड़े ‌बिना संभव नहीं
इसीलिए स्वप्नभंग के बावजूद 
स्वप्न में रहना चाहता हूँ  
आखिर स्वप्न भी तो अंधकार से 
टकराकर ही जन्म लेते हैं
एक न एक दिन होगी उनकी सुबह
मैं भी उठूंगा स्वप्न में‌ भीगता उस सुबह 
सड़क पर आ जाऊंगा 
देखूंगा एक स्वप्न को जमीन पर उतरते हुए  
देखूंगा उन्हें भविष्य ‌‌की तरह आते हुए

अंधेरे के अंत का गीत गाते हुए

३.
जनवादी लेखक संघ केन्द्र की प्रतिष्ठित पत्रिका 'नया पथ' के ताजा अंक में दो कविताएँ । यह अंक कोरोना काल और पूंजीवादी संकट पर केन्द्रित है। आभार मुरली मनोहर प्रसाद सिंह जी और रेखा अवस्थी जी का।

सुभाष राय की कविताएँ 
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३. 

एक चिट्ठी ज्योति बेटी के नाम
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ज्योति बेटी ! वे तुम्हें खोज रहे हैं
साइकिलिंग का मौका देना चाहते हैं
लेकिन अभी वे तुम्हारी परीक्षा लेंगे
और पास हो जाओगी तो अपने पत्ते खोलेंगे
तुम्हारे साहस पर, तुम्हारे इरादे पर
अभी उन्हें भरोसा नहीं है

वे सारी लड़कियों को मौका नहीं देते
उन्हें आम बच्चियों की चिंता नहीं है
तुम भी आम होती
पिता की निरुपायता पर रोती
और रोते-रोते मर जाती
तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता
उन्होंने तुम्हें फोन किया
क्योंकि तुमने असहायता को ठुकरा दिया
असंभव को संभव कर दिखाया

गुरुग्राम से दरभंगा तक
१२ सौ किमी सिर्फ सात दिन में
घायल पिता को कैरियर पर लादे
साइकिल से
बेटी ! यह कोई साधारण बात नहीं है
यूं ही इवांका मुग्ध नहीं हैं तुम पर
बात इतनी सरल नहीं है
जो तमाम लोग तुम्हारी पीठ थपथपा रहे
ये जो अपना मुकुट तुम्हारे कदमों में डाल रहे
ये तुम्हारा सम्मान नहीं करते
ये तुम्हारे इरादे से डरते हैं

तुमने देखा नहीं
जब लाखों लोग भूख-प्यास, थकान और
मौत को चुनौती देते हुए सड़कों पर निकल पड़े
तब भी वे डर गये थे
वे हर मजबूत इरादे से
हर अबाध संकल्प से डर जाते हैं
तभी तो लोग रास्ते में मरते रहे
घायल होते रहे, खुदकुशी करते रहे
और वे खामोश सब कुछ देखते रहे

उन्हें तुम्हारे नाम से तब तक कोई परेशानी नहीं
जब तक वे उसके मायने नहीं समझते
तुम्हारे पिता ने तुम्हारा नाम यूं ही नहीं रखा होगा
नाम रखते हुए उन्हें अपने चारों ओर पसरे
गहरे अंधेरे का अहसास जरुर रहा होगा
अंधेरा नहीं होता तो वे इतनी दूर
दिल्ली में आकर रिक्शा नहीं खींचते
बेशक उन्हें उजाले की दरकार थी
इसीलिए उन्होंने तुम्हारा नाम ज्योति रखा
और तुमने उनकी उम्मीद को अर्थ दिया
तुम थी तो मुश्किल वक्त में पिता की
जिंदगी में सांसों का उजाला बचा रह गया

सावधान रहना बेटी !
जब भी कोई साहस, कोई इरादा, कोई रोशनी
दिखती है, वे डर जाते हैं
और कोई जाल बुनने लगते हैं

मुझे अच्छा नहीं लगा तुम्हारा ये कहना
कि तुम बेटी नहीं बेटा हो
बेटी बने रहना
बेटी होना कोई कमतर होना नहीं है
बेटी होकर तुमने जो कर दिखाया है
उससे बेटियों का माथा चौड़ा हुआ है
सिर्फ १५ साल, अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है
अभी हो सके तो पढ़ना, लिखना
अपने भीतर रोशनी जमा करना
अवसर मिले तो बच्चों को ऐसी कहानियां सुनाना
जो उनमें जीवन के पक्ष में खड़े रहने का
साहस पैदा कर सके

बहुत प्रशंसाओं से भटक मत जाना
बहुत प्रस्तावों से भी गुमराह मत होना
कुछ समझ में न आये तो बुधिया को याद करना
उसने साढ़े चार साल की उम्र में मैराथन पूरा किया
पुरी से भुवनेश्वर तक की ६५ किमी की दूरी
महज सात घंटे में पूरी की
जैसे तुम्हारी हिम्मत देख वे दंग हैं
उसी तरह तब भी पगला गये थे सब के सब
फिल्म बनी 'बुधिया सिंह बार्न टु रन'
उसे बहला-फुसला कर ले गये वे ट्रेनिंग के लिए
हास्टल में डालकर भूल गये
और फिर कभी बुधिया
लौट नहीं सका मैराथन में

सुनो! कोई भी दिक्कत आये
तो बोलना, चुप मत रह जाना

२४/५/२०२०

४.

तस्वीरें
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तस्वीरों में जितना दिखता है
उससे ज्यादा रह जाता है बाहर
तस्वीरें कहां बताती हैं कि कभी भी
बदल सकती है तस्वीर

शहर में छले गये लाखों लोगों का
पैदल ही चल पड़ पड़ना गांवों की ओर
तस्वीरों में दिखता है
पर कोई भी तस्वीर कहां बताती है
कि‌ इतने सारे पांव चाहें तो एक झटके में
रौंद सकते हैं शाही तख्त को

रात-दिन चलते मजदूरों के
चेहरों पर गहरी थकान
और रास्तों पर जगह-जगह मौत के निशान
तस्वीरों में दिखते हैं
पर कोई भी तस्वीर कहां बताती है
कि सारा दुख गुस्से में बदल जाय
तो दरक सकते हैं बड़े से बड़े किले

तस्वीरें अधूरी रहती हैं हमेशा
जब कैमरे बंद रहते हैं
तब भी सूरज रुकता नहीं
जरा सोचो ! उन तस्वीरों के बारे में
जो‌ अब तक किसी फ्रेम में नहीं आयीं
आयेंगी, कभी तो आयेंगी
छल की छाती पर लाखों पांवों के
समवेत धमक की तस्वीर
समूची तस्वीर बदल
जाने की तस्वीर


२३/५/२०२०

५.
कई बार खुदकुशी का खयाल 
आते ही लोग ऊँचाइयों पर जाते हैं
कई बार ऊंचाई पर पहुँचकर भी
खुदकुशी के खयाल आते हैं


7/7/2020

६.
कुछ लोग घड़ी से चलते हैं
अलार्म बजता है और सुबह हो जाती है
वे अलार्म के इतने अभ्यस्त हो गये हैं
कि और कोई भी अलार्म उन्हें सुनायी नहीं देता

वे अपने नियम के बहुत पाबंद हैं
उससे बाहर नहीं आना चाहते
वे डाक्टर की सलाह पर चलते हैं
डाक्टर ने कहा है कि अपना ध्यान रखना

वे सिर्फ अपना ध्यान रखते हैं
१-०७-२०२०

७.
आधी रात बारिश 
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अभी आधी रात का है वक्त
बारिश हो रही झर-झर
ठंडी हवाएं आ रही भीतर
बूंदों से गुजरतीं भीगतीं
कुछ सुखद, कुछ सर्द से 
अहसास से भरती हृदय को

धूप जब बढ़ जाय
आतप बरसने लग जाय 
झुलसाने लगे तन 
रुक जाय पवन
पत्ता भी न खड़के
विकट हो सुनसान
चुप्पी फैल जाय जमीं से आकाश तक
हो उमस इतनी कि जीना 
भी कठिन हो जाय
कोई भी न हो रास्ता
तो बरसना होगा

रात हो चाहे सघन जितनी
कि भय जितना डराये
निकलना होगा गरज कर 
बरसकर, बजकर

अभी आधी रात का है वक्त 
बाकी रात आधी
क्या पता बढ़ जाय 
लम्बी, और लम्बी
सूर्य पर छा जाय

सुबह जाने दूर कितनी
आ रही ठंडी हवा सर-सर
बारिश हो रही झर-झर
जगी उम्मीद क्षण भर
मेघ जो बरसा हुमक कर
बहा ले जायेगा पानी अंधेरे को
आवाज देता वह सवेरे को


२८/६/२०२०

८.
निराला जी से क्षमा याचना सहित
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दुख ही जीवन की कथा रही
जो रही साथ वह व्यथा रही
हो गया बंद सब काम-काज
जिंदगी मुकम्मल सजा रही
भूखे भी कुछ दिन रह लेंगे
पर कब तक कुछ भी पता नहीं
सहने का धीरज शेष नहीं
आगे की चिंता सता रही
बढ़ने वाला है अंधकार
ये लम्बी रातें बता रहीं
हम मरते- मिटते रहे सदा
मालूम नहीं क्या खता रही
पत्थर के नीचे कुचल गयी
कहते हैं कोई लता रही
चुप रहना क्या,अब कहता हूँ
जो अब तक मैंने नहीं कही
पुरखों जैसे कहना मुश्किल
क्या कहूं आज जो नहीं कही


२७/६/२०२०

९.
मेरे पिता
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मेरे पिता ने मुझे सीखने दिया
आंधी, पानी और आग से
कभी डांटा नहीं, डराया नहीं

मैं हर आहट का पीछा करता
हर रोशनी को पकड़ना चाहता
उन्होंने रोका नहीं मुझे कभी
उन्होंने कुछ नया खोजते-खोजते
खो जाने दिया मुझे कई बार
और बाद में तलाशते रहे
पेड़ों पर, पहाड़ों पर, नदियों में

वे मेरे साथ खेलते हुए बच्चा हो जाते
मेरे हमउम्र, कई बार मुझसे छोटे
उन्होंने अनगिन अर्थ दिये मुझे
उनमें से कइयों के लिए तो 
आज तक नहीं मिला कोई शब्द

मेरे पिता ने अपने लिए 
कभी कुछ नहीं कहा
दुनिया के लिए बार-बार कहा


२१/१०/२०१८

१०.

आजकल कुछ ऐसा हो रहा है
कि रात-दिन एक दूसरे में गड्ड-मड्ड हो गये हैं
दिन दिन की तरह और रातें रातों की 
तरह नहीं दिखायी पड़तीं

रातें अक्सर सोने नहीं देती
चीखें‌ सुनायी पड़ती हैं
लेकिन पता नहीं चलता किधर से आ रही हैं
रातों की अपनी आवाजें गुम हो गयी हैं

चांद भी कुछ डरा हुआ, अवसादग्रस्त है 
कहीं वह समुद्र में छलांग न लगा दे
किसी दिन बैठूंगा उसके पास और कहूंगा
सूरज से कुछ और आग मांग लो
और इस लम्बी रात में इस तरह गिरो
कि सारा अंधेरा जल उठे


१९/६/२०२०

११.
मुमकिन है
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मुमकिन है‌ कि वे बहुत सोचें
बहुत चिंतित हों और चुप रहने का फैसला करें

मुमकिन है कि वे हर नामुमकिन
विकल्प पर गौर करें, उसके हर पहलू पर
अपने सिपहसालारों से मशविरा करें
और फिर उसे नामुमकिन 
समझकर खारिज कर दें

मुमकिन है कि कुछ भी नामुमकिन नहीं है
मुमकिन है कि जो भी मुमकिन
होगा, किया जायेगा
मुमकिन है कि शायद 
अभी कुछ खास मुमकिन नहीं है


१७/६/२०२०

१२.
मुर्दों से हमेशा बदबू नहीं आती
वे कहीं भी हो सकते हैं
चलते-फिरते, खाते-पीते, बोलते-बतियाते

जब किसी निर्दोष के गले पर कोई 
सरकार अपने घुटने टिका देती है
उसका दम घुटने लगता है
मुर्दे पहचान लिये जाते हैं

जब भी देना होता है जिंदा होने का सुबूत
उनसे दुर्गंध फूट पड़ती है


१३/६/२०२०

१३.
बोलिये मैं सुन रहा हूँ?
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मेरी आवाज आ रही है?
कोई हो तो बताये
सुनायी पड़ रहा है?
साफ-साफ सब कुछ?
लगता है कुछ लोग आ गये हैं
कोई हाथ हिला रहा है
उड़ रहे हैं खुशियों के बुलबुले
आवाज पहुंच रही है
तो मैं शुरू करूं?
अच्छा तो मैं शुरू करता हूँ

बेशक आप शुरू करिये
लेकिन आप को अच्छी तरह मालूम है 
कि वह नहीं सुन रहा
वह कभी नहीं सुनता
वह किसी की नहीं सुनता
वह सुनना नहीं चाहता
उसे पसंद नहीं किसी के मन की बात

क्या आप ने कभी सुना उस पार से?
हां, आप की आवाज आ रही है
बोलिये, मैं सुन रहा हूँ


११/६/२०२०

१४.
चलो मिलते हैं पार्क में
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घर अच्छा लगता है
घर से बाहर रहने पर
घर अच्छा लगता है
जब घर लौटना हो बहुत दिनों बाद
घर अच्छा लगता है
जब घर पीछा न करे
जब घर में ही छूट सके घर
घर से निकलते हुए

जब खिड़कियों से झांकती
हवा से डर लगने लगे
जब घर में टंगी तस्वीरों 
दीवारों पर पुते रंग
सोफे, बिस्तर तक सीमित हो जाय
जीवन की सारी हलचल
कैसे कहूं, तब भी 
अच्छा लगता है घर

सोचता हूँ सारी खिड़कियां
दरवाजे खोल दूं
भीतर की कुछ दीवारें गिरा दूं
आने दूं उसे जो देहरी पर बैठा
कुंडियां खड़का रहा है बार-बार
मेरी सांसों तक पहुंचने के लिए
धमा- चौकड़ी मचा रहा है लगातार

सुनो! तुम भी आओ
उसे भी बुला लो
मेसेज कर दो मेघ को भी
आये, बरसे खूब
बहुत मैल चढ़ गया है मन पर
चलो मिलते हैं पार्क में
झूलते हैं साथ-साथ
बहुत दिन हो गये 
ठीक से खाया-पीया नहीं
ढाबे में कुछ खाते हैं
चलो मिलते हैं अपने डर से
जरा घर को देखते हैं बाहर से


७/६/२०२०

१५.
भूखा होना कोई अपराध नहीं
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वह भूखी थी
भूखा होना कोई अपराध नहीं है
उसे कैसे पता चलता कि यह जो फल 
की‌ तरह दिख रहा है, फल नहीं है
उसने केवल एक अननास 
उठाया था खाने के लिए

वह अकेले शिकार नहीं हुई
उसका अजन्मा बच्चा भी मारा गया
उसकी कई पीढ़ियां मारी गयीं 
थोड़ा जंगल भी मारा गया
शिकारी निकल गया जाल बिछाकर

वे भी भूखे थे
वे बस जिंदा रहना चाहते थे
जिंदा रहने की आकांक्षा कोई अपराध नहीं है
पुराने नोट बेकार हो गये थे
वे लाइन में खड़े थे पैसे निकालने के लिए
घंटों खड़े-खड़े बेहोश होकर गिरे और मारे गये
जब अचानक पूरा देश बंद कर दिया गया
और उनके पास खाने को कुछ नहीं बचा 
वे शहरों से निकल पड़े गांवों के लिए

वे भी अकेले शिकार नहीं हुए रास्ते में
उनके साथ मारे गये उनके बच्चे
उनकी कई पीढ़ियां 
थोड़ा देश भी मारा गया

अक्सर शिकारी निकल जाते हैं बचकर
किसको पता नहीं, शिकारी कौन है
कल क्या बोल पायेंगे, जो आज मौन हैं


४/६/२०२०

१६.
मां उठेगी
------------

अभी‌ अभी उसने दोनों ‌
पांवों पर खड़ा होना सीखा है
अभी वह दौड़ना चाहता है
अभी वह खेलना चाहता है
अभी वह भूखा भी नहीं है
अभी उसे किसी ने डांटा भी नहीं
अभी उसके रोने की कोई वजह नहीं
अभी उसकी मां सोई है प्लेटफार्म पर
अभी वह जानता है कि मां उठेगी
अभी वह और कुछ भी नहीं जानना चाहता


१/६/२०२०

१७.
एक चिट्ठी ज्योति बेटी के नाम
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ज्योति बेटी ! वे तुम्हें खोज रहे हैं
साइकिलिंग का मौका देना चाहते हैं
लेकिन अभी वे तुम्हारी परीक्षा लेंगे
और पास हो जाओगी तो अपने पत्ते खोलेंगे
तुम्हारे साहस पर, तुम्हारे इरादे पर
अभी उन्हें भरोसा नहीं है

वे सारी लड़कियों को मौका नहीं देते
उन्हें आम बच्चियों की चिंता नहीं है
तुम भी आम होती
पिता की निरुपायता पर रोती
और रोते-रोते मर जाती
तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता 
उन्होंने तुम्हें फोन किया 
क्योंकि तुमने असहायता को ठुकरा दिया
असंभव को संभव कर दिखाया

गुरुग्राम से दरभंगा तक
१२ सौ किमी सिर्फ सात दिन में
घायल पिता को कैरियर पर लादे
साइकिल से
बेटी ! यह कोई साधारण बात नहीं है
यूं ही इवांका मुग्ध नहीं हैं तुम पर
बात इतनी सरल नहीं है
जो तमाम लोग तुम्हारी पीठ थपथपा रहे

ये जो अपना मुकुट तुम्हारे कदमों में डाल रहे
ये तुम्हारा सम्मान नहीं करते
ये तुम्हारे इरादे से डरते हैं
तुमने देखा नहीं
जब लाखों लोग भूख-प्यास, थकान और
मौत को चुनौती देते हुए सड़कों पर निकल पड़े
तब भी वे डर गये थे
वे हर मजबूत इरादे से
हर अबाध संकल्प से डर जाते हैं
तभी तो लोग रास्ते में मरते रहे
घायल होते रहे, खुदकुशी करते रहे
और वे खामोश सब कुछ देखते रहे

उन्हें तुम्हारे नाम से तब तक कोई परेशानी नहीं
जब तक वे उसके मायने नहीं समझते
तुम्हारे पिता ने तुम्हारा नाम यूं ही नहीं रखा होगा
नाम रखते हुए उन्हें अपने चारों ओर पसरे
गहरे अंधेरे का अहसास जरुर रहा होगा
अंधेरा नहीं होता तो वे इतनी दूर
दिल्ली में आकर रिक्शा नहीं खींचते
बेशक उन्हें उजाले की दरकार थी
इसीलिए उन्होंने तुम्हारा नाम ज्योति रखा
और तुमने उनकी उम्मीद को अर्थ दिया
तुम थी तो मुश्किल वक्त में पिता की 
जिंदगी में सांसों का उजाला बचा रह गया

सावधान रहना बेटी ! 
जब भी कोई साहस, कोई इरादा, कोई रोशनी
दिखती है, वे डर जाते हैं
और कोई जाल बुनने लगते हैं

मुझे अच्छा नहीं लगा तुम्हारा ये कहना
कि तुम बेटी नहीं बेटा हो
बेटी बने रहना
बेटी होना कोई कमतर होना नहीं है
बेटी होकर तुमने जो कर दिखाया है
उससे बेटियों का माथा चौड़ा हुआ है
सिर्फ १५ साल, अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है
अभी हो सके तो पढ़ना, लिखना
अपने भीतर रोशनी जमा करना
अवसर मिले तो बच्चों को ऐसी कहानियां सुनाना
जो उनमें जीवन के पक्ष में खड़े रहने का
साहस पैदा कर सके
बहुत प्रशंसाओं से भटक मत जाना
बहुत प्रस्तावों से भी गुमराह मत होना

कुछ समझ में न आये तो बुधिया को याद करना
उसने साढ़े चार साल की उम्र में मैराथन पूरा किया
पुरी से भुवनेश्वर तक की ६५ किमी की दूरी
महज सात घंटे में पूरी की
जैसे तुम्हारी हिम्मत देख वे दंग हैं
उसी तरह तब भी पगला गये थे सब के सब
फिल्म बनी 'बुधिया सिंह बार्न टु रन'
उसे बहला-फुसला कर ले गये वे ट्रेनिंग के लिए
हास्टल में डालकर भूल गये
और फिर कभी बुधिया 
लौट नहीं सका मैराथन में

सुनो! कोई भी दिक्कत आये 
तो बोलना, चुप मत रह जाना


२४/५/२०२०

१८.
तस्वीरें
--------

तस्वीरों में जितना दिखता है
उससे ज्यादा रह जाता है बाहर
तस्वीरें कहां बताती हैं कि कभी भी 
बदल सकती है तस्वीर

शहर में छले गये लाखों लोगों का
पैदल ही चल पड़ पड़ना गांवों की ओर
तस्वीरों में दिखता है
पर कोई भी तस्वीर कहां बताती है
कि‌ इतने सारे पांव चाहें तो एक झटके में
रौंद सकते हैं शाही तख्त को

रात-दिन चलते मजदूरों के
चेहरों पर गहरी थकान
और रास्तों पर जगह-जगह मौत के निशान
तस्वीरों में दिखते हैं 
पर कोई भी तस्वीर कहां बताती है
कि सारा दुख गुस्से में बदल जाय 
तो दरक सकते हैं बड़े से बड़े किले

तस्वीरें अधूरी रहती हैं हमेशा
जब कैमरे बंद रहते हैं
तब भी सूरज रुकता नहीं
जरा सोचो ! उन तस्वीरों के बारे में
जो‌ अब तक किसी फ्रेम में नहीं आयीं

आयेंगी, कभी तो आयेंगी
छल की छाती पर लाखों पांवों के
समवेत धमक की तस्वीर
समूची तस्वीर बदल 
जाने की तस्वीर


२३/५/२०२०

१९.
सड़क पर
------------

उन्होंने अचानक शहर 
पर ताला लगा दिया
हजारों लोग सड़क पर आ गये 
उन्होंने ‌सपने में भी नहीं सोचा होगा
कि वे सब चल पड़ेंगे

उन्हें बार-बार रोका गया
बीमारी का डर दिखाया गया
सड़कें बंद कर दी गयीं
डंडे बरसाये गये
कीटनाशक की बौछार की गयी
जब उन्हें किसी भी तरह 
रोक पाना मुश्किल हो गया 
तो आइसोलेशन के नाम पर
कैद में डाल दिया गया
मिलने-जुलने पर पाबंदी लगा दी गयी
भूखा रहने को मजबूर किया गया

जितने रोके गये, उससे ज्यादा
निकल आये सड़कों पर
दुनिया भौचक रह गयी 
अनगिन पांवों को दुख भरी लय में 
एक ही दिशा में‌ चलते देखकर

कुछ साइकिल से, कुछ रिक्शे से
और बाकी साहस बटोरकर 
पैदल ही चल पड़े गाँव की ओर
अपना सामान, अपने बच्चे
कंधे पर सम्भाले हुए
भूख, दूरी, थकान और 
मृत्यु को चुनौती देते हुए

कुछ रास्ते में मारे गये 
धूप‌ और थकान से
कुछ ट्रक से टकराकर
कुछ नींद में ट्रेन से कटकर 
रोटियां टूटे हुए सपनों की 
मानिंद बिखर गयीं पटरी पर
जो बच गये, चलते रहे
नये काफिले आते गये
जीने की जिद बढ़ती गयी
गांव पास आते गये

जो सड़क पर होंगे
वे एक न एक दिन समझ ही‌ जायेंगे
कि सड़क एक संभावना है
वे समझ जायेंगे कि जैसे 
सड़कें तमाम मुश्किलें पार  
करती चली जाती हैं गांव तक
बिलकुल वैसे ही जा  
सकतीं हैं संसद तक


९/५/२०२०

२०.
नदी के बहने का अंदाज 
कुछ बदला हुआ है
एक युग बाद उसकी 
पूरी देह में उतरी है धूप
उसके भीतर चमक रहीं 
आंखें मछलियों की 
नदी कपड़े बदल रही है

आसमान पहले से कहीं 
ज्यादा नीला हो गया है
बादल और सफेद हो गये हैं
बच्चों की कल्पनाओं के रूप धर 
उन्मुक्त उड़ान भरते हुए

हिमालय काफी दूर से दिखने लगा है
क्षितिज पर बर्फ से बनायी पेंटिंग की तरह 
मानो वह सैकड़ों मील दक्षिण खिसक आया हो

परिंदों की आवाजें तेज हो गयी हैं
घरों में कैद बूढ़े खुश हो रहे
हर सुबह उम्र में पीछे लौटकर
दूर घोंसलों में इंतजार करते 
बच्चों तक पहुँच रही खाना तलाशने 
निकली मां की चिचियाहट 

जिन्हें जंगल के भीतर खदेड़ दिया गया था
वे अपनी सरहदें लांघ निकल आये हैं 
गांवों, कस्बों और शहरों की सीमाओं तक
जंगल पास आना चाहता है‌ आगे बढ़कर

अचानक बहुत चौड़ी हो गयी हैं सड़कें
सारा बोझ सिर से उतार कर 
अनकहे सुनसान में भागती हुईं
संकरी और लगभग बंद होती हुई 

लोग जिंदा लोगों से बचकर निकल रहे
लोग लाशों से और भी बचकर निकल रहे
कई खूबसूरत जगहें लाशों से अंटी पड़ी हैं
मुर्दाघरों और कब्रिस्तानों के बाहर
अपनी बारी के इंतजार में हैं लाशें
जिंदा लोगों को गले लगाना चाहती हैं लाशें

मृत्यु पर बहसें हो रहीं चारों ओर
कितना फासला रखा जाय मृत्यु से?
मनुष्य से बचकर क्या मृत्यु से बचना संभव है?
अकेले रहकर क्या मृत्यु को टाला जा सकता है?
किन चीजों में छिपकर आ सकती है मृत्यु?
क्या वह हवा में उड़कर भी आ सकती है?

इस बहस से बिलकुल अलग 
कुछ साहसी लोग खुद ही आ गये हैं 
मृत्यु से दो-दो हाथ करने
जान हथेली पर लिये पीछा कर रहे मृत्यु का
जिनकी मुक्ति के लिए लड़ रहे
उन्हीं के हाथों पत्थर खा रहे
हाथ भी कटवा रहे

बड़े- बड़े तानाशाह हांफ रहे
परमाणु बम दुनिया को तबाह कर सकते हैं
पर एक मामूली वायरस का कुछ नहीं बिगाड़ सकते
असहाय हैं पादरी, पुजारी और धर्माधिकारी
ईश्वर बेमियादी क्वारेंटीन में चला गया है
स्तम्भन, उच्चाटन और मारण मंत्र काम नहीं आ रहे
सारी क्रूरताएं और बर्बरताएं निरुपाय 
याचना की मुद्रा में खड़ी हैं
जान बख्श देने की प्रार्थना करती हुईं

जो जीतना चाहते हैं इसे युद्ध की तरह
उनसे पूछो, पांडव भी कहां 
जीत सके थे महाभारत
जीतते तो हिमालय से अपनी ही
मृत्यु का वरदान क्यों मांगते
१८ दिन का हो, २१ का या इससे भी लम्बा
युद्ध जब भी होगा, लोग मारे जायेंगे
और मौतों पर कोई जीत का उत्सव 
आखिर कैसे मना पायेगा

जीतेंगे वे जो लड़ेगे 
युद्ध टालने के लिए
भूख, बीमारी और मौतों से
लोगों को बचाने के लिए
कल सिर्फ वही जियेंगे
जो आज मरेंगे दूसरों के लिए


१२/४/२०२०
२१.


ओह, दुखद
--------------

कल तक वह बिलकुल ठीक था
खुश था, बात कर रहा था
कह रहा था, सब कुछ भूलकर
रोज दस मिनट हंसना चाहिए
कहते-कहते हंस पड़ा था

आज सुबह उठा
पत्नी ने चाय दी
पीकर बोला, बहुत अच्छी बनी है
टहलने गया, लौटकर स्नान किया
अगरबत्ती जलायी, हाथ जोड़कर
दो मिनट प्रार्थना की
मां को दवा दी और उनसे कहा
दर्द को काबू में रखना है तो 
ज्यादा से ज्यादा आराम कीजिये 
बच्चों से पढ़ाई- लिखाई के बारे में पूछा
उनसे कहा, लगन से पढ़ो
समय बहुत खराब है

समय से आफिस के लिए निकला
रास्ते में जो भी मिला, सबसे यही कहा
भाई जरा फासले से मिलो
मास्क लगा के निकलो
बचाव ही एकमात्र उपाय है
शाम को अचानक गला खराब हुआ
सांस लेने में दिक्कत महसूस हुई
लाद-फांद के अस्पताल गया

उसके लिए कोई यज्ञ नहीं हुआ
डाक्टरों की कोई टीम नहीं बनायी गयी
कोई बुलेटिन जारी नहीं हुई
अगले दिन वह बेजान 
आंकड़ों का हिस्सा बनकर रह गया   
जानने वालों ने टिप्पणियाँ की, ओह दुखद 
और अपने-अपने काम में लग गये

१७/७/२०२०

२२.
कुछ ध्वनियां हैं अंतरिक्ष में
जो अभी तक हमारे पास नहीं पहुंची
कुछ रोशनियां भी हजारों साल से 
चली आ रही हैं हमारी ओर
कुछ कविताएं हैं उनमें 
गूंजती हुई, चमकती हुई

दरवाजे, खिड़कियाँ खोल दो 
दीवारों से बाहर निकल जाओ
बहुत सरल नहीं होती है प्रतीक्षा 
एक बार ठीक से सोच लो फिर आओ
आओ तो, अनंत समय लेकर आओ

१९/६/२०२०
२३.
एक बात छोटे भाई से
--------------------------

पिता जी बहुत नाराज होंगे
जब उन्हें मालूम होगा कि तुमने 
बीमारी के बारे में किसी को कुछ नहीं बताया 
ऐसे वक्त में जब महामारी से ज्यादा
महामारी का डर फैला हो चारों ओर
बीमारी के बारे में इतनी आश्वस्ति  
का मतलब समझ में नहीं आता

वे बहुत उदास होंगे तुम्हारे बच्चों के लिए 
उन फूलों के लिए, जो तुमने लगाये थे घर में 
खेत-खलिहान के लिए, बगीचे के लिए 
जिन्हें तुम्हारे बगैर हरा रहना सीखना होगा

इतने वर्षों बाद मां तुम्हें देखेगी तो उसकी 
आंखों से पूरी नदी ही बह निकलेगी
उसे बताना कि कुछ दिनों की यात्रा पर आये हो
वह सच्चाई का सदमा सहन नहीं कर पायेगी
उसे भूले से भी पता चला कि तुम किसी
मामूली बीमारी से मर गये हो तो उसे
एक बार फिर मरने से बचाना संभव नहीं होगा
असली जिंदगी में वह बार-बार मरती आयी है
जब कभी उसके बच्चों को कुछ चाहिए होता 
और वह कर नहीं पाती तो जीते जी मर जाती
वह सपने देखती जो अक्सर सच नहीं हो पाते
और उसकी आंखों में बार- बार डबडबा आते
वह इतनी बार मरी कि जब वह आखिरी 
बार मरी तब भी हम यही समझते रहे 
कि वह एक बार फिर मरने के लिए जी उठेगी

गांव-गिरांव के तमाम लोग भी 
जानना चाहेंगे तुम्हारे आने की वजह
उनसे मिलना तो बेवजह बहस मत करना
चुप रहना या मुस्कराकर टाल देना 

जब भी कोई प्रिय इस तरह चला जाता है
बहुत दुख होता है, बहुत सवाल भी उठते हैं
क्या इसी अंत के लिए जन्मता है मनुष्य
क्या इसी मृत्यु के लिए जीता है मनुष्य
क्या मरने से बचकर जीना संभव है
इन सवालों पर हमारे पुरखों ने बार-बार सोचा
बुद्ध ने सोचा, गोरख ने सोचा, कबीर ने सोचा
हम उन्हें गाते हैं लेकिन क्या समझते भी हैं 

तुम थे तो बहुत सारी बातें थी, तमाम कथाएँ थीं
तुम गये तो एक पंक्ति भी नहीं थी तुम्हारे लिये
सिर्फ एक गहरी खामोशी थी जो अचानक
तुम्हारे ५७ वर्षों के सफर पर छा गयी थी

तुम इस तरह सोये हो जैसे वर्षों की
नींद बचाकर रखी थी आज के लिए
तुम इतने निश्चल हो गये हो कि तुम्हारे 
ऊपर पड़े ये फूल हिल-डुल नहीं पा रहे
कोई तुम्हारे सिरहाने अगर सुलगा रहा है 
कोई बार-बार विसंक्रमित कर रहा है तुम्हें
कोई‌ नहला रहा है, कपड़े पहना रहा है
तुमने किसी से नहीं कहा कि यह सब बंद करो
मुझे देवता मत बनाओ, मनुष्य ही रहने दो
मैं यादों की गहरी आंधी में फंस गया हूँ 
सोचता हूँ कोई ऐसी बात करूं जिससे तुम
कहीं बहुत गहरे सुलग उठो 
और फिर से धड़क उठो


२४/७/२०२०
२४.
एक था राजा

------------

राजा के शौक में शामिल था शिकार
वह उनका शिकार करता था
जो उसके निर्मम इरादे पहचानते
जो उसके झूठ का पर्दाफाश करते
उसकी कमअकली की ओर इशारा करते

वह उन सबका शिकार करता
जो उसके लिए खतरा हो सकते थे

जो भी उसके हुक्म की नुक्ताचीनी करता
किसी वाहन से टकराकर
किसी ऊँची इमारत से गिरकर
किसी नदी में बहकर मारा जाता

वह शेर की खाल में भूसा भरकर
उसे ऊँची जगह पर रखवाता
ताकि लोग भूलें नहीं कि वह
शिकार करने की कुवत रखता है

वह नहीं चाहता था कि उसके राज्य में
कोई बहादुर, कोई साहसी बचे
कोई उसे टोकने की हिम्मत करे
वह चाहता था कि सिर्फ उसका हुक्म चले
वही बोले, कोई और न बोले


९-६-२०१८

२५.

ओह, दुखद
--------------

कल तक वह बिलकुल ठीक था
खुश था, बात कर रहा था
कह रहा था, सब कुछ भूलकर
रोज दस मिनट हंसना चाहिए
कहते-कहते हंस पड़ा था

आज सुबह उठा
पत्नी ने चाय दी
पीकर बोला, बहुत अच्छी बनी है
टहलने गया, लौटकर स्नान किया
अगरबत्ती जलायी, हाथ जोड़कर
दो मिनट प्रार्थना की
मां को दवा दी और उनसे कहा
दर्द को काबू में रखना है तो 
ज्यादा से ज्यादा आराम कीजिये 
बच्चों से पढ़ाई- लिखाई के बारे में पूछा
उनसे कहा, लगन से पढ़ो
समय बहुत खराब है

समय से आफिस के लिए निकला
रास्ते में जो भी मिला, सबसे यही कहा
भाई जरा फासले से मिलो
मास्क लगा के निकलो
बचाव ही एकमात्र उपाय है
शाम को अचानक गला खराब हुआ
सांस लेने में दिक्कत महसूस हुई
लाद-फांद के अस्पताल गया

उसके लिए कोई यज्ञ नहीं हुआ
डाक्टरों की कोई टीम नहीं बनायी गयी
कोई बुलेटिन जारी नहीं हुई
अगले दिन वह बेजान 
आंकड़ों का हिस्सा बनकर रह गया   
जानने वालों ने टिप्पणियाँ की, ओह दुखद 
और अपने-अपने काम में लग गये

१७/७/२०२०


★वरिष्ठ कवि मदन कश्यप★
जन्म : २९ मई ,१९५४
जन्म स्थान : वैशाली ,बिहार

रचनाएँ : गूलर के फूल नहीं खिलते (1990), लेकिन उदास है पृथ्वी / मदन कश्यप (1993), नीम रोशनी में (2000) , पनसोखा है इन्द्रधनुष।


सम्मान : 

कविताएँ :-

१.
लोमड़ी पुरुष 
              (Fox Man)
                                 मदन कश्यप 

घृणा और ईर्ष्या से लथपथ हो कर 
वे कहते हैं 
हमारे समय में नफ़रत बढती जा रही है 
घृणा के सौदागर 
प्यार का अधिकार भी अपने पास रखना चाहते हैं 

मनुष्य को घेर कर उसका शिकार करनेवाले 
किसी जानवर के मारे जाने पर 
दुखी जनों की करुणा में शामिल हो जाते हैं 
क्रूर हत्यारे 
संवेदना पर भी अघिकार क़ायम करना चाहते हैं 

हिन्स्र गुटबंदियों से 
समरसता को लहू-लुहान  करनेवाले 
विचारधाराओं को रौंदनेवाले 
शांत भाव से कहते हैं 
समाज और राजनीति में ही नहीं 
संस्कृति और साहित्य में भी 
गुटबंदियाँ बढती जा रही हैं
अवसरवाद बढ़ता जा रहा है 
लोमड़ी पुरुष 
अपने विरुद्ध चलनेवाली लड़ाई पर भी 
काबिज हो जाना चाहते हैं!

          ।।                         Madan Kashyap

२.
मैं साँस नहीं ले पा रहा हूँ 
    मदन कश्यप 

वह न रोया
न गिड़गिड़ाया 
न दया की भीख मांगी

बस एक सच को 
अपने समय  
और समाज के सत्य को 
तथ्य की तरह रखा

साँस टूटने के पहले की
आखिरी आवाज़ थी

'मैं साँस नहीं ले पा रहा हूँ '!

३.
वह एक तुम्हारा स्पर्श ही तो था
कि जिससे ईश्वर के होने की अनुभूति होती थी

कोरोना ने मुझे निरीश्वर कर दिया!

४.
जयघोष
उसने हमारा बाँया हाथ काट लिया
हमने उसका जयजयकार किया
कि हम वामपंथ से मुक्त हुए
कि यह समय दक्षिण का है

उसने हमारा दाहिना हाथ काट लिया
हम और कृतज्ञ हुए
और ज़ोर से जयघोष किया

कि चलो अब हम पंथ मुक्त हुए!

५.
थोड़े से कवि फ़ासिस्ट थे
बाकी कवि
कवि होने के कारण उसके साथ थे
थोड़ी सी स्त्रियाँ फ़ासिस्ट थीं
बाकी स्त्रियाँ
स्त्री होने के कारण उसके साथ थीं
थोड़े से युवा फ़ासिस्ट थे
बाकी युवा
युवा होने के कारण उसके साथ थे

इस तरह बन रही थी

थोड़े से फ़ासिस्टों की बड़ी जमात!


★वरिष्ठ कवि स्वप्निल श्रीवास्तव★

जन्म : ०५ अक्टूबर, १९५४
जन्म स्थान : ग्राम मेहनौना, सिध्दार्थनगर उत्तर प्रदेश

रचनाएँ : ईश्वर एक लाठी है (1980) काव्य संग्रह, ताख पर दियासलाई (1998) काव्य संग्रह, मुझे दूसरी पृथ्वी चाहिए (2004) काव्य संग्रह

सम्मान : भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार(1986), फ़िराक पुरस्कार (2007)

कविताएँ :-
१.

एक आदमी के मारे जाने से
बहुत से लोग बच जाते हैं
बच जाता है थाना
अदालते बच जाती हैं
और प्राकान्तर से बच
जाती है सरकार

जो लोग उसे बचाते थे वे 
अपने बचाव की मुद्रा में आ
जाते हैं

वह आदमी अपने रहस्य के साथ
मारा जाता है
उसका मारा जाना भी कम
रहस्यपूर्ण नही होता

मारे जाने के पहले वह नायक
होता है फिर खलनायक में बदल
जाता है
उसके किस्से गाये जाते हैं
कुछ समय के लिए लोककथाएं
अपदस्थ कर दी जाती है

उसके प्रभामण्डल के निर्माताओं
को चैन की नींद मिल जाती है
वे निर्भय हो जाते हैं

ऐसे ही हमारे समय में कोई न कोई 
   आदमी खतरनाक होने लगता है
उसके होने के खतरे बढ़ने लगते है

जब वह सत्ता से ज्यादा खतरनाक
होने लगता है- उसे मार दिया 

जाता है ।

२.
ग़ज़ल समारोहों में अगर ताली बजानेवाले उत्साही लोग
न हो तो उस कार्यक्रम की महिमा
घट जाती है
ग़ज़ल गायक सबसे पहले अपने गले की खराश
ठीक करते है
वे तबलचियो और वाद्य अनुचरों को
ताकीद करते है फिर हारमोनियम
के सामने के सामने बैठ कर धुन निकालने
लगते हैं

शुरू में वे लंबा आलाप लेते है और तब तक
परवाज़ भरते हैं जब तक हाल से तालियों
की आवाज न आने लगे

वे श्रोताओं से तालियां  वसूल करने की
हिकमत  जानते है
इस मामले में वे पर्याप्त जिद्दी होते हैं

वे जिस लय में गाते है उसी लय में
श्रोताओं की मूडी हिलने लगती है
जो ऐसा नहीं करते उन्हें पिछड़ा हुआ
श्रोता माना जाता है
इस इल्जाम से बचने के लिए
बाकी लोग भी उनका अनुकरण करने
लगते हैं

वे हर पंक्ति पर श्रोताओं का ध्यान आकर्षित
करने के लिए ललकारते है 
उनके संगीत ज्ञान की चुनौती देते है

बाज श्रोताओं का दिल उस खूबसूरत
स्त्री पर लगा रहता है जो एक खूबसूरत
सितार को संभाले हुए सितार के तार
छेड़ती रहती है

ऐसे समारोहों में साधारण श्रोताओं के लिए
कोई खास जगह नहीं होती है
इसमें से ज्यादा श्रोता कार से आए
हुए होते हैं

ग़ज़ल गायक रेल या बस से नहीं हवाईजहाज
से आते है और आयोजकों से अच्छी
रकम वसूल करते है

वे लोकगायक की तरह स्थानीय नहीं होते
वे सुदूर देशों में अपनी गजल सुनाने
के लिए आते जाते रहते है
वे किसी देश के प्रधानमंत्री की तरह
वैश्विक होते है

छोटे मोटे देशों के बादशाह उनके कार्यक्रमों
में उपस्थित रहते है और अच्छे श्रोता का
प्रमाण देते रहते हैं

ऐसे ग़ज़ल गायकों से कोई आम आदमी
नहीं मिल सकता है
उनसे हाथ मिलाने  लोग अभिजात और बड़े
रसूखदार बन्दे होते हैं

सुबह सुबह महानगर के सभी अखबारों में
समारोह की खबर वायरल हो जाती है
उनके साथ चहकनेवाले लोगो में  शहर के
मशहूर माफिया और  घोटालेबाज राजनेता
की  फोटो को देखकर आपको तनिक भी

ताज्जुब नहीं करना चाहिए ।

३.
वह बच्चा बड़ा हो गया होगा
जो बारिश आते ही कागज की नांव
बनाता और पानी में तैराता था

वह नांव की पीठ पर इतना सामान
रखता था कि वह डगमगा न सके
और अबाध अपनी यात्रा तय कर सके

उसके भीतर अच्छे नाविक के
गुण थे
जरूर आगे चल कर वह कई लोगो
का नाख़ुदा बना होगा

जब नांव रूक जाती थी वह उसे
तिनके के पतवार से चलाता था
और मांझी के गीत गाता था

वह बताता था कि भले ही जिंदगी का 
काम गीत के बिना चल जाये
लेकिन नांव गीत गाये बिना आगे नही
बढ़ सकती
नाविकों  को अच्छा गायक भी होना
चाहिए

जब बारिश होती तो मुझे उस बच्चे की
बेसाख़्ता याद आती है
उसके बिना बारिश और नांव का कोई
दृश्य नही पूरा होता

वर्षों से उसे नदियों के तटों पर खोज
रहा हूँ 
नाविकों से पूंछ पूंछ कर थक
गया हूँ 

बस अब बादलों से पूछना बाकी है
वे उसके अच्छे दोस्त थे
वह अक्सर उनसे बारिश के दिनों में
बातचीत करता था

मुझे पूरी उम्मीद है कि बादलों से

उसका पता मिल जाएगा

४.

तुम्हारे पास चांद सितारे थे तो
मेरे पास जुगुनू थे
जो मेरी अंधेरी रातों में यदा कदा
चमक जाते थे

बाकी दिनों में वे जंगलों को प्रकाशित
करते थे

तुम्हारे पास इतनी जगह नही कि तुम
चांद सितारों को रख सको
उसके लिए कई  पृथ्वियों के बराबर की
जगह चाहिए

लेकिन मेरे जुगुनू तो मेरी हथेलियों में
समा जाते थे, उनके लिए मुझे कोई
जहमत नही उठानी पड़ती
वे सहज भाव से मेरे साथ रहते थे
जब भी जरूरत होती थी उन्हें बुला
लेता था

तुम दूर की चीजों को खोजते हुए
संसार से दूर होते चले गए

मैंने बस इतनी दूर तक अपने हाथ उठाये
कि अपनी इच्छा के हिसाब से चीजों
को हासिल कर सकूँ

मुझे बस थोड़ी सी जगह और इतनी सी
रोशनी चाहिए कि मैं अपने लोगो के
चेहरे ठीक से देख सकूं
और तुम अपने बौने पांवों से ब्रह्मांड
नापना चाहते थे और अपने पदचाप भी

गंवा बैठे ।

४.
तुमने मुझे कहां छिपा कर रख दिया है कि
मैं तुम्हारी आँखों मे भी नही
दिखाई दे रहा हूँ

तमाम मिलन-स्थलों पर मैंने खोजा
अपनी मनपसन्द किताबों तक गया
जहां तुम मुझे फूल की तरह छिपा
दिया करती थी

आईने की तलाशी ली लेकिन वहां
भी मेरे होने का कोई  सुबूत नही मिला
सिनेमाहाल के मैटिनी शो में भी मेरी सीट
खाली थी 

ताख पर होता तो दियासलाई की तरह
मिल जाता
अंगोछा होता तो पिता के कंधे पर
बरामद हो जाता

मैं परिचित जगहों पर होता तो
न मिलता ?
मैं नही मिल रहा हूँ तो इसका
मतलब यह नही है कि मैं गुम
हो गया हूँ 

मैं उन तमाम लोगो के बीच छिपा
हुआ हूँ जो मुझसे प्यार करते हैं

अच्छा है कि मैं किसी से नही मिल
पा रहा हूँ - अन्यथा खलनायक  मुझे
 प्रेम करने के जुर्म में फांसी पर 

चढ़ा देते ।

५.

तुम्हारी हिदायतो से जी ऊब गया है -
मेरी जान
कुछ नयी बात तो करो

हमे डराओ नही और न
हम पर रहम करो
हमे अपने हाल पर छोड़ दो
हम अपने बचने और जीने का
रास्ता खोज लेगे

दिन में तुम इतनी बार दिखते हो
कि शक होता है कि यह तुम हो
या तुम्हारी परछाई है

हमारे बुझे हुए चेहरे देखो
वह कितनी तकलीफों से बोझिल है

दूसरी तरफ तुम्हारा ताजगी से भरा
चेहरा है जो लगता है कि अभी
नहा कर आया है -उस पर चिंता
के कोई निशान नही है

तुम अगर हमसे इश्क करते हो
तो सुबूत तो दो , कब तक इन्तहान
लेते रहोगे ।

अच्छा यह है कि तुम कुछ दिनों
के लिए छिप जाओ
फिर जाहिर हो जाओ
हम तुम्हें नई अदा से देखने की

कोशिश करेंगे -मेरी जान

६.
जो कुछ भी हो
खूबसूरत हो

तुम्हारे हाथों अगर मेरा कत्ल हो
तो लोग खूबसूरती की मिसाल दे

जिंदगी भले ही थोड़ी बदसूरत हो
लेकिन मौत को लोग खूबसूरत
कहने को मजबूर हो जाय

जिद्द भी खूबसूरत हो
जैसे कोई कहे कि मुझे चांद चाहिए
तो यह वाक्य इतनी खूबसूरती से
कहा जाय कि चांद भी
शरमा जाय

जिन जाहिलों ने इस दुनिया को
बदसूरत बनाया है , उसे खूबसूरत
बना कर उन्हें शिकस्त दी जा सकती है

अगर मैं तुम्हारे लिए कोई खूबसूरत
कविता लिखूं तो तुम उसी तरह
दिखने लग जाओ

खुदा मुझे इस तरह के कमाल

करने का हुनर दे ।

७.
जब कोई मेरी प्रशंसा करता है
तो मुझे डर लगने लगता है
मैं जान जाता हूँ कि किसी अन्य उद्देश्य
के लिए मेरा चुनाव कर लिया गया है

 प्रशंसा एक तरह का बध भी है
जिसे मासूम लोग नही जानते
वे स्थायी मुग्धवस्था में पहुंच कर
ठहर जाते हैं

उनकी तरक्की के रास्ते बंद
हो जाते है ।

प्रशंसक बड़े शातिर जीव होते हैं
वे हमें अपनी जगह से हटा कर
किसी दूसरे के लिए स्थान खाली
करवाते हैं

उनकी जुबान में छिपा  रहता  है खंजर
जिससे वे किस्तों में हमारा कत्ल
करते रहते है ।
वे अपने वक्त के पुराने कसाई है

जो लोग खुद अपनी तारीफ 
करते हैं , उनके भीतर खुदकुशी
के वायरस पाए जाते है
एक दिन वे दुखद हो जाते हैं

प्रशंसक हमे हांक कर चोटी पर
ले जाते हैं और वहां हमे अकेला
छोड़ देते है
वे उतरने की सारी सीढियां गिरा कर
चले जाते है

समझदार लोग खामोशी से अपना
काम करते रहते है
उन्हें किसी  की प्रतिक्रिया का इंतजार
नही रहता
वे अपने दुश्मनों की शक्ल

पहचानते हैं ।

८.
पागलों का एक देश था
सबसे बड़ा पागल उस मुल्क
का बादशाह था

अव्वल दर्जे के पागलों को
बड़े ओहदों से नवाजा
गया था

जिसके पास थोड़ी अक्ल थी
उसे पागलखाने में भेजने की
तैयारी की जा रही थी

नागरिकों को पागल बनाये जाने
के कई कारखाने चल रहे थे
उसमें से किसिम किसिम के पागल
पैदा हो रहे थे

पागलपन ही उस देश की 
नागरिकता थी
जो पागल नही था उसे देश निकाला
दे दिया गया था

पागलों के बीच जो बातचीत
होती थी ,उसे विमर्श कह कर
महिमामण्डित किया जाता था

मनुष्यों की तरह नही थी
उनकी हरकते
उन्हें देखकर जंगल के बाशिंदे
हँसते थे

मानव जाति को हजारों साल
सभ्य होने में लगे थे
लेकिन कुछ सालों में उसने
असभ्य होने का रूतबा हासिल

कर लिया था
९.
बारिश में छातों की क्या जरूरत
छातें तो वे पहनते हैं
जिन्हें भीगने से डर लगता है
जरा सा पानी बरसा नहीं कि
लोग घर के भीतर छिपने
लगते हैं

पहाड़ ,नदी ,पेड़ पौधे मौसम
के विरुद्ध कोई इंतजाम नहीं
करते , वे सहज रहते हैं
ऊफ तक नहीं करते

चिरई _चुरूंग रेनकोट नहीं पहनते
भीगना उनका प्रिय शगल है
वे घोसलों में कम उसके बाहर
ज्यादा रहते हैं

आदमी ही एक परिंदा हैं जिसे
भीगने से भय लगता है
छाते के बिना अधूरी होती है
उसकी बारिश

जो कवि भीगने से डरते हैं
वे बारिश पर अच्छी कविताएं
नहीं लिख सकते
बादलों से दोस्ती तो दूर की

बात है


० -बंजारे
---
बंजारे अपने कंधे पर अपना
घर लिए चलते थे
मैं अपनी यातना के साथ
चलता था

जो भी जिसके साथ था
वह उसी के साथ चलता था

सब के अपने अपने कंधे
बोझ और उसे ढोने के तौर
तरीके थे

बहुत कम लोग अपना रास्ता
तय कर पाते थे
कुछ बीच में थककर
बैठ जाते थे
लेकिन मैं अंत तक
चलता रहा

मैं जितना आगे चलता था
उतना पीछे छूट जाता था

बंजारे जब दुखी होते थे
तो गीत गाते थे
और मैं अपनी कविताएं
पढ़ता था

कुछ बंजारे कवि थे
मैं उनके बीच बंजारा था
१२- चाबियों के गुच्छे
---
 वे चाबियों के गुच्छे की तरह थे
अपने अपने तालों की खोज में
बिछुड़ गए थे

जहां वे थे उससे बहुत दूर
उन्हें जाना पड़ा था

कोई तालों के शहर में गया
कोई तिजोरियों के देश मे
रम गया

किसी के ताले बेरोजगार थे
वे किसी भी हिकमत से
नही खुलते थे

हर चाबी की अपनी अपनी
किस्मत थी
कुछ ऐसी चाबियां थी जिससे
एक साथ कई ताले खुल
जाते थे

कुछ बेमेल चाबियां थी जो तालों
के स्वभाव से नही खाती थी
उनका होना न होने के बराबर था
उन्हें इतने दिन बाद बदला भी
नही जा सकता था

उनके लिए ताले पहाड़ी दीवार
की तरह थे , खुल जा सिम सिम
कहने पर नही खुलते थे

जब कभी इकट्ठा होती थी चाबियां
वे एक साथ बजती थी
लेकिन पहले की तरह नही
होती थी उनकी आवाज ।

१३ - पर्याय
---
हम एक दूसरे के पर्याय थे

तुम्हारे शहर में बारिश होती थी
तो भीगता मैं था
जब तुम्हें ख़ासी उठती थी
मेरे फेफड़े कांपने लगते थे

मैं रोता था तो भर आती थी
तुम्हारी आंखे

हम दोनों की धड़कने एक साथ
तेज होती थी
हमारे गाने की लय एक सी
होती थी

शुरू से हम एक दूसरे से बेतरह
जुड़े हुए थे

देख लेना कि जब तुम्हारी
मृत्यु होगी तो नदी पर मेरा
शव जाएगा

१४- कभी
--
 कभी उन्हें इन्ही हथेलियों पर
उठा लेता था
लेकिन चींजे भारी हो गयी हैं
उनके भीतर मात्रा और भार का
अनुशासन नही रह गया है

जो शब्द होठों से उठा लिए जाते थे
उनके लिए तराजू की जरूरत
होने लगी है

ये आंखे कभी दर्पण थी
इसमे दिख जाते थे दृश्य
अब अपना समय नही दिखाई
देता

देखते देखते कितना कुछ
बदल गया है।
नापना तौलना मुश्किल
हो गया है

उठाईगीरों ने चींजों की सही जगह
बदल दी है

5 - भगोड़े
---
 भगोड़े स्वर्ग में छिपे हुए है
हम उन्हें नर्क में खोज
रहे हैं

वे पुष्पक विमान से उड़ कर
इंद्रलोक में छिप गए है
और इंद्रलोक की शोभा
बढा रहे है

अप्सराओं के मादक नृत्य चले
रहे है
चषक में ढाली जा रही है
मदिरा

जिस अदालत में उनके लिए
सजा प्रस्तावित है , उसे देवलोक ने
माफ् कर दिया है




 ★वरिष्ठ कवि बोधिसत्व★

जन्म : ११ दिसंबर १९६८
जन्म स्थान : गाँव भिखारी रामपुर, भदोही, (उ.प्र.)

मूलनाम : अखिलेश कुमार मिश्र

शिक्षा : प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की ही पाठशाला से। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम।ए. और वहीं से तारसप्तक के कवियों के काव्य-सिद्घान्त पर पीएच.डी. की उपाधि ली। यूजीसी के रिसर्च फैलो रहे।

रचनाएँ : सिर्फ कवि नहीं (1991); हम जो नदियों का संगम हैं (2000); दुख तंत्र (2004),ख़त्म नहीं होती बात (2010)

सम्मान : भारतभूषण अग्रवाल सम्मान (1999); संस्कृति सम्मान (2000); गिरिजा कुमार माथुर सम्मान (2000); हेमंत स्मृति सम्मान(2001), फिराक सम्मान ( 2013) शमशेर सम्मान ( 2015)

नोट : गुरु महिमा पर लगभग 400 श्लोकों का संग्रह “गुरवै नम:” (2002)
रचना समय का “शमशेर अंक” (2012)

कविताएँ :-
१.
कवि जेल में बंद है
क्योंकि
कवि से सरकार डरती है
उसे रिहा करने से हिल जाती है 
सरकार की दुनिया
कवि बूढ़ा हो या हो बीमार तो भी
उसकी हुंकार से 
सरकार सिहरती है!

कवि के शब्द तुम्हारी कैद में नहीं आने वाले सरकार
कवि के कथन तुमको सदियों सोने न देंगे सरकार
कवि के विचार तुम्हारे विरुद्ध युद्ध के लिए
निमंत्रित करेंगे कोटि कोटि जन को
कवि के शब्द वेधते रहेंगे 
तुम्हारे कुटिल तंत्र को!

एक कवि को तुम मार सकते हो
लेकिन उसकी मौत भी एक कविता बन कर 
तुम्हारे पराभव के गीत गाएगी
उसकी कविता को 
तुम्हारी जेल भी कैद नहीं कर पाएगी!

उसके शब्द षड्यंत्र हैं तुम्हारे लिए
उसके विचार विद्रोह हैं तुम्हारे लिए!
उसका जीवन विद्रोह है!

विरुद्ध कवियों कि कतार बढ़ती जा रही है
विरुद्ध कविता तुम्हारे अंत के गीत गा रही है!

वरवरा राव को रिहा करो!
अगर तुम कायर नहीं हो तो!


बोधिसत्व, मुंबई

२.
राम भजो रे भाई!

निक्कर उतार महंगाई
ले रही विकट अंगड़ाई
नंगा होता देश गांव सब
नगन हुई प्रभुताई।
निक्कर उतार महंगाई!
राम भजो रे भाई
घनश्याम भजो रे भाई।

दिन कैसे आए भाई
लुट गई गिलास चटाई
खून समाया था व्योपार
उन घर रौनक छाई!
छप्पर उजाड़ महंगाई!
राम भजो रे भाई
घनश्याम भजो रे भाई।

पैदल मरती है जनता
कैसी ये आत्म निर्भरता
देश फंसा अंधियारे
किसकी यह अगुवाई
हाथ पसार महंगाई!
राम भजो रे भाई
घनश्याम भजो रे भाई।

सत्ता की भूख बड़ी है
जनता खिन्न खड़ी है
आंसू को मोती कहता
झूठ ही इसकी सच्चाई
दांत चियार महंगाई!
राम भजो रे भाई
घनश्याम भजो रे भाई


बोधिसत्व, मुंबई

३.

जा पाते तो!

पत्तियां सब छोड़ कर चली गईं
जा पाते तो पेड़ भी जाते
उनके साथ
उनकी अंगुली पकड़े।

वे वहीं रुके रहे कि अगर बिछुड़ी हुई अनेक पत्तियों में से कोई लौट आई
अपनी टहनियों और डालों को खोजती तो
उसका क्या होगा? 

अगर खो गईं परछाइयां लौट आईं तो
उन को खड़े होने के लिए छाया कौन देगा
यह सोच कर वर्षों वहीं खड़े रहे निपात पेड़!

कई बार तो वे पेड़ भूल गए कि 
वे एक चौराहे पर खड़े हैं
वे यह भी भूल गए कि लोगों को उनका वहां खड़ा रहना सहन नहीं हो रहा
लेकिन छाल छिल जाने पर भी 
ढीठ खड़े रहे
डाल कट जाने पर भी
काठ हो कर भी 
खड़े रहे।

वे खड़े रहे कि
अगर अपनी तरंगों को खोजती वापस
आती है हवा
तो वह किसे हिला कर अपना आना बताएगी
वह किस कोटर में अपना डेरा जमाएगी?

पेड़ तब जाते हैं कहीं 
जब उनसे पृथ्वी की उदासी
बादलों की बेरुखी
और तारों का शोक सहन नहीं होता।

एक चूहा रहता है जर्जर जड़ों में
वह निराश्रित हो जाएगा
पेड़ के चले जाने पर
यह सोच कर युगों तक
खड़े रहे पेड़ एक जगह

चूहे के पहले जड़ में रहता था एक नाग
उसके पहले एक नेवले का पता थे पेड़ 
उस नाग और चूहे के साथ एक बगुले का स्थाई पता थी उनकी जड़।

पेड़ इसलिए भी खड़े रहे कि
उनके कहीं और चले जाने से चीटियां भूल जाएंगी घर की राह
वे अचल खड़े रहे
मार खाते काटे छाटे जाते।

कई बार वे जाना चाहते थे चुपचाप
लेकिन उस समुद्र की सोच कर रुक जाते रहे
जो उनसे कुछ ही दूरी पर पड़ा है युगों से
कराहता विलपता!

उन्होंने तय किया जब खारी समुद्र को मिल जाएगा दूसरा घर दूसरी पृथ्वी दूसरा तट
तब जाएंगे वे कहीं और।

पेड़ों के खड़े रह जाने की अनेक बुनियादी बातें हैं
जो या तो पेड़ों को पता हैं या पानी की उन बूंदों को जिनसे पिछली बरखा में पेड़ों ने वादा किया था कि "हम उस दिन सूख जाएं 
जिस दिन जल और बूंदों को भूल जाएं"

पेड़ तब जाते हैं कहीं
जब पखेरू उन पर बसेरा करना छोड़ देते हैं
सूर्य उनकी पीठ सेकने से इंकार कर देता है
क्षीण हो गया चंद्रमा
अपनी अमावस्या की गुफा में जाने के पहले
"हे विटप लौट आऊंगा" कह कर नहीं जाता
जब लकड़हारों को उन पर कुल्हाड़ी चलाने का कोई पछतावा नहीं होता
तब जाते हैं कहीं और 
उदास अकेले पैदल पैदल पेड़!

नहीं तो तुम ही बताओ
तुमने किसी पेड़ को स्वयं से 
कहीं जाते देखा है?


बोधिसत्व, मुंबई

४.मैं सत्ता से कवि की मुक्ति की मांग को खारिज करता हूं!

मेरे पास कोई कविता नहीं जिससे 
एक कवि को कैद से छुड़ा लाऊं
मेरे पास ऐसे कोई शब्द नहीं जिनसे 
मैं रोटी बना पाऊं
या कोटि कोटि जन के 
दुःख मिटाने वाले मंत्र बना पाऊं
मेरे पास ऐसे कोई अक्षर नहीं जिससे मैं
एक विलाप को गायन में बदल पाऊं!

कवि को कैद में रहने दो?
भूख को बने रहने दो?
विलाप को गायन क्यों बनाना?
दुःख मिटाने के लिए उठाओ शब्द नहीं कुछ और
कुछ और कुछ और!

मैं कविता शब्द और 
अक्षर के दुःख और सुख जानता हूं
मैं कवि की कैद को कविता की जय मानता हूं
वे हथकड़ियां पराजित हैं
जो कवि को बंधक बनाया करती हैं

सृष्टि में भूख और रुलाई
सत्ता के मृत होने के संकेत हैं
हर आंसू शासक की मृत्यु है
हर यातना हर क्रूरता!

एक उदास तिनका यदि इच्छा के विपरीत जलाया जाए तो यह अग्नि की क्रूरता है!
एक उदास अक्षर एक शब्द यदि एक अपनी इच्छा के विपरित प्रशस्ति पत्र में जोड़ा जाए तो यह
संसार के हर शब्द की पराजय है!

यह एकदम जरूरी नहीं कि सत्ता अपनी पराजय की घोषणा करे स्वयं
वह अपनी हार की मुनादी करे और बताए कि वह हार चुकी है लोगों!
यह एकदम जरूरी नहीं कि वह एक कवि से भी स्वीकार करे अपनी हार?

हारी हुई सत्ता
आंसू की बूंदों में अपने प्रतिबिंब देख कर डरती है
हर पराजित राज्य भूख को भूल जाने के मंत्र खोज लेने की मुनादी करता ही है बार बार!

लेकिन वह हर आंसू के साथ मरता ही है!

मैं कवि को रिहा करने की मांग नहीं करता
किसी तानाशाह से 
किसी सत्ता से कुछ भी मांगना
मुझे स्वीकार नहीं!

वह जो दे सकता है वह दे चुका है कवि को
वह जो दे सकता है दे रहा है विदूषक!

उससे पाने कि उम्मीद भी क्यों?
उससे मुक्ति की बात करो
उससे क्यों छुड़ाना कवि को याचना करके?
उससे आंसू और यातना के नए अर्थ क्यों पूछना?

कवि कैद में है
यह याद रहे तो भी सत्ता की पराजय है
कवि से सत्ता परेशान है यह याद रखना भी
कविता की जीत है!

उस इमारत को देखो
उसमें कवि नहीं
एक पराजित सत्ता कैद है
उस कवि को याद रखो
उसकी कविता को मंत्र बनाओ
आओ लोगों सत्ता को याद दिलाओ
कि एक बीमार कवि की कैद में है
एक पूरी सत्ता!

मेरे पास कोई कविता नहीं
जिससे कवि की रिहाई संभव हो
मैं शब्द और अक्षर हीन हूं
मैं सत्ता से कवि की मुक्ति की मांग को खारिज करता हूं!

बोधिसत्व, मुंबई



★कवि व आलोक श्री अनिल पाण्डेय★

जन्म- 10 जुलाई 1985
जन्मस्थान- फत्तूपुर कलां, रामनगर, जौनपुर।
शिक्षा- स्नातक, परास्नातक, पीएचडी (हिंदी विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय)

रचनाएँ :
1.इधर कई दिनों से
2.अब लोग नहीं रोऐंगे
3.सूरज सा उगते रहना
4.मेरा यथार्थ मेरा अपना है
5.समकालीन कविता और कवि
6.साहित्य के सरोकार
7.समीक्षा का यथार्थ
8.समकालीन कविता का यथार्थ
9.नवगीत साहित्य का यथार्थ
संपादन- बिम्ब प्रतिबिम्ब, रचनावली।

  • कविताएँ :-
१.
कविता तू तू मैं मैं नहीं है 
नहीं है कविता गाली
कविता बस कविता है 
जिसमें संवाद है
प्रियता है

सब कहाँ लिख पाते हैं कविता
कहाँ होते हैं सब कवि 
कविता के होने में 
शामिल है होना हमारा 
हमारे होने में 

नहीं है कविता

२.
जब भी देखा 
सामने की तरफ देखा 
अतीत कभी समृद्ध नहीं रहा कि 
मुड़कर पीछे देखता 
वर्तमान ने 
कभी मौका भी नहीं दिया 

जब भी बढ़ा 
आगे की तरफ बढ़ा 
जहाँ से चला था 
वहां फिर जाने लायक नहीं रहा 
कभी लोग नाराज हुए 
तो कभी मैं 

ठहरने के ठिकाने 
नहीं रहे कभी मेरे पास 
झोला उठा 
तो उठा रहा हर समय के लिए 
कभी गाँव 
कभी शहर की तरफ आता-जाता रहा 

यह कविता लिख रहा हूँ 
कोई दूसरी कविता 
इन्तजार में है 
यहाँ बैठा हूँ 
कहीं और पहुँचने के लिए 

बनी हुई है तैयारी कई दिनों से

३.

जीवन 
बस ऐसे ही चल रहा है 
कभी बढ़ रहा है आगे 
तो कभी 
फिसल रहा है 

इधर 
समझने का अवसर ही न लगा 
क्या हो रहा है 
क्या होने वाला है 
जो हुआ बस होता रहा है 

यह भी कहाँ पता चला 
आखिर 
जीवन के इस पड़ाव तक 
हँसने वाला है समय 

कि दिन रोने वाला है

४.
कवि ने 
लड़की की सारी इच्छाओं को 
रौंदते हुए कविता में कहा 
प्रेम इसी को कहते हैं 

मैंने आलोचना में कहा 
यह वहशीपन है 
तुम्हारी ऐय्यासी का सबसे भयानक उदहारण 

कवि लाठी लिए खोज रहा है  
उसके प्रशंसक 
दे रहे हैं गाली लगातार

भुक्तभोगी लड़की 
अभी भी रोये जा रही है 
न तो कविता सुनने वाले को पता है 
न तो कविता पढ़ाने वाला आज तक जान पाया है 

जानता है कवि 
जानता है आलोचक 
कवि सबका प्रिय है 
आलोचक बन बैठा है सबके लिये

सरहद पार का नागरिक

५.
मौसम कितना भी सुंदर 
क्यों न हो 
क्यों न 
परिवेश पूरा खुश हो 
एक नाराजगी अपने प्रिय की
पड़ जाती है भारी 

समय उदास हो जाता है 
क्षण हो जाता है 
मरुथल की प्यास
तुम सोचो कि फर्क नहीं पड़ता कुछ   
गायब हो जाता है 

अधरों का उजास

६.
कभी-कभी 
दिल खोलकर हँसने को 
मन करता है 
मन करता है 
जी भर हँस लूँ लेकिन 
राजधानी में इधर 

हँसना मना है
७.
सुबह होना 
चिड़ियों का चहचहाना भर नहीं है 
नहीं है, सूरज की किरणों का बिखर भर जाना
या खिल उठना 
फूलों की कलियों का  

लम्बी उदासी के बाद 
रोशनी की उपस्थिति में खिल उठना तो है ही 
खत्म हो चुकी उम्मीदों का जग जाना भी है 
अँधेरे की लम्बी यात्रा के बाद 
रोशनी का वापस होना भी तो है आखिर 

वे, जो थके हारे सो जाते हैं 
आँखों में स्वप्न लिए 
दो रोटी की तलाश और शौक-पूर्ति का ख्वाब लिए 
उन ख़्वाबों के मचलने 

स्वप्नों का साकार होना भी तो है

८.
वह इतना ईमानदार मुसलमान है 
कि मुस्लिम आडम्बरों और रूढियों पर
 कभी नहीं बोला
इतना अधिक इस्लामपरस्त है 
कि पाँच टाईम नमाज अदा करना 
हर समय याद रहा। 

जी भर कर कोसा परम्परा को
घूँघट की बन्दिशों पर 
बुरके के पक्ष में ईमान तक धोया
नहीं हुआ हजम जिसे 
कभी स्त्रियों का स्व-समर्पण 
तलाक के समर्थन में वह ताल भर रोया
तिलक पर तंज कसा हर एक जलसे में 
चिपका रहा टोपी से मूर्खों  से भरे मदरसे में 

कभी नहीं भूला वह 
भारत को और अधिक खंडों में 
विभाजित होने के तर्क देना
इस्लाम की हर कुनीति 
नीति रही है उसके लिये
वजह यही है की आतंक को प्रेम 
और अनुशासन को आतंक
 वह अब भी मानता है 

अब भी वह जानता है 
हर हिन्दू को 
महज 'हिन्दू' के नजरिये से देखना
हर झूठ को 
मुसलमान बन सच बेचने की कल में वह माहिर है 
षडयंत्रों से भरा आवारा पशुओं का वकील है

यह सब होते हुए भी
हमारे हिन्दी जगत में वह प्रगतिशील है 
नाम-इनाम के लोभ-लाभ में पलने वाला
जो जितना बड़ा जुआरी है
क्या नहीं लगता तुम्हें 
कवि नहीं वह संवेदनाओं का व्यापारी है

इधर जब मैं यह सब लिख रहा हूँ 
मुस्लिम विरोधी 
कहे जाने का पूरा विश्वास है 
हिन्दू विरोध में सिर से लेकर पाँव तक डूबे 
जड़ मुस्लिम के समर्थन में


९.
सुबह इधर कहाँ होती है 
यहाँ सूर्य किरणें बिखेरता नहीं कभी 
चन्द्रमा की शीतलता 
कमनीयता बादलों की 
बस कहने भर की बातें रहीं 

नींद आती भी है कहीं 
जगाए रखते हैं स्वप्न पूरी रात 
परियों संग सैर 
सोते हुए कहाँ हुई आखिर  
डर कर्जदारों का सताता रहा है भले 

सुबह का मोर्निंग वाक् 
तुम ही जानो 
हम तो 'ब्रेक फास्ट' के अर्थ अभी भी खोज रहे हैं 
चाय-वाय तो साधारण-सी बात है इस युग में 
हमारे लिए तो गुड़ पानी अभी भी स्थाई समाधान है 

कहना तो नहीं था 
लेकिन सुन रहे हो तो कह ही देता हूँ 
यह सब लगेगा झूठा तुम्हें 
जब मैं ऐसा कह रहा हूँ 
तुम सबसे जायकेदार मीठे का स्वाद ले रहे हो 
मैं जबकि इधर दो दिन से रोटी की शक्ल भी नहीं देख पाया|

दुनिया जब जागने के लिए दौड़ रही है 
मैं थक हार कर सोया हुआ हूँ 
जितना सब पाएंगे 
मैं पहले ही बहुत खोया हुआ हूँ 
सुनो, तुम सो जाओ...मैं अभी लिखता रहूँगा कविताएँ

१०.
इधर रोटी पक रही है तवे पर 
उबल रही है दाल 
चावल न बनाने के निर्णय पर 
बढ़ा दी गयी है सब्जी की डोज 

खबर में चल रहा है 
हज़ारों मजदूर सड़कों पर भटक रहे हैं 
नेता अटक रहे हैं बोलने में 
कारिंदे व्यस्त हैं 
कोरोना की खबर देने और लेने में 

उधर, यहाँ मेरे पास नहीं 
मुझसे कुछ दूरी पर बच्चे खेल रहे हैं 
माता-पिता उन्हें झेल रहे हैं
दूध उबलने के क्रम में फट गया है इस शाम 
पैसे ख़तम हैं दुकानें भी लॉक हैं  

अभी-अभी आई है खबर 
सब कुछ ठीक होने जा रहा है 
समय गुजर जाएगा परिवेश सुधर जाएगा 
अचानक पत्नी माथा पकड़े खड़ी है 
सिलेंडर में गैस खाली है 

अब समस्या कुछ नहीं है 
न देश में न समाज में न घर और परिवार में 
निगाहें जाकर अटक गयी हैं 
ख़त्म हुए गैस सिलेंडर पर 
अधपकी रोटी और अधचुरी दाल पर

११.
 ★कवि व आलोचक श्री अमरजीत राम★

१.
बना रहे काशी
------------------

बना रहे काशी

काशी का पान है तो दांतों की शान है
रामनगर की लस्सी है तो आंतों में जान है

कचौड़ी ,सब्जी ,जलेबी यहाँ का आदर और सम्मान है
कुल्हड़ की चाय और बातों में गलियां ..........

ये तो बनारसियों की असली पहचान है 

सच तो ये है कि

घाटों का सुबह - ए - बनारस
काशी की जीवंत मुस्कान है

हरिश्चन्द और मणिकर्णिका है तो
अवसाद में भी प्राण है 

@ अमरजीत राम 
06.07.2020


आज सुबह रामनगर में  कचौड़ी ,सब्जी ,जलेबी ,कुल्हड़ की चाय , दमदार लस्सी और मीठा पान ने मन को तृप्त कर दिया

२.
स्मृतियाँ कभी नहीं मरतीं
-----------------------------

स्मृतियाँ कभी नहीं मरतीं
हर युग में , हर जन्म में 
मरता है शरीर

चिताएँ जलती हैं दिन - रात
स्मृतियाँ कभी नहीं जलतीं
हर युग में , हर जन्म में
जलता है शरीर

वे उठती हैं
उन्हीं चिताओं की लपटों से
हवा और धुँवा के साथ
बड़े वेग से

वे उठती हैं
माँ के आँचल से
पिता के कंधे से 
बहन के राखी से
मिट्टी की सोंधी खुशबू से
गांव , घर और लोक से

वे उठती हैं 
जेठ की धूप से
पूस की ठण्ड से
सागर की लहरों से
रेत में सोई नदी से 
वसंत की भींनी - भींनी खुशबू से
सावनी फुहारों से

वे उठती हैं 
रेडते धान से
गेहूँ की सुनहली बालियों से
टपकते महुए से
आम की मंजरियों से 
भूख से तनी आंतों से 
जीवन के सुख - दुःख से और
कवि की कविता से 

स्मृतियां कभी नहीं मरतीं
हर युग में , हर जन्म में 
मरता है शारीर

@अमरजीत राम

01 .07.2020

३.
कामिनी 
******

पृथ्वी उदास है
धूप में आग है
हवाओं में लपटें 
कामिनी तुम खिलो

तुम खिलो कि जमीं से मिटे
गुबरैलों से आती दुर्गन्ध
तुम खिलो कि तुम्हारी खुशबू से पटे
पृथ्वी की संक्रमित दरारें 
तुम खिलो कि लपटों में शीतलता आए

तुम खिलो कि छटे गहन अँधेरी रातें
तुम खिलो कि महके सुदूर गांव - दर - गांव 
और महके दलित झोपड़ - पट्टियां

तुम खिलो कि तितलियाँ रंग भर रही हैं अभी पंखों में
तुम खिलो कि चमक उठे भौरों की आँखें 
तुम खिलो कि आकाश भी चूमें तुम्हें 

कामिनी तुम खिलोगी तो जीवन खिलेगा
खिलोगी तो खिलेगी मनुष्यता और
युगों - युगों तक जीवित रहेगा प्रेम

कामिनी तुम खिलो

@ अमरजीत राम

24.06.2020

४.
सन्नाटे की चीख़
------------------

यह कठिन समय है
क्रूर और अमानवीय
विपदाएं काले मेह की तरह बरस रहीं हैं 
यहाँ - वहाँ , सम्पूर्ण विश्व में 
सड़कें रक्तरंजित हैं
दिशाएँ स्तब्ध

जेठाग्नि सन्नाटे में 
हवाओं में कांप रहा है
चीख़ का एक - एक कतरा
पंजे और हाथ की अंगुलियाँ 
गर्भवती स्त्रियों की रक्तिम आवाज़ें
असंख्य मृत मजदूरों के अनकहे सच

ऐसे संकट के समय में 
जब ईश्वरी सत्ता नाकाम सिद्ध होती है और 
पृथ्वी पर कहीं नहीं बचती प्रेम करने की जगह

तो तुम अपने उदास हाथों से चुन लाती हो अंचरा भर
टेंगुरी और बेइल के सफ़ेद - सफ़ेद शान्ति के फूल

बुद्ध की करुणा के लिए 
अम्बेडकर के सामाजिक न्याय के लिये और
रैदास के समता ,समानता एवं विश्वबन्धुत्व के लिये 

ताकि पृथ्वी पर बच सकें इंसान
बच सके सभ्यता और
बच सके उनका आपसी प्रेम 

@अमरजीत राम

22.06.2020

५.

सन्नाटे की चीख़
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यह कठिन समय है
क्रूर और अमानवीय
विपदाएं काले मेह की तरह बरस रहीं हैं 
यहाँ - वहाँ , सम्पूर्ण विश्व में 
सड़कें रक्तरंजित हैं
दिशाएँ स्तब्ध

जेठाग्नि सन्नाटे में 
हवाओं में कांप रहा है
चीख़ का एक - एक कतरा
पंजे और हाथ की अंगुलियाँ 
गर्भवती स्त्रियों की रक्तिम आवाज़ें
असंख्य मृत मजदूरों के अनकहे सच

ऐसे संकट के समय में 
जब ईश्वरी सत्ता नाकाम सिद्ध होती है और 
पृथ्वी पर कहीं नहीं बचती प्रेम करने की जगह

तो तुम अपने उदास हाथों से चुन लाती हो अंचरा भर
टेंगुरी और बेइल के सफ़ेद - सफ़ेद शान्ति के फूल

बुद्ध की करुणा के लिए 
अम्बेडकर के सामाजिक न्याय के लिये और
रैदास के समता ,समानता एवं विश्वबन्धुत्व के लिये 

ताकि पृथ्वी पर बच सकें इंसान
बच सके सभ्यता और
बच सके उनका आपसी प्रेम 

@अमरजीत राम

22.06.2020

६.
ताक़तवर 
-----------
ताक़तवर न किसी तूफान से डरता है
न किसी ज्वालामुखी के फटने से
न किसी ईश्वरी सत्ता से डरता है
न किसी तानाशाह के धौंस से

वह जब भी चलता है 
किसी दिशा में
सरहदें कांप जाती हैं 
थम जाती हैं सांसें
चीन ,अमेरिका ,जापान और भारत की 

लगाकर मुँह पर खोता
ठूस देता घरों में 
भेड़ ,बकरियों की तरह।

अमरजीत राम

04.06.2020

७.
दमघुटनी
---------- 
दमघुटनी विफ़ल है
जनता को चलाने में 
रोज़ी - रोटी तो दूर
आत्मनिर्भर बनाने में 

मर रही है सभ्यता
शिक्षा खूंटी , ताखे में
रो रहा है राष्ट्र ....
अपने ही ज़माने में

रक्त रंजित हो गयी हैं
आज सड़कें देखिये 
बुद्ध की करुणा कहाँ पर
सो गई है देखिये 

घोषणाएं ओढ़ ली 
अपने ही हाथों से कफ़न
आत्माएं ढ़ो रही हैं 
रो रही धरती ,चमन ।

@ अमरजीत राम 

02.06.2020

८.
उत्तर आधुनिक चौथी पीढ़ी की प्रतिनिधि
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यह प्रधान सेवक की हवाई यात्रा नहीं
जो दिल्ली से उड़ान भरे और 
उतर जाए पृथ्वी के किसी कोने में
जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिये
यह राज्य मंत्रियों की हेलीकाप्टर की भी यात्रा नहीं
जो चुनाव आते ही बरसाती मेढ़क की तरह टर्र - टर्र की 
आवाज लगाते पहुँच जाते हैं मजदूरों की झोपड़ियों तक
यह पूंजीपतियों की चमचमाती लग्जरी कार यात्रा भी नहीं
जो गरीब जनता के खून पसीने की कमाई पर इतराते हैं

दरअसल यह एक
राष्ट्र की अविलंबित , संतप्त बाला की 
अविस्मरणीय साईकिल यात्रा है
जो अपने बेबस पिता को बैठा कर खींच रही है
पेट और पावों के बल
भर रही है गति बेजान पहियों में

जेठ की अदहनी धूप
लपलपाती लू आंच के झुलसाते थपेड़े
सुलगती कोलतार की चटचटाती पथरीली सडकों पर
धूल - धक्कड़ फाँकते हुए
तय कर रही है दूरी 
दो , चार किलोमीटर की नहीं
बल्कि हजार किलोमीटर से ज्यादा 
गुरुग्राम से दरभंगा तक 

यह घंटों का हिसाब नहीं 
कई दिनों और कई रातों की साधना है
इस साधना में उसके कोमल पांव तप कर
और भी इस्पाती हो रहे हैं 
यह समय का सच है कि
वह समय से मुठभेड़ कर रही है
गांव पहुँचने जिद में और
बनती चली जा रही है
नदी ,आग , हवा और पानी

आग उगलती पृथ्वी 
आज अपनी धुरी पर नहीं
रबड़ की पैडिलों पर घूम रही है 
आँखों में खौलते आंसू अब
पसीनों में छन रहे हैं 
कई बार पसीनों को पोछती है
बालों को सवारती है
तनिक सुस्ताती है फिर 
पूछती है पिता से
उनकी आँखों में आँखें डाल
उनका हाल राष्ट्र बेटी

त्याग , सेवा ,समर्पण की प्रतिमूर्ति 
मन ही मन समझ चुकी है 
सत्ताधारियों की मूर्खतापूर्ण घोषणाओं को 
जिनका भविष्य में न कोई अर्थ है न मतलब
इसलिए वह पुनः उसी गति से चलती है वहां से
अब निकल चुकी है दूर - बहुत - दूर
वह छोड़ती चली जा रही है उन रास्तों पर
पन्त ,निराला ,नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल के 
उन तमाम स्त्री चरित्रों को बहुत पीछे

यह निर्मम सत्ता का दंश है
जिसे वह झेलती है और
आत्मनिर्भर होने का परिचय भी देती है
सच तो यह है कि यह कबीर के मुर्दों का गांव
अब मुर्दों का देश बन चुका है

अमरजीत राम

29.05.2020

९.
दलित बस्ती का उजड़ना
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यह प्राकृतिक अभिशाप नहीं है
मानव निर्मित अतिवाद , यातनाएँ हैं
इन यातनाओं से निकली आह 
ज्वालामुखी को जन्म देती है

इधर मैं कुछ दिनों से परेशान - सा हूँ 
यह जान कर कि
पक्का महाल की दलित बस्ती का उजड़ जाना
शिलाओं पर लिखा जाने वाला तारीख़ी घटनाओं में से है
दलित बस्ती का उजड़ना
वर्षों की संस्कृति का ध्वंस होना है

जयप्रकाश इसी संस्कृति का हिस्सा है
एक दलित और बेबस मज़दूर है 
पूर्वजों के अहर्निश प्रयासों से निर्मित 
इसी मोहल्ले के एक छोटे घर में रहता है
जिसकी सकरी गली मणिकर्णिका घाट पर खुलती है 

घर के टूटने के मोह से 
उसकी रूआंसी आँखों में सागर उमड़ जाता है
यह देख मैं हैरान होता हूँ कि
नाशाद जयप्रकाश निःशक्त बोलता है
इस गरीबी में घर ही रहने का एक मात्र आधार था
आज रात यह भी टूट जाएगा निःशेष
सरकारी फरमान और मशीनी ताकतों द्वारा 
फिर न जाने कहाँ जाऊंगा

साहब ! मैं सिर्फ अकेला नहीं हूँ इस घर में 
बूढ़े पिता और बच्चें भी हैं 
मैं इतना सामर्थ्यवान नहीं कि 
जुटा सकूँ महीने भर का राशन
गरीबी का एक - एक दिन काटना मुश्किल है
एक रिक्शा ही रोटी का जरिया है

मैं अक्सर रात में 
रिक्शा चला के लौटते समय उठा लाता हूँ
मणिकर्णिका से मुर्दों की जली अँगीठियां
उसी पर पकती है घर में रोटियां
अब चिताओं की जली अँगीठियों पर रोटियां बनाना
आदत सी हो गयी है साहब !
जाड़ों के दिनों में इसी पर पूरा परिवार कौड़ा तापता है 

छटपटाहट भरी आवाज़ और डबडबाई ऑंखें 
बहुत कुछ कहना चाहती थी 
उसके ऊपर दुखों का मानो पहाड़ टूट पड़ा हो
लेकिन धैर्यवान जयप्रकाश सब जनता था
आखिर सरकार तो सरकार है
उसकी हुकूमत का एतराज करना 
लाठियां खाना है , जेल जाना है 
उसे किसी की गरीबी से क्या फर्क पड़ता 

साहब ! आप ही बताइए न
सत्ताएं इतनी क्रूर और निर्मम क्यों होती हैं
दलितों और मज़दूरों के लिए 

अमरजीत राम 
14.05.2020

नोट - यह कविता काफी दिनों से अधूरी पड़ी थी कोरोना समय में अपनी पूर्णता को प्राप्त हुई है आप सभी साहित्य प्रेमियों के लिये सप्रेम समर्पित है 💐💐

१०.
स्मृतियों में माँ
----------------
मुझे याद रहेगा दिन ओ माँ
जिस दिन तुम चली गई मुझसे
दूर बहुत दूर इस दुनिया से
पिता तो पहले ही चले गए थे
उनके बाद तुम भी चली गई
पिता के जाने पर भुजा टूटी थी 
तुम्हारे जाने पर रीढ़

ये कैसी रीति है ....?
अब मुझे एहसास होता है कि 
मैंने खोया है दुनिया की अनोखी माँ
माँ अभी भी गूंजती है 
तुम्हारी आवाज़ मेरे कानों में
तुम्हारा सच - सच ओ प्यार , दुलार ,
ममता , स्नेह , हँसी , मज़ाक़ और ठहाके
लेकिन अब चाह कर भी देख नहीं पाता

तुम्हारे जाने के बाद
ढह गया ओ खपरैल का छोटा घर
जिसमें तुम सोती थी और 
भिनसार में उठ कर गेहूँ पीसती थी ,
धान कूटती थी , उसे पछोरती थी
तुम्हारा कूटना , पीसना ,पछोरना सामान्य नहीं होता था
शताब्दियों की लोक संस्कृति को और मजबूत करना था

रोटी से जुड़े इन कई सवालों में 
प्रवाहित होती थी एक श्रम की संस्कृति , 
जीवन - संघर्ष , प्रेम और सौंदर्य
और हम सब कितने नासमझ थे कि
सुबह होते ही आँखें मलते हुए 
पहुँच जाते थे कटोरी भर भात माँगने
उसी घर में , जिसमें कोठिली , कुंडा ,चक्की ,
पटनी , भंडारी ,ओखल , मुसर और
 सिद्धा पिसान की तमाम ठिल्लियाँ थीं

आज भी बची है ओ टूटी मढ़ई 
जिसमें खूंटी पर टंगी एक ढ़िबरी जलती थी
सारी रात पिता के रिक्शा चला के आने तक
अभी भी बची है तुम्हारे हाथों से बनी 
माटी की ओ चूल्ह
जिस पर खदकते थे दाल ,भात के अदहन और
तुम अकेली मन ही मन करती थी उनसे कुछ बातें
दहकती आग में भुसियों को झोंकने में
झोंक दी अपना जीवन

याद रहेगा माँ 
मढ़ई का एक - एक कोना
जहाँ चुप - चाप बैठ कर घंटों 
रोती थी तुम्हारी आत्मा और पूछने पर
 तुम तबियत खराब होने का करती थी बहाना

तुम्हारे जाने के बाद 
अभी भी बहुत कुछ बचा है माँ
बची हैं तुम्हारी स्नेहिल स्मृतियां
थपकियाँ ओ मधुर लोरियां
जिसे तुम सुनाती थी 
सारी - सारी रात । 

अमरजीत राम 

10.05.2020

११.
गाँव
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जब कभी लौटता हूँ 
शहर से गाँव
अपनों के सुख - दुःख से
होठों पर जगती है मुस्कान
फिर आँखें भीग जाती हैं ।

रोमांचित हो उठती हैं बाहें
मिलते ही गाहे - बगाहे
जब ओ पूछते हैं अपना हाल
मिट जाता है सारा मलाल
फिर आँखें भीग जाती हैं ।

ओ सड़कें ,ओ गलियां
ओ ओरी और दुआर
ओ चट्टी , चौराहें 
ओ वृक्ष फलदार
ओ महुआ , ओ पाकड़
ओ जामुन , ओ आम
ओ लिपटस , ओ शीशम
ओ बासों की शाम
ओ मढ़ई , ओ लोरी 
ओ आंगन , ओसार
जब याद आते हैं 
फिर आँखें भीग जाती हैं।

ओ चिप्पी , ओ गोली
कबड्डी और लाली 
मिला जो समय तो 
खेला होलवा की पाती
ओ हॉकी , क्रिकेट
कभी बजाता था ताली
ओह ! बचपन का मैं भी था 
अच्छा खिलाड़ी 
जब याद आतें हैं 
फिर आँखें भीग जाती हैं ।

ओ मुर्गा , ओ मुर्गी
ओ कुत्तें और बिलार
ओ भेड़ , ओ बकरी 
दौड़ती नीलगाय
ओ गेहूं , ओ जौ
चना और मटर
ओ गन्ना , ओ अरहर को
देखा कई प्रहर
ओ पिता जी की डांट और
माँ का ममता दुलार 
जब याद आते हैं 
फिर आँखें भीग जाती हैं ।

ऐसी मस्ती में 
कैसे पला बेख़र
दिन , महीने , साल गुजरे कितने इधर
आफ़त आई जब रोटी की घर पर मेरे
गाँव छोड़ा और फिर मैं निकला शहर
खाया ठोकर शहर में मैं हर  दर - ब - दर
सुखी रोटी और चटनी मुनासिब न थी
भूखा सोया मैं कितनी जगह बेकदर 
जब याद आते हैं 
फिर आँखें भीग जाती हैं ।

2.

पिता जी के ज़माने से ही देख रहा हूँ
गांव और बाज़ार के बीच 
एक बूढ़ा विशाल पीपल खड़ा है आज भी 
जिसे लोग बुढ़ऊ बाबा के नाम से जानते हैं
गांव की स्त्रियां इसी के नीचे 
चढ़ाती हैं सोहारी और हलुआ
कुछ लोग गांजा चढ़ाते हैं 
कुछ लोग धार 
यहीं छूटता है वैवाहिक जीवन का बनवार

थोड़ी ही दूर पर हैं कोट की मरी माई  का स्थान
जहाँ खड़े हैं दो गगन चुम्बी ताड़
उसी के पास फ़ेका जाता था गांव का डांगर
जहाँ सैकडों की संख्या में 
सुदूर से आते थे गिद्ध डांगर खाने 
धनुहियां ताल में स्नान कर 
उन्हीं ताड़ो पर अपना पंख सुखाते थे और
फिर सुदूर आकाश में उड़ जाते थे
यह भी उनकी एक ग़ज़ब की संस्कृति थी ।

ओ सिद्धनाथ जिसे सीधनाथ बाबा भी कहा जाता है
के पीछे वाला विशाल आमों का बगीचा 
जहाँ चरवाहों की असंख्य गायें 
दोपहर में विश्राम करती थीं और 
चरवाहे कानों पर हाथ रख के
लोरकी की तान छेड़ते थे 

ओ गांव के बैजल बाबा जहाँ
मुसीबत के दिनों में गांव की स्त्रियां 
धार , अगरबत्ती चढ़ाती थीं
कभी - कभी सुअर का बच्चा भी
दीपावली के पूर्व संध्या पर 
अपने - अपने घूरों पर 
जम का दिया निकालती हैं 
और आज भी दरिद्दर खेदने वहीं जाती हैं 
गांव की स्त्रियां साथ में गाती हैं मंगल गीत ।

3.

अब केवल स्मृतियों में बची है
ओ चुन्नू दादा की विशालकाय नीम
जिस पर असंख्य कबूतर बसेरे करते थे
वर्षा न होने पर गांव के बच्चें उसी के नीचे 
निर्वस्त्र लोटते थे कभी
कुछ पुरनिये उसी के नीचे सुरती मलते थे
बीड़ी पीते थे और गांजा की कश लगाते थे

धन्य हैं वे लोग जो चले गए
अब न माँ है , न पिता जी और न रामफेर दादा
रामफेर दादा तो हवा, पानी , आग सबको चुनौती दे देते थे
इनमें से किसी के तेज होने पर गालियां भी
अब न झींगुर बाबा हैं न उनका रिक्शा
जिस पर हम लोग सवारी करते थे और 
उनके आने पर छिप जाते थे

अब न नारद दादा हैं न उनका सनई का संठा
जिसे छूने मात्र से भी दौड़ा लेते थे दूर तक
अब न फुल्लू भैया हैं न उनके जेब में 
रखी स्टेशन की गरम पकौड़ी
जिसे कोई टोह ले तो पेट भर गालियां सुनता था
खुश रहने पर बाट देते थे

अब न अलकतरा फूफा है न उनका अमरूद
जिनके पलक झपकते ही दो चार अमरूद 
पेड़ से गायब हो जाते थे एक दम रसीले और मीठे
जब तक ओ उठते अपनी लाठी संभालते थे 
तब तक बच्चें गायब
बस अब केवल उस लोक की सुखद स्मृतियां हैं 
और उन स्मृतियों में मेरा गांव

अमरजीत राम

09.05.2020

१२.
टूटी हुई नाव
---------------

मैं देख रहा हूँ
पिछले कई महीनों से
नदी किनारे 
एक परिध्वस्त  नाव
बिखरी पड़ी है उपेक्षित

मैं जब भी देखता हूँ इसे
मेरे अन्तस में घूमता है
जीवन और मृत्यु का एक चक्र
मैं चाह कर भी मुक्त नहीं हो पाता

सूर्य हर रोज लांघता है इसे
रेत से उठती हवाएँ हिला देती हैं अंदर तक
पूर्णिमा का चाँद ढलता है इसके अग्र नुकिले भाग पर
जुगनू प्रकाशित करते हैं
टिम - टिमाते तारों की तरह इसे अपनी रोशनी से

खामोश और उदास रातों में झींगुर गाते हैं शोकगीत
तिलचट्टे दौड़ते हैं चारों तरफ इसे नोचने के लिए
बेफिक्र चींटियां भी इसी के पास बना ली है अपनी बिलें 
लगातार कई महीनों से मकड़ियों का एक समूह
इसे बांधने में लगा है किन्तु एक - एक कर
सरक रही हैं इसकी कीलें

एक वक़्त था साहब
कभी गरीब मल्लाहों के परिवार का
नून - रोटी चलता था इसी से
सुबह से शाम तक परिप्लव करती थी 
नदी के देह पर 
तरंगें चूमा करती थीं इसे बार - बार
ये कैसा समय का कुचक्र है ?
अब न इसमें लय है , न गति 

जब कई महीनों बाद
लौटता हूँ नदी किनारे
एक नई उम्मीद के साथ
उसे वैसे ही पाता हूँ
वहीं पत्थरों के बीच टूटी हुई
किसी कोने में चुप चाप पड़ी हुई
बूढ़े पिता की तरह ।

अमरजीत राम

08.05.2020

१४.
विषाणु
--------

बहुत मक्कार और मरणांतक निकले विषाणु
यंत्रणाएँ तो बहुत है तुम्हारी
इतनी कि मरहूम लासों के लिए 
न ताबूत है ,न पृथ्वी पर कोई जगह
अब तो रूह कांपती है नाम से 
 कि मारना ही तुम्हारी नियति है 

शायद तुम्हें पता नहीं 
इस आतंक से 
छिन गए कितनो के प्रेम
लाखों - करोङों की रोजी - रोटी
हुए कितने विधुर - विधवा
कितने मातृविहीन
ओह ! और ओ बेहद मासूम बच्चें 
जिनके होठों से माँ के स्तन का दूध भी नहीं धुला था

खैर छोड़ो
अब तो न बुनकरों के करघे की आवाज सुनाई पड़ती
न राजगीर के करनी - बसुली की संगीत 
इस कठिन वक़्त में
सम्पूर्ण विश्व ने ओढ़ रखी है
मायूसी की चादर
और तुम हो कि मुँह फैलाये 
हवाओं में ज़हर घोल रहे हो

तुमसे इल्तिजा नहीं है
फ़क़त कहना ज़रूरी
यद्यपि तुम होते इंसान
तो पूछा जाता तुम्हारा  पूरा नाम
मानुषिक कर्म के अनुसार
दण्ड भी मिलता तुम्हें
हो सकता है कि तुम बच के भाग भी जाते

लेकिन पकड़े जाने पर
निर्वस्त्र पीटे जाते 
किसी पेड़ से उल्टा लटका के 
पिस्तौल की सारी गोलियां उतार दी जाती 
तुम्हारी खोपड़ी या सीने में 
दोनों हाथ बांध कर घसीटा जाता दूर तक

रौंद दिया जाता ट्रक से किसी खुले चौराहे पर
मार के फेक दिया जाता रेल की पटरियों के बीच
बोरे में कस के बहा दिया जाता किसी नदी में या 
फिर छोड़ दिया जाता सुदूर किसी निर्जन स्थान पर
जहाँ कुत्ते ,चील ,कौवे नोच - नोच खाते तुम्हें

सच तो यह है कि तुम इंसान नहीं हो
सिर्फ ! एक विषाक्त विषाणु
नहीं सज़ा में जीवन कारावास होता या
फिर होती फांसी

अमरजीत राम

01.05.2020

१५.
बुलबुले
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ये बुरे दिनों के असमय
विकम्पित बुलबुले हैं
ये क्रांति के नहीं
अवसरवाद के हैं 
ये छटते नहीं
फट जाते हैं 
थोड़े समय में
वैसे ही जैसे 
तेज बिजली के आने पर बल्ब

वैसे ये उठते हैं
जल की छाती चीर के
कहीं भी 
किसी घर, गांव ,शहर
नदी ,पहाड़ ,झील झरने ,सागर
नाली ,पोखर ,ताल 
थाली, लोटा ,बाल्टी ,गिलास
ओरी और दुआर
बेडरूम ,बाथरूम , किचेन तक

ये ऊपर से जितना सफ़ेद,चमकीले होते हैं
सतह से उतने ही काले
इनका उगना शरीर की स्वतः क्रिया
छिकना ,खाँसना और वीर्यपात जैसा ही होता है

ये गाय के मूत्र से 
उठते ओ बुलबुले हैं
जो खुदकर्मों से विनष्ट होते हैं 
निःसंदिग्ध किन्तु निःशब्द ।

अमरजीत राम

29.04.2020

१६.
संकट के समय में 
--------------------

सोचो तब क्या होगा ?
जब संकट के समय में 
इंसानों की तरह 
सूर्य मना करेगा रोशनी देने  से
चाँद शीतलता
पेड़- पौधे मना करेंगे 
फल - फूल छाया देने से
बादल पानी 
सोचो तब क्या होगा ? 

सोचो तब क्या होगा ?
जब पृथ्वी मना करेगी 
अपने ऊपर रहने से
अग्नि आग देने से
 हवाएं मना करेंगी
हवा देने से 
सोचो तब क्या होगा ?

सोचो तब क्या होगा ?
जब नदियां लौट जाएँगी
जैसे आई थीं 
सागर मना करेगा कुछ भी लेने से
आकाश के तारे टिम - टिमाने से 
सोचो तब क्या होगा ?

सोचो तब क्या होगा ? 
जब कलियाँ मना करेंगी 
खिलने से
भौरें गुनगुनाने से
वसंत मना करेगा आने से 
चिड़ियाँ गीत गाने से
सोचो तब क्या होगा ?

सोचो तब क्या होगा ?
जब बीज मना करेगा 
अँखुआने से
ऋतुएं आने से
जब पृथ्वी का एक - एक कण
असहमत होगा इंसानों से
इंसानों की तरह
फिर सोचो तब क्या होगा ?

अमरजीत राम 

28 .04.2020

१७.
मुसहर स्त्रियां
-------------------

मेरे गाँव से थोड़ी दूर 
पूर्व दिशा की ओर
तालाब के किनारे 
मुसहरों की मलिन बस्ती है
ये मुफ़लिस मुसहर स्त्रियां हैं 
झोपड़ों में रहती हैं
सुअरों के घें घा में
कटती हैं इनकी खूंखार रातें 

सुबह काम के तरजीह में
ये बच्चों की टाँगें किसी पेड़ से बांध कर
कभी - कभी पीठ पर लादकर 
बन्नी - मजूरी करती हैं
बोझा ढोती हैं
गिट्टी फेकती हैं
तसले का तसला 
मसाला चढ़ाती हैं कई मंजिला

सीमेंट ,बालू और पसीने से लथपथ इनकी देह
धूल - कीचड़ - गंदगी से सनी मटमैली आँखें
बेतहासा सुलग रही हैं 
भूर - भूरे दर्द के साथ

संघर्षरत मुसहर स्त्रियां
बीड़ी के छल्लेदार धुंए में
मिटाती हैं  अपना थकान
चुनौटी से निकले 
सुरती - चूना को हथेलियों पर रख
 मल देती हैं अपना संपूर्ण जीवन ।

2

मनुष्यता की कोख से जन्मी
अनवरत संघर्ष में पिसती 
मुसहर स्त्रियां
निर्निमेष पलकों से
देखती हैं आकाश की ऊँचाई

तप्त खून के वाष्पित पसीने से
धोती हैं अपने बच्चों का विकट भविष्य
अदम्य जिजीविषा के साथ
सूर्योदय से सूर्यास्त तक

3.

कभी 
अनाज की मुसीबत आने पर
खेतों में जाती मुसहर स्त्रियां
चिलचिलाती धूप में 
तपस्विता भाव से
खोदती हैं चूहों के बिलों को

सर्प, बिच्छू से बच कर
ज़मीन की तपिश से 
हटाती हैं मुसकइल
निकालती हैं 
गेहूँ की सुनहली बालियां
एक वक़्त की रोटी के लिये 

4.

संघर्षरत
मुसहर स्त्रियां
फटे - मैले  कपड़े में रह लेंगी 
कटिया कर लेंगी
खेतों से अनाज के दाने , लकड़ियाँ बिन लेंगी
किसी तालाब , पोखर से
सेरखी ,बेर्रा ,घोंघा निकाल लेंगी
तिन्नी का धान झाड़ लेंगी

बगीचे में लगे
महुये के पेड़ पर चढ़ कर
पत्तियां तोड़ लेंगी 
पत्तल, दोना बना कर 
बाज़ार में बेचेंगी 
लेकिन किसी से भीख नहीं मांगती।

अमरजीत राम

26.04.2020

१८.


तुमने कहा
------------

ओ मेरे गूंगे , बहरे , भूखे , नंगे दलित देश
मेरे अनाम पुरखों के हड्डियों को कंपा देने वाले शोषकों
कहाँ मर गए तुम ?
किस कुत्ते , सुअर के शारीर में 
 प्रवेश  कर गयी तुम्हारी आत्मा
अब क्यों नहीं सुनते 
मेरी आत्मा की आवाज़

शब्द तुम्हारे थे 
भाषा भी तुम्हारी
मतलब मैं गूंगा नहीं था
तुम्हारी व्यस्था में 
अपनी थी लाचारी

तुमने कहा कि झाडू बाँधो 
बाँधा मैंने
तुमने कहा कि मटकी टांगो
टांगा मैंने
तुमने कहा कि गोबर फेको 
फेका मैंने 
तुमने कहा कि लकड़ी फाड़ो
फाड़ा मैंने
तुमने कहा कि डांगर फेको 
फेका मैंने 
तुमने कहा कि पत्तल चाटो 
चाटा मैंने 

तुमने कहा कि छूना मत कुछ
मैंने कहा कि हाँ जी , हाँ जी
तुमने कहा कि रात है
मैंने कहा कि हाँ जी , हाँ जी
तुमने कहा कि दिन है 
मैंने कहा कि हाँ जी , हाँ जी
तुमने कहा कि पृथ्वी मेरी
मैंने कहा कि बिल्कुल है जी

मैंने पूछा बड़े प्यार से 
बाबू जी फिर क्या है मेरा ? 
कलम हो गयी धड़ से गर्दन
पशु थे तुम 
पशु ही रहोगे
मरने पर लावारिस लाशें 
इस दुनिया में 
कुछ नहीं तेरा

अमरजीत राम

24.04.2020

१९.
मैं घास हूँ
-----------

यह उत्साहहीनता का वक़्त है
छूआछूत का उत्तरकाल
नदी उलीच रही है रेत और सागर लहरें 
शहर सन्नाटा बुन रहा है 
चौराहें सब हैं ख़ाली
यहाँ से देखो 
ताला लटक चुका है
 मंदिरों और मस्जिदों में
अमलतास सूख रहा है

आओ बैठो मेरे पास
मैं विदग्ध , प्रतिकृष्ट
सदियों का संताप संजोए 
बिछी हूँ तुम्हारे लिए 
दबी , कुचली , तितिक्षु
 नवजात की हथेलियों की तरह
बिल्कुल नर्म और मुलायम घास
तरह - तरह की घास

तहक़ीक़ तो यह है मेरे जीवन की
अक़्सर वक़्त के धुंधले बदसूरत सन्नाटे में
उड़ेला गया तेज़ाब
बैठाया गया अग्नि पुंजों के बीच बांध के
चलाया गया बुल्डोजर मेरे सीने पर
काटा गया मुझे वैसे ही जैसे 
काटा गया एकलव्य का अंगूठा
और शम्बूक का गर्दन
जोता गया आधुनिक रोटाबेटर से

दबाया गया
भीमकाय शिलाओं से 
मेरा आत्माभिमान
न जाने कितने टुकड़े - टुकड़े कर
डाल दिया गया किसी बदबूदार  गटर में
दफ़न कर दिया गया 
मुझे गांव से दूर 
दक्षिण दिशा वाले कब्रिस्तान में

तानाशाहों के घोड़ों के एक - एक टॉप से 
कुचलवा कर छोड़ दिया गया  
सूखने के लिए 
तब भी मैं विप्रलम्भ नहीं 
यह मेरी तहज़ीब है
अँखुआना मेरी नियति है और
नष्ट करना तुम्हारा काम

हमारे अँखुआने और 
तुम्हारे नष्ट करने में
ढल जाता है सूरज
ढल जाता है चाँद  और 
तुम्हारा संपूर्ण जीवन 
फिर भी खिल उठती हूँ मैं 
नई रोशनी के साथ शैलों के शीर्ष पर
बिन पानी , बिन खाद 
क्योंकि मैं घास हूँ
बिल्कुल नर्म और मुलायम

अमरजीत राम

14.04.2020

२०.
दिल्ली दूर है
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लोग कहते हैं
दिल्ली दूर है
माँ भी कहती थी
साफ़ - साफ़
मुहावरे की भाषा में
मैं समझा 
लेकिन देर से ।

जब पथरा गईं उनकी आँखें
पैदल चलते - चलते
जब सूख गए 
उनके कप कपाते होंठ बिन पानी के
जब ऐंठ गईं
उनकी आँतें भूख की आग से
जब सो गए 
दूध मुँहें बच्चें कन्धों से चिपक कर 

जब दिखने लगा 
उनके चेहरों पर 
महामारी का दहशत
और हो गए 
किसी कार दुर्घटना का शिकार
चलते - चलते 
मैं समझा
लेकिन देर से ।

2 .

लोग कहते हैं
वे इस्पाती हैं
लोहे के बने हैं 
जानते हैं ढ़लना  समय से 
लोहे की तरह
वे पत्थर से पानी निकालते हैं

वे 
नाप देंगे 
समुद्र
आकाश
पृथ्वी
एक ही बार में

मैं कहता हूँ
ओ इंसान हैं
बिल्कुल मेरी तरह।

3 .

वे जानते हैं
प्रेम ,अर्थ और 
प्रेम की परिभाषा
पैदा हुए हैं
इंसानियत की कोख से
विपदाएं उन्हें विरासत में मिली हैं 
वे उदास जरूर हैं 
लेकिन हारे नहीं।

अमरजीत राम

01.04.2020

२१.
रोपनहरी
----------

धान रोपती गांव की स्त्रियां
कमरकस लटकी हैं
घुटने भर कीचड़ और पानी में  
सुबह से शाम तक

समय को फटे मैले आँचल में संजोए
चिलचिलाती धूप और उमस के पसरे सन्नाटे को सोखती
वह रोप रहीं हैं 

बिगहा  - दर - बिगहा खेत 

अपनी आंतों में भूख और 
पीठ पर सूर्य को  बांध कर 

आत्मनिर्भर मज़दूर स्त्रियां
रोप रहीं हैं 
देश का सुनहला भविष्य

@अमरजीत राम
25.07.2020





★युवा कवि गोलेन्द्र पटेल★

१.
कविता जनतंत्र के अखाड़े में // गोलेन्द्र पटेल
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एक मेंढक टर-टराए
तो दूसरे का टरटराना स्वभाविक क्रिया है
उमस है
तो उम्मीद है बारिश का
भले ही बादल आएं और चले जाएं
खेत से दूर बहुत दूर
बंजर मरूस्थल हृदय के पास।

बेलमुर्गी चीं-चीं चीख रही है
जलकुंभी में छिप कर
एक दिल्ली के आदमी से डर

जो अभी अभी आया है गांव में
खेतिहर के वोट के ख़ातिर
चिड़ियों को चना देने बाकी को दाना
खेतिहरिन को लाई पसंद है
खाना नहीं!

एक कमीना देख रहा है
कूशे में टिटिहरी का अंडा
सुन रहा है हु-टि-टि२-टि३...

गंवईं गवाह हैं
उक्त प्रतिरोध की ध्वनि कानों-कान जायेगी
कचहरी।

कचहरी के दिवारों से टकरा 
लौट आयेगी प्रतिध्वनि कविता के शरण में

कविता बगावत करेगी
बहादूरों से
जनतंत्र के अखाड़े में।
©गोलेन्द्र पटेल
रचना : १ जुलाई ,२०२०
२.
१.
जब आकाश से गिरते हैं
पूर्वजों के संचित आँसू
तब खेतिहर करते हैं मजबूत
अपनी मेंड़

मेड़ तो मजबूत हुई नहीं
पर फरसी-फरसा लाठी-लाठा झोटी-झोटा मारी-मारा उठा-पटक.... 
अंत में थाने!

२.
रोपनी के समय 
रोटी के लिए
संडा जब कबारते हैं मजदूर
तब रक्त चूसती हैं - "जोंक"

दोहरे दोहित दलित दुबली पतली देह
विश्राम जब करती हैं बिस्तरे पर
तब शेष शोणित - "खटमल" 

३.
मेंड़ पर सोए शिशु को च्यूँटे काट रहे हैं
चीख सुन रहे हैं मालिक मौन
मजदूरनी माँ कहती है शांत रह लल्ला
अभी एक पैड़ा और बचा है
रोप लेने दे

बच्चे के पास पहुंचा तो देखा 
एक दोडहा व दो बिच्छूएँ 
एक केकड़ा थोड़ा दूर 

पैर में काट लिया है बर्र
घिंनाते-घिंनाते उसे उठाया
वह अपने मल-मूत्र से तरबतर था

तुरंत बर्रों के मंत्रों का पाठ किया
फिर अपनी चाची को बुलाया -
बिच्छू झाड़ीफूकी
चमरौटी से बुलाया बुढउ दादा को -
जो दोडहा झाड़ेफूके

बिच्छू-दोडहा तो तसल्ली के लिए झाड़ा गया
गाँव में सभी को पता है कि कुछ मंत्र जानता हूँ मैं
(बर्र-भभतुआ-थनइल-नज़र-रेघनी...)
सीखा तो बिच्छू-साँप का भी था
पर उसे तभी भूल गया जब विज्ञान का विद्यार्थी था
जो स्मृतियों में जीवित हैं उसे भी भूल गया 
ऐसा कहता हूँ मैं।

मंत्रों से आँखें कचकचाएँ
होठों की हँसी हृदय में हर्ष से हहराएँ
फूंकने पर केश लहराएँ 
कर्षित कली का मेंड़ पर

आज मुझे लग रहा है मंत्र सीखना सार्थक रहा
हे समय!

(©गोलेन्द्र पटेल
रचना : ०५-०७-२०२०)

३.
आज कृषक चेतना चीख रही है 
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कहीं भी खुशी नहीं है
मिट्टी का भीत ढही है
सर्प और नेवले के लड़ाई में
अब सर्प जीत रहे हैं
गाँधी दादा दर्द सहे हैं

चरखा चला कर नरी भी भरा हूँ
एक रोटी के लिए माँ के साथ
जरज़ेट-लोरस से कटी अँगुलियाँ
उस वक्त दाण्डी यात्रा को याद दिलाती हैं

पूज्य पूर्वजों के पैर गाँव से गये थे यात्रा में
अपने भीतर की यात्रा से संतुष्ट हो

नयन नीर में नमक ; नमक में जीवन
जीवन के लिए जुनून - "जय जवान जय किसान"

खेतों के मजबूत मोटी मेंड़ मेरुदंड 
पके देह की भाँति पतली व कमजोर हो रही हैं
ज़मीन की जरजर दशा देख दुनिया में
चारों ओर शोर हो रहे हैं

पूर्वजों की धरोहर धरती
समय से पूर्व बिक रही है
आह प्लाटिंग! 
आज कृषक चेतना चीख रही है...
©गोलेन्द्र पटेल

रचना : ०८-०७-२०२०
काव्यगुरु : श्रीप्रकाश शुक्ल


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आत्मीय धन्यवाद!

  1. -गोलेन्द्र पटेल
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