Golendra Gyan

Monday, 13 July 2020

जोंक // तड़प // कविता जनतंत्र के अखाड़े में // सावधान : गोलेन्द्र पटेल


                
कविता जनतंत्र के अखाड़े में // गोलेन्द्र पटेल
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एक मेंढक टर-टराए
तो दूसरे का टरटराना स्वभाविक क्रिया है
उमस है
तो उम्मीद है बारिश का
भले ही बादल आएं और चले जाएं
खेत से दूर बहुत दूर
बंजर मरूस्थल हृदय के पास।

बेलमुर्गी चीं-चीं चीख रही है
जलकुंभी में छिप कर
एक दिल्ली के आदमी से डर

जो अभी अभी आया है गांव में
खेतिहर के वोट के ख़ातिर
चिड़ियों को चना देने बाकी को दाना
खेतिहरिन को लाई पसंद है
खाना नहीं!

एक कमीना देख रहा है
कूशे में टिटिहरी का अंडा
सुन रहा है हु-टि२-टि३...

गंवईं गवाह हैं
उक्त प्रतिरोध की ध्वनि कानों-कान जायेगी
कचहरी।

कचहरी के दिवारों से टकरा 
लौट आयेगी प्रतिध्वनि कविता के शरण में

कविता बगावत करेगी
बहादूरों से
जनतंत्र के अखाड़े में।
©गोलेन्द्र पटेल
रचना : १ जुलाई ,२०२०


जोंक // 
गोलेन्द्र पटेल
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रोपनी जब करते है कर्षित किसान ;
तब रक्त चूसते हैं  "जोंक"!

चूहे फ़सल नहीं चरते
फ़सल चरते हैं
साँड़ और नीलगाय...

चूहे  तो बस संग्रह करते हैं
गहरे गोदामीय बिल में!

टिड्डे पत्तियों के साथ
पुरुषार्थ को चाट जाते हैं
आपस में युद्ध कर
काले कौए मक्का बाजरा बांट खाते हैं!

प्यासी धूप 
पसीना पीती है खेत में
जोंक की भाँति!

अंत में अक्सर ही
कर्ज़ के कच्चे खट्टे कथाफल दिख जाते हैं
सिवान के हरे पेड़ पर लटके हुए!

इसे ही कभी कभी ढोता है एक किसान
सड़क से संसद तक की अपनी उड़ान में!

(©गोलेन्द्र पटेल

रचना : ०८-०७-२०२०)
★★★

तड़प // गोलेन्द्र पटेल
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देखो!
इस अंधेरे में
चमगादड़ लौट रहे हैं
अपने नयन से अपने नीड़
और उनके हमसफ़र उल्लू भी!

अन्य पंक्षी
दिन के पथिक कैसे पहुँचेंगे अपने घोसला???
पूछ रही बहेलिया की बेटी
प्रसव-पीड़ा से लेटी
संसद के पथरीली पथ पर पिता से।...
बापू
क्या मेरा पुत्र पहुँच पायेगा घर???
इसे अभी धरती पर आये
कुछ ही क्षण हुए हैं
मेरे पेट में चार दिन से चूहे दौड़ रहे हैं
सूख चूकी है छाती
चाम चिचोर रहा है मेरा बच्चा।
चमचमाती धूप में आत्मा चौंधिया
सिसक सिसक कर रो रही है
दर्ज़नों दर्द देह में ढो रही है इस महारंक-रूप में
चुपचाप चीख सून रहे हैं नये नेता
नाक पर रुमाल डाल कर
हाय! और क्या कहूँ असहाय
मैं देखता रहा "तड़प"।।

©गोलेन्द्र पटेल
०२५-०५-२०२०

◆सावधान◆

सावधान // गोलेन्द्र पटेल
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हे कृषक!
तुम्हारे केंचुओं को
काट रहे हैं - "केकड़े"
                सावधान!
ग्रामीण योजनाओं के "गोजरे"
चिपक रहे हैं -
गाँधी के 'अंतिम गले'
                   सावधान!
विकास के "बिच्छुएँ"
डंक मार रहे हैं - 'पैरों तले'
                    सावधान!
श्रमिक!
विश्राम के बिस्तर पर मत सोना
डस रहे हैं - "साँप"
                  सावधान!
हे कृषका!
सुख की छाती पर
गिर रही हैं - "छिपकलियाँ"
                  सावधान!
श्रम के रस
चूस रहे हैं - "भौंरें"
                 सावधान!
फिलहाल बदलाव में
बदल रहे हैं - "गिरगिट नेतागण"
                  सावधान!
(©गोलेन्द्र पटेल
रचना : १८-०७-२०२०)
काव्यगुरु : श्रीप्रकाश शुक्ल

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