१.
धड़कती स्वास बनकर के हमारी रग़ों में नारी,
अगर स्वासें नही होती तो ये धड़कन नही होती।
अज़ब है तीन आख़र प्रेम का संसार में पावन,
'पथिक'जननी नही होती तो ये दुनिया नही होती।
२
'गाँव की गरीब बाला'
यौवन की दहलीज पर खड़ी बाला
करती है कल्पनाओं के संसार मे भ्रमण,
बैठी घर के अंदर ही
निहारती आसमा की ओर
कभी बूढ़े मां बाप को तो कभी दीवार में टंगी पुरखों की तश्वीरों को,
संभाल पाना हो जाता है मुश्किल
फिर भी संभल ही जाती है
खुद ब खुद!
रखती है खुद को व्यस्त प्रतिपल घर, आँगन, खेत-खलिहान, फावड़े,कुदालों के साथ, बूढ़े माँ बाप चौका-चूल्हों के बीच ?
शहर में भागती गाड़ियों के पहिये की भांति!
चाह कर भी इज़हार नही कर पाती प्रेम को
अपने अनजाने, अनहोने प्रियतम से,
बुद्बुदाती मन ही मनः पूछ बैठती है,
कल्पना के सुंदर राजकुमार से !
क्या तुम करते हो मुझसे प्यार ?
क्या मैं ! कर सकती हूँ तुम्हारा आलिंगन
पल भर के लिए!
किन्तु! सहसा तिलमिला उठती है
सीने से उठती ज्वर के बीच
प्रिय को न पाकर अपनी बाहों में !
लज्जा से झुक जाता है सिर
मन ही मन शर्माती है बाला!
अपनी किश्मत के आभागेपन पर कोसती है खुद को,
झोपड़ीनुमा खपरैल घर की दहलीज़ पर खड़ी
गरीबी,बेबसी, व लाचारी के मध्य घिरी!
किन्तु याचना नही करती याचक बन कर भगवान से,,,,,
बस करती है प्रतिपाल अपना कर्तव्य,
गहरी आकांक्षाओं के बीच ?
सुनहरे पर लगा, अपलक निहारते खुले
आसमां की ओर.........।
१६-०७-२०२०
३.
'झंडा फहराई गईल ना'
भईया पंद्रह अगस्त फेर आई गईल
झंडा फहराई गईल ना......
वीर भगत के कुर्बानी,
चंद्रशेखर के कहानी
गांधी बापु के अहिंसा सबे हेराई गईल
झंड़ा फहराई गईल ना.....
एक खरब के आबादी फाइलन सगरौ आतंकवादी,
देश के बिरवन के इतिहास धुंधलाई गईल
झंड़ा फहराई गईल ना.....
भईल प्रकृति के दोहन,
बढ़ल देश में प्रदूषण
सगरौ धरती के पेड़वा कटाई गईल
झंडा फहराई गईल ना.....
घूस पेश के जमाना सगरौ अपने ताना बाना,
आज सभ्यता औ संस्कृति हेराई गईल
झंडा फहराई गईल ना.....
नेतन के जनता पर न ध्यान मूर्ति पर टिकल परान,
एही कुर्सी के ख़ातिर सबे बौराई गईल
झंडा फहराई गईल ना....
मंदिर मस्जिद के जमाना राजनीति के तराना,
ये लॉक डाउनवा में सबै सलटाई गईल
झंडा फहराई गईल ना....
देश मे आईल कोरोनाकाल जनता हो गइल बेहाल
एहि कोरोनवा से सबहिन झटकाई गईल
झंडा फहराई गईल ना....
भईया पंद्रह अगस्त फेर आई गईल
झंडा फहराई गईल ना.....२
४.
" संबंधों की डोर "
फस जाता हूँ मैं अक्सर.....।
संबंधों के बीच मे
उसी तरह !
जैसे किसी पक्षी के चोंच से एक दाना
गिर पड़ा हो गहरे दरार में,
अनेक यत्नों के बीच
निकाल पाना हो जाता है मुश्किल !
फस जाता हूँ मैं अक्सर.....।
कभी-कभी उन संबंधों पर
पड़ जाती हैं चोटें गहरी,
लुहार के लोहे की भांति !
तिलमिला उठता है अंतर्मन,
उन स्वार्थमय संबंधों की
जलील हरकतों से
फस जाता हूँ मैं अक्सर.....।
मनुष्य का गिरना उसके स्वार्थ के पराकाष्ठा
की होती है हद!
किन्तु ; नियति की चोट जब पड़ती है
आदमी के 'नीयत' पर !
वक्त के मार सी,
तो उस अभागे मन को होता है पश्चाताप
अपने अकर्मण्य कर्मों पर
फस जाता हूँ मैं अक्सर उन स्वार्थमय
संबंधों के बीच में.....!
५
'सुलझाओ दोस्तों'
जाति व धर्म के नाम पर न लजवावो दोस्तों,
खुले न्युक्ति की प्रक्रिया सबको बतलाओ दोस्तों।
महामना के ज्ञान मंदिर का सम्मान अलग है,
विद्या व धर्म संस्कृत की पहचान अलग है।
इन सबको एक मे पीस कर न चबाओ दोस्तों,
धर्म व जाति के नाम पर न लजवावो दोस्तों।
सच को न छिपाओ झूठे को न दबाओ,
सच क्या है उसे खुल कर के तो बताओ ।
हर धर्म संस्कृति की अपनी पहचान अलग है,
भाषा, कला, वेश-भूषा, खान-पान अलग है।
फिर भी हम हैं भारतीय न उलझावो दोस्तों,
हो काम पर विवाद न हो सुलझाओ दोस्तों।
अफ़वाहों को न यूँ ही फैलाओ ए दोस्तों,
खुले न्युक्ति की प्रक्रिया सबको बतलाओ दोस्तों।
२१ नवंबर, २०१९
६.
'उम्मीद'
"""""""
सृष्टि के आरंभ से ही जुड़ा है
सम्बन्ध, मानव का उम्मीदों से!
जैसे मनु का था सतरूपा से
एक नएपन की उद्दाम,अतृप्त
आकांक्षाओं की अमूर्त्त भविष्यमत्ता से
वहीं-वहीं !
जैसे आत्मा का शरीर से!
उम्मीदें रहेंगी तभी तो, रहेगा जीवन
पृथ्वी, आकाश व प्रकाशित ग्रहों की तरह,
रहेगा अड़िग सत्य भी
शिराओं में स्पंदित लहू के सदृश
प्रलय प्रवाह में भी जीवंतमय बने रहने का संदेश!
आत्मा रहेगी ही कहाँ ?
जब शरीर ही नही रहेगा !
उम्मीदें हमें हौशले देती हैं,
खोल देती हैं, तमाम नाकामयाबियों के मध्य कामयाबी का एक रहस्यमय द्वार
क्षितिज के उस पार भी,
और ले जाती हैं हमें अपने मुकाम तक
मोक्ष के अंतिम सोपानों पर ।
१७ नवंबर, २०१९
७.
'गाँव आने पर'
महकते फूलों का आँगन चहकते पंक्षियों के पर,
जहाँ पर लोक में परलोक सा सुख गाँव देता है ।
शहर की भागती,रोती व ठिठकी भीड़ से हट कर,
सुकूँ सेहत भरी हर ज़िन्दगी को छाँव देता है ।
8.गाँव की गरीब बाला'
यौवन की दहलीज पर खड़ी बाला
करती है कल्पनाओं के संसार मे भ्रमण
बैठी घर के अंदर ही
निहारती आसमा की ओर
कभी बूढ़े मां बाप को तो कभी दीवारों पर टंगी पुरखों की तश्वीरों को
संभाल पाना हो जाता है मुश्किल
फिर भी संभल ही जाती है
खुद ब खुद!
रखती है खुद को व्यस्त प्रतिपल घर, आँगन, खेत-खलिहान, फावड़े,कुदालों के साथ, बूढ़े माँ बाप चौका-चूल्हों के बीच
शहर में भागती गाड़ियों के पहिये की भांति!
चाह कर भी नही कर पाती इज़हार
अपने प्रेम को,
अपने अनजाने अनहोने प्रियतम से
बुद्बुदाती मन ही मन पूछ बैठती है
कल्पना के सुंदर राजकुमार से !
क्या तुम करते हो मुझसे प्यार ?
क्या मैं ! कर सकती हूँ तुम्हारा आलिंगन
पल भर के लिए!
किन्तु! सहसा तिलमिला उठती है
सीने से उठती ज्वर के बीच
प्रिय को न पाकर अपनी बाहों में !
लज्जा से झुक जाता है सिर
मन ही मन शर्माती है बाला!
अपनी किश्मत के आभागेपन पर कोशती है खुद को,
झोपड़ीनुमा खपरैल घर की दहलीज़ पर खड़ी
गरीबी,बेबसी, व लाचारी के मध्य घिरी!
किन्तु याचना नही करती याचक बन कर भगवान से,,,,,
बस करती है प्रतिपाल अपना कर्तव्य
गहरी आकांक्षाओं के बीच !
सुनहरे पर लगा, अपलक निहारते खुले
आसमां की ओर !
9.
'दोष इतना ही था कि मैं स्त्री थी'
अनंत आकांक्षाओं को लेकर
जनी थी एक नन्हीं सी परी
माँ की कोख़ से मुस्कराती,
उड़ना चाहती थी उन्मुक्त गगन में
सपनों के सुनहरे पर लगा
संघर्षों के पथ पर
किन्तु ! फस गई अनायास ही
धरा पर कुछ दानवों के बीच!
शिकार हुई क्षणभंगुर वासनाओं की
मनुष्य की अतृप्त हैवानियत में
रौंद दी गई बरबस काया
फसलों की भाँति !
निर्मम, नृशंस पूर्वक बर्बर,
कामुकता की खुरों से !
मांगती रही भीख दया की
याचक बन कर,
हजारों चितत्कारों के मध्य
राजधानी के राजपथ पर !
तड़फती रही अर्धनग्न लहू से लथपथ
चोटों से उभरी असहनीय पीड़ाओं
के बीच ही सिमट गई ज़िन्दगी
डबडबायी पथरीली आँखों से
कराहती, कोशती रही,
मानव की कामुकता को
धरती माँ के आँचल में!
अधटुटे फड़फड़ाते पंखों
को निहारते!
निःशब्द करुणा भरे स्वरों में
कह बैठी अंतिम क्षण धरती माँ से,
मत देना अब किसी परी को
इस तरह बहादुर बिटिया होने का गौरव
ऋषि-मुनियों की धरती पर!
अंतिम शब्दों के साथ मुक्त हो काया से
चीखती है एक ही शब्द
बार-बार !
माँ मैं निर्दोष थी
उन वासनाओं से अतृप्त
दानवों के बीच!
बस दोष मेरा इतना ही था,
कि मैं स्त्री थी!
10.
"आदिवासी होने का अर्थ"
पेड़ों की छाँव में, पहाड़ियों की ठांव में, घास-फुस के छाजन से पत्तों के ढ़ेर पर बसे होने का नाम है आदिवासी।
शहर की कोलाहल से दूर
खोह, कन्दराओं, घने जंगलों के मध्य अज्ञात की तलाश में प्रकृति के बीच अर्धनग्न!
कंद-मूल, रूखा-सूखा खाकर भी संतुष्ट
होने का नाम है आदिवासी।
सूरज ,चंदा,तारे धरती, जीव-जंतुओं, वनस्पतियों के कोलाहल से ही
भविष्य का आँकलन
करने का नाम है आदिवासी।
जल,जंगल,जमीन जागीर है जिनकी
कंद- मूल, फल ही अन्न है जिनका !
आधुनिकता की खूरों से रौंदे जाने के बाद भी,सभ्य व श्रेष्ठ होने का नाम है आदिवासी।
नियम व बचन के पक्के,
शिकार के शौकीन,
शत्रुओं से अपनी रक्षा में महारत हाशिल, धर्म,कला,संस्कृति व सभ्यता के भक्त लोक में भी परलोक का एहसास कराने का नाम है आदिवासी।
राजा-रानी, भूतों-प्रेतों, जादू-टोनों से भरी कहानियों, दन्त कथाओं,आख्यायिकाओं, लोक कलाओं, लोक संस्कृतियों से परिपूर्ण साहित्य रूपी रत्नों के अक्षय पात्र का नाम है आदिवासी।
भोगवादी जीवन से दूर, गणित, खगोल,तर्क,आयुर्वेद के ज्ञान से भरपूर नृत्य, संगीत, पशुपालन, दुग्धउत्पादन, बागवानी में दक्ष श्रम, ईमानदारी, बहादुरी, जिम्मेदारी का नाम है आदिवासी।
लघुउद्योग, कुटीर उद्योग, लोहे, सोने,चांदी
अनेक धातुओं हथियारों का खोजी (शोधक)
खाँची,मचिया,भउकी,सनई, खटिया,लउर लाखों शब्दों से भरे साहित्य के श्रृंगार का नाम है आदिवासी।
गोण्ड, खरवार,पनिका,पहरिया,
भुइयाँ, धसिया, धांगर, अगरिया,
कोरवा, कोल,सहरिया,पठारी,बैगा,
थारू, बुक्सा दर्जनों आर्य जातियों में
राजा महाराजा होने का नाम है आदिवासी।
जन-जन के पोषण का, राजनेताओं द्वारा शोषण का, राजनैतिक वर्चस्व को ज़िंदा रखने के लिए, वोट बैंक व नेताओं की खुराक का नाम है आदिवासी !
11.
विडंबना'
झिल्लीदार मांशल दीवारों के बीच
झांकती एक नन्हीं सी कली,
अपने नव जीवन के कटु यथार्थ को समझने हेतु!
अपने अधिकारों को पाने को लालायित निश्चल मनःस्थिति से!
करना चाहती है अपने विचारों को प्रेषित
समाज के बीच!
दानवीय कुविचारों को उखाड़ फेंकने को
तत्पर नवस्फूर्ति नव चेतना से भरी
एक जाज्वल्यमान पुंज की भांति!
अपनी जिज्ञासाओं के घरौदे से
बाहर आने को उतावली,
किंतु ! उसकी विह्वलता,निश्छलता व भाव-कोमलता को
दबा दी जाती है,
एक नुकीली धार के बीच!
हल्के धक्के में ही सिमट जाती है
अतीत की यादें!
अन्तिम स्वसों के बीच,
पथरीली आँखों में
सब चूर हो जाता है क्षण भर में!
हाय ! यह विडंबना है
समाज की ?
छटपटाती है वह नन्ही सी कालिका
झिल्लीदार मांशल दीवारों के बीच!
अनायास ही गूँजती है एक लघु आवाज,
विराट चेतना के रूप में
कोशती है; मानवीय, सामाजिक विडंबना को मनुष्य की नृशंसतापूर्वक बर्बरता व कामुकता को यथार्थवाद के धरातल पर !
कुछ भी व्यक्त नही कर पाती अपने विचारों से,
किन्तु विवश कर देती है !
मानव को सोचने हेतु ?
इस विडंबना के जर्जर मकानों के बीच !
12.
"गांव का पोखऱा"
जहाँ सीखा था तैरना
भईया व दीदी के साथ, छुटपन में
अथाह पोखरे के बीच!
थाह को नापते चुलबुली हरक़तों में
अलमस्त गांव के हमउम्र साथियों के मध्य घिरा
मुर्गा-मुर्गी के खेलों में मस्त
अहो! कितना सुखमय था
बीच पोखरे में लाठी का छूना व
एक दूसरे की टाँगों को खींचने का मज़ा
पानी के अंदर ही अंदर
इस पार से उस पार तक चले जाना
पानी से लड़ते, टकराते, तैरते, व सनकते
जल्दी पार होने की जुगत मे!
वे आम के पेड़, बेल की मोटी शाखाएं,
जामुन की गंध और नीम के कड़वापन का सच
बेल की खट्टी मिट्ठी यादों से गुज़रते
कैत के कसैलेपन का बोध लिए,
पेड़ों की मोटी पतली शाखाओं से
निर्भीकता पूर्वक छलांग का लगाना!
अंदर ही अंदर काफी दूर तक चले जाना
साक्षी है ! आज पोखरे का सात सीढयों सहित एक आँगन नुमा घाट और शिव का मंदिर!
जिसे बनवाया था टेंगरी बाबा ने अपने परधानी के दौर में!
हाय! सबकुछ पीछे छूट गया है
बोध होता है! इस नश्वर शरीर का
आज रिरियाता पोखऱा बुलाता है लौट आने को बचपन के गांव में!
निहारता अपलक उसकी दरारें पड़ी सूखे तल को,
ख़ोजता किनारों को जहाँ हुवा करते थे
घने छायादार हरे-भरे पेड़ व उनकी बेपरवाह धुँधली तश्वीरों को!
उन पुर्वजों के लगाए कैत,जामुन,बेल,नीम
व आम का गुम होना!
भाउक हो उठता है अपना अन्तर्मन
पुरानी स्मृत्तियों को याद कर!
लुढ़क जाती है आँखों से दो बूँद!
उस तालाब को अभिसिंचित कर
मैं पुनः खो जाता हूँ अतीत में
13.
(क)' बाढ़'
इस भयंकर बाढ़ में
खो गया मेरा सबकुछ!
खो गया वो भी
जिसे कंधों पर बैठाकर खिलखिलाता था
उसकी नन्हीं उंगलियों को थामे
मेरे हर पीड़ा की दवा थी
उसकी तोतली बोलियाँ
ओह! आज कंधे भी रो रहे दहाड़े मार!
कि उसे कंधा न दे सका !
मेरा खो गया सबकुछ
इस भयंकर बाढ़ में!
(ख) 'जरूरी है'
ज़िंदा रहने के लिए जरूरी है थोड़ी सी धूप, थोड़ा पानी और थोड़ी सी आग
सुहानी हवाओं का एक थपेड़ा
व खुले आसमां की एक छत
नन्हे मुन्ने बच्चों का साथ
जिनकी तोतली बोलियों के बीच
उनकी उंगलियाँ थामे
आप बचा सकते हैं पूरी सृष्टि को!
रहेगी सृष्टि तभी तो बचेंगे आप,
आपका बचना ही
सृष्टि को बचाए रखना है
वो प्यारे दोस्तों!
14.
बापू तुमको आना होगा'
बापू तुमको आना होगा,
बापू तुमको आना होगा।
सत्य अहिंसा की ज्योतिर्मय
पावन जयोति जलाना होगा।
बापू तुमको आना होगा।
घोर गरीबी अनाचार है
रिश्वतखोरी का है राज,
भटक गयी है सत्य अहिंसा
परिवर्तित है आज समाज,
चहुँदिशि भय आतंकवाद है
राजनीति का ताना बाना,
सुप्त पड़ी है युवा चेतना
देशभक्ति का गीत तराना,
तघुपति राघव राम और
चरखे की गूँज सुनाना होगा।
बापू तुमको आना होगा
बापू तुमको आना होगा।
धधक रही है आहुतियों में
जातिवाद और नारी
नून भात व प्याज मसाला
महंगी है तरकारी
सहम गयी है सारी जनता
भ्रष्टाचार पतन से
कृषक हुवा असहाय
बढ़ी महंगाई के परचम से
इस मंजर को चोट करारी देकर
पुनः हटाना होगा।
बापू तुमको आना होगा
बापू तुमको आना होगा।
सत्य अहिंसा की ज्योतिर्मय
पवन ज्योति जलाना होगा।
15.
'अन्ना का संदेश'
मांग उठी फिर आहुतियों की
भारत माँ कुर्बानी,
उठो क्रान्ति का बिगुल बजा दो
हम हैं हिंदुस्तानी ।
अत्याचारी गोरों ने जब
हम पर अत्याचार किया था,
वीर भगत, आज़ाद, गांधी ने
उन पर गहरा वार किया था।
वंदेमातरम हुँकारों से
गूँज उठा था सारा देश,
मार भगाओ इन गोरों को
था सबका अपनाया सन्देश।
हुई संगठन की शक्ति से
गोरों को तब हैरानी
उठो क्रान्ति...........।
सत्तर के दशक में क्रांति की
चिंगारी भड़की थी,
जयप्रकाश की आवाज़ें तब
धरती पर तड़की थी,
संपूर्ण क्रांति की अलख जगी थी
वंदे मातरम नारा,
भ्रष्ट नही सरकार हमें
दे दो अधिकार हमारा,
जन-जन में विश्वास भरा था
होगी विजय हमारी,
तानाशाह सरकार झुकी
तब थी उसकी लाचारी,
नहीं चलेगी राजतंत्र में
भ्रष्टाचार मनमानी,
उठो क्रान्ति का........।
आज त्रस्त जनता अपने
नेता के भ्रष्टाचारों से,
लूट, छिनैती, मंहगाई व
बड़े-बड़े घोटालों से,
अब कठपुतली बन नेताओं की
जनता नहीं चलेगी,
सरकारी गुंडों के आगे
पब्लिक नहीं झुकेगी
गांधी, जयप्रकाश की आवाज़
अब अन्ना में पुनः उठी है,
संसद में जन लोकपाल बिल
लाने की मांग उठी है,
दे दो तुम अधिकार हमारा
या हम दे दें कुर्बानी।
उठो क्रान्ति का...........।
अब ललकार उठा है अन्ना
भ्रष्टाचार मिटाने को,
स्विस बैंक के काले धन को
हिंदुस्तान में लाने को,
वंदेमातरम गीत, गीत से
लहराते हाथों से हाथ,
सुखद और समृद्धि राष्ट्र हो
अन्ना हम हैं तेरे साथ,
आज तुली सरकार क्रान्ति को
फिर इतिहास बनाने को,
बिगुल बज गया युवाओं का
भ्रष्टाचार मिटाने को,
नहीं रूकेंगे नहीं झुकेंगे
हम हैं हिंदुस्तानी।
उठो क्रान्ति का बिगुल बजा दो
हम हैं हिंदुस्तानी।
16.
"ये शहर बनारस मेरा है"
ये शहर बनारस मेरा है
ये शहर बनारस मेरा है
टन-टन घंटों की नाद यहां
निर्मल गंगा का वास यहां,
साहित्य रत्न से भरा पड़ा
गुरु ज्ञान मंत्र का घेरा है
ये शहर बनारस मेरा है।
मंदिर,मठ, दानी हैं अनंत
हर गली गली व्यापारी हैं,
पढ़ लिख कर निकले युवा
यहां के बड़े-बड़े अधिकारी हैं
हर गली घाट चौराहों पर
जहाँ राजनीति का डेरा है
ये शहर बनारस मेरा है।
हर हर, बम बम, के जयकारे
घण्टों की नाद झनकती है
त्यागी भागीरथ के तप की
शिव गंगा जहाँ किलकती है
सुबहे पूजा अलमस्त कर्म
जहाँ शाम आरती फेरा है
ये शहर बनारस मेरा है।
शिव तांडव होती रात रात
बिगड़ी भी बनती बात जहाँ
चहुँ दिशि मंदिर घाट दिखे
ज्ञानी संतों का मेल यहाँ
दिन में तो दिनकर का प्रकाश
रातों में जहाँ सवेरा है
ये शहर बनारस मेरा है।
डाल गले में हाँथ यार के
घाटों पर ले मज़ा प्यार के
सुबह कचौड़ी तरी जलेबी
शाम गंगा नौका-विहार के
फंसे सड़क के जाम झाम में
कैसा आफ़त घेरा है।
ये शहर बनारस मेरा है।
पाप यहाँ तो हर जन-जन के
छू मंतर हो जाते हैं
पूजा-पाठ, स्नान, दान से
सब जन धर्म कमाते हैं
तन-मन में रची बसी काशी
शिव सबका तेरा मेरा है।
ये शहर बनारस मेरा है।
17.
मैं वसन्त हूँ'
मैं उपवन का सरस गंध हूँ
मैं वसन्त हूँ, मैं वसन्त हूँ।
मैं उमंग का संवाहक हूँ,
मैं ही हूँ पूर्णिमा का चाँद।
मैं निर्झर झरनों से झरते,
निर्मल जल की हूँ आवाज़।
मैं फूलों का उपवन हूँ,
धरती की हरियाली हूँ।
मैं वसुधा के प्रिय पुत्रों के,
तन, मन की खुशियाली हूँ।
मैं चम्पा की सरस गंध हूँ,
मैं सूरज की नवल किरण।
मैं फूलों की पंखुड़ियाँ हूँ,
मैं भ्रमरों का हूँ गुंजन।
मैं हूँ गीतों में सुमधुर लय,
मलयागिरि का मैं चंदन हूँ।
मैं सपनों की मधुर मनोहर,
मैं जन गण का वंदन हूँ।
मधुमय रस बरसाता सबमे,
फूलों की क्यारी का घर हूँ।
धरती के सुंदर आँचल में,
मैं मयूर का सुंदर पर हूँ।
मधुर-मधुर गति सी बहती मैं,
गंगा के गति सी स्वतंत्र हूँ।
गमन और आगमन पुनः कर,
मैं अबोध गति सी स्वतंत्र हूँ।
मैं तो मानसरोवर के नव,
स्वर्ण कमल का राजहंस हूँ।
मैं तो धरती के आँचल का,
नन्हा सा एक राह 'पथिक' हूँ।
मुझे याद कर लेना पलभर,
लेकर आँचल में भर लेना।
कोमल सुखमय इन अधरों पर,
मधुमय सा चुम्बन दे देना।
मैं ब्रह्मा की श्री वाणी से,
गायत्री का वेद मंत्र हूँ।
मैं जीवन का विरह अंत हूँ,
मैं वसन्त हूँ, मैं वसन्त हूँ।
©मनकामना शुक्ल 'पथिक'
■■■★★★■■■
©सर्वाधिकार सुरक्षित;
मनकामना शुक्ल 'पथिक'
युवा कवि आलोचक,
(वाराणसी)
mob. No. 9450579550 Email. mkshukla2586@ gmail. Com
संपादक :-
नाम : गोलेन्द्र पटेल , बीएचयू
मो.नं. : 8429249326
सर मैं अहिन्दी भाषी क्षेत्र कर्नाटक राज्य से हूँँ ।। मुझे जैसे छात्रों के लिये हिन्दी कविता संग्रह भेजने के लिए आत्मिक आभार ।।
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