१.
साइकिल
_________________
दोनों पैंडल पिता के पाँव हैं
टायर पिता के जूते
मुठिया उनके हाथ
कैरियर उनका झोला
हर रोज जाती है
उन्हें लेकर
लाती है लादकर
गाते हुए लहराते हुए
बिना किसी हेडलाइट के भी
घुप्प अँधेरे में
चीन्ह लेती है अपनी राह
मुड़ती है घर की ओर
हर रात पिता को
घर तक छोड़कर
फिर खुद सोती है साइकिल
भूखी दीवार से सटकर
साइकिल
जो पिता की अभिन्न साथी है
किसी पेट्रोलपंप तक नहीं जाती
कोई पेट्रोल नहीं पीती
जिसका अक्षय ईधन
छिपा है पिता के पाँव में
१७ फरवरी ,२०२०
२.इलाहाबाद
●●●
जो इलाहाबाद छोड़के गया है
वह प्रयागराज नहीं लौटेगा
लौटेगा तो
इलाहाबाद लौटेगा
प्रयागराज एक ट्रेन का नाम था
अब प्रयागराज एक जंक्शन का नाम हो जाएगा
अब टिकट पर नहीं लिखा मिलेगा इलाहाबाद
अब टिकट में उतनी महक भी नहीं बची रहेगी
प्लेटफार्म पर गड़े पीले बोर्ड
जिसको देखने भर से आ जाती थी जान में जान
उस पर लिखा एक प्यारा सा शब्द
अब मिटा दिया जाएगा
कहीं पर कुछ भी लिख दिया जाए
कुछ भी तोड़ फोड़ दिया जाए
पर दुःखी मत होना
सुबेरे जब ट्रेन पहुँचेगी प्रयागराज जंक्शन
बगल बैठा मुसाफ़िर उठाएगा
और बढ़ जाएगा इतना कहते हुए
जग जा भाई आ गया इलाहाबाद
★★★
३.
विदा के वक़्त
●●●
झोले में सब सामान समेटा जा चुका होता है
फिर भी बार-बार लगता है
कहीं कुछ छूट सा गया
जैसे रह गया हो कुछ कहीं कोने में
विदाई के वक़्त
छूट जाती हैं बहुत सी चीजें
सबकुछ समेटकर भी
एक झोले में नहीं भरा जा सकता
कोई परचून की दुकान नहीं है विदाई का घर
परचून की दुकान से नहीं होता है कोई विदा
अमूमन बहुत तेज़ी से पहन लेता हूँ जूते
पर कभी-कभी
जान बूझ कर करता हूँ देर
दोनों हाथों को लहराकर
झाड़ता जाता हूँ जूते की धूल
मोजे को कई-कई बार करता हूँ सीधा
विदाई के वक़्त
बहुत समय लग जाता है
जूते को पहनकर खड़े होने में
चोरों की तरह
नज़र चुरानी पड़ती है
और जल्दी से उतर जानी पड़ती हैं सीढियाँ
बहुत घातक होता है
विदाई के वक़्त मुड़ के देखना
सड़क पर पहुँचते-पहुँचते
भर जाती हैं आँखे
डर लगता है
कि कहीं छलक न जाएं
सामने न देखकर
कनखियों से देखता हूँ अगल-बगल
ठेले पर लदी सब्जियाँ
और सुंदर लगने लगती हैं
बच्चे जहाज की तरह भागते हैं
मन उथल पुथल में होता है
और उन पर गाड़ियाँ हॉर्न बजाते हुए सरपट निकल जाती हैं
सड़क किनारे अपने डेढ़ पैरों पर खड़े शराबी
दुनिया को गालियों में नाप रहे होते हैं
मोटरसाइकिल के चक्के में
फँस गया है सजी-धजी दुल्हन का आँचल
रिक्शे वाला आज बहुत दयनीय लगता है
एक पागल जिसने फुटपाथ को ही बना लिया है अपना घर
रोज की तरह सुखा रहा है अपने कपड़े
इन सब से गुजरते हुए
सूखने लगा है आँख का पानी
भूल गया हूँ,कि
अभी-अभी किस हाल में रक्खा था सड़क पर कदम
भूल गया हूँ, कि
अभी कहाँ से आ रहा हूँ
४.
बदरा बेमौसम
______________________
नहकै तुराय लिए पगहा
बरसि गए बदरा बेमौसम
दिन मा किए अनिहरिया
बरसि गए बदरा बेमौसम
अखियाँ में जैसे लगाए कजरवा
चमकैं औ गरजैं चिढ़ावैं बदरवा
रोवैं औ पनिया बहावैं बदरवा
ताकैं तौ जैसै डरावैं बदरवा
करिया भई दुपहरिया
बरसि गए बदरा बेमौसम
नहकै तुराय लिए पगहा
बरसि गए बदरा बेमौसम
उड़ि चली चिरई
कुकुर सब भागे
नाचै बच्छउआ
पड़ीवा कुलाछै
ताकैं टुकुर टुकुर सरिया
बरसि गए बदरा बेमौसम
नहकै तुराय लिए पगहा
बरसि गए बदरा बेमौसम
गोहूँ वलरि गए
टूटि गई सरसो
झरे गिरे चनवन कै फुलवा
बरसि गए बदरा बेमौसम
नहकै तुराय लिए पगहा
बरसि गए बदरा बेमौसम
होली मा बरसैं
देवाली मा बरसैं
तरसैं असाढ़े मा धनवा
बरसि गए बदरा बेमौसम
नहकै तुराय लिए पगहा
बरसि गए बदरा बेमौसम
५.
कोरोना क़हर है
सबको पता है
सभी कह भी रहे हैं
फिर भी सड़क पर आ रहे हैं
ये बिल्कुल वैसे ही है जैसे
तम्बाकू ज़हर है
रैपर पे लिखा है
सबको पता है
मगर सब खा रहे हैं
२५ मार्च , २०२०
६.
जिसमें तैरकर जाते थे लोग घर
वह रेल हो गई है बन्द
पटरियाँ बह रही हैं सूखी
सूखी नदी में कैसे तैरेंगे लोग
भले लोग भी हैं दुनिया में
जो आएंगे आगे
रास्ता बताएंगे
सूखी नदी में कठिन है तैरना
कुछ दूर चलेंगे कहीं बैठ जाएंगे
उतरेंगे नदी में तैरते हुए जाएंगे
जो पैदल निकले हैं घर
वह पैदल ही पहुँच जाएँगे
२८ मार्च , २०२०
७.
गाँव, घर और शहर //
याद न करना घर की रोटी
घर का दाना
शहर की दुनिया में जब आना
मत घबराना
बड़ी खोखली है यह दुनिया
थोड़ी चोचली है यह दुनिया
किसिम-किसिम के जीव यहाँ पर
इनसे बचकर आना-जाना
मत घबराना...
शहर की दुनिया में जब आना
गली शहर की मुस्काती है
फिर अपने में उलझाती है
इस उलझन में फँस मत जाना
शहर में रुकना है मजबूरी
गाँव पहुँचना बहुत जरूरी
गाँव लौटना मुश्किल है पर
मत घबराना...
समय-समय पर आना-जाना
चाहे जितना बढ़ो फलाने
स्याह पनीली आँखों से तो
मत टकराना
धीरे-धीरे बढ़ते जाना
कुछ भी करना,
हम कहते हैं घूँस न खाना
शहर की दुनिया में जब आना
मत घबराना...
जब भी लौटा हूँ मैं घर से
अम्मा यही शिकायत करती
झोला टाँगे जब भी निकले
मुड़कर कुछ क्यों नहीं देखते
अब कैसे तुम्हें बताऊँ अम्मा
क्या-क्या तुम्हें सुनाऊँ अम्मा
तुमको रोता देख न पाऊँ
तू रोये तो मैं फट जाऊँ...
सच कहता हूँ सुन लो अम्मा...
यही वजह है सरपट आगे बढ़ जाता हूँ
नजर चुराकर उस दुनिया से हट जाता हूँ
आँख पोंछते रोते-धोते थोड़ी देर तक
पगडंडी पर घबराता हूँ
किसी तरह फिर इस दुनिया से कट जाता हूँ
८.
ठेका खुल गया
__________________
ठेका खुल गया
रंग बिरंगी बोतल आई
दिल दिमाग में दौड़ रही
ठंडी पुरवाई
धन्य देश सरकार धन्य है
धन्य हमारी जनता
धन्य देश के मदिरालय हैं
जिनसे सच्ची ममता
धन्य हमारे पीने वाले
धन्य हमारी दारू
धन्य हमारे महाभूमि की
मिमियाती मेहरारू
धन्य देश का अटल खजाना
जो वर्षों से खाली
धन्य देश की प्यारी जनता
पीट रही जो थाली
आसमान से बरसा पानी
धरती का संताप धुल गया
उठो भाइयो!
ठेका खुल गया
४ मई ,२०२०
९.
पहले भी कम नहीं थीं मुश्किलें
_____________________________
ख़बरों में अभी भी पैदल चल रहे हैं लोग
साइकिल से जा रहे हैं
हज़ार-हज़ार किलोमीटर दूर अपने गाँव
दिन भर, रात भर,
भूख प्यास गर्मी में, लू में
चले जा रहे हैं
पहले भी कम नहीं थीं मुश्किलें
रेल के दरवाजे पे लटककर
शौचालय के बगल खड़े होकर
जाते थे लोग
ऊपर की सीटों में लपेटकर गमछा
बैठने की जगह बनाते थे
जहाँ सामान रखा जाना चाहिए
वहाँ खुद गठरी बन जाते थे
पहले भी कम नहीं थीं बाधाएँ
अपनी सीट का किराया देकर भी
खड़े होकर जाते थे
दिल्ली कलकत्ता बम्बई हैदराबाद लुधियाना चंडीगढ़
और मंत्रालय ने टिकट काउंटर पर लिखाया
कि इनका साठ प्रतिशत किराया
कोई और अदा करता है
कोई ठीक-ठीक आँकड़ा है किसी भी सरकार के पास
कि वे बम्बई में कहाँ थे
दिल्ली में किधर
हैदराबाद लुधियाना में कहाँ रहते थे
चंडीगढ़ में काम तो करते थे
पर क्यों रहते थे चंडीगढ़ के पार
इस महामारी से पहले भी
वे मर खप रहे थे, अपने-अपने आकाश में
देर रात अपने-अपने पिंजरे में लौट आते थे सोने
कोई आँकड़ा है किसी भी सरकार के पास
कि किस नल का पानी पीते थे ये लोग
शौच के लिए सुबह-सुबह
कैसे खड़े रहते थे घंटों
लम्बी-लम्बी कतारों में
खाते भी थे या भूखे पेट सो जाते थे
रेल में मेट्रो में बसों में
उनकी ही जेब कटी
वे ही ठगे गये हर जगह
बचा खुचा रुपया मोजे में छिपाकर
लौटते थे गाँव
बहुत उदास होकर
यह महामारी तो अभी-अभी आई है
उनके हर दिन की महामारियों का
कोई हिसाब नहीं!
न कोई सिरा न कोई अंत!
कुछ लोग कह रहे हैं कि
वह अबकी नहीं लौटेंगे शहरों महानगरों की ओर
लौटेंगे
फिर लौटेंगे
जब तक पेट है आते-जाते ही रहेंगे
वही बनाएंगे घर
वही ढोएंगे सामान
सरकार ठेकेदार दुकानदार मालिक सभी
फिर से बुलाएंगे उन्हें
आगामी महामारियों का अभ्यास कराने के लिए
२६ मई ,२०२०
१०.
★पसिंजरनामा★
काठ की सीट पर बैठ के जाना
वाह पसिन्जर जिंदाबाद
बिना टिकस के रायबरेली
बिना टिकस के फ़ैज़ाबाद
हम लोगों की चढ़ी ग़रीबी को सहलाना
वाह पसिन्जर जिंदाबाद ।
हाथ में पेपरबैक किताब
हिला-हिलाकर चाय बुलाना
रगड़ -रगड़ के सुरती मलना
ठोंक -पीटकर खाते जाना
गंवई औरत के गंवारपन को निहारना
वाह पसिन्जर जिंदाबाद ।
तुम भी अपनी तरह ही धीरे
चलती जाती हाय पसिन्जर
लेट-लपेट भले हो कितना
पहुंचाती तो तुम्ही पसिन्जर
पता नहीं कितने जनकवि से
हमको तुम्हीं मिलाती हो
पता नहीं कितनों को जनकवि
तुम्हीं बनाते चली पसिन्जर
बुलेट उड़ी औ चली दुरन्तो
क्योंकि तुम हो खड़ी पसिन्जर
बढ़े टिकस के दाम तुम्हारा क्या कर लेगी ?
वाह पसिन्जर जिंदाबाद ।
छोटे बड़े किसान सभी
साधू, संत और सन्यासी
एक ही सीट पे पंडित बाबा
उसी सीट पर चढ़े शराबी
चढ़े जुआड़ी और गजेंड़ी
पागल और भिखारी
सबको ढोते चली पसिन्जर
यार पसिन्जर तुम तो पूरा लोकतंत्र हो !!!!!
सही कहूँ ग़र तुम न होती
कैसे हम सब आते जाते
बिना किसी झिकझिक के सोचो
कैसे रोटी- सब्जी खाते
कौन ख़रीदे पैसा दे कर 'बिसलरी'
उतरे दादा लोटा लेकर
भर के लाये तजा पानी
वाह! पसिन्जर .........
तुम्हरी सीटी बहुत मधुर है
सुन के अम्मा बर्तन मांजे
सुन के काका उठे सबेरे
इस छलिया युग में भी तुम
हम लोगों की घड़ी पसिन्जर
सच में अपनी छड़ी पसिन्जर
वाह पसिन्जर जिंदाबाद ।
भले कहें सब रेलिया बैरनि
तुम तो अपनी जान पसिन्जर
हम जैसे चिरकुट लोगों का
तुम ही असली शान पसिन्जर
वाह पसिन्जर जिंदाबाद ।
११.
टिकट काटती लड़की
----------------------------------
हल्की पतली नाक
और चमकती आँख
गेहुँआ रंग, घने बालों में
हल्का होंठ हिलाकर बोली
चलो बरेली चलो बरेली
बस के अंदर टिकट काटती
टिकट बाँटती लड़की....
गले में काला झोला टाँगे
हँस-हँस कर बढ़ती है आगे
बहुत आहिस्ता पूछ रही है
कहाँ चलोगे??
कान के ऊपर फँसा लिया है
उसने एक कलम
हँसकर शायद छिपा लिया है
अपना सारा ग़म
उसी कलम से लिखती जाती
बीच-बीच में राशि बकाया,
बहुत देर से समझ रहा हूँ
उसकी सरल छरहरी काया....
बस के अंदर कोई फ़िल्मी गीत बजा है
देखो कितना सही बजा है...
"तुम्हारे कदम चूमे ये दुनिया सारी
सदा खुश रहो तुम दुआ है हमारी।"
घूम के देखा अभी जो उसको,
टिकट बाँटकर
सीट पे बैठे
पता नहीं क्या सोच रही है
किसके आँसू पोंछ रही है.
कलम की टोपी नोच रही है..!
१२.
मकड़जाल
--------------------
भिनसार हुआ, उससे पहले
दादा का सीताराम शुरू
कितने खेतों में कहाँ-कहाँ
गिनना वो सारा काम शुरू
'धानेपुर' में कितना ओझास,
पूरे खेतों में पसरी है
अनगिनत घास
है बहुत... काम,
हरमुनिया सा पत्थर पकड़े
सरगम जैसा वो पंहट रहे
फरुहा, कुदार, हंसिया, खुरपा
सब चमक गए
दादा अनमुन्है निकल पड़े
दाना-पानी, खाना-पीना
सब वहीं हुआ,
बैलों के माफ़िक जुटे रहे
दुपहरिया तक,
घर लौटे तो कुछ परेशान
सारी थकान.....
गुनगुनी धूप में सेंक लिए,
अगले पाली में कौन खेत
अगले पाली में कौन मेड़
सोते सोते ही सोच लिए
खेती-बारी में जिसका देखो यही हाल
खटते रहते हैं, साल-साल
फिर भी बेहाल,
बचवा की फीस, रजाई भी
अम्मा का तेल, दवाई भी
जुट न पाया,
कट गई ज़िंदगी
दाल-भात तरकारी में...!
ये ढोल दूर से देख रहे हैं
लोग-बाग़,
नज़दीक पहुंचकर सूँघे तो
कुछ पता चले,
खुशियों का कितना है अकाल...
ये मकड़जाल,
जिसमें फंसकर सब नाच रहे
चाँदनी रात को दिन समझे
कितने किसान.....
करते प्रयास
फ़िर भी निराश
ऐसी खेती में लगे आग!
भूखे मरते थे पहले भी
भूखे मरते हैं सभी आज
क्या और कहूँ ?
१३.
बाल नरेन्दर
------------------
संघर्षों के सोना-चाँदी
हीरा-मोती बाल नरेन्दर
मगरमच्छ की खाल नोचकर
बड़े हुए हैं लाल नरेन्दर
प्लेटफार्म पर चाय बेचते
रहे इक्कीस साल नरेन्दर
फिर साधू सन्यासी बनकर
भटके सालों साल नरेन्दर
डिग्री कहाँ किधर से झटके
ये तो बड़ा सवाल नरेन्दर
बंगाली रसगुल्ला खाकर
फुला लिए हैं गाल नरेन्दर
आंख चुराकर नज़र बचाकर
ठोक रहे हैं ताल नरेन्दर
बचा खुचा है सिर में जितना
बेचेंगे सब बाल नरेन्दर
चूम रहे हैं डाल नरेन्दर
सच में बड़े कमाल नरेन्दर
तन ढंकने को लाख टके का
पहन रहे हैं छाल नरेन्दर!
१४.
यूकेलिप्टस का दरख़्त यह
____________________
कटहल से कुछ और बड़ा है
दस पेड़ों के बीच खड़ा है
आमों का सिरमौर बना है
चिकना गोल-मटोल तना है
यूकेलिप्टस का दरख़्त यह
जिसको देख रहा हूँ
उमड़ रहा है घुमड़ रहा है
तीन दिशा में घूम रहा है
मगन मुदित है झूम रहा है
पड़ोसियों को चूम रहा है
यूकेलिप्टस का दरख़्त यह
जिसको देख रहा हूँ
गाँव-गाँव औ खेत-खेत तक
पगडंडी औ मेड़-मेड़ तक
छाया है यह यूकेलिप्टस
पता नहीं किस देश-भूमि से
लदकर कैसे हिन्द देश तक
आया है यह यूकेलिप्टस
जिसको देख रहा हूँ
है विनम्र यह बहुत बड़ा है
अपने दम पर यहाँ खड़ा है
मिट्टी पानी हवा पिया है
कैसे कैसे लड़ा जिया है
यूकेलिप्टस का दरख़्त यह
जिसको देख रहा हूँ
अभी यहाँ बदली छाई थी
अभी यहाँ बुलबुल आई थी
अभी एक कौआ बोला था
अभी एक कोयल गाई थी
यूकेलिप्टस का दरख़्त यह
जिसको देख रहा हूँ
१५.
उत्सव और तरंगें होतीं
एक जुलाई को
मन में बड़ी उमंगे होतीं
एक जुलाई को
बहुत सवेरे हम उठते थे
एक जुलाई को
पैदल ही स्कूल निकलते
एक जुलाई को
कंधे पर झोला होता था
एक जुलाई को
नया नया चोला होता था
एक जुलाई को
आसपास हरियाली होती
एक जुलाई को
बादल होते बारिश होती
एक जुलाई को।
१जुलाई , २०२०
१६.
राम की अयोध्या में
_________________
मंत्रोच्चार हुआ
राम की अयोध्या में
कई-कई बार हुआ
राम की अयोध्या में
भूमि की पुजाई हुई
राम की अयोध्या में
ईंट की जुड़ाई हुई
राम की अयोध्या में
राम की अयोध्या को
महामारी मार रही
राम की अयोध्या को
राजनीति तार रही
जोड़ रहे तोड़ रहे
राम की अयोध्या में
राम को निचोड़ रहे
राम की अयोध्या में
लोगों का ध्यान हटा
राम की अयोध्या में
रहे परसाद बंटा
राम की अयोध्या में
सरयू उफान पर है
राम की अयोध्या में
चच्चा दुकान पर हैं
राम की अयोध्या में
७अगस्त ,२०२०
१४.
कलाई में बंधी घड़ी देख लेता हूँ
पर समय नहीं देखता
मैंने कभी समय देखने के लिए
कलाई में घड़ी नहीं बाँधी
कहीं आता हूँ कहीं जाता हूँ
कभी समय देखकर नहीं उठता
किसी के घर से
उठता हूँ, जब ऊब जाता हूँ
एक जगह से उठता हूँ
दूसरी जगह बैठने के लिए
जैसे एक चिड़िया
थोड़ी देर बैठती है किसी पेड़ पर
ऊबती है
फिर उड़ जाती है
बैठने के लिए
किसी दूसरी डाल पर
चिड़िया घड़ी नहीं लगाती
लेकिन वह समय को जानती है
२६अगस्त ,२०२०
साहित्यिक परिचय..
©संदीप तिवारी
जन्म- 27 अप्रैल 1993, उत्तर प्रदेश
सम्मान : रविशंकर उपाध्याय स्मृति युवा कविता पुरस्कार 2020
महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र- पत्रिकाओं और ब्लॉगों में कविताएँ प्रकाशित।
संपर्क- हिंदी विभाग, कुमाऊँ विश्वविद्यालय नैनीताल, 263001
मो.नं. : 8840166161
संपादक परिचय :-
नाम : गोलेन्द्र पटेल {बीएचयू ~ बी.ए.,द्वितीय वर्ष}
जन्म : ५अगस्त ,१९९९ ,चंदौली , उत्तर प्रदेश, भारत।
संपर्क सूत्र :-
मो.नं. : 8429249326
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बहुत अच्छी कविताएँ। बिना भाषा को अनावश्यक रूप से दुरूह बनाए और बिना वायवीय बिंबों के सरल और सार्थक। संदीप को हार्दिक शुभकामनाएँ।
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