चर्चित कवि , आलोचक व आचार्य डॉ.शशिकला त्रिपाठी मैम की कुछ महत्वपूर्ण "कोरोजीवी कविताएँ" :-
१.
कोरोना (शीर्षक)
नहीं हुईं वार्ताएं
देश के आकाओं के मध्य,
नहीं उठे मुद्दे
इतिहास, भूगोल, अर्थनीतियों के
ढुलमुल विश्व मंचों पर
न कोई समझौता
न चेतावनी ,न उद्घोषणा
न देश की सीमाओं पर
दिखी बाजीगरी सैनिकों की
फिर भी छिड़ गया है
भयानक विश्वयुद्ध,
वर्चस्व के लिए।
नामालूम तरीके से
जैसे आता है अंधड़
समुद्र में सूनामी और
जंगल में लगती है आग
वैसे ही विश्व में
महामारी रूप में
पैर पसार चुकी है कोरोना
पूर्व के नैसर्गिक
और मानवनिर्मित
आपदाओं को पछाड़कर।
मर रहें हैं बेकसूर
लाखों की संख्या में
नई तकनीकें भी
सिद्ध हुई हैं बेबश
योरोपीय देश हैं बेहाल।
विचित्र यह कि
लड़ा जा रहा है युद्ध
घरों में बंद होकर
मास्क, साबुन और सैनिटाइजर
जैसे हथियारों से
दुनिया है स्तब्ध।
विश्वविजेता
बनने की होड़ में
चीन, वेपन वायरस से
तोड़ता है महाशक्तियों के रीढ़
लीलाधारी बन,
करता है शंखनाद
अभिनय के लिए
सृजन और विनाश का
विश्व रंगमंच पर ।।
२.
मां की स्मृति में कुछ उद्गार ।
कभी नहीं मरती माँ
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हंस के उड़ने पर भी
बेटी की आत्मा में
चुपचाप चली आती है माँ
मौका मिलते ही उससे
करती है ढेरों संवाद
कभी नहीं मरती माँ ।
बागी बेटी भी
उसके पाठों से
सुलझाती है उलझन ।
संस्कारों के बीज
अंखुवाते हैं बेटी में
मां की सोच
निखरती है बेटी में
समस्याओं से घिरने पर
उसे उबार लेती है मां
उसकी सीख से
मिलता रहा है उसको हल
माँ की भाषा में
होता है जीवन सार
लोकोक्तियां की भरमार
उन्हें दुहराती है
जब तब वह।
मां से ही समझा है
उत्सव पर्व का अर्थ
इसीलिए स्मृति मात्र से
आती है सुगंध पकवानों में
उसकी डांट व प्यार की लहरें
बहती है बेटी के नस नस में।
उम्र की सीढ़ियों पर
बेटी जब बनती है मां
हो जाती है बिलकुल मां जैसी
कभी नहीं मरती मां
बेटियों में
अमर होती है ।
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३.
जाना है गाँव
( 1)
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कमाऊ शहर
दिल्ली, मुम्बई हो
या तेलंगाना,मेंगलुरू,
केरल, कोलकाता हो
या हरियाणा, पंजाब
प्रवासी मजदूर
हताशा में
आते हैं सड़कों पर
कोरोना से बेखौफ
न सुरक्षा के उपकरण
न बना पाते हैं दूरियां
जाना है गाँव ।
भले हजार, बारह सौ
किलोमीटर की हो दूरी
पहुंच ही जाएंगे
पंद्रह बीस दिनों में
प्रबल यह विश्वास।
वामन बनकर
नापना चाहते हैं
महानगरों से
गांव की दूरियां।
चल पड़ते हैं
झुंड में पैदल
सिर पर गठरी
गठरी में गृहस्थी
ठेले पर परिवार
परिवार में गर्भवती पत्नी
और नन्हें मुन्ने बच्चे।
पक्का इरादा है
बंदी खुले या बढ़े
उसकी अवधि
फर्क नहीं पड़ता
जाना है गाँव ।
सौ किलोमीटर चलते चलते
चक्कर खाती बिटिया
गिरती है भू पर
हांफती पत्नी
कहती है अब
चला नहीँ जाता
फिर भी बेचैनी है
जाना है गाँव ।
महामारी से पहले
मरेंगे भूख से
अंत समय में
न तुलसी-गंगाजल होगा
न होगा अपनों का कंधा
जाना है गाँव
जिंदा या मुर्दा ।
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४.
जाना है गांव
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स्मृति में
सक्रिय है
चलचित्र
पीपल का छाँव
पुरखों का वास
मां बाप का आशीष
और रहने को
अधबना मकान
जाना है गांव ।
वहां होते नहीं
सिर्फ़ मजदूर
पुकारे जाते हैं
राम घनश्याम
मुरारी हनुमान
जाना है गाँव ।
वहां दद्दा-कक्का
खेत,खलिहान
पोखर, पगडंडियाँ
बचपन की स्मृतियां।
नहीं होंगे घर में बंद
न मरेंगे भूख से
उदरपूर्ति के लिए
कुछ न कुछ
हो जाएगा इंतजाम।
महानगरों में
खटते हैं दिन रात
दुरुस्त करते हैं
अर्थव्यवस्था के चूलों को
फिर भी नहीं होते भारतीय
होते हैं मजदूर
यूपी और बिहार के।
सरकारें बनती, बिगड़ती हैं
लेकिन उनके हिस्से में
नहीं आती समृद्धि
भले गुजर जाए जीवन ।
रुकेगें नहीं अब पांव
'गोदान' के गोबर का
हुआ है मोहभंग
जाना है गाँव ।
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५.
शकुंतले! तुझे सलाम
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विशेष
औषधि-आहार से
होती है रक्षा
दो जीवों की
मातृत्व की
अनमोल अवस्था
गर्भावस्था।
संगठित क्षेत्रों की स्त्री
छह मास होती है
अवकाश पर
लेकिन,
मजदूर स्त्री
कोमल नहीं
इस्पाती होती है
इसीलिए,
प्रचंड हौसले के साथ
गर्भावस्था में
करती है प्रस्थान
महाराष्ट्र से बिजासन ।
लंबी दूरी को
पटकनी देने हेतु
लगाती है छलांग
पार करती है
सत्तर किलोमीटर।
तभी वह
प्रसव पीड़ा से
तड़पती है
सड़क किनारे
देती है शिशु को जन्म।
पुन: यात्रा पर
छाती से सटाए
नवजात को
लांघ जाती है
एक सौ साठ किलोमीटर
पहुँच जाती है
अपने गंतव्य पर।
उसकी यात्रा गाथा
अविश्वसनीय
होते सब भौंचक
देखते हैं अपलक
औरत नहीं
जादुई शक्ति है।
श्रम मंत्रालय
महिला आयोग
सब खामोश
पुलिस-प्रशासन
करुणाविगलित
ध्वनित होता स्वर
वीरांगना हो
शकुन्तले! तुझे सलाम ।
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६.
पिता
त्योहार थे
खुशियों के अंबार थे
नए वस्त्र, खिलौने,उमंग
और उत्साह के मेला थे।
पिता
आम की बगिया थे
लाते थे रिक्शे से
आम बोरे भर भर कर।
तब, सोते थे छत पर
कमरा भर जाता
आम के पाल से
पुआल ही पुआल से।
कलेवा में
रसदार आम
हो जाते हम निहाल
आम के पने पीते
चूसते अमावट
गर्मी की दुपहरी
बीतती थी लूडो
शतरंज के खेल में ।
पिता
अनाज के भंडार थे
ऋतुफलों की टोकरी थे
गौ सेवा करते हुए
दूध के धार थे।
खुश थे हम
रिश्तो की स्पर्धा में
पिता थे राजा
हम राजपुत्र-पुत्रियां।
पिता
हमारे आदर्श थे
उनकी आंखों के हम स्वप्न थे
कोई पुत्र होता
कलक्टर, कोई इंजीनियर
कोई बनता राष्ट्रपति
बेटियाँ भी बनतीं
डाक्टर और लेक्चरर।
नहीं थीं बेटियां
बोझ कि उतार दें उन्हें कहीं ।
पिता
माँ की श्रृंगार थे
हम सबकी शान थे
बड़ा मकान
वाहन, सुख समृद्धि थे।
पिता
डर,आदेश, निर्णय थे
और अनुशासनप्रिय थे।
अवज्ञा पर
होती थी कठोर सज़ा
कुएं में औंधे लटकाते
बांध देते मोटी रस्सी से
बुनते हों जैसे वे खाट।
पिता
पंडित जी थे
घर के बाहर
देते थे आशीर्वाद
सुझाव और उपाय भी
धर्म था उनका
दीनों को उबारना।
पिता
रक्षक थे, कर्मठ थे
उद्यमी ,ऊर्जावान थे
हम बच्चों के भगवान थे।
पिता अमर हैं
बसते हैं अंतस में
चिंगारी की फूंक बन।
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©शशिकला त्रिपाठी
कवयित्री परिचय :-
नाम : शशिकला त्रिपाठी
{एसोसिएट प्रोफेसर , वसंत महिला कॉलेज , वाराणसी}
रचनाएँ :
साहित्यिक सम्मान :
ईमेल :
नाम : गोलेन्द्र पटेल
{बीएचयू , बीए , तृतीय वर्ष}
संपर्क सूत्र :-
मो.नं. : 8429249326
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