Golendra Gyan

Saturday, 14 November 2020

"आत्मान्वेषी विलक्षण मार्क्सवादी आलोचक' : गजानन माधव मुक्तिबोध" - आलोचक अमर नाथ {©Amar Nath} ~ गोलेन्द्र पटेल


 "आत्मान्वेषी विलक्षण मार्क्सवादी आलोचक' : गजानन माधव मुक्तिबोध" - आलोचक अमर नाथ 

प्रोफेसर अमर नाथ :-


मध्य प्रदेश के श्योपुर, जिला मुरैना में जन्मे और राजनांदगांव के कॉलेज में अध्पापक रहे मूलत: मराठी भाषी गजानन माधव मुक्तिबोध (13.11.1917-11.9.1964) जितने बड़े कवि हैं उतने ही बड़े आलोचक भी. यद्यपि उन्होंने अपने समय की आलोचना- प्रवृति से असंतुष्ट होकर आलोचनाएं लिखी हैं. मात्र 46 वर्ष की उम्र में मुक्तिबोध ने जो साहित्य हमें दिया वह उन्हें एक असाधारण प्रातिभ साहित्यकार प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है.  उनकी समीक्षा के प्रति लोगों का ध्यान उनकी मृत्यु के बाद आकृष्ट हुआ. उनकी गद्य कृतियों का प्रकाशन भी काफी देर से हुआ. शमशेर बहादुर सिंह ने उनके ऊपर घटित इस यथार्थ पर टिप्पणी करते हुए लिखा है, “एकाएक क्यों 64 के मध्य में गजानन माधव मुक्तिबोध विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो उठे ? क्यों ‘धर्मयुग’, ‘ज्ञानोदय’, ‘लहर’, ‘नवभारत टाइम्स’- प्राय: सभी साप्ताहिक, मासिक और दैनिक उनका परिचय पाठकों को देने लगे और दिल्ली की साहित्यिक, हिन्दी दुनिया में एक नयी हलचल-सी आ गई ?

इसलिए कि गजानन माधव मुक्तिबोध एकाएक हिन्दी संसार की एक घटना बन गये. कुछ ऐसी घटना जिसकी ओर से आंख मूंद लेना असंभव था. उनकी एकनिष्ठ तपस्या और संघर्ष, उनकी अटूट सच्चाई, उनका पूरा जीवन, सभी एक साथ हमारी भावना के केन्द्रीय मंच पर सामने आ गए. और हमने अब उनके कवि और विचारक को एक नयी आश्चर्य-दृष्टि से देखा.” ( ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ की ‘एक विलक्षण प्रतिभा’ शीर्षक भूमिका से, पृष्ठ-9)

 ‘एक साहित्यिक की डायरी’, ‘कामायनी एक पुनर्विचार’, ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष’, ‘नए साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’ तथा ‘भारत इतिहास और संस्कृति’ मुक्तिबोध की महत्वपूर्ण आलोचनात्मक कृतियाँ हैं. ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ तथा ‘भूरी भूरी खाक धूल’ उनके काव्य संग्रह हैं, ‘काठ का सपना’ तथा ‘सतह से उठता आदमी’ उनके कहानी संग्रह हैं और ‘विपात्र’ उपन्यास है.

उन्होंने सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनो प्रकार की समीक्षाएं लिखी हैं. ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध’ के अधिकाँश निबंध सैद्धांतिक विषयों पर हैं, जैसे ‘काव्य की रचना प्रक्रिया’, ‘सौन्दर्य प्रतीति और सामाजिक दृष्टि’, ‘नवीन समीक्षा का आधार’, ‘समीक्षा की समस्याएं’, ‘साहित्य और जिज्ञासा’ आदि. व्यावहारिक समीक्षा की दृष्टि से ‘शमशेर मेरी दृष्टि में’, ‘सुमित्रानंदन पंत : एक विश्लेषण’ आदि महत्वपूर्ण हैं. किन्तु उनकी व्यावहारिक समीक्षा की सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ है. नेमिचंद्र जैन के संपादन में उनकी ग्रंथावली ‘मुक्तिबोध रचनावली’ के नाम से छह खंडों में प्रकाशित हो चुकी है. 

मुक्तिबोध की आलोचना, लेखक और रचना के प्रति गहरी हार्दिकता के कारण विश्वसनीय आलोचना है. यह कृति और कृतिकार के माध्यम से अपनी सभ्यता की व्यापक समीक्षा में प्रवृत्त आलोचना है. मुक्तिबोध ने छायावादी कविता के प्रति सकारात्मक रुख अपनाया और उसकी प्रगतिशील भूमिका का समर्थन किया. मार्क्सवादी नजरिए से उनके द्वारा की गई कामायनी की समीक्षा बहुत महत्वपूर्ण है. कामायनी की समीक्षा करते हुए उन्होंने प्रतिपादित किया है कि जीवन यथार्थ से उत्पन्न समस्याओं का जो समाधान प्रसाद ने प्रस्तुत किया है वह वायवीय और अव्यावहारिक है. ‘कामायनी एक पुनर्विचार’ के आरंभ में ही उन्होंने अपना दृष्टिकोण व्यक्त करते हुए लिखा हैं, “आलोचक का यह धर्म है कि वह कामायनी में उपस्थित जीवन -समस्या की, उस आवयविक रूप से संलग्न परिवेश- परिस्थिति की तथा इन दोनो के संबंध में कवि-दृष्टि की तथा उस जीवन-समस्या के कवि-कृत निदान की, समीक्षा करे.” ( कामायनी : एक पुनर्विचार, मुक्तिबोध रचनावली-4, पृष्ठ-195 ) वे अपनी मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि का परिचय देते हुए प्रसाद में वैज्ञानिक इतिहास-दृष्टि की अपेक्षा करते हैं. वे लिखते हैं, ”प्रसाद के पास ऐतिहासिक बुद्धि थी पर कोई वैज्ञानिक इतिहास-दृष्टि न थी. वैदिक कथानक उनके लिए एक विशाल फैन्टेसी का काम करता है.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ-203)  वे लिखते हैं, “ अधिक से अधिक प्रसाद जी के संबंध में यह कहा जा सकता है कि उनका दर्शन एक उदार पूंजीवादी व्यक्तिवादी दर्शन है, जो यदि एक मुंह से वर्ग-विषमता की निन्दा करते हैं तो दूसरे मुंह से वर्गातीत, समाजातीत, व्यक्तिमूलक चेतना के आधार पर समाज के वास्तविक द्वंन्द्वों का वायवीय तथा काल्पनिक प्रत्याहार करते हुए अभेदानुभूति के आनंद का ही संदेश देते है. निश्चय ही समाजातीत, वर्गातीत, व्यक्तिमूलक, आनंदवादी अद्वैतवाद अपने अन्तिम निष्कर्षों में उसी विषमतापूर्ण समाज की स्थिति में कुछ सतही ऊपरी परिवर्तन करके संतुष्ट है.” ( कामायनी : एक पुनर्विचार, मुक्तिबोध रचनावली -4, पृष्ठ- 236)

मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि के संघर्ष का बड़ा हिस्सा नयी कविता के व्यक्तिवादी –कलावादी अंतर्मुखी साहित्य-सिद्धांतों से मुठभेड़ को लेकर है. वे जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि के सिद्धांतों पर प्रहार करते हैं. ‘काव्य : एक सांस्कृतिक प्रक्रिया’ नामक निबंध में मुक्तिबोध स्थापित करते हैं कि काव्य में सांस्कृतिक परंपरा का समाहार होता है और उसके मूल्य वैयक्तिक न होकर सामाजिक होते हैं. वे इसी अर्थ में प्रयोगवाद तथा नयी कविता को भी सांस्कृतिक परंपरा का अंग मानते हैं. मुक्तिबोध के अनुसार मन के भीतर अंतर्तत्व को कला वस्तु बनने के लिए मन की आँखों के सामने क्रमश: तरंगायित, उद्घाटित, आलोकित और अभिव्यक्ति के लिए आतुर होना आवश्यक है. इसी क्रम में मुक्तिबोध कला के तीन क्षणों की व्याख्या प्रस्तुत करके कला की रचना –प्रक्रिया को स्पष्ट करते हैं. वे कहते हैं, “ तरंगायित होने का संबंध आवेग से है. उद्घाटित होने की अवस्था का संबंध बोध- पक्ष से है. –ऐसे बोध- पक्ष से जो ज्ञानात्मक आधार पर स्थित होकर व्यक्ति-बद्धता की स्थिति से अनुभवकर्ता को ऊंचा कर देता है. वस्तुत: यहीं से रूप -पक्ष भी आरंभ हो जाता है.  मनस्तत्व यहाँ रूप लेकर प्रस्तुत होता है. “ ( मुक्तिबोध रचनावली -5, पृष्ठ- 101). 

कला का द्वितीय क्षण तबसे आरंभ होता है जब वह मनस्तत्व अन्य अनुभवों से जुड़कर अधिक संश्लेषित और कल्पनालोकित हो जाता है. इस स्थिति में उसमें व्यापक अर्थ आ जाता है,  वह अधिक सामान्य हो जाता है. व्यक्ति-बद्धता की स्थिति समाप्त हो जाती है और अनुभव कर्ता इस सामान्यीकृत मनस्तत्व को शब्द-स्वर- रंग में अभिव्यक्त करने के लिए आतुर हो जाता है. यहां से कला का तीसरा क्षण आरंभ होता है. इस तीसरे क्षण में जब मनस्तत्व बाह्योन्मुख होकर अपने अनुकूल रूप लेकर मूर्त होता है तब प्रथम और द्वितीय क्षणों से प्राप्त रूप पक्ष बहुत कुछ बदल जाते हैं.  परिणामत: पूर्ण की हुई कविता, पूर्ण की हुई कलाकृति, अपनी पूर्वगत तत्वानुभूति की वास्तविकता से बहुत कुछ भिन्न हो जाती है. “(उपर्युक्त, पृष्ठ 102) 

अपनी इस पूरी स्थापना को निष्कर्ष के रूप में प्रस्तुत करते हुए मुक्तिबोध कहतें हैं, “ जिस प्रकार हम जीवन में बाह्य- जीवन- जगत को अपने आभ्यंतर में संशोधित संपादित कर आत्मसात करते जाते हैं, उसी तरह हम शब्दों द्वारा आत्मसातकृत को बाह्यगत करते जाते हैं, चाहे ये शब्द साधारण बात- चीत में प्रकट हों, भाषणों में, लेखों मे प्रकट हों अथवा छंद- लय में उद्घाटित हों.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ 102) मुक्तिबोध मानते हैं कि छायावादियों और प्रगतिवादियों की तरह नयी कविता के पास कोई दार्शनिक विचारधारा नहीं है. नयी कविता को बौद्धिकता की कविता कहते हुए वे उसकी सीमा तय कर देते हैं.

रचना के प्रति अपनी समाजशास्त्रीय दृष्टि का परिचय देते हुए वे लिखते हैं, “हम जिस समाज, संस्कृति, परंपरा, युग और ऐतिहासिक आवर्त में रहते हैं उन सबका प्रभाव हमारे हृदय का संस्कार करता है. हमारी आत्मा में जो कुछ है वह समाज प्रदत्त है- चाहे वह निष्कलुष अनिंद्य सौन्दर्य का आदर्श ही क्यों न हो. हमारा सामाजिक व्यक्तित्व हमारी आत्मा है. आत्मा का सारा सार तत्व प्राकृत रूप से सामाजिक है. व्यक्ति और समाज का विरोध बौद्धिक विक्षेप है, इस विरोध का कोई अस्तित्व नहीं.” ( नयी कविता का आत्मसंघर्ष, मुक्तिबोध रचनावली-5, पृष्ठ -188)

मुक्तिबोध वर्ग-संघर्ष, जन -क्रान्ति, सामाजिक –सांस्कृतिक पुनर्निर्माण तथा मानव की वृहत्तर संभावनाओं में निष्ठा रखने वाले समीक्षक हैं. साहित्य में वे व्यक्तिवादी मूल्यों के खण्डन के साथ ही सामाजिक तथा लोकमंगलवादी मूल्यों की प्रतिष्ठा के प्रति निरंतर सचेष्ट रहते हैं. कलाकार को सौन्दर्यपरक भावों की अभिव्यक्ति तक सीमित करने का प्रयास संसार भर के कलावादी आरंभ से ही करते आए हैं. यह सिद्धांत मुक्तिबोध की दृष्टि में मानव विरोधी तथा जन विरोधी है, इसलिए मुक्तिबोध जीवनानुभूति तथा सौन्दर्यानुभूति में पार्थक्य स्थापित करने वाले इस सिद्धांत को एक खतरनाक सिद्धांत और पूंजीवादी साजिश मानते हैं. 

‘ज्ञानात्मक संवेदना’ मुक्तिबोध द्वारा प्रयुक्त एक चर्चित पारिभाषिक शब्द है जिसका प्रयोग उन्होंने रचना प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए नई कविता के संदर्भ में किया है. मुक्तिबोध ज्ञान का संबंध वाह्य जगत से मानते हैं जबकि संवेदना का संबंध व्यक्ति के अंतर्जगत से है. इस प्रकार ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ का तात्पर्य हुआ, वह संवेदना जो ज्ञान से परिपूर्ण हो. ज्ञानात्मक संवेदना की स्थिति में रचनाकार स्व से ऊपर उठ जाता है. मुक्तिबोध के ही शब्दों में, “अपने से परे जाने, अपने से ऊपर उठने, दूसरों से अपने को मिलाने, विशिष्ट से सामान्य पर पहुंचने की यह जो ज्ञानात्मक संवेदना की दशा है, ज्ञानात्मक अनुभवों की दशा है, वह सबमें होती है.“(  उपर्युक्त, पृष्ठ 189)

इस तरह ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ और ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ को एकमेक करके ही लेखक जीवन विवेक विकसित करता है. मुक्तिबोध के अनुसार लेखक अपनी मूल्य भावना के अनुसार आभ्यंतर भावों को प्रस्तुत करता है और उसके अंत:करण में एक मूल्य भावना होती है जो उसे किन्हीं विशेष भावों को प्रकट करने के लिए तैयार करती रहती है. दूसरे शब्दों में लेखक अपना एक एस्थेटिक्स तैयार कर लेता है.  इस तरह मुक्तिबोध ने मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र को हिन्दी में नए ढंग से प्रस्तुत किया है.

मुक्तिबोध ने भक्ति आन्दोलन का भी नई दृष्टि से मूल्यांकन किया और स्थापित किया कि यह मूलत: निचली जातियों का सवर्ण जातियों के खिलाफ विद्रोह था. बाद में सवर्ण जातियों ने इस महान आन्दोलन पर नियंत्रण कर लिया.

अपने समीक्षा सिद्दांतों में मुक्तिबोध ने कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी को बहुत महत्व दिया है. उनका विश्वास है कि यदि लेखक ईमानदार है, तो उसे अपने प्रति और अपने युग के प्रति अधिक उत्तरदायी होना होगा. अधिक साहस और ज्यादा हिम्मत से काम लेना होगा. अपनी सौन्दर्याभिरुचि के सेन्सर्स के वशीभूत होना ठीक नहीं है. अनुभव वृद्धि के साथ- साथ सौन्दर्याभिरुचि का विस्तार और पुन: संस्कार होना आवश्यक है. मुक्तिबोध इसीलिए ‘आनेस्टी’ तथा ‘सिंसियरिटी’ दोनो को कलाकार की ईमानदारी में आवश्यक मानते हैं. उन्होंने रचना प्रक्रिया का विवेचन भाववादी चिन्तन- पद्धति से मुक्त होकर किया है. इसलिए वे रचना प्रक्रिया के मानसिक व्यापार तक ही सीमित न होकर उसके वस्तुपरक आकलन तक आते हैं और रचना को क्षण- विशेष की उपज न मानकर सुदीर्घ मन: प्रक्रिया का परिणाम मानते है. इस तरह मुक्तिबोध की आलोचना में रचनाकार की ईमानदारी को जितना महत्व दिया गया है उतना ही आलोचक के चरित्र को भी. 

फिलहाल, मार्क्सवादी समीक्षकों में मुक्तिबोध की पहचान किंचित विवादास्पद रही है. रामविलास शर्मा ने उनपर अस्तित्ववाद का प्रभाव भी अनुभव किया है और उनके महत्व के आकलन में कोताही बरती है. कुछ लोगों का मानना है कि भाववादी चिन्तन के संस्कार उनमें अन्त तक बने रहे. दरअसल मुक्तिबोध आत्मालोचन करते हैं, अपने से लड़ते हैं, आत्मसंघर्ष करते हैं. इसे ही कुछ लोगों ने उनके भीतर के अंतर्विरोध के रूप में रेखांकित किया है. वस्तुत: इसे एक सच्चे लेखक के आत्मसंघर्ष के रूप में रेखांकित किया जाना चाहिए. इस संबंध में एक तथ्य यह भी है कि उन्होंने प्रगतिवादी समीक्षा की कमजोरियों को भी बड़ी बेबाकी से ‘समीक्षा की समस्याएं’ शीर्षक अपने निबंध में रेखांकित किया है. आम मार्क्सवादी समीक्षकों को इसे सहज स्वीकार कर पाना आसान नहीं है. 

 मुक्तिबोध को सभ्यता समीक्षक के रूप में रेखांकित करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है, “मुक्तबोध सभ्यता समीक्षा के लिए सत्-चित्-आनंद के बदले सत्-चित्-वेदना का बोध जरूरी समझते हैं, जिससे पैदा होती है सत्ताओं द्वारा सताए हुए लोगों के प्रति गहरी संवेदनशीलता, जो मुक्तिधर्मी आलोचना की शक्ति का स्रोत है और उसकी सामाजिकता की एक जरूरी शर्त भी.  सभ्यता समीक्षा रचना और आलोचना के बीच समानधर्मिता स्वीकार करती है. वह आलोचना से रचना के साथ चलने की मांग करती है, उसके पीछे- पीछे नहीं.  इसलिए वह आलोचना को रचना की सीमाओं से सावधान और मुक्त करने की स्वतंत्रता भी देती है.” ( उद्धृत, दस्तावेज, -152 / जुलाई-सितंबर 2016, पृष्ठ- 8) 

वर्ष 2017 मुक्तिबोध का जन्म -शताब्दी वर्ष था. इस वर्ष मुक्तिबोध पर भरपूर विवेचन -विश्लेषण हुआ. उनपर हिन्दी की अधिकाँश महत्वपूर्ण पत्रिकाओं ने विशेषांक प्रकाशित किए. देश के विभिन्न हिस्सों मे उनपर गोष्ठियाँ हुईं. इन सबसे मुक्तिबोध के महत्व की व्यापक स्वीकृति का पता चलता है.

हम जन्मदिन के अवसर पर मुक्तिबोध के असाधारण साहित्यिक अवदान का स्मरण करते हैं और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.

©प्रो. अमरनाथ


  डॉ. अमरनाथ : संक्षिप्त जीवन वृत्त

सुधी आलोचक और प्रतिष्ठित भाषाविद् के रूप में ख्यात डॉ. अमरनाथ का जन्म गोरखपुर जनपद ( संप्रति महाराजगंज ) के रामपुर बुजुर्ग नामक गाँव में सन् 1954 में हुआ। उनकी आरंभिक शिक्षा गांव के आस पास के विद्यालयों में और उच्च शिक्षा गोरखपुर विश्वविद्यालय में हुई जहाँ से उन्होंने एम.ए. और पी-एच.डी की उपाधियाँ प्राप्त कीं। कविता से अपनी रचना - यात्रा शुरू करने वाले डॉ. अमरनाथ सामाजिक - आर्थिक विषमता से जुड़े सवालों से लगातार जूझते रहे हैं। उनका विश्वास है कि लेखन में शक्ति सामाजिक संघर्षों से आती है। इसी विश्वास ने उन्हें नारी का मुक्ति संघर्ष जैसे साहित्येतर विषय पर पुस्तक लिखने को बाध्य किया।हिन्दी जाति, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और परवर्ती आलोचनाआचार्य रामचंद्र शुक्ल का काव्य चिंतनसमकालीन शोध के आयाम (सं.),हिन्दी का भूमंडलीकरण (सं.), हिन्दी भाषा का समाजशास्त्र (सं.), सदी के अन्त में हिन्दी (सं.), बाँसगाँव की विभूतियाँ (सं.) आदि उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकें हैं।

 हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली जैसा वृहद् ग्रंथ उनके अध्यवसाय और शोध दृष्टि का उत्कृष्ट उदाहरण है।

           हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के बीच सेतु निर्मित करने एवं भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के उद्देश्य से अपनी भाषा नामक संस्था के गठन और संचालन में केन्द्रीय भूमिका निभाने वाले डॉ. अमरनाथ, संस्था की पत्रिका भाषा विमर्श का सन् 2000 से संपादन कर रहे हैं। हिन्दी परिवार को टूटने से बचाने और उसकी बोलियों को हिन्दी के साथ संगठित रखने के उद्देश्य से गठित संगठन हिन्दी बचाओ मंच के संयोजक के रूप में डॉ. अमरनाथ निरंतर संघर्षरत हैं। वे सीएसएफडी चैरिटेबुल ट्रस्ट के मुख्य ट्रस्टी तथा उसकी पत्रिका गाँव के भी संपादक हैं.

 कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर तथा अध्यक्ष पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद वे स्वतंत्र लेखन तथा सामाजिक कार्यों में संलग्न हैं। आजकल वे हिन्दी के आलोचकहिन्दी के योद्धा तथा आजाद भारत के असली सितारे शीर्षकों से नियमित स्तंभ लिख रहे हैं।

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               {मुक्तिबोध अपने पत्नी के साथ}

मुक्तिबोध की कलम से 
(13 नवम्बर 1917 - 11 सितम्बर 1964)

१.
अंधेरे में कविता का  ये अंश आप भी पढ़िए

अकस्मात् 
चार का ग़जर कहीं खड़का 
मेरा दिल धड़का, 
उदास मटमैला मनरूपी वल्मीक 
चल-विचल हुआ सहसा। 
अनगिनत काली-काली हायफ़न-डैशों की लीकें 
बाहर निकल पड़ीं, अन्दर घुस पड़ीं भयभीत, 
सब ओर बिखराव। 
मैं अपने कमरे में यहाँ लेटा हुआ हूँ। 
काले-काले शहतीर छत के 
हृदय दबोचते। 
यद्यपि आँगन में नल जो मारता, 
जल खखारता। 
किन्तु न शरीर में बल है 
अँधेरे में गल रहा दिल यह। 

एकाएक मुझे भान होता है जग का, 
अख़बारी दुनिया का फैलाव, 
फँसाव, घिराव, तनाव है सब ओर, 
पत्ते न खड़के, 
सेना ने घेर ली हैं सड़कें। 
बुद्धि की मेरी रग 
गिनती है समय की धक्-धक्। 
यह सब क्या है 
किसी जन-क्रान्ति के दमन-निमित्त यह 
मॉर्शल-लॉ है! 
दम छोड़ रहे हैं भाग गलियों में मरे पैर, 
साँस लगी हुई है, 
ज़माने की जीभ निकल पड़ी है, 
कोई मेरा पीछा कर रहा है लगातार 
भागता मैं दम छोड़, 
घूम गया कई मोड़, 
चौराहा दूर से ही दीखता, 
वहाँ शायद कोई सैनिक पहरेदार 
नहीं होगा फ़िलहाल 
दिखता है सामने ही अन्धकार-स्तूप-सा 
भयंकर बरगद-- 
सभी उपेक्षितों, समस्त वंचितों, 
ग़रीबों का वही घर,वही छत, 
उसके ही तल-खोह-अँधेरे में सो रहे 
गृह-हीन कई प्राण। 
अँधेरे में डूब गये 
डालों में लटके जो मटमैले चिथड़े 
किसी एक अति दीन 
पागल के धन वे। 
हाँ, वहाँ रहता है, सिर-फिरा एक जन। 

किन्तु आज इस रात बात अजीब है। 
वही जो सिर फिरा पागल क़तई था 
आज एकाएक वह 
जागृत बुद्धि है, प्रज्वलत् धी है। 
छोड़ सिरफिरापन, 
बहुत ऊँचे गले से, 
गा रहा कोई पद, कोई गान 
आत्मोद्बोधमय!! 
खूब भई,खूब भई, 
जानता क्या वह भी कि 
सैनिक प्रशासन है नगर में वाक़ई! 
क्या उसकी बुद्धि भी जग गयी! 

(करुण रसाल वे हृदय के स्वर हैं 
गद्यानुवाद यहाँ उनका दिया जा रहा है) 

"ओ मेरे आदर्शवादी मन, 
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन, 
अब तक क्या किया? 
जीवन क्या जिया!! 

उदरम्भरि बन अनात्म बन गये, 
भूतों की शादी में क़नात-से तन गये, 
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर, 

दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना, 
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना, 
असंग बुद्धि व अकेले में सहना, 
ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर, 
अब तक क्या किया, 
जीवन क्या जिया!! 
बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गये, 
करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये, 
बन गये पत्थर, 
बहुत-बहुत ज़्यादा लिया, 
दिया बहुत-बहुत कम, 
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम!! 
लो-हित-पिता को घर से निकाल दिया, 
जन-मन-करुणा-सी माँ को हंकाल दिया, 
स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया, 
भावना के कर्तव्य--त्याग दिये, 
हृदय के मन्तव्य--मार डाले! 
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया, 
तर्कों के हाथ उखाड़ दिये, 
जम गये, जाम हुए, फँस गये, 
अपने ही कीचड़ में धँस गये!! 
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में 
आदर्श खा गये! 

अब तक क्या किया, 
जीवन क्या जिया, 
ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम 
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम..." 

मेरा सिर गरम है, 
इसीलिए गरम है। 
सपनों में चलता है आलोचन, 
विचारों के चित्रों की अवलि में चिन्तन। 
निजत्व-माफ़ है बेचैन, 
क्या करूँ, किससे कहूँ, 
कहाँ जाऊँ, दिल्ली या उज्जैन? 
वैदिक ऋषि शुनःशेप के 
शापभ्रष्ट पिता अजीर्गत समान ही 
व्यक्तित्व अपना ही, अपने से खोया हुआ 
वही उसे अकस्मात् मिलता था रात में, 
पागल था दिन में 
सिर-फिरा विक्षिप्त मस्तिष्क। 

हाय, हाय! 
उसने भी यह क्या गा दिया, 
यह उसने क्या नया ला दिया, 
प्रत्यक्ष, 
मैं खड़ा हो गया 
किसी छाया मूर्ति-सा समक्ष स्वयं के 
होने लगी बहस और 
लगने लगे परस्पर तमाचे। 
छिः पागलपन है, 
वृथा आलोचन है। 
गलियों में अन्धकार भयावह-- 
मानो मेरे कारण ही लग गया 
मॉर्शल-लॉ वह, 
मानो मेरी निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया, 
मानो मेरे कारण ही दुर्घट 
हुई यह घटना। 
चक्र से चक्र लगा हुआ है.... 
जितना ही तीव्र है द्वन्द्व क्रियाओं घटनाओं का 
बाहरी दुनिया में, 
उतनी ही तेजी से भीतरी दुनिया में, 
चलता है द्वन्द्व कि 
फ़िक्र से फ़िक्र लगी हुई है। 
आज उस पागल ने मेरी चैन भुला दी, 
मेरी नींद गवाँ दी। 

मैं इस बरगद के पास खड़ा हूँ। 
मेरा यह चेहरा 
घुलता है जाने किस अथाह गम्भीर, साँवले जल से, 
झुके हुए गुमसुम टूटे हुए घरों के 
तिमिर अतल से 
घुलता है मन यह। 
रात्रि के श्यामल ओस से क्षालित 
कोई गुरू-गम्भीर महान् अस्तित्व 
महकता है लगातार 
मानो खँडहर-प्रसारों में उद्यान 
गुलाब-चमेली के, रात्रि-तिमिर में, 
महकते हों, महकते ही रहते हों हर पल। 
किन्तु वे उद्यान कहाँ हैं, 
अँधेरे में पता नहीं चलता। 
मात्र सुगन्ध है सब ओर, 
पर, उस महक--लहर में 
कोई छिपी वेदना, कोई गुप्त चिन्ता 
छटपटा रही है।

२.
भूल-ग़लती
गजानन माधव मुक्तिबोध

आज बैठी है ज़िरहबख्तर पहनकर
तख्त पर दिल के,
चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक,
आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी,
खड़ी हैं सिर झुकाए
सब कतारें
बेजुबाँ बेबस सलाम में,
अनगिनत खम्भों व मेहराबों-थमे
दरबारे आम में।

सामने
बेचैन घावों की अज़ब तिरछी लकीरों से कटा
चेहरा
कि जिस पर काँप
दिल की भाप उठती है...
पहने हथकड़ी वह एक ऊँचा कद
समूचे जिस्म पर लत्तर
झलकते लाल लम्बे दाग
बहते खून के
वह क़ैद कर लाया गया ईमान...
सुलतानी निगाहों में निगाहें डालता,
बेख़ौफ नीली बिजलियों को फैंकता
खामोश !!
सब खामोश
मनसबदार
शाइर और सूफ़ी,
अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी
आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार
हैं खामोश !!

नामंजूर
उसको जिन्दगी की शर्म की सी शर्त
नामंजूर हठ इनकार का सिर तान..खुद-मुख्तार
कोई सोचता उस वक्त-
छाये जा रहे हैं सल्तनत पर घने साये स्याह,
सुलतानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का,
वो-रेत का-सा ढेर-शाहंशाह,
शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा !!
(लेकिन, ना
जमाना साँप का काटा)
भूल (आलमगीर)
मेरी आपकी कमजोरियों के स्याह
लोहे का जिरहबख्तर पहन, खूँखार
हाँ खूँखार आलीजाह,
वो आँखें सचाई की निकाले डालता,
सब बस्तियाँ दिल की उजाड़े डालता
करता हमे वह घेर
बेबुनियाद, बेसिर-पैर..
हम सब क़ैद हैं उसके चमकते तामझाम में
शाही मुकाम में !!

इतने में हमीं में से
अजीब कराह सा कोई निकल भागा
भरे दरबारे-आम में मैं भी
सँभल जागा
कतारों में खड़े खुदगर्ज-बा-हथियार
बख्तरबंद समझौते
सहमकर, रह गए,
दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिए,
दुमुँहेपन के सौ तज़ुर्बों की बुज़ुर्गी से भरे,
दढ़ियल सिपहसालार संजीदा
सहमकर रह गये !!

लेकिन, उधर उस ओर,
कोई, बुर्ज़ के उस तरफ़ जा पहुँचा,
अँधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि यह बेनाम
बेमालूम दर्रों के इलाक़े में
(सचाई के सुनहले तेज़ अक्सों के धुँधलके में)
मुहैया कर रहा लश्कर;
हमारी हार का बदला चुकाने आयगा
संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,
हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट होकर विकट हो जायगा !!

३.
कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं
 गजानन माधव मुक्तिबोध

#कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं –
'सफल जीवन बिताने में हुए असमर्थ तुम!
तरक़्क़ी के गोल-गोल
घुमावदार चक्करदार
ऊपर बढ़ते हुए ज़ीने पर चढ़ने की
चढ़ते ही जाने की
उन्नति के बारे में
तुम्हारी ही ज़हरीली
उपेक्षा के कारण, निरर्थक तुम, व्यर्थ तुम!!'

कटी-कमर भीतों के पास खड़े ढेरों और
ढूहों में खड़े हुए खंभों के खँडहर में
बियाबान फैली है पूनों की चाँदनी,
आँगनों के पुराने-धुराने एक पेड़ पर।
अजीब-सी होती है, चारों ओर
वीरान-वीरान महक सुनसानों की
पूनों की चाँदनी की धूलि की धुंध में।
वैसे ही लगता है, महसूस यह होता है
'उन्नति' के क्षेत्रों में, 'प्रतिष्ठा' के क्षेत्रों में
मानव की छाती की, आत्मा की, प्राणी की
सोंधी गंध
कहीं नहीं, कहीं नहीं
पूनों की चांदनी यह सही नहीं, सही नहीं;
केवल मनुष्यहीन वीरान क्षेत्रों में
निर्जन प्रसारों पर
सिर्फ़ एक आँख से
'सफलता' की आँख से
दुनिया को निहारती फैली है
पूनों की चांदनी।
सूखे हुए कुओं पर झुके हुए झाड़ों में
बैठे हुए घुग्घुओं व चमगादड़ों के हित
जंगल के सियारों और
घनी-घनी छायाओं में छिपे हुए
भूतों और प्रेतों तथा
पिचाशों और बेतालों के लिए –
मनुष्य के लिए नहीं – फैली यह
सफलता की, भद्रता की,
कीर्ति यश रेशम की पूनों की चांदनी।

#मुझको डर लगता है,
मैं भी तो सफलता के चंद्र की छाया मे
घुग्घू या सियार या
भूत नहीं कहीं बन जाऊँ।
उनको डर लगता है
आशंका होती है
कि हम भी जब हुए भूत
घुग्घू या सियार बने
तो अभी तक यही व्यक्ति
ज़िंदा क्यों?
उसकी वह विक्षोभी सम्पीड़ित आत्मा फिर
जीवित क्यों रहती है?
मरकर जब भूत बने
उसकी वह आत्मा पिशाच जब बन जाए
तो नाचेंगे साथ-साथ सूखे हुए पथरीले झरनों के तीरों पर
सफलता के चंद्र की छाया में अधीर हो।
इसीलिए,
इसीलिए,
उनका और मेरा यह विरोध
चिरंतन है, नित्य है, सनातन है।
उनकी उस तथाकथित
जीवन-सफलता के
खपरैलों-छेदों से
खिड़की की दरारों से
आती जब किरणें हैं
तो सज्जन वे, वे लोग
अचंभित होकर, उन दरारों को, छेदों को
बंद कर देते हैं;
इसीलिए कि वे किरणें
उनके लेखे ही आज
कम्यूनिज़्म है...गुंडागर्दी है...विरोध है,
जिसमें छिपी है कहीं
मेरी बदमाशी भी।

#मैं पुकारकर कहता हूँ –
'सुनो, सुननेवालों।
पशुओं के राज्य में जो बियाबान जंगल है
उसमें खड़ा है घोर स्वार्थ का प्रभीमकाय
बरगद एक विकराल।
उसके विद्रूप शत
शाखा-व्यूहों निहित
पत्तों के घनीभूत जाले हैं, जाले हैं।
तले में अंधेरा है, अंधेरा है घनघोर...
वृक्ष के तने से चिपट
बैठा है, खड़ा है कोई
पिशाच एक ज़बर्दस्त मरी हुई आत्मा का,
वह तो रखवाला है
घुग्घू के, सियारों के, कुत्तों के स्वार्थों का।
और उस जंगल में, बरगद के महाभीम
भयानक शरीर पर खिली हुई फैली है पूनों की चांदनी
सफलता की, भद्रता की,
श्रेय-प्रेय-सत्यं-शिवं-संस्कृति की
खिलखिलाती चांदनी।
अगर कहीं सचमुच तुम
पहुँच ही वहाँ गए
तो घुग्घू बन जाओगे।
आदमी कभी भी फिर
कहीं भी न मिलेगा तुम्हें।
पशुओं के राज्य में
जो पूनों की चांदनी है
नहीं वह तुम्हारे लिए
नहीं वह हमारे लिए।

तुम्हारे पास, हमारे पास,
सिर्फ़ एक चीज़ है –
ईमान का डंडा है,
बुद्धि का बल्लम है,
अभय की गेती है
हृदय की तगारी है – तसला है
नए-नए बनाने के लिए भवन
आत्मा के,
मनुष्य के,
हृदय की तगारी में ढोते हैं हमीं लोग
जीवन की गीली और
महकती हुई मिट्टी को।
जीवन-मैदानों में
लक्ष्य के शिखरों पर
नए किले बनाने में
व्यस्त हैं हमीं लोग
हमारा समाज यह जुटा ही रहता है।
पहाड़ी चट्टानों को
चढ़ान पर चढ़ाते हुए
हज़ारों भुजाओं से
ढकेलते हुए कि जब
पूरा शारीरिक ज़ोर
फुफ्फुस की पूरी साँस
छाती का पूरा दम
लगाने के लक्षण-रूप
चेहरे हमारे जब
बिगड़ से जाते हैं –
सूरज देख लेता है
दिशाओं के कानों में कहता है –
दुर्गों के शिखर से
हमारे कंधे पर चढ़
खड़े होने वाले ये
दूरबीन लगा कर नहीं देखेंगे –
कि मंगल में क्या-क्या है!!
चंद्रलोक-छाया को मापकर
वहाँ के पहाड़ों की उँचाई नहीं नापेंगे,
वरन् स्वयं ही वे
विचरण करेंगे इन नए-नए लोकों में,
देश-काल-प्रकृति-सृष्टि-जेता ये।
इसलिए अगर ये लोग
सड़क-छाप जीवन की धूल-धूप
मामूली रूप-रंग
लिए हुए होने से
तथाकथित 'सफलता' के
खच्चरों व टट्टुओं के द्वारा यदि
निरर्थक व महत्वहीन
क़रार दिए जाते हों
तो कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं।

#सामाजिक महत्व की
गिलौरियाँ खाते हुए,
असत्य की कुर्सी पर
आराम से बैठे हुए,
मनुष्य की त्वचाओं का पहने हुए ओवरकोट,
बंदरों व रीछों के सामने
नई-नई अदाओं से नाच कर
झुठाई की तालियाँ देने से, लेने से,
सफलता के ताले ये खुलते हैं,
बशर्ते कि इच्छा हो
सफलता की,
महत्वाकांक्षा हो
अपने भी बरामदे
में थोड़ा सा फर्नीचर,
विलायती चमकदार
रखने की इच्छा हो
तो थोड़ी सी सचाई में
बहुत-सी झुठाई घोल
सांस्कृतिक अदा से, अंदाज़ से
अगर बात कर सको –

भले ही दिमाग़ में
ख़्यालों के मरे हुए चूहे ही
क्यों न हों प्लेग के,
लेकिन, अगर कर सको
ऐसी जमी हुई ज़बान-दराजी और
सचाई का अंग-भंग
करते हुए झूठ का
बारीक सूत कात सको
तो गतिरोध और कंठरोध
मार्गरोध कभी भी न होगा फिर
कटवा चुके हैं हम पूंछ-सिर
तो तुम ही यों
हमसे दूर बाहर क्यों जाते हो?
जवाब यह मेरा है,
जाकर उन्हें कह दो कि सफलता के जंग-खाए
तालों और कुंजियों
की दुकान है कबाड़ी की।
इतनी कहाँ फुरसत हमें –
वक़्त नहीं मिलता है
कि दुकान पर जा सकें।
अहंकार समझो या सुपीरियारिटी कांपलेक्स
अथवा कुछ ऐसा ही
चाहो तो मान लो,
लेकिन सच है यह
जीवन की तथाकथित
सफलता को पाने की
हमको फुरसत नहीं,
खाली नहीं हैं हम लोग!!
बहुत बिज़ी हैं हम।
जाकर उन्हें कह दे कोई
पहुँचा दे यह जवाब;
और अगर फिर भी वे
करते हों हुज्जत तो कह दो कि हमारी साँस
जिसमें है आजकल
के रब्त-ज़ब्त तौर-तरीकों की तरफ़
ज़हरीली कड़ुवाहट,
ज़रा सी तुम पी लो तो
दवा का एक डोज़ समझ,
तुम्हारे दिमाग़ के
रोगाणु मर जाएंगे
व शरीर में, मस्तिष्क में,
ज़बर्दस्त संवेदन-उत्तेजन
इतना कुछ हो लेगा
कि अकुलाते हुए ही, तुम
अंधेरे के ख़ीमे को त्यागकर
उजाले के सुनहले मैदानों में
भागते आओगे;
जाकर उन्हें कह दे कोई,
पहुँचा दे यह जवाब!!

४.

अगर मेरी कविताएं पसन्‍द नहीं
उन्‍हें जला दो, 
अगर उसका लोहा पसन्‍द नहीं
उसे गला दो, 
अगर उसकी आग बुरी लगती है 
दबा डालो, 
इस तरह बला टालो 
लेकिन याद रखो
यह लोहा खेतों में तीखे तलवारों का जंगल बन सकेगा 
मेरे नाम से नहीं, किसी और के नाम से सही, 
और यह आग बार-बार चूल्‍हे में सपनों-सी जागेगी 
सिगड़ी में ख़यालों सी भड़केगी, दिल में दमकेगी 
मेरे नाम से नहीं किसी और नाम से सही। 
लेकिन मैं वहां रहूँगा, 
तुम्‍हारे सपनों में आऊँगा, 
सताऊँगा
खिलखिलाऊँगा
खड़ा रहूँगा
तुम्‍हारी छाती पर अड़ा रहूँगा

                 प्रस्तुति :  युवा कवि गोलेन्द्र पटेल , बीएचयू


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