युवा आलोचक नीरज कुमार मिश्र१
"लोक में प्रेम के बीज रोपता कवि "
नीरज कुमार मिश्र
१९९० के आसपास का समय भारतीय राजनीति,सांस्कृतिक और सामाजिक परिवर्तन का दौर था।अपने समय में हो रहे इन बदलाओं की झलक उस समय के साहित्य में देखी जा सकती है।उस समय का साहित्य इन परिवर्तनों के बीच नयी साहित्यिक चेतनाओं और चेष्ठाओं का विकास करता दिखता है।इस साहित्यिक विकास की परख कविता से अच्छा कौन कर सकता है।इसीलिए इन साहित्यिक परिवर्तनों को एक कवि मन बहुत सूक्ष्मता से परखता है।कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव ऐसे ही सजग कवि हैं।
जिन्होंने इन परिवर्तनों को बहुत शिद्दत से महसूस किया है।जिसके बाद उनका संबंध समाज से जुड़ता दिखता है।इस जुड़ाव के बाद कवि की अपनी कोई सत्ता नहीं रह जाती।जिसकी ओर शुक्ल जी ने इशारा किया है," कविता ही हृदय को प्रकृत दशा में लाती है और जगत के बीच उसका आधिकारिक प्रसार करती हुई उसे मनुष्यत्व की उच्च भूमि पर ले जाती है।भावयोग की सबसे उच्च कक्षा पर पहुँचे हुए मनुष्य का जगत के साथ पूर्ण तादात्म्य हो जाता है,उसकी अलग भावसत्ता नहीं रह जाती,उसका हृदय विश्व-हृदय हो जाता है।" कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव का अभी हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह "उजास" इस कवि के विश्व-हृदय में रूपायित होने की गाथा है।ये संग्रह "उजास" उनके तीन पहले के संग्रहों- 'अनभै कथा'(२००३),'असुंदर सुंदर'(२००८) और 'इन दिनों हालचाल' (2000,2011) का संकलित रूप है।
उजास वह शक्ति है जिसके माध्यम से हम समाज की प्रत्येक वस्तु को बहुत सूक्ष्मता से देखते परखते हैं।इस कविता संग्रह का नाम कवि ने उचित ही रखा है।क्योंकि जहाँ खुशी है वहाँ उजास है।'बेटियाँ' कविता में कवि इस बात को पुष्ट करता है-
"जितनी हँसी होती है बेटियों के अधर पर
उतनी उजास होती है पिता के जीवन में "
कवि खुद पिता है।हम जानते हैं कि पिता जिम्मेदारी का दूसरा नाम है।इसी अनुभूति का प्रतिफलन है कविता " पिता "
"पिता होना
जिम्मेदार आदमी हो जाना है"
जितेन्द्र श्रीवास्तव ऐसे कवियों में नहीं हैं,जो चली आ रही काव्य परंपरा की लीक पर चलते हों।वे ऐसे कवि हैं,जो समाज में घटित घटनाओं का संज्ञान लेते हुए,बदलते हुए समय के अनुसार अपनी कविताओं की भूमिका तय करते हैं।इस कवि ने समाज में परिघटित होती घटनाओं की सूक्ष्म पड़ताल करके अपनी कविताओं में ढाला है।यही वजह है कि उनकी कविताएं समाज के नए उद्देश्यों से जुड़ी हुई दिखती हैं।अच्छे रचनाकार वही होते हैं,जो देश काल की परिधि का विस्तार करते हैं।इनकी कविताएँ अनुभूति और विचार की उर्वर भूमि से उपजी हैं।ये कविता संग्रह कवि की कविता यात्रा के अनेक सोपानों को एक साथ लाता है।जिसके माध्यम से इस कवि के कविता की विकास यात्रा को ठीक से समझ सकते हैं।इनकी कविताएँ किसी कथावाचक की कथा नहीं हैं,बल्कि इनकी कविताएँ सामाजिक,सांस्कृतिक, राजनैतिक अनुभव के ताप से पगी हैं।
अनभै कथा का अर्थ ही है अनुभव की कथा।कवि समाज से मिले अनुभूत सत्य को कविताओं के माध्यम से पाठकों के सामने लाता है।ये कवि कागद की लेखी पर नहीं आँखिन देखी पर ज्यादा विश्वास करता है।इसीलिए ये कबीर के ज्यादा निकट दिखते हैं।इसी वज़ह से जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएँ सामाजिक और सांस्कृतिक ताने बाने से बुनी हैं।कवि अपने अनुभव को स्मृति के माध्यम से कविताओं में लाकर उसे अनुभूतिगत खरेपन में ढालता है।यही अनुभतिगत सत्य अच्छी कविता की कसौटी होती है।कोई कविता अच्छी है या बुरी ये इसी कसौटी से परखी जानी चाहिए।जैसा अज्ञेय कहते हैं कि " वह कविता अच्छी है या बुरी,इस से मुझे मतलब नहीं है।मेरे निकट वह सच है,क्योंकि वह अनुभूति प्रसूत है,यही मेरे निकट महत्त्व की बात है।मैं कहूँ कि कृतिकार या कवि जब सत्य से ऐसा भीतरी साक्षात करता है तब मानो वह एक बलि-पुरुष की तरह देवताओं का मनोनीत हो जाता है।और काव्य-कृति ही उस का आत्म-बलिदान है,जिस के द्वारा वह देवताओं से उऋण हो जाता है।यही देवता से उऋण होने की छटपटाहट वह विवशता है जो लिखाती है।" इस विवशता का ही प्रतिफलन है कि इस कवि की कविताएँ स्वाति की बूँद की तरह गहन विश्लेषण के बाद मोती बनकर पाठकों के सामने आती हैं।
आज जहाँ देखो बाज़ार और पितृसत्ता का गठजोड़ दिखाई देता है।दोनों की जुगलबंदी आज का भयावह सच है।ऐसे समय में स्त्री के मानवीय सौंदर्य की अनदेखी हो रही है।बाज़ार ने स्त्री को सिर्फ़ देह तक ही सीमित कर दिया गया हो-
"प्यार माने स्त्री
स्त्री माने देह
यही है दर्शन
यही है दृष्टि
बाज़ार की।"
उस समय बाज़ार की इस दृष्टि को जितेन्द्र श्रीवास्तव जैसा संवेदनशील कवि न केवल देखता,बल्कि अपनी कविता "स्त्रियाँ कहीं भी बचा लेती हैं पुरुषों को " के माध्यम से स्त्री सत्ता को प्रतिष्ठित भी करता है-
"इस प्रकार एक अपरिचित शहर में
असमय मृत्यु से बचाती रही
स्मृतियों में बसी एक स्त्री
स्त्रियाँ कहीं भी बचा लेती हैं पुरुषों को "
ये कवि समाज की सभी स्त्रियों को ऐसे गाँव में ले जाना चाहता है।जहाँ स्त्री पूरी तरह से मुक्त हो।जहाँ अब भी बचा हो उत्सव जीवन का।जहाँ
" गाती हैं स्त्रियाँ नाचती हैं स्त्रियाँ
सुख की बनी-बनायी परिभाषाओं को बदलते हुए
जहाँ जीवन को मिलता है नया अर्थ
चलो उस गाँव चलें "
कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताओं में स्त्री मुक्ति और उसकी स्वतंत्रता की कामना सर्वत्र देखी जा सकती है।यही वजह है कि इनके यहाँ स्त्रियां अपने जीवन के तमाम फ़ैसले स्वयं करना चाहती हैं। हम जिस स्त्री को आँखों में नींद और देह में थकान लिए पूरे घर की जिम्मेदारी का बोझ उठाते देखते हैं।वह सही मायने में तीस की उम्र में सैंतालिस की चिंताओं की घर होती है।समाज में स्त्रियाँ कई रूपों में अपनी जिम्मेदारी को एक साथ निभाती दिखती हैं।दिन-रात काम में खपती ये स्त्रियाँ अपने होने को लेकर कई बार बिलखती हुई विधाता को कोसती हैं-
" वे भाग्य की बात करती हुई
हँसती हैं विधाता पर
कभी कोसती हैं विधाता को
कहती हैं जो विधाता स्त्री होता
तो सोचो सखि, कैसा होता !"
जिस समय समाज में लगातार स्त्रियों पर अत्याचार और शोषण बढ़ रहा हो।पैदा होने से पहले ही बच्चियाँ पेट में मार दी जा रही हों।उस समय ये कवि अपने भीतर एक स्त्री की आत्मा को लाना चाहता है,जिससे उनके सुख को महसूस कर सके-
"कहाँ से लाऊँ
अपने भीतर एक स्त्री की आत्मा!
वह भी एक ऐसे समय में
जब बच्चियाँ मारी जा रही हैं कोख में ही।"
इस कवि की चाह है कि स्त्रियों पर किसी तरह का भी बंधन न हो।वे कहीं भी जा सकती हों,किसी से भी कहीं भी मिल सकती हों,खुलकर खिलखिला सकती हों।मनुष्य के भीतर का जो सच पुतलियों में अटका रहता है,उसे आँख में आँख डालकर देख सकती हों।कवि ये मानता है कि आजकल की स्त्रियाँ खूबसूरत पहाड़ नहीं होती,जिसकी कोई मर्जी ही न हो।समाज में सारे अनुभवों को संजोकर रखने वाली अनेक स्त्रियाँ रमिया जैसी भी हैं।जो पितृसत्तात्मक सत्ता को ही अपने अंदर बैठाये रखना चाहती हैं।वे अपने आत्मबल और अदम्य साहस को पहचान नहीं पातीं।यही वजह भी कि वे उत्तर आधुनिक युग में भी उससे मुक्त नहीं होना चाहतीं-
" रमिया पुरुष को महान मानती है
पुरुष के बिना जीवन बेकार मानती है
मर्द को औरत के मन का लगाम मानती है
अपना सब कुछ उसी का
उधार मानती है रमिया
रमिया और भी बहुत कुछ मानती है
लेकिन
अपने अंदर घुसे पुरुष को नहीं पहचानती।"
प्रचलित लोककथा को आधार बनाकर कवि अपनी कविता 'सोनचिरई' के माध्यम से समाज की उस बुराई पर चोट करता है,जो समाज में व्याप्त अंधविश्वास और अज्ञानता पर टिकी खोखली परंपरा अभी भी समाज में बनी हुई है।समाज की ये अज्ञानता ही है कि स्त्री के माँ न बनने पर पूरा दोष उसी का माना जाता है। इस लोककथा के माध्यम से आधुनिक स्त्री विमर्श के पक्ष में खड़ा कवि स्त्री की महत्ता को प्रतिष्ठापित करता है-
"वह स्त्री थी
और स्त्रियाँ कभी बाँझ नहीं होतीं
वे रचती हैं !
वे रचती हैं तभी हम-आप होते हैं
तभी दुनिया होती है
रचने का साहस पुरुष में नहीं होता
वे होती हैं तभी पुरुष
पुरुष होते हैं।"
इनकी कविताओं ' धारचूला की छात्राएं','सोनमछरी', 'सपने में लड़की','क़स्बे में प्रेमिका,'घास गढ़ती औरतें','तुम कहाँ हो सुलेखा','लड़कियाँ','आभा चतुर्वेदी''सोनचिरई','पुकार','जनवरी की एक सुबह उठी तीन स्त्रियाँ','दुख का पहाड़','जो विधाता स्त्री होता','किरायेदार की तरह','सपने में एक लड़की सोनमछरी',राय प्रवीन',आदि में स्त्री संघर्ष और उसकी मुक्ति के अनेक रूप आपको देखने को मिल जायेंगे।
कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताओं की स्त्री 'जायज बातों में खुश और नाजायज़ बातों पर साड़ी खूंटिया कर लड़ने को तैयार दिखती हैं।इसीलिए ये कवि स्त्री की मुक्ति की लड़ाई सुलेखा जैसी स्त्रियों के साथ लड़ना चाहता है।सुख के पक्ष और दुःख के ख़िलाफ़ निर्णायक लड़ाई में कवि कविता को हथियार बनाता है।क्योंकि
"कविता बताती है
जब डूबा जाता है पूरा का पूरा
तब इतिहास बनता है
और इतिहास को कनखियों से नहीं देखा जाता।"
इस संग्रह की स्त्रियाँ अपने अंदर सुलगती हुई राख रखती हैं,जिसकी आग को समय और परिस्थितियों के अनुसार उपयोग कर सकें -
"घास गढ़ती औरतें
सोने से पहले सुबह के लिए
बोरसी की राख में छिपा कर
रख देती हैं थोड़ी सी आग।"
किसी भी कवि की कविता का मज़बूत धरातल होता है लोक।लोक ऐसा तत्त्व है जिससे कविता कालजयी बनती है।विद्यापति,कबीर,सूर,तुलसी से लेकर त्रिलोचन,नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल आदि कवियों की कविताएँ शास्त्रों के पांडित्य प्रदर्शन की वजह से नहीं,बल्कि लोक चित्रण की वजह से कालजयी हैं।इसके लिए सबसे जरूरी है लोक को जानना,उसको जीना,उसको महसूस करके उनमें रचना-बसना।
कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव ने लोक को जिया भी है और उसे भोगा भी है।यही वजह है कि इस कवि ने लोक को अपनी कविता में विस्तार दिया है।इनकी कविताओं में लोक केवल ग्रामीण जनमानस और उसकी संस्कृति तक सीमित नहीं है,बल्कि उसमें शहरी जनमानस भी शामिल है।जिनमें कहीं न कहीं लोक मौजूद है।हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लोक शब्द को विस्तार देते हुए उसे जनमानस से जोड़ा है-"लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं है बल्कि नगरों और गाँवों में फैली हुई वह समूची जनता है,जिसके व्यवहारिक ज्ञान का आधार पोथियाँ नहीं है।ये लोग नगर में परिष्कृत जीवन के अभ्यस्त होते हैं और परिष्कृत रुचि वाले लोगों की समूची विलासिता और सुकुमारता की जीवित रखने के लिए जो भी वस्तुएँ आवश्यक होती हैं उन्हें उत्पन्न करते हैं।" जितेन्द्र श्रीवास्तव भी आचार्य द्विवेदी की तरह लोक विस्तार के हिमायती हैं।इसीलिए इस कवि की कविताओं में श्रम की आँच में तपे अनेक चेहरों से बना लोक का चेहरा आप स्पष्ट देख सकते हैं-
" यदि कोई देखना चाहे
हमारे लोक का चेहरा
वह देख सकता है
श्रम की आँच में तपे इनके चेहरे
इनके चेहरों पर
हमारी साँवली आभा के साथ
दिपदिपाता है हमारा लोक।"
लोक के ये चेहरे ही हमारी मिट्टी की पहचान हैं।ये ही हमारे विश्वास के सच्चे पहरुवे हैं।इनकी कविताओं में लोक-जीवन के विविध रूप सतरंगी आभा के साथ प्रतिबिंबित होते दिखते हैं।
इसकवि को लोक-जीवन से इतना लगाव है कि उसने धतूरा,भुट्टा,खुरपी,कुदाल,बँसला,बैल,कछार,बधुआ,बेना,नवान्न,लूंगी आदि अनेक लोक-जीवन से जुड़े शब्दों को लेकर कविताएँ रची हैं।
इनकी कविता में आया गवई पीढ़ा महज लकड़ी का टुकड़ा नहीं है बल्कि साम्प्रदायिकता का प्रतीक है।
वह कवि की माँ की सबसे प्रिय किताब है।जिसमें माँ का जीवन संघर्ष और पिता के सपने जुड़े हैं।इनके यहाँ रामखिलावन और रामबचन भगत जैस सक्रिय देह वाले लोग भी हैं,जिनके लिए नींद उत्सव की तरह होती है। क्योंकि 'नींद बिछौने को नहीं,देह को आती है'।जो जानते हैं कछार को वो ऐसे कितने सक्रिय देह वाले किसानों के जीवन को जानते होंगे,जो बार बार बर्बाद होती फसलों के बाद भी ये मन नहीं हारते।बल्कि-
"तन-मन-धन से
धरती की कोख भरने में जुटे
ये किसान
हर बार बीज के साथ बोते हैं उम्मीद भी।"
सही मायने में कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव लोक-जीवन ,उसकी विडंबनाओं और सक्रिय देह के पक्ष में खड़े रहने वाले कवि हैं।यही वजह है कि ये कवि केदारनाथ सिंह की परंपरा के ज्यादा नज़दीक लगते हैं।केदारनाथ सिंह जी की कविताओं में आये लोक-जीवन से जुड़े अनेक शब्दों जैसे कुदाल,बोरसी आदि को अपने अलग रूप में आप इनकी कविताओं में भी देख सकते हैं।यदि एक तरफ केदार जी के सामने कुदाल के विस्थापन के दर्द से उठे कई सवाल हैं-
"अन्त में कुदाल के सामने रुककर
मैंने कुछ देर सोचा कुदाल के बारे में
सोचते हुए लगा उसे कंधे पर रखकर
किसी अदृश्य अदालत में खड़ा हूं
पृथ्वी पर कुदाल के होने की गवाही में
पर सवाल अब भी वहीं था
वहीं जहां उसे रखकर चला गया था माली
मेरे लिए सदी का सबसे अधिक कठिन सवाल
कि क्या हो-अब क्या हो कुदाल का
क्योंकि अंधेरा बढ़ता जा रहा था
और अंधेरे में धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था
कुदाल का क़द
और अब उसे दरवाज़े पर छोड़ना
ख़तरनाक़ था
सड़क पर रख देना असंभव
मेरे घर में कुदाल के लिए ज़गह नहीं थी।"
तो दूसरी तरफ कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव की कुदाल सोचती भी है और जरूरी सवाल भी करती है-
"प्रजातंत्र के मतदाता
और किसान की कुदाल में
होना ही चाहिए कोई मूलभूत अंतर
खेत की मेड़ पर खड़ी कुदाल
सोच रही है
और लोग चिंतित हैं
कि कुदाल सोच रही है।" समाज में यदि मजदूर और श्रमिक सोचने लगता है तो लोग चिंतित होने लगते हैं।ये तय है कि जो सोचेगा वही तो सवाल करेगा।सवाल करने वालों से सत्ता भी डरती है।ये कवि गवई खुशबू और उनके स्वाद को अच्छे से जानता-पहचानता है।इसीलिए वह कामना करता है कि फसल कटने से पहले सभी घरों में नवान्न का उत्सव होना चाहिए।इस संग्रह की कविता "भुट्टा "-
"मक्के की देह में
कमर में कटार की तरह
तनी है बाल।" केदारनाथ अग्रवाल की कविता "एक बीते के बराबर ठिगना चना" की याद दिलाती है।विकास की अंधी दौड़ ने शहरीकरण को बहुत बढ़ावा दिया है।ये शहरीकरण मनुष्य के मन के रसायन को कब बदल देता है पता ही नहीं चलता।उस रसायन बदलने से बहुत सारे बदलाव दिखाई पड़ते हैं।जिन लोक के शब्दों की उँगली पकड़कर भाषा को सीखकर दुनियाँ पहचानी।वही शब्द इस रसायन के प्रभाव से या तो गँवारू लगने लगते हैं या वो बिला ही जाते हैं।कवि इसी बात से दुःखी है कि-
"बहुत दिन हुए
किसी के मुँह से
नहीं सुना 'तरकारी'।"
कवि की चिंता वाज़िब है कि इस दौर में बहुत तेज़ी से बदल रहे हैं लोक और कस्बों के हाव-भाव।बाज़ार के तंत्र ने सबको अपनी ओर आकर्षित किया है।जिससे यहाँ की संस्कृति में भी अपरिचय की भावना बढ़ती जा रही है-
"अब कस्बों में बहुत दिनों तक
चल नहीं पाता काम
विश्वास और भरोसे पर
अब वहाँ अपना अर्थ बदल रहे हैं मुहावरे
समा रहे हैं तेज़ी से बाज़ार के पेट में।"
गाँव और कस्बों से शहरों की तरफ आमजन का
पलायन करवाकर अब पूँजी और बाज़ार ने अपनी पैनी नज़र शहरों पर गड़ा रखी हैं।इस नज़र को ये कवि बख़ूबी पहचानता है।उसे डर है कि बाज़ार की चमक में अब शहर भी न बिला जायें-
"मेरे लिए यह विषाद की घड़ी है
इस समय ठकुआ गया हूँ मैं
वैसे कहाँ हैं आप !
जरा पलट कर देखिए
कहीं बिला तो नहीं रहा
आपका भी शहर !"
आज पूँजी, बाज़ार और राजनैतिक गठजोड़ ने ऐसी व्यवस्था खड़ी कर दी है।इस व्यवस्था की भाषा में कहें कि मामूली से आदमी का समाज के हित में सोचना अपराध माना जाता है।ऐसे मामूली से आदमी को रघुवीर सहाय के रामदास की तरह मार दिया जाता है।कविता " वह जो चाहता था " रामदास की याद दिलाती है-
"कल हत्या हुई जिसकी बीचोबीच शहर में.....
वह चाहता था अपने और अपने जैसे लोगों के लिए
अँजुरी भर उजास
चेहरा भर लालिमा
आँख भर चमक
और होंठ भर मुस्कान।"
आज के समय में प्रेम की बहुत जरूरत है।प्रेम को लेकर इस कवि ने अनेक कविताएं लिखीं हैं।प्रेम के अनेक पहलुओं को इस संग्रह की कविताओं में देख सकते हैं।प्रेम करने वाले केवल प्रेम नहीं करते बल्कि एक-दूसरे को रच रहे होते हैं।क्योंकि जहाँ प्रेम है वहीं सृजन है-
"प्रेम करते हुए हमने जाना
प्रेम करते हुए लोग
रचते हैं कविताएँ एक-दूसरे में
एक-दूसरे का होना
उनकी कविता का पूरा होना है।"
कवि ये मानता है कि प्रेम पर ही दुनिया टिकी है।दुनिया को बचाने के लिए हथियारों की नहीं प्यार की जरूरत है।क्योंकि विरोध के दिनों में प्यार की इच्छा बलवती हो जाती है।आज कबीर के "प्रेम न खेती ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।" को बाज़ार और पूँजीवादी गठजोड़ ने झूठा सिद्ध कर बिकाऊ बना दिया है।कवि इसी बात से चिंतित है कि भूमंडलीकरण के इस दौर में लोग धीरे-धीरे भूलने न लगें कि प्रेम जैसी भी कोई बात होती थी।कहीं इस विकट समय में प्रेम गूलर का फूल न हो जाये-
"इक्कीसवीं सदी की दहलीज़ पर चढ़ रहे समाज में
इससे बड़ी त्रासदी न होगी
कि प्रेम एक वर्जित फल बन जाए।"
इनकी कविताओं में आया प्रेम वासनाजन्य प्रेम नहीं है बल्कि ये प्रेम विश्वास,आस्था और समानता के सहचर से उपजा है।यहाँ आपको दाम्पत्य प्रेम के अनेक रूप देखने को मिलेंगे।इनकी कविताओं में आया प्रेम क्षणिकता का बोध नहीं है बल्कि वह जीव की अनवरत यात्रा की तरह है।जो दूर रहकर भी उसके अहसास को हमेशा जगाये रहता है-
"मैं तुम्हें पहचानता हूँ
अपनी हथेली की तरह
तुम्हारे माथे पर
उभर आयी रेखाएँ
मेरे हाथ की लकीरों जैसी दिखती हैं।"
जितेन्द्र श्रीवास्तव जितने अच्छे कवि हैं,उतने ही अच्छे आलोचक हैं।लेकिन न कवि में आलोचक हावी होता और न ही आलोचक में कवि हावी होता दिखता।बल्कि ये दोनों के दूसरे की उंगलियों को पकड़े एक एक दूसरे को संबल देते हुए साहित्यिक यात्रा करते हैं।
ये कवि भाषा के प्रति बहुत सजग है।कविता की पृष्ठभूमि और देशकाल के अनुसार ये अपने शब्दों को चुनते हैं।लोक से जुड़ाव के कारण उनकी कविताओं में लोक के शब्द वहाँ की गंध के साथ जाते हैं।अभिधात्मकता इनकी भाषा की सबसे बड़ी विशेषता है।ये अपने शब्दों पर विश्वास करने वाला है।
इस संग्रह को पढ़ने के बाद कह सकते हैं कि जितेन्द्र
श्रीवास्तव उम्मीद और सपनों को जगाने वाले कवि हैं।
कविता-संग्रह :- उजास
कवि :- जितेन्द्र श्रीवास्तव
प्रकाशक :- सेतु प्रकाशन,दिल्ली
संस्करण -2019
मूल्य :- ₹ 300
पेज़ :- 328
इस पेज़ पर अपने लेख प्रकाशित कराने के लिए निम्न नंबर या ईमेल पर संपर्क करें।
ह्वाट्सएप : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com
No comments:
Post a Comment