१.
वापसी
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घर छोड़ने के बाद
घर लौटने का अंतराल
साल दर साल बढ़ता ही गया
बहुत दिनों बाद
घर पर हूँ
पलट रहा हूँ एल्बम
और देख रहा हूँ हँसते खिलखिलाते चेहरे
लेकिन नहीं ढूंढ़ पा रहा हूँ अपनी एक भी तस्वीर
मैं नहीं हूँ इन तस्वीरों में कहीं
मेरा बिस्तर भी कैमरे की फ्रेम से बाहर है
मेरी जुटाई स्मृतियाँ अनमने भाव से एक जगह पड़ी हैं
मैंने छोड़ा था घर
घर ने भी छोड़ दिया है मुझे
अपनी वापसी पर हैरान
सोच रहा हूँ -
मैं कौन हूँ?
कहाँ हूँ?
२.
तुम्हारे जाने के साथ ही नहीं मरा था मैं
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तुम्हारे जाने के साथ ही नहीं मरा था मैं
मैं मरता रहा धीरे-धीरे
सबसे पहले
मेरी भाषा मरी
फिर मरे मेरे सारे ख़्वाब
धीरे-धीरे
मेरी यादें मरी
इच्छाएं मरी
और फिर एक दिन
मर गया मेरा शरीर |
३.
हॉस्टल के इस नियत कमरे में
पर्याप्त जगह है मेरे लिए
आसमानी दीवारें हैं
घड़ी है
बिस्तर है
किताबें हैं
सिर्फ़ नींद नहीं है
जिसे समेटने के लिए
मैं सड़कें नापता हूँ...
४.
वह किसी उपन्यास का नायक जरूर हो सकता है
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खिड़की
दीवार
किवाड़
और ख़ुद से निराश हो
हर रोज़
जब सूरज ढ़ल रहा होता है
मैं अपने कदमों को सायास ठेल रहा होता हूँ
चाय-दूकान की ओर
जहाँ कई अपरिचितों के बीच एक चेहरा ऐसा है
जिसे मैं परिचित मान सकता हूँ
वह मेरी आदतें जानता है
मेरे स्वाद की पूरी खबर है उसे
मुझे खाँसता देख
बढ़ा देता है अदरक की मात्रा मेरी चाय में
कभी-कभी
सुबह जागते ही
चेहरे के बासीपन को धोकर
पहुँच जाता हूँ वहाँ
मैं देखता हूँ
उसे दूकान सजाते हुए
सोयी हुई सीढ़ियों को झाड़ू मारकर वह जगाता है
उसने सुनाई है मुझे
अपनी यात्राओं की कई कहानियाँ
जिसे सुनकर मुझे लगता है
अब वह देश का प्रधान न सही
किसी उपन्यास का नायक जरूर हो सकता है...
५.
माँ ने नहीं देखा है शहर
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गुज़रता है मोहल्ले से
जब कभी कोई फेरीवाला
हाँक लगाती है उसे मेरी माँ
माँ ख़रीदती है
रंग-बिरंगे फूलों की छपाई वाली चादर
और जब कोई परिचित आने को होता है शहर
उसके हाथों भिजवा देती है
माँ ने नहीं देखा है शहर
बस टेलीविजन पर देखती रहतीं हैं खबरें
सुनती रहती हैं किस्सा
बड़ी-बड़ी इमारतों का
लंबी-चौड़ी सड़कों पर चारपहिए की कतारों का
शहर से लौटा कोई आदमी
जब नहीं करता है बात
आकाश, चिड़ियाँ, वृक्षों, घोसलों और नदियों की
उन्हें लगता है-
शहर में नहीं खिलतें हैं फूल
उगतीं हैं सिर्फ इमारतें यहाँ
६.
पिता
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इस साल जनवरी में
नहीं रहे मेरे पिता के पिता
उनके जाने के बाद
इन दिनों
पिता के चेहरे को देखकर
समझ रहा हूँ पिता के जाने का दुःख
दुःख, पसर गया है पिता की पुतलियों में
जिसे देख कर भयभीत हूँ मैं
दुःख, उपस्थित है पिता की दिनचर्या में
जिसने साँझ की परिभाषा बदल दी है
मैं देखता हूँ
दीवार पर टंगी तस्वीरों को
और सोचता हूँ-
मनुष्य संबंधों की एक श्रृंखला में जन्म लेता है
और उसी में मरता है
जगह का ख़ालीपन
भरा जा सकता है सामानों से
लेकिन मन की रिक्तता मनुष्य ही खोजती है ।
७.
याद
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एक वक़्त के बाद
नींद नहीं आती
बस! तुम्हारी याद आती है
तुम्हारी याद में
मैं गुड़हल सा खिलता हूँ
महुए सा टपकता हूँ
भरता हूँ नदी की तरह
और मोगरे सा महकता हूँ
तुम्हारी याद में
चलता हूँ तुम्हारे साथ भींगते हुए
और बहुत प्यार से लेता हूँ
तुम्हारा नाम
हाँ, तुम्हारे नाम का एक अर्थ है मेरे जीवन में
जहाँ से मैं परिभाषित हो सकता हूँ ।
८.
समय का शोक गीत
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बहुत उम्मीद से
मोबाइल को देखता हूँ
व्हाट्सएप्प खोलता हूँ
चेक करता हूँ मैसेंजर
हो आता हूँ ईमेल के इनबॉक्स तक
दिनभर में कितनी ही बार
उम्मीद लिए जाता हूँ
इंतज़ार लिए लौटता हूँ
ख़ाली बैठे-बैठे सोचता हूँ
न जाने किस समय में फँस गया हूँ
कोई मुझ तक नहीं पहुँचता
न मैं ही ठीक-ठीक पहुँच पा रहा हूँ कहीं
ख़ाली सड़क पर
ख़ुद की चहलकदमी को सुनते हुए
झींगुरों को अपने क़रीब, बेहद क़रीब पाता हूँ
झींगुर गा रहा है
समय का शोक गीत...
९.
मैं खुद को हत्यारा होने से बचा रहा हूँ
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बहुत ही लापरवाह रहा हूँ मैं
अपनी देह को लेकर
पहनने ओढ़ने का शऊर भी नहीं रहा कभी
मुझे ध्यान नहीं रहता
कब बढ़ जाते हैं मेरे नाख़ून
झड़ने लगे जब बाल
मुझे लगा, शहर मुझे चाट रहा है
आँखें जब हुईं कमज़ोर
मुझे लगा, धूल ने स्थायी जगह बना ली है मेरी पुतलियों में
पहली बार जब लेटा हरी चादर पर ईसीजी के लिए
मुझे लगा, मेरी धड़कनों पर हवाई जहाज़ का असर है
मेरा जितना साथ शहर की तंग गलियों ने दिया
उतना साथ नहीं दिया मेरे जूतों ने
एक जैसी रंगी, बिछी हुईं सड़कें
मुझे अक्सर गुमराह कर जातीं हैं
मैं नहीं लड़ता
खाने के स्वाद को लेकर अब
नमक उठाकर
छिड़क लेता हूँ कभी दाल में
कभी हल्का सा गर्म पानी मिलाकर
खा लेता हूँ सब्जी
स्वाद के लिए लड़ना
भूख का मजाक उड़ाना है
जिसकी इजाजत मुझे मेरा देश नहीं देता
मेरी दुनिया हमेशा से बहुत छोटी रही
मैं नहीं संभाल पाता अधिक रिश्तें
हमारा समाज जो बहुत जल्दी किसी निर्णय पर पहुँच जाता है
उस समाज से मुझे कुछ ही लोग चाहिए
जो ठहरना जानते हों
जब भीतर शोर होता है
आदमी बहरा हो जाता है
और कई बार गूंगा भी
भीतर का शोर किसी और को सुनाई नहीं देता
शोर कैसा भी हो
उसे सुना नहीं समझा जाना चाहिए
सच कह रहा हूँ:
हम बहुत हिंसक होते जा रहें हैं
हमारी सभी इंद्रियाँ पहले से कहीं ज्यादा हमलावर हुईं हैं
हर जगह उग आएँ हैं नाखून
ऐसे हिंसक समय में
लगातार कोशिश करते हुए
मैं खुद को हत्यारा होने से बचा रहा हूँ...
१०.
शिकायतें
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अब तो ज़माना नहीं रहा चिठ्ठियों का
लेकिन अब भी
समय-समय पर
पढ़ने को मिल जातीं हैं
छोटे-छोटे काग़ज़ों पर
लिखीं गईं तुम्हारी शिकायतें
तुम्हारी शिकायतें
फुटनोट्स की तरह
मेरा मार्गदर्शन करती हैं ।
©गौरव भारती
संपादक परिचय :-
नाम : गोलेन्द्र पटेल {बीएचयू~बीए}
संपर्क सूत्र :-
ईमेल : corojivi@gmail.com
मो.नं. : 8429249326
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