कवि व आलोचक संजीव कुमार तिवारी :-
कोरोजीवी कविताओं की प्रवृतियाँ
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एक खास दौर की प्रवृतियाँ समय के साथ कम होने लगती है तो कुछ नयी प्रवृतियों का जन्म होने लगता है।डॉ.नामवर सिंह ने इसे ही एक को क्षीयमाण तो दूसरे को वर्धमान कहा था।यह प्रक्रिया निरतर चलती रहती है और एक समय ऐसा आता है जब पहले की केंद्रीय प्रवृति नेपथ्य में चली जाती है तो नेपथ्य की प्रवृति केंद्र में आकर उस युग की मूल प्रवृति बन जाती है।यही वह ऐतिहासिक समय होता है जब उस प्रवृति के नाम से उस युग को जाने जाना लगता है और इसतरह उसका नया नामकरण हो जाता है।लॉन्ग नाइन्टीन के बाद समकालीन कविता में एक ठहराव आने लगता है। एकतरफ समकालीन कविता की मुख्य धारा में कथ्यों की दुहराव की बाढ़ आ जाती है, शिल्प के स्तर पर भी नए प्रयोग बंद हो जाते है तो दुसरी तरफ अन्य समानांतर धाराएँ जैसे दलित साहित्य,नारी साहित्य या अन्य वंचित साहित्य भी एक बन्द झील में गिरकर रुद्ध हो जाती है।दलित साहित्य मकड़ी की तरह अपने बनाये फार्मेट में ही उलझकर असामयिक मौत को प्राप्त हो जाती है तो नारी साहित्य अत्यधिक नारेबाजी के चंगुल में आकर दशक के अंत तक अपनी जीवन्तता खो देती है।कुल मिलाकर यह दौर साठोत्तरी कविता के चुकने का समय है।
अब प्रश्न उठता है कि क्या ये सारे परिवर्तन अचानक हो गए या इनकी पटकथा तत्कालीन परिस्थितियों द्वारा लिखी जा रही थी। यूपीए सरकार द्वारा लाया गया दूसरा आर्थिक सुधार जिसमे और खुलापन था पूरा विश्व आर्थिक रूप से इतने एक दूसरे से जुड़ गए कि सरकारों का बनना बिगड़ना खुले रूप में कारपोरेटो द्वारा तय होने लगा।गठबंधन की सरकारों में क्षेत्रीय पार्टियां इतनी महत्वपूर्ण होने लगी की उनके छोटे छोटे निजी हितों के कारण नीतिगत निर्णयों में भी हेर फेर होने लगा। भ्रष्टाचार की नदी में पूरी व्यवस्था आपादमस्तक लिप्त हो गई।इसी बीच आरटीआई जैसे कुछ ऐसे कानून भी आये जिससे कुछ ऐसी बातों की भी जानकारी जनता को होने लगी जिसे वे पहले नही जान पाते थे।आरटीआई एक्टिविस्ट लोगों में अपनी पैठ बनाने लगे। जल्द ही केंद्रीय सरकार का एक ऐसा चरित्र सामने आया कि जनता तत्कालीन सरकार से घृणा करने लगी।
अन्ना आंदोलन ने देशव्यापी एक ऐसा माहौल बनाया जिसमे शिरकत न करनेवाले लोग उसी तरह अपने को अभागे समझने लगे जैसे फ्रांसीसी क्रांति के समय उसमे न शामिल होनेवाले बुद्धिजीवी अपने को समझते थे।पूरा भारत परिवर्तन के लिए व्यग्र हो गया पर इन आंदोलनकारियों के पास न तो इस तरह का सामर्थ्य था और न ही संसाधन।परिणाम यह हुआ कि जिस किसी व्यवस्था ने इस अंधेरे के खिलाफ विकल्प देने का वादा किया जनता उसके साथ हो गई।2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार बनी और जनता अपनी हसरतो के लिए एक बार फिर अपनी ही चुनी गई सरकार के द्वारा छली गई।जनता अमन चाहती थी,विकास चाहती थी,जीरो टॉलरेंस भ्र्ष्टाचार चाहती थी पर बदले में एक ऐसी बहुरूपिया सरकार मिली जो दावे तो बड़ी बड़ी करती थी पर उसका इरादा कुछ बेहतर करने के बजाय अपने सरकार को दीर्घजीवी बनाये रखने में ज्यादा थी। फिर एक के बाद एक कौतूहल सृजित करने वाले कार्य मसलन तीन तलाक खत्म करना,धारा 370 को विलोपित करना किया गया।संवैधानिक संस्थाओं को धीरे धीरे कमजोर करने का कार्य किया गया।जब देश अर्थव्यवस्था की विकट परिस्थितियों से गुजरता था तो रिजर्व बैंक अपनी पूरी क्षमता के साथ सामने आकर उसका निदान निकालता,,वह एक ऐसी संस्था थी जो सरकार के आगे आगे चल कर देश के आर्थिक हितों को ध्यान रखता था पर उसे सरकार के पीछे पीछे चलने वाला एक पिछलग्गू निकाय बना दिया गया।
स्थितियाँ विकट थी।सामान्य जन अभी किसी चमत्कार की उम्मीद कर रहे थे पर बुद्धिजीवियों में आगत संकट को अनुभव कर अपना विरोध प्रकट करना शुरू कर दिया।जबाब में हमेशा की तरह सरकार ने अपना लोकहित के पीछे छिपी अपने दमनकारी चरित्र को हथियार बनाया।
तभी अचानक देश एक ऐसे विश्वव्यापी संकट कोरोना के चपेट में आ जाता है जिसके लिए सीधे तौर पर बहुसंख्यक जनता नही बल्कि कुछ खास तबका ही जिम्मेदार था।संकट भी ऐसी कि पहले कभी नही देखी गई।अचानक पुर्र देश की गति थम जाती है।जो जहाँ है वही उसको रुक जाना पड़ता है।एक अदृश्य दुश्मन जिसे न तो देखा जा सकता है और न ही छुआ जा सकता है मानवजाति के हरेक कर्म को छिन्न भिन्न कर देता है।जीवन का हर पक्ष बुरी तरह प्रभावित होता है,क्या सामाजिक,क्या आर्थिक क्या मनोवैज्ञानिक सभी इसके चपेट में आ जाते है। चूँकि सबसे ज्यादा उम्मीदे सरकारों से थी इसलिए सबसे पहले मोहभंग भी इसी से होता है। कोरोना काल की रचनाओं की सबसे महत्वपूर्ण प्रवृति स्थापित सरकारों के प्रति आमजनों का मोहभंग के रूप में सामने आता है।चाहे वह केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें हो पहली प्रतिक्रिया अपना पल्ला झाड़ने के रूप में सामने आया।एक के द्वारा दुसरो पर दोषारोपण कर अपनी जिम्मेदारियों से बचने का प्रयास किया गया। परिणाम यह हुआ कि कवियों ने अपनी कविताओं से सीधे सीधे सत्ता के दोगलेपन को अपना विषय बनाया।एक तरफ प्रधानमंत्री टेलीविजन और रेडियो पर मन की बात करने के लिये नियमित रूप से आते रहे।दूसरी तरफ कवियों ने उनकी कही बातों से ही उनके चरित्र को व्याख्यित करना शुरु कर दिए। आत्मनिर्भरता, लोकल में वोकल, जैसे शब्दों को ठोक ठोक कर ऐसा शब्द निकाल गया जिससे इसके वास्तविक लक्ष्य से दूरी स्प्ष्ट रूप से सबको नजर आने लगी। बोधिसत्व की 'आत्मनिर्भरता'शीर्षक से लिखी कविता आत्मनिर्भरता के नए मायने और नए अर्थ खोल देती है
कोरोना काल की भयावहता जब बढ़ी तो सरकारों के भी हाथ पांव फूलने लगे। उन्हें जब कोई उपाय नही सुझा तो उन्होंने लांकडाउन का रास्ता अपनाया। लाँक डाउन का अर्थ कर्फ्यू अर्थात लोगो का अपने अपने घरों में बंद होना। जब लोग घरों में बंद रहने के अभिशप्त हुए तो उनकी निगाह अपने घरों के सदस्यों पर पड़ी।रोज रोज के भागदौड़ वाली जिंदगी में जिस चीज को वह नही देख पाए थे,लगातार घर मे रहने से वह दिखाई देने लगी।उन्हें अपने बेटे बेटियों का बढ़ता वय दिखने लगा। उन्हें लगा कि जिस बच्चे को वह अभी छोटा समझ रहे थे वह कैसे अपनी जवानी की ओर बढ़ रहा है।बेटी जो बात बात पर अपनी बात मंगवाने के लिए जिद करती थी कैसे गम्भीर होने लगी है। पत्नी का भी एक नया रूप जो उसके ऑफिस जाने की चिल्लपो में नही दिख पाता था,दिखने लगता है।पति को बरबस ही उसपर प्यार उमड़ने लगता है।दाम्पत्य प्रेम इस कोरोना काल की एक महत्वपूर्ण प्रवृति बन कर उभरती है।श्रीप्रकाश शुक्ला इस काल मे इस प्रवृत्ति के उन्नायक कवि के रूप में उभरते है। कोरोना में किचेन उनकी ऐसी ही एक हल्की फुल्की कविता है जो दाम्पत्य प्रेम को अपने केंद्र में रखती है।
जब लोग अपने अपने घरों में बंद हो गए ।सारे आवागमन के साधन रुक गए,गरल उगलती चिमनियाँ मन्द हो गई तो प्रकृति अपने को करेक्ट करने में लग जाती है।क्या ताल क्या पोखर क्या नदियाँ, सभी के पानी झक झक दिखने लगते है।जो काम सरकार करोड़ो अरबो रुपये खर्च कर नही कर पाई वह मानव के घरों में कैद होते ही अपनेआप ठीक होने लगी।महानगरों की विजीविलिटी इतनी बढ़ गयी कि की की किलोमीटर दूर की चीजें साफ साफ दिखने लगी।लगा कि मानव आँखो पर कोई जमा मैल अचानक साफ हो गई हो।लोगो को भरोसा ही नही हो रहा था कि उनके आस पास की प्रकृति इतनी खूबसूरत हो सकती है।कवियों जब प्रकृति पर मुग्ध हुए तो उन्होंने अपनी कविताओं में भी इनका भरपूर चित्रण किया। कई बड़े कवियों ने अपनी कविताओं में इसको केंद्रीय प्रवृति के रूप में दिखाया।
कोरोना काल की एक प्रमुख समस्या थी प्रवासियों की समस्या। आजादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि अपने ही देश मे अपने लोग प्रवासी कहे गए।अमानवीयता का ऐसा नग्न नृत्य हुआ कि सभ्य समाज काँप उठा। वही मजदूर जिन्होंने नगरों को बसाया,उनको सजाया,उनमे गति पैदा की को जब सहायता की जरुरत पड़ी, नगरों ने हाथ खड़ा कर दिए। परिणाम यह हुआ कि महानगरों से गाँवो की तरफ पलायन का एक ऐसा दौर शुरू हुआ जिसमें कई नैतिकताएं ध्वस्त हो गई।जो जहाँ था वही से अपने गाँव को चल दिया।क्या स्त्री क्या पुरुष,क्या बच्चे सभी गांवों की तरफ इसतरह दौड़ पड़े मानो गाँव पहुंचते ही उनका दुख दर्द खत्म हो जाने वाला हो।पलायन के इस दंश को लगभग सभी कवियों ने अपना वर्ण्य विषय बनाया। आ
इस दौर की एक खास विशेषता यह थी कि लोगो ने आधुनिक सुविधाओं के भरोसा रहना छोड़ अपने निज बाहुओं पर भरोसा करना ज्यादा उचित समझे।बस बन्द थी,ट्रेन बन्द थी तो लोगो इससे हतोत्साहित नही हुए बल्कि पैदल ही घर को निकल पड़े। सवारी के रूप में साइकिल एक ऐसा वाहन उभर कर सामने आया जिसे खरीद कर लोग एकतरफ अपने पैसे का सही उपयोग के रूप में देख रहे थे तो दूसरी तरफ आधुनिक आवागमन के साधनों के विकल्प के रूप में। मानव अपने साहस के बल पर बड़ी बड़ी दूरियों को तय करने में सक्षम हुए।आम आदमी से नायक का भी जन्म हुआ। ज्योति लड़कियों के लिए आइकॉन बन गयी।सुभाष राय जी ने अपनी एक कविता में ज्योति की ही सीधा सीधा सम्बोधित किया है।
लाकडाउन का एक बड़ा असर यह हुआ कि देश की अधिकांश जनसँख्या को अपने अपने घरों में कैद होना पड़ा। बाहर न निकलने की स्थिति में लोगो के दिनचर्या में खाना,सोना और मनोरंजन ही मुख्य शगल बन गया पर जल्द ही लोगो का मन इससे उबने लगा।लोग कुछ अलग करने की सोचने लगे।उनकी हॉबी, उनकी छिपी प्रतिभा जो समय के थपेड़े के साथ अप्रसांगिक सी लगने लगी थी,खाली समय्य मिलते ही पुनः अकुलाने लगी। कोई गीत गाकर तो कोई वाद्ययंत्र बजाकर, कोई मिमिक्री कर अपना वीडियो सोशल मीडिया पर लोड करने लगा इसी क्रम में कुछ लोग साहित्यिक सृजन की तरफ अग्रसर हुए, खासकर कविताओं के क्षेत्र में तो बाढ़ आ गई।क्या महिला क्या पुरुष,क्या स्कूली बच्चे सभी अपनी अपनी कविताएँ सोशल मीडिया पर शेयर करने लगे,हर तीसरा व्यक्ति कवि होने लगा।प्रतिभा का जैसे बिस्फोट हो गया हो।आजादी के बाद कभी भी एक साथ इतनी कविताएँ नही लिखी गई।अचानक आये बाढ़ से स्थापित कवि सहम गए,उन्हें इसकी गुणवत्ता की चिता सताने लगी।जल्द ही कवियों का दो वर्ग बन गया।एक वर्ग आचार्य(कोतवाल) की भूमिका में आ कविताओं के निकष और कवि के कर्तव्य गढ़ने लगा तो दूसरा किसी तरह के बंदिशों को न मानते हुए स्वतंत्र रूप से कविता रचने को महत्व देने लगा। इसतरह इस काल की एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति में कवि -कर्म मसलन उसके कर्तव्य,उसके चरित्र आदि पर चर्चा को समझ जा सकता है।
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जब जब महामारी जैसी आपदा आती है इसका अन्तराष्ट्रीय सम्बन्ध जरूर खोजा जाता है।कोरोना भी इसकी अपवाद नही रही। चूँकि कोरोना वायरस की शुरुआत चाइना के वुहान शहर से हुई इसलिए अन्तराष्ट्रीय पटल पर चाइना को इसका मुख्य विक्टिम बनाया गया। दुनिया जो शीत युद्ध की समाप्ति तक दो ध्रुवों में बटी हुई नजर आ रही थी फिर से दो भागों में नजर आने लगी। अंतर इतना बस हुआ था कि अब रूस की बजाय चीन अमेरिका के सामने आ गया था।आपस की कटुता में डब्लूएचओ जैसी संस्थाओं के चरित्र पर प्रश्न उठने लगा।अमेरिका ने डब्लूएचओ में अपनी हिस्सेदारी खत्म करते हुए अपने को अलग कर दिया।
इस युग की एक उल्लेखनीय प्रवृति थी पाश्चात्य विचारधारा एवं रीति रिवाजों की जगह भारतीय विचारधारा एवं रीति रिवाजों की स्थापना।चाहे वह परस्पर अभिवादन की मुद्रा हो,या साफ सफाई का मुद्दा हो,या खान पान का मुद्दा हो भारतीय रीति रिवाजों को ही अपनाया गया। एक तरफ जहाँ इस महामारी से निपटने में अपनी स्वास्थ्य सुविधाओं को देखकर हम हीन ग्रन्थि से ग्रसित हो रहे थे वही दुनिया द्वारा अपने विचारों को अपनाते देखकर गर्व की भी अनुभूति हो रही थी।
महामारी के चपेट में क्या खास क्या आम सभी आ रहे थे। पैसा,सम्पत्ति,सम्बन्ध सभी अपना महत्व खोने लगे।जिस पैसा को हम बरसो से संच कर रखे थे जरूरत के दिनों में हमारा सहारा न बन सकी। जिस सम्बन्ध की दुहाई देते हम अघाते न थे मुसीबत की घड़ी में हमसे मुँह मोड़कर अलग खड़ी हो गई। तड़क भड़क की निस्सारता,जीवन की नश्वरता जैसे विचार लोगो के दिलो दिमागों में छाने लगे। जीवन मे ग्लैमर एवं पैसा के प्रति मोहभंग होना इस युग की एक मुख्य प्रवृति थी।बहुत से कवियों ने इस प्रवृत्ति को अपने काव्य का विषय बनाया।
जहाँ अंधकार होता है वही प्रकाश की भी जरूरत होती है।कोरोना काल निराशा रूपी अंधकार का काल है।यह एक ऐसी महामारी का काल है जहाँ व्यक्ति की सारी आशाएं वैक्सीन के आने से जुड़ी हुई है।इस घोर निराशा के काल मे लोग तरह तरह के मनोवैज्ञानिक समस्याओं से जूझ रहे है।नौकरी के खोने से, परिजन के कोरोना संक्रमित होने से, बाहरी सहायता न मिलने से लोग तनावग्रस्त होते जा रहे है।ऐसे में कवि चुपचाप देख नही सकता क्योंकि कवि की जिम्मेदारी केवल सृजन कार्य तक ही नही है बल्कि समाज के पथप्रदर्शक का भी है।अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाते हुए वह सुंदर भविष्य को अपना विषय बनाते हुए आशा की उम्मीदों का संचार करते है। अतः सकारात्मकता का संदेश भी इस काल की महत्वपूर्ण प्रवृतियों में से एक है।
हालांकि इस काल का विश्व, व्यक्ति,समाज ,देश,पर क्या प्रभाव पड़ा का आकलन अभी जल्दबाजी होगी पर इतना जरूर है कि इस काल को एक ऐसे स्थापना बिंदु की तरह समझा जा सकता है जहाँ से मानव को एक नए सिरे से सफर करना है। इस काल के प्रतिनिधि कवियों में मदन कश्यप,निलय उपाध्याय,बोधिसत्व,श्री प्रकाश शुक्ल सुभाष राय और संजय कुंदन का नाम उल्लेखनीय है।
अपूर्ण--
©संजीव कुमार तिवारी
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