🙏आत्मिक आदर आभार सादर नमस्कार!
इस संकलन के कवि क्रमशः -
१.आर्यपुत्र दीपक
२.कुमार मंगलम
३.कार्तिकेय शुक्ल
४.सर्वेश सिंह राजन
५.जागेश्वर सिंह
६.शिवम कुमार
७.
८.
९.
१०.
कवि आर्यपुत्र दीपक की कोरोजीवी कविताएँ :-१.
" बाढ़ और उसके बाद "
( बाबा नागार्जुन से क्षमा मांगते हुए )
कई दिनों तक चूहा तैरा कनगोजर के साथ
कई दिनों तक बकरी ठहरी वन कुत्तिया के साथ
कई दिनों तक छप्पर पर लगी सांपों की गस्त
कई दिनों तक गाय - भैंस की हालत रही पस्त
कई दिनों तक सांप-छछूंदर सब सोए एक साथ
कई दिनों तक जच्चा-बच्चा सब रोए एक साथ
कई दिनों तक लूटपाट सब चला जबरदस्त
कई दिनों तक मां - बाबू की हालत रही शिकस्त
सुशासन बाबू की नींद खुली कई दिनों के बाद
सरकार ने फेकवायीं पुड़िया कई दिनों के बाद
पानी निकला घर से बाहर कई दिनों के बाद
अपनों की उतराई लाशें कई दिनों के बाद
घर - आंगन में बच्चे खेले कई दिनों के बाद
लंगड़ा कुत्ता चौखट पर आया कई दिनों के बाद
बाबू - भैया पसीना पोछे कई दिनों के बाद
बासमती से पूरा घर महका कई दिनों के बाद
२.
" बोलो कवि "
बोल सको तो बोलो कवि
बोलो युवाओं के बेरोजगारी पर
बोलो नेताओं की कलमकारी पर
बोलो मजलूमों के लाचारी पर
बोलो सत्ता जनित बीमारी पर
कुछ तो ऐसा बोलो कवि....
जब असहाय मुँह बाये देखें
अपने अपनों की हत्याएं देखें
समाज निर्दोषों की चिताएं देखें
देश सीमा पर बढ़ती विपदाएं देखें
तब इनके साथ तुम हो लो कवि
बोल सको तो बोलो कवि....
जब सपनों पर हो आघात
षड्यंत्रों में बढ़ता विश्वास
प्राणवायु में कोई विष घोले
तब तुम अमृत घोलो कवि
भेद साजिश का खोलो कवि
बोल सको तो बोलो कवि
जब आस्था का भयंकर विस्फोट हो
उम्मीदों,आकांक्षाओं पर गहरी चोट हो
जीवन का उद्देश्य ,उम्मीद मात्र नोट हो
समाजसेवी बुद्धिजीवी के मन में खोट हो
तब समाज का विष तुम पी लो कवि
तुम आदि शंकर बन जी लो कवि
बोल सको तो बोलो कवि....
बोलो ऐसे कि दसों दिशाएं सुनें
सत्ता की फड़कती भुजाएं सुनें
किसान - मजदूर की रोटी सुने
समाज का हर बेटा - बेटी सुने
वैमनस्य फैलाता हर दंगाई सुनें
बाजार की कपटी पढ़ाई सुने
कुछ तो ऐसा बोलो कवि....
इस कोरोना जनित त्रासद कुसमय में
समाज के असामाजिक समय में
आजादी का जमकर जश्न मनाओं
या बढ़ती समस्याओं पर रो लो कवि
तुम समाज का मुँह खोलो कवि
बोल सको तो बोलो कवि ....
नहीं तो चिर निद्रा में सो लो कवि...
३.
अ , ब सीखने से पहले
सिखाया गया ' वसुधैव कुटुम्बकम '
सिखाया गया अपनों का महत्व
समझाया गया जग अपना है
अपनों के साथ रहा करो
स्नेहार्थ उनसे गले मिलाया करो
ज्ञानार्थ उनका चरण छुआ करो
सेवार्थ उनके पास जाया करो
पुरूषार्थ उनसे कदम मिलाया करो
प्रेमार्थ हर पल साथ निभाया करो
अचानक एक अदृश्य वायरस ने
इन मिथकों से पर्दा हटा दिया
नंगी हो गई मायावी दुनिया
नंगी हो गई सबकी सोच
४.
------------------ बहन ---------------
बहन मतलब साधना सम्मान और संतुष्टि
बहन मतलब अविरल अद्वितीय संस्कृति
बहन मतलब धन्य धान्य और सम्पत्ति
बहन मतलब सुख शांति और उन्नति
बहन मतलब सम्पूर्ण संस्कार
बहन मतलब तपस्विनी का प्यार
बहन मतलब बेमतलब की लड़ाई
बहन मतलब सबके सामने खिचाई
बहन मतलब पल पल का सहयोग
बहन मतलब सब संबंधों का योग
बहन मतलब सब रिश्तों की जिम्मेदारी
बहन मतलब सामज के प्रति वफादारी
बहन मतलब निकम्मा भाई का हाथ -पांव
बहन मतलब मां - बाबू का धूप - छांव
बहन मतलब हर राज की पुड़िया
बहन मतलब हर आंगन की गुड़िया
बहन मतलब थकान में एक गिलास पानी
बहन मतलब दादी-नानी की अकथ जुबानी
बहन मतलब हर रोग की एक दवाई
बहन मतलब हर पर्व की पहली मिठाई
बहन मतलब शब्दहीन सार्थक संवाद
बहन मतलब एक बिस्कुट के लिए विवाद
बहन मतलब गुस्से में चुगलखोरी
बहन मतलब गुप्त चिट्ठी - पत्री की चोरी
बहन मतलब आदतन चिढ़ाना
बहन मतलब चिढ़ाकर मनाना
बहन मतलब कलाई की सुन्दरता
बहन मतलब घर की चंचलता
बहन मतलब सबसे पवित्र रिश्ता
बहन मतलब सब रिश्तों में फरिश्ता
बहन मतलब आधी उम्र की पूरी कहानी
बहन को क्या लिखूं कितना लिखूं बस यही कि
बहन बिन अधूरा बचपन अधूरी जवानी
उस लाडली के बिन
आज राखी का त्योहार और आंखों में पानी
५.
अपने हिस्से का दूध
अब बछड़ा नहीं पी पाता
पी जाती है टाटा की गोवर्धन मशीन
अपने हिस्से का दूध
दिहाड़ी मजदूर के नवजात को कहाँ नसीब
सोख लेती हैं सुलगती पसलियाँ
धमनियों में उमड़ आता है लावा
और दूधमुँहे के हिस्से का दूध
दवा बन सूख जाता है सीने में
अपने हिस्से का दूध
नहीं ले पाया कुपोषित बच्चा
क्योंकि भगवान सूखे थे
भक्तगण बेहद भूखे थे
और भूखी थी उनकी इच्छाएँ
किसी मरणासन्न बच्चों से ज़्यादा
अपने हिस्से का दूध
जबरन चूस लेता है साँप
और सूखा देता है उस स्तन को
जबकि पचता उसे बिल्कुल नहीं
अपने हिस्से का दूध
मैं दे देता हूँ 'माँ' को
क्योंकि माँ ने बताया है
दूध पर हक़ केवल
'माँ' और बच्चों का होता है
६.
" रूसवाई "
प्रेम तेरी रूसवाई पर
बोलों कैसा गीत लिखूं ?
तेरे मन का प्रीत लिखूं
या मैं जग की रीत लिखूं
लिखूं नयन के प्रथम छूअन को
या लिखूं उर के प्रथम स्पंदन को !
लिखूं प्रेम पर किये दमन को
या लिखूं प्रेम के सात वचन को !
लिखूं प्यासी पथराई आंखें
या लिखूं कैसे कटती है रातें
लिंखू मिलन की मधुर पीड़ा
या लिखूं समाज की नैतिक क्रीड़ा
प्रेम तेरी रूसवाई पर
बोलों कैसा गीत लिखूं ?
©आर्यपुत्र दीपक
कवि कुमार मंगलम रणवीर की कोरोजीवी कविताएं :-१.
महाभारत से पूर्व हार गए थे
जुआ मे पंचाली को पांडव...
उस पल पंचाली के मन मे
क्या नहीं उठते होंगे विचारों
के तांडव....!
आज न वह युग रहा न तब
की पंचाली....
पर आज मुझे लगता हैं
जुआ सा प्रेम!
जहाँ हर रोज हारती हैं
पंचाली पांडव को.....
दुःशासन की रोबदार आवाज
पर
दुर्योधन की चुटीले प्रहार पर
युयुत्सु के रसिक मिजाज पर
पता है सबको पांडव का प्रेम
बौना नहीं हुआ..
बस कुम्हलाया है समय और
पांडव के मदद के लिये आज
द्वारकाधीश खड़े नहीं हैं!
खो रहा है अपना वह आत्मविश्वास!
बस विधना हार की फांस गले
मे डालने वाली है...
पर आज पांडव कौरव से कम
अपनी आत्मा से लड़ रहे हैं इस
युग का महाभारत!
जहां लाल खून के छींटे कम दिख
रहे हैं
सुनाई दे रही हर ओर से आत्मा की चीखें।
२.
गंगा के ऊपर चारों बगल से
दिखाई दे रही है धुंआ-धुंआ
नीचे उफ़न रहे आग के लपटों
के बीच हाथ-पांव मार रहा है
एक आदमी!
दूसरा आदमी घाट किनारे बैठे
अपने प्रिय अजनबी के साथ...
रहा है देख उस पहले आदमी मे
खुद को!
तभी पेट के आतंक से लिपटा
चार साल का लड़का आया
बेचता दीपक!
करने लगा मिन्नत एक दीपक लेने
की
रोशनी बेचना तो सुफल काज है
बेधड़क जेब से निकालकर उस
दूसरे आदमी ने रख दी दस की
नोट मुस्कुराते हुए ....
तभी उस प्रिय अजनबी ने मांगा
दीपक और उस जलाय दीपक
को दो चार पल रखा हथेली पर
अपने
वह भटका दूसरा आदमी उस
अजनबी को मान लिया थोड़े
समय के लिए देवता...
दिए रखा जिसने सहारा रोशनी
को
फिर थमा दिया दीपक दूसरे आदमी के हाथों मे और वह
आदमी अब देखने लगा उस
दीपक मे खुद को...
हां मन टूट चुका है!
अपने छूट चुके है फिर भी
मिलते रहते हैं अजनबी के
वेश मे...
हां वह दूसरा आदमी उस अजनबी से करता है आगाध
प्रेम!
भोगना चाहता है वह नरक
भी उसके साथ पर अजनबी
वह नरक तक उसके साथ
रहना करती है स्वीकार पर
स्वर्ग के तरफ मुड़ने पर जाती
हैं बदल ख्वाब!
जैसे अजनबी ने दीपक को दिया
आज सहारा ठीक वैसे ही उसने
सम्भाला था कल मुझे.....
दीपक को जलते रहने की प्रक्रिया
मे अजनबी का योगदान स्वागत-योग्य है!
वह अजनबी मानता है दूसरे आदमी के दिल मे जल रहे प्रेम
रूपी दीपक भी उसी ने जलाया
है!
दूसरा आदमी एक टक से देखें
जा रहा है गंगा के सतह पर जलते
उस दीपक को
सहसा उस अजनबी ने कहां देखो
तुम्हारा दीपक बीच मझधार मे है
तभी दूसरा आदमी चीखा- देखों
मेरा दीपक किनारे पर है....!
चौंक गया अजनबी उसके सकारात्मक सोच को
देखकर फिर कहा-कब तक किनारे पर
जलता रहेगा....
जवाब मे दूसरे आदमी ने मुस्कुराते हुए बोला- प्रिय अजनबी!
इस संसार मे आने वाला हर जीव ही नश्वर है!
देख रहा हूं मैं इस गंगा सतह पर तैरते दीपक मे अपने जीवन की अंतर्यात्रा!
रुक जाऊंगा मै बुझ जाऊंगा दीपक की तरह.....
पर छोड़ जाऊंगा यहाँ एक प्रेमी
की इच्छाशक्ति जो कण-कण मे
बिखरकर फिर जोड़ता है खुद को
कि अगले पल वह अपने प्रिय से प्रेम कर सके!
३.
हे रामचन्द्र शुक्ल!
आपकी मूँछों का जिक्र कर
केदारनाथ सिंह चले गए...
हिंदी की पाठशाला के पहले
आचार्य!
आपने हिंदी की जड़ को
बांधकर अपनी माटी से
दिया हम हिंदी-भाषियों को सृजन करने के लिए मौका!
गढ़ी कविता की परिभाषा....
आज होते आप तो मैं पूछता
आपसे केवल एक प्रश्न!
क्या अहंवादी कभी अच्छे कवि हो सकते हैं....
नहीं-नहीं, ऐसा लगता है मुझे!
शब्दों और भावों से खेलने आना
कवि का नैसर्गिक गुण तो नहीं!
कह गए आप कविता मनुष्यत्व
की उच्च भूमि पर ले जाती है..
पर आज तो कविता खिखियाने
का अवसर दे जाती हैं....
आप से जाना कि सौंदर्य भीतर
की वस्तु है...
पर आज का श्रेष्ठ कवि भीतर
मैल रखकर बाहर से हवा-पानी
देने मे मशगूल है...
मेरे द्वारा लिखी दो पंक्ति उसे
शायद कविता नहीं लगेगी....
प्रेम की बात करने वाला अभी
तक ईर्ष्या से बाहर नहीं निकला
है!
पर मंच से चढ़कर पान की पिक
की तरह प्रेम थूकता है....
हमारे जैसे लोग कविता पर अत्याचार करना नहीं भूले हैं
पर मुझे महाकवि कहने वाला
मुझसे बड़ा अत्याचारी होगा..!
दर्शन-विज्ञान-इतिहास न हो
पर कविता का प्रसार रहेगा
ऐसा कह गए आप....!
हे हिंदी के अंतर्ध्वनि रामचन्द्र शुक्ल!
मैं महाकवि नहीं, कविता होना
चाहता हूँ।
४.
सड़क पर चलते कुत्ते की झुंड मे
एक कुत्ता के सिर पर गहरा चोट!
दूसरे के टांग के साथ किसी प्रबुद्ध
ने किया था ईख के फुनगी सा व्यवहार.....
सड़क पर खड़े कुत्ते को समझ
लिया जाता है यतीम-आवारा..
पर आधी रात मे है वह सड़क
से सटे मुहल्ले का रखवाला.....
उन लूटेरों से जो पेट भरने के
बजाय लूटता है दुनिया को शौक
के लिए....
इंसान की दोगली जात का तो पता होगा जिसने महादेवी के गौरा गाय तक को नहीं बख्शा
था....
उत्तर आधुनिक दौर मे मानुस
चांद और मंगल पर जाने की
घर बसाने की बात करता है...
पर श्यामल धरती को उजाड़
देने का हक उसे किसने दिया...
कौआ-मैना-खुदबुदी को जैसे
किसी ने कर लिया अगवा और
लूटकर उसके वजूद को फेंक
दिया हो कहीं कूड़े पर या कहीं
कल-कल बहती गंगा मे......
तुम जो कर रहे हो इस सह्रदय जीवों के साथ
उसकी हाय!तो तीनों लोक के किसी छोर पर
जाने के बाद भी तुम्हारी पीछा नहीं छोड़ेगी!
इतिहास दुहराता है! सम्भल जाओ!
ह्रदय से प्रायश्चित करो ढोंग नहीं
वरण किसी दुर्वासा के शाप से
हो जाओगे तुम अपनी जाति के
साथ यहां ही भस्म!
५.
मैं किसान बनकर
खड़ा हूं गांव की खेत मे
मेरे पास है कटे-फ़टे कपड़े
के साथ दो कठा पुश्तैनी जमीन
जिसपर आंखें जमाय रखे हैं...
रसूखदार
वह ताख मे लगे रहते है
पड़ जाए हम बेमारी-हेमारी
के लपेटे मे
जीवन के आखिरी समय तक
नहीं खोना चाहता हूं जमीन को
जिससे मुझे हैं आगाध प्रेम!
देखा है कभी रमुआ को जो
जमीन रखकर लिया है रसूखदार
से चंद पैसा अपनी बिटिया की बिदाई के लिए......
हां एक बात और कहना है आपसे
लहलहाते पौधों की उपज के लिये आधुनिक खाद्य का होना आखिर
कितना आवश्यक है....
हरियाली के पीछे की जहर को
बस देख सकता है सह्रदय इंसान
हे पौधा! तुम्हें खाद के बजाय
चाहिए श्रम-तप और प्रेम जिसमे
आग नहीं लगा सकता कोई ख़िलजी का वंश!
भूलो मत! किसान के पास विशाल ह्रदय के साथ होता हैं
आत्म स्वाभिमान को बचाने हेतु
धारेदार तेज हंसुआ-कैंची वगैरह
मेरे माटी मे फलेंगे-फूलेंगे पौधें
पर मुझे हर युग मे बचाना होगा
उन्हें म्लेच्छों से.....।
६.
बनारस से सटल गाउ भिखीपुर
जहवां मवेशियन के चरावत चचा..
चौंकचक अंदाज मे मुंह मे पान दबवले मोबाइल पर विरहा सुनत रहलन
शुक्ला बउआ के बीएचयू से
डीयू भेजे के फिराक मे...
परीक्षा केंद्र तक पहुंचा के
सुस्तावें खातिर जगह ढूंढत रहली
तलाशे के बाद खेत के बीचोबीच
ट्यूब बेल मिल गईल
लगनी बइठ के नजारा निहारे
कबहु कजरी कबहु फाग गावे
देख के अगले-बगले हरियाली
मन सुनरकी के याद मे हेरा गइल
बीतल मुलाकात के दिन अंगुली
पर गिना गइल....
हवा सुरसुरायल मोर के पाख
हाथ लगल...
रहबू दूर कतनो तहर निशानी
साथ रहल...
भईल दुइ डिग्री जीवन कबे ले
साथ रही
पीएचडी कइला पर दुइ पल मे का रोजी-रोजगार मिली
माइ बाबू के जेई रहल अवकात निभ गइल...
दिखावे मे जमाना अबे सचमूच
बिक गइल...
मजे के बीतअ ता कह के आधे जिनगी बीत गइल।
७.
कमजोर नहीं मैं न अभी पस्त हुआ
क्रूर काल न तुझसे अभी अस्त हुआ
विधना तू भी पूर जोर लगा ले
रास्ते मे चहुंओर कांटे बिछा दे
हँस मत अपने बंजर ह्रदय पर
नाना रूप के पौधें उगाऊंगा...
लगेंगे सावन के झूले यहीं!
मेले-ठेले बीच त्योहार मनाऊंगा
याचक बन मैं तुझसे कुछ न मांगूंगा....
अंजनी-पुत्र बन मैं समुद्र लांघुंगा
पता है मंजिल बीच कालनेमि आएगा
अपनी माया से भ्रम फैलायगा
सुनो! सुनो! मुष्टि प्रहार से भ्रम
तोड़ेंगे
अवनि पर छाया तमस छंटेगा
घबराना क्या...
सूरज यहाँ भी एक रोज निकलेगा।
©कुमार मंगलम रणवीर
कवि कार्तिकेय शुक्ल की कोरोजीवी कविताएं :-
१.
तुम्हारे और उसके बीच...
तुम्हारे और उसके बीच
मझधार बीच नाव जैसे
फँसा हूँ मैं,
मैं अपने से ज्यादा
तुम्हारे ख़ुशियों को लेकर
संज़ीदा रहता था,
तुम भी जानते हो
मैं बदनसीबों के दुनिया से
ताल्लुकात रखता हूँ,
मेरे ऊपर किसी का
दबाव तो नहीं
लेकिन जान लो इतना
मैं अय्याश भी नहीं,
मैं छोड़ दूँगा उसको
बस तुम हाँ करो
नहीं तो तुम्हें
तुम्हारी ज़िन्दगी मुबारक़ हो!
तुम मेरे नहीं बन सके
तो फिर किसी और का
क्या बनोगे
ख़ैर तुम जहाँ भी रहो
ख़ुश रहो
यही दुआ है हमारी,
और हाँ कभी भी
मेरी जरूरत पड़े तो
बेझिझक याद करना
हमेशा के तरह
तुम्हारे साथ होऊँगा।
२.
वे लोग
जो हर रोज़
निकल पड़ते हैं
हाथों में ले मोमबत्तियां
किसी पीड़िता के
न्याय के वास्ते
वे लोग
वाक़ई में होते हैं
बहुत ही निराले
और सदाबहार
वे लोग
जो ख़ुद को कर नज़रंदाज़
बुलन्द करते हैं आवाज़
अपने लिए नहीं
औरों के लिए
वे लोग
एक होते हुए भी
होते हैं बहुत
उनमें होती है
दूसरों के लिए दर्द
वे लोग
जो होते हैं खड़े
किसी मज़लूम के
बन सहारे
वे लोग
हाड़ और माँस के नहीं
बल्कि बने होते हैं
ईंट और पत्थर के
उनमें होती है
एक गहरी जिजीविषा
वे लोग
जो कभी डर कर
पीछे नहीं हटते
सच कहने से
कभी मुँह नहीं मोड़ते
वे लोग
इंसानी रूप में
होते हैं फ़रिश्ता
जो मौजूद रहता है
हर पल उनके लिए
जिनके नहीं होते कोई और
३.
वे लड़कियाँ...
वे लड़कियाँ
जो करती हैं प्रेम
अक्सर करार दे दी जाती हैं बेशर्म
वे नज़रें
उनमें निकालने लगती हैं खोट
जो नज़रों से ही
कभी-कभार करती हैं बलात्कार
वे लड़कियाँ
जो अपने जैसे एक लड़के में
महसूस करती हैं अपनापन
उन्हें मंजूरी देना तो दूर
उन्हें उसके लिए दिया जाता है
गुनहगार का तमगा
वे क़िताबें
जिनमें लिखी होती हैं
दुनिया बदलने की तमाम सारी बातें
वे भी इसे समझने लगती हैं पाप
और मुक़र्रर की जाती है सज़ा
कि फिर कोई ऐसा न करे
जघन्य अपराध
वे लड़कियाँ
जो लीक से हटकर
रखती हैं अपना विचार
उन्हें बदचलन कहने में
नहीं की जाती है देर
वे बन्धन
जो मकड़ी के जाल से भी
ज्यादा हैं जकड़े
उन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता कि
लड़कियाँ भी हैं
उसी समाज की एक हिस्सा
जिन्हें उसके कारण
रोज़ सहना पड़ता है दंश
वे लड़कियाँ
जो पाना चाहती हैं अपना अस्तित्व
उन्हें इसके लिए चुकानी पड़ती है
बहुत बड़ी क़ीमत
दूसरों के शरीर की भूख
और अपनी इज्ज़त
वे लोग
जो करते हैं मंचों से
अच्छे-अच्छे बात
वही भेड़िये
करते हैं उन मासूमों पर घात
कुचल देते हैं इनके पैर
और कतर देते हैं पर
जिससे ये कभी भी
उठा न सकें अपनी अवाज़
४.
उनके लिए इंक़लाब...
सरेआम जो करते हैं क़त्लेआम
बहाते हैं दूसरों का ख़ून
वही लोग सर पे
काली पट्टी बांधकर
लगाते हैं इंक़लाबी नारा
उनके लिए इंक़लाब
एक ऐसा स्वप्न है
जिसे वे दुनिया के सभी लोगों में
साकार होते देखना चाहते हैं
वे चाहते हैं
कि सारी की सारी दुनिया
लाल रंग में रंग जाए
हमारे विचारों का बहाव
सभी को एक ही दिशा में
यों समेटते चला जाए
जैसे तूफ़ान में कोई नाव
कोई ऐसा न हो
जो हमसे अलग स्वप्न देखे
हमसे इतर सोच रखे
यहाँ तक कि हमारे अनुसार ही
ज़िन्दा रहने की जद्दोज़हद करे
ये दुनिया ही नहीं
वरन् समूचा ब्रह्मांड
हमारे इशारों पर नाचे
और गाए वही गीत
जो हम अक्सर गाते हैं
बाज़ारों में
५.
इक कविता-सी आई तुम...
जब-जब मैं तन्हा हुआ,
आँखों में अंगड़ाई लेकर
मन्द-मन्द-सी मुस्कान को
चेहरे पर तरूणाई लेकर
कोयल-सी गाती हुई
मेरे सम्मुख आई तुम
होठों पर रागिनी लेकर
इक कविता-सी आई तुम।
ये धरती-ये आकाश क्या
पाप और पश्चाताप क्या
सारी सृष्टि का सृजन बन
अमृत-रस बरसाई तुम
जीवन को आलोकित करने
इक कविता-सी आई तुम।
पुष्प नहीं मकरंद सरीखे
सप्त-सागर के तरंग सरीखे
भावों का हिलोड़ लेकर
रजत नभ और व्योम सरीखे
पंक्षियों का कलरव लेकर
यों उछलती आई तुम
करने मुझे तृप्त जगत में
इक कविता-सी आई तुम।
जज्बातों का जवाब बन
नव युग का प्रभात बन
घने तिमिर को चीरते हुए
अरुण देव-सी आई तुम
प्रथम बेला की प्रथम रश्मि
घनी घन बन छाई तुम
इक कविता-सी आई तुम।
मेरे पथ की पथ प्रदर्शक
समग्र जीवन की तुम दर्शक
दुःखों के अन्तरतम-सी
पाँवों के घावों की मरहम
आघातों पर अश्रुपात करने
दूर गगन से आई तुम
ओ!मेरी सोनपरी
इक कविता-सी आई तुम।
६.
गाड़ी के दो पहिये...
जो भी पूछना चाहते हैं
पूछ सकते हैं आप
बशर्ते ख़्याल रहे इतना
कि मर्यादा न टूटे
और न ही वे अस्मिताएँ
जिन्हें धरोहर सरीखे
सहेजे हुए हैं हम अभी तक
आप मेरे मुरीद हैं कि नहीं
ये तो मैं नहीं जानता
लेकिन मेरा मन
कुछ ऐसा ही गवाही दे रहा है
कि शायद आप अज़नबी
होकर भी कोई अपने हैं
जो फिर एक बार
मिलने और हालात जानने
को बेचैन है
वैसे सच जो भी हो
किंतु इस बात में कोई गुरेज़ नहीं
कि आप और हम
एक ऐसे दुनिया में जी रहे हैं
जहाँ कल्पनाओं का संसार
इतना वृहद और व्यापक है
कि हम चाहकर भी
उनसे बच पाने में हैं असमर्थ
ख़ैर जो भी हो
मुझे आप और आपका लहज़ा
बेहद पसंद है
भले ही हम दोनों में
कुछ मूलभूत अंतर ही क्यों न हो
लेकिन आप जितने अच्छे बाहर से हैं
शायद उतने ही अच्छे अंदर से भी
जिसकी पहचान क़रीब से क्या
बहुत दूर से भी
अनायास हो ही जाती है
यों कहने लगें तो
समय कम पड़ जाए
लेकिन मेरे दोस्त
इतना जरूर यक़ीन करो
कि हम एक-दूसरे के जरूरत नहीं
बल्कि एक-दूसरे के सहारे हैं
गाड़ी के दो पहिये
जिन्हें एक साथ ही चलना
और रुकना है
७.
सच से मुँह छिपाने के तलाश में...
अस्मिताएँ खो रही हैं
ख़ुद को रोज़-रोज़
ये दुनिया है कि मकड़जाल
किसको है परवाह
लेकिन ख़ैर दुःख है इस बात का
कि तिलस्मी होती जा रही
इस जाल में फँस रहे हैं
लोग ऐसे जैसे फँसती हैं मछलियाँ
कृत्रिम चकाचौंध में
नष्ट होती सन्ततियाँ
अपने कल को दे तिलांजलि
नष्ट कर रही हैं पीढ़ियाँ
कि वे गौरव न होकर
थीं कोई अभिशाप
जिससे निज़ात पाने की ललक
प्रलय की विकट छाया बन
दिन दूनी रात चौगुनी तेजी से
आ रही हो और करीब
सारी की सारी आकांक्षाएँ
धरी की धरी ही रह गईं
लोग एक दूसरे को
आदिम युग का समझ
नोच खाने को हो रहे हैं तैयार
मन की विकटता पर
बुद्धि का ज्यों हो प्रहार
और क्या इससे भी बुरा
कुछ और होगा
जब नश्वरता के नज़दीक
होकर भी विमुख होकर जी रहे
और सामने से आ रही
विपत्तियों से मुँह मोड़
गा रहे हैं गीत गगन के
कि हमारा क्या
हम कल भी थे
आज भी हैं
और रहेंगे कल भी
लेकिन अफ़सोस कि
सच से मुँह छिपाने के तलाश में
घोंट रहे हैं ख़ुद की गला
और दोष देते हैं किसी और को
जो कतई नहीं गुनेहगार
लेकिन इनका क्या
ये तो ऐसे ही करते
आ रहे हैं अरसे से
अपने सर का भार
औरों पर थोपते हैं अक्सर
जैसे वासुदेव ने महाभारत का समर
और आज भी ये सिलसिला
चल रहा है बराबर
इतना होने के बाद भी
नासमझी है इस क़दर
कि मौत के मुँह में
सिर दे सो रहे हैं
ओढ़ के चादर।
©कार्तिकेय शुक्ल
सर्वेश सिंह राजन की कोरोजीवी कविता :-
१.
अट्टालिकाओं के महँगे गमलों में
खिलते हैं,
राजनेताओं के जैकेट
की शोभा बढ़ाने
वाले पुष्प ,
मगर नही खिल सकते
प्रेम के प्रतीक,
कभी देखा है
सुंदरता का खेतों
में उतरना
अनाज, सब्जियों के साथ
फूलों के रूप में
कभी आओ खेतों में
महसूस करो
किसानों के श्रम को,
कुदाल की कोड़ाई को,
फावड़े से डालने
पड़ते है मेंड़
पशुओं से बचाने
को करनी पड़ती है घेराबन्दी,
लगाने पड़ते हैं बिजूके,
तब निकलते हैं कहीं सब्जियों से
पूर्व उनके आकर्षक एवं मोहक पुष्प,
एक काँटेदार पुष्प
कैसे बन सकता है
प्रेम का उपमान?
आख़िर
कहाँ वह रईस गुलाब
और कहाँ यह भिंडी का फूल।
© सर्वेश सिंह राजन
कवि जागेश्वर सिंह की कोरोजीवी कविताएं :- १.
जब चुपके से तुझे देखने
पारो छत पर आ जाती है
जब छुटकी सीढ़ी चढ़ता देख
यूँ ही मशखरे उड़ाती है
जब पड़ोसन धुंधलके में
टहलने निकल जाती है
जब शाम को बड़की भौजी
मुन्ने को दुलराती हैं
वहां उसके गांव में भी
तो तू दिखा होगा
कहो कि क्या वो अब भी
वैसे ही मुस्कुराती है
२.
एक हमसफ़र हो आइने कि तरह
उसे देखूं और
खुद को संवार लूं
एक हमसफ़र हो
आइने की तरह
कल कहूं और
आज तक याद रह जाए
एक बात हो
शायरी की तरह
कहीं जाऊं और
उसका ही जिक्र करूं
हर एक शहर हो
बनारस की तरह
ढलती शाम के
फलसफे लिखूं हर रोज
एक जिंदगी हो
डायरी की तरह
जिससे मिलूं और
घुल सा जाऊं
एक रवानी हो
पानी की तरह
लहरों से बाते करूं
किनारे पे बैठकर
हर जगह हो
गंगा घाट की तरह
इधर सोचूं और
वो जान ले
एक खबरी हो
मन की तरह
३.
मैं .
मैं चला कहाँ था,मुझे तो चलाया गया था |
मैं ठहरा कहाँ था,मुझे ठहराया गया था |
मैं बिखरा नहीं था,मुझे बिखेरा गया था |
मैं टुटा नहीं था,मुझे तोड़ा गया था |
मैं पढ़ा कहाँ था,मुझे तो पढ़ाया गया था |
मैं उतरा कहाँ था,मुझे तो उतारा गया था |
मैंने देखा नहीं था,मुझे दिखाया गया था |
मैंने सोचा नहीं था,मुझमे सोच थोपा गया था |
और शायद,
चलूँगा अब खुद से,
ठहरूंगा मैं अब खुद से,
बिखर जाऊंगा आसमाँ पर,
खनकुंगा बेटियों के पायल की तरह
टूट जाऊँगा टुकड़ो में,
आईने की तरह
और लुंगा शिक्षा ज्ञान का |
उतरूंगा प्रेम के मैदान में ,
जंग की तरह
अब दिखाई दूंगा कईयों को,
जुगनू की तरह
सोचुंगा ख्यालों में उतरकर,
भरे समंदर की जलधाराओं की तरह
बशर्ते,
मेरी इस जहाँ तक पहूँचाने का आभार तुम्हारा है |
मैंने तमन्ना की थी, उसमें चाह तुम्हारा है |
४.
उसे जानते हुए
उसे समझते हुए मैंने जाना
कि उसे समझना
खुद को खुद के प्रति
नासमझ बनाना तो नहीं है
उसका हैसियत जानते हुए
मैंने जाना
कि यह जानना
खुद ही खुद की हैसियत
जान लेने जैसा तो नहीं है
उसकी आई. डी. चलाते हुए
मैंने जाना
की उसकी
खुद की स्वाधीनता को
खत्म करने जैसा तो
नहीं है
उसे खत लिखते हुए मैंने जाना
की उसे लिखना
खुद ही खुद के प्रति
लिख देना तो नहीं है
उससे भागते हुए मैंने जाना
कि उससे भागना
खुद ही खुद से
पलायन करना तो नहीं है
उससे इजहार करते हुए
मैंने जाना
कि उसे बताना
खुद ही खुद को
इश्तेहार देना तो नहीं है
उससे विदा लेते हुए
मैंने जाना
कि विदा होना
खुद ही खुद से अलग
होना तो नहीं है।
५.
भाग एक.
युद्ध तब और अब -
होना ही था युद्ध को
युद्ध ही था प्रारब्ध
द्रौपदी तो केवल उसकी ढाल बनी
सर्वथा ही बनता आया है
कोई ना कोई आधार
चाहे कि वो सीता
या कि चन्द्रगुप्त की मां नुरा
या हो भारत माता
फर्क बस इतना ही है
इस बार
इनकी तादाद ज्यादा है
नीचों के कुकर्म अगाध
और दृश्य
पहले से भी ज्यादा शर्मसार
सारा खेल नियति का है
समय तो केवल दर्शक है
कभी वह हाहाकार करता है
कभी खुश होता है
की निकल पड़ते हैं आंसू
कभी इतना दुःखी होता है कि
नहीं बचे रह जाते
निकलने को आंख से आंसू
वह पत्ते सा हिलता है
और पंखे कि तरह चलता भी है
उसने सैकड़ों गम झेले हैं
ना जाने कितनों कि चीखें सुने
ना जाने कितनों को देखा है
अपना दुःख छुपाते
वह चुप सा हो जाता है कभी - कभी
जैसे युद्ध से पहले छा जाती है
शूरवीरों के शिविरों में चुप्पी
जैसे रात को कीट- पतंगे गाती हैं
निरवता के गान
समय का यह मौन उसकी विशेषता है
वह जब कुछ नहीं कर सकता तो
चुप हो जाता है
और नियति को केवल देखता रहता है
हजार - हजार आंखो से
जैसे देखता हो रात को कोई
अपनी छत के मुंडेर से
शहर की चुप्पी
एक एक जगह को देख लिया जाता है
पर ना जाने क्यों?
उसे क्यूं पसंद है भला
मौन होकर
युद्ध के बाद के चीखों को
अभी महसूस लेना...
भाग 2.
युद्ध तब और अब
सच है जब घटित होना होता है कुछ
हिमगिरि, विंध्य पर्वत की आवाज बन जाती हैं बादलें
कहीं ये छ: महीने बंदी के
घरों की छतों पर,
पहाड़ की चोटियों पर
बादलों का अचानक उमड़ जाना
छट जाना
किसी अपशगुन का संदेश तो नहीं दे रहा है
भला की क्यों मौसम वैज्ञानियों ने
चेता दिया था,देश में भारी बारिश की संभावना
क्यों राज्य सरकारों ने स्कूलों ,संस्थानों को
उचित व्यवस्था पहले से बनाए रखने का
आदेश दे रखी थी
क्यों इस बरस गर्मी गर्मी सी नहीं रही
बरसात - बरसात सी नहीं थी
सावन - सावन सा नहीं था
अभी तक शहर में
कम्बल बांटने कि खबर
अख़बार में क्यों नहीं है
कौन जिम्मेवार है इसका
और किसे ठहराएगा इतिहास
इस युद्ध में दोषी
इस युग का धृतराष्ट्र
कहां से देख रहा है,युद्ध
संजय की दिव्य दृष्टि से
कौन इस युद्ध का लीलाधारी है
क्या परिणति है युद्ध की
बाद इसके किसे होना है
सातासीन
जो युद्ध में धर्म के पक्षधरों
का राजा है
पर जवाब कौन ही देगा
अभी मौन है समय
और क्रियाशील है नियति
अभी महावीरों
और उनके योद्धाओं
सैनिकों को लीन होना है अभी
उनके कर्मानुसार
अभी की अभी - अभी गुजरा है नजदीक से
युद्ध का 270 वां दिन
अभी रचे जा रहे है षड्यंत्र
अपनों के है खिलाफ
और इस बार युद्ध
शायद,
सच छुपाने वालों का
सच कह देने वालो से है
६.
मै हर रोज तुमसे
करना चाहता हूं इजहार
कि इस मायावी दुनिया में
बन जाना चाहता हूं,
उत्कृष्ट श्रेणी का प्रेमी
प्रेम में चाहता हूं हर रोज करना , तुम्हारा दीदार
रोज चाहता हूं तुमसे करू खीर से भी मीठी
और अमेरिका से भारत की दूरी से भी लंबी बातें
जिंदगी के रहस्य भरी सफर में
शाम की तरह उदास हो जाने पर ..
चाहता हूं, रोज तुम्हारे साथ
आसमान को ताकते हुए,
अस्सी घाट की सीढ़ी पर
चढ़ आए पानी में
आधा पैर रखकर बैठूं
जब कभी लाकडाउन लगे फिर धरती पर
मै चाहता हूं
अपनी खिड़की पर बैठकर
हर रोज करूं तुम्हारा इंतज़ार
हाय! कि तुम रूठी हो
पर तुम्हें मनाने के लिए
मैं चांद तारे नहीं तोड़ सकता
तुम्हारे लिए सूरज को
पूरब से नहीं उगा सकता
तुम्हारे लिए नहीं ला सकता मैं
स्वर्ग से अमूल्य वस्तु ...
फिर भी कहो तो तुम्हारे लिए
ये फेसबुक ,वॉट्सएप वगैरह चलाना छोड़ दूं
कहो तो पहाड़ कि सबसे ऊंची चोटी का पेड़ उखाड़ कर ला दुं
तुम कहो तो लाइट का सारा ताप सह लूं
कहो तो दीपक कि सारी रोशनी समेट लूं
तुम चाहो तो तुम्हारे लिए
मांझी कि तरह सारा पहाड़ तोड़ डालूं
कि अबकि मै चाहता हूं
हर रोज तुमसे थोड़ा सा झगड लूं
फिर तुम्हे फिर से मना लूं
चाहने को तो ये भी चाहता हूं
कि मै तुम्हे रोज बताऊं
कि तुम्हारा हंसता हुआ चेहरा
मेरी उदास क्षणों में
संबल देने का एकमात्र विकल्प है
७.
रेप और इतिहास
बहुत दिन तक ढूंढा मैंने इतिहास में
क्या सुभाष बोस को नहीं जानकारी थी
रेप जैसी समस्या के बारे में
क्या विवेकानन्द को नहीं ज्ञात था
इज्जत उतरती है सरे बाजार में
क्या गांधी नहीं जानते थे
कि मार डाली जाती है लड़कियां रेप के बाद
क्या नहीं मालूम था भीमराव को
नही बख्सी जाती है रात में अकेले पाई गई लड़कियां
क्या नहीं मालूम था कलाम को
कुछ दिन ही जलाई जाती है इंडिया गेट पे मोमबत्तियां
मै समझना चाहता हूं ...
क्या नहीं दिखा था तथागत को
कई दिन तक बेटी के घर नहीं लौटने पर आंखो से नदी की तरह गिरते आसुवों वाला मंजर
क्या नहीं समझा था कृष्ण ने
धर्म के नाम पर लूट जाएंगी बच्चियां
क्या नहीं पता था राम को
लांघ जाएंगे दरिंदे मर्यादा की बेड़ियां
क्या नहीं होता था मनु के काल मे किसी का घृणित विचार
मै खोज में हूं कब से....
मै खोजना चाहता हूं
चीखे सुन सुनकर झल्ला कर बोल उठे
दीवारों के कान
मै समझ लेना चाहता हूं
चन्द्रगुप्त के मगध में
किसी को मजबूर करके शिकार बनाने पे चाणक्य का दण्ड विधान
मै की मै ढूंढ़ लेना चाहता हूं
आर्यागाथा में किसी पर हाथ फेर देने पर मत्यू देने का साक्ष्य
मै महसूस करना चाहता हूं...
आदिमानवों ने किसी की कुदृष्टि डालने के दण्ड के लिए बनाया था क्या कोई हथियार
अपने अतीत से पूछे सारे सवालों को वर्तमान की परिधि में बांधकर
मैं पूछना चाहता हूं खुद से
क्यूं नहीं जाने देना चाहता अकेले
अपनी बहनों को पढ़ने शहर
©जागेश्वर सिंह ' जख्मी '
कवि शिवम कुमार की कोरोजीवी कविताएं :-१.
"कोरोना को भगाना हैं"
एक कोरोना ने समझाया
कोरोना से डरना नहीं
आत्म विश्वास हरना नहीं
एकजुट होकर है इसे भगाना
लाॅकडाउन को हैं अपनाना
सामाजिक दूरी हैं बढ़ाना
भीड़-भाड़ में नहीं हैं जाना
घर में ही अब हमें हैं रहना
बिना वजह नहीं हैं घूमना
दो गज की दुरी हैं अपनाना
बचने का यह है सहज ज्ञान
जब अपना फर्ज़ निभाएंगे
यह वैश्विक विपत्ति देख कर
इस शत्रु से कभी डरो ना
घबराना हैं कभी नहीं पर
सजग हमेशा ही रहना है
सच कहता हूँ भारत से
यह कोरोना हार जाएगा
इस विपदा में कष्ट मिला तो
उसको भी मिलकर है सहना
इस महामारी दुःख की घड़ी में
एक साथ सब सेवा धर्म निभाएंगे
जिनका नहीं कोई हैं सहारा
उनका हम आधार बन जाएंगे
कोरोना को दूर हैं भगाना
इस महामारी वायरस को भगाने में
हम सभी को हैं पूर्ण सहयोग करना
हम होगें कामयाब एक दिन
मन में है विश्वास - पूरा है विश्वास
कोरोना को हराने में हम होगें कामयाब ।।
२.
"कोरोना को हराना हैं"
कोरोना से डरना नहीं
आत्म विश्वास हरना नहीं
एकजुट होकर है इसे भगाना
लाॅकडाउन को हैं अपनाना
घर में ही अब हमें रहना है
बिना वजह नहीं घूमना है
सामाजिक दूरि को अपनाना है
कोरोना वायरस को भगाना है
हम सभी पूर्ण सहयोग करें
हमेशा माक्स एवं सेनेटाइजर
हम सभी हमेशा उपयोग करें
कोरोना वारियर्स का सम्मान करें
इनकी दिन-रात मेहनत से
कोरोना से हम सुरक्षित है
ऐसे सभी लोगों को नमन
यह हमें नहीं हैं भूलना
किसी से हाथ नहीं हैं मिलाना
नमस्कार से स्वागत है करना
हमारी भारतीय संस्कृति को
पूरा विश्व अपना रहा हैं
इस वैश्विक विपत्ति देख कर
घबराना हैं कभी नहीं पर
कोरोना के वैक्सीन का भी
सब उपाय ढूँढ रहा हैं
संक्रमण की चेन को तोड़ना हैं
अपनी आदतों को अब मोड़ना हैं
हाथों को 20 सेंकड साफ करना हैं
मुँह पर मास्क जरूर लगाना हैं
जीवन है तो फिर से सब संभव है
जीवन है तो नित नए अनुभव हैं
घर में परिवार का साथ निभाना हैं
एकजुट होकर कोरोना को भगाना हैं
बुलंद हौसलों के साथ इससे लड़ना हैं।।
३.
"सरदार वल्लभ भाई पटेल"
'' '' '' '' '' '' '' '' '' '' '' '' '' '' '' '' '' '' '' '' '' ''
सरदार वल्लभ भाई पटेल की कहानी
सुना रहा हूँ मैं अपनी जुबान
थे वह भारत के स्वतंत्रता सेनानी
देश को एकता करने को थानी
देख कर दुश्मन सब कापे
शेर की तरह था हुंकार
अंग्रेजों के सपनों को तोड़ डालें
ऐसे थे हमारे सरदार वल्लभ भाई पटेल
सरदार वल्लभ भाई पटेल की छवि थी ऐसी
ना देखा, ना सोचा, ना सुना था कभी
एकता का इतिहास जो इन्होंने रचा
देश के मानचित्र पल भर में बदला
हम किसानों का सरदार थे वो
अंग्रेजों के लिए लोहा थे वो
हवा के तरह बहते थे वो
शेरों के तरह दहाड़ते थे वो
ऐसे थे हमारे सरदार वल्लभ भाई पटेल
इतिहास के पन्ने खोजते हैं, जिसे
ऐसे सरदार अब ना मिलते पूरे विश्व में,
अन्याय के खिलाफ आवाज उठाते थे वो
सरदार पटेल के अहिंसा के परिभाषा
हमें सफल जीवन का पथ दिखाता
मनुष्यों के जीवन को दिशा दिखाता
ऐसे थे हमारे सरदार वल्लभ भाई पटेल
कहें जाते थे लौह पुरुष उनको
एकता ही देश का बल हैं,
एकता में ही सुनहरा पल हैं,
जब तक रहेगा यह गाठ
होता रहेगा देश का विकास
जय हिंद - जय भारत - जय पटेल ।।
© शिवम कुमार
भभुआ (कैमूर), बिहार
आत्मिक धन्यवाद!
🙏👉शेष कवियों को अगले दिन इस संकलन में समलित कर दिया जायेगा। आप सभी सादर स्वागत है। आप भी अपनी कविताएं हमारे ह्वाट्सएप नं. या ईमेल पर भेज सकते हैं इस काव्य संकलन के लिए।
इस पेज़ से जुड़े अहिंदी भाषी साथियों किसी भी कविता का अंग्रेजी या अपनी मातृभाषा में अनुवाद करने से पहले "कविता के मूल कवि" से अनुमति लेने के लिए उक्त संपर्क सूत्र संपर्क कर सकते हैं।
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