Golendra Gyan

Wednesday, 4 November 2020

"महामारी में मदन कश्यप' : श्रीप्रकाश शुक्ल" / प्रस्तुति : गोलेन्द्र पटेल {भाग-२}





भाग-१
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भाग -2

नब्बे के दशक में विश्व भर के वर्णहाउस की शुरुआत थी। तो इसे लक्षित करनेवाले मांटिन क्यूँ जूनियर ने जिस वर्ण हाउस परिकल्पना की थी।जो आज 2020 में कोरोना की महामारी ने पूर्णता प्रदान कर दी है। प्रकारांतर से यह वह समय था जब हम एक दूसरे से अलग होकर भी एक दूसरे के समस्याओं को समझ रहे थे।या कि समझने की हम भरपूर कोशिश कर रहे थे। यहाँ से विजेता और विजित के विभाजन के बावजूद आप देखें कि यहाँ यही पर , जो विश्व बाजार आ रहा था। नब्बे के दशक में। यहाँ विजेता और विभाजन के बावजूद इसे कह सकते हैं।
"टूटे हुओं के बीच एकता"

टूटे हुओं के बीच जो एकता की शुरुआत हो रही थी और यह उसी विश्व बाजार की परिणत है कि आज २०२० की कोरोना महामारी तक पहुँच गए हैं। यह विश्व बाजार की देन है। यह तकनीक की देन है। महामारियाँ पहले भी आती रही हैं। यह कोरोना की महामारी की आज जो कैरेक्टर है , जो लक्षण है , वो अन्य महामारियों से एकदम अलग है। विश्व की जितनी भी महामारियां हैं उससे इसका अलग एक कैरेक्टर(चरित्र) ही है। जिसमें विश्व बाजार और तकनीक का सहमेल है। गठबंधन है , इसी वजह से उसके समाधान के भी शिघ्र निकलने की सम्भावना है।

लेकिन उसकी समस्या के उत्तरोत्तर जटिल होते जाने की भी सम्भावना है। दोनों बातें हैं , हो सकता है। कोरोनाकाल का वैक्सीन आ जाए। लेकिन वैक्सीन जब तक आए तब तक इतना न्यूरोटेशन हो चूके रहें। कोरोना (अर्थात् कोविड१९) के वायरस में , इतना न्यूरेट हो चूके रहे हैं कि चरित्र ही समझ में न आये। पता चले की एक तरह की संकट हमारे सामने बना रहे।

पीछले ३० वर्षों का यह जो निष्कर्ष हमारे सामने आया है। ऐसे में नब्बे के दशक था। वह असल में , इसकी सबसे बड़ी बुनियादी विशेषता थी। वह एक जिम्मेदार कवि के आरम्भ का समय था और कवियों के जिम्मेदार होने का भी समय था। यह जो नब्बे की दशक आया उसके पहले की कवियों की उतनी बड़ी जिम्मेदारी नहीं थी। उतनी बड़ी सामाजिक और राजनैतिक जिम्मेदारी नहीं थी। जितनी बड़ी जिम्मेदारी नब्बे या नब्बे के बाद के कवियों के सम्मुख प्रकट हुई।

क्योंकि पूरी तरह प्रतिबद्धताएं टूट रही थीं। वैचारिक दृढ़ता टूट रही थी। विश्व बाजार आ रहा था। पूँजीवाद का एक तरह का विकृत रूप भी आ रहा था। तकनीक का संयोजन , तो ये सब सारे चीजें थीं। तो ऐसे में , ये जो जिम्मेदार कवि के आरंभ का समय था। और जहाँ जो जिम्मेदारी का बोध था। जिसमें कवि के आत्म को दिशा दे रहा था। ये जो जिम्मेदारी बोध था । वो हर एक कवि के आत्म को दिशा दे रहा था।

जिसमें एक तरफ उम्मीद थी कि फिर भी बहुत कुछ अच्छा होगा। दूसरी तरफ स्थानीयता के ताकत की पहचान भी थी। जो समाप्त होती हुई पहचानों को स्वर दे रहा था। आप देखें कि स्थानीयता के पहचानों के समाप्त होने के लिए व्यवस्था व्यवस्थित भी हो रही थी। व्यवस्था लगातार आईडेंटिटी के आईशोलेशन के उसकी पहचानों को समाप्त होने के लिए दबाव भी बना रही थी और समानांतर रूप से जो पहचाने थी। जो अस्मिताएँ थी। वह अपनी चेतना में उद्गद भाव से प्रकट कर के सम्मुख हमारे आ रही थी। अपनी उपस्थिति दर्ज कर रही थी। तो जो नब्बे(९०) का दशक था । इतने सारे यांत्रिक दबाओं की बीच यह *आईडेंटिटी ऑफ दी आईशोलेटेड* बहिष्कृत की पहचान का समय भी था।

मैं(श्रीप्रकाश शुक्ल जी) कहना चाहता हूँ कि मदन कश्यप इसी उम्मीद और स्थानीकता के दौर में "आईडेंटिटीऑफ दी आईशोलेटेड" की प्रतिनिधि कवि रहे हैं। जिनमें इनकी पीढ़ी की अन्य कवियों ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जिसमें कुमार अंबुज , अनामिका , बद्रीनारायण व स्वप्निल श्रीवास्तव जैसे कवियों का नाम  लेना यहाँ पर चाहूँगा। इन सभी कवियों में एक तो विविधता है। जीवन की बहुयायामिकता है। और "दूसरे के दूसरेपन" के प्रति गहरा सम्मान भाव है। अर्थात् अन्य की अन्यता से जुड़ने की भाव।

अन्य की अन्यता के बगैर "आईडेंटिटी ऑफ दी आईशोलेटेड" की नब्बे की दशक में पहचान सम्भव नहीं थी और इसका नेतृत्व किया है , अपने समय में मदन कश्यप ने। इसका मुझे(शुक्ल जी को) गौरव है , इसका मुझे गर्व भी है। तो इस पृष्ठभूमि में आप देखेंगे कि जब मदन कश्यप की कविताओं से गुजरता हूँ या इस पीढ़ी से गुजरता हूँ , तो एक खास मुझे , जो लक्षित करनी है। जो ये है कि इस पीढ़ी ने , नब्बे के दशक के कवियों ने अपने ठीक पहले की निकटतम पूर्ववर्ती पीढ़ी की जहाँ गहरी आलोचना की है । साथ ही उसे आत्मसात भी किया।

एक तरफ गहरी आलोचना है तो दूसरी तरफ आत्मसातीकरण भी है। कोरोना के महामारी में मदन कश्यप ने अपनी कवि को न केवल सक्रिय बनाए रखा है बल्कि अपने कविता के आधार को भी बचाए रखा है। "अब कवि को सक्रिय बनाये रखना और कविता के आधार को बचाये रखना।" ये बातें बहुत महत्वपूर्ण होती है। और इस रूप में आप देखेंगे कि संकट के समय में बनाये रखना और बचाये रखना दोनों ही चुनौती पूर्ण रहा है और यही से किसी कवि के लाईफ वाईटर (जीवद्रव्य) का पता चलता है। और मदन कश्यप के लाईफ वाईटर/जीवद्रव्य का पता चलता है और मदन कश्यप की लाईफ वाईटर(जीवद्रव्य) की सिनाख्त करने की शुरुआत मैं(शुक्ल जी) यहीं से करना चाहता हूँ।

और यह भी है कि एक सचाई है कि जब कोई भी महामारी आती है तो हर महामारी अपने साथ साथ विकल्प और संकल्प लाती है। हर महामारी सत्ता के भय एवं दमन को लेकर के आती है। इसके अन्तर्गत दो तरह के भाव पैदा होते हैं। या तो संटुष्टी जनता की ओर से , कोरोनाकाल में भी यही हुआ। जनता की ओर से दो तरह की स्थितियाँ पैदा होती हैं। या तो वह संटुष्ट हो जाती है या फिर अनुकूलता कर लेती है।

यानी संटुष्टी और अनुकलन हर महामारी के दो ऐसे कैरेक्टर रहे हैं और यह १५ वीं सदी से लेकर के समय समय पर जो महामारियों का इतिहास रहा है। जिसमें की हर तरह की जनता अपने को राज्य के हवाले कर देती है और उसके दो परिणाम होते हैं। एक तो व्यक्ति स्तर पर आईशोलेशन अर्थात् अलगाव हो जाता है और दूसरा राज्य स्तर पर लाकडॉउन लग जाता है।

"आईशोलेशन और लाकडाउन" ये दोनों हर महामारी की बुनियादी विशेषता है और ये दोनों शब्द सदियों से जनता को डराते रहे हैं। और आज तक डरा रहे हैं। यहाँ पर डाटा के स्तर पर आज एक नयी बीमारी जुड़ी है।
*राइजिंगस्पाइंज*

अब सामाजिक सम्पर्क का आनलाईन रूपांतरण भी कहीं न कहीं एक तरह का यातना दायक स्थिति का जन्म देता है। तो आज की जो महामारी है। उसका चरित्र तकनीक के कारण पूरी तरह बदल गया है। कैसे बदला है???

यहाँ अब संबंध है लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं है। केवल हमारे पास धैर्य है और कुछ नहीं बचा है। समझ है लेकिन कोई क्रियाएँ नहीं हैं। मृत्यु है लेकिन कोई सम्मान नहीं है। आज स्थितियां इतनी भयावह है कि हम पड़ोसी के मृत्यु में शोक प्रकट करने की बात तो छोड़ें। उसके घर के सामने से गुजरने में भी परहेज करते हैं। डर लगता है कि पता नहीं क्या हो जाये।ऐसे में जीवन एक तरह का रिक्तता का एहसास करता है। जीवन शून्यता से भर जाता है।और यह शून्यता का बोध परिवेश पर भी दबाव बनाता है लेकिन इसी समय में यह भी अहसास करता है कि जीवन केवल दुखों का सागर नहीं है।

बल्कि उम्मीद का आकाश भी है। यह एक तरह का बौद्धिक विकल्प है। मैं(शुक्ल जी) कहना चाहता हूँ कि महामारी में ये जो सारी स्थितियां आई है , तो इसी ने बौद्धिक विकल्प भी दी है। यही दस वर्ष बाद हमारी दस्तावेज होगा। जिसमें हमारी धड़कने सुनाई देंगी। अन्यथा सरकारी दस्तावेजों में केवल आँकड़े रहेंगे। जो आने वाले कई सदी तक हमें डराते रहेंगे।

तो उन आँकड़ों के समानांतर संवेदना का जो साहचर्य है। संवेदना का जो हस्तक्षेप है और उसके माध्यम से जो बौद्धिक विकल्प दिया जा रहा है। बौद्धिक वर्ग के द्वारा , चिंतको के द्वारा , लेखकों के द्वारा , कवियों के द्वारा और विचारशील नागरिकों के द्वारा। यह हमारे सोचने समझने का आज एक बहुत बड़ा अवसर है। यहाँ तक जब बात आती है तब लगता है। जीवन केवल दुःखों का सागर नहीं है। उम्मीद का आकाश भी है।

और उम्मीद के इसी आकाश को दिखाते हुए , दिखाते रहना । किसी भी रचनात्मकता की कसौटी हुआ करती है। जिसे हर समय के कवियों और बुद्धजीवियों ने किया है और आज भी कर रहे हैं। इस पर अमेरिकी कवियों की एक एंथ्रोपोलॉजी प्रकाशित है। जिसका नाम है - "टूगेदर इन ए सडस्ट्रंज्नेशन"। जिसका संपादन अमेरिका के कवयित्री 'एललिसक्वेन' ने किया है। जो मसहूर कवि पाब्लो नेरुता की कविता पंक्ति है :-
"कीप इन क्वाइज.....।"

आने वाले समय में हिंदी के महत्वपूर्ण आलोचक अरुण होता के संपादन में सेतु प्रकाशन से कोरोनाकाल के "कोरोजीवी कविताओं" का संकलन प्रकाशित होगा।

इस महामारी के अंधेरे में उम्मीद का अलख जगाये रखना जिन कवियों का दायित्व है। वे कवि इस बात को जानते हैं कि जीने की कला का मूलाधार सर्जनात्मकता ही होती है। जीने की विज्ञान से आगे की बातचीत है। जीने की कला और जीवन की कला। हम जीने की विज्ञान में धँसे-फँसे हुए हैं। विज्ञान जहाँ समाप्त होता है। कला वहाँ से शुरू होती है। विज्ञान की असफलता में कला का कल सामिल है। इसलिए मानव जीवन की रचनात्मक जिंदादिली है या फिर कुछ नहीं।

मानव जीवन की रचनात्मक जिंदादिली का अलख जगाये रखना कवियों का दायित्व है। उस समय के लेखों का दायित्व है। यह अलख हमारे समय के कविय जगा रहे हैं। जगाने की कोशिश कर रहे हैं। यह रचनात्मक जिंदादिली परिवेशगत संलग्नता के भीतर से आती है। यह परिवेशगत संलग्नता का अहसास करवाती है और परिवेशगत संलग्नता का यह अहसास असल में कुछ और नहीं है। कवि के जिम्मेदारी का अहसास ही है।

नब्बे के दशक में जब मैं(शुक्ल जी) जिम्मेदार कवियों के आरंभ की बात करता हूँ , तो यह मैं जिम्मेदारी के अहसास की बात कर रहा हूँ। और जिम्मेदारी की अहसास की बात करता हूँ , तो इसका मतलब ये है कि एक खराब समय में या बुरे समय में कुछ नया करने की इच्छा ही है। जो रचनात्मक जिंदादिली का वृहत्तर आयाम रचती है। कुछ नये तरीके से सोचना या सोचने के जजबे को बनाये रखना ही रचनात्मक जिंदादिली है और यह एक प्रकार से मृत्यु की ओर जीवन के बारे में सोचना ही है।

जिस पर कभी कुँवरनारायण ने "वाजस्वा के बहाने" नामक संग्रह में संभव किया था। यही जीने की कला है। जिस पर अभी हाल ही में एक किताब आई है। "द  करेज टू एक्सिट्स" ।यह दार्शनिक 'रामे जॉनवैन्गलूँ' द्वारा लिखी गई है जिसको ब्लैस्वा ने प्रकाशित किया है। इसमें दार्शनिक आधार पर जीवन को बचाने की , जीने की कला को बहुयायामिकता की बाते कही गई हैं।

और जब हम जीने की कला की बातें करते हैं तो इसके प्रमुख कुछ आधार हुआ करते हैं एक प्रमुख आधार है- 
'प्रतिरोध की चेतना' यानी जो आजादी का वास्तविक आधार हुआ करती है। यानी रचनात्मक बौद्धिक जिंदादिली और उसकी आजादी का जो रचनात्मक आधार है वह प्रतिरोध की चेतना है। और यह एक प्रकार से जीवन की अर्थहीनता के खिलाफ सोचना है। जहाँ न तो संटुष्टी है , न तो अनुकलन है और न औसतपन है।

दूसरा है कि 'उत्कृष्टता के साथ सोचना'। यह वह उत्कृष्टता होती है जो एक नैतिक मूल्य हुआ करती है। जो बुद्धगम्य होती है और असल में बात यह है कि यह उत्कृष्टता ही मनुष्य को सामान्य दुख से परे ले जाती है। और इस संदर्भ में चौथी सदी ई.पू. एक ह्यूमन दार्शनिक हुआ करते थे "सेनका"। 'अबुद्धिगम में आनंद मृत्यु के समान है!' यानी आनंद भी बौद्धिक कर्मों से संचालित होना चाहिए। और आनंद को बुद्धि भी दिशा देती रहनी चाहिए।

आनंद भी बुद्धि द्वारा संचालित होकर मानव मुक्ति के पक्ष में होना चाहिए। यदि आनंद में पक्षधरता नहीं है तो यह केवल और केवल व्यसन है। उत्कृष्टता को नैतिक दायरे में समझने की कोशिश जिन कवियों ने इस कोरोजीवी काल(कोरोनाकाल) में की है उसमें मदन कश्यप  अग्रणी कवियों में हैं। उनकी एक कविता "शब्द" है जो "दूर तक चुप्पी" नामक संग्रह में संकलित है।

"आज जबकि / अपने उत्पीड़ित युग के इस हताश मोड़ पर / नैतिकता का मूकता के हद में / सिमट गई है / मैं शब्दों के साथ /नैतिक होने का साहस करता हूँ....।

मदन कश्यप के कवि की पहचान शब्दों के नैतिक साहस होने के रूप में ही पहचान , पहचानी जा सकती है। उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि किसी भी महामारी में कवियों की भूमिका बढ जाती है। क्योंकि एक वैकल्पिक संसार की संभावना की निर्मित उसी के द्वारा होती है। कवि के द्वारा होती है। जो परिवेश की आंतरिक शून्यता को शब्दों की उम्मीद भरी चमक से रौशन कर देता है। मदन कश्यप ऐसे ही कवियों में है। जिन्होंने कोरोनाकाल के परिवेशगत आंतरिक शून्यता को शब्दों की उम्मीद भरी चमक से रौशन कर दिया है। यह कवि ही है जो हमें सोचने की नयी तरीकों से परिचित करवाता है और दुनिया को बहुत करीब से समझने के लिए संकल्प लेता है।

(वीडियो का 17 से 44 मीनट के बीच के वक्तव्य निधियों का प्रस्तुति : गोलेन्द्र पटेल , बीएचयू ~ बीए तृतीय वर्ष।)

शेष अगले दिन

 संपादक परिचय :-

नाम : गोलेन्द्र पटेल

【काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बीए तृतीय वर्ष ,पञ्चम सत्र का छात्र {हिंदी ऑनर्स}

सम्पर्क सूत्र :-

ग्राम-खजूरगाँव , पोस्ट-साहुपुरी , जिला-चंदौली , उत्तर प्रदेश , भारत। 221009

ह्वाट्सएप नं. : 8429249326

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