Golendra Gyan

Friday, 6 November 2020

"महामारी में मदन कश्यप' : श्रीप्रकाश शुक्ल" / प्रस्तुति : गोलेन्द्र पटेल {भाग-३}

"महामारी में मदन कश्यप' : श्रीप्रकाश शुक्ल" 

भाग-१

https://golendragyan.blogspot.com/2020/11/blog-post_3.html

भाग-२

https://golendragyan.blogspot.com/2020/11/blog-post_4.html



 भाग-३:


एक कवि के रूप में ही मदन कश्यप कह सकते हैं कि 

"जब आदमी

उम्मीद से

आसमान की ओर

देखता है


तब

इस धरती का रंग

बदलने लगता है।"


यह कितनी ताकतवर पंक्ति है। कोई भी इम्पूनिटी इस कविता का विकल्प नहीं हो सकता है। इसी नाते वैचारिक लोगों की जो इम्पूनिटी होती है , वो किसी भी सामान्य नागरिक से जादे समृद्ध होती है साथ ही महत्वपूर्ण होती है। इस कोरोनाकाल के इस आपदा के समय में एक कवि के रूप में मदन कश्यप की भूमिका कुछ ऐसी ही रही है।और यहाँ कहना चाहता हूँ कि महामारी के बीच कविता के भूमिका के बारे में मेरे सोचने की शुरुआत भी इन्हीं से होती है।


मार्च २०२० में जब लाकडाउन हुआ और कोरोना की महामारी एक विकराल रूप लेने लगी , तो मदन कश्यप को छोटी-सी कविता , जिसे कोरोना त्रिपदी के रूप में उन्होंने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया था तो मुझे(शुक्ल जी) पढ़ने को मिली। और ये तीन पंक्तियां मेरे इस पूरे व्यख्यान श्रंखला का मूलाधार रही हैं। ये पंक्तियां मुझे मार्च से नये तरिके से सोचने के लिए प्रेरित किया और मैं(शुक्ल जी) नयी दिशा में सोचने की कोशिश करने लगा। जो निम्नलिखित हैं :- 


"वह एक तुम्हारा स्पर्श ही तो था

कि जिससे होती थी ईश्वर की अनुभूति

इस कोरोना ने मुझे निरिश्वर बना दिया।"

-मदन कश्यप


रविदास जैसे व्यक्ति जब निरिश्वर होते हैं तो क्या उस निरिश्वरता के पीछे उनकी समसामयिकता या उनके युग का कोई असर था क्या? ईश्वर से उम्मीद हर युग में रही है। और  निरिश्वरता भी एक तरह का समकालीन दबाव भी है।क्योंकि युग ने अपने समय में एक अपने ईश्वर बना लिया। और जब उस ईश्वर को लड़खड़ाता हुआ देखा। मानव हित में बिखरता हुआ देखा तो कवियों ने कहीं न कहीं उसे प्रश्नांकित करने की कोशिश की है।


इसका मतलब व्यक्तिगत आस्था थी कि नहीं थी।वह मुद्दा ही नहीं है। मुद्दा ये है कि सामुहिकता में जो चिंतन विकसित हो रहा था। उसका निरिश्वरता से क्या संबंध था अपने युग के आपदा और महामारी को लेकर के। मैं यह महसूस किया कि अपने समय में आपदा और महामारी के दबाव में हर युग में कवियों , रचनाकारों ने ईश्वर को प्रश्नांकित हैं।यही कारण था कि रविदास से लेकर के तुलसीदास से होते हुए। प्रेमचंद से होते हुए और मदन कश्यप तक की लम्बी श्रृंखला पर मैंने(शुक्ल जी) व्यख्यान दिया है।संभवतः उस महामारी शृंखला का यह आठवां व्यख्यान है।बगैर इस दबाव के कवि अपने निजी के स्वर को नहीं पा सकता था।



और वह संभव नहीं था। संत कवियों की जो निरिश्वरता एक नये कवि के साथ हमारे युग में अचानक पूरे आवेग से फूट पड़ी है।और लगा की मदन कश्यप की इस छोटी सी कविता ने बीच के इस ५०० साल के अंतराल को लगभग बाट दिया है।यहाँ पर मुझे मदन कश्यप की कविताओं के भीतर से "एक व्याकुल संत की वाणी की फूटने का अहसास हुआ।" जिसका प्रमुख आधार यह  समझ ही है कि जीवन आनंद की तलाश नहीं है। जीवन महज आनंद की तलाश नहीं है बल्कि पीड़ा का अनुभव है। यह पीड़ा का अनुभव ही मदन जी को रविदास से जोड़ता है।


जिसे चिंताधारा हजारीप्रसाद द्विवेदी जी के शब्दों में "चिंताधारा मानवीय चिंताधारा का स्वभाविक विकास कह सकते हैं।" तो रविदास की जो यह पीड़ा थी। उस समय की पीड़ा थी। मदन कश्यप में भारतीय चिंताधारा का स्वाभाविक विकास के रूप में यहाँ पर दर्ज कर सकता हूँ। इन्हीं के भीतर से मैंने(शुक्ल जी) कोरोजीवी कविता की कुछ सूत्र तलाशने की कोशिश की है। जो "आजकल" के  नवम्बर अंक में प्रकाशित है। 


मदन कश्यप ने २०१५ में "इबोला" महामारी को संदर्भित कर एक कविता लिखी है "नाम' की कविता"। जिससे यह पता चलता है कि ये अपने समय के आपदा को लेकर ये शुरू से ही सचेत रहे हैं। आरंभ से ही ये ऐसे ही कवि हैं। महामारी पर कविता लिखना महामारी का अनुवाद भर नहीं है। बल्कि महामारी का गहरा अहसास भी है। जहाँ से सबसे अधिक बदलते सामाजिक संबंधों का पता चलता है। तो बदलते सामाजिक संबंधों का पता चलने का जो बौद्धिक विकल्प रचते हैं मदन कश्यप अपनी कविताओं में , वह इन्हें एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में हमारे सामने समोपस्थित करता है।


और इन बदलते सामाजिक संबंधों ने मनुष्य का रिश्ता न केवल परिवेश व व्यवस्था से बदलता है बल्कि अपने पड़ोस के ईश्वर से भी बदलता है। और कह सकते हैं कि हर महामारी संबंध टूटने की भयावहता का अहसास लेकर आती है और टूटने में ईश्वर से भी रिश्ता टूटा ही है और अपनों से भी।कई रिश्ते ऐसे टूटती है कि जहाँ धैर्य धारण करने की जरूरत है , वहाँ लोग धमकाने लगते हैं।


अब समस्या यह है कि हम कहे आप धैर्य रखिए , आप धमकाएं। बीच में कोरोना है। कोई करे क्या? तो उसमें दोष भी किसी का नहीं है। बगल का आदमी चाहता है कि मैं आऊं , मेरा भय है कि मैं कैसे जाऊं , बीच में कोरोना फैला है।स्थिति इतनी भयावह हो चूकी है कि हम ईश्वर से संबंध तोड़ते ही हैं। कहते हैं सब बेकार हो गया ,खुद क्वारंटाइन हो गए ईश्वर , मुँह छुपाकर के मंदिर में बैठा हुआ है। तो हमारा भला क्या करेगा?


लेकिन सबसे जरूरी यह होता है। पड़ोस से रिश्ते टूट जाते हैं। ऐसी महामारी की जो विकरालता है , वह पड़ोसी से रिश्तों के टूटने में है। सब संकट में होते है और हम कुछ नहीं कर पाते हैं। ऐसे में कवि चूकी संवेदनशील होता है वह अपने पड़ोस के बारे में सोचता है। अपने ईश्वर के बारे में सोचता है।अपने बहुत कुछ के बारे में सोचता है। ऐसे में जो कवि की मुखरता होती है। वह अपने व्यक्ति के ऊपर उसका गहरे आत्मविश्वास में रूपांतरित हो जाती है।


खुद पर भरोसा उसका बढ़ता है। खुद पर भरोसा करना वह सीखता है लेकिन इसी के भीतर जब वह खुद पर भरोसा करता है तो उसकी रचनात्मकता भी अंकुरित होने लगती है।जहाँ एकांत भी होता है।चुप्पी भी होती है लेकिन इसी के भीतर जिंदगी के स्वर भी फूटते हैं। संवेदनशील कवि , लेखक व रचनाकार संबंधों के टूटने पर विचार करते हैं।जबकि सामान्य आदमी टूट जाता है। महामारी का एकांत हर कवि के लिए अनेकांत से जुड़ने का एक विकल्प लेकर आता है।


आवाजों को सुन पाता है जो अन्यथा सुनाई नहीं देती थी। या देती है। यह सब केवल कवि की अनुभूति की बात होती है कि वह जीवन की खोए हुए सत्व वापस ला पाता है और हर अमानवीय मानव व्यवहारों को रेखांकित कर पाता है। मदन कश्यप का कवि भी यही करता आया है। नाम की कविता :-

"इस महामारी का नाम इबोला क्यों?

वाइट हाउस या पेंटागण क्यों नहीं?

जहाँ से फैलती है 

दुनिया की तमाम बड़ी महामारियां।"

-२०१५


इबोला एक सुंदर नदी है।जिसे एक वायरस क्यों कर दिया? "कोरोना" लैटिन शब्द है जिसका मतलब है 'हार' या 'मुकुट'।इसी से बना है "कोरोनेशन" जिसका मतलब है 'राज्याभिषेक'।


उक्त कविता यह कहना चाहती है कि महामारियों के नाम के पीछे भी एक गहरी वैश्विक राजनीति होती है। जिसे एक कवि ही पहचानता है और यह कवि ही कह सकता है कि "नाम" से हम किसी को पहचान नहीं दे रहे होते । बल्कि उसकी उपयोगिता को पहचान रहे होते हैं। यह किसी महामारी का सबसे महत्वपूर्ण एक्सरे  है।इसे एक कवि के रूप में मदन कश्यप ने लक्षित किया है। असल में आँकड़ों के महासागर में टैजटी की पहचान है और उससे बाहर आने की कठिन कोरोजीवी कोशिश है। यही एक कवि का प्रतिरोध भी है और प्रदत्त व्यवस्था से गहरी असहमति भी।

प्रस्तुति : गोलेन्द्र पटेल , बीएचयू


संपादक परिचय :-

नाम : गोलेन्द्र पटेल

【काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बीए तृतीय वर्ष ,पञ्चम सत्र का छात्र {हिंदी ऑनर्स}

सम्पर्क सूत्र :-

ग्राम-खजूरगाँव , पोस्ट-साहुपुरी , जिला-चंदौली , उत्तर प्रदेश , भारत। 221009

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