Golendra Gyan

Wednesday, 23 December 2020

👁️दृष्टिबाधित विद्यार्थियों के लिए अनमोल ख़ज़ाना : गोलेन्द्र पटेल , बीएचयू 👁️

 

 👁️दृष्टिबाधित विद्यार्थियों के लिए अनमोल ख़ज़ाना : गोलेन्द्र पटेल , बीएचयू  



हिंदी साहित्य : विषय और वक्ता【लिंक पर क्लिक कर वीडियो डाउनलोड करें।】
तुलसी के राम :- प्रोफेसर ओमप्रकाश सिंह【आलोचक व आचार्य ~ जेएनयू】
लिंक : https://youtu.be/8K4WGoZELz4
1. महामारी में तुलसीदास :-  प्रोफेसर श्रीप्रकाश शुक्ल 【कवि , आलोचक व आचार्य – बीएचयू】
लिंक :- https://youtu.be/I3u2XqxGhSA
2. भारतीय भक्ति काव्य :- प्रोफेसर मैनेजर पाण्डेय【आलोचक व  - जेएनयू】
लिंक :- https://youtu.be/Nh7ButeWqCs
3. तुलसी की कविता और मनुष्य :- प्रोफेसर उमेश कुमार राय 【गौरी देवी राजकीय महिला महाविद्यालय- अलवर】
लिंक :- https://youtu.be/RZYnPHmZXVs
4. तुलसी की कविताई :- डॉक्टर मलखान सिंह 【जेएनयू】
लिंक :- https://youtu.be/dM0ahhRkERg
5. वाल्मीकि रामायण का सामाजिक महत्त्व : - प्रोफेसर अवधेश प्रधान 【कवि , आलोचक व आचार्य - बीएचयू】
लिंक :- https://youtu.be/_Lwc2eBOczY
6. निराला की कालजयी कृति “राम की शक्ति पूजा” :- प्रोफेसर प्रमोद कुमार सिंह【आलोचक】
लिंक :- https://youtu.be/p2GwRiqw-k8
7. निराला की राम की शक्ति पूजा :- प्रो. आशीष त्रिपाठी【कवि , आलोचक व आचार्य – बीएचयू】
लिंक :- https://youtu.be/uzo0Cq_pXzE
8. तुलसी के दलित सरोकार :-  प्रोफेसर श्रीभगवान सिंह【आलोचक】
लिंक :- https://youtu.be/rFN_z5--_2g
9. भारतीय संस्कृति और तुलसीदास :- प्रोफेसर सूर्य प्रसाद दीक्षित【आलोचक】
लिंक :- https://youtu.be/F0qlRqQcgms
10. तुलसीदास और आधुनिक कवि मन :- प्रोफेसर प्रभाकर सिंह【आलोचक व आचार्य - बीएचयू】
लिंक :- https://youtu.be/XACje_o7vPc
11. तुलसीदास और क्वचिदन्यतोऽपि :- अष्टभुजा शुक्ल【कवि व आलोचक】
लिंक :- https://youtu.be/3J7MYMxQIAI
12. तुलसी के काव्य स्रोत :- प्रोफेसर राधावल्लभ त्रिपाठी【संस्कृताचार्य】
लिंक :- https://youtu.be/ZX56gsGpFhY
13. कलिकाल और रामराज्य :-  डॉक्टर विश्वनाथ त्रिपाठी【आलोचक व आचार्य】
लिंक :- https://youtu.be/HrBDLQK9kI4
14. लोक की सीता :- प्रोफेसर अवधेश प्रधान 【कवि , आलोचक व आचार्य - बीएचयू】
लिंक :- https://youtu.be/ydZigMRxJn0
15. आदिकाल और भक्तिकाल (वर्चस्व बनाम प्रतिरोध की संस्कृति और साहित्य) :- प्रोफेसर चौथीराम यादव【लोकधर्मी आलोचक व आचार्या】
लिंक :- https://youtu.be/lxP9NDtxUs0
16. संत काव्य में लोक जागरण :- प्रोफेसर अशोक कुमार【आचार्य - पंजाब वि.वि.】
लिंक :- https://youtu.be/3IyfyiQ97aI
17. गोरखनाथ “धीरे धरिबा पाँव” :- प्रोफेसर सदानंद शाही【कवि , आलोचक व आचार्य – बीएचयू】
लिंक :- https://youtu.be/CqjqKhZZNko
18. हिंदी समाज और गोरखनाथ :- प्रोफेसर मनोज सिंह【आलोचक व आचार्य – बीएचयू】
लिंक :- https://youtu.be/3NnoVYQ7Nj4
19. हिन्दी साहित्य का आदिकाल कुछ उधेड़बुन :- प्रो. सदानंद शाही【कवि , आलोचक व आचार्य – बीएचयू】
लिंक :- https://youtu.be/kcjpjp43JwM
20. पद्मावत और जायसी :- प्रोफेसर रामबक्ष जाट【आचार्य – जेएनयू】
लिंक :- https://youtu.be/vx9JFC3WS6k
21. सूरदास की कृष्ण कथा “भ्रमरगीत सार” :- प्रोफेसर रामबक्ष जाट【आचार्य – जेएनयू】
लिंक :- https://youtu.be/me0rRMpo904
22. निराला का चिंतन परक साहित्य :- प्रोफेसर श्रद्धा सिंह【आलोचक व आचार्य - बीएचयू】
लिंक :- https://youtu.be/dsSU2Wz13yE
23. “जायसी : एक पुनर्विचार” :- प्रोफेसर मनोज सिंह【आचार्य – बीएचयू】
लिंक :- https://youtu.be/J75cJYjT0Sc
24. कबीर की कविताई :- प्रोफेसर के.के. सिंह【महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय , वर्धा】
लिंक :- https://youtu.be/DC3dfX8DCrI
25. हिंदी में कृष्ण काव्य परंपरा :- असि.प्रो. श्रीहरि त्रिपाठी【बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झाँसी】
लिंक :- https://youtu.be/xpmGNk37VDY
26. “आचार्य रामचन्द्र शुक्ल : पुंसवाद और धर्मनिरपेक्षता” :- प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी【आलोचक व आचार्य – कोलकाता विश्वविद्यालय】
लिंक :- https://youtu.be/gw9flfexf68
27. प्यार और आलोचना के द्वंद्वात्मक संबंध के प्रतिक डॉ. नामवर सिंह :- प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी
लिंक :- https://youtu.be/cN25mtoX-io
28. आचार्य रामचंद्र शुक्ल की इतिहास दृष्टि :- प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी
लिंक :- https://youtu.be/35u48IxuSjY
29. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की इतिहास दृष्टि :- प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी
लिंक :- https://youtu.be/UHq0qPaAM6k
30. स्त्री आत्मकथा के विविध पक्ष :- प्रोफेसर सुधा सिंह【आलोचक व आचार्य – दिल्ली विश्वविद्यालय】
लिंक :- https://youtu.be/XT4-sbxcaGc 
31. स्त्री : संस्कृति और स्वाधीनता :- प्रोफेसर सुधा सिंह【दिल्ली विश्वविद्यालय】
लिंक :- https://youtu.be/C4EOTniRufg
32. स्त्री संदर्भ में मेरी रचनाशीलता :- प्रोफेसर चंद्रकला त्रिपाठी【आचार्य – बीएचयू】
लिंक :- https://youtu.be/4L6_y_i7M4o
33. कथा साहित्य का सृजन :- प्रोफेसर ममता कालिया【कवि व कथाकार】
लिंक :- https://youtu.be/bEqp6Y10jXM
34. प्रगतिशील आलोचना और रामचरितमानस :- प्रोफेसर सर्वेश सिंह【कवि व आलोचक】
लिंक :- https://youtu.be/S4Az-ExMob8
35. रीतिकाव्य : एक पुनर्विचार :- प्रोफेसर सर्वेश सिंह
लिंक :- https://youtu.be/sn5u5Mafm6E
36. नक्सलबाड़ी और कविता :- प्रोफेसर चंद्रेश्वर【कवि व आलोचक】
लिंक :- https://youtu.be/RENZeV_BZHk
37. रीतिकाव्य : पढ़ने के सूत्र :-  प्रोफेसर प्रभाकर सिंह【आलोचक व आचार्य – बीएचयू】
लिंक :- https://youtu.be/QCNhKa37VoU
38. हिंदी कविता और समकाल :- कवि मंगलेश डबराल
लिंक :- https://youtu.be/THlyHbrgrqY
39. भूमंडलीकरण और हिन्दी कविता :- प्रोफेसर अरुण होता【आलोचक व आचार्या】
लिंक :- https://youtu.be/jCaRsUrD_Io
40. कोरोजीवी कविता और श्रीप्रकाश शुक्ल :- अनिल कुमार पाण्डेय【युवा कवि व आलोचक】
लिंक :- https://youtu.be/GxILOrPzTH0
41. दलित स्त्री एवं दलित हिन्दी कविता :- डॉ.प्रियंका सोनकर【कवयित्री , असि.प्रो.- बीएचयू】
लिंक :- https://youtu.be/-FX6qydSuPw
42. प्रेमचंद और आज का समय :- प्रोफेसर अजय तिवारी【आचार्य – दिल्ली वि.वि.】
लिंक :- https://youtu.be/28BXlcDhJXY
43. डॉक्टर नामवर सिंह की आलोचना दृष्टि :- कवि राजेश जोशी
लिंक :- https://youtu.be/WUtKaF4ZHaM
44. अज्ञेय की कविताई :- प्रोफेसर अनंत मिश्र【आलोचक व आचार्य】
लिंक :- https://youtu.be/WdxlQWntuwI
45. राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की काव्य यात्रा :-  प्रोफेसर नरेंद्र मिश्र【आलोचक व आचार्य】
लिंक :- https://youtu.be/YElgLr9AzE8
46. नयी कहानी आन्दोलन और फणीश्वरनाथ रेणु :- प्रोफेसर नीरज खरे【कवि ,आलोचक व आचार्य-बीएचयू】
लिंक :- https://youtu.be/1AVo5YVSpPc
47. प्रेमचंद : कल ,आज और कल :- प्रोफेसर विनय कुमार【आलोचक व आचार्य – बीएचयू】
लिंक :-भाग-1 -  https://youtu.be/GdaeC7qUKgE ,2-  https://youtu.be/GkQ659rzn04
48. छायावादी कविता में मुक्ति का स्वर :-  प्रोफेसर चंद्रदेव यादव【कवि , आलोचक व आचार्य】
लिंक :- https://youtu.be/vkz-1qGKkiw
49. मनुष्य प्रकृति और साहित्य :- प्रोफेसर सुरेंद्र दुबे【आलोचक , आचार्य व  कुलपति - सिद्धार्थ विश्वविद्यालय , कपिलवस्तु , सिद्धार्थनगर】
लिंक :- https://youtu.be/iYMKxHkCrFw
50. भारतेंदु और उनका युग :- प्रोफेसर राजेश गर्ग【आलोचक व आचार्य – इलहाबाद वि.वि.】
लिंक :- https://youtu.be/fyrFXISCN8k
51. मुंशी प्रेमचंद का गोदान :- प्रोफेसर जितेंद्र श्रीवास्तव【कवि , आलोचक व आचार्य -इग्नू】
लिंक :- https://youtu.be/MlGFc1tYAy4
52. विद्यापति और स्त्री :- प्रोफेसर चंद्रदेव यादव【जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय , नयी दिल्ली】
लिंक :- https://youtu.be/zbvhmz-fB9E
53. विद्यापति की पदावली : स्त्री की नजर से :- प्रोफेसर पुनम कुमारी【जेएनयू】
लिंक :- https://youtu.be/Zqw8xuW6Y_U
54. तारसप्तक , प्रयोगवाद और रामविलास शर्मा :-  प्रोफेसर सत्यपाल शर्मा【आलोचक व आचार्य – बीएचयू】
लिंक :- https://youtu.be/a8HvXPy1BaE
55. नवगीत आज की कविता :- डॉक्टर इंदीवर पाण्डेय【नवगीत के आलोचक】
लिंक :- https://youtu.be/CApoemR8ahY  ,     https://youtu.be/tnGhZ4BKCOI
56. लोक साहित्य (लोकगीत) :-  उदय पाल【शोधार्थी – बीएचयू , हिंदी विभाग】
लिंक :- https://youtu.be/ltpr5aWkkIw
57. बाबा नागार्जुन की कविता का सौंदर्य पक्ष :- अमरजीत राम【युवा कवि व असिस्टेंट प्रोफेसर】
लिंक :- https://youtu.be/uXuPmvsCPE0
58. हिंदी पत्रकारिता : तब और अब :- प्रोफेसर रामशरण जोशी 
लिंक :- https://youtu.be/GmpneMgXvDU
59. आदिवासी साहित्य में शोध की संभावनाएं :- डॉक्टर गंगा सहाय मीणा【असिस्टेंट प्रोफेसर – जेएनयू】
लिंक :- https://youtu.be/Jpjz5aDqWKk
60. शोध प्रविधि में नवाचार :-  प्रोफेसर देवशंकर नवीन【आलोचक व आचार्य】
लिंक :- https://youtu.be/xSz4f66n02g
61. अज्ञेय और मुक्तिबोध : प्रतिश्रुति के क्षेत्र :-  प्रोफेसर अनिल राय【आचार्य – दी द उ गोरखपुर विश्वविद्यालय】
लिंक :- https://youtu.be/pprMVAgEeec

62. कोरोजीवी कविता : प्रक्रिया और पाठ :- प्रोफेसर श्रीप्रकाश शुक्ल【कवि व आचार्य – बीएचयू】
लिंक :- https://youtu.be/BSor_9zVY-s
63. महामारी में मदन कश्यप :- कवि श्रीप्रकाश शुक्ल【आचार्य – बीएचयू】
लिंक :- https://youtu.be/8ScfqJBOrmY
64. डॉक्टर राहत इंदौर साहब :- डॉ. लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता【असिस्टेंट प्रोफेसर – इलहाबाद विश्वविद्यालय】
लिंक :- https://youtu.be/tHVxRFcbF5A
65. अन्य विषयों के लिए यूट्यूब लिंक :- https://www.youtube.com/c/GolendraGyan


संकलन कर्ता :- युवा कवि गोलेन्द्र पटेल【स्नातक का छात्र , काशी हिंदू विश्वविद्यालय , वाराणसी】

परिचय :-
नाम :- गोलेन्द्र पटेल
जन्म :- ०५-०८-१९९९
शिक्षा :- बीएचयू में स्नातक का छात्र【हिंदी हॉनर्स , तृतीय वर्ष】
माता-पिता :- श्रीमती उत्तम देवी – श्री नन्दलाल
भाषा :- हिंदी
विधा :- कविता 
पता :- ग्राम-खजूरगाँव , पोस्ट-साहुपुरी ,जिला-चंदौली , उत्तर प्रदेश , भारत।
पिन कोड :- 221009
ह्वाट्सएप नं. :- 8429249326
ईमेल :- corojivi@gmail.com


नोट :- यह पीडीएफ नोटस् दृष्टिबाधित विद्यार्थी साथियों के कहने पर तैयार किया गया है। अतः आप से साहित्यिक सहृदय सविनय निवेदन है कि आप इसे दृष्टिबाधित एवं दिव्यांग विद्यार्थियों तक पहुंचने की कृपा करें। जिससे वे हिंदी भाषा व  साहित्य का अध्ययन-अनुशीलन करने में “उक्त वक्तव्य निधियों” का सहयोग ले सकें। 

दिव्यांग साथियों के अभिभावकों से अतिविनम्र निवेदन है कि आप निम्न लिंक पर क्लिक कर यूट्यूब चैनल , फेसबुक पेज और ब्लॉग पेज से जुड़ें। यहाँ अध्ययन के लिए बहुत सारी सामग्री उपलब्ध है और होता रहेगा। आप हमारे ह्वाट्सएप नंबर पर रविवार को संपर्क कर सकते हैं। संपर्क समय :- सुबह 8 बजे से 12 बजे तक।

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दिव्यांगसेवी
गोलेन्द्र पटेल
स्नातक का छात्र
काशी हिंदू विश्वविद्यालय , वाराणसी

Monday, 21 December 2020

नए वर्ष पर केंद्रित कविताओं का संकलन : नीरज कुमार मिश्र {©Neeraj Mishra} और गोलेन्द्र पटेल की कविताएं



नये साल पर केंद्रित गोलेन्द्र पटेल की कविताएँ :-

1).

*नव वर्ष का नया राग*

वे देश को दुहने के लिए
प्रतिबद्ध हैं
संबद्ध हैं
आबद्ध हैं
मगर मैं प्रतीक्षास्तब्ध हूँ
कि
गर्द है, धुआँ है, सर्द है और
आग है
नव वर्ष का नया राग है
जहाँ पेड़ की फुनगियों पर
उम्मीदें कायम हैं
टूट, ओ पीड़ा के पर्ण
पतझड़
वसंत से पहले आया है

गम के ग्रीटिंग कार्ड में लिखीं नम आँखें
कि नदी, जंगल, पहाड़ और सागर 
सुनो, इस दौर में ठौर नहीं है
कौर नहीं है
घर-घर में घुप अँधेरा घूर्ण है 
पूर्ण मन चूर्ण है
यह ख़त अपूर्ण है

सूरज लुढ़क गया है
उम्र की ढलान पर और 
पृथ्वी डूब रही है
आसमान के संचित आँसू में
लेकिन
युवा उलट कर हो गया वायु
या यह कहूँ 
कि उसकी आत्मा का अव्यय 
वाह
वह हवा है 
जो सरहद के पार जाती है
शुभकामना लेकर!

2).

*नये साल का नया स्वर*

मैं चाहता हूँ
जीवन के वन में कोयल कूजे
हर घर में 
समरसता, सर्वधर्म और समभाव की वाणी गूँजे
मैं चाहता हूँ
हर कवि की कविता में
सरिता लोरी गाए
सागर संगीतबद्ध हो जाए
और धरती की धुन में सनी
आसमान की लय उतर आए
मैं चाहता हूँ
पेड़ फूले-फले
और पहाड़
आदमी के कद से ऊँचा रहे
मैं चाहता हूँ
भाषा में सूप भर धूप
और रूप अमर
सुंदर अक्षर
मैं चाहता हूँ
सृजन के शोर में 
नया साल का नया स्वर
मैं चाहता हूँ
खेतों में सूरज उगे
चेतना की चिड़िया 
दाना चुगे!

3).

*नव वर्ष का हर्ष संघर्ष है!*

जनवरी! दिसंबर को पता है
बीतना एक नयी मुबारकबाद का मुहावरा है

उम्मीद की उड़ान भरी हुई
चेतना की चिड़िया
आसुओं की नदी को पार 
करती हुई उसमें
अपना चेहरा देखती है

और देखती है सूरज
डूब रहा है
वह निर्निमेष निहारती है
पेड़ों के प्रतिबिंबों को
और महसूस करती है 
मछलियों का पहाड़-सा दुःख
लेकिन लहरों के कुछ लम्हे
धारदार स्मृति की पहचान है

गत और आगत के बीच तट पर
हरा-भरा है घाव
सागर के इस छोर से उस छोर तक
जीवन की नाव 
पीड़ा की पतवार से खेती हुई
मल्लाहिन
चक्कर लगा रही है
मछलियों की तलाश में 
हताश होकर
अपने अस्तित्व का अर्थ
जानना चाह रही है
भँवर बीच 
भीतर के जल से

जहाँ नीरव शून्यता में नव वर्ष का हर्ष 
असल में अवनि पर स्वप्न का संघर्ष है!

कवि : गोलेन्द्र पटेल
संपर्क :
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com

नए वर्ष पर केंद्रित कविताओं का संकलन : नीरज कुमार मिश्र

 

(१). नववर्ष - सोहनलाल द्विवेदी

 

"स्वागत! जीवन के नवल वर्ष

आओ, नूतन-निर्माण लिये,

इस महा जागरण के युग में

जाग्रत जीवन अभिमान लिये;

दीनों दुखियों का त्राण लिये

मानवता का कल्याण लिये,

स्वागत! नवयुग के नवल वर्ष!

तुम आओ स्वर्ण-विहान लिये।

संसार क्षितिज पर महाक्रान्ति

की ज्वालाओं के गान लिये,

मेरे भारत के लिये नई

प्रेरणा नया उत्थान लिये;

मुर्दा शरीर में नये प्राण

प्राणों में नव अरमान लिये,

स्वागत!स्वागत! मेरे आगत!

तुम आओ स्वर्ण विहान लिये!

युग-युग तक पिसते आये

कृषकों को जीवन-दान लिये,

कंकाल-मात्र रह गये शेष

मजदूरों का नव त्राण लिये;

श्रमिकों का नव संगठन लिये,

पददलितों का उत्थान लिये;

स्वागत!स्वागत! मेरे आगत!

तुम आओ स्वर्ण विहान लिये!

सत्ताधारी साम्राज्यवाद के

मद का चिर-अवसान लिये,

दुर्बल को अभयदान,

भूखे को रोटी का सामान लिये;

जीवन में नूतन क्रान्ति

क्रान्ति में नये-नये बलिदान लिये,

स्वागत! जीवन के नवल वर्ष

आओ, तुम स्वर्ण विहान लिये!"


(२).ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं-रामधारीसिंह दिनकर


"ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं

है अपना ये त्यौहार नहीं

है अपनी ये तो रीत नहीं

है अपना ये व्यवहार नहीं

धरा ठिठुरती है सर्दी से

आकाश में कोहरा गहरा है

बाग़ बाज़ारों की सरहद पर

सर्द हवा का पहरा है

सूना है प्रकृति का आँगन

कुछ रंग नहीं , उमंग नहीं

हर कोई है घर में दुबका हुआ

नव वर्ष का ये कोई ढंग नहीं

चंद मास अभी इंतज़ार करो

निज मन में तनिक विचार करो

नये साल नया कुछ हो तो सही

क्यों नक़ल में सारी अक्ल बही

उल्लास मंद है जन -मन का

आयी है अभी बहार नहीं

ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं

है अपना ये त्यौहार नहीं

ये धुंध कुहासा छंटने दो

रातों का राज्य सिमटने दो

प्रकृति का रूप निखरने दो

फागुन का रंग बिखरने दो

प्रकृति दुल्हन का रूप धार

जब स्नेह – सुधा बरसायेगी

शस्य – श्यामला धरती माता

घर -घर खुशहाली लायेगी

तब चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि

नव वर्ष मनाया जायेगा

आर्यावर्त की पुण्य भूमि पर

जय गान सुनाया जायेगा

युक्ति – प्रमाण से स्वयंसिद्ध

नव वर्ष हमारा हो प्रसिद्ध

आर्यों की कीर्ति सदा -सदा

नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा

अनमोल विरासत के धनिकों को

चाहिये कोई उधार नहीं

ये नव वर्ष हमें  स्वीकार नहीं

है अपना ये त्यौहार नहीं

है अपनी ये तो रीत नहीं

है अपना ये त्यौहार नहीं।"


(३).फिर वर्ष नूतन आ गया -हरिवंशराय बच्चन

 

"फिर वर्ष नूतन आ गया!

सूने तमोमय पंथ पर,

अभ्यस्त मैं अब तक विचर,

नव वर्ष में मैं खोज करने को चलूँ क्यों पथ नया।

फिर वर्ष नूतन आ गया!

निश्चित अँधेरा तो हुआ,

सुख कम नहीं मुझको हुआ,

दुविधा मिटी, यह भी नियति की है नहीं कुछ कम दया।

फिर वर्ष नूतन आ गया!

दो-चार किरणें प्यार कीं,

मिलती रहें संसार की,

जिनके उजाले में लिखूँ मैं जिंदगी का मर्सिया।

फिर वर्ष नूतन आ गया!"


(४).नवल हर्षमय नवल वर्ष यह-सुमित्रानंदन पंत

 

"नवल हर्षमय नवल वर्ष यह,

कल की चिन्ता भूलो क्षण भर;

लाला के रँग की हाला भर

प्याला मदिर धरो अधरों पर!

फेन-वलय मृदु बाँह पुलकमय

स्वप्न पाश सी रहे कंठ में,

निष्ठुर गगन हमें जितने क्षण

प्रेयसि, जीवित धरे दया कर!"

 

(५).गए साल की - केदारनाथ अग्रवाल

 

"गए साल की

ठिठकी ठिठकी ठिठुरन

नए साल के

नए सूर्य ने तोड़ी।

देश-काल पर,

धूप-चढ़ गई,

हवा गरम हो फैली,

पौरुष के पेड़ों के पत्ते

चेतन चमके।

दर्पण-देही

दसों दिशाएँ

रंग-रूप की

दुनिया बिम्बित करतीं,

मानव-मन में

ज्योति-तरंगे उठतीं।"


(६).नए साल की शुभकामनाएं ! -सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

 

"नए साल की शुभकामनाएँ!

खेतों की मेड़ों पर धूल भरे पाँव को

कुहरे में लिपटे उस छोटे से गाँव को

नए साल की शुभकामनाएं!

जाँते के गीतों को बैलों की चाल को

करघे को कोल्हू को मछुओं के जाल को

नए साल की शुभकामनाएँ!

इस पकती रोटी को बच्चों के शोर को

चौंके की गुनगुन को चूल्हे की भोर को

नए साल की शुभकामनाएँ!

वीराने जंगल को तारों को रात को

ठंडी दो बंदूकों में घर की बात को

नए साल की शुभकामनाएँ!

इस चलती आँधी में हर बिखरे बाल को

सिगरेट की लाशों पर फूलों से ख़याल को

नए साल की शुभकामनाएँ!

कोट के गुलाब और जूड़े के फूल को

हर नन्ही याद को हर छोटी भूल को

नए साल की शुभकामनाएँ!

उनको जिनने चुन-चुनकर ग्रीटिंग कार्ड लिखे

उनको जो अपने गमले में चुपचाप दिखे

नए साल की शुभकामनाएँ!"


(७).साल मुबारक! -अमृता प्रीतम


"जैसे सोच की कंघी में से

एक दंदा टूट गया

जैसे समझ के कुर्ते का

एक चीथड़ा उड़ गया

जैसे आस्था की आँखों में

एक तिनका चुभ गया

नींद ने जैसे अपने हाथों में

सपने का जलता कोयला पकड़ लिया

नया साल कुझ ऐसे आया...

जैसे दिल के फ़िक़रे से

एक अक्षर बुझ गया

जैसे विश्वास के काग़ज़ पर

सियाही गिर गयी

जैसे समय के होंटो से

एक गहरी साँस निकल गयी

और आदमज़ात की आँखों में

जैसे एक आँसू भर आया

नया साल कुछ ऐसे आया...

जैसे इश्क़ की ज़बान पर

एक छाला उठ आया

सभ्यता की बाँहों में से

एक चूड़ी टूट गयी

इतिहास की अंगूठी में से

एक नीलम गिर गया

और जैसे धरती ने आसमान का

एक बड़ा उदास-सा ख़त पढ़ा

नया साल कुछ ऐसे आया..."

 

(८).नए साल का कार्ड -लीलाधर मंडलोई

 

"कितना अजीब है यह कार्ड कि बोलता नहीं-‘सब खैरियत है’

न केवल पेड़-पौधे

न केवल अरब सागर

गायब है धरती, अंतरिक्ष गायब

भाग रहे हैं तमाम पखेरू नये ठिकानों की फिक्र में

कोई ऐसी जगह नहीं

कि चिलकती हो माकूल जगह

सिर्फ गर्द है, धुआँ है, आग है और

और असंख्य छायाएँ छोड़तीं ठिकाने

वर्दियों से अटा कितना अजीब है यह कार्ड

कि बोलता नहीं-‘सब खैरियत है।"


(९).वर्ष नया -अजित कुमार


"कुछ देर अजब पानी बरसा ।

बिजली तड़पी, कौंधा लपका …

फिर घुटा-घुटा सा, घिरा-घिरा

हो गया गगन का उत्तर-पूरब तरफ़ सिरा ।

बादल जब पानी बरसाये

तो दिखते हैं जो,

वे सारे के सारे दृश्य नज़र आये ।

छप-छप,लप-लप,

टिप-टिप, दिप-दिप,-

ये भी क्या ध्वनियां होती हैं ॥

सड़कों पर जमा हुए पानी में यहां-वहां

बिजली के बल्बों की रोशनियां झांक-झांक

सौ-सौ खंडों में टूट-फूटकर रोती हैं।

यह बहुत देर तक हुआ किया …

फिर चुपके से मौसम बदला

तब धीरे से सबने देखा-

हर चीज़ धुली,

हर बात खुली सी लगती है

जैसे ही पानी निकल गया ।

यह जो आया है वर्ष नया-

वह इसी तरह से खुला हुआ ,

वह इसी तरह का धुला हुआ

बनकर छाये सबके मन में ,

लहराये सबके जीवन में ।

दे सकते हो ?

--दो यही दुआ ।"


(१०).नव वर्ष मंगलमय हो-अनिल करमेले


"यह उठते हुए नए साल की सुबह है

धुंध कोहरे और काँपती धरती की

अजीब स्तब्ध सनसनी में छटपटाती

सूरज भी जैसे मुँह छुपा रहा

बीते साल के रक्तिम सवालों से

चमक रहे हैं मक्कार चेहरे वैसे ही

वैसे ही जुटे हुए हैं

सभी किस्म के हत्यारे

करोड़ों बच्चे काम के रास्ते में हैं

उत्तर आधुनिक नरक में हैं करोड़ों स्त्रियाँ

एक बड़े व्यापारिक घराने

और उस पर लुढ़कते शेयर बाज़ार पर

औंधे मुँह पड़ा है मीडिया

और बिकती गवाहियों की

क्रुर मुस्कराहटों पर

हाय-हाय करता हुआ न्याय

मुआवज़े की कुछ नहीं जैसी राहत से

ज़हरीली साँसों को बमुश्किल थामे हुए

फिर तिनके जुटा रहे हैं

शहर के बाशिंदे

इस देश के सच्चे धार्मिक

फिर रोने-रोने को हैं

अधर्मियों की कारगुज़ारियों पर

फिर शुरू होने जा रही हैं

सियासी कलाबाजियाँ

मधुबालाओं और मीनाकुमारियों

की जूतियों की धूल

कई मल्लिकाएँ

अश्लील चुटकुलों की तरह

हमारे ड्राइंग रूम में

बरस रही हैं लगातार

कल जैसा ही हाहाकार है चहुँ ओर

कल जैसे ही दु:ख हैं और

आँखें हैं आँसू भरी-भरी

कल के असीम जश्न के बाद

यह नया साल है

जीवन है पेड़ हैं बच्चे हैं

उम्मीदें कायम हैं

अब का समय सुख का बीते

नए साल में यही मंगल कामनाएँ हैं।"


(११).नए साल की पहली नज़्म -परवीन शाकिर

 

"अंदेशों के दरवाज़ों पर

कोई निशान लगाता है

और रातों रात तमाम घरों पर

वही सियाही फिर जाती है

दुःख का शब-खूं रोज़ अधूरा रह जाता है

और शिनाख्त का लम्हा बीतता जाता है

मैं और मेरा शहर-ए-मोहब्बत

तारीकी की चादर ओढ़े

रोशनी की आहट पर कान लगाये कब से बैठे हैं

घोड़ों की टापों को सुनते रहते हैं

हद्द-ए-समाअत से आगे जाने वाली आवाजों के रेशम से

अपनी रिदा-ए-सियाह पे तारे काढ़ते रहते हैं

अन्गुश्ताने इक-इक करके छलनी होने को आए

अब बारी अंगुश्त-ए-शहादत की आने वाली है

सुबह से पहले वो कटने से बच जाए तो।"

 

(१२).नई सुबह -कुँअर रवीन्द्र

 

"चलो,

पूरी रात प्रतीक्षा के बाद

फिर एक नई सुबह होगी

होगी न,

नई सुबह?

जब आदमियत नंगी नहीं होगी

नहीं सजेंगीं हथियारों की मंडिया

नहीं खोदी जायेगीं नई कब्रें

नहीं जलेंगीं नई चिताएँ

आदिम सोच, आदिम विचारों से

मिलेगी निजात

होगी न,

नई सुबह?

सब कुछ भूल कर

हम खड़े हैं

हथेलियों में सजाये

फूलों का बगीचा,

पूरी रात जाग कर

फिर एक नई सुबह के लिए

होगी न

नई सुबह?"


(१३).नया वर्ष- अनिल जनविजय

 

"नया वर्ष

संगीत की बहती नदी हो

गेहूँ की बाली दूध से भरी हो

अमरूद की टहनी फूलों से लदी हो

खेलते हुए बच्चों की किलकारी हो नया वर्ष

नया वर्ष

सुबह का उगता सूरज हो

हर्षोल्लास में चहकता पाखी

नन्हें बच्चों की पाठशाला हो

निराला-नागार्जुन की कविता

नया वर्ष

चकनाचूर होता हिमखण्ड हो

धरती पर जीवन अनन्त हो

रक्तस्नात भीषण दिनों के बाद

हर कोंपल, हर कली पर छाया वसन्त हो।"


(१४).नया साल उन बच्चों के नाम - रंजना भाटिया

 

"नया साल.....

उन बच्चो के नाम

जिनके पास

न ही है रोटी

न ही है ,

कोई खेल खिलोने

न ही कोई बुलाए

उन्हें प्यार से

न कोई सुनाये कहानी

पर बसे हैं ,

उनकी आंखों में कई सपने

माना कि अभी है

अभावों का बिछोना

और सिर्फ़ बातो का ओढ़ना

आसमन की छ्त है

और घर है धरती का एक कोना

पर ....

उनके नाम से बनेगी

अभी कागज पर

कुछ योजनायें

और साल के अंत में

वही कहेंगी

जल्द ही पूरी होंगी यह आशाएं ...

इसलिए ,उम्मीद की एक किरण पर .

नया साल उन बच्चो के नाम ........"

 

संकलन- नीरज कुमार मिश्र


संपादक परिचय :-

नाम : गोलेन्द्र पटेल


उपनाम/उपाधि : 'गोलेंद्र ज्ञान' , 'युवा किसान कवि', 'हिंदी कविता का गोल्डेनबॉय', 'काशी में हिंदी का हीरा', 'आँसू के आशुकवि', 'आर्द्रता की आँच के कवि', 'अग्निधर्मा कवि', 'निराशा में निराकरण के कवि', 'दूसरे धूमिल', 'काव्यानुप्रासाधिराज', 'रूपकराज', 'ऋषि कवि',  'कोरोजयी कवि', 'आलोचना के कवि' एवं 'दिव्यांगसेवी'।

जन्म : 5 अगस्त, 1999 ई.

जन्मस्थान : खजूरगाँव, साहुपुरी, चंदौली, उत्तर प्रदेश।

शिक्षा : बी.ए. (हिंदी प्रतिष्ठा) व एम.ए., बी.एच.यू., हिंदी से नेट।

भाषा : हिंदी व भोजपुरी।

विधा : कविता, नवगीत, कहानी, निबंध, नाटक, उपन्यास व आलोचना।

माता : उत्तम देवी

पिता : नन्दलाल


पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन :


कविताएँ और आलेख -  'प्राची', 'बहुमत', 'आजकल', 'व्यंग्य कथा', 'साखी', 'वागर्थ', 'काव्य प्रहर', 'प्रेरणा अंशु', 'नव निकष', 'सद्भावना', 'जनसंदेश टाइम्स', 'विजय दर्पण टाइम्स', 'रणभेरी', 'पदचिह्न', 'अग्निधर्मा', 'नेशनल एक्सप्रेस', 'अमर उजाला', 'पुरवाई', 'सुवासित' ,'गौरवशाली भारत' ,'सत्राची' ,'रेवान्त' ,'साहित्य बीकानेर' ,'उदिता' ,'विश्व गाथा' , 'कविता-कानन उ.प्र.' , 'रचनावली', 'जन-आकांक्षा', 'समकालीन त्रिवेणी', 'पाखी', 'सबलोग', 'रचना उत्सव', 'आईडियासिटी', 'नव किरण', 'मानस',  'विश्वरंग संवाद', 'पूर्वांगन', 'हिंदी कौस्तुभ', 'गाथांतर', 'कथाक्रम', 'कथारंग' आदि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित।


विशेष : कोरोनाकालीन कविताओं का संचयन "तिमिर में ज्योति जैसे" (सं. प्रो. अरुण होता) में मेरी दो कविताएँ हैं और "कविता में किसान" (सं. नीरज कुमार मिश्र एवं अमरजीत कौंके) में कविता।


लम्बी कविता : 'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' एवं 'दुःख दर्शन'


अनुवाद : नेपाली में कविता अनूदित


काव्यपाठ : अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय काव्यगोष्ठियों में कविता पाठ।


सम्मान : अंतरराष्ट्रीय काशी घाटवॉक विश्वविद्यालय की ओर से "प्रथम सुब्रह्मण्यम भारती युवा कविता सम्मान - 2021" , "रविशंकर उपाध्याय स्मृति युवा कविता पुरस्कार-2022", हिंदी विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय की ओर से "शंकर दयाल सिंह प्रतिभा सम्मान-2023",  "मानस काव्य श्री सम्मान 2023" और अनेकानेक साहित्यिक संस्थाओं से प्रेरणा प्रशस्तिपत्र प्राप्त हुए हैं।


मॉडरेटर : 'गोलेन्द्र ज्ञान' , 'ई-पत्र' एवं 'कोरोजीवी कविता' ब्लॉग के मॉडरेटर और 'दिव्यांग सेवा संस्थान गोलेन्द्र ज्ञान' के संस्थापक हैं।


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"हरियाते बसंत में ज़हर" : नीरज कुमार मिश्र{©Neeraj Mishra}

 

     नीरज कुमार मिश्र

{युवा कवि व आलोचक}

 नीरज कुमार मिश्र  की कुछ कविताएँ :- 

1.

वायरस 


"पनपते हैं वायरस

प्रकृति और मानव मस्तिष्क में

वर्षों से

प्रकृति के ये वायरस सदियों में

आते हैं एक बार

और भरभरा जाती हैं 

विकास की इमारतें

चरमरा जाती हैं अर्थव्यवस्थाएं

धरे के धरे रह जाते हैं

अत्याधुनिक हथियार

जिन्हें युद्ध की विभीषिका में

जलते हुए विश्व ने

आपसी होड़ में विकसित किये थे

उन्होंने नहीं विकसित किये

चिकित्सा के उन्नत साधन

नहीं खड़े किये ऐसे अस्पताल

जो लड़ सकें इन वायरसों से

उन्होंने परमाणु बम बनाये

पर नहीं बनाये बहुत सारे वेंटिलेटर

जो टूटती साँसें थाम सकें

न उन्होंने बनाये ऐसे हथियार

जो मार सकें इन मृत्यु बीजों को

विश्व की विकसित ताकतों को

चिढ़ा रहे हैं ये वायरस 

हमें आगाह करते हैं

हमसे भी ज्यादा खतरनाक है

मानव- मस्तिष्क में

पनप रहा वायरस

जो किसी दवा से नहीं मरता।"


2.

कोई हाथ भी न मिलाएगा,

क्यों गले मिलो तपाक से,

ये नए कोरोना का शहर है

एक मीटर के फ़ासले से मिला करो।

रखो तन और मन की सफाई,

घर से निकलते हुए

मुँह में मास्क कसा करो।।

मत रखो चेहरे पे हाथ बार बार

अपने हाथ पर ही रखो ध्यान

हर जगह हर बार उसे धुला करो।

न आयेगा फिर कोरोना पास कभी

इसकी हो रही जाँच में 

सभी खुलकर मदद किया करो।।

न हो निकलना बहुत जरूरी

अपने काम घर में रहकर किया करो।

घर में रहना ही इससे बड़ा बचाव है

ये मंत्र सभी को दिया करो।।


3.
उदास दिन

" आज दिन
बहुत उदास है
बीमार बेटी लेटी है चुपचाप
उसकी आँखों के अनंत में
कहीं खो गया हूँ 
घर को बुहारती पत्नी
खाली बैठे देख 
कुछ बुदबुदा रही है
मन का खालीपन
घर के खालीपन से ज़्यादा
कचोटता है मन को
कई सवाल खड़े होकर
चिढ़ाते हैं 
अंदर कुछ टूट सा जाता है
जब घुल जाता है
हरियाते बसंत में ज़हर
अंदर के मुरझाये
उस बसंत से
सपने तितली बन
चले जाते हैं कहीं दूर
दुनियाँ की तमाम
बेटियों की आँखों में
उन तितलियों को 
वापस लाने की चाह में
अपने अंदर के खालीपन 
से लड़ रहा हूँ लगातार
घर के खाली कोने में।

4.

"इन फिज़ाओं में,
साज़िशों के खंज़र बहुत हैं।
इस शांति के शहर में,
हिंसा के मंजर बहुत हैं।।
है कौन सी मज़बूरी,
चुप हैं सब अब तलक।
इस बोलते शहर में,मातमें ख़ामोशी बहुत है।।
साज़िशें ले रही हैं इम्तिहान,
गली मुहल्लों में।
हमारा फेल होना इस कदर,
उन्हें गवारा बहुत है।।"


5.

        "आग"

"आग याद आते ही
याद आती है 
आदिमानव की 
वो सभ्यता
जब आदि मानव ने,
भोजन के निमित्त
पत्थरों से पैदा की थी आग।
उस आग ने
समय के साथ
बदल लिए अपने रंग,रूप और उद्देश्य
बदल ली अपनी नियति।
आज वही आग
मनुष्यों की महत्त्वाकांक्षा से जुड़ गई
उस आग में घुल गई
मनुष्य की अदम्य लालसा
उसका ओछापन
इस ओछेपन ने शर्मसार की मानवता
इसी आग से
एक तरफ 
जलाई जा रही हैं लड़कियाँ,
दूसरी तरफ
जलाये जा रहे हैं शिक्षा प्रतिष्ठान।
जहाँ तनी हुई मुठ्ठी
उठ खड़ी हुई ये आवाज़ें
प्रतिरोध की आग से उपजी हैं
आग समाज नहीं गढ़ती
आग खत्म करती है
सर्वधर्म समभाव की भावना
समाज में फैली हर आग
एकाकार हो
जले केवल चूल्हों में
जिसकी पकी रोटी 
खा सकें रहमान चचा और रामूकाका 
के भूखें बच्चे
घर जलाना नहीं होता 
आग का काम
आग का केवल 
एक ही काम होना चाहिए
पेट में लगी आग 
को बुझाना।

6.

रास्ते


"रास्तों पर चलने वाले

संसद में पहुँचते ही

भूल जाते हैं रास्तों पर

चलने वालों की पीड़ा


कौन चाहता है रास्तों पर

मीलों मील चलना 

अपने देश ने जिनके

पेट पर जड़ दिए हैं

सुरक्षा के नाम पर ताले

ऐसे मुश्किल समय में

साथ नहीं देता कोई अपना

साथ देते हैं वो रास्ते

जिन पर सपनों के पंख लगा

उड़ आये थे हम

उम्मीदों का झोला टाँगे 

कितनी दूर इस शहर में


ये वही शहर है

जिसकी विकसित इमारत

की एक एक ईंट

हमने उठाई है

अपने वृषभ कंधों पर

आज उसी विकसित शहर ने

हमें घरों से निकाल

भूख और बेबसी के चौराहे पर छोड़ दिया 


ऐसे संकट के समय में

रास्ते थाम लेते हैं हाथ

रास्ते वही होते हैं

बस बदल लेते हैं 

अपनी दिशाएँ

मुश्किल समय में।" 


7.

यही तो जीवन है


" हर तरफ छाई है खामोशी

बाग में खाली पड़े झूले 

बच्चों के इंतजार में

खुद ही झूल रहे हैं 

अपने दुःखों की रस्सी में

बाग के बीचों बीच रक्खा

सकोरा

पानी के इंतज़ार में

अंदर ही अंदर सूख रहा है

एक कवि गाहेबगाहे

उसमें डाल जाता है पानी

बाग की नीरसता को देख

सकोरा

अपने आँसुओं को

छिपाता है 

अपने ही पानी में

उसके दुःख से दुःखी

पेड़ से झड़ने को

बेताब हैं हरी पत्तियाँ

पीली पत्तियों को गिरते देख 

वे भी झड़ जाती हैं उसी में

उसके दुःख में शामिल होने

पत्तियाँ जानती हैं

पेड़ों से बिछड़ने का दर्द

दूसरों के दुःख को

अपना दुःख समझना

उन्होंने सीखा है पेड़ से

पेड़ लड़ता है मुश्किल समय से

और देता है हमें खुशियाँ

सकोरा फिर भी उदास है

कुछ दिनों से

नहीं आई श्यामा चिरइया

न आई गबद्दो गिलहरी 

जो खेलते थे पकड़म पकड़ाई

उसके चारों ओर

और वह मचल जाता था

एक बच्चे की तरह

बाग में खिले फूल 

सूख गए हैं

उड़ गए हैं उनके रंग

जिनमें बैठ 

मधुमक्खियों गपसप करती हुईं

लेती थीं जीवन के लिए

रंग,गंध और रस

जीवन रस लिए

औरों को सुखी बनाने

की चाह में

निकली ये मधुमक्खियाँ

थक-हार बैठ गई हैं

सकोरे के ऊपर

उसके उदास पानी को देख

उड़ेल दिए उन्होंने

अपने जीवन के लिए 

सहेजे सारे रंग और रस

सकोरा इस उदारता से

अंदर तक भीग गया

और मुस्कराकर बोला

यही तो जीवन है।"


8.

फूल का एकांत


" एकांत ने घरों में 

डाल लिया है डेरा

कबूतर बालकनी में बैठ

झाँकते हैं घरों के अंदर

घरों के अंदर पसरा सन्नाटा

उन्हें बेचैन करता है

और वो उड़ जाते हैं कहीं दूर

बाग के कोने में खड़ा फूल

बगल से गुजरती

स्कूल जाती उस लड़की

का रास्ता देख रहा है

जो साझा करती थी

हर रोज़ उससे 

अपना सुख-दुःख

उसके कोमल छुवन से 

झूम जाता था उसका

अंतर्मन

और खिल जाते थे अनंत 

फूल वहाँ

आज उसके पास तितलियाँ

भी नहीं आतीं रस लेने

एकांत में खड़ा फूल 

आज बहुत उदास है

उदास है वहाँ की हवा

जिसमें जहर घुल गया है

अनायास

लोग उसे ही कोस रहें

कि इसी ने फैलाया है

उस वायरस को सब जगह

जिसने बढ़ा दी हैं दूरियाँ

आपसी संबंधों के बीच

हवा जाना चाहती है

सृष्टि के किसी दूर

एकांत कोने में

उस फूल को भी 

ले जाना चाहती

अपने साथ

जो उस बाग के एकांत में 

खड़ा है चुपचाप। "


9.

पलाश 


"केन की कगार पर

उसके कर्मठ पानी को निहारता

उन्नत सर किये खड़ा है पलाश

अपनी बाहें फैलाये

पक्षियों को न्यौतता

कि आओ अपना घरौंदा बनाओ

मुझ में बस जाओ

पलाश की जड़ें 

बुंदेलखण्ड की भूमि में धसीं

पी रही हैं केन का ऊर्वर पानी

जिससे संचित हुआ ये पलाश

उगल रहा है लाल-लाल फूल

जो क्रांति के गीत गाते

झूल रहे हैं

बसंती हवा में

विषम-परिस्थिति में भी

अपने अस्त्तित्व की लड़ाई

लड़ता हुआ ये पलाश

हमें इस विकट समय में

लड़ने का साहस देता है।"

©नीरज कुमार मिश्र
संपर्क सूत्र : 08076366801



संपादक परिचय :-

नाम : गोलेन्द्र पटेल

【काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बीए तृतीय वर्ष का छात्र {हिंदी ऑनर्स 

सम्पर्क सूत्र :-

ग्राम-खजूरगाँव , पोस्ट-साहुपुरी , जिला-चंदौली , उत्तर प्रदेश , भारत। 221009

ह्वाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com

नोट :-

दृष्टिबाधित(दिव्यांग) विद्यार्थी साथियों के लिए यूट्यूब चैनल लिंक : -

https://www.youtube.com/c/GolendraGyan

और फेसबुक पेज़ :-

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Sunday, 6 December 2020

रविशंकर उपाध्याय {१२ जनवरी १९८५-१९ मई २०१४} की कुछ कविताएँ : गोलेन्द्र पटेल {©Dr.Ravishankar Upadhyaya}

 

रविशंकर उपाध्याय {१२ जनवरी १९८५-१९ मई २०१४की कविताएँ ...

जन्म स्थान : बिहार के कैमूर जिला

शिक्षा  - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय सेस्नातक और परास्नातक (हिंदी),  यहीं से कुंवर  नारायण की कविताओं पर शोध भी किये थे।

हिंदी विभाग की पत्रिका "संभावना" के आरंभिक कुछ अंको का सम्पादन भी किये थे।


1...आवाज


धूसर काली स्लेट पर

खड़िया से अंकित थी एक आवाज़

जिसे हमारे पूर्वजों ने संजो रखा था

गोड़ाने की खेत में

आज वहाँ शिलान्यास का उत्सव था

और चरनी पर बुलडोजर चलने की बारी

एक घुँघराले बालों वाला महामानव

फैला रहा था अपनी बांहें

घने होने लगे थे काले बादल

मैं उस आवाज को पकड़ना चाहता हूँ

जो अब मुझसे दूर जा रही है।


२ ... भूख

तुम भूखे हो


लूटने के लिए


हम भूखें है


क्योंकि


लुट चुके।




3... मुगलसराय ज़क्शन का सर्वोदय बुक स्टाल


पटरियों पर दौड़ती रेल और उसकी

सीटियों के बीच

अलसुबह, प्रकाश खड़ा हो जाता है

किताबों के साथ

उस स्टेशन पर जिसे लोग ट्रेनों का मायका कहते है

मैं जब भी कहीं से लौटता हूँ

अपने गृह जनपद से सटे सबसे बड़े रेलवे स्टेशन पर

लौटता हूँ

जैसे माँ लौटती है अपने मायके

दीदी लौटती है जैसे अपने गाँव

मेरे जनपद का हर बंदा लौटता है परदेश से

उसी तरह

इस स्टेशन पर

यहाँ लौटते ही लगता है हर सुर-लय-ताल

सम पर आ गये है

रेल की कर्कश ध्वनि यहाँ संगीत में बदल जाती है

और सर्वोदय बुक स्टाल में चलती बहस

एक तान में

किताबों के पन्नों की फड़फड़ाहट

और ट्रेन के पहियों के बीच शुरू हो जाती है जुगलबंदी

प्रकाश का हर ग्राहक उसके लिए महज एक ग्राहक

नहीं होता

वह होता है, मुहिम का एक साथी

और हर किताब एक नारा

जिसे थमाकर वह अपने आन्दोलन को

और विस्तृत करता है

हर ग्राहक की स्मृति को संजो लेता है

अपनी डायरी में

और खुद बन जाता है स्मृति का हिस्सा

इस शहर के हर छोटे-बड़े लिखने-पढ़ने वालों की यह अड़ी है

जहाँ हर कोई करता है जुगाली

और धीरे-धीरे ज्ञान उसके भीतर

रिसने लगता है

मैं जब बढ़ता हूँ आगे

स्मृतियाँ भी होती है साथ

याद आती है माँ की वो बात

कि जब वह जाती है अपने मायके

वहाँ के धूल और फूल के साथ बंध जाती है

वाणी थोड़ी और मुखर हो उठती है

पाँव थिरकने लगते है

मन कुलाचें भरने लगता है

पूरी प्रकृति पंचम स्वर में लगती है गाने

उस संगीत के मिठास में, मैं चुपके से घुल जाता हूँ

जैसे सब्जी में घुल जाता है नमक!


4...भ्रम

तुम्हारी धुरी पर


घूम रहा है


समय


तुम्हें भ्रम है कि


तुम्हारी धुरी पर


घूम रही है


पृथ्वी।      



5... तुम्हारा आना

तुम्हारा आना


ठीक उसी तरह है


जैसे रोहिणी में वर्षा की बूँदें


धरा पर आती हैं पहली बार


जैसे रेड़ा के बाद फूटते हैं धान


और समा जाती है एक गंध मेरे भीतर।


तुम्हारा आना महज आना नहीं है


बल्कि एक मंजिल की यात्रा है


जिसमें होते है हम साथ


वहाँ कभी फिसलना होता है तो


कभी संभलना भी


उठना होता है तो कभी गिरना भी।


तुम्हारे होने की वजह से


शान्त जल में उठती रहती है लहरें


घुप्प अंधेरे में भी कहीं चमकती है एक रोशनी


तुम्हारा होना महज होना नहीं है


तुम्हारा आना सिर्फ आना भी नहीं है


और न आकर रूक जाना है


बस, चलना है, चलते जाना है।




6... निःशब्द ध्वनि चित्र

ढलती रात में आसमान के नीचे

ध्रुवतारे को निहारती

मेरी आँखें सप्तर्षियों पर जा टिकी

जो चारपाई के पाये से जुड़े

एक डंडे की तरह चुपचाप टिके हुए थे

हवा बार-बार आकर झकझोरती

और चाहती कि मेरा निहारना बंद हो जाए

मगर मेरी आँखें अडिग थीं

लेकिन इसकी भी तो सीमा है

जैसे इस असीम में हर किसी की सीमा है

पता नहीं कब मैं नींद में डूब गया

मगर आँखे बंद नहीं हुईं

(कहते है आँखें तो एक ही बार बंद होती हैं

वो हमेशा खुली रहती हैं

कभी बाहर तो कभी भीतर की ओर)

इसे पता नहीं कब हमारे पूर्वजों ने

सपने की संज्ञा दे दी

आज वही सपना मेरा दोस्त था

और मैं उसके साथ निरूद्देश्य चला जा रहा था

कि अचानक नदी किनारे पहुँच गया

मेरे और सपने के बीच कोई बात

नहीं हो रही थी

वातावरण बिल्कुल शांत था

नदी का पानी भी शांत ही था

हाँ! कभी-कभी हलचल होती

जब नदी के अरार से

मिट्टी टूटकर छपाक-छपाक गिरती

और नदी में समा जाती

जैसे कोई पुराना रिश्ता हो उससे।

मैं इस दृश्य को देखने लगा

उस पल यह नदी मेरे लिए अनजानी थी

बस मेरा परिचय

उस नदी के साथ

बह रहे रेत कणों से था

और टूट-टूट कर गिरने वाली इस मिट्टी से

जो अब मुझसे ओझल हो रही थी

लेकिन इस ओझल हो रहे पल में भी

मिट्टी के टूट-टूट कर गिरने का दृश्य

मेरे भीतर अटका हुआ था

कि मेरी आँखे बाहर की ओर खुल गईं

और मेरा मित्र सपना

मुझसे विदा लेकर जा चुका था

कि ठीक इसी वक्त ऊपर से एक तारा

टूटकर गिर रहा था

इसी समय-गिर रही थी

चाँदनी, ओंस की बूँदे और पेड़ से पत्ते

इन सबको गिरते देखते हुए

मैं उस मिट्टी के गिरने को

देखना चाह रहा था

जो अब भी अँटकी थी मेरे भीतर।


7.

बरगद

मेरे गाँव के बीचों-बीच

खड़ा है एक बरगद

निर्भीक निश्च्छल और निश्चित।

उसी के नीचे बांटते है सुख-दुःख

गांव के पुरनिया

बच्चे डोला-पाती खेलते हैं

सावन में उठती है

कजरी की गूँजे

मदारी का डमरू और किसी घुमक्कड़ बाबा

की

धुनी भी

रमती है, उसी के नीचे।

लेकिन कब उपजा

यह बरगद

मुझे पता नहीं।

मैं जब भी गांव जाता हूँ पहले उसी से नजर

मिलती है

लगता है

दादा और परदादा की आंखें

उसी पर टंगी हैं

और वे मुझे ही

टुकुर-टुकुर ताकती हैं।

उसके पास पहुँचते ही

लगता है

कि इसके एक-एक रेशे में

समाया है पूरा गांव

मेरी पूरी दुनिया

आज उससे कई बरोह झूल रहे हैं

और वे धरती को चूम रहे हैं

जैसे नन्हा सा बच्चा

अपनी मां को चूमता है।


8.

सबसे तेज

हम सभी मित्र बहस में डूबे हुए थे

कि

बाहर से आते ही एक मित्र ने कहा

कि सबसे तेज चलती है खोपड़ी

दूसरे मित्र ने छूटते ही कहा कि

नहीं, खोपड़ी में बैठा सबसे तेज चलता है मस्तिष्क

कुछ लोगों को लगता है यही मुनासिब कि

क्यों न उड़ा दिया जाए मस्तिष्क

क्यों न कूच डाली जाए खोपड़ी

मगर इसी बहस में शामिल एक तीसरे मित्र

ने कहा कि

अरे क्या कर पायेगा कोई खोपड़ी को कूच कर

इन खोपड़ियों की सभी तंत्रिकाएँ तो कैद हो

चुकी हैं

सुदूर बैठी कुछ खास खोपड़ियों में

जो झनझनाती तो है मगर कभी टकराती नहीं

हाँ! यदि कभी पड़ ही गयी जरूरत तो बस चूम लेती

हैं एक  दूसरे को।


9.

हमें भी तो हक है

हमारे होठों के खुलने और बंद होने पर

तुम्हारी नज़र रही

हमारे पाँवों के बढ़ने और ठहर जाने पर

तुम्हारी नज़र रही

हमारे शरीर में हो रहे हर परिवर्तन पर

लगाई तुमने गहरी नज़र

मगर तुम्हारे ही सामने जब

किया जाने लगा हमें अनावृत्त

क्यों तुम्हारी नजरें झुक गयीं?

हमारे देह के इतर नहीं बना

कभी हमारा केाई भूगोल

इतिहास के हर पन्ने पर

लिखी गई युद्ध की विभीषिका के लिए

हमें ही ठहराया गया जिम्मेदार

नैतिकता की हर परिभाषा को

गढ़ने के लिए बनाया गया हमें

आधार

मगर हम कभी नहीं बन पाये खुद आधार

तुम्हारी ही कठपुतलियाँ बन नाचते रहे!

नाचते रहे! नाचते रहे!

लेकिन जब खुद चाहा नाचना और घूमना तो

बना दी गयीं तवायफ़, व्यभिचारी

और बाज़ारू

मगर अब हम नाचेगें

और खुद उसकी व्याख्या

भी हम ही करेंगे

भले ही यह व्याख्या

तुम्हारे धर्मग्रन्थों के खिलाफ हो

अब जब भी मुझे किया जायेगा

अनावृत्त

तुम्हारी नजरों के झुकने का

इंतजार नहीं करेंगे

अब हमें नहीं है जरूरत

किसी ईश्वर के प्रार्थना की

हमारे होठों, कदमों और हमारे

भूगोल को

नहीं है चाहत तुम्हारी

किसी व्याख्या की।


10.

चुप्पी

           

            जब हम कुछ कहते हैं तो

              अपना पक्ष रखते हैं

                जब हम बोलते हैं तो            

                  किसी की और से बोलते हैं

                    मगर यह जरूरी नहीं कि

                      जब हम चुप्प है तो

                         कुछ नहीं बोलते

                           हो सकता है

                            हम कुछ न कह कर भी

                              कुछ लोगों के लिए

                                बहुत कुछ कहते है

                                   दोस्तों

                                     आज चुप्पी

                                       सबसे बड़ी ईमानदारी है

                                         जिसके नीचे बेईमानो का तलघर है।


11.

उदासी की आश्वस्ति

            ज्यों ही उठती है आवाज

             सावधान हो जाओ

              एक आशंका व्याप्त हो जाती है

               शांति मुझे डरावनी लगने लगती है

                हिल उठते हैं समस्त विश्वासी केन्द्र

                 अपरिचित महसूस होता है

                  वह रास्ता जिस पर सकदों बार चला था

            मछलियाँ घाट के किनारे तैरती हैं

             उछलती है तेज लहरों की धार से

              घाट पर बैठा एक आदमी

               फेंक रहा है आटे की गोलियाँ

                कल ही तो  बांध से छोड़ा गया था पानी

                 रेत थोड़ी खिसक आयी है

                  एक बच्चे की आँख  चमक रही हैं

                   खिलखिला उठा है मन

          समाप्त हो  जाता है आटा

           खत्म हो  जाती हैं  मछलियाँ

            घाट पर बैठा आदमी

              अब उदास है


12.

जानना

                                               

                  जानना बेहद जरूरी है

                    खुद को

                     यह जानते हुए कि

                       खुद से बेहतर

                         कोई नहीं जान सकता

                           मुझे

         

                   जब जानना चाहा खुद को

                     तो  उतरने लगा

                       तालाब की तलहटी तक

                         झूमने लगा फसलों के साथ

                          रिसने लगा चट्टानो के बीच

                            लगा कि अब पसर रहा हूँ

                             रिश्तों के भीतर

                              चमक उठा हूँ असंख्य पुतलियों में

                                गा रहा हूँ अनंत राग

                                  तब जाना कि

                                    खुद को  जानने का

                                      इससे बेहतर

                                       कोई और रास्ता नहीं हो  सकता


13.

जब टपकती हैं ओस की बूँदें

    

          जब टपकती हैं ओस की बूँदें

           मेरे कमरे के सामने वाले  पेड़ के पत्तों पर

            सिहर उठता है मन

              हवाओं से खेलती गंगा की लहरें

               तुम्हारी याद ताजा कर देती हैं

          यह वर्ष तो बीत ही गया देखे  बगैर

           घर के मुंडेर पर बैठी कौओ की बारात

            रक्ताभ सूरज अब ढलने वाला है

             मगर बिसर गयी है याद सूरजमुखी की

              क्या आज नहीं लौट पाएगा

               गौरयों का दल अपने घोसलों तक

                यही तो मिलना होता है

                 माँ और बच्चों का

                 क्या नहीं मिल पाया चारा उन्हें

                  अपने मासूमों के लिए

                   या उठा ले  गया कोई बाज

                    किसी एक सदस्य को

                     जिसके शोक  में गतिहीन हो गया है

                      पूरा दल

                       बार-बार उझूक-उझूक कर

                        घोसले के बाहर देखने में प्रयासरत हैं

                          नन्हीं-नन्हीं गौरैया

                कोसों दूर बैठी तुम्हारी

                  आँखों में डूब रहा हूँ ,  मैं।

14.

परिभाषा

           

                     हम बिछुड़ रहे थे

                        एक दूसरे से

                          साल रहा था हमें

                             बिछुड़न का दर्द

           

                       अभी कई इच्छाएँ अतृप्त थीं

                         कहा ही ठीक से उतर पाया था

                           तुम्हारी आँखों की बढ़ियाई नदी में

                             स्पर्श की प्यास बनी ही थी रूप के

                              श्वासों की गंध लेनी बाकी ही थी अभी

                                कि सिहर उठा रोम-रोम

           

                        हम दोनों की दिशाएँ 
                          एक दूसरे से होनी थी विपरीत

                             मगर थी नहीं

                              उँगलियाँ अलविदा के उठती और झुक जातीं

                               पाँव बढ़ते और ठहर जाते

           

                        मेरे भीतर एक अनियंत्रित गति थी

                         और तुम्हारे भीतर एक नियंत्रित स्थिरता

                           लहरों पर चमकता सूरज इतना करीब था

                             जितना एक बच्चें के हाथो का खिलौना

                               हवा हौले¨ से कुछ कहती और चली जाती

           

                         मुझे लगा कि

                           प्रेम की परिभाषा

                             शब्दों में नहीं अर्थों में व्याप्त है

                               ध्वनियों में नहीं

                                प्रतीकों में अभिव्यक्त है

                                  जब भी करता हूँ तुम्हें याद

                                    तुममें नहीं खुद में पाता हूँ तुम्हें


15.

१.
इतिहास कब गौरवान्वित हुआ है
यशोगान से

उसे तो हर क्षण मजा आया घुलने में
वर्त्तमान की उठती तान में
२.
बे मौसम यह कविता कुछ खास वजह से। ........

बर्फ़ से  ढंकी पहाड़ियां
पिघलनी  शुरू हो गयी  हैं
नदी  अब जवान हो रही हैं
फुरसत   में बैठे चट्टानों के बीच
अब टकराहट तेज हो चुकी है
और रेत ने जोड़ लिया है
रिश्ता अपने पूर्वजो से।

© डॉ. रविशंकर उपाध्याय


संपादक परिचय :-

नाम : गोलेन्द्र पटेल

【काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बीए तृतीय वर्ष का छात्र {हिंदी ऑनर्स 

सम्पर्क सूत्र :-

ग्राम-खजूरगाँव , पोस्ट-साहुपुरी , जिला-चंदौली , उत्तर प्रदेश , भारत। 221009

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