Golendra Gyan

Sunday, 6 December 2020

रविशंकर उपाध्याय {१२ जनवरी १९८५-१९ मई २०१४} की कुछ कविताएँ : गोलेन्द्र पटेल {©Dr.Ravishankar Upadhyaya}

 

रविशंकर उपाध्याय {१२ जनवरी १९८५-१९ मई २०१४की कविताएँ ...

जन्म स्थान : बिहार के कैमूर जिला

शिक्षा  - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय सेस्नातक और परास्नातक (हिंदी),  यहीं से कुंवर  नारायण की कविताओं पर शोध भी किये थे।

हिंदी विभाग की पत्रिका "संभावना" के आरंभिक कुछ अंको का सम्पादन भी किये थे।


1...आवाज


धूसर काली स्लेट पर

खड़िया से अंकित थी एक आवाज़

जिसे हमारे पूर्वजों ने संजो रखा था

गोड़ाने की खेत में

आज वहाँ शिलान्यास का उत्सव था

और चरनी पर बुलडोजर चलने की बारी

एक घुँघराले बालों वाला महामानव

फैला रहा था अपनी बांहें

घने होने लगे थे काले बादल

मैं उस आवाज को पकड़ना चाहता हूँ

जो अब मुझसे दूर जा रही है।


२ ... भूख

तुम भूखे हो


लूटने के लिए


हम भूखें है


क्योंकि


लुट चुके।




3... मुगलसराय ज़क्शन का सर्वोदय बुक स्टाल


पटरियों पर दौड़ती रेल और उसकी

सीटियों के बीच

अलसुबह, प्रकाश खड़ा हो जाता है

किताबों के साथ

उस स्टेशन पर जिसे लोग ट्रेनों का मायका कहते है

मैं जब भी कहीं से लौटता हूँ

अपने गृह जनपद से सटे सबसे बड़े रेलवे स्टेशन पर

लौटता हूँ

जैसे माँ लौटती है अपने मायके

दीदी लौटती है जैसे अपने गाँव

मेरे जनपद का हर बंदा लौटता है परदेश से

उसी तरह

इस स्टेशन पर

यहाँ लौटते ही लगता है हर सुर-लय-ताल

सम पर आ गये है

रेल की कर्कश ध्वनि यहाँ संगीत में बदल जाती है

और सर्वोदय बुक स्टाल में चलती बहस

एक तान में

किताबों के पन्नों की फड़फड़ाहट

और ट्रेन के पहियों के बीच शुरू हो जाती है जुगलबंदी

प्रकाश का हर ग्राहक उसके लिए महज एक ग्राहक

नहीं होता

वह होता है, मुहिम का एक साथी

और हर किताब एक नारा

जिसे थमाकर वह अपने आन्दोलन को

और विस्तृत करता है

हर ग्राहक की स्मृति को संजो लेता है

अपनी डायरी में

और खुद बन जाता है स्मृति का हिस्सा

इस शहर के हर छोटे-बड़े लिखने-पढ़ने वालों की यह अड़ी है

जहाँ हर कोई करता है जुगाली

और धीरे-धीरे ज्ञान उसके भीतर

रिसने लगता है

मैं जब बढ़ता हूँ आगे

स्मृतियाँ भी होती है साथ

याद आती है माँ की वो बात

कि जब वह जाती है अपने मायके

वहाँ के धूल और फूल के साथ बंध जाती है

वाणी थोड़ी और मुखर हो उठती है

पाँव थिरकने लगते है

मन कुलाचें भरने लगता है

पूरी प्रकृति पंचम स्वर में लगती है गाने

उस संगीत के मिठास में, मैं चुपके से घुल जाता हूँ

जैसे सब्जी में घुल जाता है नमक!


4...भ्रम

तुम्हारी धुरी पर


घूम रहा है


समय


तुम्हें भ्रम है कि


तुम्हारी धुरी पर


घूम रही है


पृथ्वी।      



5... तुम्हारा आना

तुम्हारा आना


ठीक उसी तरह है


जैसे रोहिणी में वर्षा की बूँदें


धरा पर आती हैं पहली बार


जैसे रेड़ा के बाद फूटते हैं धान


और समा जाती है एक गंध मेरे भीतर।


तुम्हारा आना महज आना नहीं है


बल्कि एक मंजिल की यात्रा है


जिसमें होते है हम साथ


वहाँ कभी फिसलना होता है तो


कभी संभलना भी


उठना होता है तो कभी गिरना भी।


तुम्हारे होने की वजह से


शान्त जल में उठती रहती है लहरें


घुप्प अंधेरे में भी कहीं चमकती है एक रोशनी


तुम्हारा होना महज होना नहीं है


तुम्हारा आना सिर्फ आना भी नहीं है


और न आकर रूक जाना है


बस, चलना है, चलते जाना है।




6... निःशब्द ध्वनि चित्र

ढलती रात में आसमान के नीचे

ध्रुवतारे को निहारती

मेरी आँखें सप्तर्षियों पर जा टिकी

जो चारपाई के पाये से जुड़े

एक डंडे की तरह चुपचाप टिके हुए थे

हवा बार-बार आकर झकझोरती

और चाहती कि मेरा निहारना बंद हो जाए

मगर मेरी आँखें अडिग थीं

लेकिन इसकी भी तो सीमा है

जैसे इस असीम में हर किसी की सीमा है

पता नहीं कब मैं नींद में डूब गया

मगर आँखे बंद नहीं हुईं

(कहते है आँखें तो एक ही बार बंद होती हैं

वो हमेशा खुली रहती हैं

कभी बाहर तो कभी भीतर की ओर)

इसे पता नहीं कब हमारे पूर्वजों ने

सपने की संज्ञा दे दी

आज वही सपना मेरा दोस्त था

और मैं उसके साथ निरूद्देश्य चला जा रहा था

कि अचानक नदी किनारे पहुँच गया

मेरे और सपने के बीच कोई बात

नहीं हो रही थी

वातावरण बिल्कुल शांत था

नदी का पानी भी शांत ही था

हाँ! कभी-कभी हलचल होती

जब नदी के अरार से

मिट्टी टूटकर छपाक-छपाक गिरती

और नदी में समा जाती

जैसे कोई पुराना रिश्ता हो उससे।

मैं इस दृश्य को देखने लगा

उस पल यह नदी मेरे लिए अनजानी थी

बस मेरा परिचय

उस नदी के साथ

बह रहे रेत कणों से था

और टूट-टूट कर गिरने वाली इस मिट्टी से

जो अब मुझसे ओझल हो रही थी

लेकिन इस ओझल हो रहे पल में भी

मिट्टी के टूट-टूट कर गिरने का दृश्य

मेरे भीतर अटका हुआ था

कि मेरी आँखे बाहर की ओर खुल गईं

और मेरा मित्र सपना

मुझसे विदा लेकर जा चुका था

कि ठीक इसी वक्त ऊपर से एक तारा

टूटकर गिर रहा था

इसी समय-गिर रही थी

चाँदनी, ओंस की बूँदे और पेड़ से पत्ते

इन सबको गिरते देखते हुए

मैं उस मिट्टी के गिरने को

देखना चाह रहा था

जो अब भी अँटकी थी मेरे भीतर।


7.

बरगद

मेरे गाँव के बीचों-बीच

खड़ा है एक बरगद

निर्भीक निश्च्छल और निश्चित।

उसी के नीचे बांटते है सुख-दुःख

गांव के पुरनिया

बच्चे डोला-पाती खेलते हैं

सावन में उठती है

कजरी की गूँजे

मदारी का डमरू और किसी घुमक्कड़ बाबा

की

धुनी भी

रमती है, उसी के नीचे।

लेकिन कब उपजा

यह बरगद

मुझे पता नहीं।

मैं जब भी गांव जाता हूँ पहले उसी से नजर

मिलती है

लगता है

दादा और परदादा की आंखें

उसी पर टंगी हैं

और वे मुझे ही

टुकुर-टुकुर ताकती हैं।

उसके पास पहुँचते ही

लगता है

कि इसके एक-एक रेशे में

समाया है पूरा गांव

मेरी पूरी दुनिया

आज उससे कई बरोह झूल रहे हैं

और वे धरती को चूम रहे हैं

जैसे नन्हा सा बच्चा

अपनी मां को चूमता है।


8.

सबसे तेज

हम सभी मित्र बहस में डूबे हुए थे

कि

बाहर से आते ही एक मित्र ने कहा

कि सबसे तेज चलती है खोपड़ी

दूसरे मित्र ने छूटते ही कहा कि

नहीं, खोपड़ी में बैठा सबसे तेज चलता है मस्तिष्क

कुछ लोगों को लगता है यही मुनासिब कि

क्यों न उड़ा दिया जाए मस्तिष्क

क्यों न कूच डाली जाए खोपड़ी

मगर इसी बहस में शामिल एक तीसरे मित्र

ने कहा कि

अरे क्या कर पायेगा कोई खोपड़ी को कूच कर

इन खोपड़ियों की सभी तंत्रिकाएँ तो कैद हो

चुकी हैं

सुदूर बैठी कुछ खास खोपड़ियों में

जो झनझनाती तो है मगर कभी टकराती नहीं

हाँ! यदि कभी पड़ ही गयी जरूरत तो बस चूम लेती

हैं एक  दूसरे को।


9.

हमें भी तो हक है

हमारे होठों के खुलने और बंद होने पर

तुम्हारी नज़र रही

हमारे पाँवों के बढ़ने और ठहर जाने पर

तुम्हारी नज़र रही

हमारे शरीर में हो रहे हर परिवर्तन पर

लगाई तुमने गहरी नज़र

मगर तुम्हारे ही सामने जब

किया जाने लगा हमें अनावृत्त

क्यों तुम्हारी नजरें झुक गयीं?

हमारे देह के इतर नहीं बना

कभी हमारा केाई भूगोल

इतिहास के हर पन्ने पर

लिखी गई युद्ध की विभीषिका के लिए

हमें ही ठहराया गया जिम्मेदार

नैतिकता की हर परिभाषा को

गढ़ने के लिए बनाया गया हमें

आधार

मगर हम कभी नहीं बन पाये खुद आधार

तुम्हारी ही कठपुतलियाँ बन नाचते रहे!

नाचते रहे! नाचते रहे!

लेकिन जब खुद चाहा नाचना और घूमना तो

बना दी गयीं तवायफ़, व्यभिचारी

और बाज़ारू

मगर अब हम नाचेगें

और खुद उसकी व्याख्या

भी हम ही करेंगे

भले ही यह व्याख्या

तुम्हारे धर्मग्रन्थों के खिलाफ हो

अब जब भी मुझे किया जायेगा

अनावृत्त

तुम्हारी नजरों के झुकने का

इंतजार नहीं करेंगे

अब हमें नहीं है जरूरत

किसी ईश्वर के प्रार्थना की

हमारे होठों, कदमों और हमारे

भूगोल को

नहीं है चाहत तुम्हारी

किसी व्याख्या की।


10.

चुप्पी

           

            जब हम कुछ कहते हैं तो

              अपना पक्ष रखते हैं

                जब हम बोलते हैं तो            

                  किसी की और से बोलते हैं

                    मगर यह जरूरी नहीं कि

                      जब हम चुप्प है तो

                         कुछ नहीं बोलते

                           हो सकता है

                            हम कुछ न कह कर भी

                              कुछ लोगों के लिए

                                बहुत कुछ कहते है

                                   दोस्तों

                                     आज चुप्पी

                                       सबसे बड़ी ईमानदारी है

                                         जिसके नीचे बेईमानो का तलघर है।


11.

उदासी की आश्वस्ति

            ज्यों ही उठती है आवाज

             सावधान हो जाओ

              एक आशंका व्याप्त हो जाती है

               शांति मुझे डरावनी लगने लगती है

                हिल उठते हैं समस्त विश्वासी केन्द्र

                 अपरिचित महसूस होता है

                  वह रास्ता जिस पर सकदों बार चला था

            मछलियाँ घाट के किनारे तैरती हैं

             उछलती है तेज लहरों की धार से

              घाट पर बैठा एक आदमी

               फेंक रहा है आटे की गोलियाँ

                कल ही तो  बांध से छोड़ा गया था पानी

                 रेत थोड़ी खिसक आयी है

                  एक बच्चे की आँख  चमक रही हैं

                   खिलखिला उठा है मन

          समाप्त हो  जाता है आटा

           खत्म हो  जाती हैं  मछलियाँ

            घाट पर बैठा आदमी

              अब उदास है


12.

जानना

                                               

                  जानना बेहद जरूरी है

                    खुद को

                     यह जानते हुए कि

                       खुद से बेहतर

                         कोई नहीं जान सकता

                           मुझे

         

                   जब जानना चाहा खुद को

                     तो  उतरने लगा

                       तालाब की तलहटी तक

                         झूमने लगा फसलों के साथ

                          रिसने लगा चट्टानो के बीच

                            लगा कि अब पसर रहा हूँ

                             रिश्तों के भीतर

                              चमक उठा हूँ असंख्य पुतलियों में

                                गा रहा हूँ अनंत राग

                                  तब जाना कि

                                    खुद को  जानने का

                                      इससे बेहतर

                                       कोई और रास्ता नहीं हो  सकता


13.

जब टपकती हैं ओस की बूँदें

    

          जब टपकती हैं ओस की बूँदें

           मेरे कमरे के सामने वाले  पेड़ के पत्तों पर

            सिहर उठता है मन

              हवाओं से खेलती गंगा की लहरें

               तुम्हारी याद ताजा कर देती हैं

          यह वर्ष तो बीत ही गया देखे  बगैर

           घर के मुंडेर पर बैठी कौओ की बारात

            रक्ताभ सूरज अब ढलने वाला है

             मगर बिसर गयी है याद सूरजमुखी की

              क्या आज नहीं लौट पाएगा

               गौरयों का दल अपने घोसलों तक

                यही तो मिलना होता है

                 माँ और बच्चों का

                 क्या नहीं मिल पाया चारा उन्हें

                  अपने मासूमों के लिए

                   या उठा ले  गया कोई बाज

                    किसी एक सदस्य को

                     जिसके शोक  में गतिहीन हो गया है

                      पूरा दल

                       बार-बार उझूक-उझूक कर

                        घोसले के बाहर देखने में प्रयासरत हैं

                          नन्हीं-नन्हीं गौरैया

                कोसों दूर बैठी तुम्हारी

                  आँखों में डूब रहा हूँ ,  मैं।

14.

परिभाषा

           

                     हम बिछुड़ रहे थे

                        एक दूसरे से

                          साल रहा था हमें

                             बिछुड़न का दर्द

           

                       अभी कई इच्छाएँ अतृप्त थीं

                         कहा ही ठीक से उतर पाया था

                           तुम्हारी आँखों की बढ़ियाई नदी में

                             स्पर्श की प्यास बनी ही थी रूप के

                              श्वासों की गंध लेनी बाकी ही थी अभी

                                कि सिहर उठा रोम-रोम

           

                        हम दोनों की दिशाएँ 
                          एक दूसरे से होनी थी विपरीत

                             मगर थी नहीं

                              उँगलियाँ अलविदा के उठती और झुक जातीं

                               पाँव बढ़ते और ठहर जाते

           

                        मेरे भीतर एक अनियंत्रित गति थी

                         और तुम्हारे भीतर एक नियंत्रित स्थिरता

                           लहरों पर चमकता सूरज इतना करीब था

                             जितना एक बच्चें के हाथो का खिलौना

                               हवा हौले¨ से कुछ कहती और चली जाती

           

                         मुझे लगा कि

                           प्रेम की परिभाषा

                             शब्दों में नहीं अर्थों में व्याप्त है

                               ध्वनियों में नहीं

                                प्रतीकों में अभिव्यक्त है

                                  जब भी करता हूँ तुम्हें याद

                                    तुममें नहीं खुद में पाता हूँ तुम्हें


15.

१.
इतिहास कब गौरवान्वित हुआ है
यशोगान से

उसे तो हर क्षण मजा आया घुलने में
वर्त्तमान की उठती तान में
२.
बे मौसम यह कविता कुछ खास वजह से। ........

बर्फ़ से  ढंकी पहाड़ियां
पिघलनी  शुरू हो गयी  हैं
नदी  अब जवान हो रही हैं
फुरसत   में बैठे चट्टानों के बीच
अब टकराहट तेज हो चुकी है
और रेत ने जोड़ लिया है
रिश्ता अपने पूर्वजो से।

© डॉ. रविशंकर उपाध्याय


संपादक परिचय :-

नाम : गोलेन्द्र पटेल

【काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बीए तृतीय वर्ष का छात्र {हिंदी ऑनर्स 

सम्पर्क सूत्र :-

ग्राम-खजूरगाँव , पोस्ट-साहुपुरी , जिला-चंदौली , उत्तर प्रदेश , भारत। 221009

ह्वाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com

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