Golendra Gyan

Sunday, 6 December 2020

"रविशंकर उपाध्याय स्मृति युवा कविता पुरस्कार" से सम्मानित कवियों के कुछ कविताएँ : गोलेन्द्र पटेल


 


रविशंकर उपाध्याय की कविताएँ ...

1...आवाज


धूसर काली स्लेट पर

खड़िया से अंकित थी एक आवाज़

जिसे हमारे पूर्वजों ने संजो रखा था

गोड़ाने की खेत में

आज वहाँ शिलान्यास का उत्सव था

और चरनी पर बुलडोजर चलने की बारी

एक घुँघराले बालों वाला महामानव

फैला रहा था अपनी बांहें

घने होने लगे थे काले बादल

मैं उस आवाज को पकड़ना चाहता हूँ

जो अब मुझसे दूर जा रही है।


२ ... भूख

तुम भूखे हो


लूटने के लिए


हम भूखें है


क्योंकि


लुट चुके।




3... मुगलसराय ज़क्शन का सर्वोदय बुक स्टाल


पटरियों पर दौड़ती रेल और उसकी

सीटियों के बीच

अलसुबह, प्रकाश खड़ा हो जाता है

किताबों के साथ

उस स्टेशन पर जिसे लोग ट्रेनों का मायका कहते है

मैं जब भी कहीं से लौटता हूँ

अपने गृह जनपद से सटे सबसे बड़े रेलवे स्टेशन पर

लौटता हूँ

जैसे माँ लौटती है अपने मायके

दीदी लौटती है जैसे अपने गाँव

मेरे जनपद का हर बंदा लौटता है परदेश से

उसी तरह

इस स्टेशन पर

यहाँ लौटते ही लगता है हर सुर-लय-ताल

सम पर आ गये है

रेल की कर्कश ध्वनि यहाँ संगीत में बदल जाती है

और सर्वोदय बुक स्टाल में चलती बहस

एक तान में

किताबों के पन्नों की फड़फड़ाहट

और ट्रेन के पहियों के बीच शुरू हो जाती है जुगलबंदी

प्रकाश का हर ग्राहक उसके लिए महज एक ग्राहक

नहीं होता

वह होता है, मुहिम का एक साथी

और हर किताब एक नारा

जिसे थमाकर वह अपने आन्दोलन को

और विस्तृत करता है

हर ग्राहक की स्मृति को संजो लेता है

अपनी डायरी में

और खुद बन जाता है स्मृति का हिस्सा

इस शहर के हर छोटे-बड़े लिखने-पढ़ने वालों की यह अड़ी है

जहाँ हर कोई करता है जुगाली

और धीरे-धीरे ज्ञान उसके भीतर

रिसने लगता है

मैं जब बढ़ता हूँ आगे

स्मृतियाँ भी होती है साथ

याद आती है माँ की वो बात

कि जब वह जाती है अपने मायके

वहाँ के धूल और फूल के साथ बंध जाती है

वाणी थोड़ी और मुखर हो उठती है

पाँव थिरकने लगते है

मन कुलाचें भरने लगता है

पूरी प्रकृति पंचम स्वर में लगती है गाने

उस संगीत के मिठास में, मैं चुपके से घुल जाता हूँ

जैसे सब्जी में घुल जाता है नमक!


4...भ्रम

तुम्हारी धुरी पर


घूम रहा है


समय


तुम्हें भ्रम है कि


तुम्हारी धुरी पर


घूम रही है


पृथ्वी।      



5... तुम्हारा आना

तुम्हारा आना


ठीक उसी तरह है


जैसे रोहिणी में वर्षा की बूँदें


धरा पर आती हैं पहली बार


जैसे रेड़ा के बाद फूटते हैं धान


और समा जाती है एक गंध मेरे भीतर।


तुम्हारा आना महज आना नहीं है


बल्कि एक मंजिल की यात्रा है


जिसमें होते है हम साथ


वहाँ कभी फिसलना होता है तो


कभी संभलना भी


उठना होता है तो कभी गिरना भी।


तुम्हारे होने की वजह से


शान्त जल में उठती रहती है लहरें


घुप्प अंधेरे में भी कहीं चमकती है एक रोशनी


तुम्हारा होना महज होना नहीं है


तुम्हारा आना सिर्फ आना भी नहीं है


और न आकर रूक जाना है


बस, चलना है, चलते जाना है।




6... निःशब्द ध्वनि चित्र

ढलती रात में आसमान के नीचे

ध्रुवतारे को निहारती

मेरी आँखें सप्तर्षियों पर जा टिकी

जो चारपाई के पाये से जुड़े

एक डंडे की तरह चुपचाप टिके हुए थे

हवा बार-बार आकर झकझोरती

और चाहती कि मेरा निहारना बंद हो जाए

मगर मेरी आँखें अडिग थीं

लेकिन इसकी भी तो सीमा है

जैसे इस असीम में हर किसी की सीमा है

पता नहीं कब मैं नींद में डूब गया

मगर आँखे बंद नहीं हुईं

(कहते है आँखें तो एक ही बार बंद होती हैं

वो हमेशा खुली रहती हैं

कभी बाहर तो कभी भीतर की ओर)

इसे पता नहीं कब हमारे पूर्वजों ने

सपने की संज्ञा दे दी

आज वही सपना मेरा दोस्त था

और मैं उसके साथ निरूद्देश्य चला जा रहा था

कि अचानक नदी किनारे पहुँच गया

मेरे और सपने के बीच कोई बात

नहीं हो रही थी

वातावरण बिल्कुल शांत था

नदी का पानी भी शांत ही था

हाँ! कभी-कभी हलचल होती

जब नदी के अरार से

मिट्टी टूटकर छपाक-छपाक गिरती

और नदी में समा जाती

जैसे कोई पुराना रिश्ता हो उससे।

मैं इस दृश्य को देखने लगा

उस पल यह नदी मेरे लिए अनजानी थी

बस मेरा परिचय

उस नदी के साथ

बह रहे रेत कणों से था

और टूट-टूट कर गिरने वाली इस मिट्टी से

जो अब मुझसे ओझल हो रही थी

लेकिन इस ओझल हो रहे पल में भी

मिट्टी के टूट-टूट कर गिरने का दृश्य

मेरे भीतर अटका हुआ था

कि मेरी आँखे बाहर की ओर खुल गईं

और मेरा मित्र सपना

मुझसे विदा लेकर जा चुका था

कि ठीक इसी वक्त ऊपर से एक तारा

टूटकर गिर रहा था

इसी समय-गिर रही थी

चाँदनी, ओंस की बूँदे और पेड़ से पत्ते

इन सबको गिरते देखते हुए

मैं उस मिट्टी के गिरने को

देखना चाह रहा था

जो अब भी अँटकी थी मेरे भीतर।

© रविशंकर उपाध्याय


१.जसिंता केरकेट्टा की कविताएँ :-

1.

क्यों जंगल प्रतिरोध करता है

...............................

वह न बोता है न काटता है

खाली बोरा लेकर चला आता है 

गांव में बैठ जाता है

महज दस रुपए के हिसाब से

हाड़-तोड़ मेहनत से उपजाया 

सारा धान बटोर लेता है

वह गांव को आज भी 

अपनी गांठ में बांध कर रखता है


उधर ऊंची कीमत पर 

शहर को बाज़ार बंधक बनाता है

इधर सस्ते में हर गांव को

बनिया-साहूकार बंधक बनाता है 

बंधक गांव जब आवाज़ उठाता है

तो यह देश समझता है

जंगल सिर्फ़ प्रतिरोध करता है।।


2.
मरती, झड़ती, खपती स्त्रियां
...........................................
जंगल में मर गई तितलियां
सूख गई पत्तियां
किसी के खेत-खलिहान में 
जीवन भर खप गई स्त्रियां
मरने, झड़ने, खपने के बाद भी 
धरती को जीवंत बनाती रहती हैं
वे सब किसी कला में बदल जाती हैं

पर उन जिंदा आदमियों का कोई क्या करे?
जो जीवन भर 
धरती का नक्शा बिगाड़ते हैं
दुनिया में प्रदूषण फैलाते हैं
विध्वंश के सिवा कुछ भी नहीं उपजाते हैं
जाने क्यों धरती पर वे पैदा होते हैं?

जिनके भीतर स्त्री जिंदा रह जाती हैं
वे ही कहीं बच जाते हैं 
लौटकर आते हैं
और धरती को सुंदर बनाने में
स्त्री का हाथ बंटाते हैं ।।



3
१ ... धान काटती स्त्रियां
.........................
स्त्रियां धान रोपती हैं
धान काटती हैं
धान ढोती हैं 

वे अपने पिता, पति, बेटे के खेत में 
धान रोपती हैं
धान काटती हैं
धान ढोती हैं

उनका कोई खेत नहीं होता
वे इस धरती पर
जीवन भर
किसी ना किसी के खेत की
सिर्फ़ बंधुआ मजदूर होती हैं ।।


 2 : धान काटती स्त्रियां
..............................
उधर अंधेरे कमरे में कौन है? 
कराहती हुई एक स्त्री की आवाज़ है

यह तो वही स्त्री है 
जो इस धरती पर
अपने पिता, पति, बेटे के खेत में जीवनभर
धान रोपती है
धान काटती है
धान ढोती है
फिर उम्र ढलने के बाद 
वह अंधेरे कमरे में क्यों भूखी सोती है ?

अब किसी को उसकी ज़रूरत नहीं
दूसरी स्त्रियों ने उसकी जगह ले ली है
अब वे अपने पति और बेटे के खेत में
धान रोपती हैं
धान काटती हैं
धान ढोती हैं

अंधेरे कमरे में पड़ी वह स्त्री हर बार
दरवाज़ा खुलने की आवाज़ सुनते ही
अपनी बेटियों का नाम पुकारने लगती है 
अब वह सिर्फ़ उनके शहर से
लौट आने का इंतज़ार करती है 

जीवन भर जिसके खेतों में वह काम करती है
कहां कोई उसके काम आता है?
तब भी बेटियां जहां जाती हैं
खेत-बारी, घर-बार, मां - बाप सब संभालती हैं
उनके बिना आदिवासी जन-जीवन ठप्प हो सकता है
इसलिए हर आदिवासी परिवार बेटियां चाहता है ।।

© जसिंता केरकेट्टा

२. अमृत सागर की कविताएँ :-

1.

हम फिर मिलेंगे!
--------------------------

हम फिर मिलेंगे!
हाँ! जरूर मिलेंगे!

तब शायद! कुछ दिन, कुछ वर्ष, कुछ दशक
या कुछ सदियाँ बीत गयीं होंगी!
और हम बदल गये होंगे, नये शरीर या नई आकृतियों में 

शायद! तब तक कुछ भाषाएँ लुप्त हो गयीं होंगी
और गढ़ी जा चुकी होगी एक सम्राज्यवादी भाषा के पक्ष में कुछ और दलीलें

तब आज्ञाकारी डम्फरों में लाद दिए जायेंगे सभी पहाड़
और दुनिया की सबसे शांत जंगलों और उपजाऊ जमीन पर
काबिज होंगे बेहद सभ्य समझे जाने वाले भेड़िये शहर!

हो सकता है!
तब तक सेकुलर चरागाहों में भी
लहलहाने लगे अफीम बन चुकी धर्म की खेती
या जाति के खलिहानों में भर दी जाये पूरी की पूरी नई फसल! 

शायद! तब तक व्यवस्था के नाम पर
दंतेवाडा और अबूझमाड़ के नाम से काली सूचियाँ ही बना दी जाये 
या लाल रंग को व्यवस्था विरोधी मान लिया गया हो!

मैं जानता हूँ!
तब कुछ भी आसान नहीं होगा
क्योंकि उस वक्त राजनीतिक फरनेसों में 
ढाले जा रहे होंगे कुछ और तेलंगाना
जम्मू-कश्मीर के तंग गलियारे में 
रख दी जाएँगी कुछ और शांति की कुर्सियां
जिसके सिरहाने खड़ी होंगी 
दुनिया की सबसे खूंखार मिसाइलें!

शायद! तब तक कोलम्बस और फाह्यान 
निकल चुकें होंगे अपने घरों से
और इराक, मिस्र, लीबिया या सोमालिया जैसे
प्रयोगशालाओं में बाजार कर रहा होगा कुछ नये प्रयोग 
या तबतक दुनिया के मानचित्र पर उभर आयें 
कुछ और हिरोशिमा या नागासाकी ही

लेकिन मुझे विश्वास है! 
तब भी लहरायेंगी वायुमंडल में राख भरी मुठ्ठियाँ
गाये जायेंगे आजादी के गीत
और बदलती रहेंगी ग्रहों की स्थितियां
लेकिन नहीं बदलेगा तो मेरे सौरमंडल का सूरज! 

तभी तो कहता हूँ हम फिर मिलेंगे!
गांव के किनारे खड़े उस अछूत गुलमोहर के नीचे!
जहाँ सुनाऊंगा तुम्हे मैं अपनी सबसे उदास कविता! 
और तुम स्वीकार लोगी अपनी कविता में मेरा वजूद!

क्योंकि मुझे विश्वास है तब भी मनुष्यता होगी  
पक्षधरता की अंतिम निशानी
और प्रेम, संवेदना का अंतिम ग्रन्थ!

2.
मेरी ठेकेदार नस्ल
-----------------

दो हाथ-दो पैर 
और उबलती दो आँखों के साथ...  
जेहन! कोयले की खान 
हो जाना चाहती है! 
जब काली और बदबूदार किंचड सी कालिख... 
अपनी गाढ़ी सफेदी पुती नस्ल की 
बेहद मोटी और सुगन्धित परतों को फाड़ 
अचानक छुपी नजरों में नुमाया होने लगती है!

नजरें न चाहते हुए भी
किसी माँ की छाती..
किसी मेहनतकश की जनाना कमर!
किसी के कलाई पर बंधी
मासुम और कमसिन सी राखी..
और उड़ने की चाहत में पंख से खुले गले का
कुछ और मतलब निकालने लगती हैं!

जवाब में 
सदियों से पंजों के नीचें रौंदी जा रही
आधी दुनिया के सहमें लफ़्ज 
भईया! चाचा! मामा! अंकल
और सर! जैसे 
न जाने कितने मुखौटों में 
खुद को बेहद जल्दीबाजी में
गिरफ्तार कर लेते हैं!

फिर भी नहीं मानती
मेरी ठेकेदार नस्ल
और लपलपाती जीभ से 
चाटती जाती है!
अतड़ीयो में छिप जाने को आतुर
परत-दर-परत छिल्कों सी उतरती देह को

और मौका मिलते ही 
अपने बेहद भोथर शब्दों का प्रहार कर!
पटक देती है उसे सामाजिकता की
गीली और फिसलन भरी जमीन पर
लगाते हुए गाढे नीले ठहाके!

करती है मंचों के पिछवाड़े 
प्रगतिशीलता की साजिशें
और रचती हैं विभिन्न वाद-विवाद चक्रव्यूह!

कि जकड़ सके फ़ुदकती गौरैयों को 
विमर्शों के मांझे में

तब मनाती है! जश्न 
मेरी ठेकेदार नस्ल
नरम स्वाद और मुलायम गोश्त का

3.
मुखौटा -1
-----------------------------------------

अगर आग का आग होना
पानी के पानी होने जैसा ही है
तो अवरोध का मील के पत्थरों में बदल जाना
कैसे प्रतिरोध मान लिया जाए?

आखिर कलमों का चुप्प होना
उन्हें सम्हाले सैकड़ों हांफती कलाई घड़ियों
का जवाब कैसे मान लिया जाये?

कभी तो इतिहास के बुचडखाने में 
वक्त की सलीब पर चढ़ा दिए जायेंगे शब्दों के पैंतरे
और तब सिर्फ गवाही में मान्य होंगी
फेफड़ों की धौंकनी से निकले
सांसों के कंकाल

तब तुम क्या जवाब दोगे!
कि आखिर जब वायुमंडल में उड़ रही धूल ने भी
चेहरों से हटा ली थी गिलाफ़
और पीले मजमून भी कूद पड़े थे अपने लिफाफों से
तो तुम अपने गिरेबानों में क्यों दुबके पड़े थे
क्या तुमने, तब मुखौटों के पीछे भी मुखौटा लगा लिया था?


मुखौटा- 2
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पार्टनर! चुप्प रहो!
मुझे आलोक है..
कि हर बहसों का अंत हत्याओं में होता है!

मैं जानता हूँ!
तुम्हे मरी मछलियों से प्रेम है
इसके सिवा तुमने किया ही क्या है!
लेकिन क्या कभी तुमने सोचा है उनके बारे में 
जिन्होंने दुर्गंधों की कसमें खायीं!

शायद! तुमने अपनी कलम में 
केसरिया स्याही भर ली है
और मुठ्ठियों में भर रखी है
पंजों की अंतड़ियाँ!

क्या तुमने कभी सोचा!
जब तेजाबी बारिश होगी तो क्या होगा ?
उन सिंहासनो का
जिसे रेत से भींची मुठ्ठियों ने 
डूबते सूरज की गवाही पर कराया था खाली

क्या ?
अब हिमालय से उड़ी टीटीहरी के पंख 
कंकडों के सहारे करेंगे मुकाबला 
'काशी की अस्सी' पर बोई जा रही सफ़ेद फसलों 
और मुंह में दबे लाल रंग का

क्या आसान नहीं है आज
कर्ण के बजाये युधिष्ठिर बन जाना!
कोई है जो अर्जुन नही कर्ण बनना चाहता हो ?
जो इन्द्र को कवच कुंडल देने के बाद 
मरते वक्त अंजुरियों में डाल सकता हो, सोने का दांत!

शायद! 
मैं जवाब जानता हूँ! 
क्योंकि यह सवाल खुद के लिए भी तो है!
और यह भी जानता हूँ कि 
हो सकता है मेरी बिना शर्त रिहाई कर दी जाये...

जिसके बाद छोड़ दी जाए
मेरी पीठ पर एक जोड़ी सुर्ख लोहे की आँखें!
क्या वाकई तुमने मुखौटों के पीछे मुखौटा लगा रखा है!

फिर भी लथपथ सवाल!
घिसटता रहेगा!
कि क्या तुम्हारा रंगभूमि से सम्बन्ध 
सूरदास की मड़ई जैसा है ?

क्योंकि ऐ रसूल 
ये मेरा दागिस्तान है!
और मेरा शहर.... 
कभी न खत्म होने वाली बहस!

4.
दीवार
--------

दीवारें उठती हैं 
गिरती हैं/ ऊँची होती हैं!
उनपर नारे लिखे जाते हैं
उनपर फूल और गमले बनाए जा सकते हैं
इन्हीं दीवारों पर गौरैया घंटों सुस्ताती है

उसी दीवार पर ट्रिगनामेट्री के 
सवाल हल किए जा सकते हैं
वहीं कहीं केमेस्ट्री के सूत्र
लिख कर मैं याद करता रहा 
कुछ नन्हे हाथों ने इन दीवारों पर 
चाँद और सूरज भी बनाए थे

आखिर ऐसी ही दीवार तो
कुछ साल पहले आधी रात में खड़ी हुई होगी
और एक देश/ दो हिस्सों में सांसे लेने लगा

मैंने ऐसे ही एक दीवार पर लिखा था
'मैं फिर लौट के आऊंगा' दिल्ली
आने के बाद से ऐसी ही दीवार के पीछे से मैं 
घंटों तुम्हारे पैर की आहटों का इंतजार करता
और तुम्हारी आवाज सुनते ही
दीवार के उस पार देखने की 
नाकामयाब कोशिश भी

मैंने अपनी सबसे उदास कविता
दीवारों पर ही लिख के/ शुरू की थी
जिसके बाद तुमने इन्ही दीवारों पर
झूमते, गुलमोहर और अमलतास के स्केच बनाए थे
जिसके बाद मैंने उसी दीवार पर बड़े अक्षरों में
तुम्हारा नाम लिख दिया था

तुम्हे याद है
इन्हीं दीवारों के पीछे हम/ घंटो म्यूटन बने खुद को कठिन साबित करने की सफल कोशिश करते
और फिर तुम इन्हीं दीवारों के पीछे से 
मेरा नाम लेती और मैं बार-बार/ तुम्हारी आवाज
सुनने की करामातों में लगा रहता

जबकि अब हम 
इन्हीं दीवारों की ओर पीठ करके 
एक दूसरे को देखने की कोशिश करते हैं
पर इन्हीं दीवारों को जोड़कर
एक छत भी डाली जा सकती है
जहां हम घंटो बिना शिकायत के
एक दूसरे को निहार सकते हैं!

5.
स्मृति के अंतरिक्ष से कुछ आवाजें
वर्तमान में गिरके टूट जाती हैं
कुछ नरम फाहे से स्पर्श
बथास बनके आपकी रीढ़ में घर बना लेते हैं

तब किताबों में दबाए फूल 
भविष्य में दृश्य बनके गड़ते हैं
और ध्वनि, शब्दों के चारागाह में 
खूंटे से बंधी भेड़ बन जाती है

पिंजरे में होने के बावजूद
चुगने की खुली छूट से बड़ी पीड़ा 
कोई नहीं पंक्षी के लिए

6.
स्मृति के अंतरिक्ष से कुछ आवाजें
वर्तमान में गिरके टूट जाती हैं!
कुछ नरम फाहे से स्पर्श
बथास बनके आपकी रीढ़ में घर बना लेते हैं

जब किताबों में दबाए फूल 
भविष्य में दृश्य बनके गड़ते हैं
और ध्वनि, शब्दों के चारागाह में 
खूंटे से बंधी भेड़ बन जाती है!

© अमृत सागर


निखिल आनंद गिरि की कविताएँ  :-

1.

(कोरोना- काल की छिटपुट कविताएँ) 


1)  किसी दिन सोता मिला अपनी ही कार में, 

तो कोई चिड़िया ही छूकर देखेगी

कितना बचा है जीवन। 

लोग चिड़िया के मरने का इंतज़ार करेंगे

और मेरे शरीर को संदेह से देखेंगे। 

स्पर्श की सम्भावनाएँ इस कदर ध्वस्त हैं। 


2) 

आप मानें या न मानें 

इस वक़्त जो मास्क लगाए खड़ा है मेरी शक्ल में

आप सबसे हँसता- मुस्कुराता, अभिनय करता

कोई और व्यक्ति है। 

आप चाहें तो उतार कर देखें उसका मास्क

मगर ऐसा करेंगे नहीं

आप भी कोई और हैं

चेहरे पर चेहरा चढाये। 

ठीक ठीक याद करें अपने बारे में। 

मैं क्रोध में एक रोज़ इतना दूर निकल गया

कि मेरी देह छूट गयी कमरे में। 

मुझे ठीक ठीक याद है। 


3) तुम्हे कोई खुश करने वाली बात ही सुनानी है इस बुरे समय में

तो मैं इतना ही कह सकता हूँ

पिता कई बीमारियों के साथ जीवित हैं

अब भी। 

माँ आज भी अधूरा खाकर कर लेती है

तीन आदमियों के काम। 

घर मेें और भी लोग हैं

मगर मैंने उन्हें रिश्तों के बोझ से आज़ाद कर दिया है 


मैं पिछले बरस आखिरी बार घर की याद में रोया था

फिर अब तक घर में क़ैद हूँ। 


4) 

मृत्यु की प्रतीक्षा में कुछ भले लोग चले जा रहे हैं

भाग नहीं रहे। 

मृत्यु की प्रतीक्षा में कुछ लोग थालियां पीट रहे हैं

घंटियाँ, शंख इत्यादि बजा रहे हैं। 

(इत्यादि बजता भी है और नहीं भी) 

कुछ लोग लूडो खेल रहे हैं मृत्यु की प्रतीक्षा में। 

जिन्हें सबसे पहले मर जाना चाहिए था 

बीमारी से कम, शर्म से अधिक

वही जीवन का आनंद ले रहे हैं। 


मृत्यु एक प्रेमिका है

जिसकी प्रतीक्षा निराश नहीं करेगी। 

वो एक दिन उतर आयेगी साँसों में

बिना आमंत्रण। 

दुनिया इतनी एकरस है कि

मरने के लिए अलग बीमारी तक नहीं।


2.
दुख

'क्या कमाल है कि
एक आदमी अपने परिचय में
अपने दुख नहीं बताता।
उसे लिखना चाहिए साफ-साफ
कि हर वक्त जो साथ रहा 
उसके नाम और जन्मतिथि के अलावा 
वह दुख ही था।
दुख एक समांतर रेखा है
जो जीवन के साथ चला करती है। 

जैसे फूल रात को भी महकते हैं
और दिन को भी।
दुख कोई फर्क नहीं करते समय का
कोई भेदभाव नहीं बड़े या छोटे का
दुख बुरा न माने
इसका पूरा खयाल रखना चाहिए।'

3.

एक सुबह का सूरज

दूसरी सुबह-सा नहीं होता

अंधेरा भी नहीं।


संसार की सब पवित्रता

उस एक स्त्री की आंखें नहीं हो सकतीं

एक स्त्री के होंठ

उसका प्यार।


तुम जब होती हो मेरे पास

मैं कोई और होता हूं

या कोई और स्त्री होती है शायद

जो नहीं होती है कभी।


मेरे भीतर की स्त्री खो गई है शायद

ढूंढता रहता हूं जिसे

संसार की सब स्त्रियों में।'

©निखिल आनंद गिरि



अदनान कफ़ील दरवेश की कविताएँ  :-

1.

वो एक दुनिया थी

°°°°°°°°°°°°°°°°


वो एक दुनिया थी

जिसमें हम थे, तुम थे

(और था बहुत कुछ)

एक फूटा गुम्बद, एक चाक़ू

एक पान का पत्ता, एक ज़रा-सी ओट

एक नेमतख़ाना, एक बिंदी

एक चश्मा

और एक माचिस की डिबिया थी...


एक उदास धुन हुआ करती थी

हमारे भीतर

जिसे हम खटिया के पायों से लगकर सुनते

रेडियो पर समाचार का वक़्त होता

लालटेन का शीशा चटख़ा हुआ मिलता

हम नुजूमी की तरह 

तारों से लगे होते

माँ रोटियाँ बनाती

सेनी में अचानक कूद जाती बिल्ली

माँ उसे चीख़ कर भगाती

उसकी चीख़ उसके अंदर देर तक गूँजती, काँपती

और ओझल हो जाती

(वो बाहर कम चीख़ पाती)

बाँध की लूड़ी, अचानक गिर कर खुल जाती 

दूर तक भागती

(जिससे चारपाई बुननी होती)

हम उसे लपेटते 

(मैं और बहन)

गेंहुवन की आँखें ओसारे में चमकतीं 

अँधेरे से हम ख़ौफ़ खाते

हम लूड़ी जल्दी-जल्दी बनाते

और चारपाई की ओड़चन कसते-कसते 

अपनी कमर खोल बैठते...


एक काग़ज़ की गेंद उछलती हुई आती 

हमारे ठीक पास

हम उसे देखकर ख़ुश हो जाते

माँ रोटियाँ बनाती

मेरी फटी कमीज़ से एक गंध आती 

मैं घबरा जाता !

चिड़िया की चोंच-सी 

चुभन होती सीने में 

मैं घबरा जाता !

शमा की लौ गुल कर बैठता

माँ ग़ुस्सा करती 

मैं घबरा जाता !

मैं फिर से हिसाब लगाने लगता 

माँ मुस्कुराती

एक चमक होती उसकी आँखों में

शाम की स्लेटी चमक-सी 

जिसमें धुआँ नहीं होता 


अब्बा कहते-

भण्डारकोण से उठ गए हैं करिया बादल

दहाड़ते हुए वे आ ही जाते 

और बरस पड़ते

सब कुछ धुल-पुँछ जाता


वो एक दुनिया थी

अब माँ की गोद में भी 

माँ की बहुत याद आती है।


2.

दिशा

°°°°°


जब उनकी सारी उम्मीदें टूट गईं 

और भूख ने भी उन्हें बुरी तरह निढाल कर दिया 

तो वे पैदल ही चल पड़े अपने गाँव की तरफ़

उन्हें यक़ीन था कि रेलगाड़ी न सही 

रेल की पटरियाँ उन्हें ज़रूर उनके घरों तक ले जाएँगी

उन्हें यक़ीन था कि सब दिशाओं में अब भी एक दिशा 

बच रही है

जो कि उनके घर की नरम पगडण्डियों तक जाती है


वे इतने मासूम थे कि नहीं जानते थे 

इस अंधेरे डरावने समय में 

अब हर तरफ़ कर्बला का साया है

अब हर दिशा उनके लिए मृत्यु की दिशा है। 


3.
|||एक पेड़ का दुःख |||

सब पत्ते विदा हो लेंगे एक दिन 
गिलहरियाँ भी कहीं और चली जाएँगी
चींटियाँ भी जगह बदल देंगी
और सुग्गे नहीं आएँगे इस तरफ़
फिर कभी
न बारिश
न हवा
न धूप
बस घने कुहरे के बीच झूल जाऊँगा मैं
किसी दिन
अपनी ही पीठ में
ख़ंजर की तरह धँसा हुआ
सबकी स्मृतियों में !

4.
क़ब्र का पत्थर
■■■

जब माँ ने जन्म दिया 
रेडियो पर बैनुल-अक़्वामी ख़बरों का वक़्त था
सबने कहा, 'समाचार सुनने ही आया है'...

वो दिन और आज का दिन 
चाँद और सूरज पलट गए 
गंगा में कितना पानी बह चुका 
करघा चलता रहा, आवाज़ उठती रही 
दिन-ओ-माह-ओ-साल बुने जाते रहे
हू का शोर बस्ती-बस्ती चाटता रहा लहू
कहीं कुछ न बदला 
बदले भी तो बस यातना देने के हथियार 
ज़ुल्म के हाथ और मज़बूत होते रहे 
इंसान को इंसानों में ही पनाह न मिली

वो ख़बरें कहाँ सुनी गईं 
जिनसे कानों को सुख मिलता!
उफ़्फ़ इस धरती से कितना कितना इश्क़ है मुझे 
विदा होते-होते कुछ शिकस्ता ख़्वाब ही होंगे लगता है 
कुछ अलिखित पाण्डुलिपियाँ
कुछ क़र्ज़ की क़िस्तें  
कुछ न भेजी गईं अर्ज़ियाँ, सिफ़ारिशें 
और कुछ इत्र में बसे ख़त 
और जेब में कुछ ज़िद्दी सिक्के 
जो कभी ख़र्च न हुए 

मैं मरूँ तो न हिंदुस्तान में 
न पाकिस्तान में 
न अरब में न फ़ारस में
न मास्को में न बर्लिन में
न हिंदी में न उर्दू में
न हिंदुओं में न मुसलमानों में 
मैं मरूँ तो अपनी माँ की बोली में मरूँ 
भोजपुरी में मरूँ 
और मेरी क़ब्र पर लिखे ये शब्द 
मिट्टी की उम्र पाएँ : 

माटी कऽ हऽ तोसक गद्दा।
कथरी अउर दुलाई हो।।
इँह दरवेस सुतल बाड़ें हो।
मटिया ओढ़ रजाई हो।।
तरताबर जिन धावऽ अतना।
कर लऽ थोड़ भलाई हो।। 
माटी कऽ ई देह हऽ बाबू।
माटी मा मिलि जाई हो।।


5.
ग़ज़ल
•••

मौत आएगी मौत जाएगी 
ज़िंदगी सब्र आज़माएगी
ख़ाबे-अतफ़ाल जागते हैं मिरे
रात कुछ देर थपथपाएगी 
उँगलियाँ शाम से लहू कर लीं
कोई तस्वीर बन ही जाएगी 
दर भी ठंडे हुए हैं दिल की तरह 
कोई दस्तक भी आने पाएगी 
शाम को रक़्स है उदासी का
ये उदासी ही धुन बनाएगी 
साँस थम थम के दे रही है सदा
ऐन मुमकिन है वो न आएगी 
ज़िन्दगी भर उदासियों की ग़िज़ा 
जो बचा क़ब्र जिस्म खाएगी
हश्र के रोज़ बारगाहे-ख़ुदा 
लायी क्या रूह जान जाएगी
ख़ूब पी ली है आपने दरवेश 
अब ये आवाज़ क्या सुनाएगी।

©अदनान कफ़ील दरवेश


शैलेन्द्र कुमार शुक्ल की कविताएँ :-

1.
गधे के प्रति 
-------------------

१. 
मेरे मन के सफेद कोने में
एक प्यारा सा गधे का बच्चा बैठा है
जो कहता रहता है
चुपके चुपके 
आहिस्ते से
बहस में बेइज्जत होना तो चार लोगों के बीच होना
तारीफ के पुल तो अकेले में बांधे पर ही सुहाते हैं
कि नदी के उस पार 
बैसाख में जब करूँ कुलेल तो कोई न देखे

२.
मेरा गधा मूर्खता की झोपड़ी से
निकल आता है कभी कभी
लेकिन ऐसे नहीं निकलता कि दुनिया उसे देखे
एक दिन पहुंच गया था 
दुनिया जहां से चलती है
उसे हीरा और मोती से डर लगता है अब भी

३.
जब पति ने छोड़ दिया था उसे
वह गधा ही था जिसने भला बुरा नहीं कहा
लेकिन नदी तक गया वो साथ 
रात भले आधी थी
गधे की अनुपस्थिति में घोड़े कितना दोषी हैं
सभ्यताएं गवाही दे सकती हैं
उस रात कोई गधा नहीं था वहां
जिन घोड़ों ने खिंचा था रथ
उनके हिस्से की उदासी लिए
मेरे मन के सफेद कोने में
बैठा है गधे का प्यारा सा बच्चा।

◆अवधी कविता◆


जागा जागा रे किसनवा बिहान होई हो


गन्ना गोंहू धान उगाई जेहिकी चली कुदारी

वहिकी बटुई मा पाकी अब जेहिकी है तरकारी

दिल्ली खाई का बइमनवा के आगि लागी हो

जागा जागा रे...


करौ कमाई आपन खातिर छीन न पावै चोरवा

आँखी मूँदि के बटेउ न जौरी खाय रहे हैं पड़वा

मारौ कसि के हांथु करारा रे खरिहान होई हो

जागा जागा रे...


तोहरे आलू दू रुपया मा उनके सत्तर मइहन

टका पसेरी धान बिकि गवा कानूनी कनकइयन

बिस्कुट चिप्सन वाले बनियन ते सवाल होई हो

जागा जागा रे...


खड़ी फसल मा बाबा जी की गांईं चरती दिनु भरि

कैसे बची खेत मा दाना जियति बचाई मरि मरि

नेतऊ करिहैं अगर नवाबी तौ बवाल होई हो

जागा जागा रे...


होत सबेरे लादा सानी बटुवन दूध लगाई

साहेब के घर कहै लरिकवा डेरी मिल्क बनाई

यहिमन केतनी है सच्चाई को बताई नाही हो

जागा जागा रे...


चौगिरदा अधियारु केहे हैं गलागप्पु हैं काबिल

हमरी रुई औ उनका जाकेट फिर फिर भये मुकाबिल

होई कुरूछेत्र मैदनवा कुछ सुझाई नाही हो

जागा जागा रे...


मुसोलनी हिटलर सब मरिगे लड़ि ना पाये कोई

जय किसान का जय जवान ते जुद्ध कब लगे होई

कीन्हिसि लरिका बाप सामने वहकी नासि होई हो

जागा जागा रे...

©शैलेन्द्र कुमार शुक्ल


संदीप तिवारी की कविताएँ :-

1.

कलाई में बंधी घड़ी देख लेता हूँ 

पर समय नहीं देखता 

मैंने कभी समय देखने के लिए 

कलाई में घड़ी नहीं बाँधी

 

कहीं आता हूँ कहीं जाता हूँ 

कभी समय देखकर नहीं उठता 

किसी के घर से

उठता हूँ, जब ऊब जाता हूँ

एक जगह से उठता हूँ 

दूसरी जगह बैठने के लिए 


जैसे एक चिड़िया 

थोड़ी देर बैठती है किसी पेड़ पर

ऊबती है  

फिर उड़ जाती है 

बैठने के लिए 

किसी दूसरी डाल पर 


चिड़िया घड़ी नहीं लगाती 

लेकिन वह समय को जानती है


2.

वह आया

जैसे कई दुकानों से लौटकर आया हो

चेहरे पर थोड़ी मायूसी और उत्साह

घर जाने की जल्दी भी


जैसे हर दुकान का भाव जानकर आया हो यहाँ

नहीं रुका ज्यादा देर

कोई मोल-भाव भी नहीं

बस दस-दस की तीन तुड़ी मुड़ी नोट निकाल

ले गया एक झालर

शायद! दरवाजे पर टाँगने के लिए

छत हो या न हो

दरवाजा तो होगा ही घर में


यह दिवाली का मौक़ा था

कोई मेला होता 

वह अपनी इस साइकिल में

ज़रूर एक चिमटा टाँग कर जा रहा होता

3.

हवाएँ आती हैं पास

हर दिन

लेकर जंगलों का न्योता


पता नहीं 

कहाँ-कहाँ तक जाती हैं

और कितनी-कितनी दूर तक 

बाँटती हैं लिफ़ाफ़ा


वह खिड़कियों से आती हैं

और दरवाज़े से निकल जाती हैं


4.

भतीजी

--------------------------------

बूढ़ों जैसी बातें गूढ़ी

हरकत जैसे छुईमुई है

अभी भतीजी

तीन साल की नहीं हुई है


अलई पलई जो भी आये

बोलती रहती है

घर आँगन दलान में दिन भर 

डोलती रहती है


मुदित मगन वह आधा तीहा

नाचती गाती है

दादी-बाबा की थाली में

खाना खाती है


गाय भैंस पड़िया पड़वा

सबसे बतियाती है

कोयल कहीं अगर बोले तो

वह दुहराती है


भाग दौड़ इतना ज्यादा कि

थक भी जाती है

सबके सोने से पहले वह

सो भी जाती है


सुबह सुबह वह उठ जाती

उत्पात मचाती है

कई बार वह बेमतलब में

पीटी जाती है!!


बूढ़ों जैसी बातें गूढ़ी

हरकत जैसे छुईमुई है

अभी भतीजी

तीन साल की नहीं हुई है

©संदीप तिवारी


गौरव भारती की कविताएँ :-

1.

असंप्रेषित प्रेम-पत्र के एवज़ में

मैं लिख रहा हूँ लगातार

प्रेम कविताएं

ताकि देह छोड़ने से पहले

प्रेम को विन्यस्त कर सकूँ अपने जीवन में

और शब्दोंं से परे

नाम से परे 

पा सकूँ एक अर्थ

जिसकी ऊष्मा पीढ़ियों तक बनी रहे... 


2.
हमारे देश का लोक
तंत्र के नीचे दबा 
चीख़ रहा है
हत्यारा तंत्र
भोंपू लगाकर 
आश्वस्ति का मंत्र पढ़ रहा है... 

3.
माँ
________

मैंने नहीं देखा
माँ को चीखते हुए
जैसे मेरे पिता चीखते हैं
अलबत्ता मैं चाहता रहा कि कभी ऐसा हो

पिता के गुस्से से वाक़िफ़ था मैं
माँ की नाराज़गी 
बर्तनों पर नुमायाँ होतीं रहीं
जिसे मैंने बहुत बाद में समझा था... 

4.

वापसी
___________
घर छोड़ने के बाद
घर लौटने का अंतराल
साल दर साल बढ़ता ही गया

बहुत दिनों बाद
घर पर हूँ
पलट रहा हूँ एल्बम
और देख रहा हूँ हँसते खिलखिलाते चेहरे
लेकिन नहीं ढूंढ़ पा रहा हूँ अपनी एक भी तस्वीर
मैं नहीं हूँ इन तस्वीरों में कहीं
मेरा बिस्तर भी कैमरे की फ्रेम से बाहर है
मेरी जुटाई स्मृतियाँ अनमने भाव से एक जगह पड़ी हैं

मैंने छोड़ा था घर
घर ने भी छोड़ दिया है मुझे
अपनी वापसी पर हैरान
सोच रहा हूँ -
मैं कौन हूँ?
कहाँ हूँ?

©गौरव भारती



संपादक परिचय :-

नाम : गोलेन्द्र पटेल

【काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बीए तृतीय वर्ष का छात्र {हिंदी ऑनर्स

सम्पर्क सूत्र :-

ग्राम-खजूरगाँव , पोस्ट-साहुपुरी , जिला-चंदौली , उत्तर प्रदेश , भारत। 221009

ह्वाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com

नोट :-

दृष्टिबाधित(दिव्यांग) विद्यार्थी साथियों के लिए यूट्यूब चैनल लिंक : -

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आत्मिक धन्यवाद!



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