धूसर काली स्लेट पर
खड़िया से अंकित थी एक आवाज़
जिसे हमारे पूर्वजों ने संजो रखा था
गोड़ाने की खेत में
आज वहाँ शिलान्यास का उत्सव था
और चरनी पर बुलडोजर चलने की बारी
एक घुँघराले बालों वाला महामानव
फैला रहा था अपनी बांहें
घने होने लगे थे काले बादल
मैं उस आवाज को पकड़ना चाहता हूँ
जो अब मुझसे दूर जा रही है।
२ ... भूख
तुम भूखे हो
लूटने के लिए
हम भूखें है
क्योंकि
लुट चुके।
3... मुगलसराय ज़क्शन का सर्वोदय बुक स्टाल
पटरियों पर दौड़ती रेल और उसकी
सीटियों के बीच
अलसुबह, प्रकाश खड़ा हो जाता है
किताबों के साथ
उस स्टेशन पर जिसे लोग ट्रेनों का मायका कहते है
मैं जब भी कहीं से लौटता हूँ
अपने गृह जनपद से सटे सबसे बड़े रेलवे स्टेशन पर
लौटता हूँ
जैसे माँ लौटती है अपने मायके
दीदी लौटती है जैसे अपने गाँव
मेरे जनपद का हर बंदा लौटता है परदेश से
उसी तरह
इस स्टेशन पर
यहाँ लौटते ही लगता है हर सुर-लय-ताल
सम पर आ गये है
रेल की कर्कश ध्वनि यहाँ संगीत में बदल जाती है
और सर्वोदय बुक स्टाल में चलती बहस
एक तान में
किताबों के पन्नों की फड़फड़ाहट
और ट्रेन के पहियों के बीच शुरू हो जाती है जुगलबंदी
प्रकाश का हर ग्राहक उसके लिए महज एक ग्राहक
नहीं होता
वह होता है, मुहिम का एक साथी
और हर किताब एक नारा
जिसे थमाकर वह अपने आन्दोलन को
और विस्तृत करता है
हर ग्राहक की स्मृति को संजो लेता है
अपनी डायरी में
और खुद बन जाता है स्मृति का हिस्सा
इस शहर के हर छोटे-बड़े लिखने-पढ़ने वालों की यह अड़ी है
जहाँ हर कोई करता है जुगाली
और धीरे-धीरे ज्ञान उसके भीतर
रिसने लगता है
मैं जब बढ़ता हूँ आगे
स्मृतियाँ भी होती है साथ
याद आती है माँ की वो बात
कि जब वह जाती है अपने मायके
वहाँ के धूल और फूल के साथ बंध जाती है
वाणी थोड़ी और मुखर हो उठती है
पाँव थिरकने लगते है
मन कुलाचें भरने लगता है
पूरी प्रकृति पंचम स्वर में लगती है गाने
उस संगीत के मिठास में, मैं चुपके से घुल जाता हूँ
जैसे सब्जी में घुल जाता है नमक!
4...भ्रम
तुम्हारी धुरी पर
घूम रहा है
समय
तुम्हें भ्रम है कि
तुम्हारी धुरी पर
घूम रही है
पृथ्वी।
5... तुम्हारा आना
तुम्हारा आना
ठीक उसी तरह है
जैसे रोहिणी में वर्षा की बूँदें
धरा पर आती हैं पहली बार
जैसे रेड़ा के बाद फूटते हैं धान
और समा जाती है एक गंध मेरे भीतर।
तुम्हारा आना महज आना नहीं है
बल्कि एक मंजिल की यात्रा है
जिसमें होते है हम साथ
वहाँ कभी फिसलना होता है तो
कभी संभलना भी
उठना होता है तो कभी गिरना भी।
तुम्हारे होने की वजह से
शान्त जल में उठती रहती है लहरें
घुप्प अंधेरे में भी कहीं चमकती है एक रोशनी
तुम्हारा होना महज होना नहीं है
तुम्हारा आना सिर्फ आना भी नहीं है
और न आकर रूक जाना है
बस, चलना है, चलते जाना है।
6... निःशब्द ध्वनि चित्र
ढलती रात में आसमान के नीचे
ध्रुवतारे को निहारती
मेरी आँखें सप्तर्षियों पर जा टिकी
जो चारपाई के पाये से जुड़े
एक डंडे की तरह चुपचाप टिके हुए थे
हवा बार-बार आकर झकझोरती
और चाहती कि मेरा निहारना बंद हो जाए
मगर मेरी आँखें अडिग थीं
लेकिन इसकी भी तो सीमा है
जैसे इस असीम में हर किसी की सीमा है
पता नहीं कब मैं नींद में डूब गया
मगर आँखे बंद नहीं हुईं
(कहते है आँखें तो एक ही बार बंद होती हैं
वो हमेशा खुली रहती हैं
कभी बाहर तो कभी भीतर की ओर)
इसे पता नहीं कब हमारे पूर्वजों ने
सपने की संज्ञा दे दी
आज वही सपना मेरा दोस्त था
और मैं उसके साथ निरूद्देश्य चला जा रहा था
कि अचानक नदी किनारे पहुँच गया
मेरे और सपने के बीच कोई बात
नहीं हो रही थी
वातावरण बिल्कुल शांत था
नदी का पानी भी शांत ही था
हाँ! कभी-कभी हलचल होती
जब नदी के अरार से
मिट्टी टूटकर छपाक-छपाक गिरती
और नदी में समा जाती
जैसे कोई पुराना रिश्ता हो उससे।
मैं इस दृश्य को देखने लगा
उस पल यह नदी मेरे लिए अनजानी थी
बस मेरा परिचय
उस नदी के साथ
बह रहे रेत कणों से था
और टूट-टूट कर गिरने वाली इस मिट्टी से
जो अब मुझसे ओझल हो रही थी
लेकिन इस ओझल हो रहे पल में भी
मिट्टी के टूट-टूट कर गिरने का दृश्य
मेरे भीतर अटका हुआ था
कि मेरी आँखे बाहर की ओर खुल गईं
और मेरा मित्र सपना
मुझसे विदा लेकर जा चुका था
कि ठीक इसी वक्त ऊपर से एक तारा
टूटकर गिर रहा था
इसी समय-गिर रही थी
चाँदनी, ओंस की बूँदे और पेड़ से पत्ते
इन सबको गिरते देखते हुए
मैं उस मिट्टी के गिरने को
देखना चाह रहा था
जो अब भी अँटकी थी मेरे भीतर।
© रविशंकर उपाध्याय
१.जसिंता केरकेट्टा की कविताएँ :-
1.
क्यों जंगल प्रतिरोध करता है
...............................
वह न बोता है न काटता है
खाली बोरा लेकर चला आता है
गांव में बैठ जाता है
महज दस रुपए के हिसाब से
हाड़-तोड़ मेहनत से उपजाया
सारा धान बटोर लेता है
वह गांव को आज भी
अपनी गांठ में बांध कर रखता है
उधर ऊंची कीमत पर
शहर को बाज़ार बंधक बनाता है
इधर सस्ते में हर गांव को
बनिया-साहूकार बंधक बनाता है
बंधक गांव जब आवाज़ उठाता है
तो यह देश समझता है
जंगल सिर्फ़ प्रतिरोध करता है।।
निखिल आनंद गिरि की कविताएँ :-
1.
(कोरोना- काल की छिटपुट कविताएँ)
1) किसी दिन सोता मिला अपनी ही कार में,
तो कोई चिड़िया ही छूकर देखेगी
कितना बचा है जीवन।
लोग चिड़िया के मरने का इंतज़ार करेंगे
और मेरे शरीर को संदेह से देखेंगे।
स्पर्श की सम्भावनाएँ इस कदर ध्वस्त हैं।
2)
आप मानें या न मानें
इस वक़्त जो मास्क लगाए खड़ा है मेरी शक्ल में
आप सबसे हँसता- मुस्कुराता, अभिनय करता
कोई और व्यक्ति है।
आप चाहें तो उतार कर देखें उसका मास्क
मगर ऐसा करेंगे नहीं
आप भी कोई और हैं
चेहरे पर चेहरा चढाये।
ठीक ठीक याद करें अपने बारे में।
मैं क्रोध में एक रोज़ इतना दूर निकल गया
कि मेरी देह छूट गयी कमरे में।
मुझे ठीक ठीक याद है।
3) तुम्हे कोई खुश करने वाली बात ही सुनानी है इस बुरे समय में
तो मैं इतना ही कह सकता हूँ
पिता कई बीमारियों के साथ जीवित हैं
अब भी।
माँ आज भी अधूरा खाकर कर लेती है
तीन आदमियों के काम।
घर मेें और भी लोग हैं
मगर मैंने उन्हें रिश्तों के बोझ से आज़ाद कर दिया है
मैं पिछले बरस आखिरी बार घर की याद में रोया था
फिर अब तक घर में क़ैद हूँ।
4)
मृत्यु की प्रतीक्षा में कुछ भले लोग चले जा रहे हैं
भाग नहीं रहे।
मृत्यु की प्रतीक्षा में कुछ लोग थालियां पीट रहे हैं
घंटियाँ, शंख इत्यादि बजा रहे हैं।
(इत्यादि बजता भी है और नहीं भी)
कुछ लोग लूडो खेल रहे हैं मृत्यु की प्रतीक्षा में।
जिन्हें सबसे पहले मर जाना चाहिए था
बीमारी से कम, शर्म से अधिक
वही जीवन का आनंद ले रहे हैं।
मृत्यु एक प्रेमिका है
जिसकी प्रतीक्षा निराश नहीं करेगी।
वो एक दिन उतर आयेगी साँसों में
बिना आमंत्रण।
दुनिया इतनी एकरस है कि
मरने के लिए अलग बीमारी तक नहीं।
3.
एक सुबह का सूरज
दूसरी सुबह-सा नहीं होता
अंधेरा भी नहीं।
संसार की सब पवित्रता
उस एक स्त्री की आंखें नहीं हो सकतीं
एक स्त्री के होंठ
उसका प्यार।
तुम जब होती हो मेरे पास
मैं कोई और होता हूं
या कोई और स्त्री होती है शायद
जो नहीं होती है कभी।
मेरे भीतर की स्त्री खो गई है शायद
ढूंढता रहता हूं जिसे
संसार की सब स्त्रियों में।'
©निखिल आनंद गिरि
अदनान कफ़ील दरवेश की कविताएँ :-
1.
वो एक दुनिया थी
°°°°°°°°°°°°°°°°
वो एक दुनिया थी
जिसमें हम थे, तुम थे
(और था बहुत कुछ)
एक फूटा गुम्बद, एक चाक़ू
एक पान का पत्ता, एक ज़रा-सी ओट
एक नेमतख़ाना, एक बिंदी
एक चश्मा
और एक माचिस की डिबिया थी...
एक उदास धुन हुआ करती थी
हमारे भीतर
जिसे हम खटिया के पायों से लगकर सुनते
रेडियो पर समाचार का वक़्त होता
लालटेन का शीशा चटख़ा हुआ मिलता
हम नुजूमी की तरह
तारों से लगे होते
माँ रोटियाँ बनाती
सेनी में अचानक कूद जाती बिल्ली
माँ उसे चीख़ कर भगाती
उसकी चीख़ उसके अंदर देर तक गूँजती, काँपती
और ओझल हो जाती
(वो बाहर कम चीख़ पाती)
बाँध की लूड़ी, अचानक गिर कर खुल जाती
दूर तक भागती
(जिससे चारपाई बुननी होती)
हम उसे लपेटते
(मैं और बहन)
गेंहुवन की आँखें ओसारे में चमकतीं
अँधेरे से हम ख़ौफ़ खाते
हम लूड़ी जल्दी-जल्दी बनाते
और चारपाई की ओड़चन कसते-कसते
अपनी कमर खोल बैठते...
एक काग़ज़ की गेंद उछलती हुई आती
हमारे ठीक पास
हम उसे देखकर ख़ुश हो जाते
माँ रोटियाँ बनाती
मेरी फटी कमीज़ से एक गंध आती
मैं घबरा जाता !
चिड़िया की चोंच-सी
चुभन होती सीने में
मैं घबरा जाता !
शमा की लौ गुल कर बैठता
माँ ग़ुस्सा करती
मैं घबरा जाता !
मैं फिर से हिसाब लगाने लगता
माँ मुस्कुराती
एक चमक होती उसकी आँखों में
शाम की स्लेटी चमक-सी
जिसमें धुआँ नहीं होता
अब्बा कहते-
भण्डारकोण से उठ गए हैं करिया बादल
दहाड़ते हुए वे आ ही जाते
और बरस पड़ते
सब कुछ धुल-पुँछ जाता
वो एक दुनिया थी
अब माँ की गोद में भी
माँ की बहुत याद आती है।
2.
दिशा
°°°°°
जब उनकी सारी उम्मीदें टूट गईं
और भूख ने भी उन्हें बुरी तरह निढाल कर दिया
तो वे पैदल ही चल पड़े अपने गाँव की तरफ़
उन्हें यक़ीन था कि रेलगाड़ी न सही
रेल की पटरियाँ उन्हें ज़रूर उनके घरों तक ले जाएँगी
उन्हें यक़ीन था कि सब दिशाओं में अब भी एक दिशा
बच रही है
जो कि उनके घर की नरम पगडण्डियों तक जाती है
वे इतने मासूम थे कि नहीं जानते थे
इस अंधेरे डरावने समय में
अब हर तरफ़ कर्बला का साया है
अब हर दिशा उनके लिए मृत्यु की दिशा है।
◆अवधी कविता◆
जागा जागा रे किसनवा बिहान होई हो
गन्ना गोंहू धान उगाई जेहिकी चली कुदारी
वहिकी बटुई मा पाकी अब जेहिकी है तरकारी
दिल्ली खाई का बइमनवा के आगि लागी हो
जागा जागा रे...
करौ कमाई आपन खातिर छीन न पावै चोरवा
आँखी मूँदि के बटेउ न जौरी खाय रहे हैं पड़वा
मारौ कसि के हांथु करारा रे खरिहान होई हो
जागा जागा रे...
तोहरे आलू दू रुपया मा उनके सत्तर मइहन
टका पसेरी धान बिकि गवा कानूनी कनकइयन
बिस्कुट चिप्सन वाले बनियन ते सवाल होई हो
जागा जागा रे...
खड़ी फसल मा बाबा जी की गांईं चरती दिनु भरि
कैसे बची खेत मा दाना जियति बचाई मरि मरि
नेतऊ करिहैं अगर नवाबी तौ बवाल होई हो
जागा जागा रे...
होत सबेरे लादा सानी बटुवन दूध लगाई
साहेब के घर कहै लरिकवा डेरी मिल्क बनाई
यहिमन केतनी है सच्चाई को बताई नाही हो
जागा जागा रे...
चौगिरदा अधियारु केहे हैं गलागप्पु हैं काबिल
हमरी रुई औ उनका जाकेट फिर फिर भये मुकाबिल
होई कुरूछेत्र मैदनवा कुछ सुझाई नाही हो
जागा जागा रे...
मुसोलनी हिटलर सब मरिगे लड़ि ना पाये कोई
जय किसान का जय जवान ते जुद्ध कब लगे होई
कीन्हिसि लरिका बाप सामने वहकी नासि होई हो
जागा जागा रे...
©शैलेन्द्र कुमार शुक्ल
संदीप तिवारी की कविताएँ :-
1.
कलाई में बंधी घड़ी देख लेता हूँ
पर समय नहीं देखता
मैंने कभी समय देखने के लिए
कलाई में घड़ी नहीं बाँधी
कहीं आता हूँ कहीं जाता हूँ
कभी समय देखकर नहीं उठता
किसी के घर से
उठता हूँ, जब ऊब जाता हूँ
एक जगह से उठता हूँ
दूसरी जगह बैठने के लिए
जैसे एक चिड़िया
थोड़ी देर बैठती है किसी पेड़ पर
ऊबती है
फिर उड़ जाती है
बैठने के लिए
किसी दूसरी डाल पर
चिड़िया घड़ी नहीं लगाती
लेकिन वह समय को जानती है
2.
वह आया
जैसे कई दुकानों से लौटकर आया हो
चेहरे पर थोड़ी मायूसी और उत्साह
घर जाने की जल्दी भी
जैसे हर दुकान का भाव जानकर आया हो यहाँ
नहीं रुका ज्यादा देर
कोई मोल-भाव भी नहीं
बस दस-दस की तीन तुड़ी मुड़ी नोट निकाल
ले गया एक झालर
शायद! दरवाजे पर टाँगने के लिए
छत हो या न हो
दरवाजा तो होगा ही घर में
यह दिवाली का मौक़ा था
कोई मेला होता
वह अपनी इस साइकिल में
ज़रूर एक चिमटा टाँग कर जा रहा होता
3.
हवाएँ आती हैं पास
हर दिन
लेकर जंगलों का न्योता
पता नहीं
कहाँ-कहाँ तक जाती हैं
और कितनी-कितनी दूर तक
बाँटती हैं लिफ़ाफ़ा
वह खिड़कियों से आती हैं
और दरवाज़े से निकल जाती हैं
4.
भतीजी
--------------------------------
बूढ़ों जैसी बातें गूढ़ी
हरकत जैसे छुईमुई है
अभी भतीजी
तीन साल की नहीं हुई है
अलई पलई जो भी आये
बोलती रहती है
घर आँगन दलान में दिन भर
डोलती रहती है
मुदित मगन वह आधा तीहा
नाचती गाती है
दादी-बाबा की थाली में
खाना खाती है
गाय भैंस पड़िया पड़वा
सबसे बतियाती है
कोयल कहीं अगर बोले तो
वह दुहराती है
भाग दौड़ इतना ज्यादा कि
थक भी जाती है
सबके सोने से पहले वह
सो भी जाती है
सुबह सुबह वह उठ जाती
उत्पात मचाती है
कई बार वह बेमतलब में
पीटी जाती है!!
बूढ़ों जैसी बातें गूढ़ी
हरकत जैसे छुईमुई है
अभी भतीजी
तीन साल की नहीं हुई है
©संदीप तिवारी
गौरव भारती की कविताएँ :-
1.
असंप्रेषित प्रेम-पत्र के एवज़ में
मैं लिख रहा हूँ लगातार
प्रेम कविताएं
ताकि देह छोड़ने से पहले
प्रेम को विन्यस्त कर सकूँ अपने जीवन में
और शब्दोंं से परे
नाम से परे
पा सकूँ एक अर्थ
जिसकी ऊष्मा पीढ़ियों तक बनी रहे...
वापसी
___________
घर छोड़ने के बाद
घर लौटने का अंतराल
साल दर साल बढ़ता ही गया
बहुत दिनों बाद
घर पर हूँ
पलट रहा हूँ एल्बम
और देख रहा हूँ हँसते खिलखिलाते चेहरे
लेकिन नहीं ढूंढ़ पा रहा हूँ अपनी एक भी तस्वीर
मैं नहीं हूँ इन तस्वीरों में कहीं
मेरा बिस्तर भी कैमरे की फ्रेम से बाहर है
मेरी जुटाई स्मृतियाँ अनमने भाव से एक जगह पड़ी हैं
मैंने छोड़ा था घर
घर ने भी छोड़ दिया है मुझे
अपनी वापसी पर हैरान
सोच रहा हूँ -
मैं कौन हूँ?
कहाँ हूँ?
©गौरव भारती
संपादक परिचय :-
नाम : गोलेन्द्र पटेल
【काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बीए तृतीय वर्ष का छात्र {हिंदी ऑनर्स 】
सम्पर्क सूत्र :-
ग्राम-खजूरगाँव , पोस्ट-साहुपुरी , जिला-चंदौली , उत्तर प्रदेश , भारत। 221009
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इससे जुड़ें और अपने साथियों को जोड़ने की कृपा करें।
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