👁️दृष्टिबाधित विद्यार्थियों के लिए अनमोल ख़ज़ाना : गोलेन्द्र पटेल , बीएचयू
Wednesday, 23 December 2020
👁️दृष्टिबाधित विद्यार्थियों के लिए अनमोल ख़ज़ाना : गोलेन्द्र पटेल , बीएचयू 👁️
Monday, 21 December 2020
नए वर्ष पर केंद्रित कविताओं का संकलन : नीरज कुमार मिश्र {©Neeraj Mishra} और गोलेन्द्र पटेल की कविताएं
नए वर्ष पर केंद्रित कविताओं का संकलन : नीरज कुमार मिश्र
(१). नववर्ष - सोहनलाल द्विवेदी
"स्वागत! जीवन के नवल वर्ष
आओ, नूतन-निर्माण लिये,
इस महा जागरण के युग में
जाग्रत जीवन अभिमान लिये;
दीनों दुखियों का त्राण लिये
मानवता का कल्याण लिये,
स्वागत! नवयुग के नवल वर्ष!
तुम आओ स्वर्ण-विहान लिये।
संसार क्षितिज पर महाक्रान्ति
की ज्वालाओं के गान लिये,
मेरे भारत के लिये नई
प्रेरणा नया उत्थान लिये;
मुर्दा शरीर में नये प्राण
प्राणों में नव अरमान लिये,
स्वागत!स्वागत! मेरे आगत!
तुम आओ स्वर्ण विहान लिये!
युग-युग तक पिसते आये
कृषकों को जीवन-दान लिये,
कंकाल-मात्र रह गये शेष
मजदूरों का नव त्राण लिये;
श्रमिकों का नव संगठन लिये,
पददलितों का उत्थान लिये;
स्वागत!स्वागत! मेरे आगत!
तुम आओ स्वर्ण विहान लिये!
सत्ताधारी साम्राज्यवाद के
मद का चिर-अवसान लिये,
दुर्बल को अभयदान,
भूखे को रोटी का सामान लिये;
जीवन में नूतन क्रान्ति
क्रान्ति में नये-नये बलिदान लिये,
स्वागत! जीवन के नवल वर्ष
आओ, तुम स्वर्ण विहान लिये!"
(२).ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं-रामधारीसिंह दिनकर
"ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं
है अपना ये त्यौहार नहीं
है अपनी ये तो रीत नहीं
है अपना ये व्यवहार नहीं
धरा ठिठुरती है सर्दी से
आकाश में कोहरा गहरा है
बाग़ बाज़ारों की सरहद पर
सर्द हवा का पहरा है
सूना है प्रकृति का आँगन
कुछ रंग नहीं , उमंग नहीं
हर कोई है घर में दुबका हुआ
नव वर्ष का ये कोई ढंग नहीं
चंद मास अभी इंतज़ार करो
निज मन में तनिक विचार करो
नये साल नया कुछ हो तो सही
क्यों नक़ल में सारी अक्ल बही
उल्लास मंद है जन -मन का
आयी है अभी बहार नहीं
ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं
है अपना ये त्यौहार नहीं
ये धुंध कुहासा छंटने दो
रातों का राज्य सिमटने दो
प्रकृति का रूप निखरने दो
फागुन का रंग बिखरने दो
प्रकृति दुल्हन का रूप धार
जब स्नेह – सुधा बरसायेगी
शस्य – श्यामला धरती माता
घर -घर खुशहाली लायेगी
तब चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि
नव वर्ष मनाया जायेगा
आर्यावर्त की पुण्य भूमि पर
जय गान सुनाया जायेगा
युक्ति – प्रमाण से स्वयंसिद्ध
नव वर्ष हमारा हो प्रसिद्ध
आर्यों की कीर्ति सदा -सदा
नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा
अनमोल विरासत के धनिकों को
चाहिये कोई उधार नहीं
ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं
है अपना ये त्यौहार नहीं
है अपनी ये तो रीत नहीं
है अपना ये त्यौहार नहीं।"
(३).फिर वर्ष नूतन आ गया -हरिवंशराय बच्चन
"फिर वर्ष नूतन आ गया!
सूने तमोमय पंथ पर,
अभ्यस्त मैं अब तक विचर,
नव वर्ष में मैं खोज करने को चलूँ क्यों पथ नया।
फिर वर्ष नूतन आ गया!
निश्चित अँधेरा तो हुआ,
सुख कम नहीं मुझको हुआ,
दुविधा मिटी, यह भी नियति की है नहीं कुछ कम दया।
फिर वर्ष नूतन आ गया!
दो-चार किरणें प्यार कीं,
मिलती रहें संसार की,
जिनके उजाले में लिखूँ मैं जिंदगी का मर्सिया।
फिर वर्ष नूतन आ गया!"
(४).नवल हर्षमय नवल वर्ष यह-सुमित्रानंदन पंत
"नवल हर्षमय नवल वर्ष यह,
कल की चिन्ता भूलो क्षण भर;
लाला के रँग की हाला भर
प्याला मदिर धरो अधरों पर!
फेन-वलय मृदु बाँह पुलकमय
स्वप्न पाश सी रहे कंठ में,
निष्ठुर गगन हमें जितने क्षण
प्रेयसि, जीवित धरे दया कर!"
(५).गए साल की - केदारनाथ अग्रवाल
"गए साल की
ठिठकी ठिठकी ठिठुरन
नए साल के
नए सूर्य ने तोड़ी।
देश-काल पर,
धूप-चढ़ गई,
हवा गरम हो फैली,
पौरुष के पेड़ों के पत्ते
चेतन चमके।
दर्पण-देही
दसों दिशाएँ
रंग-रूप की
दुनिया बिम्बित करतीं,
मानव-मन में
ज्योति-तरंगे उठतीं।"
(६).नए साल की शुभकामनाएं ! -सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
"नए साल की शुभकामनाएँ!
खेतों की मेड़ों पर धूल भरे पाँव को
कुहरे में लिपटे उस छोटे से गाँव को
नए साल की शुभकामनाएं!
जाँते के गीतों को बैलों की चाल को
करघे को कोल्हू को मछुओं के जाल को
नए साल की शुभकामनाएँ!
इस पकती रोटी को बच्चों के शोर को
चौंके की गुनगुन को चूल्हे की भोर को
नए साल की शुभकामनाएँ!
वीराने जंगल को तारों को रात को
ठंडी दो बंदूकों में घर की बात को
नए साल की शुभकामनाएँ!
इस चलती आँधी में हर बिखरे बाल को
सिगरेट की लाशों पर फूलों से ख़याल को
नए साल की शुभकामनाएँ!
कोट के गुलाब और जूड़े के फूल को
हर नन्ही याद को हर छोटी भूल को
नए साल की शुभकामनाएँ!
उनको जिनने चुन-चुनकर ग्रीटिंग कार्ड लिखे
उनको जो अपने गमले में चुपचाप दिखे
नए साल की शुभकामनाएँ!"
(७).साल मुबारक! -अमृता प्रीतम
"जैसे सोच की कंघी में से
एक दंदा टूट गया
जैसे समझ के कुर्ते का
एक चीथड़ा उड़ गया
जैसे आस्था की आँखों में
एक तिनका चुभ गया
नींद ने जैसे अपने हाथों में
सपने का जलता कोयला पकड़ लिया
नया साल कुझ ऐसे आया...
जैसे दिल के फ़िक़रे से
एक अक्षर बुझ गया
जैसे विश्वास के काग़ज़ पर
सियाही गिर गयी
जैसे समय के होंटो से
एक गहरी साँस निकल गयी
और आदमज़ात की आँखों में
जैसे एक आँसू भर आया
नया साल कुछ ऐसे आया...
जैसे इश्क़ की ज़बान पर
एक छाला उठ आया
सभ्यता की बाँहों में से
एक चूड़ी टूट गयी
इतिहास की अंगूठी में से
एक नीलम गिर गया
और जैसे धरती ने आसमान का
एक बड़ा उदास-सा ख़त पढ़ा
नया साल कुछ ऐसे आया..."
(८).नए साल का कार्ड -लीलाधर मंडलोई
"कितना अजीब है यह कार्ड कि बोलता नहीं-‘सब खैरियत है’
न केवल पेड़-पौधे
न केवल अरब सागर
गायब है धरती, अंतरिक्ष गायब
भाग रहे हैं तमाम पखेरू नये ठिकानों की फिक्र में
कोई ऐसी जगह नहीं
कि चिलकती हो माकूल जगह
सिर्फ गर्द है, धुआँ है, आग है और
और असंख्य छायाएँ छोड़तीं ठिकाने
वर्दियों से अटा कितना अजीब है यह कार्ड
कि बोलता नहीं-‘सब खैरियत है।"
(९).वर्ष नया -अजित कुमार
"कुछ देर अजब पानी बरसा ।
बिजली तड़पी, कौंधा लपका …
फिर घुटा-घुटा सा, घिरा-घिरा
हो गया गगन का उत्तर-पूरब तरफ़ सिरा ।
बादल जब पानी बरसाये
तो दिखते हैं जो,
वे सारे के सारे दृश्य नज़र आये ।
छप-छप,लप-लप,
टिप-टिप, दिप-दिप,-
ये भी क्या ध्वनियां होती हैं ॥
सड़कों पर जमा हुए पानी में यहां-वहां
बिजली के बल्बों की रोशनियां झांक-झांक
सौ-सौ खंडों में टूट-फूटकर रोती हैं।
यह बहुत देर तक हुआ किया …
फिर चुपके से मौसम बदला
तब धीरे से सबने देखा-
हर चीज़ धुली,
हर बात खुली सी लगती है
जैसे ही पानी निकल गया ।
यह जो आया है वर्ष नया-
वह इसी तरह से खुला हुआ ,
वह इसी तरह का धुला हुआ
बनकर छाये सबके मन में ,
लहराये सबके जीवन में ।
दे सकते हो ?
--दो यही दुआ ।"
(१०).नव वर्ष मंगलमय हो-अनिल करमेले
"यह उठते हुए नए साल की सुबह है
धुंध कोहरे और काँपती धरती की
अजीब स्तब्ध सनसनी में छटपटाती
सूरज भी जैसे मुँह छुपा रहा
बीते साल के रक्तिम सवालों से
चमक रहे हैं मक्कार चेहरे वैसे ही
वैसे ही जुटे हुए हैं
सभी किस्म के हत्यारे
करोड़ों बच्चे काम के रास्ते में हैं
उत्तर आधुनिक नरक में हैं करोड़ों स्त्रियाँ
एक बड़े व्यापारिक घराने
और उस पर लुढ़कते शेयर बाज़ार पर
औंधे मुँह पड़ा है मीडिया
और बिकती गवाहियों की
क्रुर मुस्कराहटों पर
हाय-हाय करता हुआ न्याय
मुआवज़े की कुछ नहीं जैसी राहत से
ज़हरीली साँसों को बमुश्किल थामे हुए
फिर तिनके जुटा रहे हैं
शहर के बाशिंदे
इस देश के सच्चे धार्मिक
फिर रोने-रोने को हैं
अधर्मियों की कारगुज़ारियों पर
फिर शुरू होने जा रही हैं
सियासी कलाबाजियाँ
मधुबालाओं और मीनाकुमारियों
की जूतियों की धूल
कई मल्लिकाएँ
अश्लील चुटकुलों की तरह
हमारे ड्राइंग रूम में
बरस रही हैं लगातार
कल जैसा ही हाहाकार है चहुँ ओर
कल जैसे ही दु:ख हैं और
आँखें हैं आँसू भरी-भरी
कल के असीम जश्न के बाद
यह नया साल है
जीवन है पेड़ हैं बच्चे हैं
उम्मीदें कायम हैं
अब का समय सुख का बीते
नए साल में यही मंगल कामनाएँ हैं।"
(११).नए साल की पहली नज़्म -परवीन शाकिर
"अंदेशों के दरवाज़ों पर
कोई निशान लगाता है
और रातों रात तमाम घरों पर
वही सियाही फिर जाती है
दुःख का शब-खूं रोज़ अधूरा रह जाता है
और शिनाख्त का लम्हा बीतता जाता है
मैं और मेरा शहर-ए-मोहब्बत
तारीकी की चादर ओढ़े
रोशनी की आहट पर कान लगाये कब से बैठे हैं
घोड़ों की टापों को सुनते रहते हैं
हद्द-ए-समाअत से आगे जाने वाली आवाजों के रेशम से
अपनी रिदा-ए-सियाह पे तारे काढ़ते रहते हैं
अन्गुश्ताने इक-इक करके छलनी होने को आए
अब बारी अंगुश्त-ए-शहादत की आने वाली है
सुबह से पहले वो कटने से बच जाए तो।"
(१२).नई सुबह -कुँअर रवीन्द्र
"चलो,
पूरी रात प्रतीक्षा के बाद
फिर एक नई सुबह होगी
होगी न,
नई सुबह?
जब आदमियत नंगी नहीं होगी
नहीं सजेंगीं हथियारों की मंडिया
नहीं खोदी जायेगीं नई कब्रें
नहीं जलेंगीं नई चिताएँ
आदिम सोच, आदिम विचारों से
मिलेगी निजात
होगी न,
नई सुबह?
सब कुछ भूल कर
हम खड़े हैं
हथेलियों में सजाये
फूलों का बगीचा,
पूरी रात जाग कर
फिर एक नई सुबह के लिए
होगी न
नई सुबह?"
(१३).नया वर्ष- अनिल जनविजय
"नया वर्ष
संगीत की बहती नदी हो
गेहूँ की बाली दूध से भरी हो
अमरूद की टहनी फूलों से लदी हो
खेलते हुए बच्चों की किलकारी हो नया वर्ष
नया वर्ष
सुबह का उगता सूरज हो
हर्षोल्लास में चहकता पाखी
नन्हें बच्चों की पाठशाला हो
निराला-नागार्जुन की कविता
नया वर्ष
चकनाचूर होता हिमखण्ड हो
धरती पर जीवन अनन्त हो
रक्तस्नात भीषण दिनों के बाद
हर कोंपल, हर कली पर छाया वसन्त हो।"
(१४).नया साल उन बच्चों के नाम - रंजना भाटिया
"नया साल.....
उन बच्चो के नाम
जिनके पास
न ही है रोटी
न ही है ,
कोई खेल खिलोने
न ही कोई बुलाए
उन्हें प्यार से
न कोई सुनाये कहानी
पर बसे हैं ,
उनकी आंखों में कई सपने
माना कि अभी है
अभावों का बिछोना
और सिर्फ़ बातो का ओढ़ना
आसमन की छ्त है
और घर है धरती का एक कोना
पर ....
उनके नाम से बनेगी
अभी कागज पर
कुछ योजनायें
और साल के अंत में
वही कहेंगी
जल्द ही पूरी होंगी यह आशाएं ...
इसलिए ,उम्मीद की एक किरण पर .
नया साल उन बच्चो के नाम ........"
संकलन- नीरज कुमार मिश्र
नाम : गोलेन्द्र पटेल
उपनाम/उपाधि : 'गोलेंद्र ज्ञान' , 'युवा किसान कवि', 'हिंदी कविता का गोल्डेनबॉय', 'काशी में हिंदी का हीरा', 'आँसू के आशुकवि', 'आर्द्रता की आँच के कवि', 'अग्निधर्मा कवि', 'निराशा में निराकरण के कवि', 'दूसरे धूमिल', 'काव्यानुप्रासाधिराज', 'रूपकराज', 'ऋषि कवि', 'कोरोजयी कवि', 'आलोचना के कवि' एवं 'दिव्यांगसेवी'।
जन्म : 5 अगस्त, 1999 ई.
जन्मस्थान : खजूरगाँव, साहुपुरी, चंदौली, उत्तर प्रदेश।
शिक्षा : बी.ए. (हिंदी प्रतिष्ठा) व एम.ए., बी.एच.यू., हिंदी से नेट।
भाषा : हिंदी व भोजपुरी।
विधा : कविता, नवगीत, कहानी, निबंध, नाटक, उपन्यास व आलोचना।
माता : उत्तम देवी
पिता : नन्दलाल
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन :
कविताएँ और आलेख - 'प्राची', 'बहुमत', 'आजकल', 'व्यंग्य कथा', 'साखी', 'वागर्थ', 'काव्य प्रहर', 'प्रेरणा अंशु', 'नव निकष', 'सद्भावना', 'जनसंदेश टाइम्स', 'विजय दर्पण टाइम्स', 'रणभेरी', 'पदचिह्न', 'अग्निधर्मा', 'नेशनल एक्सप्रेस', 'अमर उजाला', 'पुरवाई', 'सुवासित' ,'गौरवशाली भारत' ,'सत्राची' ,'रेवान्त' ,'साहित्य बीकानेर' ,'उदिता' ,'विश्व गाथा' , 'कविता-कानन उ.प्र.' , 'रचनावली', 'जन-आकांक्षा', 'समकालीन त्रिवेणी', 'पाखी', 'सबलोग', 'रचना उत्सव', 'आईडियासिटी', 'नव किरण', 'मानस', 'विश्वरंग संवाद', 'पूर्वांगन', 'हिंदी कौस्तुभ', 'गाथांतर', 'कथाक्रम', 'कथारंग' आदि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित।
विशेष : कोरोनाकालीन कविताओं का संचयन "तिमिर में ज्योति जैसे" (सं. प्रो. अरुण होता) में मेरी दो कविताएँ हैं और "कविता में किसान" (सं. नीरज कुमार मिश्र एवं अमरजीत कौंके) में कविता।
लम्बी कविता : 'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' एवं 'दुःख दर्शन'
अनुवाद : नेपाली में कविता अनूदित
काव्यपाठ : अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय काव्यगोष्ठियों में कविता पाठ।
सम्मान : अंतरराष्ट्रीय काशी घाटवॉक विश्वविद्यालय की ओर से "प्रथम सुब्रह्मण्यम भारती युवा कविता सम्मान - 2021" , "रविशंकर उपाध्याय स्मृति युवा कविता पुरस्कार-2022", हिंदी विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय की ओर से "शंकर दयाल सिंह प्रतिभा सम्मान-2023", "मानस काव्य श्री सम्मान 2023" और अनेकानेक साहित्यिक संस्थाओं से प्रेरणा प्रशस्तिपत्र प्राप्त हुए हैं।
मॉडरेटर : 'गोलेन्द्र ज्ञान' , 'ई-पत्र' एवं 'कोरोजीवी कविता' ब्लॉग के मॉडरेटर और 'दिव्यांग सेवा संस्थान गोलेन्द्र ज्ञान' के संस्थापक हैं।
संपर्क :
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"हरियाते बसंत में ज़हर" : नीरज कुमार मिश्र{©Neeraj Mishra}
नीरज कुमार मिश्र
{युवा कवि व आलोचक}
नीरज कुमार मिश्र की कुछ कविताएँ :-
1.
वायरस
"पनपते हैं वायरस
प्रकृति और मानव मस्तिष्क में
वर्षों से
प्रकृति के ये वायरस सदियों में
आते हैं एक बार
और भरभरा जाती हैं
विकास की इमारतें
चरमरा जाती हैं अर्थव्यवस्थाएं
धरे के धरे रह जाते हैं
अत्याधुनिक हथियार
जिन्हें युद्ध की विभीषिका में
जलते हुए विश्व ने
आपसी होड़ में विकसित किये थे
उन्होंने नहीं विकसित किये
चिकित्सा के उन्नत साधन
नहीं खड़े किये ऐसे अस्पताल
जो लड़ सकें इन वायरसों से
उन्होंने परमाणु बम बनाये
पर नहीं बनाये बहुत सारे वेंटिलेटर
जो टूटती साँसें थाम सकें
न उन्होंने बनाये ऐसे हथियार
जो मार सकें इन मृत्यु बीजों को
विश्व की विकसित ताकतों को
चिढ़ा रहे हैं ये वायरस
हमें आगाह करते हैं
हमसे भी ज्यादा खतरनाक है
मानव- मस्तिष्क में
पनप रहा वायरस
जो किसी दवा से नहीं मरता।"
2.
कोई हाथ भी न मिलाएगा,
क्यों गले मिलो तपाक से,
ये नए कोरोना का शहर है
एक मीटर के फ़ासले से मिला करो।
रखो तन और मन की सफाई,
घर से निकलते हुए
मुँह में मास्क कसा करो।।
मत रखो चेहरे पे हाथ बार बार
अपने हाथ पर ही रखो ध्यान
हर जगह हर बार उसे धुला करो।
न आयेगा फिर कोरोना पास कभी
इसकी हो रही जाँच में
सभी खुलकर मदद किया करो।।
न हो निकलना बहुत जरूरी
अपने काम घर में रहकर किया करो।
घर में रहना ही इससे बड़ा बचाव है
ये मंत्र सभी को दिया करो।।
6.
रास्ते
"रास्तों पर चलने वाले
संसद में पहुँचते ही
भूल जाते हैं रास्तों पर
चलने वालों की पीड़ा
कौन चाहता है रास्तों पर
मीलों मील चलना
अपने देश ने जिनके
पेट पर जड़ दिए हैं
सुरक्षा के नाम पर ताले
ऐसे मुश्किल समय में
साथ नहीं देता कोई अपना
साथ देते हैं वो रास्ते
जिन पर सपनों के पंख लगा
उड़ आये थे हम
उम्मीदों का झोला टाँगे
कितनी दूर इस शहर में
ये वही शहर है
जिसकी विकसित इमारत
की एक एक ईंट
हमने उठाई है
अपने वृषभ कंधों पर
आज उसी विकसित शहर ने
हमें घरों से निकाल
भूख और बेबसी के चौराहे पर छोड़ दिया
ऐसे संकट के समय में
रास्ते थाम लेते हैं हाथ
रास्ते वही होते हैं
बस बदल लेते हैं
अपनी दिशाएँ
मुश्किल समय में।"
7.
यही तो जीवन है
" हर तरफ छाई है खामोशी
बाग में खाली पड़े झूले
बच्चों के इंतजार में
खुद ही झूल रहे हैं
अपने दुःखों की रस्सी में
बाग के बीचों बीच रक्खा
सकोरा
पानी के इंतज़ार में
अंदर ही अंदर सूख रहा है
एक कवि गाहेबगाहे
उसमें डाल जाता है पानी
बाग की नीरसता को देख
सकोरा
अपने आँसुओं को
छिपाता है
अपने ही पानी में
उसके दुःख से दुःखी
पेड़ से झड़ने को
बेताब हैं हरी पत्तियाँ
पीली पत्तियों को गिरते देख
वे भी झड़ जाती हैं उसी में
उसके दुःख में शामिल होने
पत्तियाँ जानती हैं
पेड़ों से बिछड़ने का दर्द
दूसरों के दुःख को
अपना दुःख समझना
उन्होंने सीखा है पेड़ से
पेड़ लड़ता है मुश्किल समय से
और देता है हमें खुशियाँ
सकोरा फिर भी उदास है
कुछ दिनों से
नहीं आई श्यामा चिरइया
न आई गबद्दो गिलहरी
जो खेलते थे पकड़म पकड़ाई
उसके चारों ओर
और वह मचल जाता था
एक बच्चे की तरह
बाग में खिले फूल
सूख गए हैं
उड़ गए हैं उनके रंग
जिनमें बैठ
मधुमक्खियों गपसप करती हुईं
लेती थीं जीवन के लिए
रंग,गंध और रस
जीवन रस लिए
औरों को सुखी बनाने
की चाह में
निकली ये मधुमक्खियाँ
थक-हार बैठ गई हैं
सकोरे के ऊपर
उसके उदास पानी को देख
उड़ेल दिए उन्होंने
अपने जीवन के लिए
सहेजे सारे रंग और रस
सकोरा इस उदारता से
अंदर तक भीग गया
और मुस्कराकर बोला
यही तो जीवन है।"
8.
फूल का एकांत
" एकांत ने घरों में
डाल लिया है डेरा
कबूतर बालकनी में बैठ
झाँकते हैं घरों के अंदर
घरों के अंदर पसरा सन्नाटा
उन्हें बेचैन करता है
और वो उड़ जाते हैं कहीं दूर
बाग के कोने में खड़ा फूल
बगल से गुजरती
स्कूल जाती उस लड़की
का रास्ता देख रहा है
जो साझा करती थी
हर रोज़ उससे
अपना सुख-दुःख
उसके कोमल छुवन से
झूम जाता था उसका
अंतर्मन
और खिल जाते थे अनंत
फूल वहाँ
आज उसके पास तितलियाँ
भी नहीं आतीं रस लेने
एकांत में खड़ा फूल
आज बहुत उदास है
उदास है वहाँ की हवा
जिसमें जहर घुल गया है
अनायास
लोग उसे ही कोस रहें
कि इसी ने फैलाया है
उस वायरस को सब जगह
जिसने बढ़ा दी हैं दूरियाँ
आपसी संबंधों के बीच
हवा जाना चाहती है
सृष्टि के किसी दूर
एकांत कोने में
उस फूल को भी
ले जाना चाहती
अपने साथ
जो उस बाग के एकांत में
खड़ा है चुपचाप। "
9.
पलाश
"केन की कगार पर
उसके कर्मठ पानी को निहारता
उन्नत सर किये खड़ा है पलाश
अपनी बाहें फैलाये
पक्षियों को न्यौतता
कि आओ अपना घरौंदा बनाओ
मुझ में बस जाओ
पलाश की जड़ें
बुंदेलखण्ड की भूमि में धसीं
पी रही हैं केन का ऊर्वर पानी
जिससे संचित हुआ ये पलाश
उगल रहा है लाल-लाल फूल
जो क्रांति के गीत गाते
झूल रहे हैं
बसंती हवा में
विषम-परिस्थिति में भी
अपने अस्त्तित्व की लड़ाई
लड़ता हुआ ये पलाश
हमें इस विकट समय में
लड़ने का साहस देता है।"
नाम : गोलेन्द्र पटेल
【काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बीए तृतीय वर्ष का छात्र {हिंदी ऑनर्स 】
सम्पर्क सूत्र :-
ग्राम-खजूरगाँव , पोस्ट-साहुपुरी , जिला-चंदौली , उत्तर प्रदेश , भारत। 221009
ह्वाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com
नोट :-
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Sunday, 6 December 2020
रविशंकर उपाध्याय {१२ जनवरी १९८५-१९ मई २०१४} की कुछ कविताएँ : गोलेन्द्र पटेल {©Dr.Ravishankar Upadhyaya}
जन्म स्थान : बिहार के कैमूर जिला
शिक्षा - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से, स्नातक और परास्नातक (हिंदी), यहीं से कुंवर नारायण की कविताओं पर शोध भी किये थे।
हिंदी विभाग की पत्रिका "संभावना" के आरंभिक कुछ अंको का सम्पादन भी किये थे।
धूसर काली स्लेट पर
खड़िया से अंकित थी एक आवाज़
जिसे हमारे पूर्वजों ने संजो रखा था
गोड़ाने की खेत में
आज वहाँ शिलान्यास का उत्सव था
और चरनी पर बुलडोजर चलने की बारी
एक घुँघराले बालों वाला महामानव
फैला रहा था अपनी बांहें
घने होने लगे थे काले बादल
मैं उस आवाज को पकड़ना चाहता हूँ
जो अब मुझसे दूर जा रही है।
२ ... भूख
तुम भूखे हो
लूटने के लिए
हम भूखें है
क्योंकि
लुट चुके।
3... मुगलसराय ज़क्शन का सर्वोदय बुक स्टाल
पटरियों पर दौड़ती रेल और उसकी
सीटियों के बीच
अलसुबह, प्रकाश खड़ा हो जाता है
किताबों के साथ
उस स्टेशन पर जिसे लोग ट्रेनों का मायका कहते है
मैं जब भी कहीं से लौटता हूँ
अपने गृह जनपद से सटे सबसे बड़े रेलवे स्टेशन पर
लौटता हूँ
जैसे माँ लौटती है अपने मायके
दीदी लौटती है जैसे अपने गाँव
मेरे जनपद का हर बंदा लौटता है परदेश से
उसी तरह
इस स्टेशन पर
यहाँ लौटते ही लगता है हर सुर-लय-ताल
सम पर आ गये है
रेल की कर्कश ध्वनि यहाँ संगीत में बदल जाती है
और सर्वोदय बुक स्टाल में चलती बहस
एक तान में
किताबों के पन्नों की फड़फड़ाहट
और ट्रेन के पहियों के बीच शुरू हो जाती है जुगलबंदी
प्रकाश का हर ग्राहक उसके लिए महज एक ग्राहक
नहीं होता
वह होता है, मुहिम का एक साथी
और हर किताब एक नारा
जिसे थमाकर वह अपने आन्दोलन को
और विस्तृत करता है
हर ग्राहक की स्मृति को संजो लेता है
अपनी डायरी में
और खुद बन जाता है स्मृति का हिस्सा
इस शहर के हर छोटे-बड़े लिखने-पढ़ने वालों की यह अड़ी है
जहाँ हर कोई करता है जुगाली
और धीरे-धीरे ज्ञान उसके भीतर
रिसने लगता है
मैं जब बढ़ता हूँ आगे
स्मृतियाँ भी होती है साथ
याद आती है माँ की वो बात
कि जब वह जाती है अपने मायके
वहाँ के धूल और फूल के साथ बंध जाती है
वाणी थोड़ी और मुखर हो उठती है
पाँव थिरकने लगते है
मन कुलाचें भरने लगता है
पूरी प्रकृति पंचम स्वर में लगती है गाने
उस संगीत के मिठास में, मैं चुपके से घुल जाता हूँ
जैसे सब्जी में घुल जाता है नमक!
4...भ्रम
तुम्हारी धुरी पर
घूम रहा है
समय
तुम्हें भ्रम है कि
तुम्हारी धुरी पर
घूम रही है
पृथ्वी।
5... तुम्हारा आना
तुम्हारा आना
ठीक उसी तरह है
जैसे रोहिणी में वर्षा की बूँदें
धरा पर आती हैं पहली बार
जैसे रेड़ा के बाद फूटते हैं धान
और समा जाती है एक गंध मेरे भीतर।
तुम्हारा आना महज आना नहीं है
बल्कि एक मंजिल की यात्रा है
जिसमें होते है हम साथ
वहाँ कभी फिसलना होता है तो
कभी संभलना भी
उठना होता है तो कभी गिरना भी।
तुम्हारे होने की वजह से
शान्त जल में उठती रहती है लहरें
घुप्प अंधेरे में भी कहीं चमकती है एक रोशनी
तुम्हारा होना महज होना नहीं है
तुम्हारा आना सिर्फ आना भी नहीं है
और न आकर रूक जाना है
बस, चलना है, चलते जाना है।
6... निःशब्द ध्वनि चित्र
ढलती रात में आसमान के नीचे
ध्रुवतारे को निहारती
मेरी आँखें सप्तर्षियों पर जा टिकी
जो चारपाई के पाये से जुड़े
एक डंडे की तरह चुपचाप टिके हुए थे
हवा बार-बार आकर झकझोरती
और चाहती कि मेरा निहारना बंद हो जाए
मगर मेरी आँखें अडिग थीं
लेकिन इसकी भी तो सीमा है
जैसे इस असीम में हर किसी की सीमा है
पता नहीं कब मैं नींद में डूब गया
मगर आँखे बंद नहीं हुईं
(कहते है आँखें तो एक ही बार बंद होती हैं
वो हमेशा खुली रहती हैं
कभी बाहर तो कभी भीतर की ओर)
इसे पता नहीं कब हमारे पूर्वजों ने
सपने की संज्ञा दे दी
आज वही सपना मेरा दोस्त था
और मैं उसके साथ निरूद्देश्य चला जा रहा था
कि अचानक नदी किनारे पहुँच गया
मेरे और सपने के बीच कोई बात
नहीं हो रही थी
वातावरण बिल्कुल शांत था
नदी का पानी भी शांत ही था
हाँ! कभी-कभी हलचल होती
जब नदी के अरार से
मिट्टी टूटकर छपाक-छपाक गिरती
और नदी में समा जाती
जैसे कोई पुराना रिश्ता हो उससे।
मैं इस दृश्य को देखने लगा
उस पल यह नदी मेरे लिए अनजानी थी
बस मेरा परिचय
उस नदी के साथ
बह रहे रेत कणों से था
और टूट-टूट कर गिरने वाली इस मिट्टी से
जो अब मुझसे ओझल हो रही थी
लेकिन इस ओझल हो रहे पल में भी
मिट्टी के टूट-टूट कर गिरने का दृश्य
मेरे भीतर अटका हुआ था
कि मेरी आँखे बाहर की ओर खुल गईं
और मेरा मित्र सपना
मुझसे विदा लेकर जा चुका था
कि ठीक इसी वक्त ऊपर से एक तारा
टूटकर गिर रहा था
इसी समय-गिर रही थी
चाँदनी, ओंस की बूँदे और पेड़ से पत्ते
इन सबको गिरते देखते हुए
मैं उस मिट्टी के गिरने को
देखना चाह रहा था
जो अब भी अँटकी थी मेरे भीतर।
7.
बरगद
मेरे गाँव के बीचों-बीच
खड़ा है एक बरगद
निर्भीक निश्च्छल और निश्चित।
उसी के नीचे बांटते है सुख-दुःख
गांव के पुरनिया
बच्चे डोला-पाती खेलते हैं
सावन में उठती है
कजरी की गूँजे
मदारी का डमरू और किसी घुमक्कड़ बाबा
की
धुनी भी
रमती है, उसी के नीचे।
लेकिन कब उपजा
यह बरगद
मुझे पता नहीं।
मैं जब भी गांव जाता हूँ पहले उसी से नजर
मिलती है
लगता है
दादा और परदादा की आंखें
उसी पर टंगी हैं
और वे मुझे ही
टुकुर-टुकुर ताकती हैं।
उसके पास पहुँचते ही
लगता है
कि इसके एक-एक रेशे में
समाया है पूरा गांव
मेरी पूरी दुनिया
आज उससे कई बरोह झूल रहे हैं
और वे धरती को चूम रहे हैं
जैसे नन्हा सा बच्चा
अपनी मां को चूमता है।
8.
सबसे तेज
हम सभी मित्र बहस में डूबे हुए थे
कि
बाहर से आते ही एक मित्र ने कहा
कि सबसे तेज चलती है खोपड़ी
दूसरे मित्र ने छूटते ही कहा कि
नहीं, खोपड़ी में बैठा सबसे तेज चलता है मस्तिष्क
कुछ लोगों को लगता है यही मुनासिब कि
क्यों न उड़ा दिया जाए मस्तिष्क
क्यों न कूच डाली जाए खोपड़ी
मगर इसी बहस में शामिल एक तीसरे मित्र
ने कहा कि
अरे क्या कर पायेगा कोई खोपड़ी को कूच कर
इन खोपड़ियों की सभी तंत्रिकाएँ तो कैद हो
चुकी हैं
सुदूर बैठी कुछ खास खोपड़ियों में
जो झनझनाती तो है मगर कभी टकराती नहीं
हाँ! यदि कभी पड़ ही गयी जरूरत तो बस चूम लेती
हैं एक दूसरे को।
9.
हमें भी तो हक है
हमारे होठों के खुलने और बंद होने पर
तुम्हारी नज़र रही
हमारे पाँवों के बढ़ने और ठहर जाने पर
तुम्हारी नज़र रही
हमारे शरीर में हो रहे हर परिवर्तन पर
लगाई तुमने गहरी नज़र
मगर तुम्हारे ही सामने जब
किया जाने लगा हमें अनावृत्त
क्यों तुम्हारी नजरें झुक गयीं?
हमारे देह के इतर नहीं बना
कभी हमारा केाई भूगोल
इतिहास के हर पन्ने पर
लिखी गई युद्ध की विभीषिका के लिए
हमें ही ठहराया गया जिम्मेदार
नैतिकता की हर परिभाषा को
गढ़ने के लिए बनाया गया हमें
आधार
मगर हम कभी नहीं बन पाये खुद आधार
तुम्हारी ही कठपुतलियाँ बन नाचते रहे!
नाचते रहे! नाचते रहे!
लेकिन जब खुद चाहा नाचना और घूमना तो
बना दी गयीं तवायफ़, व्यभिचारी
और बाज़ारू
मगर अब हम नाचेगें
और खुद उसकी व्याख्या
भी हम ही करेंगे
भले ही यह व्याख्या
तुम्हारे धर्मग्रन्थों के खिलाफ हो
अब जब भी मुझे किया जायेगा
अनावृत्त
तुम्हारी नजरों के झुकने का
इंतजार नहीं करेंगे
अब हमें नहीं है जरूरत
किसी ईश्वर के प्रार्थना की
हमारे होठों, कदमों और हमारे
भूगोल को
नहीं है चाहत तुम्हारी
किसी व्याख्या की।
10.
चुप्पी
जब हम कुछ कहते हैं तो
अपना पक्ष रखते हैं
जब हम बोलते हैं तो
किसी की और से बोलते हैं
मगर यह जरूरी नहीं कि
जब हम चुप्प है तो
कुछ नहीं बोलते
हो सकता है
हम कुछ न कह कर भी
कुछ लोगों के लिए
बहुत कुछ कहते है
दोस्तों
आज चुप्पी
सबसे बड़ी ईमानदारी है
जिसके नीचे बेईमानो का तलघर है।
11.
उदासी की आश्वस्ति
ज्यों ही उठती है आवाज
सावधान हो जाओ
एक आशंका व्याप्त हो जाती है
शांति मुझे डरावनी लगने लगती है
हिल उठते हैं समस्त विश्वासी केन्द्र
अपरिचित महसूस होता है
वह रास्ता जिस पर सकदों बार चला था
मछलियाँ घाट के किनारे तैरती हैं
उछलती है तेज लहरों की धार से
घाट पर बैठा एक आदमी
फेंक रहा है आटे की गोलियाँ
कल ही तो बांध से छोड़ा गया था पानी
रेत थोड़ी खिसक आयी है
एक बच्चे की आँख चमक रही हैं
खिलखिला उठा है मन
समाप्त हो जाता है आटा
खत्म हो जाती हैं मछलियाँ
घाट पर बैठा आदमी
अब उदास है
12.
जानना
जानना बेहद जरूरी है
खुद को
यह जानते हुए कि
खुद से बेहतर
कोई नहीं जान सकता
मुझे
जब जानना चाहा खुद को
तो उतरने लगा
तालाब की तलहटी तक
झूमने लगा फसलों के साथ
रिसने लगा चट्टानो के बीच
लगा कि अब पसर रहा हूँ
रिश्तों के भीतर
चमक उठा हूँ असंख्य पुतलियों में
गा रहा हूँ अनंत राग
तब जाना कि
खुद को जानने का
इससे बेहतर
कोई और रास्ता नहीं हो सकता
13.
जब टपकती हैं ओस की बूँदें
जब टपकती हैं ओस की बूँदें
मेरे कमरे के सामने वाले पेड़ के पत्तों पर
सिहर उठता है मन
हवाओं से खेलती गंगा की लहरें
तुम्हारी याद ताजा कर देती हैं
यह वर्ष तो बीत ही गया देखे बगैर
घर के मुंडेर पर बैठी कौओ की बारात
रक्ताभ सूरज अब ढलने वाला है
मगर बिसर गयी है याद सूरजमुखी की
क्या आज नहीं लौट पाएगा
गौरयों का दल अपने घोसलों तक
यही तो मिलना होता है
माँ और बच्चों का
क्या नहीं मिल पाया चारा उन्हें
अपने मासूमों के लिए
या उठा ले गया कोई बाज
किसी एक सदस्य को
जिसके शोक में गतिहीन हो गया है
पूरा दल
बार-बार उझूक-उझूक कर
घोसले के बाहर देखने में प्रयासरत हैं
नन्हीं-नन्हीं गौरैया
कोसों दूर बैठी तुम्हारी
आँखों में डूब रहा हूँ , मैं।
14.
परिभाषा
हम बिछुड़ रहे थे
एक दूसरे से
साल रहा था हमें
बिछुड़न का दर्द
अभी कई इच्छाएँ अतृप्त थीं
कहा ही ठीक से उतर पाया था
तुम्हारी आँखों की बढ़ियाई नदी में
स्पर्श की प्यास बनी ही थी रूप के
श्वासों की गंध लेनी बाकी ही थी अभी
कि सिहर उठा रोम-रोम
हम दोनों की दिशाएँ
एक दूसरे से होनी थी विपरीत
मगर थी नहीं
उँगलियाँ अलविदा के उठती और झुक जातीं
पाँव बढ़ते और ठहर जाते
मेरे भीतर एक अनियंत्रित गति थी
और तुम्हारे भीतर एक नियंत्रित स्थिरता
लहरों पर चमकता सूरज इतना करीब था
जितना एक बच्चें के हाथो का खिलौना
हवा हौले¨ से कुछ कहती और चली जाती
मुझे लगा कि
प्रेम की परिभाषा
शब्दों में नहीं अर्थों में व्याप्त है
ध्वनियों में नहीं
प्रतीकों में अभिव्यक्त है
जब भी करता हूँ तुम्हें याद
तुममें नहीं खुद में पाता हूँ तुम्हें
15.
१.
इतिहास कब गौरवान्वित हुआ है
यशोगान से
उसे तो हर क्षण मजा आया घुलने में
वर्त्तमान की उठती तान में
२.
बे मौसम यह कविता कुछ खास वजह से। ........
बर्फ़ से ढंकी पहाड़ियां
पिघलनी शुरू हो गयी हैं
नदी अब जवान हो रही हैं
फुरसत में बैठे चट्टानों के बीच
अब टकराहट तेज हो चुकी है
और रेत ने जोड़ लिया है
रिश्ता अपने पूर्वजो से।
© डॉ. रविशंकर उपाध्याय
नाम : गोलेन्द्र पटेल
【काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बीए तृतीय वर्ष का छात्र {हिंदी ऑनर्स 】
सम्पर्क सूत्र :-
ग्राम-खजूरगाँव , पोस्ट-साहुपुरी , जिला-चंदौली , उत्तर प्रदेश , भारत। 221009
ह्वाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com
नोट :-
दृष्टिबाधित(दिव्यांग) विद्यार्थी साथियों के लिए यूट्यूब चैनल लिंक : -
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🙏
इससे जुड़ें और अपने साथियों को जोड़ने की कृपा करें।
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