Monday, 31 July 2023

लहरतारा से लमही (प्रेमचंद की 143वीं जयंती) / धुआँ और कुआँ : गोलेन्द्र पटेल

लहरतारा से लमही


लहरतारा से लमही जाते हुए
मैंने जाना—
मन और हृदय के योग से बुद्धि का विस्तार होता है

हे महाप्राण!
मुझे प्रेमचंद जयंती पर नागार्जुन क्यों याद आ रहे हैं?

मैंने जब भी पकड़ी है कुदाली
मेरे लिए
तब खेत कागज़ बना गया है
और कुदाली कलम
और स्याही
मेरे पसीने से मंठा माटी

मैंने जो लिखें अक्षर
वे बीज की तरह उग गये
पूरे खेत में

एक वाक्य मेंड़ पर उगा—
समय के शब्द शोषण मुक्त समतामूलक समाज के पक्षधर हैं

संघर्ष के स्वप्न श्रम के सौंदर्यशास्त्र रचते हैं
क्योंकि कलम के सिपाही सेवा, संयम, त्याग
और प्रेम के किसान हैं
जहाँ नई फ़सलों के नये गान हैं
कि कथा के प्रतिमान प्रेमचंद हैं
वे मानवीय पीड़ा की प्रतिध्वनि के छंद हैं।


धुआँ और कुआँ


क्या धुआँ तुम्हारे फेफड़े को पसंद है?

हुक्का पीते हुए
मैंने सोचा—
क्या भाषा में दुःख का हुक्का-पानी बंद है?

चिन्तन और चेतना के संगम पर
जाति की अस्मिता है

मैं गहरा कुआँ हूँ
मेरे सोते उस पानी को खींचते हैं
जिसके ऊपर अछूत रहते हैं

मेरे भीतर नेह की नदी बहती है
पर, जो मेरे पानी पीते हैं
उनके भीतर इतनी घृणा क्यों?
वे उन्हें जगत पर क्यों चढ़ने नहीं देते हैं?
जो मेरे ऊपर रहते हैं

अरे! अब
कहाँ?
किसे?
कौन?
कुएँ पर चढ़ने नहीं देता है

दुनिया में कुछ अपवाद होते हैं न?

अपवादों से दुनिया नहीं चलती है
दुनिया चलती है अधिकांश के अनुसमर्थन से....

खैर, मुझे याद है कि स्कूल के उस बच्चे ने घड़े से
सिर्फ़ एक गिलास पानी लिया था
जो पैर के प्रहार से मरा है

आह! घाव हरा है, दुःखी धरा है!!

(©गोलेन्द्र पटेल / 31-07-2023)

संपर्क :
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com

 

नोट: प्रेमचंद पर केंद्रित मेरी तीन दर्जन कविताएँ हैं।

Friday, 28 July 2023

मेरी प्रतिभा विरासत नहीं, विपन्नता की देन है : गोलेन्द्र पटेल (ऋतु गर्ग से बातचीत)

सादर नमस्कार मैं ऋतु गर्ग सिलिगुड़ी पश्चिम बंगाल से

गृहिणी समाज सेवी साहित्यकार आपसे आदरणीय कलमकार केशव विवेकी जी द्वारा संपादित काव्य प्रहर मासिक पत्रिका हेतु

आपकी साहित्यिकी यात्रा से जुड़े कुछ प्रश्न में जानना चाहते हैं जिससे हमारे पाठक पढ़कर प्रेरणा प्राप्त करें। 


*1. हम आपका परिचय अपने पाठकों को करवाना चाहते हैं, आप अपने सहज सरल शब्दों में अपनी बारे में हमें बताएं।*

 

A.  नमस्कार! सर्वप्रथम आपके और प्रिय यशस्वी संपादक श्री केशव विवेकी जी के प्रति हार्दिक आभार एवं साधुवाद! मुझे अपने कार्यक्रम से जोड़ने के लिए।


वैसे तो मेरा कोई विशेष सफल परिचय नहीं है, न ही वह पठनीय है। फिर भी, मैं पूरी ईमानदारी के साथ अपने बारे में बताऊँगा लेकिन आपको क्या लगता है कि हर रचनाकार अपने बारे में पूरा सच बताते हैं! क्या एक रचनाकार के साक्षात्कार से उसके व्यक्तित्व के बारे में सही जानकारी प्राप्त होती है? मुझे लगता है कि रचनाकार के व्यक्तित्व के बारे में जानने के लिए रचनाकार का नहीं, बल्कि उसके करीबी उन लोगों का साक्षात्कार लेना चाहिए, जो भाषा में उपेक्षित हैं। मसलन— रचनाकार की जन्मभूमि, कर्मभूमि व भावभूमि से जुड़े हुए लोगों का साक्षात्कार, ख़ासकर उन स्त्रियों का साक्षात्कार लेना चाहिए, जो रचनाकार को जन्म से जानती हैं ।


बहरहाल, मेरा घरेलू नाम 'गोलेन्द्र ज्ञान' है और साहित्यिक नाम 'गोलेन्द्र पटेल'। मेरा जन्म 5 अगस्त, सन् 1999 ई. को उत्तर प्रदेश के चंदौली जिला के खजूरगाँव में एक किसान-मजदूर परिवार में हुआ। मेरे पिता दिव्यांग (विकलांग) हैं और मेरी माता किसान-बनिहारिन हैं, वे दूसरे के खेतों में काम करती हैं, रोपनी से लेकर सोहनी तक। हम तीन भाई व एक बहन हैं और सबसे बड़ा मैं हूँ।


मेरी प्रारंभिक शिक्षा मेरे गाँव की सरकारी स्कूल से हुई है। मेरी शिक्षा का किस्सा रोचक इस अर्थ में है कि मैंने भोजन के लिए सरकारी स्कूलों में पढ़ा है। बचपन में एक उदार शिक्षक की नज़र मुझपर पड़ी, वे मुझे अपने प्राइवेट स्कूल में ले गये। उनकी कृपा से फ़ीस माफ़ थी लेकिन भूखे पेट पढ़ाई में मेरा मन नहीं लगता था। क्योंकि उन दिनों मेरे घर की स्थिति बहुत ख़राब थी। किसी दिन चूल्हा जलता था, तो किसी दिन नहीं। इसलिए मैं नियमित क्लास नहीं कर पाता था। अंततः मैं भूख से परेशान होकर सरकारी स्कूलों में चला गया। वहाँ शुरू-शुरू में चावल-गेहूँ मिलता था। लेकिन कुछ सालों में 'दोपहर का भोजन' मिलना शुरू हो गया। खाना बनाने वाली चाची-दादी मेरे घर की दैन्य स्थिति से अच्छी तरह से परिचित थीं, इसलिए मुझपर उनकी दया दृष्टि बनी रहती थी। गुरुजन की कृपा से किताब-कॉपी की दिक्कत नहीं होती थी और ऊपर से मैं बुनकरों के साथ सुबह-शाम हथकरघे पर कढ़ाई करता था और चरखे पर उनकी नरी भरता था। 


माध्यमिक विद्यालय में पहुँचा, तो नरेगा (मनरेगा) में काम करने लगा। गाँव में सड़कें या नालियाँ बनती थीं, तो उसमें काम करता था। सम्पन्न किसानों के खेतों में भी काम करता था लेकिन मजदूरी बहुत कम मिलती थी और काम गँड़ियाफार करना पड़ता था। मजूरी कम मिलने से मन खिन्न हो गया, तो कभी रामनगर मजदूर मंडी तीनपौलिया, तो कभी पड़ाव मजदूर मंडी के जरिये, मैं शहरों में राजगीर का काम करने लगा। बैग लेकर मैं अपने साथियों के साथ पढ़ने जाता था लेकिन पढ़ने न जाकर हम सब काम करने चले जाते थे। सबके घर की स्थिति ठीक नहीं थी। 10वीं तक जो मेरे सहपाठी थे, अब वे सब शहर में मजूरी करते हैं। चौथी कक्षा से आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई मैंने ऐकौनी से की। यह गाँव मेरा पड़ोसी गाँव है और 9वीं से 12 वीं प्रभुनारायण राजकीय इंटर कॉलेज, रामनगर, वाराणसी से। 12 वीं के बाद इंजीनियरिंग परिवेश परीक्षाएं पास करने के बाद आर्थिक स्थिति ठीक न होने की वजह से एक साल घर बैठना पड़ा, फिर काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी, पालि , ए.आई.एच.सी., फ्रेंच व अँग्रेज़ी से बी.ए. किया और संस्कृत से दो वर्ष का डिप्लोमा कोर्स भी। फिलहाल मैं हिंदी विभाग, बीएचयू में परास्नातक फाइनल ईयर का शिक्षार्थी हूँ। मैं नेट भी पास हो चुका हूँ।


बचपन में इंद्रजीत सिंह एवं अन्य साथियों के साथ मिर्जापुर के लालपुर के पहाड़ों में काम करता था, पत्थर तोड़ता था, गिट्टी फोड़ता था और गायों के लिए घास छिलता था तथा गोबर सैंतता था, रात में खेत की फ़सलें अगोरता था। इसलिए वे पढ़े-लिखे लोग जो मेरे जीवन से थोड़ा बहुत परिचित हैं, वे मुझे कभी हल्कू, तो कभी होरी, तो कभी पहाड़ी कवि कहते हैं। इंद्रजीत अभी भी पहाड़ों में पत्थर तोड़ते हैं।


*2. आपका लेखन काल कब से प्रारंभ हुआ।*


A. देखिए! लेखन कार्य तो बचपन से शुरू है। मैं पढ़ने में सामान्य था, लेकिन कहते हैं न कि अँधों में काना राज होता है, सभी सहपाठी साथी एक जैसे परिवेश से आते थे। हम सब मजदूर के बच्चे थे। कोई क्लास मानीटर बन जाए, हमें फ़र्क नहीं पड़ता था। हमारे बीच लोकतांत्रिकता थी, हमें जाति का बोध नहीं था। हिन्दू-मुसलमान व दलित-सवर्ण सब एक ही थाली में खाते थे, मेरे गाँव में चार हजार से अधिक दलित हैं। एक दिन चौथी कक्षा में मैंने प्रार्थना के बाद 25 तक पहाड़ा सुनाया, तो मुझे क्लास-मॉनीटर बनाया गया। रोज़-रोज़ गुरुजन हमें प्रार्थना कराने के लिए बुलाते थे, रोज़ एक ही राष्ट्रगान गाते-गाते बोरियत महसूस होने लगा था, फिर क्या एक दिन गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर की जय हे, जय हे, जय हे, जय, जय,...से प्रेरणा और प्रतिक्रिया एक साथ भीतर उपजी और मैंने भी राष्ट्रगान के तर्ज पर 'नवराष्ट्रगान' लिखा तथा सुबह की प्रार्थना के बाद 'नवराष्ट्रगान' सुनाया। गुरुजन को लगा कि मैंने किसी का चुराया है लेकिन उसमें वर्तनी त्रुटि ज़बरदस्त थी, जिसको ठीक किया गया। सातवीं-आठवीं कक्षा तक मेरी रचनाओं का संशोधन गुरुवर मुमताज अहमद सर व गुरुवर विकास चौहान सर करते थे, विकास सर ख़ासकर अंग्रेज़ी की कविताओं का संशोधन करते थे। उन दिनों विकास सर भोजपुरी में गीत लिखा करते थे। मैं भी लिखा करता था। हम एक दूसरे को अपना गीत सुनाया करते थे। विकास सर के यहाँ मैं चार बजे भोर में ही चला जाता था। किसी-किसी दिन सर और मैम एक साथ बिस्तर पर सोये रहते थे और मैं पहुँच जाता था।...खैर, उन दिनों गाँव के प्रेमी अपनी प्रेमिकाओं के लिए मुझसे शेरों-शायरी लिखवाते थे बदल में मुझे पैसे देते थे। एक पंक्ति किसी और की होती थी तो एक पंक्ति अपनी। इसी तरह लिखता रहा एक दिन एक प्रेमी की प्रेमिका मेरे गाँव की निकली और पोल खुल गया कि प्रेमपत्र की हैंडराइटिंग मेरी है। भीतरी शीतयुद्ध छिड़ गया। परिणामतः मुझे प्रेमियों का प्रेमपत्र लिखना छोड़ना पड़ा।  


9 वीं कक्षा तक आते-आते मुझे 'कस्बे का कवि' ,'युवा किसान कवि', 'पहाड़ी कवि' व 'गँवई गंध के कवि' आदि के रूप में प्रसिद्धि मिली। कॉलेज में कुछ गुरुजन कवि-शिक्षक थे, उन्होंने मेरी कविताओं को सुना और संशोधन किया। लेकिन जब मैं बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में पहुँचा तो मेरी रचनात्मकता को नयी दिशा व दृष्टि मिली क्योंकि वहाँ देश के प्रतिष्ठित साहित्यकारों से मुझे पढ़ने का मौका मिला। वहीं मुझे 2019 में काव्यगुरु श्रीप्रकाश शुक्ल मिले। उन्होंने सर्वप्रथम मेरे कवि को उम्मीद की उड़ान दी। उनके मार्गदर्शन में मेरी रचनाधर्मिता को गति मिली। मुझे उनकी कृपा से कई शब्द-शिक्षक, ज्योति-पुरुष व चेतना के चिराग़ मिले। मेरे प्रिय पथप्रदर्शकों की सूची में लीलाधर जगूड़ी, अशोक वाजपेयी, अरुण कमल, ज्ञानेंद्रपति, राजेश जोशी, मदन कश्यप, लीलाधर मंडलोई, सदानंद शाही, श्रीप्रकाश शुक्ल, जितेंद्र श्रीवास्तव, स्वप्निल श्रीवास्तव, सुभाष राय, वशिष्ठ अनूप, अरुण होता, कमलेश वर्मा, आशीष त्रिपाठी, राकेशरेणु, शंभुनाथ, ममता कालिया, श्रद्धा सिंह, शैलेंद्र शांत, गिरीश पंकज, पलाश विश्वास व वाचस्पति से लेकर विन्ध्याचल यादव आदि हैं।


*3.हमने साधारण रूप से देखा है कि किसी भी कवि या कवित्री को एक ही उपनाम या उपाधि प्राप्त होते हैं लेकिन आपको अनेक बार उपनाम और उपाधियां प्राप्त हुई ।इसको संक्षेप में हम जानना चाहते हैं।*


A. उपनाम या उपाधि से कोई व्यक्ति बड़ा नहीं होता है। न ही ये व्यक्तित्व को बड़ा बनाते हैं। इसलिए हमें इनके चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए कि फला कवि या लेखक को इतने सारे उपनामों या उपाधियों से जाना जाता है। एक समय था कि कवियों को उपाधियाँ दी जाती थीं। एक समय था कि लोग छद्मनाम से लिखा करते थे। मेरे उपनाम व उपाधि, दरअसल मेरे मित्रों और मार्गदर्कशों के प्रेम व स्नेह के प्रतीक हैं। मैं साहित्यिक दुनिया में उम्र व अनुभव में सबसे छोटा हूँ। सो, मुझे सभी सहृदय समीक्षकों से वात्सल्यपूर्ण आशीर्वाद प्राप्त होते रहते हैं। मेरे प्रिय पथप्रदर्शक मेरे अभिभावक की भूमिका में होते हैं और आत्मीय अभिभावक वैसे भी अपने वत्स को किसी ख़ास विशेषण या दिलचस्प नाम से संबोधित करते हैं। मेरे भी आत्मीय जन मुझे तमाम उपनाम व उपाधियों संबोधित करते हैं। जिनमें कुछ वायरल उपनामों और उपाधियों से आप परिचित हैं। खैर, उपाधि मेरे लिए एक जिम्मेदारी है। मैं मरते दम तक इन उपाधियों पर ख़रा उतरने की कोशिश करूँगा।


*4.आपने इतनी कम उम्र में अपने लेखन को इतना प्रभावशाली कैसे बनाया। क्या आपको यह प्रतिभा विरासत में मिली है?*


A.नहीं, मेरी प्रतिभा विरासत नहीं, विपन्नता की देन है। अर्थात् मुझे लेखन की प्रतिभा विरासत में नहीं मिली है। मेरी माँ अँगूठाछाप हैं और मेरे पिता दो-तीन क्लास तक ही पढ़े हैं, यानी वे भी अँगूठाछाप हैं। मेरी प्रतिभा की जननी मेरी गरीबी है। वह महान है कि नहीं? यह भविष्य तय करेगा। हमें अपने महान होने के बोध से बचना चाहिए, जो अपने महान होने के बोध से बचकर लिखते हैं वे लंबे समय तक अच्छा लिखते हैं। ऐसा पुरखों का कहना है। उपन्यास सम्राट प्रेमचंद भी यह मानते हैं कि गरीबी महान प्रतिभा को जन्म देती है। लेकिन मैं 'महान' शब्द को भविष्य पर छोड़ता हूँ। मेरी प्रतिभा भी दीनता की कोख से जन्मी है। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि 'प्रतिभा' जन्मजात चीज़ है। आचार्य भामह ने भी कहा कि काव्यप्रतिभा कुछ ख़ास लोगों में ही होती है। इस संदर्भ में मुझे आचार्य कुंतक याद आ रहे हैं, वे कहते हैं-"प्राक्तनाद्यतन-संस्कार-परिपाक-प्रौढ़ा प्रतिभा काचिदेव कविशक्तिः।" (अर्थात् पूर्व एवं वर्तमान जन्म के संस्कारों से मिली कवित्व शक्ति प्रतिभा है।) प्रतिभा को प्रमुख काव्य हेतु माना जाता है। लेकिन आचार्य दण्डी ने अभ्यास पर ज़ोर दिया है। क्योंकि अब अभ्यास कर के कोई भी कवि बन सकता है। अभ्यास कर कविता लिखी जा सकती है और लिखी जा रही हैं। लेकिन अभ्यास उस कवि को परिष्कृत करता है, जिसमें कवित्व की प्रतिभा होती है, जो जन्मजात कवि हैं। लेकिन यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि सभी को संतुष्ट करने की इच्छा कारयित्री प्रतिभा की मृत्यु का कारण होती है!


अब रही बात इतनी कम उम्र में अपने लेखन को प्रभावशाली बनाने की बात, तो वह है सही पथप्रदर्शक के चुनाव से संभव हुआ है। मैं बार-बार अलग-अलग साहित्यिक मंचों से यह बात कहता रहा हूँ कि मित्र व मार्गदर्कश का चयन सोच समझ कर करें। हमें स्वामी विवेकानंद की परंपरा का शिष्य बनना चाहिए, यानी हमें भी अपने गुरु की परीक्षा लेकर ही उन्हें गुरु बनाना चाहिए। चयन के मामले में मैं अपने को सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मैंने सही पथप्रदर्शकों का चयन किया है। मेरे सभी पथप्रदर्शक साहित्य के सूर्य हैं, मनुष्यता के मार्गदर्कश हैं। जिनकी रोशनी में मेरी सृजन-यात्रा जारी है।

 

*5.आप हिंदी एवं भोजपुरी दोनों भाषाओं में लिखते हैं इसकी कोई खास वजह।भोजपुरी भाषा की तरफ कैसे रुझान हुआ।*


A. वैसे तो विद्यालय से विश्वविद्यालय के सफ़र को ध्यान रख कर देखा जाए, तो अब तक मैंने संस्कृत, पालि, अपभ्रंश, हिंदी, भोजपुरी, फ्रेंच व अंग्रेजी भाषाओं का अध्ययन किया है। तमिल भाषा सीखने की प्रबल इच्छा है। रही बात भोजपुरी में लिखने की, तो भोजपुरी में अभी तक मैंने कोई ढंग की साहित्यिक रचना नहीं की। आर्थिक संकट के दंश से बचने के लिए 2015 से 2018 के बीच भोजपुरी सिनेमा के गीत मैंने लिखे हैं जो कि भर्ती हैं, लेकिन अब मुझे कुछ साहित्यिक चीज़ें लिखनी हैं। क्योंकि यह मेरी पितृभाषा है, मेरी मातृभाषा अवधी और भोजपुरी के संयोग से निर्मित भाषा है, क्योंकि मेरे पिता भोजपुरी हैं और मेरी माता अवधी।


*6.युवा कवि के रुप में आपकी बहुत प्रतिष्ठा है। इसे आपने कैसे अर्जित किया। हमारे नए रचनाकारों को लेखन विषय संबंधी क्या जानकारी देना चाहेंगे।*


A. आपके इस सवाल का उत्तर चौथे सवाल के उत्तर में निहित है। खैर, रही बात नए रचनाकारों को लेखन विषय संबंधी जानकारी देने की, तो नये रचनाकारों को एक बात हमेशा ध्यान रखनी चाहिए कि उनमें धीरता और गंभीरता ये दो चीजें होनी चाहिए। उन्हें अपने लेखन से किसी को ख़ुश करने से बचना चाहिए। साथ में उन्हें परंपरा का भी ज्ञान होना चाहिए, इसके लिए उन्हें अपने समकालीन साहित्यकारों के साथ-साथ पुरखों को ख़ूब पढ़ना चाहिए। उन्हें पुरखों से प्रेरणा और प्रतिक्रिया एक साथ ग्रहण करनी चाहिए। उन्हें अपनी भाषा और संवेदना पर काम करना चाहिए तथा किसी बड़े रचनाकार के शिल्प को कॉपी करने से बचना चाहिए। यह तभी संभव हो पाएगा, जब आपका कोई साहित्यिक गुरु होगा, इसलिए एक अच्छे साहित्यिक गुरु की तलाश करें, जो आपके करीब भी हों, नहीं कि हमें लिखनी है कविता और हम कथाकार को गुरु बना लें।


*7.आपका लालन-पालन किन परिस्थितियों में हुआ। क्या लेखन कला और अन्य प्रतिभाओं का जन्म पारिवारिक परिवेश से हुआ।*


A. आपके इस प्रश्न का उत्तर पहले व दूसरे प्रश्न के उत्तर में दिया जा चुका है। लेकिन एक बात जो नहीं बतानी चाहिए, लेकिन मैं बता दे रहा हूँ, वह यह कि मेरा लालन-पालन विपरीत परिस्थितियों में हुआ है। शैशवावस्था में जब मैं दुधमुंहा शिशु था, तो मेरे पिता मेरी माँ को पाँच बरस के लिए वनवास भेज दिये थे। मामला दहेज-वहेज का था। माँ मुझे लेकर अपने मायके चली गयीं। उनके पिता व भाई पहाड़ों में काम करते थे, बोल्डर काटते थे व पटिया निकालते थे इसलिए मुझे बचपन में मेरे हाथों कलम की जगह छेनी-हौथी, चकधारा, टाँकी, गुट्ठा व घन आदि मिला। मेरी माँ बीमार थीं, उन्हें दूध नहीं होता था, तो माँ की सहेलियों ने मुझे अपना स्तनपान कराया। पड़ोसियों ने अपनी बकरी का दूध दिया। यहाँ सब कुछ बताना संभव नहीं है। मेरे बचपन के बारे में अधिक जानने के लिए माँ की सहेलियों, भौजाइयों और मेरे गाँव की औरतों से संपर्क करें।


*8.आपके लेखन से ऐसा लगता है कि आपके हाथों में करनी और हथौड़ी हमेशा रहती है जिससे आप समाज के हर तबके की बुराइयों को तराशते नजर आते हैं कोई खास वजह।*


A. माँ खेतों में काम करती थीं, तो विरासत में मेरे हाथों में कुदाल, फावड़ा व खुरपी मिलीं। माँ अभी भी खेतों में काम करती हैं। शहर में मैं लेबर बना, तो मेरे हाथों में करनी व बसूली मिलीं। हथौड़ी तो नाना-मामा से मिली है। इन्हीं हथियारों से अपने समय को तराशने की कला सीख रहा हूँ। मेरी आत्मा के संगतराश मेरे शब्द हैं।


 *9. आपका मन अंतस की पीड़ा को बहुत बारीकी के साथ पढ़ना जानता है शायद यही वजह है कि आपके काव्य में लाचारी पर बहुत अधिक लिखा गया है। हमारे पाठक जाना चाहते हैं कि लेखक बनने से पहले किन भावों  का अत्यधिक महत्व है।*


A. पीड़ा प्रबोधन की पंक्तियाँ जनविमुखव्यवस्था का प्रतिपक्ष होती हैं, जो मानवीय संवेदना के संघनित होने पर प्रोक्ति में तब्दील हो जाती हैं। ऐसी पंक्तियां अंतर्मन की आँख से पढ़ी जाती हैं। मेरे यहाँ काव्य में लाचारी, मनुष्य की लालसा की तरह है और उदासी उम्मीद की तरह, क्योंकि लाचारी, उदासी व पके हुए दुःख में जीवन की लय होती है, उदात्त जिजीविषा होती है। खैर, लेखक बनने से पहले उसकी भीतरी या सच्ची प्रवृत्ति-निवृत्ति को जागृत रखने वाले भावों का अत्यधिक महत्व है। लेखक को सामाजिक मन को उद्दीप्त करने वाले भावों को पहचानने की कला में सिद्धहस्त होना चाहिए। उसे उन भावों को शब्दबद्ध करना चाहिए, जो समाज को मनुष्यता की उच्च भूमि पर लेकर जाएं। इन्हीं भावों को लोकमंगल की भावना के अंतर्गत रखा जाता है। जब ऐसे उदात्त भाव से पाठक गुज़रते हैं, तो वे अपने संकुचित व कुंठित मानसिकता से मुक्त होते हैं और जो रचना अपने पाठक को कुंठित मानसिकता से मुक्त करती हुई उसे आनंद की अनुभूति कराती है, वह अच्छी रचना होती है।


*10. किन बातों से प्रेरित होकर अपने दिव्यंग सेवा संस्थान खोलने का निर्णय लिया।*


A. दरअसल 'दिव्यंग सेवा संस्थान' एक आभासी मंच है। जहाँ दृष्टिबाधित विद्यार्थियों के लिए निःशुल्क में अध्ययन सामग्री उपलब्ध करायी जाती है। मेरे पिता रीढ़ से दिव्यांग हैं प्रेरणा तो उन्हीं से मिली है क्योंकि वे फक्कड़ स्वभाव के हैं बिलकुल कबीर की तरह लेकिन मैं उन्हें अमीर खुसरो कहता हूँ क्योंकि वे पहेलियाँ पूछते रहते हैं। बहरहाल, मेरे कई सहपाठी साथी नेत्रहीन हैं, उनके कहने पर ही 'दिव्यंग सेवा संस्थान' को खोला गया है। इस मंच पर कवि, लेखक, शिक्षक, प्रोफेसर, पत्रकार, वकील व समाजसेवी आदि सभी का वक्तव्य उपलब्ध कराया जाता है, जो हमारे पठन-पाठन से संबंधित होते हैं।


नाम : गोलेन्द्र पटेल

संपर्क :

डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।

पिन कोड : 221009

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com

Friday, 21 July 2023

मणिपुर की घटना पर केंद्रित कविताएँ (manipur kee ghatana par kendrit kavitaen)

 मणिपुर की घटना पर केंद्रित कविताएँ : गोलेन्द्र पटेल


1).


पके हुए दुःख

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घटनाएँ उत्प्रेरक होती हैं,

जो दुःख की रचनात्मक क्रिया की गति को बढ़ाती हैं


पके हुए दुःख 

कला में उस क्षण उतरते हैं

जब कलाकार भीतर से द्रवित होता है!


अमानवीय घटनाएँ

संवेदनशील मनुष्य को झकझोरती हैं

ताकि वह अत्याचार पर मौनव्रत सरकार से सवाल करे

वह ऐसी घटनाओं पर आवाज़ उठाये

जो नफ़रत की राजनीति को जन्म देती हैं

जो मनुष्यता को शर्मसार करती हैं


यह देश के लिए दुखद है 

कि राज्य में ऐसी घटनाएँ राजधानी की देन हैं

दुर्नीति-निर्मित हैं


आए दिन ऐसी घटनाओं की ख़बरें देखकर 

मन बहुत दुखी है

जन! दुखी मन कल का राज्य कैसे रचे?

राष्ट्र कब रोता है? 

क्यों रोता है? 


देखो न! सुनो न! 

निर्वस्त्र नारियों का चीखना, चिल्लाना, चीत्कारना, चोकरना, चिंघाड़ना, सिसकना

गरियाना, गुर्राना, बर्राना और दर्द की चुप्पी

इस रचना में

राष्ट्र की रूह रो रही है न?


उनका दुःख हमारा दुःख है

हम उनके हैं

वे हमारे

हम उनके दुःख को भाषा के हवाले कर रहे हैं

क्योंकि भाषा से केंद्र की सत्ता तय होती है!

(रचना : 21 जुलाई 2023)

तसवीर साभार : गूगल

2).


लहूलुहान आत्मा

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वीभत्स वीडियो है

पता नहीं कब से रौंदी जा रही हैं वे?


इस धरती पर

वे जो अपने पेट में तुम्हारा पुरुषार्थ ढोती हैं

और तुम्हारे हिस्से की धूप अपनी पीठ पर

और कंधे पर आसमान


उन्हें कभी लकड़ी समझ कर चूल्हे में जलाया जाता है

तो कभी खेत समझ कर जोता जाता है

तो कभी पत्थर में तब्दील कर दिया जाता है

तो कभी उनकी देह युद्धभूमि होती है

तो कभी वे जुए में हारी जाती हैं


अभी वे ख़ुद की ख़ुदी खोज कर रही हैं

अभी वहाँ उनकी हत्या हुई है

अभी यहाँ उनकी आत्मा लहूलुहान है

अभी वे यौन हिंसा और दरिंदगी के दुर्दांत खेल के ख़िलाफ़

अँधेरे में केवल जलती मशाल हैं


वे अन्याय के प्रति असहिष्णु हैं

उनकी रचनात्मक पीड़ा में उग्रता की गंध है

उनकी आँखों में आग है

उनकी भाषा में टीस है

उनके गीतों की टेक है—

“मर गया देश, 

अरे जीवित रह गए तुम!”

(रचना :  22 जुलाई 2023)

तसवीर साभार : गूगल

[नोट: अंतिम दो पंक्तियाँ मुक्तिबोध की हैं।]


3).


दो हरी पीड़ित पत्तियाँ 

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चारों ओर शोर है


सन्नाटा बढ़ता जा रहा है

उफनी हुई नदी की स्याह लहरें

बातें कर रही हैं

आगामी सुनामी पर

जिन पर बोलना ज़रूरी है

वे सब चीज़ें अनुपस्थित हैं


एक नदी जब दीन होकर 

रोती है

तो कुछ गाँव, कुछ शहर डूबते हैं

लेकिन एक पत्ती की आँखों से 

जब ख़ून के आँसू टपकते हैं

तो पूरा देश डूबता है

और सारे पहाड़ धरती में धँस जाते हैं


जितने भी द्वीप डूबे हैं, देश डूबे हैं

वे सब के सब पत्तियों के आँसू में डूबे हैं

पर, वे दो हरी पत्तियों के आँसू में डूबे नहीं

क्योंकि अब कागज़ की नाव आँसू में गलती नहीं है

भँवर में डूबती नहीं है

वे उसी नाव में सवार हैं

उन्हें तकलीफ़ के तूफ़ान से भय नहीं है


जनतंत्र के जंगल में 

दोनों पीड़ित पत्तियाँ 

न्याय की गुहार किससे लगायें

पेड़ से?

प्रभु से?


दोनों पत्तियों का दुःख देश का दुःख है

क्योंकि देश पत्ती है!

(रचना :  21 जुलाई 2023)

तसवीर साभार : गूगल

4).


समाज इतना संवेदनहीन क्यों होता जा रहा है?

_________________________________________


नदियाँ तब उफनती हैं

जब उनके परिसर को लोग हथिया लेते हैं

इतना ही कागज़ पर लिखा था मैंने

कि मछलियों की आँखों से टपकीं 

आँसू की बूँदों ने पानी में डूबे हुए सूरज से पूछा,


यह जघन्य, घिनौना, निंदनीय व भयानक अपराध किसकी देन है?


पुरुषों का इतिहास गवाह है

कि स्त्रियाँ धर्म व जाति के नाम पर सबसे अधिक छली गयी हैं 


पहाड़ के पत्थर पर शर्म से लहूलुहान स्त्रियों के सजीव चित्र हैं

सुबह-शाम चेतना की चिरई पीड़ा का प्रगीत गाती है


आज फिर कुछ कलियों को रौंदा गया है

पेड़ की पत्तियों से हवा की तरह

भाषा आती है

जंगल की ख़बर से सनी सुगंध संसद में यह सवाल करती है

कि पुरुषप्रधान राजनीति स्त्रियों की इज़्ज़त कब की है!


अमानवीय षडयंत्रकारी घटनाओं के इतिहास में

एकैक अक्षरों के नीचे अनेक स्त्रियों की चीखें दबी हैं

अहिल्या के बलात्कार से लेकर द्रौपदी के चीरहरण तक 

और नंगेली के स्तन कटने से लेकर निर्भया कांड तक

इस तरह की तमाम घटनाओं की स्मृति मात्र से भीतर ज्वाला सी धधक उठी है

मन कर रहा है कि फूँक दूँ उन्हें

जिनकी राजनीति स्त्री की देह से होकर गुज़रती है

जिनकी विजययात्रा उसकी योनि में होती है


जिस देश को माता कहा जाता है—भारत माता

जहाँ स्त्रियाँ पूजी जाती हैं

वहाँ आरक्षण की आग में जल रही हैं जातियाँ

उजड़ रही हैं बस्तियाँ


मणिपुर में क्रिस्चन कुकी दो औरतों को नंगा घुमाना

राष्ट्रनायक की आत्मा का मरना है!


घुमाने वालों की ज़मीन मर चुकी है

उनकी माँएँ अपनी कोख को कोस रही हैं

उनकी रूह काँप गयी है

यह सोच कर कि कल कहीं उनके साथ ऐसा न हो जाए!


आख़िर समाज इतना संवेदनहीन क्यों होता जा रहा है?

इस घटना पर जनबुद्धजीवी चुप क्यों हैं?

क्या वे सत्ता के सिंहासन को हिलाने में असमर्थ हैं?


वे अंधे तो नहीं हैं, वे बहरे तो नहीं हैं

फिर वे बोल क्यों नहीं रहे हैं

उनके पक्ष में जिनको उनके साथ की ज़रूरत है


जो कमज़ोर के पक्ष में बोल रहे हैं 

उनकी बातें दबा दी जा रही हैं

मगर मज़ेदार बात यह है कि

सवाल करने वाले साहित्य को सत्ता जितनी अधिक दबाती है

वह उतनी अधिक दूरी तय करता है।

(रचना :  21 जुलाई 2023)


5).


मृत मणिपुर

________________________________


यह भाषा में स्याह संवेदना रचने का समय है


मणिपुर की मणि गायब है

वह अँधेरे में है

उसकी इन्सानियत मर गयी है

उसका पुर जल रहा है


बर्बर, बलात्कारी व हैवान पुरुषों की भीड़ द्वारा

वहाँ दो स्त्रियों का नग्न परेड कराया गया

लेकिन सब चुप रहे 


जो स्वयं को कलंकित कर रहे हैं

वे पूरी पुरुष-जाति को बदनाम कर रहे हैं


मृत मुल्क में न्याय की उम्मीद किससे है?

सरकार से?

जनता से?

(रचना :  21 जुलाई 2023)


6).


न्यायसंगत प्रतिरोध शक्ति

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तुम मसल सकते हो सभी कलियों को

रौंद सकते हो सभी फूलों को

मगर तुम सुगंध को आने से नहीं रोक सकते


यह उन मधुमक्खियों की निजी क्रांति है 

जिन्हें बोलने मात्र के लिए सज़ा होती रही है

जिनके पंख कुतरे जा रहे हैं


रंग के चुप रहने का मतलब यह तो नहीं 

कि तितलियों के भीतर कोई हलचल नहीं है! 


ये मधुमक्खियाँ और तितलियाँ 

रस के हक लिए

आभूषण नहीं, औज़ार लैस होना चाहती हैं


ये तुम्हारी जीभ पर अपने डंक से लिखना चाहती हैं

न्यायसंगत प्रतिरोध शक्ति!

(रचना :  21 जुलाई 2023)


संपर्क :

डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com

Friday, 14 July 2023

स्त्री, औरत और महिला में क्या अंतर है? : गोलेन्द्र पटेल / stree, aurat aur mahila mein kya antar hai? : Golendra Patel

 स्त्री, औरत और महिला में क्या अंतर है?




हमारी भाषा में सच तो यही है कि

दो शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची नहीं होते


स्त्री, औरत और महिला में क्या अंतर है?


नारीवादी दृष्टि में ‘स्त्री’ वह संज्ञा है

जो अपनी अस्मिता का अन्वेषण कर रही है

और वह अन्य दोनों संज्ञाओं को अपने में समेटी हुई है


‘महिला’ वह संवैधानिक शब्द है

जो सभ्य, शिष्ट और शिक्षित की ओर संकेत करता है

लेकिन ‘औरत’ वह साहित्यिक शब्द है

जो अनपढ़, असहाय और गँवई की ओर संकेत करता है

हालांकि वाचक और बोधक के बीच

ये संज्ञाएँ

अपने अलग-अलग अर्थ का बोध कराती हैं


ये संज्ञाएँ अपने अस्तित्व के लिए

संघर्षरत हैं


पुरुषों के व्याकरण में नारी का विलोम नर है

स्त्री का विलोम पुरुष है

और औरत का विलोम मर्द है 

पर, प्रश्न यह है, महिला का विलोम क्या है?

जबकि चारों शारीरिक संरचना में एक हैं!


(©गोलेन्द्र पटेल / 15-07-2023)

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Saturday, 1 July 2023

हिन्दी कविता में स्तन : गोलेन्द्र पटेल / Breast in Hindi Poetry: Golendra Patel

हिन्दी कविता में स्तन : गोलेन्द्र पटेल

साहित्य, संगीत, सिनेमा एवं कला में स्तनों के प्रति सम्मानपूर्ण दृष्टिकोण रखना और उनकी शारीरिक, भावनात्मक और सांस्कृतिक महत्ता को समझना आवश्यक है। स्तनों का संबंध स्त्रीत्व, मातृत्व, ममता, स्नेह, प्रेम, प्रजनन, पोषण और पहचान ही नहीं, बल्कि सृजनात्मक शक्ति और सौंदर्य से भी है, लेकिन कहीं पर इनका वर्णन वात्सल्यवृत्ति में है, तो कहीं पर वासनावृत्ति में
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महान प्रेम मौन होता है, वह जितना कोमल है, उतना ही कठोर है, वह अपनी लघुता में विराट है, व्यापक है, विनम्र है, विशेष है, ब्रह्म है! अब जब जीवन में प्रेम का घनत्व कम होता जा रहा है। प्रेम की बात हो रही है, पर प्रेम जीवन से गायब है। प्रेम बाहर नहीं, भीतर की चीज़ है। वह तन नहीं, मन की वस्तु है, अर्थात् वह देह की वस्तु नहीं, आत्मा की वस्तु है; वह सम्पूर्ण आत्म-समर्पण है, इसलिए वह अपनी उदात्तता में भक्ति है, उसमें वह शक्ति है, जो अवगुणों को गुण बनाती है और असुंदर को सुंदर! प्रेम आंतरिक अनुभूतिप्रधान होता है। प्रेम व्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व से होता है। कवि मानवीय सौंदर्योपासक प्राणी है। संस्कृत साहित्य के मानवीय सौंदर्य की अनुगूँज हिंदी कविता में सुनाई देती है। कालिदास के साहित्य इसके सबसे सर्वोत्तम उदाहरण हैं। मुझे 'हिंदी कविता में स्तन' पर बोलना है, तो मैं सर्वप्रथम महाकवि कालिदास से अपनी बात शुरू करता हूँ। वे 'मेघदूत' में कहते हैं :-

छन्‍नोपान्त: परिणतफलद्योतिभि: काननाम्रै-
     स्‍त्‍वय्यरूढे शिखरमचल: स्निग्‍धवेणीसवर्णे।
नूनं यास्‍यत्‍यमरमिथुनप्रेक्षणीयामवस्‍थां
     मध्‍ये श्‍याम: स्‍तन इव भुव: शेषविस्‍तारपाण्‍डु:।।

इस श्लोक में प्रकृति नायिका है, इसमें वे पीली पृथ्वी के स्तन की बात करते हैं। जिसका संबंध इसमें वर्णित पर्वत की चोटी से है। कविता में स्तन की चर्चा, मतलब मांसलता के मूल्य पर बातचीत। हिंदी में प्रेमानुभूति की मांसलता की जड़ें अंकुरणकाल (आदिकाल) के प्रेमपरक कविताओं में हैं क्योंकि वहाँ भी बहुत से प्रेमपरक कविताओं में प्रेम के नितांत दैहिक और उत्तेजक उरोज एवं नायिका के गुप्तांगों के शब्दचित्र सौंदर्य के साँचे में ढल कर नायक में 'कामेच्छा' को उदित करते हैं।

जीवन का प्रेम और सौंदर्य से अटूट संबंध है क्योंकि प्रेम के रंग और सौंदर्य की सुगंध जीवन के रंग और गंध हैं। देह प्रेम की जन्मभूमि है! देह के ही इर्दगिर्द प्रेम और सौंदर्य की अभिव्यंजना होती है। देह में ही वासना के फूल खिलते हैं। देह से ही उत्तेजक उजास फूटते हैं। देह से ही मनोवेग को उद्दीप्त करने वाली प्रेमपरक कविताएँ उपजती हैं। प्रेम देव है, तो स्त्री-देह देवमंदिर। स्त्री-देह की सुंदरता पुरुष-देह को सदैव उसकी जवानी का आभास कराती है। शायद इसलिए प्रेम के कवि ख़ुद को हमेशा युवा महसूस करते हैं। याद है न? पाण्डित्य और अलंकारिक नीरसता के बीच केशवदास का रसिक व्यक्तित्व वाली छवि। जब वे बूढ़े हो जाते हैं, तो युवतियों के 'बाबा' संबोधन पर कहते हैं :-
"केसव केसनि अस करी बैरिहु जस न कराहिं।
चंद्रबदन मृगलोचनी 'बाबा' कहि-कहि जाहिं।।"

स्त्री की सत्ता पुरुष की सत्ता से कहीं अधिक आगे है लेकिन अपभ्रंशकाल में हेमचंद्र की नायिका के स्तन इतने छोटे थे कि उसका नायक उसे प्यार नहीं करता है, उसमें उसका मन नहीं लगता है। बहुत प्रयत्न के बाद नायिका अपने स्तनों को बढ़ाने में सफ़ल हो पाती है। उसके स्तन इतने उत्तुंग हो जाते हैं कि उसका प्रिय उसके अधरों तक पहुँच नहीं पाता है। इसलिए वह स्वयं के अंगों को कोसने लगती है :-
"अइ तुगत्तणु जंग थणहं, सो छेदउ, न हु लाहु।
सहि जइ केम्वइ, तुडि-वसेण अहरि पहुच्चइ नाहु।।"
प्रेम और सौंदर्य का संबंध शाश्वत है। जीवन में सौन्दर्य प्रेम का प्राण है। मनुष्यता सौंदर्य की आत्मा है। प्रेम व सौन्दर्य मानवीय चेतना के उज्ज्वल वरदान हैं। ये दोनों अपने आप में व्यापक हैं। प्रेम व सौन्दर्य के चितेरे मैथिल कोकिल कवि विद्यापति नायिका के अंग–सौन्दर्य का वर्णन करते हुए उसके स्तनों पर अपनी नज़र टिकाते हैं, वे कहते हैं :-
“पीन पयोधर दूबरि गता।
मेरू उपजल कतक-लता।।
ए कान्हु ए कान्हु तोरि दोहाई।
अति अपूरूप देखलि साईं।। ”

यही नहीं, विद्यापति सद्य:स्नाता नायिका के स्तनों का वर्णन पूरे रसिक मूड में करते हैं। वे रूप–सौन्दर्य ख़ासकर सद्यः स्नाता का वर्णन करने में सिद्धहस्त हैं। सरोवर से स्नान करके तुरंत निकली युवती के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं :-

“कामिनि करत सनाने। हेरितहि हृदय हनय पंचबाने।।
चिकुर गरए जलधारा। जनि मुख ससि डर रोअए अंधकारा।।
कुचजग चारु चकेवा। निज कुल मिलि आन कौन देवा।।
ते शंका भुज पासे। बांधि धएल उडि जाएत अकासे।।”

प्रेमोन्मत्त नेत्रों में नायिका के कांतिमय शरीर का सुशोभित होना स्वाभाविक है। भक्तिकाल के सूफ़ी कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने पद्मावती के नखशिख वर्णन करते हुए उसके उभरे हुए उन्नत स्तन की क्या ख़ूब चर्चा की है। पद्मावती के स्तन और उनके अग्रभाग ऐसे हैं, गोया अनार और अंगूर फले हैं। उनकी नज़र में पद्मावती के हृदय रूपी थाल में दोनों कुच मानो सोने के दो लड्डू हैं, वे कहते हैं :-
"हिया थार कुच कंचन लाडू।
कनक कचोर उठे करि चाडू॥"
अपनी-अपनी भाषा में प्रेम, यौवन और सौंदर्य के कवि स्तन के आकर्षण की अभिव्यक्ति की है। नखशिख-वर्णन के अंतर्गत कवियों ने नायिकाओं के केश, मुखमण्डल, बाहु, स्तन, त्रिवली, रोमराजि, नाभिकूप, नेत्र, अधर, जघन, नितम्ब, चरण, रान, पीठ, पेट आदि का वर्णन किया है। स्तन नायिका का सर्वाधिक आकर्षक अंग होता है। इसीलिए संभवतः स्तन स्त्री-सौन्दर्यबोध का कोश है।

मैंने रीतिकालीन नायिकाओं पर चर्चा करते हुए कई बार यह बात कही है कि रीतिकाल की नायिकाएँ तरल रबड़ की हैं। वे विरह में कभी इतनी दुबली हो जाती हैं कि उनकी कानी अँगुली की अँगूठी उनके बाँह से होते हुए कमर से सरक जाती है। वे साँस लेती-छोड़ती हैं, तो कई हाथ आगे-पीछे हो जाती हैं। कभी वे इतनी तंदुरुस्त होती हैं कि उनके जोबन से ज्योति फूटी है अर्थात् उनके अंग-अगं से प्रकाश की किरणें फूटी हैं। यानी रीतिकालीन कविता में देह-दीप्ति की चर्चा है। रीतिकाल में नायिकाओं के स्तनों का क्या ख़ूब वर्णन प्रेम की पीर के कवि घनानंद ने किया है! वे कहते हैं कि छलकत जोबन अंग...! खैर, स्तनों के वर्णन में बिहारी का कोई सानी नहीं है। जहाँ उर्दू के शायर अपनी नायिकाओं के स्तनों को गुंबद (गुंबज) कहते हैं, वही बिहारी पर्वत शिखर कहते हैं। वे कहते हैं :-
"कुचगिरि चढ़ि अतिथकित ह्वै चली डीठि मुंह चाड़।
फिरि न टरी परियै रही परी चिबुक की गाड़।।"
इस शृंगारपरक छंद में स्तनरूपी पर्वत की चर्चा है। ऐसे वर्णनों की भावाभिव्यक्ति और अर्थ अपनी जगह पर है। लेकिन मैं जब भी नायिकाओं के गोपनीय अंगों का अगोपनीय वर्णन से गुज़रता हूँ , तो मैं सोचता हूँ कि मेरे साथ में पढ़ने वाली छात्राएँ जब इन वर्णनों को पढ़ती होंगी, तो उनके मन में विद्रोह की अग्नि धधक उठती होगी। वे इन कवियों की अपनी कल्पना में अच्छी ख़बर लेती होंगी। क्या सलेब्स (पाठ्यक्रम) बनाने में गुरु माताओं की राय नहीं ली जाती है? क्या वे अपने सगे बच्चों को भाषा के नाम पर ऐसे वर्णनों को पढ़ने के लिए कहती हैं? या फिर गुरु कहते हैं?

नायिकाओं के गोपनीय अंगों के बारे में सोचने का अर्थ है मानस में उनका नंगा उपस्थित होना, मन में उनकी काल्पनिक छवि की उपस्थिति का तन पर क्या प्रभाव पड़ता है इससे तो शायद सभी लोग परिचित हैं ही। खैर, मैं ऐसे वर्णनों को पोर्नोग्राफ़िक इमेज़ कहता हूँ। जिनको पढ़ने के बाद बाज़ारवाद की आँखों में वस्तु हो चुकी स्त्री नज़र आती है। ख़ासकर वे नायिकाएँ भी दिमाग़ में नाचने लगती हैं जो अपनी संस्कृति से कोसों दूर हो चुकी हैं। जो थोड़े से पैसों के लिए नंगा होती जा रही हैं। जो ग्राम की लड़कियाँ रीलस् के चक्कर में इंस्टाग्राम लेकर टेलीग्राम तक पर नंगी नज़र आती हैं, वे सब दिमाग़ में नाचती हैं।

मैं व्यक्तिगत तौर पर ऐसे वर्णनों से गुज़रने से बचता हूँ। हो सकता है मेरी बात आपको सतही चीज़ लगे। मगर मुझे बारिश में भींगी हुई किसी ऐसी नायिका को देखना अच्छा नहीं लगता है, जिसके अंग वस्त्रों के बाहर झाँकते हैं अर्थात् गोपनीय अंग दिखाई देते हैं। क्योंकि ये नायिकाएँ स्वप्न में पीछा करती हैं। इस प्रसंग को आगे हम प्रगतिवादी कवि केदारनाथ अग्रवाल के वर्णन से समझेंगे। स्वकीया-प्रेम और परकीया-प्रेम का ऐसा वर्णन हर काल के कवियों ने अपने-अपने ढंग से किया है। अग्रवाल जी सुंदर रूप और सौंदर्य से अभिभूत होने वाले कवि हैं। उनकी निम्नलिखित पंक्तियाँ स्त्री-सौंदर्य शारीरिक दृष्टि से द्रष्टव्य है :-
"जहाँ कुएँ की जगत पर
मेरे घर के सामने
पानी भरने आती थीं
गोरी-साँवरि नारि अनेकों
गोरी रूप कमान समान तने तनवाली
प्रबल प्रेम की करती दृढ़ टंकार थी
और जहाँ मैं रात में
सपने के संसार में
दिन में जिन्हें कुमारी कहता और रात में प्रेमिका
जिन्हें अकेला सोता पाकर
मैं बाहों में कस लेता था
ओठों और कपोलों पर चुम्बन लेता था
अपना नाम कुचों पर जिनके
मीठे चुम्बन से लिखता था
जिनकी छाती बड़े से धक्-धक् करने लग जाती थी।"

अब आप ही बताइए कि केदारनाथ अग्रवाल के इन पंक्तियों को पढ़ने के बाद किस पाठक को सुंदरता और प्रेम की प्यास नहीं लगेगी! जबकि पाठक स्नातक या परास्नातक का शिक्षार्थी हो!

नब्बे के दशक के प्रकृतिप्रेमी कवि निलय उपाध्याय अपनी कविता 'ताजमहल' में बेड़न औरतों के स्तनों की तुलना गुंबद से करते हुए कहते हैं :-
"गुंबदों के निमार्ण में दक्ष कारीगर
टर्की...बेड़न औरतों के स्तन पर बाहर से पड़ी नज़र
अब तक रचित गुंबद नक्काशी में छोटे हो चुके थे।"
स्तन का वर्णन वासना और वात्सल्य दोनों रूपों में होता रहा है लेकिन प्रेमपरक कविता में स्तन का वर्णन करते वक्त मांसलवादी कवि स्त्री की अस्मिता को ताख़ पर रख देते हैं, क्योंकि उन्हें सौंदर्य का आकर्षण अंधा बना देता है। वे शृंगार रस के नशे में वात्सल्य रस को भूल जाते हैं। उनके मानवीय संस्कार घास चरने चले जाते हैं। बहुत सारे स्त्रीवादी कवियों ने भी रीतिकालीन कवियों की भाँति स्तन का वर्णन किया है।
छायावाद प्रेम और वेदना का काव्य है। जयशंकर प्रसाद ने 'कामायनी' के 'श्रद्धा' सर्ग में श्रद्धा के सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं :-

"नील परिधान बीच सुकुमार,
खुल रहा मृदुल अधखुला अंग।
खिला हो ज्यों बिजली का फूल,
मेघवन बीच गुलाबी रंग।।"

कामायनी के इन पंक्तियों का आशय चाहे जो भी हो! लेकिन अभिधार्थ तो यही है कि श्रद्धा नीले परिधान को धारण की है फिर भी उसका अधखुला सुकुमार व सुकोमल अंग दिख रहा है अर्थात् उरोज दिख रहा है।  अब उरोज को देख कर नायक (मनु) की स्थिति क्या होती है? कल्पना में भी नायिका के उरोज को देखकर नायक की कामाग्नि और अधिक प्रज्वलित हो उठती है न? यदि पाठक (छात्र) नायक से तादात्म्य स्थापित कर लेता है, तो उसके साथ क्या होता है? इन प्रश्नों के जवाब वयःसंधि पर खड़े पाठक से अधिक बूढ़े शिक्षक जानते हैं क्योंकि वे भाषा में जवान हैं।
प्रसाद की उक्त अभिव्यक्ति को पद्माकर की निम्न पंक्तियों से समझा जा सकता है :-
"अधखुली कंचुकी उरोज अध-आधे खुले,
अधखुले वेष नख-रेखन के झलकैं।"

किसी नायिका की अवस्था से स्तन के सौंदर्य का घनिष्ठ संबंध है। जब नायिका यौवनावस्था में होती है, तो उसके उरोज उन्नत होते हैं, जो उसके रूप को आकर्षक बनाते हैं, जो उसके नायक को आकर्षित करते हैं और वे नायक में काम-भावना को उद्बुद्ध करते हैं। जब नायिका अधेड़ावस्था में होती है, तो उसके स्तन से नायक का मोहभंग होना शुरू हो जाता है और नायिका की उम्र की ढलान पर नायक का स्तनों से एकदम मोहभंग हो जाता है क्योंकि मनुष्य एक निश्चित समय के बाद रूप सौंदर्य से मुक्त हो जाता है और सौंदर्य की मुक्ति से मनुष्य वासना से वैराग्य की ओर चला जाता है। जिसे आप ओशो के शब्दों में संभोग से समाधि की ओर जाना कह सकते हैं। दुनिया के साहित्य में नायिकाओं की भिन्न-भिन्न अवस्था में उनके स्तनों का अनूठा वर्णन हुआ है। हिंदी में भी स्तनों का मार्मिक वर्णन हुआ है। आदिकाल में स्तनों के वर्णन में अग्रणी कवि विद्यापति हैं, तो रीतिकाल में बिहारी। इसलिए एक सहपाठी शिक्षार्थी का प्रश्न है कि बिहारी की कविता में कितने प्रकार के स्तनों की चर्चा है! यह प्रश्न जितना सरल या हास्यात्मक है उतना ही कठिन या विचारणीय है। शास्त्रों में नायिकाओं के विभिन्न भेद हैं। जैसे; भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के अनुसार नायिका के आठ भेद हैं- वासकज्जा, विरहोत्कंठिता, स्वाधीनपतिका, कलहांतरिता, खंडिता, विप्रलब्धा, प्रोषितभर्तृका एवं अभिसारिका। अग्निपुराण" के अनुसार नायिका के आगामी भेद हैं- स्वकीया, परवीकया, पुनर्भू एवं सामान्या। बहरहाल, आयु, गुण, रूप, शरीर, शास्त्र आदि के कई आधारों पर ये भेद नाटक या महाकाव्य या महाकाव्यात्मक उपन्यास की नायिकाओं के हैं। लेकिन इन विभिन्न प्रकार की नायिकाओं के स्तनों के प्रकार की चर्चा तो साहित्यशास्त्र में नहीं हुई है, हो सकता है कामशास्त्र में हो! आयुर्वेद एवं चिकित्सा विज्ञान के ग्रंथों में बनावट एवं आकार के आधार पर कुछ प्रकार स्तनों की चर्चा सामने आती है। जैसे कि असिमेट्रिक शेप ब्रेस्ट, एथलीट शेप ब्रेस्ट, बेल शेप ब्रेस्ट, साइड सेट शेप ब्रेस्ट, स्लेंडर शेप ब्रेस्ट, स्लेंडर शेप ब्रेस्ट, टियर ड्रॉप शेप ब्रेस्ट, टियर ड्रॉप शेप ब्रेस्ट, राउंड शेप ब्रेस्ट, रिलैक्सड शेप ब्रेस्ट एवं ईस्ट- वेस्ट शेप ब्रेस्ट। खैर, बिहारी तो मुक्तक काव्य के कवि हैं। वे नायिका की विभिन्न अवस्थाओं में उसके स्तनों का वर्णन किये हैं, अब यह उनके पाठक की मनोवृत्ति पर निर्भर है कि उन्हें उनकी नायिका के स्तन कैसे दिखाई देते हैं। जिस दोहे में जैसे दिखाई देगें, वैसे स्तन होंगे, यानी वे उक्त प्रकारों में से कोई प्रकार बता सकते हैं।

स्त्री-पुरुष दोनों अपनी अपूर्णता में एक समान हैं। उनकी अपूर्णता उन्हें एक दूसरे की ओर आकर्षित करती है। स्त्री अपनी नकारात्मकता को पुरुष की सकारात्मकता से और पुरुष अपनी नकारात्मकता को स्त्री की सकारात्मकता से संतुलित करते हैं। ताकि वे पूर्ण हो सकें। प्रेम परिणय के पथ पर स्त्री-पुरुष को पूर्णता प्रदान करता है। खैर, आज भी स्त्री अपनी देह में सिमटी हुई है क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज द्वारा उसे देह तक सिमेट दिया गया है! अलंकार उसको अपनी ओर आकर्षित करता है और उसके स्तन पुरुष को अपनी ओर। पुरूष को स्‍त्री के पूरे शरीर की अपेक्षा उसके स्‍तनों से अधिक प्रेम है। यही कारण है कि पुरुषों के द्वारा रचित काव्‍य, साहित्‍य, चित्र, चलचित्र व मूर्तियाँ सब कुछ स्त्री के स्‍तनों से जुड़े हैं। स्तन तन-मन की ध्वन्यात्मकता के केंद्र हैं।
आदर्श अनुराग में त्याग का राग होता है। सौन्दर्य के उपासक देह से संवाद करते हैं। प्रेम सृष्टि को अपनी रागात्मकता से सींचता और संवर्धित करता है। प्रेम नैसर्गिक होता है, इसलिए उसमें निर्बंधता होती है कुंठा नहीं। प्रेम पराधीनता का प्रतिपक्ष रचता है, वह जीवन की स्वतंत्रता का स्वर है। लौकिक प्रेम की खेती देहभूमि में होती है। देह से गुज़रे बिना संभव नहीं है लौकिक प्रेम करना। न ही देहभाषा जाने बिना संभव है लौकिक प्रेम को समझना।
लौकिक प्रेम को नाटककारों एवं उपन्यासकारों ने भी अपने प्रेमपरक नाटक व उपन्यास के गीतों में रेखांकित किया है। प्रेमयुद्ध के लिए नायिका के स्तन हथियार होते हैं। वे आँखों से पहले स्तन की चमक से नायक को घायल करती हैं। नायक प्रेमक्रीड़ा में नायिका के इन्हीं हथियारों से सर्वप्रथम लोहा लेता है और पराजित हो जाता है। यही नहीं, इन हथियारों पर एकाधिकार के लिए जगत प्रसिद्ध लड़ाइयाँ लड़ी गयी हैं। इनके चक्कर में कितने नायकों के सर कटे हैं, इतिहास की ओर आँखें करने पर पता चलता है। सर कटने का प्रसंग उठा है, तो मैं बता दूँ कि कन्नड़ भाषा के प्रसिद्ध नाटककार गिरीश कारनाड ने 'हयवदन' नाटक के एक गीत में कहा है :-
"दोनों स्तनों पर एक-एक शीश
दोनों आँखों के लिए एक-एक पुतली।
दोनों बाँहों से दोनों का
अलग अलग आलिंगन
जिसकी मुझे न लज्जा है, न चिंता।
धरती के अंतर में रक्त बरसता है
आकाश में गीत की कोंपलें फूटती हैं।"

उन्मुक्त प्रेमकाव्य, प्रेम व मस्ती के काव्य, वैयक्तिक अनुभूतियों का चित्रण एवं प्रणयानुभूति की मधुर अभिव्यक्ति प्रेम, यौवन और सौंदर्य के पाठक को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। कविता में प्रेम के विभिन्न स्वरूपों की चर्चा है। जब प्रेम का उदात्तीकरण होता है, तो वह भक्ति में तब्दील हो जाता है। इस संदर्भ में हमें रामचंद्र शुक्ल की आगामी सूक्ति याद आ रही है कि श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है। इस सूत्र को समझने में हमें रसखान और मीरांबाई की कविताएँ मदद करती हैं। जिसकी विधिवत चर्चा हम कभी करेंगे।

उदात्त प्रेम हमेशा से बल और बुद्धि पर भारी रहा है। लेकिन मज़ेदार बात यह है कि अलौकिक प्रेम ज्ञान पर विजय प्राप्त करता है जैसा कि सूरदास या रसखान के यहाँ है। लेकिन हयवदन में तो लौकिक प्रेम है फिर भी बल-बुद्धि पर भारी है। यहाँ दो नायक (देवदत्त व कपिल) एक नायिका (पद्मिनी) के प्रेम के चक्कर में ख़ुद को नष्ट कर लेते हैं, जो कि एक दूसरे के सच्चे मित्र भी हैं। बहरहाल, कभी-कभी पुरुषों की क्रूरता के सामने अपराजिता नायिका स्वयं अपने स्तन अपनी देह से अलग कर देती है। इस संदर्भ में आप केरल की 'नंगेली' को याद कर सकते हैं। जिसने 19वीं सदी में कुप्रथा 'ब्रेस्ट टैक्स'(स्तन कर) से मुक्ति पाने के लिए अपने स्तन काटे थे।

भारतीय संस्कृति का कहना है कि स्तन की पुकार दो ही व्यक्ति सुनते हैं। एक पति (प्रेमी) और दूसरा पुत्र (नवजात शिशु)। जब तक नायिका माँ नहीं बनी होती है, तब तक उसका नायक ही पुत्र की भूमिका में होता है। वह उसके स्तनों को निकोटता-बिकोटता-चिचोड़ता है, उससे खेलता है और उसको प्यार करता है। नायिका से दूर होने पर भी नायक को स्तनों की याद आती है। पास होने पर तो बात ही क्या! शमशेर बहादुर सिंह एक कविता में नायिका/प्रेयसी के स्तनों के पुलकने की बात करते हैं, वे कहते हैं :-

"आँखें अनझिप
खुलीं
वक्ष में।
स्‍तन
पुलक बन
उठते और
मुँदते।"

शमशेर एक और अपनी कविता 'गीली मुलायम लटें' में स्तनों को बिंबित होते हुए दिखाते हैं, वे लिखते हैं :-

"गीली मुलायम लटें
आकाश
साँवलापन रात का गहरा सलोना
स्तनों के बिंबित उभार लिए
हवा में बादल
सरकते
चले जाते हैं मिटाते हुए
जाने कौन से कवि को..."
मैं आगे वात्सल्य रस के दायर में स्तन की चर्चा करूँगा। ख़ाकसार उन स्तनों की चर्चा, जो भयंकर गरीबी की वजह से उघड़े हुए होते हैं, सूखे हुए होते हैं और चमड़ी की थैली की भाँति छाती से झुल रहे होते हैं। फिर भी माँ अपने भूखे नवजात शिशु को अहिंसा का दूध पीलाती है। दूध नहीं, सिर्फ़ सांत्वना पीलाती है और शिशु भूखा ही सो जाता है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' ऐसे ही माँओं का सजीव चित्रण करते हुए कहते हैं :-

"पर, शिशु का क्या हाल, सीख पाया न अभी जो आंसू पीना?
चूस-चूस सुखा स्तन माँ का सो जाता रो-विलप नगीना।"

ये मजदूर माँएँ भारत माता की सच्ची बेटियाँ हैं। दुनिया की सभी माँएँ एक समान पूजनीय हैं क्योंकि सबकी छाती में अपने बच्चे को देखकर ममता की नदी उमड़ती है। उनके स्तनों से अमृत की बूँदें टपकने लगती हैं। माँएँ मधु-स्तन-दान देती हैं। माँ कुरूप हो सकती है लेकिन कुमाता नहीं। रामायणकालीन कैकेयी भी राम की नज़र में कुमाता नहीं है। प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत अपनी कविता 'अप्सरा' में माँ की महानता को रेखांकित करते हुए कहते हैं :-

"शैशव की तुम परिचित सहचरि,
जग से चिर अनजान
नव-शिशु के संग छिप-छिप रहती
तुम, माँ का अनुमान;
डाल अँगूठा शिशु के मुँह में
देती मधु-स्तन-दान,
छिपी थपक से उसे सुलाती,
गा-गा नीरव-गान।"
सूरदास वात्सल्य रस के सम्राट हैं उनके यहाँ माता यशोदा अपने आँचल से ढककर बाल कृष्ण को स्तनपान कराती हैं, इस संदर्भ में सूर का निम्नलिखित पद दर्शनीय है :-

"किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत।।
मनिमय कनक नंद कैं आँगन, बिम्ब पकरिबैं धावत॥
कबहुँ निरखि हरि आपु छाँह कौं, कर सौं पकरने चाहत।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत॥
कनक-भूमि पर कर-पग छाया, यह उपमा इक राजति।
करि-करि प्रतिपद प्रतिमनि बसुधा, कमल बैठकी साजति।।
बाल-दसा-सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलावति।
अँचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु को दूध पियावति॥"(क्रमशः)
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