Wednesday, 25 August 2021

उपजीव्य कवि श्रीप्रकाश शुक्ल : गोलेन्द्र पटेल || संदर्भ के रचनाकार

उपजीव्य कवि श्रीप्रकाश शुक्ल : गोलेन्द्र पटेल

आलेख में संदर्भ के रूप में प्रयुक्त होने वाली रचनाएँ (संकलन जारी है):-


कविताएँ :-


1).

बुरा एक सपना देखा


रात बुरा एक सपना देखा

सूखी नदी के घाट को देखा

पाट सटी टूटी नाव को देखा

तिथिहीन पतवार को देखा

नाविक के अंत:घाव को देखा


रात बुरा-बुरा एक सपना देखा

सूखी नदी को सड़क बनते देखा

सरपट भगती मोटर कार को देखा

घाट को बस-स्टॉप में बदलते देखा

पतवार को खाक़ी लिबास होते देखा

नाविक को बस-ड्राइवर बनते देखा


बुरा स्वप्न बनारस में साकार देखा

असि-अस्थियों की सड़क को देखा

नदी के रक्त-कणों को धूल उड़ते देखा

'रेत में आकृतियाँ' की हर उकेर को देखा

श्रीप्रकाश शुक्ल की आँखों में मर्म को देखा

कि असि* को अस्सी घाट उतरते  न देखा !


( असि एक विलुप्त नदी है। बनारस में गंगा में मिलती थी। असि के नाम से ही अस्सी घाट है)


                                           ©वसंत सकरगाए

                                               10/04/2021


2).

बाढ़ में कवि


लड़कपन से बच गए
जवानी के सैलाब तक में ना फँसे
पर दो हजार सोलह की बाढ़ में
आखिर फँस ही गए
कवि श्रीप्रकाश शुक्ल
हतप्रभ हैं लोग
जो कभी किसी रमणी में न फँसा
दमड़ी में ना फँसा
आखिर वो बाढ़ में कैसे फँस गया?
बाढ़ में बवाल काटते
जनवादी कवि शशिधर से
इस बाबत जब पूछा गया
तो भुजा उठाकर कहा उन्होंने -
'असंभव है कवि का बाढ़ में फँस जाना
भगवा अफवाह है ये
उनका अगल-बगल
अड़ोस-पड़ोस
आकाश-पाताल
सब बाढ़ में डूब सकता है
पर वे नहीं
उनका घर नहीं
क्योंकि नहीं है उनकी कविता में सूखा
ना ही वह किसी गीलेपन के खिलाफ ही है
और फिर नामवर की जिस धरती पर वे रहते हैं
वहाँ बाढ़ का पानी
वो भी गंगा का
भला क्या बहाने और भिगोने जाएगा भाई?'
कहना उनका यह भी
कि पक्की कारपोरेट साजिश है यह
क्योंकि जो आज तक किसी भी
जल-जाल से बचा और बचता रहा
भला बाढ़ में उसका फँसना क्या!
और बचना क्या!
जो भी हो
पर कविता में सच यही है
कि धीरे-धीरे प्यारे कवि
बहुत प्यारे कवि
बाढ़ में फँसते गए
बढ़ती गंगा का पानी
उनकी ओर
कांग्रेसी राजनीति की तरह बढ़ा
सबसे पहले उनके दुआर को चपेटा
फिर चौहद्दी को
फिर दलान से घुसते हुए वहाँ पहुँचा
जहाँ मेज पर फैली उनकी कविता थी
और फिर उसी की ऊँचाई पर
अपनी संपूर्ण गहराई के साथ ठहर गया
किंतु बाढ़ के पानी से
सिमटते-सिमटते वे
भागे नहीं
रोए नहीं
हाथ नहीं जोड़ा
मंत्र नहीं पढ़ा
कोई अनुष्ठान नहीं किया
पीछे नहीं गए
बल्कि ऊपर
और ऊपर चढ़ते गए
और मेरी पुख्ता जानकारी में
फिलहाल ओरहन का वह कवि
ठीक इसी बाढ़ की आँच पर
एक काली धामिन की चकाडुब्ब सुनते
घर के ऊपरी आसमान में रहता है
इधर शहर में उनको लेकर कई कयास हैं
कोई कहता है कि वे बाढ़ में डूब गए
कोई यह कि अच्छा हो कि डूब ही जाएँ
कोई यह कि बह कर कहीं और चले जाएँ
कोई यह कि आखिर जरूरत क्या है
इस शहर को
रेत और पानी के कवि की
खर-पतवार से अधिक वह भला है ही क्या?
कोई-कोई तो यह भी कहते सुना गया है
कि अच्छा होता की बाढ़ हुमचकर
उनके ऊपर सदा-सर्वदा चढ़ी रहती
लोग तो अब खुलकर यह भी कहने लगे हैं
कि काश! इसी बाढ़ में
कब्र बन जाए इन मरगिल्ले हिंदी कवियों की
क्योंकि इन्ही ससुरों की वजह से
काशी नहीं बन पा रहा है क्योटो
दिल्ली की लाख कोशिशों के बावजूद
उधर गंगा के पानियों के बीच
घुप्प अँधेरे में बैठे कवि
फिलहाल मोबाइल की रोशनी में
अखबार पढ़ते हैं
ताजा खबर यह है
कि गंगा को अजीर्ण हो गया है
इसीलिए यह बाढ़ आई है
और अब बार-बार आएगी
यह पढ़ कवि का माथा गरम हो उठता है
आवेश में वे छत पर चढ़ आते हैं
और जोर-जोर से
न जाने किसको
ओरहन देते हैं
कि अजीर्ण, गंगा को नहीं
ज्ञान को हो गया है
सरकार को हो गया है
विद्वान को हो गया है
बवाल काटने वाले
केंद्रोन्मुखी भौकाल
अजीर्णता को भला क्या जाने
क्या समझें
जानता समझता और सहता
तो केवल कवि है
ज्ञान को
विद्वान को
सत्ता को
और पतितपावनी गंगा की बाढ़ को भी
बस वही जानता है
वही सहता है
और फिर सिरजता भी तो वह ही है
भले ही चाहे खुद फँसा
या फँसा दिया गया हो
बाढ़ में एक कवि!
 

©सर्वेश सिंह



3).

 वापसी 

धाराएं लौट रही है नदी में

जैसे लौटती है रौनक बस्ती में 

प्रवासी से पथिक बन

गुरूश्रेष्ठ भी लौट रहें हैं

सूने गेह में जालाने को दीपक


दीपक जलने से पहले 

आ चुकी है बिजली

और जा चुकी है 

निर्जन में घुली काली रात


बाढ़ का जाते ही

काफी जद्दोजहद यानी

चंदा-चुटकी , घुस -पेच के बाद

सबसे पहले आती है लाइट

जिससे घरों में ऑक्सीजन पहुंचता है

क्योंकि कॉलोनी के घरों में

लाइट मतलब लाइफलाइन है


रास्ते पर केवल कीचड़ है

कमल की उम्मीद तक नहीं है

हां एक केवट है

जो स्नेहोपहार को संजो रहा है

जैसे संजो कर रहा था भुभुक्षु


अक्सर सावन बीतते बीतते 

बनारस में आ जाती है बाढ़

जैसे शिव स्वयं गंगा को विदा कराने

आ जाते हैं काशी के घरों में


बनारस में बाढ़ 

शिव - शक्ति का संगम है,

सहवास है ,और प्रवास  है

वे बखूबी समझेंगे

जिनका नदी क्षेत्र में निवास है

        ©दीपक आर्यपुत्र ( मुसाफ़िर )

4).

(कविवर एवं आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल सर को समर्पित कविता)

'रेत में आकृतियों' को 

मिटा रही है बाढ़ ।

कठिन समय में 

धैर्य की परीक्षा देते हुए

'एक जोड़ा दुख' के साथ भी

मुस्कुराता है कवि 

वह जानता है दुख का स्वाद ।


बाढ़ का आना कवि के लिए 

महज सूचना नहीं है ।

खतरे की घंटी है,

विस्थापन के दर्द का उभरना है ,

पुनः एक बार ।


न जाने कितने बाढ़ो का भुक्तभोगी रहा है कवि ।

कविता में लिखता रहा है इसका इतिहास |

वह जानता है कि -

 बाढ़ महज प्राकृतिक आपदा नहीं,

 राजनीतिक षड्यंत्र भी है ।

 कवि देखता है,

 रैदास के बेगमपुरा में ,

बाढ़ का ग़म पसर चुका है ।

©प्रतिभा श्री




संपादक : गोलेन्द्र पटेल

नाम : गोलेन्द्र पटेल

{युवा कवि व लेखक : साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक}

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Monday, 23 August 2021

बाढ़-दर्शन की कविताओं पर आत्मकथ्य : गोलेन्द्र पटेल

बाढ़-दर्शन की कविताओं पर आत्मकथ्य : गोलेन्द्र पटेल
{नोट : यह आलेख गुरुवर डॉ. कमलेश वर्मा के मार्गदर्शन में पुनः प्रस्तुत किया जाएगा}
{डॉ. कमलेश वर्मा }

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कविता क्या है? कविता क्या नहीं है? कविता कहाँ है? कविता कहाँ नहीं है?....इस तरह के तमाम प्रश्नों पर प्राचीन काल से लेकर आज तक के अनेक विद्वानों ने विचार किये हैं और करते रहेंगे। खैर, यहाँ किसी विशेष विद्वान के माध्यम से चर्चा न कर के खुद मैं कविता के विषय में क्या सोचता हूँ। मैं उसका कुछ अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ :-

प्रत्येक जीव का जीवन एक लीला है जो ईश्वरीय सत्ता से संचालित होती है। इसी सत्ता से सृष्टि का जीवन है। अतः जीवन ही कविता है। दूसरे शब्दों में, कविता मानवीय प्रकृति की प्रतिक्रिया का प्रदीप है जिससे जिंदगी ज्योतिर्मय होती है। सच तो यह है कि कविता कवि की तीसरी दृष्टि है जिससे वह दुनिया को देखता है, परखता है, समझता है, अपने आप को जानता है और पहचानता है। अर्थात् कविता परिभाषा की परिधि से परे परिक्रमा करने वाली संवेदना से संचालित प्रकाशपुंज है। यह अनुभूति का आलोक है। यह संवेदनाओं का सार्थक गान है। यह अत्यंत संवेदनशील एवं गतिशील विधा है। वर्तमान की त्रासदी से पीड़ित आत्मा के लिए कविता एक प्रकार की औषधि है जिसकी कोरोजीविता उसे स्वस्थ और समृद्ध करने में अहम भूमिका अदा करती है। इस वैश्विक महामारी में वह समाज के विसंगतियों एवं मानसिक विकृतियों को दूर कर के मानवीय सुंगध को सार्वभौमिक करने में सफल रही है।

कविता और गीत के संदर्भ में कोरोजीवी कविता के सूत्रधार मेरे काव्यगुरु श्रीप्रकाश शुक्ल कहते हैं कि "कविता मनुष्य की चेतना की उदात्त अभिव्यक्ति होती है जबकि गीत उसके भाव जगत का एक तकनीकी कौशल।" यही उदात्त अभिव्यक्ति और कौशल ही बाढ़ की विभीषिका में हमारे महामंत्र हैं। अतः कविता की कंठी को फेरते हुए हमारा समय इसी का उच्चारण कर रहा है।

मनुष्य की वृत्तियों पर सभ्यता के नये-नये आवरण आज इस कदर चढ़ गये हैं कि सोशल मीडिया पर कविताओं की बाढ़ हमें दिखाई दे रही है। अब एक अच्छे कवि और एक अच्छी कविता की खोज करना बहुत ही श्रमसाध्य कार्य हो गया है। इस संदर्भ में मुझे आचार्य रामचंद्र शुक्ल का सुप्रसिद्ध निबंध  ‘कविता क्या है?’ में लिखी आगामी पंक्ति याद आ रही है कि ‘ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नये-नये आवरण चढ़ते जायेंगे त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि कर्म कठिन हो जाएगा।’ 

इसी विडंबना को रेखांकित करते हुए मेरे मार्गदशक कवि सुभाष राय कहते हैं कि "केवल कवि होने से आप कवि रहेंगे। इस सूत्र पर अब कवियों का भरोसा बहुत कम रह गया है। जब से कविता के लिए छंद और लय की बंदिश ढीली पड़ी, किसी के लिए भी कवि बन जाना सहज हो गया। सोशल मीडिया पर बहुत सारे ऐसे लोग कविताएं पोस्ट करते नजर आते हैं, जो कवि नहीं हैं लेकिन उन्हें इतना ज्ञान हो गया है कवि होना कुछ विशिष्ट होना है। वे विशिष्ट होने के लिए कवि दिखना चाहते हैं और कवि दिखने के लिए हर संभव मारग अपनाते हैं।"

ऐसे में मैं खुद के भीतर के कवि को ढूँढ रहा हूँ और कविता लिखना सीख रहा हूँ। मैं कविता क्यों लिखना सीख रहा हूँ। यह मेरे लिए भी उतना ही जटिल एवं टेढ़ा सवाल है जितना कि इसका जवाब देना। बहरहाल, बस यह समझ लीजिए कि मैं कविता को लिख नहीं रहा हूँ बल्कि जी रहा हूँ। मेरे भीतर का कवि भीतरी आवाज के साथ साथ बाहरी आवाज बार बार सुनना चाह रहा है। और वह बिना बोर होये बार बार सुन रहा है। अर्थप्रवणता में धरती की धुन, हवा की सरसराहट, गगन का गर्जन, तरंगों का तर्जन, सन्नाटे की सिसकी,  चुप्पी की चीख, एवं गमी की गूँज सुन रहा है। और सुन रहा है समय के स्वर में तड़पती आत्मा की तान एवं रुदन का गान। जहाँ है निराशा में निराकरण के शब्द। जिससे मैं कविता गढ़ रहा हूँ।  मेरा काव्य संसार केवल मेरा नहीं है वह हर असहाय आदमी का है जिसकी आँखों में मैं अक्सर झाँका करता हूँ।

मेरा कवि मन कविता के लिए नये शब्दों की तलाश में लोक की ओर चला जाता है और वहाँ से गँवई गंध में सना हुआ शब्द चुन कर अनुभव के आकाश में जहाज की तरह उड़ना चाहता है। जिसमें मेरी जिज्ञासा एक पोयटिक पायलट की तरह बैठना चाहती है। सृजनात्मक सृष्टि की संवेदनाएँ मेरे साहित्यिक संस्कार को परिष्कृत कर रही हैं। इसलिए मेरी कविताओं की जड़ें जमीन में गहराई तक धँसी हुई हैं। और धँस रही हैं। सकारात्मक संभावनाओं के सुमन की तरह पुष्पित होने वाली औषधि है मेरी कविता। उसकी प्रत्येक पंखुड़ी में पीड़ा का पराग है। 
जिसका स्वाद चखना ही सहृदयों के लिए आनंद की अनुभूति है। तो उसके दर्द के लिए कड़वी दवा भी।

अंत में इतना ही कहना चाहता हूँ कि कविता की बाढ़ में मेरी भी कुछ कविताएँ बहेंगी। इसका मुझे दुःख नहीं है। मुझे दुःख इस बात की है कि जिस सुंदर शब्द की तलाश मैं कर रहा हूँ वह अभी तक मुझे मिला ही नहीं। शायद यह खोज जिंदगी भर जारी रहेगी। समय का शब्द ही साहित्य है और कवि का काव्य भी। इस संदर्भ में मुझे रघुवीर सहाय के काव्य संकलन “सीढ़ियों पर धूप में” की भूमिका में कवि-चिंतक अज्ञेय द्वारा लिखी गयी पंक्ति याद आ रही है कि “काव्य सबसे पहले शब्द है। और सबसे अंत में भी यही बात बच जाती है कि काव्य शब्द है।”

बाढ़-दर्शन
(केंद्र में काव्यगुरु) //

प्रिय मित्रों! सहृदय साथियों!  
                                       विश्व के मानचित्र में भौगोलिक दृष्टि से हमारा प्यारा भारत एक प्राकृतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक विविधताओं वाला देश है। वृहद भौगोलिक आकार, पर्यावरणीय विविधताओं और सांस्कृतिक बहुलता के कारण भारत को "भारतीय उपमहाद्वीप" और "अनेकता में एकता वाली धरती" के संज्ञान से संबोधित किया जाता रहा है। भारत में अनेक तरह की प्राकृत आपदाएं हैं लेकिन इन आपदाओं में सबसे अधिक प्रभावशाली एवं प्रलयंकारी बाढ़ है। दुनिया के कई देश बाढ़ से प्रत्येक वर्ष ग्रसित होते हैं और उसके विभीषिका की अग्नि में जन-धन , जमीन-जंगल, एवं जान-माल सब कुछ जलकर चिता की राख की तरह जल में बह जाते हैं। सभी सपनें स्वाहा हो जाते हैं। जीवन को अत्यधिक क्षति पहुँचती है। इस होनी की हानि से उबरना बहुत ही कठिन हो जाता है किसी भी देश के लिए।

भारत में बाढ़ लगभग हर साल आती है। इसकी उत्पत्ति और इसके क्षेत्रीय फैलाव में कहीं न कहीं आधुनिक मानव एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। मानवीय क्रियाकलापों , अँधाधुँध वन कटाव, अवैज्ञानिक कृषि पद्धतियाँ, प्राकृतिक अपवाह तंत्रों का अवरुद्ध होना तथा नदी के तटीय क्षेत्रों में अवैध कब्जा और बाढ़ कृत मैदानों में मकानों की बनने की वजह से बाढ़ की तीव्रता, परिमाण और विध्वंसता बढ़ रही हैं। समय के साथ परिवर्तन होना नियति है जिसका सकारात्मक पक्ष जीवन के लिए जितना लाभदायक है उससे कहीं अधिक नकारात्मक पक्ष विनाशकारी है।  नदियाँ नहरों में परिवर्तित हो रही हैं और कुछ नालों में भी। गाँव के विशाल सरोवर बउली में तब्दील हो चुकी हैं। बहुत से ताल-तलई-तालाब पट गये हैं। जिसकी वजह से भी बारिश के मौसम में बाढ़ की विभीषिका को विनाशकारिता के लिए शक्ति प्राप्त होती है। 

असम, पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तराखंड राज्य सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में से हैं। इसके अतिरिक्त उत्तर-भारत की जादातर नदियाँ विशेषकर पंजाब और उत्तर प्रदेश में बाढ़ लाती हैं। इधर पिछले कुछ दशकों से आकास्मिक बारिश वगैरह की वजह से राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश में भी बाढ़ आई हैं। लौटती मानसूनों की वजह से दक्षिण भारत में भी कभी कभी अचानक तेज बारिश होती है और बाढ़ जैसी स्थितियाँ हमारे सामने नज़र आती हैं। वहाँ की नदियाँ जलमग्न होकर आसपास की तटीय जिंदगी को प्रभावित करती हैं। अतः बाढ़ का मुख्य कारण भारतीय मानसून की अनिश्चितता तथा वर्षा ऋतु के चार महीनों में भारी जलप्रवाह है।

बाढ़ की वजह से समाज का सबसे निचला तबका, गरीब, मजदूर एवं किसान प्रभावित होते हैं। बाढ़ जन-धन के साथ साथ प्रकृति को भी क्षति पहुचाती है। बाढ़ जब आती है तो वह संकट का संगीत और तबाही की तान कल-कलाहटी स्वर में सुनाती है। जहाँ नदियों की नाराजगी बजाती है बारिश की बाँसुरी। हमें रुदन का गान सुनाई देता है। और सरसराहटी धड़कन की धुन में असहाय की सिसकन भी। स्पष्ट हो जाता है स्वर। हमें पता चलता है कि किसानों के सपनों को और तटीय जिंदगी की उम्मीदों को डूबो देती है बाढ़।

हम बाढ़ में बहुत से मंदिरों , महजीदों और मनुष्यों को भी डूबते देखते हैं और देखते हैं कि बेजुबान जानवर भी डूब-डूबकर बेमौत मर जाते हैं। इसी बीच नदियां अपनी यात्रा के दौरान व्यवस्था को आइना दिखाती हैं और राजनीति के वास्तविक रूप से हमारा परिचय भी कराती हैं। बहरहाल, हम  जलमग्न नदियों के बहाने असहाय आँखों में बाढ़ का दर्शन कर रहे हैं। आजकल आप देख-सुन रहे हैं कि खबरें आ रही हैं। यू.पी. में  वाराणसी-प्रयागराज समेत लगभग 24 जिलों के 1200+ गाँव बाढ़ के चपेट में हैं। बनारस में गंगा अपना पिछला रिकॉर्ड तोड़ दी है वह लगभग 72+ मीटर की ऊँचाई तय कर ली है। इस शहर में कुल 88 घाट हैं और सब डूब गये हैं। गंगा के तटीय गाँवों में पानी घूसने की वजह से हजारों एकड़ जमीन की फसलें बर्बाद हो गयी हैं। साथ ही साथ शहर की दुसरी नदी वरुणा किनारे रामेश्वर, लक्ष्मीपुर, परसीपुर, रसुलपुर, जगापट्टी, नेवादा, औसानपुर, पाण्डेपुर, खंडा, तेंदुई, सत्तनपुर, गोसाईपुर इत्यादि गाँव की फसलें भी जलमग्न हैं। 

बिहार से बनारस तक के बाढ़-दर्शन में हमने देखा कि कैसे बाढ़ में बेजुबान, भँवर में भगवान एवं आँसुओं में इंसान डूब रहे हैं। कोरोनाकाल में शहर से गाँव लौटे हुए मजदूरगण पुनः नये छत की तलाश में अन्यत्र विस्थापित हो रहे हैं। विस्थापन का दोहरा दर्द जनता सह रही है। और इसी विस्थापनी विभीषिका को रेखांकित करते हुए कवि केदारनाथ सिंह अपनी कविता 'पानी में घिरे हुए लोग' में लिखते हैं कि 
"पानी में घिरे हुए लोग/प्रार्थना नहीं करते /वे पूरे विश्वास से देखते हैं पानी को/और एक दिन/बिना किसी सूचना के/खच्चर, बैल या भैंस की पीठ पर/घर-असबाब लादकर/चल देते हैं कहीं और।" 

इस दोहरी त्रासदी का शिकार पशुओं तक को होना पड़ा है। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों से पंक्षीगण जिन क्षेत्रों में विस्थापित हुए हैं। वहाँ उनके लिए चारा नहीं है। सब चहचहाने के बजाय चिहुँक रहे हैं। मेरे इलाकों में कौए उन पंक्षियों को नये घोंसले का निमार्ण करने से रोक रहे हैं। कर्कश काँव काँव से साफ स्पष्ट हो रहा है कि सब मिलकर उन्हें भगा रहे हैं।

विचारणीय बात यह है कि जिन लोगों का घर ढह गये हैं, अनाज नष्ट हो गये हैं। जीविका के सारे स्थाई साधन धाराप्रवाह में प्रवाहित हो गये, गाय-भैंस, बकरी-बकरा, मुर्गी-मुर्गा एवं सब कुछ नष्ट हो गये हैं। उनके ऊपर क्या बीत रही है। उनके दुःख-दर्द के कल्पना मात्र से हमारी रूह कांप जा रही है। जिसका कोई अपना डूब गया है। बहुत से बच्चे अनाथ हो गए हैं बहुत से माता पिता अपने बच्चे खो दिये इस बाढ़ में।
 दिल को चिर देने वाले दृश्य हमारी नजरों के सामने आ रही है। जैसे ढहे हुए घरों में दबी लाशें, डूब रही विधवा माता के साथ नवजात शिशु, एक अबोध बच्ची और एक छोटा बच्चा, हर दृश्य हृदय को झकझोर रहे हैं। हम इन्हीं दिल चिरने वाली चित्रों को, दृश्यों को देख रहे हैं। और उन्हें कविता में सुरक्षित रखने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें कविताओं में खींच रहे हैं। मैं "बाढ़" शीर्षक नामक कविता लिख कर रो ही रहा था कि गुरुवर श्रीप्रकाश शुक्ल की एक तस्वीर मेरे हाथ लगी। जिसमें वे एक ट्रैक्टर के इंजन पर बैठ कर अपने घर को अत्यंत आत्मीयता के साथ निहार रहे हैं और चारों ओर जल ही जल दिखाई दे रहा है। यानी गंगा स्वयं उनके द्वार पर आ गयी है। 

मैं अपने गुरु की उस अवस्था का अवलोकन करने का प्रयास कर हूँ और सोच रहा हूँ कि आखिर बाढ़ में कवि किस का दर्शन कर रहा है। अपने घर का जहाँ नदी कुछ क्षण विश्राम करना चाहती है। मैं कभी कल्पना में, तो कभी यथार्थ के नदी में गोता लगाने लगा। फिर ठहर कर मैंने देखा कि  "गंगा में गुरु" से लेकर "गुरु की आँखों में गंगा" का दर्शन कर रहा हूँ, मैं। उस दर्शन को, मैं कविता की वाटिका में औषधि के पौधों की तरह रोप रहा हूँ। जिसकी पत्तियाँ, जड़ें, फल-फूल एवं टहनियाँ आदि एक दिन हमें इसी तरह के दृश्यों के दर्द से छुटकारा दिलाएगी।

हिंदी के तमाम कवि अपनी कविताओं में 'काशी में आई बाढ़' का सजीव चित्रण किये हैं। बहुत ही आदर के साथ केदारनाथ सिंह, त्रिलोचन व ज्ञानेंद्रपति आदि कवियों का नाम लिया जा सकता है। "बनारस में बाढ़ और हिंदी कविता" नामक आलेख में इस बिंदु पर अलग से विचार-विमर्श व अध्ययन-अनुशीलन किया जाएगा।
(क्रमशः)
©गोलेन्द्र पटेल
प्रकाशन तिथि : 23/08/2021
                                                   {संपादक : गोलेन्द्र पटेल}

नाम : गोलेन्द्र पटेल

{युवा कवि व लेखक : साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक}

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com




Saturday, 21 August 2021

बाढ़ और बनारस के कवि श्रीप्रकाश शुक्ल पर केंद्रित चार कविताएँ : गोलेन्द्र पटेल

 बाढ़ और श्रीप्रकाश शुक्ल पर केंद्रित युवा कवि गोलेन्द्र पटेल की चार कविताएँ :


1).


भँवर में भगवान//


इश्क में इनसान

भँवर में भगवान

डूब रहे हैं


डूब रहे हैं

दुःख में देश 

बुरे समय में संदेश


डूब रही हैं

पीड़ा में पहचान

आँसुओं में आन 


आह! डूब रही है

बाढ़ में बस्ती

मँझधार में मस्ती


डूब रही हैं

तकलीफ़ में तान

बारिश में शान


डूब रही हैं

जिंदगी-बंदगी

दुनिया-जहान


डूब रहे हैं

घर के रोशनदान

और साज़-सामान


डूब रहे हैं

गंगा में गान

पउड़ते पिता के कान

जिसमें एक नन्ही बच्ची

अपने पिता से कह रही है

मुझे छोड़ दीजिए

और खुद को बचाइए


लेकिन कोई पिता 

भला  पुत्री को  कैसे छोड़ सकता है

डूबने के लिए

और पिता  उसे लेकर साथ पउड़ पड़ते हैं

बीच नदी में!


ठीक इसी समय मुझे याद आतें हैं अपने गुरु के वे कथन

जो उन्होंने घाट पर कहे थे

इस पिता के संदर्भ में-


संघर्ष के शब्दों से बनी हुई कविता

बढ़ियाई सरिता में 

डूबते हुए  मनुष्य को

धारा के विपरीत तैरने के लिए ताकत देगी


और उम्मीद की उमंगें 

उसे तरंगों से अधिक बल देंगी


जिससे वह जल को पीछे ठेलता हुआ

किनारे की ओर आगे बढ़ेगा

और जान बचाने की संभावना बढ़ जायेगी ।


इस डूबते  पिता के पास थकान की थाप है

जो पानी पर थप-थप पड़ रही है

जिसके सहारे  मौत से लड़ते लड़ते

दोनों ही किनारे पर आ गये!


रचना : 20/08/2021

2).

मँझधार में माँ//


सावन में सत्ता के सेतु पर सेल्फी खींचने वाले 

बहुत हैं 

बाढ़ में डूबी बस्तियों को देखने वाले 

बहुत हैं

घड़ियाली आँसू बहाने वाले 

बहुत हैं 


और हां

कविता लिखने वाले भी बहुत हैं !

लेकिन परपीड़ा को प्रत्येक पंक्ति में 

दर्ज करने वाले कौन हैं

यह हम सब जानते हैं 


पानी का एक इतिहास यह भी है 

कि मनुष्यता का मरना

लाशों की गणना करना

उम्मीदों को अग्नि देना

और सुख को छीन लेना

यानी हर आन्दोलन का जड़ है पानी


मँझधार में माँ कह रही है

कि कुएँ का जल जहर है 

तो अमृत भी है


नदियाँ प्रश्न हैं

तो उत्तर भी!


बाढ़ की विभीषिका

मृत्यु का खेल खेलती है

लहरें आ रही हैं पास

सावधान! गड़बहना!

मुझे कसकर पकड़े रहना


माँ! मुझे जोर से भूख लगी है 

एक शिशु चिचोड़ रहा है चूचुक

एक को लगी है प्यास

पीड़ा की पतवार 

केले की बेड़ी को खे रही है

किनारे की ओर


बेचारी लाचारी वक्त की मारी विधवा नारी

फँसी है भय के भँवर में 

अपने बच्चों के साथ

हाथ में लिए लम्बा बाँस


मैं उसके दुःख को लिख नहीं पाऊँगा

आह! मेरा आँसू टपक रहा है

मैं एक गोताखोर की तरह 

गम की गंगा में डुबकी लगा रहा हूँ

जहाँ मुझे अपने गुरु से प्राप्त हो रही  है

श्वास रोकने की शक्ति

और वह रेत की आकृति भी 

जिसे उन्होंने गढ़ा है मेरे लिए


केवल कवि की कविता का ही नहीं

बल्कि इस वक्त रेत की माँ का कल-कल कराह भी

शामिल है इस माँ के दुःख में

इन बिलखते बच्चों के रुदन में!


रचना : 19/08/2021

3).

छत पर चिता //


इच्छाओं की इमारतें भहरा रही हैं

गम के गड्ढे में

इनसानियत देख रही है

तालिबान की आँखों में बढ़ियाई हुई है नदी


व्यवस्थाएं ख़ुश हैं

अपने अपने  मत पर


ढेर सारी आत्मा डूब चुकी हैं रक्त में

बची हुई डूब रही हैं 

आँसुओं में


आह! श्मशान घाट पर नहीं

न ही सड़क पर

लाशें जल रही हैं छत पर!


मेरे गुरु की गली में कीचड़ है

कमल उगेगा या नहीं

पर काशी में जिसका चिह्न है 

वह साला लीचड़ है


लोकतंत्र के लाल रंग में रंगा हुआ लंपट है

उसके द्वारा भाषणों में फेंका गया

आश्वासन का शब्द

दुःख के दरवाजे की चौखट है!


मेरी कविताएँ यात्रा कर रही हैं

शहर से गाँव की ओर

गड़ही में खिली है कुमुदिनी

और खिले हैं चहुंओर अनेक प्रकार के फूल

मुरेड़ पर बैठी हुई चिड़िया 

सुना रही है अपना हालचाल


इस गोधूलि वेला में 

धुएँ के साथ धूल

बारिश के विरुद्ध 

जा रही है वहाँ 

जहाँ उसे जाना है


खैर जैसे जंगल का शहंशाह

जब हथनी के बच्चे का करता है शिकार

तब वह चिंघाड़ती है

पूरी ताकत के साथ


ठीक वैसे ही

चिता के पास चिंघाड़ रही हैं इस समय हिलोरें!


रचना : 18/08/2021

4).

बाढ़ में बेचारा//


आने और जाने के बीच है

खतरनाक क्रिया का क्रंदन

कवि, कोविद और किसान के नयन में 

बढ़ियाई नदी का नहीं हुआ अभिनंदन


देख रही है कविता

और देख रही है

कि सीढ़ियों पर से जा रहा है सावन

जहां वसंत की प्रतिक्षा में बैठे हैं श्रीप्रकाश शुक्ल


संवेदना की सरिता में आई बाढ़

एक न एक दिन लौट जाती है

पर आँसुओं की बाढ़ डटी रहती है

ज्यों का त्यों दिल के दरवाजे पर


दिमाग का दीया जला रहा है दृश्य

मनुष्यता की मणि चमक रही है चहुंओर 

जिसकी किरणें तैर रही हैं नदी में

जहां स्नेह के गेह में फैल रहा है  उजास


हवा के विरुद्ध

उम्मीद की उमंग खे रही है नाव

घाव ताजा कर लौट चली है धार

अपने गंतव्य पथ पर


पर आह!घाट  'बेचारा' पर दोहरा घात

जहां गुरु के सजल नयन में देख रहा हूँ

कि  इस बार भी

आश्वासन की कटिया में चारा गूँथकर

उसे मारा जाएगा

बेमौत मछली की तरह


घर पर नहीं

इसी घाट पर


क्योंकि घर जो है उसका 

वह तो ढह गया है!


रचना : 17/08/2021

                                                              {संपादक : गोलेन्द्र पटेल}

नाम : गोलेन्द्र पटेल

{युवा कवि व लेखक : साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक}

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com












Monday, 16 August 2021

बाढ़ में बनारस और श्रीप्रकाश शुक्ल : गोलेन्द्र पटेल || Golendra Patel

 बाढ़ और श्रीप्रकाश शुक्ल पर केंद्रित युवा कवि गोलेन्द्र पटेल की चार कविताएँ :-

                                  {तस्वीर साभार : अमन आलम , 
हिंदुस्तान : पत्रकार}
                           (अपने काव्यगुरु श्रीप्रकाश शुक्ल को समर्पित चार कविताएँ)

1.
इस गोधूलि बेला में //

गंगा से बीहड़ गुरु के उर में उठ रही है तरंग 
उलझन, द्वंद्व और रहस्य तीनों बैठे हैं घाट पर  
काशी के कोरोजयी कवि के संग

इस पार
मनोभूमि से मणिभूमि तक फैल गयी है गंगधार
सांत्वना का सार सिद्ध हुआ निराधार
छिन्न भिन्न हुआ सुख का आधार
सब आश्वासन हुआ बेकार
जनता पड़ी  है लाचार
उधार का आटा सान रही है भूख
दुख! दुख! दु...ख...दु...ख
बूढ़ी आँखें उन सीढ़ियों पर गयी हैं झुक
जो डूब चुकी हैं आँसुओं के बाढ़ में
रुक रुक रु...क...रु...क
रो रही है केदारनाथ सिंह की आत्मा

मानसरोवर पर है रोष की रदी
आह! झोपड़ी उजाड़कर 
खुश है नदी?

लाशों की गंध गोधूलि बेला में
मणिकर्णिका से आयी है
पक्का महाल में महसूस कर रहे हैं श्रीप्रकाश शुक्ल
यानी मेरे गुरु गा रहे हैं वह गान
जो कभी तुलसी, तो कभी निराला की रही है तान

नूतन धुन और सरसराहटी स्वर में
यह तान सुन रहा है जहान
उनकी कविताओं में

चिहुँक रही है शोक में डूबी हुई सोनचिरई
और बारिश में भींगी उसकी सखी सिरोइल
समय के शीत से काँप रही है
भाँप रही है कि
धर्म की नगरी में धर्मराज का भिक्षुक रूप
आखिर क्यों है?

रचना : 13/08/2021

                                              {तस्वीर : गुरुवर श्रीप्रकाश शुक्ल}

2.

प्रस्ताव //

अगस्त के महीने में हिमालय ने
अपनी बेटी नदी को 
अपना वर चुनने को कहा 
तो वह बहुत ख़ुश हुई
इतनी ख़ुश कि
उसकी हर्षित हिलोरें हवा से हँसी ठिठोली करती 
पहुँच ही गईं  सागर के पास!

सागर ने प्रस्ताव रखा कि
मैं मई में करूँगा शादी
क्या तुम आओगी?

नदी चुप है आज तक!

रचना-14/08/2021

                                         {कुएँ से पानी खींच रहे हैं गोलेन्द्र पटेल}
3.

कुएं का दुःख //

बरसात में सरोवर ख़ुद को समुद्र समझता है
गड़ही अपने को गंगा
पर बेचारा कुआँ दुखी है
कि उसके जलीय ज़हर को क्यों पी रही है जनता!

मुझे मेंड़ पर याद आते हैं मेरे मार्गदशक
और उनके  लिखे हुए  वाक्य
जो वे लिखे हैं 
मचान पर बैठकर
मेरे लिए
रो रोकर!

रचना-14/08/2021

4.

बाढ़ में बनारस //

नदियाँ नाराज हैं उन नगरों से
जिनके सीवरों का झाग 
उन्हें चिता की आग की तरह झौंस रहा है
जैसे वे हैं कोई लाश

खास बात यह है कि किनारों पर
अवैध कब्जा जमाये विकास कर रही है सत्ता
जहां कंपनियाँ उसमें फेंक रही हैं 
कूड़ा कचरा 
और लत्ता...

हताश जनता देख रही है कि
उसके जल और चीनी से बना रस
अब हो चुका है जहर
ठीक वैसे ही है
जैसे बाढ़ में है अपना प्यारा शहर-
बनारस

पर  विकास के कचरे के विरुद्ध 
पर पीड़ा के पहरेदार 
अभी भी खड़े हैं कुछ लोग
कवि ,कोविद और हल योग

दीन-दुखियों के साथ खड़ी है हिंदी की कविता भी 
जहां दोहरी विस्थापित जिंदगी की गीता
लिख रहा हूँ मैं
अपने गुरु की आँखों में देखकर

रो रोकर!

रचना : 16-08-2021

                                                            {संपादक : गोलेन्द्र पटेल}

नाम : गोलेन्द्र पटेल

{युवा कवि व लेखक : साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक}

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com



Thursday, 12 August 2021

बाढ़ और श्रीप्रकाश शुक्ल पर केंद्रित युवा कवि गोलेन्द्र पटेल की चार कविताएँ

 

बाढ़ और श्रीप्रकाश शुक्ल पर केंद्रित युवा कवि गोलेन्द्र पटेल की चार कविताएँ :-

                                           {फोटो साभार : कुमार मंगलम}

1.

रेत डूब


वरुणा और असि के द्वाब में बसी काशी

अब हो चुकी है बासी

इन्हें सरकारी कागजों में घोषित कर दिया गया है नाला

धर्म की नगरी को नगरपालिका की गायों की तरह दुह रहा है साला


बच्चे माँ की कोख में ठूँस रहे हैं पत्थर

लोग अवैध कब्जा किये जा रहे हैं नदियों का किनारा

और दहाड़ मारकर रो रही है 

कबीर का लहरतारा


बुद्ध और रैदास सुन रहे हैं रुदन का स्वर

तुलसी घाट पर 'राग नया अनुराग नया'सुन रही है गंगा

अपने शब्दसाधक पुत्र श्रीप्रकाश शुक्ल से


मैं त्रिनेत्र की आँखों में देख रहा हूँ 

उत्तर  और दक्खिन का दुख

और सोच रहा हूँ

कि जैसे बाढ़ में डूब जाता है खेत

ठीक वैसे ही

अपने आँसू में 

डूब गयी है रेत

                                  {फोटो साभार : गुरुवर डॉ. विजयनाथ मिश्र}

हालात के मारे लोगों को 

लहरें लात मार रही हैं 

और टूट रहा है लोक का लय


जहां मेरे गुरु गढ़ रहे हैं पक्का महाल में मानस का मंदिर

जिसमें उस देवता की मूर्ति बसी है 

जो कभी मरा है बेघर होकर

रो..  रो.. कर!

रचना : 12/08/2021


                      {घर के सामने का दृश्य है। गुरुवर ट्रेक्टर पर से घर को देख रहें हैं।}

2

कभी- कभी दुख का चेहरा धरे आ जाता है उजास


घोंसलों में मौन पक्षी, चुप खड़े बबूल

चारों तरफ गंगधार, डूबा घर  दुआर

ट्रैक्टर पर बैठ निज घर को निहार रहा वो कवि 

जो तूफ़ानों से लड़ता रहा, लहरों से भी

अडिग, अविचलित श्रीप्रकाश शुक्ल


समय की आहट मिल रही नदी के कल कल में

आयी है शिव की सलाह मान कवि के घर

अनुग्रह जताने, उसका जो किया उसने

जब उजाड़ा जा रहा था तटग्राम धू-धू

अंधेरे के आक्रमण के विरुद्ध जो डटा रहा


वह गुरु मेरे, डूबते गांवों, घरों की पीड़ा

पर चिंतित, कुछ ऊंचाई से मुस्करा रहे

जान रहे वे, कि क्यों आयी है गंगा माई द्वार पास

कभी- कभी दुख का चेहरा धरे आ जाता है उजास

रचना : 11/08/2021

                           साभार : जनसंदेश टाइम्स, लखनऊ (सं. डॉ. सुभाष राय)

3.

मल्लू मल्लाह

(अपने काव्यगुरु श्रीप्रकाश शुक्ल को समर्पित)


मेरे समय के शब्द हैं मेरे गुरु

यह मैं नहीं

उनकी कविताएँ कह रही हैं

उस मल्लू मल्लाह से 

जिसकी नाव खड़ी है किनारे

और कुछ इधर-उधर औंधी पड़ी हैं


उसकी मँड़ई में लालटेन भभक रही है

भूख के भूगोल में जन्म ले रहा है भय

भकुआई भँवरी आ गयी है पास


हिलोरों से हताश हो रही है 

तटीय जिंदगी

नगर पालिका के कूड़े की मानिंद

बिखर गई है गंदगी


मणिकर्णिका पर धुआँ ही धुआँ है

घाटों पर पसर गया है दुख

आह! शिव! 

सावन में टूट जाता है विश्वास!


गंगा की गोद में हँसने वाले बच्चे रोने लगते हैं

बिलखते बिलखते भूखे पेट सोने लगते हैं


उसके जैसे अनेक लोगों का चूल्हा

विस्थापित हो रहा है

कोई कह रहा है कि

बाढ़ में बोझ है अपना आँसू

इसे छोड़ दो नदी में


मेरे गुरु वही आँसू 

कविता की कटोरी में इकट्ठा कर रहे हैं

जिसमें इनसानियत की इंक घोलकर

कभी लिखा जाएगा काशी का इतिहास।

रचना : 13/08/2021


4.

उस पार


सब्र का बाँध टूटते ही ध्वस्त होता है नदी का धैर्य

जन जन के जिगर में गूँजता है गर्जन तर्जन


हवा हँस हँस कहती है कि

हरियाने का हुनर दिखा रही हैं हिलोरें

सीख लो सरोवर 

बाढ़ में सागर से संस्कार


तरंगें होती हैं जिसकी ताकतवर

उसे नहीं होता है किसी भी प्रकार का कोई अहंकार


चेतना की चट्टान जब सह नहीं पा रही है पानी का प्रहार

शब्दसाधक श्रीप्रकाश शुक्ल समय के श्यामपट पर समझा रहे हैं

कि निराशा की नदी में जो खे रहे हैं  पतवार

लोगों की पीड़ा उन्हें  धक्का देकर पहुँचा रही है उस पार!

रचना : 12/08/2021

                                                 {संपादक : गोलेन्द्र पटेल}


नाम : गोलेन्द्र पटेल

{युवा कवि व लेखक : साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक}

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com



Tuesday, 10 August 2021

बाढ़ और श्रीप्रकाश शुक्ल पर केंद्रित तीन कविताएँ : गोलेन्द्र पटेल

बाढ़ पर केंद्रित तीन कविताएँ : गोलेन्द्र पटेल

【घर के सामने का दृश्य है। गुरुवर श्रीप्रकाश शुक्ल ट्रेक्टर के इंजन पर बैठकर अपने घर को देख रहे हैं।】


1).


बाढ़//


इसमें कोई संदेह नहीं

कि बाढ़ नदी को स्वच्छ करती है

धरती को उर्वर बनाती है

पर उससे पहले वह उम्मीद की उपज नष्ट करती है

सारे सपने डूबो देती है

सुख का स्वाद छीन लेती है


तब एक किसान के गले में पड़ी हुई रस्सी

बोलती है

साहब! फसल नहीं, सपने डूबे हैं

इस पीड़ा से एक दो तीन नहीं, अनेक ऊबे हैं

दुनिया का दुख दरवाजे पर देता है दस्तक 

चूड़ियाँ फूटती हैं

ढही दीवारें चीखती हैं


चिहुँकती चिड़ियाँ पूछती हैं

बाँध क्यों टूटा, पानी क्यों छूटा 

उसके खेत में ?

शून्य में सफेद संवेदना सफ़र करती है 

गाँव से दिल्ली शहर की ओर


पर सांत्वना के नाम पर उसके गले में 

एक रस्सी है

और वह गा रही है गमी का गीत-

शोक का सोहर

गाँव दर गाँव, शहर दर शहर!!

2).


गंगा में गुरु//


बाँध खुलने पर नदी लाँघती है लक्ष्मण रेखा

और पगहा टूटने पर पशु

पर पथ का नियम तोड़ने पर टूटता है पैर ही!


खैर, गंगा में फँसे हैं मेरे गुरु

जैसे सब फँसे हैं गंगा के मानस पुत्र 


वे भी फंसे हैं ठीक वैसे

फंसना बस नियति ही जैसे!


नदी भूल गई है अपना पथ , अपना घर

वह अपने किनारे का कपाट खटखटा रही है

और कह रही है थोड़ी देर विश्राम करने के लिए 

मैं आई हूँ आपके घर 

आपके गाँव-शहर

जो कि कभी मेरा था!


दुख के दरवाजे से झाँककर

लोग स्वागत कर रहे हैं नदी का 

 

नदी हमारी माँ है

जो सुना रही है अपनी व्यथा-कथा

काशी के एक कवि को 

जी हां,श्रीप्रकाश शुक्ल को


जहां एक वाक्य पूरा होने से पहले ही 

दूसरा आँसू टपक रहा है गंगधार

जिसमें शामिल हैं तमाम लोगों के दुःख

और सिसकी भी!


3).


बाढ़ में बत्ती//


पक्षीगण अपने घोंसले में मौन हैं

सुख-दुख के साथी खड़े हैं बबूल

चारों तरफ है गंगधार

डूबा है घर  दुआर


ट्रैक्टर के इंजन पर बैठकर

अपने घर को निहार रहे हैं श्रीप्रकाश शुक्ल

जो तरह-तरह के तूफ़ानों और लहरों से लड़े हैं


लड़ना ही उनके लोक का आलोक है

जहां गहरे डूबा है शोक

जो श्लोक बन उतरा रहा है 


समय का स्वर भी आहत है

आहट जिसकी मिल रही है

नदी के कल कल स्वर में!


गंगा के गान में गुरु का गम 

हम महसूस कर रहे हैं

संवेग का सूर्य ढल रहा है

भीतर दुख का दीया जल रहा है

और आँसुओं की चमक फैल रही है 

अंधेरे के विरुद्ध 


कभी कभी यही चमक चीख की चिंगारी से

उत्पन्न होकर चली जाती है 

देश की देह में हुई फुड़िया को चीरने


खबरें आ रही हैं कि वह गाँव डूब गया है

वह डूबने वाला है

वहाँ इतने मर गये हैं, वहाँ इतने घर ढह गये हैं

वह बाँध टूटने वाला है

बचाव कर्मी लुटने वाला है

सुबह सुबह कोइलिया भी  कूकी है


ऐसा संभव ही नहीं है कि बाढ़ में बत्ती ही न बुझे कहीं

फिर भी लोग हैं कि  मुस्कुराते हुए पकड़ रहे हैं मछली

जहां मेरे कोरोजीवी  गुरु 

बत्ती में भी आकाश भर चमक दिए जा रहे हैं!


©गोलेन्द्र पटेल

संपर्क :-

ईमेल : corojivi@gmail.com

मो.नं. : 8429249326

                                                            गोलेन्द्र पटेल
                               {युवा कवि व लेखक : साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक}


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Saturday, 7 August 2021

तिमिर में ज्योति जैसे :: कविता की शक्ति पर पूरा भरोसा अरुण होता को : वसंत सकरगाए

 

संपादक : अरुण होता
"तिमिर में जैसे ज्योति" पर लिखी मेरी एक छोटीसी टिप्पणी आज के जनसंदेश टाइम्स लखनऊ में शाया हुई है। सम्पादक श्री सुभाष राय का आभार।

 {सुभाष राय और वसंत सकरगाए} 
 *कविता की शक्ति पर पूरा भरोसा अरुण होता को*
{आलोचक व आचार्य अरुण होता}

यशस्वी आलोचक अरुण होता को कोरोनाकालीन कविताओं के भविष्य तथा संरक्षण की भला ऐसी कौनसी चिंता सता रही थी कि यूनिवर्सिटी के तमाम ज़िम्मेदाराना और महत्त्वपूर्ण कामों की लगातार व्यस्तताओं के बीच उन्हें इन कविताओं के मानक निर्धारण तथा जुटान हेतु अतिरिक्त श्रम संघर्ष करना बेहद ज़रूरी लगा। निश्चित ही संचयित रचनाओं पर एकाग्र पुस्तक का सम्पादन बहुत चुनौतीपूर्ण एवं इसकी जटिल प्रक्रिया बेहद थकाऊ होती है। गागर में विस्तृत सागर भरने का यह संकल्प सम्पादक से वैचारिक सजगता स्पष्ट दृष्टिकोण के अलावा निष्पक्ष उदारता  की माँग भी करता है। बहुत संभव है कि उन्हें 'तराजू के पलड़े पर मेढ़कों को तौलने' जैसे मुश्क़िल व अप्रिय अनुभवों से भी गुजरना पड़ा हो। 

अब, जबकि कोरोनाकाल के गहन तमस में प्रसूत चुनिंदा कविताओं की संचयन पुस्तक "तिमिर में ज्योति जैसे" समय के एक ज़रूरी दस्तावेज के रुप में आभा बिखेर रही है, तब अरुण होता के सम्पादकीय पक्ष में अंतर्निहित उन तथ्यों-बिन्दुओं की पड़ताल व उन्हें रेखांकित किया जाना लाज़मी है, जहाँ एक सजग आलोचक की रचना संरक्षण को लेकर तड़प, तलब, उम्मीदें व लालसा की छबियाँ उजागर होती है। उल्लेखनीय है कि अरुण उन चुनिंदा आलोचकों में हैं जिन्होंने अपनी आलोचकीय प्रतिबद्धताओं से कभी समझौता नहीं किया। रचनाकार से व्यक्तिगत मैत्री सम्बंध और उसके रचना-कर्म के बीच हमेशा एक ज़रूरी फ़ासला बनाए रखा। यही वज़ह है कि उनकी निष्ठा और निष्पक्षता पर अब तक कोई उँगली नहीं उठी। और किसी भी तारीख़ में हिन्दी आलोचना की किसी अदालत ने उन्हें हाज़िर होने के लिए कभी सम्मन नहीं भेजा। इस पुस्तक में वरिष्ठतम कवियों अशोक वाजपेयी, राजेश जोशी, ज्ञानेन्द्रपति के साथ बीए द्वितीय वर्ष के छात्र गोलेंद्र पटेल जैसे नवोदित कवि उपस्थित है तो इसका अर्थ यह नहीं कि सम्पादक ने महज पीढ़ियों के दरमियान संतुलन स्थापित करने की कोशिश की है, बल्कि इसलिए कि प्रखर प्रकाश-पुंजों के बीच उन्होंने उस छोटी-सी चिंगारी को भी सम्मान दिया जो छुटपुट बहुत सीमित ही सही मगर ताप व उजास का अहसास कराती है।
बेशक़, जब अरुण होता ने इस महती योजना की घोषणा की होगी सैकड़ों कवियों ने हजारों की तादाद में अपनी रचनाएँ उन तक पहुँचायी होंगी। आग्रह और तकाज़े का क्रम भी निरंतर चला होगा। किन्तु संचयन में कुल तिरतालीस कवियों की छोटी-बड़ी एक सौ पन्द्रह कविताओं की उपस्थिति दर्शाती है कि सम्पादक की अपेक्षाएँ क्या, कैसी और क्यों है इसका खुलासा "महामारी में जिजीविषा बनाए रखने वाली कविताएँ" शीर्षक से लिखी उनकी सम्पादकीय में देखा जा सकता है। 
वे लिखते हैं, "भारत में अब तक इस महामारी ने करोड़ों लोगों को संक्रमित किया है और लाखों के आसपास लोगों को अकाल मृत्यु का शिकार बनाया है। इन्हीं सही-ग़लत आँकड़ों पर भविष्य में इतिहास लिखा जाएगा। अनुभव बताता है कि आँकड़ें और तथ्य महत्त्वपूर्ण बनते आ रहे हैं किसी कालखण्ड के इतिहास लेखन में। अतीत में घटित महामारियों के उपलब्ध इतिहास के संदर्भ में भी यह परिलक्षित होता है। इतिहास कहकर जो कुछ परोसने का प्रयास किया जाता है, वह प्रश्नों के घेरे से मुक्त नहीं है। एक मानविकी छात्र के लिए इतिहास महज़ एक कंकाल सार है। उसके सामने एक कथन बार-बार घूमता है 'इतिहास में नाम और तिथि के अलावा कुछ भी सत्य नहीं होता है। जबकि साहित्य में नाम और तिथि के अलावा सब कुछ सत्य होता है।'  तथ्यों और आँकड़ों में सीमित होकर दर्ज किए गए इतिहास अथवा गवेषणामूलक कार्यों में मानव जीवन की विविध संवेदनाएँ दर्ज नहीं होती हैं। मनुष्य के सुख-दुख, हर्ष-विषाद, आशा-निराशा, रुचि-अरुचि, प्रेम-घृणा आदि भाव और विकारों का प्रतिफलन नहीं होता है। फलतः ऐसे लेखन नीरस सिद्ध होते हैं। साहित्यकार के लिए मानवीय भावों का सर्वाधिक महत्व होता है। वह अपनी सृजनशीलता और रचनादृष्टि तथा जीवनदृष्टि को रचना के आधार पर व्यक्त करता है।
कविता केवल शब्दों का खेल नहीं है। कविता कल्पनाओं की ऊँची उड़ान भरने का  एक माध्यम नहीं है। कविता स्व की अभिव्यक्ति तो है लेक़िन इस 'स्व' में 'पर' भी समाया हुआ है। अथवा 'पर' का आत्मसात करने के पश्चात 'स्व' की अभिव्यक्ति साहित्य का प्राण है। अन्त: और बाह्य के एकाकार रुप की सफ़ल अभिव्यक्ति है कविता। यदि यह अभिव्यक्ति सफलता के साथ-साथ सार्थकता प्राप्त करती है तो कविता कालजयी बनती है।
किसी भी कालखण्ड में लिखना एक साहसिक काम है। जोख़िम भरा भी। इसलिए महज रचना कौशल हासिल कर लेने से कविता सही पदवाच्य नहीं हो सकती है। रचना कौशल से कविता 'बन' सकती है, 'हो' नहीं सकती। कविता का 'बनना' सायास है और कविता का 'होना'अनायास।
समय और समाज में होनेवाले परिवर्तनों से कविता की आवश्यकता समाप्त नहीं हो जाती, बल्कि कविता की प्रयोजनीयता अधिक बढ़ जाती है।" 
साथ ही अरुण होता यह विश्वास जताते हैं कि चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो,दर्शन न हो, पर कविता का प्रसार अवश्य रहेगा।
मार्च 2020 में भारत में बिल्कुल अवैज्ञानिक, अनियोजित तथा बिना सोचे-समझे आनन-फ़ानन में घोषित लॉकडाउन से उपजी हृदयविदारक त्रासदियों, इस पर सत्ता की धूर्तता "गोबर-मूत्र" की धर्मांधता से की गई लीपापोती तथा गोदी मीडिया के दोगले चरित्र को आड़े हाथों लेते हुए पूरी बेबाकी और तथ्यों के साथ उस यथार्थ को उजागर करते हैं,जिनकी वज़ह से पीड़ित व संवेदनाओं से भरा कविमन व्यथित हो रहा था।
{अरुण होता और श्रीप्रकाश शुक्ल}

सम्पादकीय में वे चर्चित कवि आलोचक श्रीप्रकाश शुक्ल द्वारा प्रस्तावित नाम-'कोरोजीवी कविता' को उपयुक्त बताते हुए शुक्ल के प्रकाशित लेख " कोरोनाजीवी कविता:अर्थ और संदर्भ" की इन पँक्तियों को शामिल करते है-" इस कोरोनाजीवी कविता का महत्व इस कारण नहीं है कि यह महामारी के बीच लिखी जा रही है बल्कि इस कारण से है कि यह महामारी के बावजूद लिखी जा रही हैं, जिसमें युगबोध की उपस्थिति तो है ही, साथ ही साथ इतिहासबोध की नयी अंतर्दृष्टि भी है।"
कमोबेश हर कविता पर की गई टिप्पणी में अरुण स्पष्ट करते हैं कि संचयन शामिल रचनाएँ किसतरह सत्ता की ज़्यादतियों और लम्पटताओं का प्रतिकार करती हैं। और श्रमरत आमजन की श्रम शक्ति को रुपायित करती हैं।

                                       -वसंत सकरगाए-
{टिप्पणी : वसंत सकरगाए}

टिप्पणीकार का संक्षिप्त परिचय :- 

आत्मीय कवि वसंत सकरगाए 2 फरवरी 1960 को हरसूद(अब जलमग्न) जिला खंडवा मध्यप्रदेश में जन्म। म.प्र. साहित्य अकादमी का दुष्यंत कुमार,मप्र साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी सम्मान,शिवना प्रकाशन अंतरराष्ट्रीय कविता सम्मान तथा अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्यिक पत्रकारिता के लिए ‘संवादश्री सम्मान।
-बाल कविता-‘धूप की संदूक’ केरल राज्य के माध्यमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम में शामिल।
-दूसरे कविता-संग्रह ‘पखेरु जानते हैं’ की कविता-‘एक संदर्भ:भोपाल गैसकांड’ जैन संभाव्य विश्विलालय द्वारा स्नातक पाठ्यक्रम हेतु वर्ष 2020-24 चयनित।दो कविता-संग्रह-‘निगहबानी में फूल’ और ‘पखेरु जानते हैं’

संपर्क-ए/5 कमला नगर (कोटरा सुल्तानाबाद) भोपाल-462003
मो.नं. :  +91 99774 49467
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{ई-संपादक : गोलेन्द्र पटेल}


नाम : गोलेन्द्र पटेल

{युवा कवि व लेखक : साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक}

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#तिमिर में जैसे ज्योति  #golendrapatel


Friday, 6 August 2021

युवा कवि अखिल सिंह की छह कविताएँ

 


नवोदित कवि अखिल सिंह की छह कविताएँ :-

1)

सदियों से है यही कह रहा हिमगिरि का उत्तुंग शिखर,
देश और मानव हित को,रहो हमेशा तुम तत्पर।
किस हेतु गर्भगृह से अपने नदियों को जना हिमालय ने,
किस हेतु चतुर्दिश से सोचो उत्तर ही चुना हिमालय ने।
तुम उद्गम स्थल पर देखो,तनूजा शोर मचाती है,
जैसे-जैसे जल बढ़ता है वह स्वयं धीर हो जाती है।
हे मानव तुच्छ सफलता पर फिर क्यों तूने हुंकार किया?
होकर मदान्ध फिर क्यों तूने आपस में खड़ी दीवार किया?
शिखरों पर जल का अंश लिए था खड़ा हिमालय सदियों से,
नगपति को किस तरह उदधि से मिला दिया नदियों ने।
कैसे शब्दों की परिधि में प्रकृति का सार लिखा जाए,
आपस से बैर मिटाओ अब थोड़ा सा प्यार लिखा जाए ।।


2).
बिकने लगी मानवता ईमान बिक रहा है,
कैसा अजब समय है इंसान बिक रहा है।
सोने-चाँदी के बिस्तर सोने को लग रहे हैं,
बच्चा सड़क पे मुफ़लिस नादान बिक रहा है।
दौलत अमीरों के तो जूते सजा रही है,
दौलत की ख़ातिर ही तो सम्मान बिक रहा है।
दो वक्त की रोटी, भी है नहीं मयस्सर,
बेटी के ब्याहने को,मकान बिक रहा है।
मानव तेरी धरा पर क्यों न हो अँधेरा,
हाथों तिमिर के ही जब अंशुमान बिक रहा है ।।


3).
तालाब में,
मछुआरे ने दाने फेंके....
जठराग्नि से पीड़ित,
प्रज्ञास्वमिनी,
बेचारी मछलियाँ!!
पुनः फँसी ।

यही सियासत है ....


4).
हे राम अयोध्या नगरी में इक बार पुनः तुम वास करो,
इक बार पिता के कहने पर फिर चौदह वर्ष वनवास करो,
आर्यावर्त में पुत्र आज वनवास पिता को देते हैं,
इक बार पुनः पित्रज्ञा हेतु साम्राज्य छोड़ जाना होगा ।
                  हे त्रेता के वीर तुम्हे कलयुग में भी आना होगा ।।
भाई के लिए आज भाई विषधर भुजंग बन बैठा है,
मानव की करतूत देख सर्पों का भी मन बैठा है,
बेकार गया सब त्याग तुम्हारा राम अनुज ये सुन लो तुम,
इक बार पुनः आकर तुमको पर्णकुटी अपनाना होगा ।
           हे त्रेता के वीर तुम्हे कलयुग में भी आना होगा।।
हे निशिचर देव हिन्द भू पर इक बार पुनःआ जाओ तुम,
बिन तपसी वेश बनाये ही मां सीता को ले जाओ तुम,
थोथे प्रेम की सत्ता को समूल मिटाने की खातिर,
हे जनकदुलारी पुनः तुम्हे लंकानगरी जाना होगा ।
         युग-युग के आदर्श तुम्हे इक बार पुनः आना होगा।।
भारत भूमि पर नर पिशाच हर तरफ दिखाई देते हैं,
निर्धन,निर्बल और अबला के चीत्कार सुनाई देते हैं,
इस अधोगति से इस भू की रक्षा करने को रामलला,
लखनलाल के साथ-साथ सारंग धनुष लाना होगा।
          हे त्रेता के वीर तुम्हे कलयुग में भी आना होगा।
       युग-युग के आदर्श तुम्हे इक बार पुनः आना होगा ।।।


5).

मरता है अन्नदाता कैसी अजब खबर है,
देखो निठल्ला देश ये फिर भी बेखबर है।
हर रोज बीच रस्ते करते रहे तमाशा,
कानों पे जूँ न रेंगी चीखें भी बेअसर हैं।
महबूब का दामन ही सबको रास आया,
छाती फुला के खुद को कहते ये सुख़नवर हैं।
तेरी कृति का कैसा ये रंग है विधाता,
मंजिल कहाँ है इसकी?कैसी ये रहगुज़र है?
अमृत भरे जलाशय से देश जल रहा है,
संसद भी बेखबर है,सरकार बेखबर है।।


6).
मयख़ाने में डूबा शहर हमको नहीं मिला,
जाने क्यूँ वो चाहकर हमको नहीं मिला।
चर्चे हैं मुस्करा के सबके ज़ख्म भर दिए,
ऐसा कोई चारागर हमको नहीं मिला।
आंखों में मुकम्मल दरिया मिला हमें,
लेकिन क्यों पारावर हमको नहीं मिला।
हर राह जिसकी जाती हो मैक़दे तक,
ऐसा कोई सफर हमको नहीं मिला।
खुशकिस्मती वे नजरों से पिलाते हैं आज भी,
अफसोस कि ये हुनर हमको नहीं मिला।।

                  संपर्क सूत्र :-
नाम-अखिल सिंह
छात्र - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
पता - ग्राम-इमली महुआ,पो-रामापुर, जिला-आज़मगढ़,पिन-223225
पिता का नाम-मनोज कुमार सिंह
माता का नाम-रीता सिंह
मो. 8052657645

(वर्तमान पता-प्लॉट no 86(ओंकारनाथ मिश्र),गंगा प्रदूषण रोड (निकट-हेरिटेज हाउसिंग)भगवानपुर लंका वाराणसी ..
Pin-221005)

                                                               संपादक

नाम : गोलेन्द्र पटेल

{युवा कवि व लेखक : साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक}

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