Tuesday, 10 August 2021

बाढ़ और श्रीप्रकाश शुक्ल पर केंद्रित तीन कविताएँ : गोलेन्द्र पटेल

बाढ़ पर केंद्रित तीन कविताएँ : गोलेन्द्र पटेल

【घर के सामने का दृश्य है। गुरुवर श्रीप्रकाश शुक्ल ट्रेक्टर के इंजन पर बैठकर अपने घर को देख रहे हैं।】


1).


बाढ़//


इसमें कोई संदेह नहीं

कि बाढ़ नदी को स्वच्छ करती है

धरती को उर्वर बनाती है

पर उससे पहले वह उम्मीद की उपज नष्ट करती है

सारे सपने डूबो देती है

सुख का स्वाद छीन लेती है


तब एक किसान के गले में पड़ी हुई रस्सी

बोलती है

साहब! फसल नहीं, सपने डूबे हैं

इस पीड़ा से एक दो तीन नहीं, अनेक ऊबे हैं

दुनिया का दुख दरवाजे पर देता है दस्तक 

चूड़ियाँ फूटती हैं

ढही दीवारें चीखती हैं


चिहुँकती चिड़ियाँ पूछती हैं

बाँध क्यों टूटा, पानी क्यों छूटा 

उसके खेत में ?

शून्य में सफेद संवेदना सफ़र करती है 

गाँव से दिल्ली शहर की ओर


पर सांत्वना के नाम पर उसके गले में 

एक रस्सी है

और वह गा रही है गमी का गीत-

शोक का सोहर

गाँव दर गाँव, शहर दर शहर!!

2).


गंगा में गुरु//


बाँध खुलने पर नदी लाँघती है लक्ष्मण रेखा

और पगहा टूटने पर पशु

पर पथ का नियम तोड़ने पर टूटता है पैर ही!


खैर, गंगा में फँसे हैं मेरे गुरु

जैसे सब फँसे हैं गंगा के मानस पुत्र 


वे भी फंसे हैं ठीक वैसे

फंसना बस नियति ही जैसे!


नदी भूल गई है अपना पथ , अपना घर

वह अपने किनारे का कपाट खटखटा रही है

और कह रही है थोड़ी देर विश्राम करने के लिए 

मैं आई हूँ आपके घर 

आपके गाँव-शहर

जो कि कभी मेरा था!


दुख के दरवाजे से झाँककर

लोग स्वागत कर रहे हैं नदी का 

 

नदी हमारी माँ है

जो सुना रही है अपनी व्यथा-कथा

काशी के एक कवि को 

जी हां,श्रीप्रकाश शुक्ल को


जहां एक वाक्य पूरा होने से पहले ही 

दूसरा आँसू टपक रहा है गंगधार

जिसमें शामिल हैं तमाम लोगों के दुःख

और सिसकी भी!


3).


बाढ़ में बत्ती//


पक्षीगण अपने घोंसले में मौन हैं

सुख-दुख के साथी खड़े हैं बबूल

चारों तरफ है गंगधार

डूबा है घर  दुआर


ट्रैक्टर के इंजन पर बैठकर

अपने घर को निहार रहे हैं श्रीप्रकाश शुक्ल

जो तरह-तरह के तूफ़ानों और लहरों से लड़े हैं


लड़ना ही उनके लोक का आलोक है

जहां गहरे डूबा है शोक

जो श्लोक बन उतरा रहा है 


समय का स्वर भी आहत है

आहट जिसकी मिल रही है

नदी के कल कल स्वर में!


गंगा के गान में गुरु का गम 

हम महसूस कर रहे हैं

संवेग का सूर्य ढल रहा है

भीतर दुख का दीया जल रहा है

और आँसुओं की चमक फैल रही है 

अंधेरे के विरुद्ध 


कभी कभी यही चमक चीख की चिंगारी से

उत्पन्न होकर चली जाती है 

देश की देह में हुई फुड़िया को चीरने


खबरें आ रही हैं कि वह गाँव डूब गया है

वह डूबने वाला है

वहाँ इतने मर गये हैं, वहाँ इतने घर ढह गये हैं

वह बाँध टूटने वाला है

बचाव कर्मी लुटने वाला है

सुबह सुबह कोइलिया भी  कूकी है


ऐसा संभव ही नहीं है कि बाढ़ में बत्ती ही न बुझे कहीं

फिर भी लोग हैं कि  मुस्कुराते हुए पकड़ रहे हैं मछली

जहां मेरे कोरोजीवी  गुरु 

बत्ती में भी आकाश भर चमक दिए जा रहे हैं!


©गोलेन्द्र पटेल

संपर्क :-

ईमेल : corojivi@gmail.com

मो.नं. : 8429249326

                                                            गोलेन्द्र पटेल
                               {युवा कवि व लेखक : साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक}


#golendragyan #golendrapatel #golendra #गोलेन्द्र_पटेल #गोलेंद्र

No comments:

Post a Comment

जनविमुख व्यवस्था के प्रति गहरे असंतोष के कवि हैं संतोष पटेल

  जनविमुख व्यवस्था के प्रति गहरे असंतोष के कवि हैं संतोष पटेल  साहित्य वह कला है, जो मानव अनुभव, भावनाओं, विचारों और जीवन के विभिन्न पहलुओं ...