Tuesday, 20 October 2020

गंगा को जगाओ, देश को बचाओ : नीलय जी उपाध्याय {©Nilay Ji Upadhaya}

गंगा को जगाओ, देश को बचाओ

गंगा यात्रा की रिपोर्ट

(२०१३-२०१४)

https://youtu.be/Vo17IRaTRUs

गंगा का समय


यह यात्रा नवम्बर २०१३ में आरम्भ हुई थी।

गंगोत्री से गंगनानी, उत्तरकाशी ,टिहरी और देवप्रयाग होते हरिद्वार तक पैदल चलकर आया। आगे भी पैदल जाने की ही योजना थी पर हरिद्वार आने के बाद मित्रों ने सायकिल दे दी और मेरी पदयात्रा सायकिल यात्रा में बदल गई।सायकिल मिलने के बाद, उसके साथ कुछ दिन चलने के बाद यह समझ में आया कि सायकिल अनिवार्यता थी। 

पदयात्रा तब ही संभव है जब कंधे पर फ़कीरों की तरह बस एक झोला हो, एक धोती ,एक गमछा और सर्दियां न हो।लेखकीय जिम्मेदारी,  लैपटाप मोबाईल कैमरा और ठंड के कपडों के साथ मेरे सामान का वजन सात किलों से अधिक हो गया था और पहाड की चढाई पर मुझे झुककर चलना पडता था। सायकिल मात्र से मुझे राहत मिली। 

मैं सायकिल पर चलता था।

जीवन के पडाव बदल जाते है तो साधन भी बदल जाते है। 

पूरे बीस वर्षो के बाद यात्रा में इस तरह सायकिल से जुडना सुखद लगा। कन्नौज,

बिठूर, कडा, बनारस, बलिया ,पटना ,भागलपुर फ़रक्का और मुर्शिदाबाद, मायापुर होते,गांव गांव की हवा में सांस लेते, घाट घाट का पानी पीते चार महीना और तेईस दिन की अनवरत यात्रा के बाद सकुशल मैं गंगासागर पहुंच गया। इस प्रवाह में गंगोत्री और गंगा सागर के बीच गंगा और उसके आस पास की प्रकृति, संस्कृति,जन का हाल देखते मुझे पांच राज्यों उतराखंड, उतरप्रदेश ,बिहार झारखंड और बंगाल से होकर गुजरना पडा। रात्रि विश्राम के लिए रास्ते में लगभग सौ केन्द्रो पर रूकना पडा जहां खान पान और रहन सहन का स्तर देखा। तीस से अधिक केन्द्रों पर लोगों ने मेरे अनुभव सुने और संवेदित हुए। सौ से अधिक अखबारों में मेरे यात्रा की खबर छपी और एक हजार से अधिक लोग फ़ेस बुक पर मेरे साथ यात्रा करते रहे। राह में लोगों का जो प्यार और जो आत्मीयता मिली वह मेरे लिए जीवन की अन मोल थाती है।

 इस राह में बहुत कुछ देखा|

 एक रचना कार के रूप में जानता था की यथार्थ वही रहता है, समय बदलता है और भाषा बदलती है | पहले मैंने गंगा के समय को देखा | यह नया समय था | गंगा चिल्ला चिल्ला कर बता रही थी की  इस समय मे कही जनतंत्र नहीं है  , लोक तन्त्र भी नही है | लोकतंत्र के चारो स्तम्भ गुलामी की चादर ओढ़ कर सो गए है | यह समय प्रकृति की लुट का है  , भ्रस्ट आचार का है ,जाति वाद , गुंडई और बाजार से मिलकर उसी तरह बना है जैसे पंच  तत्वों से मिलकर यह दुनिया बनी है| 

इनकी भाषा आक्रामक और जीवन विरोधी है| 

इसने अपना हित साधने के लिए गंगा को वहां पहुचा दिया है जहा से वापस करने के लिए एक और भागीरथ प्रयत्न की आवश्यकता होगी | गंगा का समय देश का भी समय है | 

गंगा बंधी 

देश बंधा 

हर आदमी बंधा है 


गंगा विभाजित हुई 

देश विभाजित हुआ 

हर आदमी बिभाजित हुआ है 


गंगा प्रदूषित हुई 

देश प्रदूषित हुआ

हर आदमी प्रदूषित हुआ है 


गंगा पर गाद जम रही है  हुई 

देश पर गाद जम रही है  

हर आदमी पर गाद जम रही है 


गंगा का समय देश के समय के माप का पैमाना है | यह गंगा समय है | 



२ 

गंगा काल का तट है।


गंगा तट, गंगा के काल का भी तट है।

वहां पर वैदिक काल से लेकर आज तक समय के पहिए के इतने निशान है जिनकी गणना नहीं की जा सकती। गंगा की कहानी सभ्यता की कहानी है। अथर्व वेद में इसे पहली बार परिभाषित किया गया। किसी नदी को देखने के लिए चार जगहों को देखना चाहिए।

नदी का गर्भ

नदी का घाट

नदी का तट

नदी का बाट

अथर्व वेद की परिभाषा वाली गंगा हमारी मानक गंगा है। 

कोई पूछे कि हमारी गंगा कैसी हो तो मेरे पास यहीं जबाब है। वैदिक काल में इसे औषधिय गुण वाली नदी कहा गया है। यह तीनो ताप से मुक्त करने वाली नदी है | बौद्ध धर्म को हटाने के लिए मोक्ष तीर्थ बना दिया गया को कालांतर में पंडा गिरी मे बदल गया और चल पडा, मोक्ष का रोजगार। 


आज जैसे शहर में मकान बनवाने की होड है वैसे ही उस समय गंगा के तट पर बसने की होड लग गई और गंगा ने अपना बाट और तट खो दिया। आज वह संसाधन से नाला तक आ चुकी है और अपना घाट और गर्भ भी खो चुकी है। 

गंगा गंगोत्री से निकलती है और गंगासागर तक लगभग २५०० किलोमीटर की दूरी तय करती है तब बंगाल की खाडी में मिलती है। उसकी राह में पांच प्रदेश आते है उत्तराखंड, यूपी , बिहार, झारखंड और बंगाल। हर प्रदेश में गंगा के अलग अलग संकट है और अलग अलग तरह से खतरनाक है। गंगा को गंदा करने का संकट तो बस कन्नौज और बनारस के बीच का है, लेकिन नेता, अखबार और टी बी चैनलो को बस गंदगी नजर आती है। इस संकट को सामने खडा किया जा रहा है जैसे २५०० किलोमीटर की सारी गंगा गंदी हो गई हो।

एक खास क्षेत्र के संकट के आवरण में सारे संकटो को राजसत्ता द्वारा छुपाया जा रहा है। इसकी पहचान हमें जरूर करनी चाहिए।सरकारे गंगा के संकट का गलत डायग्नोसिस कर रहीं हैं। रोग गर्भ में है इलाज तट का कर रही है। उसकी नाक इतनी भोथरी हो चुकी है कि उसे नदी और नाला के बीच अंतर नहीं समझ में आ रहा है। हमारी चेतना पर इस तरह गाद जम चुकी है कि हमें प्रलय का खतरा नहीं दिख रहा है। 


 गंगा मां है 

या जल संसाधन


गंगा आज कल चर्चा के केन्द्र में है।  

अखबार से टीबी। टॊ बी से सडक और सडक से संसद तक।

जब २०१३ में मैंने गंगा यात्रा आरम्भ की थी तो सन्नाटा था। गहरा सन्नाटा। हिमालय में हादसे की एक लहर आई और इस तरह गुजर गई थी जैसे कुछ न हुआ हो। जिनके परिजन मारे गए वे रोकर चुप हो गए। जैसे हादसे के बाद कभी कभी कोई शव कहीं फ़ंसा कहीं अटका  मिल जाता था उसी तरह गंगा के बारे में कभी कोई खबर मिल जाती थी। चार माह तेईस दिन की यात्रा के बाद जब वापस लौट कर आ गया हूं, वह सन्नाटा टूट रहा है और मुझे महसूस हो रहा कि गंगा की राजनीतिक भूमिका आरम्भ हो चुकी है, वह इतने बडे देश में चुनाव का मुद्दा बन चुकी है । इसका परिणाम क्या होगा नहीं पता पर किसे यह सुनकर अच्छा न लगेगा कि यह देश एक बार फ़िर गंगा की राजनीति के दांव पर है। आज की तारीख में उसकी इतनी भूमिका कम नहीं है कि वह जाग गई है।

गंगा की राजनीतिक भूमिका आरम्भ हो चुकी है।

वह चुनाव का मुद्दा बन चुकी है । 

उपर से देख कर यहीं लगता है कि सरकार अपनी नदियों के प्रति संवेदनशील है।उसकी नदी, उसके पहाड, उसकी भाषा, उसकी संस्कृति के संकट की चर्चा हो तो यह जबाब है दुनिया के इतिहास का अन्त हो चुका है, संस्कृतियों का अन्त हो चुका, कविताओं का अंत हो चुका और दुनिया एक ध्रुवीय हो चुकी है। सांख्य और पातंजलि के वंशज अगर यह सोचे कि एक नदी क्या चाहती है?

एक नदी की आदम इच्छा है अविरल बहना।

एक नदी के लिए जितना किया जाएगा उतना ही गडबड होगा।

हम जरूर जानना चाहेंगे कि सरकार नदी की इस आदिम इच्छा का कितना सम्मान करती है और उसकी कारवाई या किनके पक्ष में जाती है। हमें यह परखना होगा कि बाजार की राह हवा में उडकर आई राजसत्ता की यह संवेदन शीलता कैसी है ? एक नदी के रूप में गंगा के संकट को देखने का उनका नजरिया आखिर क्या है ?

 कहीं वह बची हुई इस गंगा को परोक्ष रूप मे निजी हाथो को बेचतो नही रहे। हम उस स्थिति में नहीं है कि गंगा के अविरलता की बात भी कर सके। गंगा सागर जाते जाते गंगा की ताकत इतनी कम हो जाती है कि वह अपने पांव चलकर समुद्र तक नही पहुंच सकती। आज जब सभी ठान ले कि गंगा अविरल होगी तो इस देश के शहरो और सरकार को गंगा के उपर से अपनी निर्भरता कम करने में और उन्हें खत्म करने में वर्षो लग जाऎंगे।

सरकारो ने अब तक जो संवेदनशीलता दिखाई है उसे बहुत डर लगता है और यकीन तो होता नही। इस देश की बडी लूट इन नदियो के नाम पर हुई है। नदियों पर पुल बांध नहर घाट सफ़ाई संयंत्र और बंदरगाह के नाम पर बडी लूट हुई है और यह लूट गंगा की मौत के लिए जिम्मेदार है। इसलिए इस यात्रा के बाद जो कुछ देख कर आया हूं, जो कुछ समझ में आया है,क्रिया के स्तर पर सरकारों के चरित्र का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है।संकेत साफ़ है।सत्ता में आने के बाद जो गंगा को मां कहकर संबोधित कर रहे है, गंगा के हालत पर आठ आठ आंसू बहा रहे है. वे अपने आचरण में गंगाके जल को अंग्रेजों के लीक पर चलते हुए संसाधन ही मानते है इसलिए उसकी नीयत पर शक वाजिब है। इस के दर्जनों उदाहरण इस पुस्तक के पिछले तीन भाग में दे चुका हूं और साबित कर चुका हूं कि आजादी के बाद जो सरकारे बनी है वे अंग्रेजों से ज्यादा क्रूर है और आठ गुना लुटेरी है।कांग्रेस हो या भाजपा या कोई राजनीतिक दल चरित्र में बहुत फ़र्क  नहीं है।

अब हम आजाद है।

देश आजाद है।

हमारी चुनी हुई सरकारें है मगर गंगा में पानी नहीं रहता?

पहाड में भी बांध के ही दर्शन होते है।उसके परिणाम क्या है , अगर आप जाकर टिहरी के आसपास के किसी गांव को देखे।विल्सन ने पशुओं के मांस ,खाल और लकडॊ का व्यापार किया था। विल्सन की तरह हमारी सरकार अब वहां के लोगो के खाल और मांस का व्यापार कर रही है।अब भी गंगा विल्सन की है और देश भी उसी विल्सन का है। राजा ने छह हजार की सलाना लीज पर दिया था, हमारे राजा साहब एक एक मेगावाट विजली के उत्पादन का परमिशन देने के लिए कंपनियो से एक करोड लेते थे, यह जाने कब की बात है। उन्हे इस बात की परवाह नही कि उनके आगमन से इस इलाके का चिराग ही बुझ गया। लोक गंगा को मां कहता है , सरकार जल संसाधन कहती है।अगर आप चाहते है कि यह गंगा घाटी बनी रहे तो निर्णय लेने का यह आखिरी वक्त है।



 

अपने तटों के बीच

नहीं है गंगा


गंगा को उसके तटों के भीतर नहीं देखा जा सकता। 

गंगा अब अपनी तटों के बीच नहीं बहती। वहां नाला और रसायनिक जल बहता है। उसका असली प्रवाह अपने दोंनो ओर निवास कर रहे लोगों के दुख और उनकी जीवन शैली मे समझ में आता है।

राह में मुझे एक कैंसर पीडित महिला मिली।

उसके स्तन में कैंसर था।

उसने मुझे बताया कि उसके कैंसर के लिए गंगा जिम्मेदार है।

मैंने महसूस किया कि जिस तरह का कैंसर उसके स्तन में था ,उसी तरह का बल्कि उससे बडा कैंसर उसके परिवार में था।उसके बेटे दवा नहीं लाते,उसकी बहुंए उसका घाव नहीं धोती, ताना मारती है और पति को यह कहने से कोई रोक नहीं पाता कि यह तुम्हारे कर्मों का फ़ल है। उसकी बात कोई नहीं सुनता। उसके दुख का बयान कर सकूं, मेरे पास शब्द नहीं हैं।

यह कैंसर वहां के समाज में भी दिखा।रिश्ते टूट रहे हैं, घर टूट रहे हैं ,समाज टूट रहा है और सब कुछ जैसे विखर गया है। उस औरत का दर्द मुझे हर जगह दिखा।उसे पीने के लिए शुद्ध जल नहीं मिलता। वह आर्सेनिक जल पीकर रहती है , उसकी छाती गल गई है, उसके शरीर से बदबू आती है।सरकार की ओर से उसे कोई दवा नहीं मिलती।उसके लिए कोई राहत इस प्रजातंत्र में कहीं नहीं है। न सरकार , न धर्म. न समाज,न घर और न खुद, उसके लिए कहीं कोई आश्वासन तक नहीं है।उसका जीवन उसके शरीर से एक युद्ध है। इस युद्ध में वह अकेली नहीं बल्कि पूरी गंगा घाटी की औरतें और मर्द है।

अब अगर गंगा की राजनीतिक भूमिका तब तक पुरी नहीं होगी जब तक उसके दोनों तटों पर बसे लोगों के जीवन को प्रवाह में न शामिल किया जाय।


 गंगा के संकट और समाधान


चार महीनों तक गंगा के साथ रहा।

स्वर्ग लोक की उंचाईयो से मृत्युलोक और पाताल लोक की गहराई तक यात्रा करते हुए, गंगा के अनगिनत संकटों को प्रबृतियों की तरह देखने और गहन विश्लेषण के बाद मुझे मूलत: चार संकट नजर आए।

बंधन,

विभाजन

प्रदूषण, 

गाद

और भराव

ये संकट नदी को मौत तक पहुंचा देते है। 

इन अर्थों में गंगा मौत के बहुत करीब है।


बंधन

अगर कल्पना मे चित्रकार से कह दिया जाय कि एक चित्र बनाकर दिखाओ कि इस गंगा घाटी में गंगा और उसकी सहायक नदियों पर किनने बांध है और वह चित्र कैसा लगता है और तब खुद से पूछें कि इतने सारे बंधनों में बंधी गंगा क्या राष्ट्रीय नदी हो सकती है। क्या यह नदी न्यायालय से मानवीय अधिकार प्राप्त नदी हो सकती है । 

देश गुलाम था, यहां के लोग गुलाम थे।

अंग्रेजो ने गंगा के साथ वही सलूक कियाजो यहां के लोगों के साथ किया। गंगा के साथ सरकार का अंग्रेजो वाला रिश्ता आज भी है। आजाद होने बाद गंगा को तो पता ही नही चला कि यह सब और इतना सब चुप के चुपके कैसे और कब हो गया। गंगोत्री से हरिद्वार तक की यात्रा में गंगा बस गंगनानी के उपर ही दिखती है इसके बाद गंगा का दर्श न तो बस झील दर्शन है। केदार नाथ और बद्रीनाथ के राह पर भी बांधो के ही दर्शन होते है ।जो यात्री जाते है , वहां का अतीत सुनते है और बस लूट के आते है। मन ही मन कोसते है कि हमारी गंगा को झील में बदल दिया। गंगा का संकट तो जल के चरित्र का संकट है। अब कोई लडकी गंगा बनना नही चाहती है। आने वाले समय में जल संकट भयानक रूप लेने वाला है।एक आदमी ने मुझ से एक सवाल पूछा?

जिस जल को सूरज की किरणे गर्म कर वायु बनाती है।

उडाकर दूर उंचे आसमान में ले जाती है।

जमाकर वर्फ़ बनाती है।

गलाकर जल बनाती है और वह शुद्ध जल पीने के लिए देती है। वह जल से पूरी गंगा घाटी को रसमय रखती है। अगर नदी और लोगों के बीच से सरकार हट जाय तो गंगा ही नहीं सारी नदिया वापस अपने रूप में आ सकती है और हमारा जल चक्र ठीक हो सकता है।

इस बंधन के घाटे का आकलन नहीं हो सकता।

अगर हम इसका आकलन करते है तो तीन विचार आते है। इस बंधन के कारण या तो मुर्खता हो सकती है जो समझ नहीं पा रही कि इसके कारण हिमालय के जल स्रोत सूख रहे है और धरती का जल स्तर नीचे जा रहा है। इसका दूसरा कारण अदूरदशिता हो सकता है जो नेहरू में भी उतनी ही थी जितनी आज के राजनेताओं में जिन्होंने इस नदी बांध को तीर्थ की उपमा दी और आज इस हाल में पहुंचा दिया कि मरणासन्न है।इस यात्रा में यह जानकर चकित हुआ कि इसमे न तो मुर्खता है और न ही अदूरदर्षिता है यह लूट का तरीका है।

गांव में रात को डकैत आते थे।

घर के लोगों की पहले पिटाई करते थे और बांध देते थे। किसी को बांध दो तो लूटना आसान हो जाता है। गंगा को जहां जहां बांधा गया है वहां जितनी जल की लूट हुई है उतनी कमीशन की भी।  इसमे जितने देशी लोग शामिल है उतने विदेशी भी ।वे कर्ज देते है और कमीशन देकर काम करने के बहाने अपना पैसा वापस ले जाते है। विजली परियोजना के लिए गंगा को बांध दिया।

बस एक मात्र लाभ है कि हमें विजली मिलती है।

आईए एक नजर घाटे पर डालते है। गंगा की मिट्टी जो हिमालय से चलती है, बांध में जाकर रूक जाती है और बिहार के किसानो को इसका लाभ नहीं मिल पाता टनल में गुजरते गंगा के जल को पानी और धूप नहीं मिलता । झील में पानी जाकर रूक जाता है और बाहर निकल ने के कंपनी के मालिक की ओर कातर निगाहों से एकट्क देखता रहता है। और प्रदूषित होता है। प्रोटेक्स न वाल न होने के कारण पानी पहाड में रिसकर जाता है। कई गांव गिरकर झील में समा चुके है। यह इससे भी खतरनाक खबर है कि हिमालय की कापर प्लेट गल चुकी है। हिमालय खतरे में है। गांव लगभग खाली हो चुके है। अकेले टिहरी में इतना पानी जमा है कि अगर पानी निकला तो ऎतिहासिक हादसे का कारक होगा। हरिद्वार तिनके की तरह बह जाएगा, दिल्ली भी नहीं बचेगी। यह भूकंप क्षेत्र है यह जानते हुए ये बांध बनाए गए। इसे बनाने वालो की दाद देनी पडेगी जिन्होने विस्थापितो की सूची मे पाईलट बाबा का नाम डाल दिया। क्या हुआ , कैसे हुआ सोचने के वजाय, जो हो चुका उसे भूलकर अब नए बांधो की मंजूरी नही देनी चाहिए। पुराने बांधो को धीरे धीरे चरण बद्ध ढंग से खाली कर देना चाहिए। विजली बनाने के बहुत तरीके हो सकते हैं गंगा बनाने का कोई तरीका हमारे पास नहीं है। हादसे से सबक नहीं लिया गया तो परिणाम भयावह हो सकते है। 


विभाजन

जहां जहां गंगा बंधी है, वहीं पर विभाजित भी हुई है। पहाड में बिभाजित होने के बाद झील में सड कर टनल में गई है और अपना औषधिय गुण खोकर वापस आई है। हरिद्वार, बिजनौर और नरोरा आते आते पूरी तरह लुट गई है। कानपुर तक गंगा का जल खेतों में है, नदी के पाट में नहीं है। गंगा का जल उद्योगों में है क्योकि हर उद्योग को माल धोने के लिए भारी मात्रा में जल की आवश्यकता होती है।

औद्योगिक क्रांति इंग्लैड में हो चुकी था और जल संसाधन हो चुका था। 

भारतीय जीवन में पंच तत्व चिंतन का जोर था और यहां जल को वह मान दिया गया जो देवताओ को मिलता है। हरिद्वार में जमीन पर उतरते ही गंगा के जल की लूट मच जाती है।सरकार गंग नहर से खेतों की सिचाई और दिल्ली के निवासियो के पीने के लिए सारा जल ले जाती है। वही हरिद्वार नहर से तीन धाराए अलग से निकलती है। एक धारा पुराने श्मशान के लिए, दूसरी धारा आश्रमो के दरवाजो पर चक्कर लगाने के लिए और तीसरी धारा खेती और हरिद्वार का नाला धोने के लिए। इसमें से जो थोडा सा जल बचता है जो गंगा की मूल धारा मिलता है और आगे जाता है। 

उत्तर प्रदेश में नेता साफ़ कहते है की नाहर वोट देती है गंगा नहीं | 

पूरे उत्तर प्रदेश में जिस तरह नहरो का जाल बिछा है उसके बाद गंगा मे नालों और रसायन का पानी भी नही बचता। नरोरा एटमिक प्लांट से निकलने वाली गंगा का हाल यह होता है उसे बकरी पैदल पार कर जाती है। 



प्रदूषण


अगर गंगा में प्रदूषण गंगोत्री से ही आरम्भ हो जाता है।

गंगोत्री में गंगा के मंदिर का नाला सबसे पहले गंगा को प्रदूषित करता है। 

उसके बाद गंगा तट पर जितने भी शहर बने है,जितने आश्रम बने है सबका नाला गंगा में गिरता है। इसकी शुरूआत पुराण काल में ही हो गई थी जब वैदिक मर्यादा का उलंघन कर गंगा का बाट तोड दिया गया था और तट पर लोग बसने लगे थे। पहले गंगा के तट पर देवता आए फ़िर राजा और अब तो नगर बस गए है। सबका नाला गंगा में गिरता है। 

आगे जब हम गंगा के प्रदूषण की बात करते है तो सिर्फ़ गंगा ही नहीं उन तमाम नदियों के प्रदूषण के संकट की बात करनी होगी जो गंगा में आकर मिलती है। कन्नौज में जहां राम गंगा और काली नदी आ कर मिलती है वहां गंगा पूरी तरह से नाला बन जाती है। इसके चार कारक है।

1. जल की कमी

2. सहायक नदियां

3. नगर और उद्योग

4. धार्मिक क्रिया कलाप

अगर गंगा में जल की मात्रा रहे तो वह बहाव के कारण, मिट्टी और हवा के कारण अपने को कुछ स्बच्छ कर सकती है। मगर जिस आपाधापी में गंगा के किनारे नगर बसाए गए, उद्योग लगाए गए, उसके जल निकास के लिए आज भी हमारे पास कोई जल निकास नीति नहीं है।सफ़ाई के लिए जितने संयंत्र है उसमें एक भी सही ढंग से काम नहीं करता। वह भी महज ठेका प्रणाली का शिकार होकर रह गया है। 

इसे समझने के लिए मैंने कई जगहों की यात्रा की और उसी क्रम में अहमदाबाद भी गया। अहमदाबाद का मल जल वहां की नदी में नहीं जाता बल्कि उसका शोधन होता है। वहां से निकलने वाला जल खेतों में सिंचाई के लिए जाता है और मल का खाद बनता है जो ३०० रूपए किलो बिकता है और लाभ में है।

यह विज्ञान का समय है।

आज कोई भी वस्तु त्याज्य नहीं है। हर शहर से निकलने वाले मल जल से वहां की विजली जलाई जा सकती है। जिस नगर के नाले गंगा में या किसी नदी में गिरते है वहां की नगर पालिका लोगो से टैक्स लेती है कि वे जल मल निकासी की ब्यवस्था करेंगे। क्या लोग इसलिए टैक्स देते है कि आप हमारा मल गंगा में गिरा दे। अगर शहर और उद्योग से प्राप्त गंदे जल को प्रत्येक शहर में नगर पालिका ऎसी योजना भी दी जाय कि कैसे उसे उर्वरक के रूप में बदलकर आस पास के खेतो में उसका इस्तेमाल किया जाय।  

टेम्स नदी को लंदन की गंगा कहा जाता है। लंदन टेम्स के किनारे है। आबादी बढ़ने के

 साथ ही टेम्स नदी में भी प्रदूषण बढ़ता गया और वह मरने के कागार पर खडी हो गई। सफाई के अभियान शुरू किए गए …लेकिन सफ़लता तब मिली जब महीने मेंए क दिन जहां से टेम्स नदी गुजरती है …लोग सफाई करते हैं। लोगों ने टेम्स लौटा दिया। डेढ़ सौ साल पहले जैसी है।

यह अभियान हमारी छ्ठ का अनुकरण था।

गंगा नदी की सफ़ाई को मासिक पर्व बना दिया जाय। यह सब कुछ हो सकता है पर 

बिना नाक और बिना आंख के इन नेताओं को कैसे समझाया जाय कि नदी और नाले में फ़र्क होता है।



गाद

गाद को समझने के लिए गंगा का पथ और प्रवाह समझना होगा। 

जिस पथ पर मैंने यात्रा की वह गंगा का सदियों पुराना पथ था, जिस प्रवाह के साथ यात्रा की वह गंगा का प्रवाह था। पथ तो वहीं था और प्रवाह वह नहीं था। इसे समझने के लिए समुद्र तल से उंचाई और दूरी को समझना पडेगा क्योंकि समुद्र  तल मानक है। यह पृथवी गोल है। उंचाई मापने के लिए समुद्र तल का इस्तेमाल किया जाता है। यह भी माना जाता है कि पूरी दुनिया में समुद्र का तल एक होता है इसलिए उंचाई मापने के लिए समुद्र के जल से अच्छा मानक दूसरा नहीं है।

 

समुद्र तल से गंगोत्री की उंचाई- ३४१५ मीटर है,

केदार नाथ की उंचाई ३५८४ मीटर 

बद्री नाथ की उंचाई ३३०० मीटर है।


समुद्र तल से हरिद्वार की उंचाई-२५०  मीटर है 


समुद्र तल से बनारस की उंचाई-८१ मीटर। 


समुद्र तल से भागलपुर की उंचाई ५२ मीटर है 


समुद्र तल से फ़रक्का की उंचाई १२ मीटर है 


समुद्र तल से कलकत्ता की उंचाई ९ मीटर


गंगोत्री से हरिद्वार की दूरी ३०० किलोमीटर

हरिद्वार से बनारस की दूरी लगभग ८०० किलोमीटर है।

बनारस से भागलपुर दूरी ६०० किलोमीटर है। 

भागलपुर से फ़रक्का की दूरी १५० किलोमीटर है

फ़रक्का से कलकत्ता की दूरी ३०० किलोमीटर है।

 

गंगा की जितनी धाराएं है वे गंगोत्री, केदार नाथ और बद्री नाथ की ओर से आती है जो ३३०० मीटर से उपर है। हरिद्वार जब गंगा आती है तो ३००० मीटर की उंचाई से जैसे लुढकती आती है। पहाड में टनल बनाने के काम इसी लिए होता है कि इस उंचाई से उसके उतरने की गति का इस्तेमाल कर सके। 

हरिद्वार से वाराणसी की दूरी लगभग ८०० किलोमीटर है। 

समुद्र तल से बनारस की उंचाई ८१ मीटर है। यानी गंगा हर मीटर की दूरी ३ सेन्टीमीटर की ढलान के साथ करती है। वाराणसी से भागलपुर और कलकता उसका प्रवाह घटता जाता है मगर उसका पाट चौडा होता जाता है । बक्सर के बाद गंगा का पाट दो किलोमीटर से बढता हुआ ८ किलोमीटर तक हो जाता है। कलकता तक समुद्र की लहरे आती है और कई बार ऎसी घटनाए हुई जब गंगा में नहाते लोगों को समुद्र खींच कर ले गया है और बडी कठिनाई से लोगों के प्राण बचाए गए है। 

जब वेग कम होगा और पाट बढेगा तो यहां जल का कचरा जमता है। यह

कचरा मल का नहीं बल्कि भारी और नकली रसायनों का है। गंगा के पास इतना पानी नहीं रहता कि वह अपने जल से उस गाद को बहा सके। इसके फ़लस्वरूप नदी के बीच गाद जम जाती है और वह किनारे से होकर बहने लगती है, इसके कारण गंगा का पाट चौडा होता जाता है कई धाराओं में बंट जाती है और कटाव होने लगता है।



कटाव के कारण हजारों गांव के लोग विस्थापित होते है।

गाद पर दियारा क्षेत्र बनता है जो अपराधियो का स्वर्ग बन जाता है।

गाद से रसायन भू तल जल में समाकर बीमारियों का कारण बनता है।

नदी के तट पर बोल्डर गिराने के वजाय उसके गर्भ को साफ़ कर दिया जाय तो नदी अपनी मूल धारा में रहेगी। गंगा गर्भ, गंगा तट और गंगा क्षेत्र का सीमांकन किया जाना चाहिए।यह सच्चाई है कि बाढ में भी नदी उसी जगह तक जाती है, जहां कभी उसकी धारा थी। अगर बनारस तक यानी समुद्र तल से ८१ मीटर की उंचाई तक बाढ का असर दिखता है तो समझा जा सकता है कि गंगा में कितना गाद जमा है।


भराव

झारखंड के दो जिले साहबगंज और राज महल गंगा तट पर बसे है। यहां गंगा का प्रवाह प्रति कोस आठ ईंच है। इस इलाके में हजारो क्रशर मशीन लगे है। पत्थर तो बेच देते है मगर मिट्टी बारिश में बहकर गंगा में समा जाती है। इस भराव और फ़रक्का बांध के कारण पानी नही निकल पाता और बाढ आती है तो विहार को डूबा जाती है। फ़रक्का में हजारों एकड लंबा चौडा मिट्टी का द्वीप बन चुका है।

 इस इलाके से क्रशर उद्योग को हटा देना चाहिए।

 अगर जरूरी हो तो मिट्टी का भी अलग उपयोग किया जाना चाहिए ताकि मिट्टी गंगा में न जा सके।फ़रक्का बांध बनाने के बाद वह इंजीनियर जिसने बांध बनाया था, आज यह बयान दे रहा है कि फ़रक्का में यह नहीं बनना चाहिए था। यह गलत हुआ किन्तु उसे गलत कहने वाला इंजीनियर गुमनाम जिन्दगी जीकर मर गया। हल्दिया की भी वही स्थिति हो गई है जो उसके पहले के बंदरगाह हुगली की थी।


समाधान

अगर संकट है तो समाधान भी है।

भारतीय संस्क्रुति के पास ही इसका समाधान है। इसका समाधान कपिल मुनि के पास है। उन्होने कहा कि प्रकृति का सम्यक ज्ञान ही मोक्ष है।कर्ता पुरूष नहीं होता ,प्रकृति होती है। हमारे ऋषि कहते है कि

गुणानां परमं रूपं नदृष्टिपथ मृच्छति

यतु दृष्टिपथं प्राप्तं तन्मायै वसुतुच्छकम।

अगर गुणों में साम्य हो तो प्रकृति के परिणाम दिखाई नहीं देते। अगर विषम हो तो परिणाम दिखाई देते है और जीवन पर उसका असर दिखाई देता है। यह उसी तरह है जैसे माया। विषम परिणाम विनाशी होता है। पुरूष का यज्ञ प्रकृति को साम्य अवस्था में लाने का दूसरा नाम है। 

भारतीय दर्शन इसे समझाने के लिए पूछता है |


गंगा का दुःख क्या है ?

वह मरण शय्या पर है |


गंगा के दुःख का कारण क्या है ?

पानी रोकना और नाला गिरना


समाधान क्या है ?

नाला रोको ,पानी छोडो| 

जल चक्र से नाता जोडो।


सुख की अवस्था कैसी हो ?

गर्भ हो, घाट हो ,तट हो ,बाट हो और गंगा का मान हो |


गंगा ही नहीं तमाम नदियों पर बंधन विभाजन,प्रदूषण और गाद के कारण उसके विषम परिणाम साफ़ साफ़ दिखाई दे रहे है। राज्यों का अर्सेनिक मैप और राज्य का माप बराबर हो चुका है। यह विषमता २५०० किलोमीटर के प्रवाह में अनगिनत है। 


६ गंगा  की जंग 


किसी भी जंग के चार नियम होते हैं।

दुश्मन की पहचान

दुश्मन की ताकत का अनुमान

दुश्मन की ताकत के बराबर अपनी ताकत को ले आना

जंग के मुद्दे की पहचान


१गंगा के दुश्मन की पहचान हमने कर ली है।

मुगल काल से आज तक इसका विस्तार है। हमारा दुश्मन कोई व्यक्ति नहीं, सरकारे है। अकबर ने जल जमींदारी यानी जलादारी प्रथा आरम्भ की तब, विल्सन ने हिमालय लुटा तब, कटले ने हरिद्वार आवर नरोरा में बाँधा तब और आजादी के बाद जब अपनी सरकार बन गई उसके बाद तो उसका हाल कहने के लायक नहीं है | गंगा की हालत के लिए किसी एक काल खंड की सत्ता को जिम्मेदार नहीं मान सकते फ़िर भी जो सत्ता में है या होगा वो ही गंगा को जीवन दान दे सकता है । दुश्मन की ताकत वो कानून है जिसका इस्तेमाल कर वे नदियों को बांध रहे है ,विभाजित आवर प्रदूषित कर रहे है और नदियों को मार रहे है। दो तरह के कानून है। पहला कानून जो नदियों के हित में है जिसे सरकार लागू नहीं करती। दूसरे वे कानून जिसकी आड में वे नदियों को मारते है।

 दुश्मन की ताकत का अनुमान होने के साथ यह भी पता चल गया की नहरे वोट देती है गंगा वोट नहीं देती| जिस दिन सरकारों को यह पता चल जाय की गंगा वोट देती है तो उसकी हालत बदल जाएगी |यही वह जगह है जहाँ हमें दूशमन की ताकत के बरव्बर गंगा की ताकत को लाना पड़ेगा| जब दबाव की राजनीति से ऊपर के लोग गंगा का पानी ले लेते है तो गंगा को हासिल करने के लिए वह ताकत हासिल करनी पड़ेगी| 

 जिस तरह पिछले दो साल में मानसून का रवैया बदला है उसे देखते हुए लगता है की गंगा की जंग का समय आ गया है |

दो ही विकल्प है।

एक या तो गंगा घाटी नष्ट हो जाय या दुनिया का नायक बन जाय। अगर हम जन दबाव बनाकर सरकार की इच्छा शक्ति को जगा दे तो गंगा की जंग जीत सकते है और बता सकते है कि जब दुनिया में अंधेरा था रोशनी गंगा के ताट आई थी। 

हम कह सकते है


गंगा को जगाओ

देश को बचाओ

-नीलय जी उपाध्याय

{गंगा यात्री , वरिष्ठ कवि , आलोचक व समाज सेवी}


https://www.facebook.com/2494193190655065/posts/4469099416497756/?sfnsn=wiwspmo



संपादक परिचय :-

नाम : गोलेन्द्र पटेल {बीएचयू~बीए}

WhatsApp : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com

Monday, 19 October 2020

"उम्मीद" पर केंद्रित कविताएँ : मदन कश्यप + श्रीप्रकाश शुक्ल + जितेन्द्र श्रीवास्तव +सुभाष राय....+ मनकामना शुक्ल पथिक {संकलन : गोलेन्द्र पटेल}


★उम्मीद★


१.

उम्मीद / मदन कश्यप


जब आदमी
उम्मीद से
आसमान की ओर
देखता है

तब
इस धरती का रंग
बदलने लगता है



२.

उम्मीद / श्रीप्रकाश शुक्ल


जो है
उसकी चिंता करने की क्या जरूरत है
जैसे कि वर्तमान

जो नही है
उसे पाने की दौड़ लगाना एक वहशीपन है
जैसे की भविष्य

है और नहीं के बीच
एक तनाव है

यह उम्मीद का तनाव
और इस तनाव के साथ जीते जाने में क्या हर्ज है।



३.

उम्मीद / जितेंद्र श्रीवास्तव

कोई किसी को भूलता नहीं
पर याद भी नहीं रखता हरदम

पल-पल की मुश्किलें बहुत कुछ भुलवा देती हैं आदमी को
और वैसे भी जाने अनजाने, चाहे-अनचाहे
हर यात्रा के लिए मिल ही जाते हैं साथी

जो बिछड़ जाते हैं किसी यात्रा में विदा में हाथ उठाए
सजल नेत्रों से शुभकामनाएँ देते
जरूरी नहीं कि वे मिले ही फिर
जीवन के किसी चौराहे पर
फिर भी उम्मीद का एक सूत
कहीं उलझा रहता है पुतलियों में
जो गाहे-बगाहे खिंच जाता है।

जैसे अभी-अभी खींचा है वह सूत
एक किताब खुल आए है स्मृतियों की
याद आ रहे हैं गाँव की पाठशाला के साथी
चारखाने का जाँघिया पहने रटते हुए पहाड़े
दिखाई दे रही है बेठन में बँधी उनकी किताबें

उन दिनों बाबूजी कहते थे
किताबों को उसी तरह बचा कर रखना चाहिए
जैसे हम बचा कर रखते हैं अपनी देह

वे भाषा के संस्कार को मनुष्य के लिए
उतना ही जरूरी मानते थे
जितनी जरूरी होती हैं जड़ें
किसी वृक्ष के लिए

अब बाबूजी की बातें हैं, बाबूजी नहीं
उनका समय बीत गया
पर बीत कर भी नहीं बीते वे
आज भी वे भागते दौड़ते जीवन की लय मिलाते
जब भी चोटिल होता हूँ थकने लगता हूँ
जाने कहाँ से पहुँचती है खबर उन तक

झटपट आ जाते हैं सिरहाने मेरे !

जब उम्मीद खत्म होने को होती है / सुभाष राय

४.

जब उम्मीद खत्म होने को होती है

तभी मिट्टी की सतह तोड़कर एक अंकुर

बाहर निकल आता है सूरज से

आंखें मिलाता हुआ


जब उम्मीद खत्म होने को होती है

तभी जलते रेगिस्तान में एक नदी बह 

निकलती है मृत्यु का ताप 

सोखती हुई


जब उम्मीद खत्म होने को होती है

तभी जमींदोज इमारत के मलबे से एक

शिशु की पुकार फूट पड़ती है जीवन 

का अहसास कराती हुई


जब उम्मीद खत्म होने को होती है

तभी धीरे से आत्मा उतर आती है आंखों में 

‌एक पूरी उम्र जीने की ख्वाहिश में

चमकती हुई।



५.

उम्मीद' / मनकामना शुक्ल पथिक
"""""""

सृष्टि के आरंभ से ही जुड़ा है
सम्बन्ध, मानव का उम्मीदों से!
जैसे मनु का था सतरूपा से
एक नएपन की उद्दाम,अतृप्त 
आकांक्षाओं की अमूर्त्त भविष्यमत्ता से
वहीं-वहीं !
जैसे आत्मा का शरीर से!
उम्मीदें रहेंगी तभी तो, रहेगा जीवन
पृथ्वी, आकाश व प्रकाशित ग्रहों की तरह, 
रहेगा अड़िग सत्य भी
शिराओं में स्पंदित लहू के सदृश
प्रलय प्रवाह में भी जीवंतमय बने रहने का संदेश!
आत्मा रहेगी ही कहाँ ?
जब शरीर ही नही रहेगा !
उम्मीदें हमें हौशले देती हैं,
खोल देती हैं, तमाम नाकामयाबियों के मध्य कामयाबी का एक रहस्यमय द्वार
क्षितिज के उस पार भी,
और ले जाती हैं हमें अपने मुकाम तक
मोक्ष के अंतिम सोपानों पर ।





संकलनकर्ता :-
नाम : गोलेन्द्र पटेल
{बीए~तृतीय वर्ष , काशी हिंदू विश्वविद्यालय , वाराणसी}
ह्वाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com

नोट : आप भी अपनी "उम्मीद" शीर्षक नामक कविता इस संग्रह के लिए हमारे ह्वाट्सएप नंबर या ईमेल पर भेज सकते हैं। आप सभी के रचनाओं का सहृदय सादर स्वागत है।

आप सभी साहित्य प्रेमियों को मेरा सादर प्रणाम व आत्मिक अभिवादन। इस अहिंदी भाषी साथियों के पेज़ पर आपका सदैव के लिए सादर स्वागत है इससे जुड़ें और औरों को जोड़ने का कृपा करें।
                                             -अशेष शुभकामनाएं।


Saturday, 17 October 2020

मेरी कुछ कविताएँ {©Golendra Patel}


 १.


धोबिन //

दोपहर में दोपाये
तपती पथरीली पथ पर पैदल चल रहे हैं -
घर!

गजब की गति है
गाँव की ओर

लदी है
गदही की पीठ पर गठरी
शहर की!

पोखरी की तट पर है
एक पत्थर
(पटिया)
जिस पर पीट रही है धोबिन
खद्दर की धोती-कुर्ता

मछलियां पी रही हैं शांत पानी में
परिश्रम से टपक रहे पसीने को

रोहू बीच में उछल रही है
पाँव में धर रही है जोंक
और खोपड़ी का खून चूस रही है जूँ

सूर्य सोख रहा है शक्ति
थके श्रमिक निगल रहे हैं थूक

रुक रुक कर
पटक रही है पटिया पर खादी
कर्ज़ की क्रोध!

उसे डर है
कि कहीं फटे न साहब की कपड़ें

साहब छठी की दूध याद दिलाते हैं
पति को
और पति मार मार कर मुझको -
नानी का!

कोरोजीवी कविता सुन रही हूँ जब से
तब से उम्मीद की घोड़ी दौड़ रही है उर में

रेह से वस्त्र समय पर साफ हो या न हो
पर तुम्हारी कविताओं से मन साफ हो रहा है
हे कोरोजयी! हे संत साहित्य संवाहक कवि!
(©गोलेन्द्र पटेल
०८-०८-२०२०)


२.

नदी बीच मछुआरिन //

जलदेवी की तपस्या से
मछुआरे को मिल गया है मोक्ष
नदी बीच स्थिर है नाव
मछुआरिन फेंकती है जब जाल
तब केकड़े काट देते हैं

मछलियाँ कहती हैं
माता मुझे अभी मुक्ति नहीं चाहिए-
नदी से!
(©गोलेन्द्र पटेल
०१-०९-२०२०)

३.

सावधान //
-----------------------------
हे कृषक!
तुम्हारे केंचुओं को
काट रहे हैं - "केकड़े"
                सावधान!

ग्रामीण योजनाओं के "गोजरे"
चिपक रहे हैं -
गाँधी के 'अंतिम गले'
                   सावधान!

विकास के "बिच्छुएँ"
डंक मार रहे हैं - 'पैरों तले'
                    सावधान!

श्रमिक!
विश्राम के बिस्तर पर मत सोना
डस रहे हैं - "साँप"
                  सावधान!

हे कृषका!
सुख की छाती पर
गिर रही हैं - "छिपकलियाँ"
                  सावधान!

श्रम के रस
चूस रहे हैं - "भौंरें"
                 सावधान!

फिलहाल बदलाव में
बदल रहे हैं - "गिरगिट नेतागण"
                  सावधान!

(©गोलेन्द्र पटेल
रचना : १८-०७-२०२०)

४.

पृथ्वी पर पहला प्रेम ही पहला दुख है

बुद्ध की कथन-

दुनिया में दुख ही दुख है


हे विशाखे!

एक से प्रेम करोगी तो एक दुख होगा

दो से तो दो दुख

तीन से तो तीन दुख

साठ से तो साठ दुख

सत्तर से तो सत्तर दुख

असी से तो असी दुख


अब तुम्हें ज्ञात हो गया 

कि दुख की हेतु है प्रेम


तृष्णा का त्याग ही

दुख की दवा है 

इसे त्यागने की मार्ग है-

अष्टांगिक मार्ग!

©गोलेन्द्र पटेल

("विसाखथेरी गाथा" से)

2018

५.
पर्वतों के बीच नदी
नदी बीच अनुभूति
अनुभूति बीच स्त्री
स्त्री बीच चौराहे पर होती है पानी

कच्ची-पक्की आयु का आँखें 
सरसराहट सुनती हैं वायु में
और कानों से देखती हैं
पैरों में पथ के कंकड़-पत्थर काटते हैं दाँते

राजनीति रोती है जब घडियाली आँसू
तब लोकतंत्र की लोटा लेकर रोपता है पुरुष प्रधान
सत्ताएं देती हैं भाषण
होंठों पर हवस का हँसी हर हृदय की प्रश्न है 

प्रजा को पता है
उक्त का उत्तर राजा के प्रासाद में है
पीढ़ी दर पीढ़ी की पीड़ा पाशुपतास्त्र में बदल
परंपरा की प्रासाद को नष्ट करेगी

पितृसत्ता का पेंचकस सह कर
अंधेरे में रोज़मर्रा की रोशनी को
जन्म दे रही है उम्मीद का योनि

हे पानी बीच पृथ्वी!

६.

इन्द्रियों का इंडिया //

दृग दुखी है
दर्द हो रहा है कान में

जीभ में पड़े हैं छाले
जुल्म के जुकाम से ज़ख़्मी है नाक

त्वचा नाराज़ है
स्पर्श से

देह को पता है
दयनीय दृश्य दौड़ रहा है भीतर

दुनिया दोहरा रही है
दोना-सा

घाव घर-घर है
डॉक्टर देवता की जिन्दगी है दाँव पर

देवी(दिल्ली) देख रही है
चुपचाप

जनता जानती है जहर
क्या है?
(©गोलेन्द्र पटेल
२३-०९-२०२०)

७.

बारिश के मौसम में ओस नहीं आँसू गिरता है //

एक किसान
मूसलाधार बारिश में
बायें हाथ में छाता थामे
दायें में लाठी
मौन जा रहा था
मेंड़ पर

मेंड़ बिछलहर थी!

लड़खड़ाते-सम्भलते...
अंततः गिरते ही देखा एक शब्द
घास पर पड़ा है

उसने उठाया
और पीछे खड़े कवि को दे दिया

कवि ने शब्द लेकर कविता दिया
उसने उस कविता को एक आलोचक को थमा दिया

आलोचक ने उसे कहानी कहकर
पुनः किसान के पास पहुँचा दिया

उसने उस कहानी को एक आचार्य को दिया
आचार्य ने निबंध कहकर वापस लौटा दिया

अंत में उसने उस निबंध को एक नेता को दिया
नेता ने भाषण समझ कर जनता के बीच दिया

जनता रो रही है
किसान समझ गया
यह आकाश से गिरा
पूर्वजों की आँसू है
जो कभी इसी मेंड़ पर भूख से तड़प कर मरे हैं

बारिश के मौसम में ओस नहीं
आँसू गिरता है!
(©गोलेन्द्र पटेल
२७-०८-२०१९)

८.

भावनाभूख //


मैंने प्रेम किया अपने उम्र से

मुझसे प्रेम कर बैठी बड़ी उम्र


स्नेह की स्तन से फूट पड़ी दूध की धार

लोग कहते हैं इसे हुआ है तुझसे प्यार


दुनिया देख रही है दिल में दर्द-ए-दुख

दृश्य दृष्टि से बाहर दौड़ रहा है निर्भय


देह का दयनीय दशा दर्पण में मुख

ममत्व की मन निहार रहा है वात्सल्य


नादान उम्र नदी बीच नाव पर है भावनाभूख

हिमालय पर हवा का होंठ चूम रहा है हृदय


संवेदना सो रही है शांत सागर में चुहकर ऊख

वासना बेना डोला रही है अविराम मेरे हमदम।


मैंने प्रेम किया.....

©गोलेन्द्र पटेल

रचना : 2017

(बेना=बिजना) 

९.

रंग //

देश की दशा देख
देह का दर्द
संवेदना की संगोष्ठी में
कह रहा है :-

झूठ बोलना
काला नहीं लाल
सत्य छुपाना
सफेद नहीं सतरंगा
गंध सूँघना
गुलाबी नहीं गोबराहा
चीख सुनना
कर्कश नहीं केसरिया
दृश्य देखना
हरा नहीं पीला
स्वाद चखना
नीला नहीं नारंगी
स्पर्श करना
सागरीय नहीं आसमानी!
(©गोलेन्द्र पटेल
०३-०५-२०१९)

१०.

ऊख //
(१)
प्रजा को
प्रजातंत्र की मशीन में पेरने से
रस नहीं रक्त निकलता है साहब

रस तो
हड्डियों को तोड़ने
नसों को निचोड़ने से
प्राप्त होता है
(२)
बार बार कई बार
बंजर को जोतने-कोड़ने से
ज़मीन हो जाती है उर्वर

मिट्टी में धँसी जड़ें
श्रम की गंध सोखती हैं
खेत में
उम्मीदें उपजाती हैं ऊख
(३)
कोल्हू के बैल होते हैं जब कर्षित किसान
तब खाँड़ खाती है दुनिया
और आपके दोनों हाथों में होता है गुड़!
(©गोलेन्द्र पटेल
०५-०६-२०२०)

११.

चेतना की चाय //

सुबह नयी है
यादें पुरानी
केतली के भीतरी सतह की
मैलें हैं
संभावनाएं

प्याले की भाप
उम्मीद का उड़ान भरती है ऊपर
खाट पर
ठाट बैठा रह जाता है नीचे
गंवईं गंध है
चर

शहर से आया है
अख़बार
ख़बर है
उसमें गायब है
अक्षर

गाँव की

हर समय
शब्द की शहनाई बजती है
संसदीय सड़क पर
चुसकियों के बीच
चीखें सुनती हैं
श्रुति

पकी उम्र चौराहे पर
चर्चा-परिचर्चा करती है

आँखें बरस रही हैं
ऊँची से ऊँची दीवारें ढहेंगी
दिल्ली में
दुखी आत्माएं देश की दयनीय दशा देख कर
चुपचाप चाय पी रही हैं

एक रिपोर्टर
"कवि दादा" से चुप्पियों का दवा लेने चला-
काव्य-परिसर
वहाँ उसे पीने को
दादा से संवेदना के कप में मिला-
चेतना की चाय!
(©गोलेन्द्र पटेल
२५-१२-२०१९)

१३.

चेतना की चिता
(तुम्हारी शुभचिंतक संवेदना) //

दाँत काट लग गया है
जिह्वा चिपक गई है तालु से
आत्मा की अनुभूति कैसे व्यक्त करे कवि
शब्द सट गया है कंठ से

आँखों में किचर है
कानों में खूँट
श्वासनली के बाहर ही श्वास से संबंध गया है टूट

नदी शांत हो रही है
धूप रोशनी खो रही है
संवेदना सो रही है
सड़क रो रही है
हवा ढो रही है
गठरी का गंध गाँव की ओर

भूख ऐंठ रही है आँत
भात बिखर गया है पटरी पर
महानगर में मालिक के घर मज़दूरी गयी है छूट
लौटती जनता का जेब है खाली

सफ़र बीच चेतना की चिता जल रही है
धुआँ उठ रहा है ऊपर
गमी की गूँज है गली गली
फिर भी है सन्नाटा
इस सन्नाटे के विरुद्ध सोहर गा रहे हैं काले कौएँ
बाँसुरी बजा रहा है बाज़

गरुड़! गंवईं गौरैया को पता है
अक्सर फिल्मों में मरने के बाद
राजा देता है रोटी का आश्वासन

उल्लू लौट रहा है अपने घोंसले में  
उठो संवेदना जागो संवेदना हो रहा है भोर

दुधमुँही का चावल पकना है
चेतना को चढ़ना है
चेतना तुम्हारी सगी चाची थी
उठो संवेदना बेटी

देखो! सुनो! महसूस करो!
नदी में है हलचल
धूप में ताप , सड़क पर शोर
हवा में हिमालय की स्पर्श-स्नेह-गंध
ओस का ओंठ चूम रहा है प्रातःकालीन प्रकाश
आकाश में उड़ रही है उम्मीद की चिड़िया
चहचहाहट है चारो ओर

उठ कर कही वह अनुभूति से
ओह माता! सरसराहट जा रही है संसद की ओर

भूख से मरी है चेतना
भूखी है आत्मा
राजा सावधान रहना
(चेतना मरती नहीं है मारती है कुछ समय बाद अपने शोषक को)
                -तुम्हारी शुभचिंतक संवेदना
(©गोलेन्द्र पटेल
११-०८-२०२०)


१४.

रेप //

आह दर्द!
इतिहास में दर्ज पहला दुष्कर्म कब हुआ
किसके साथ हुआ
मुझे नहीं पता
पर पहली पीड़िता जो भी रही हो
वह मेरी माँ थी
वर्तमान में जिनका दर्ज हो रहा है
वे मेरी बहनें हैं
भविष्य में जिनका दर्ज होगा
वे हमारी बेटी होंगी
और मैं यह होने नहीं दूँगा
-अब-

आह सर्ग!
मुल्क की मर्द और मीडिया मौन क्यों हैं?
जबकि चिता की गर्द गर्म है
सर्द के विरुद्ध
चीख सुनाई दे रही है निर्वात में
हवा का गंध है गवाह
बढ़ियाई आँसुओं के नदी बीच नाव पर
चाँद है
पीड़ा का पतवार थामा
बेचैनी है
बलात्कृत बेटी की वकील

पहरे पर पिता खड़े हैं
पुरुषार्थ के पर्वत पीछे चल रहे हैं
-रब-

न्यायालय में प्रकृति पूछ रही है
पतझड़ से पहले ही
हरी पत्तियाँ क्यों झड़ रही हैं?
अनुभूतियाँ अपने ही अंदर
जुगनूँ की रोशनी में जंग क्यों लड़ रही हैं?....

शर्म से
सत्य का सिपाही सूर्य छुप गया है 
पथ्वी झुक गई है

न्याय की आशा कैसे/किससे करूँ
-साहब-

जज ताकता रहा जब मुँह
तब कवि के भीतर की स्त्री बोलती है
"रेप" शब्द से काँप जाती है रूह

आह वर्ग!
उठो और बोलो बेटियों के पक्ष में
तुम बोलोगे तभी रुकेगा यह दर्ज का दर
तुम्हारे बोलने से ही बच सकेंगी
बेटियाँ बीच जंगलों में ,अंधेरी गलियों में
और यहाँ-वहाँ हर जगह
विचर सकेंगी स्वतंत्र-निर्भय।
-सब-
(©गोलेन्द्र पटेल
०१-१०-२०२०)


१५.

रोष की रोशनी

चुल्हे के भीतर

जला रहा है - भूख ;

तपते रोड पर

रोज़ी का तवा

रोज़ रोज़ के रुदन रस से 

सना 

रोटी का आटा

पका रहा है - कर्षित कुक!!...


-गोलेन्द्र पटेल

"कर्षित कुक" से


१६.

नीम का दतुअन //


आज भी भूजूर्ग किसान
प्रायः प्रातःकाल उठ
गाँव के नहर पर
लोटा ले पहुँच जाते हैं
निपटने!

गर्मियों के दिन में
नहर सूख जाते हैं वैसे
जैसे एक वृद्ध किसान का नस

धरती फट जाती है कर्षित कृषका के देह में दरार देख!

लोटे में पानी भर लेते हैं घर
दतुअन करने के लिए ग्रामीण जन

चिचिहड़ी
कबार नोच चोथ करते हैं दतुअन
कुछ नीम का कुछ बबलू का कुछ भी मिले सब चलेगा दतुअन में!

नीम तो किसानों का प्रीय दतुअन है ही
साथ में बाँस के नर्म नवंकुरित कईन भी
जिससे जिभ छोलनी काम आसानी से ले लेते हैं!

नीम का दुआर पर होना
देवी का होना है
जो हर कष्ट को दूर कर देती है
सिर्फ एक लोटा पानी ले
नवरातर में माँ से!

तुलसी माता को माता
सूर्य देव को पिता
एक लोटा पानी दे
अपने बच्चों के लिए सब कुछ माँग लेते हैं गाँव में
ख़ास कर अब नौकरी

चमकने के लिए
जैसे चमकता है नीम के दतुअन से दाँत!
-गोलेन्द्र पटेल
रचना : २१-०५-२०२०


१७.

प्रतिभा //

अनुभूति
आकृतियों का बीज
अंकुरित है
रेत में

स्वच्छता
(धोबिन का धूप)
उम्मीद का गंध है
रेह में

प्रज्ञा
अभ्यास की अक्ल है
चेत में

दृष्टि
झुर्रियाँ हैं
देह में

भूख
सलफास की फ़सल है
खेत में

संवेदना
सुख है
स्नेह में

प्रभा
कला की जननी है प्रतिभा
काव्य-
केत में।
(©गोलेन्द्र पटेल
०२-०६-२०१७)


१८.

छौंक से छींक
(नाव में घाव) // गोलेन्द्र पटेल

भीतर की सागर सूख रहा है
आत्मा पक रही है खौलते कड़ाही में
स्वप्न तल रहा है तवे पर
अदहन की आवाज़ आ रही है
और अहरा के आग में आँखें भूनी जा रही हैं

त्वचा तप रही है
उम्मीद उबल रही है
ढिबरी भभक-भभक कर जल रही है
चावल की बुदबुदाहटीय चीख है चूल्हे के पास
छौंक से छींक
रोजमर्रा की रोग है ख़ास

प्यास पी रही है ख़ून
भूख खा रही है हृदय
हथेली में लेकर पकौड़े की भाँति!

दुःख है बासी
थके हुए का थाती
है उसकी खाँसी

तड़प है ताज़ी
मृत्यु है राज़ी
सड़क पर सेवा हेतु

नहर से आती चीख
खेत में नहीं उगाती ईख
खेतीहर को ही नहीं सभी को पता है

नाव में घाव खोद रहे हैं कौए
(नाविक का घाव)
नाविका के आह से निकला-
शब्द तोड़ रहा है सत्ता का सेतु

नदी नाराज़ नहीं है
सेतु के टूटने से!
रचना : २४-०५-२०२०


१९.

मौन के विरुद्ध मंत्र //


दूर की दुर्गंध 

       सूँघ लेती है नाक

झाग 

       आँखों में लगता है

आँसू 

       टप टप टपकती है


जिह्वा जानती है-

स्वाद

       जिन्दगी का जंग है-

तीखा! 


कान कटता है-

कौन

        हाशिए के हँसिए को पता है


मौन

      गर्भवती है आख़िरी आवाज़ 

तुम्हारे विरुद्ध

                   जन्म लेगी-

चीख


मिर्च और प्याज़ से-

सीख

       मौन के विरुद्ध-

मंत्र

लिखा!

©गोलेन्द्र पटेल


 

२०.
जनतंत्र की जिह्वा //

मेह से नहीं
देह से होती है-बारिश
प्रतिदिन 

आत्मा डूबती है
बालुओं के बाढ़ में

आह!
नदी का भीतरी
सीन 

मीन तड़पती है
बिन विश्राम
पानी में

सर्प
बाज़ार में बजती है
बीन 

कान खड़ा कर लो

रेगिस्तानी राही
अक्सर अग्नि का लाल आलपीन
चुभती है
पैरों में 
और आँखों में 
तिन 

भरी दोपहरी में
(आँधी-तूफ़ान-लूँ चल रही है)
सड़क पर मरे हुए सड़े हुए ऊँटों से उठ रही है गंध
नाक छोटी कर लो

त्वचा काँप रही है
गर्म हवा के स्पर्श से
जाड़े के अभिनंदन में जनतंत्र की जिह्वा ले रही है  
बुरे समय की स्वाद।
©गोलेन्द्र पटेल

२१.

उर्वी की ऊर्जा //

उम्मीद का उत्सव है
उक्ति-युक्ति उछल-कूद रही है
उपज के ऊपर

उर है उर्वर
घास के पास बैठी ऊढ़ा उठ कर
ऊन बुन रही है
उमंग चुह रही है ऊख
ओस बटोर रही है उषा

उल्का गिरती है
उत्तर में
अंदर से बाहर आता है अक्षर
ऊसर में
स्वर उगाने

उद्भावना उड़ती है हवा में
उर्वी की ऊर्जा
उपेक्षित की भरती है उदर
उद्देश्य है साफ
ऊष्मा देती है उपहार में उजाला
अंधेरे से है उम्मीद।।
(©गोलेन्द्र पटेल
१५-१०-२०२०)




२२.

दस दस बीस
(जहाँ पाँव रेत में और जूते हाथ में) //

ऊपर
धूप खड़ी है
नीचे
अपने ही छाया में कैद कवि
जनतंत्र के जूते को
कर में लटकाए
टहल रहा है
रेत पर!

भीतर स्मृति है
बाहर आकृति अनंत
हवा हँस रही है
नाव पर बैठा संत
नज़र गड़ाया
नदी में डूबते
ऐत पर!

देखा
दुःख-सुख के बीच का सेतु है
रक्तिम रेखा

जिस पर
हर नर की घड़ी रुक गयी
पर समय चलता रहा किनारे
जिजीविषा की नाव
इस पार से
उस पार पहुँच गयी
खेत पर!

पेट के लिए
पुदीना की पत्ती पीस
दस दस बीस लिख दिया हूँ
फावड़ा-कुदाल के
बेत पर!
©गोलेन्द्र पटेल
10-10-20




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Wednesday, 14 October 2020

भूमंडलीकरण और हिंदी कविता : प्रो.अरुण होता {©Arun Hota} ©मनकामना शुक्ल "पथिक"

https://youtu.be/jCaRsUrD_Io


"भूमंडलीकरण के दुष्परिणामों से सचेत करती हैं, नब्बे के दशक की हिंदी कविताएँ"


नब्बे के दशक के कविताओं की अपनी एक अलग ही भूमिका रही है।

इस दौर के कवियों की कविताओं में मानवीय मूल्यों को बचाये रखने की जद्दोजहद दिखाई देती है।


इस दौर के कवियों ने अपने लिए कविताएँ नही लिखी, बल्कि अपनी सामाजिक चिंताओं को, समस्याओं को, विसंगतियों को और समाज की सोच-विचार को साझा करने के लिए पाठकों से संवाद स्थापित करती हैं।

भूमंडलीकरण की कविता यानी कि इन कवियों की कविताएँ भूमंडलीकरण के दुष्परिणामों से सचेत करने वाली कविताएँ हैं। साथ ही बाजारवादी अर्थव्यवस्था व उपभोक्तावादी संस्कृति के दुष्परिणामों और मनुष्य तथा मनुष्यता विरोधी  सद्वृत्तियों को उखाड़ फेंकने एवं संवेदन हीनता व संवादहीनता तथा रोबोटीय विकास के विरुद्ध होने वाली कविता है।

यहीं नहीं नब्बे के दशक की कविताएँ पतनोन्मुखी, सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक स्थितियों का खुलासा करने वाली कविताएँ हैं। जो अपने समय की गहरी पड़ताल करती हुई समकालीन सवालों से टकराती भी हैं। ख़ासकर मदन कश्यप, श्रीप्रकाश शुक्ल व जितेंद्र श्रीवास्तव की कविताओं के किसी भी संग्रह की आप कविताओं को पढ़ कर देख सकते हैं। इन कवियों के सन्दर्भ में सबसे बड़ी बात यह है, कि इन कवियों की कविताएं परम्परा और नवीनता दोनों को साथ ले कर चलने वाली कविताएँ हैं।

उक्त बातें प्रसिद्ध आलोचक अरुण होता ने अपने वक्तव्य में कही। वे विगत दिनों कंचनजंघा के फेसबुक पेज के पटल पर " भूमंडलीकरण और हिन्दी कविता" विषय पर एकल व्याख्यान दे रहे थे। बताते चलें कि कंचनजंघा ई-जर्नल जो कि सिक्किम प्रांत से निकलने वाली हिंदी की एकमात्र पहली पत्रिका है, जिसके संपादक, सचिव प्रदीप त्रिपाठी जी हैं।



मंच से अपनी बातों को साझा करते हुए अरुण होता ने कहा कि भूमंडलीकरण के परिपेक्ष्य में 1990 हम यूँ कह लें कि जिसकी सुरुवात 1989 से ही आरंभ होते हुए जो कि 1992 में पूरी तरह से लागू हो चुकी थी। उन्होंने हिंदी कविता पर बात करते हुए कहा कि उन घटनाओं ने हिंदी कविता को बहुत ही गहरे प्रभावित किया है। 1970 के आस पास जो नक्सलवादी आंदोलन हुवा उसका बहुत बड़ा प्रभाव हिंदी कविता पर भी पड़ा। उस दौर में धूमिल सबसे बड़े कवि के रूप में सामने आते हैं। और धूमिल के साथ-साथ कुमार विकल, वेणु गोपाल, आलोकधन्वा, ज्ञानेन्द्रपति, गोरख पाण्डेय आदि कवियों ने कविता को एक नया रूप दिया। नयी भाषा, नए शिल्प प्रदान किए जिससे कविता के क्षेत्र में एक व्यापक बदलाव आया। उस दौर में मारक मुहावरों का भी प्रयोग व्यापक स्तर पर हुवा है।


मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल आदि कवि इसी दौर के प्रखर कवि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।

आगे वे कवि मदन कश्यप की कविताओं पर चर्चा करते हुए कहते हैं कि वे हिंदी कविता में 1972 में ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके होते हैं।


पहली घटना जो नक्सलवाड़ी ने जो हिंदी कविता को प्रभावित किया था।

दूसरी घटना ये की नेशनल इमरजेंसी (राष्ट्रीय आपातकाल) रहा। उन्होंने कहा कि उस दौर में जो कवि सक्रिय थे, जो ख़ासकर आज भी सक्रिय हैं। जैसे ज्ञानेन्द्र पति जी व आलोकधन्वा जी की काफ़ी तारीफ भी करते हैं। उन्होंने कहा कि 1975 से 80 के बीच में जो कवि आए उन्होंने हिंदी कविता को समृद्धि प्रदाना की, इस संदर्भ में वे राजेश जोशी, अरुण कमल, उदय प्रकाश , विष्णु नागर  व इब्बार रब्बी जी का नाम लेते हैं।



इसी बीच जीवन व कविता के रिश्तों की बात करते हुए कहा कि 1975 से 80 तक आते-आते इन कवियों ने जीवन व रिश्तों के बदलावों को नए ढंग से परिभाषित करते हैं।

इसी कालखंड में 1990 की कविताओं पर फ़ोकस करते हुए वे कहते हैं कि, यह नब्बे का दशक जो कि समकालीन हिंदी कविता का दूसरे दौर के रूप में सुरु हो जाता है।

वे थोड़ा असहज होते हुए कहते हैं कि 'भूमंडलीकरण' यह बहुत ही लुभावन शब्द दिया गया है।

यह विश्वग्राम, ग्लोवल मार्केट, विश्वबाजार संयुक्तराष्ट्र संघ के द्वारा प्रचारित हुवा, और इसी दशक में बहुत बड़ा परिवर्तन भी हुवा।

सोवियत संघ के विघटन के बाद पूरी दुनिया बदल गयी थी। जो दो शक्तियों में विभाजित थी।

उन्होंने कहा कि उस दौर में भूमंडलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण, आदि के नाम पर बहुत कुछ कहा गया, बहुत कुछ भरमाया गया। उस दौर में भारतीयों को ही नही बल्कि पूरी दुनिया को भटकाया गया। भारतियों को खासतौर पर यह कहा गया कि अयम चेति परो वेति गणना लघु चेतसाम्

उदार परितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम।

 के सन्दर्भों का हवाला देते हुए बाबू रविन्द्र नाथ ठाकुर के अथैव विश्व भारती का भी जिक्र करते हैं।

उन्होंने कहा कि वसुधैव कुटुम्बकम की भावना भी प्रचारित तभी होगी जब भूमंडलीकरण होगा तभी। लेकिन इसके दुष्परिणाम भी तो हुए हैं, बुरे असर भी तो पड़े हैं, जिसे हम सब अच्छी तरह से जानते हैं।

इसी बीच वे कवि केदारनाथ सिंह जी के नए संग्रह जो 2014 की भी भूमंडलीकरण के संदर्भ में चर्चा करते हैं।

उन्होंने कहा कि इस भूमंडलीकरण की बातों को जितनी जल्दी व ज्यादे हिंदी के कवियों ने लिखा उतना किसी अन्य भाषा के कवियों ने नही समझा।

वे इसी बीच बद्रीनारायण की भी चर्चा करते हैं और 1990 के दौर में लिखी कविताओं के महत्वों को भी दर्शाते हैं।

उन्होंने कहा कि चाहे अस्सी के दशक का दौर हो या नब्बे का या फिर 2000 के कवियों ने, पर इस दौर के कवियों ने जो भी दिया है वह समाज मे घटित घटनाओं का प्रत्यक्षीकरण है। जिसे हम उस दौर की कविताओं में स्पष्ट तौर पर देख सकते हैं। उन्होंने समकालीन हिंदी कविता को एक जाग्रतावस्था की कविता कहा। 

उन्होंने कहा कि भूमंडलीकरण में बाजार ही सब कुछ होगा। लाभ व हानि के बारे में हमे बाजार ही सब कुछ बताएगा। इस संदर्भ में वे कहते हैं कि बाज़ार मूल्य ऐसा मूल्य है जहाँ मनुष्यता व मानवता, इंसानियत सबके सब बौने पड़ गए।

वे भूमंडलीकरण के सन्दर्भों पर थोड़ा तंज भी कसते हैं और कहते हैं कि अगर सबकी एक भाषा, खान-पान सब कुछ एक हो जाये तो गरीबी ही नहीं रहेगी।

तब तो पूरी दुनिया विश्वग्राम में तब्दील हो जाएगी। 

उन्होंने कहा कि इन चालाकियों को इन नब्बे के दशक के कवियों ने समझा और उसे अपनी रचनाओं में व्यक्त भी किया।

फिर उन्होंने महत्वपूर्ण कवियों ख़ासकर केदारनाथ सिंह, मदन कश्यप, जितेंद्र श्रीवास्तव व श्रीप्रकाश शुक्ल को केंद्रित करते हुए कहा कि इन चार कवियों को  लेने का कारण यह है कि इन कवियों ने यह नही कहा कि भूमंडलीकरण यथार्थ है बल्कि, उसके यथार्थ को न नकारते हुए उस बाज़ार को पहचाना और इन कवियों की कविताओं से यह बात छन कर

आती है कि आप बाज़ार को दे क्या रहे हैं, और उसके बदले आप क्या ले रहे हैं।

इस तरह रोबोटिय विकास है उसे इन कवियों ने स्वीकार नहीं किया ।

वे कहते हैं कि आप इन कवियों के किसी भी संग्रह को ख़ासकर कवि ने कहा सीरीज की कविताओं को छोड़कर अन्य संग्रह व कविताओं में कि इसकी कोई भी कविता एक ही ढ़र्रे की नही होगी। उसमे समय-समाज की अलग-अलग जो चिंताएं व संवेदनाएं हैं, और उन सम्वेदनाओं में  सांद्रता है। और मनुष्य को लेकर मानवीयता को लेकर मानव जाति, हरिजन, आदिवासीजीवन की विसंगतियों और उनकी चिंताएं हैं। साथ ही आदमी के प्रति एक व्यापक दृष्टि है। इन कवियों की दृष्टि समय व समाज के लिए कितने प्रासंगिक हैं  ऐसा उनकीरचनाओं में देखा जा सकता है।

उन्होंने कहा कि साम्प्रदायिकताएँ पहले भी होती थी पूंजीवाद का प्रभाव पड़ते ही जो साम्प्रदायिकता हुई और जो विकेंद्रीकरण की राजनीति हुई है, उसे नब्बे के दशक के कवियों की कविताओं में देखा जा सकता है। 

वे कहते हैं कि भूमंडलीकरण के दुष्प्रभावों को इन कवियों ने बहुत ही युक्तिसंगत ढंग से वे पाठकों के सामने प्रस्तुत करते हैं। हरिजन, दलित, आदिवासी व जनजातियों के प्रति इन कवियों की दृष्टि समय व समाज के लिए प्रासंगिक है। इसी बीच के केदारनाथ सिंह जी की कविता 'दाने' पढ़ते हैं। नहीं हम मंडी नहीं जाएंगे खलिहान से उठते हुए कहते हैं दाने

जाएंगे तो फिर लौटकर नहीं आएँगे

जाते- जाते कहते जाते हैं दाने

अगर आये भी तो तुम हमें पहचान नहीं पाओगे अपनी अंतिम चिट्ठी में लिख भेजते हैं दाने

इसके बाद महीनों तक बस्ती में कोई चिट्ठी नहीं आती..!

इस प्रकार वे बाजारवादी शक्तियों का खुलासा करते हैं। और उनकी जनहित का काम कविता के माध्य्म से....

एक अद्भुत दृश्य था

मेह बरसकर खुल चुका था खेत जुटने को तैयार थे......को भी पढ़ते हैं।

उन्होंने कहा कि 1990 के दशक की कवियों की  समकालीन हिंदी कविता में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उस दौर के कवियों ने कविता को एक मुकाम दिलाई है। क्योंकि वे कवि जहाँ कहीं एक ओर लोक से जुड़ते हैं तो एक ओर किसानों, दलितों आदिवासियों की पीड़ा मो रेखांकित करते हैं। इसी क्रम में लोक के साथ उस दौर की कविताओं में आई राजनीतिक चेतना की भी बातें करते हैं। इस तरह के कवियों में

वे मदन कश्यप, के साथ दोनों कवियों जितेंद्र श्रीवास्तव व श्रीप्रकाश शुक्ल जी की चर्चा करते हैं। वे कहते हैं कि इन कवियों ने आपने जीवनानुभव को सर्वाधिक प्राथमिकता दी। और पाठकों तक साझा किए। इस दौर में वैश्विक आयाम देने वाली कवितायेँ भी लिखी गयी। और झारखण्ड, गोरखपुर, गाज़ीपुर व बनारस जैसे स्थानीयता व उसकी भौगोलिकता को समेटा गया।

जाहिर सी बात है कि जब मैं इन सभी नामों को ले रहा होता हूँ तो यहां किसी भौगोलिक छेत्र का नाम नहीं है इस तरह ये कवि अपनी समृत्तयों को बचाने का प्रयास और अपनी जड़ों को बचाने का प्रयास बार बार करते हैं। 

भूमंडलीकरण के दौर में जो हमारे रिश्ते हैं मनुष्य से मनुष्यता को जोड़ने और उसे और मजबूत करने का प्रयास इन कवियों ने किया है। 

इस तरह इन कवियों द्वारा रिश्तों को लेकर लिखी गई। इसका मतलब यह नही की यह सिर्फ आपसी रिश्तों पर ही लिखा गया है। बल्कि इसका सम्बन्ध सखा मित्र पाठक व आमजन तक है। और यह आम जन से होते हुए एक लंबे परिदृश्य पर में आ जाते हैं इस तरह से वे पूरे विश्व से रिस्ता कायम करती हैं इन तीनों कवियो की कविताओं ने बहुत ही सलीके से संवेदना के धरातन पर उतर कर अपनी रचना धर्मिता को निभाया है। वे निराला केदारनाथ अग्रवाल व नागार्जुन के दौर की कविताओं का जिक्र करते हुए है कहा कि इस तरह के दौर में जो कविताएँ लिखी गयी उस तरह की कविताएं पुनः नहीं आया रही थी। जिसे आज नब्बे के दशक में देखा  जा सकता है। इन कवियों की कविताओं में दाम्पत्य जीवन के चित्रण देखा जा सकता है। इन कवियों की कविताएं विश्वस्नीय लगती है। जो अपनी रचना अपने जीवन व अपने लेखन में अंतर नही रखता।  इन कवियों में मानवीय मूल्यों को बचाये रखने की जद्दोजहद दिखाई देती है। इसमे से किसी भी लेखक के लिसी संग्रह को आप पढ़िए, क्षीरसागर में नींद हो या  पनसोखा है इंद्र धनुष, या फिर सूरज को अंगूठा हो  क्योंकि इन संग्रह की हरेक कविताएं ऐसी हैं। जो पाठकों से  संवाद स्थापित करती नजर आरती हैं।  इन कवियों ने अपने लिए कविताएँ नहीं लिखी बल्कि सामजिक चिंताओं को समस्याओं को विसंगतियों को, अंतर्विरोधों को व समय समाज की सोच विचार को साझा  करने के लिए  पाठकों से संवाद स्थापित  करती हैं। इन कवियों के कविताओं पर लोक पक्ष पर भी विस्तृत चर्चा करते हैं और श्रीप्रकाश शुक्ल के काव्य संग्रह जहाँ सब शहर नही होते, बोली बात, ओरहन और अन्य कविताएँ, में  उनके काव्य विवेक को स्पष्ट रूप से देख जा सकता है। साथ ही नए काव्य संग्रह जो कि सेतु प्रकाशन से प्रकाशित है 'क्षीरसागर में नींद' के पक्का महल की कई कविताओं का पाठ भी करते हैं।

और कहते हैं कि तीनों कवि मानवीय भावों के कवि हैं। श्रीप्रकाश शुक्ल की रचनाओं में मानवीय भावों का सर्वाधिक महत्व पाया जाता है।

 उन्होंने कहा कि भूमंडलीकरण के इन अर्थों को इन तीनों कवियों ने  बिल्कुल सही ढंग से समझा और अपनी रचनात्मक्ता में उसे समाहित भी किया। जहां भूमंडलीकरण बाजारवाद का सच है। लेकिन कहीं काट भी है जिसे समझना पडेगा। अपने विचारों को समझना पड़ेगा। और हम जहां से आते हैं वहां के लोगों को जानना पड़ेगा। इसी बीच वे मदन कश्यप की कविता क्या सचमुच मुल्क उन मदारियों का है। जो बजा रहे हैं भूमंडलीकरण की डुग डुगी और उआँ सपेरों का  जो बेच रहे हैं जाती व धर्म का ज़हर याफिर अपना ही देश....! इस तरह कवि की  विशेषताओं को इंगित करते हैं।

साथ ही जितेन्द्र जी की कविताओं का हवाला देते हुए बोलते हैं कि इनकी कविताएँ ही हैं जो इन्हें अन्य कवियों से भिन्न बनाये रखती हैं। इन कवियों की रचनाओं में विचारों की सांद्रता दृष्टिगत होती है। और समाज के प्रति सम्बद्धता भी दिखाई देती है। साथ ही अभिव्यक्ति की असहजता भी है। उसके साथ-साथ भाषिक उत्कर्ष भी दृष्टिगोचर होता है जो तमाम पाठकों को खुद से जोड़े रखती है। इस तरह उनका संग्रह पाठकों की उम्मीदों पर खरा उतरता है। इन तीनों कविओं का एक स्वप्न है पर उसका संबंध सिर्फ और सिर्फ स्वयं से नहीं है बल्कि यहबुनके सपनों का वृहत्तर पैमाना है। वे कवि अपने सपनों के माध्यम से सामाजिक सरोकारों से जुड़े रहते हैं जिनमे  समाज की संकल्पना छिपी है। उन सपनों में रचनाकार का जीवन दृष्टि समाहित रहता है। इसी बीच वे निम्न कवियों के तुकांत कविताओं के साथ-साथ अतुकांत कविताओं पर भी चर्चा करते हैं। और यह भी कहते हैं कि ये कवि जिस आजादी की बात करते हैं वह मानव जीवन के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। मेरे इस आजादी का अभिप्राय देश की 1950 की आजादी से नही बल्कि व्यक्ति की आर्थिक, सामाजिक व  सांस्कृतिक आजादी से है। इस तरह इन तीनों कवियाओं ने किसी भी चीज को अपने पर हावी नही होने दिया है। इनकी रचनाओं में विचार व संवेदना का मणिकांचन प्रयोग मिलता है।

वे इन्हीं तीनों कवियों के संदर्भ में कहते हैं कि बहुत अंधेरा है। घुटन है। पर इन्हीं कवियों की कविताएँ संभावनाओं का द्वार खोल देती हैं। वे नागार्जुन के सन्दर्भों का हवाला देते हुए कवि जितेन्द्र के संग्रह सूरज को अंगूठा का जिक्र करते हैं और कहते हैं कि सूरज एक शक्ति है जो कि सत्ता का केंद्र है, उसका प्रतीक है। उसे बिल्कुल धत्ता बताते हुए नागार्जुन के शब्दों में 'हो न सके नाकाम/लेकिन संघर्ष जारी रखेंगे/ उन्हीं के बच्चे उन्हीं के बेटे..!

वे आगे कहते हैं कि इसी तरह मदन जी अपनी डॉलर कविता में लिखते हैं कि उसे यहां तक कि अमेरिका तक को अस्वीकार करते हैं।

और ज्ञानेंद्र जी ने तो संशयात्मा 2004 में संयुक्त राष्ट्र संघ व अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष को उभरता हुवा अंडकोष कहा है। उस शक्ति को पराभव करने का जो सपना होता है वह जितेन्द्र की कविताओं में खास बनता है। इस तरह से हम जब 'क्षीरसागर में नींद' व ओरहन व अन्य कविताएँ में लेते हैं तो  जितेन्द्र की दिल्ली नींद में जिसमे सत्ता व व्यवस्था है समय व समाज का हस्तक्षेप है क्षीरसागर में नींद हमारा देश है और सत्ता के लोग विष्णु हैं/और वे पूरी तरह से सोए हुए हैं/ नहीं भी सोए हुए हैं/ इस तरह से भारतीयों को देशवासियों को और गहन अंध गर्त में धकेल रहे हैं/

आगे वे श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताओं पर संवाद कायम करते हुए कहते हैं कि लोक से लोक परम्पराओं से जुड़ी कविताएँ हैं तो श्रीप्रकाश शुक्ल के यहां हैं। उसे आप अगर जानना चाहते हैं 

या उनकी रचनाओं के अंतर को जानना चाहते हैं तो आप उनके नए काव्यसंग्रह जो कि सेतु प्रकाशन से हाल ही में छप कर आया है। 'क्षीरसागर में नींद' को पढ़िए! औऱ उसमे पक्का महल की कविताओं को पढ़िए। उसमे जय प्रकाश हो या लालू यादव के चाय की दुकान को पढ़िए। साथ ही ओरहन व अन्य कविताएँ की भी कविओं को भी पढ़ना होगा। इस दौरान वे उनकी पक्का महाल में खेल! कविता भी पढ़ते हैं। एक खुला हुवा बाजार है/  जो दबी हुई आकांक्षाओं की तरह/ आक्रामक है और फाइलने को आतुर/  खेलो कितना खेलोगे चुन्नू मुन्नू/एक बस्ती का उजड़ना भी तो आख़िर खेल ही है/  हरियाली हवा व रोशनी के नाम पर...!  वे कहते हैं कि और सत्ता के खेल में हम बिना जाने समझे जुड़ते चले जा रहे हैं और उसे शेयर करते जा रहे हैं।        इसी बीच वे युवा आलोचक कमलेश वर्मा के द्वारा श्रीप्रकाश शुक्ल के गाजीपुर व बनारस केंद्रित कविताओं पर संवेद पत्रिका में छपे एक लेख का भी जिक्र करते हैं।

जाग्रत कवियों की बात करते हुए अरुण होता जी कहते हैं कि जितेंद्र हों या मदन भाई या श्रीप्रकाश शुक्ल हों या उनके परवर्ती या पूर्ववर्ती अन्य कवि ही क्यों न हों पर उसमे जो जाग्रत कवि होगा वो ही उस खेल को उभरेगा उन चित्रों को उभारेगा। दुश्चक्रों को उभारेगा। तभी वह कविता महत्वपूर्ण होकर पाठकों, हमारे बीच आएगी। साथ ही कहते हैं कि जितेन्द्र जी व मदन भाई अपनी कवितामे जिसे बुलडोजर कहते हैं, श्रीप्रकाश शुक्ल उसे जेसीबी का नाम देते हैं।

 वे कहते हैं कि ये जेसीबी विकास के नारों का प्रतिनिधि है। जो सब कुछ तहस नहस कर देने वाला, अस्त व्यस्त कर देने वाला एक दैत्याकार है। जो भूमंडलीकरण का प्रतिनिधि है। इस तरह नब्बे के दशक के इन तीनों कवियों को उन्होंने मानवीय भावों का कवि कहा, मानवीय सम्बंधों का कवि कहा। इस तरह श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताओं में मानवीय भावों का सर्वाधिक महत्व पाया जाता है। इसी बीच वे उनकी 'यातना एक ज़िद है' और 'बुरे दिनों के ख्वाब' कविता का भी पाठ करते हैं।

 यातना एक ज़िद है/जो यातना में होता है बहुत जिद्दी होता है/जैसे कि हमारे पुरखे/जिनकी ज़िद ही  उन असंख्य घावों के लिए मरहम थी/ जो तब मिले थे जब वे/काला पानी की काल कोठरी से अपनी माटी को पुकार रहे थे...! वे यह भी कहते हैं कि अगर हम शुक्ल जी के राजनीतिक चेतना की बात करें तो उनके  'ओरहन और अन्य कविताएँ' तथा 'बोली बात' जिसमे  एक लंबी कविता " देश के प्रधानमंत्री के नाम देश के एक नागरिक का खत"जिसमे उनकी राजनीतिक चेतना मुखरित हुई स्पष्ट दिखाई देती है। वे कहते हैं कि हालांकि यह कविता 4 वर्ष पूर्व प्रधानमंत्री के नाम लिखी गयी थी पर आगे के प्रधानमंत्री पर भी सटीक बैठती है। इस तरह से श्रीप्रकाश शुक्ल राजनीतिक चेतना के संदर्भ में एक समर्थ कवि हैं। इस तरह वे श्रीप्रकाश शुक्ल की तुलना नागार्जुन से करते हैं।

और वे इन तीनों कवियों को लेकर सजग हैं । और कहते हैं कि इन कवियों की कविताएं भूमंडलीकरण की काट हैं। एक शब्दों में कहें तो आंखें खोलने वाली कविताएँ हैं। था भूमंडलीकरण के सच की उभार की कविता की संज्ञा देते हैं। साथ ही यह भी कहते हैं कि नब्बे के दशक के इन कवियों पर  बहुत ही महत्वपूर्ण काम किया जा सकता है।

आज कविता के नाम पर निबंध लिखा जा रहा है। मेरा उन कवियों से आग्रह है कि वे इन तीनों कवियों की काव्य संग्रह व कविताओं को पढ़े।

इसी बीच समकालीन हिंदी कविता का जिक्र करते हुए वे एक साथ तीन से चार पीढ़ी के सक्रिय कवियों का नाम लेते हैं। और कहते हैं कि इस दौर में इन कवियों ने ख़ासकर राजेश जोशी, बद्रीनारायण, कात्यायनी, निलय उपाध्याय सविता सिंह, कुमार अंबुज, चंद्रकांत देवताले, अनिल मिश्र, अनिल त्रिपाठी, सुभाष राय, लीलाधर मंडलोई, अनिता वर्मा, इंदु जैन अनुराधा सिंह, सोनी पांडेय, लवली गोस्वामी, रश्मि भारद्वाज, निशांत, विमलेश त्रिपाठी, अनुज लुगून व जसिंता केरकेट्टा यहां तक कि कुमार मंगलम व एकदम युवा गोलेन्द्र पटेल की भी कविताएँ समय समाज पर अपना अगल पहचान छोड़ने में कामयाब रही हैं।

उन्होंने मदन जितेंद्र व श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताओं को आँखें खोलने वाली कविता कहा तथा इन तीनों कवियों को भूमंडलीकरण के सच को व उसे उभारने वाले कवि का दर्जा देते हैं। अंत मे श्रोताओं से सुझाव मांगते हुए कार्यक्रम के समापन की घोषणा करते हैं।


प्रस्तुति : मनकामना शुक्ल 'पथिक'

 ईमेल : corojivi@gmail.com

Whatsapp : 8429249326

                   Golendra Patel

                              BHU

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