Monday, 19 October 2020

"उम्मीद" पर केंद्रित कविताएँ : मदन कश्यप + श्रीप्रकाश शुक्ल + जितेन्द्र श्रीवास्तव +सुभाष राय....+ मनकामना शुक्ल पथिक {संकलन : गोलेन्द्र पटेल}


★उम्मीद★


१.

उम्मीद / मदन कश्यप


जब आदमी
उम्मीद से
आसमान की ओर
देखता है

तब
इस धरती का रंग
बदलने लगता है



२.

उम्मीद / श्रीप्रकाश शुक्ल


जो है
उसकी चिंता करने की क्या जरूरत है
जैसे कि वर्तमान

जो नही है
उसे पाने की दौड़ लगाना एक वहशीपन है
जैसे की भविष्य

है और नहीं के बीच
एक तनाव है

यह उम्मीद का तनाव
और इस तनाव के साथ जीते जाने में क्या हर्ज है।



३.

उम्मीद / जितेंद्र श्रीवास्तव

कोई किसी को भूलता नहीं
पर याद भी नहीं रखता हरदम

पल-पल की मुश्किलें बहुत कुछ भुलवा देती हैं आदमी को
और वैसे भी जाने अनजाने, चाहे-अनचाहे
हर यात्रा के लिए मिल ही जाते हैं साथी

जो बिछड़ जाते हैं किसी यात्रा में विदा में हाथ उठाए
सजल नेत्रों से शुभकामनाएँ देते
जरूरी नहीं कि वे मिले ही फिर
जीवन के किसी चौराहे पर
फिर भी उम्मीद का एक सूत
कहीं उलझा रहता है पुतलियों में
जो गाहे-बगाहे खिंच जाता है।

जैसे अभी-अभी खींचा है वह सूत
एक किताब खुल आए है स्मृतियों की
याद आ रहे हैं गाँव की पाठशाला के साथी
चारखाने का जाँघिया पहने रटते हुए पहाड़े
दिखाई दे रही है बेठन में बँधी उनकी किताबें

उन दिनों बाबूजी कहते थे
किताबों को उसी तरह बचा कर रखना चाहिए
जैसे हम बचा कर रखते हैं अपनी देह

वे भाषा के संस्कार को मनुष्य के लिए
उतना ही जरूरी मानते थे
जितनी जरूरी होती हैं जड़ें
किसी वृक्ष के लिए

अब बाबूजी की बातें हैं, बाबूजी नहीं
उनका समय बीत गया
पर बीत कर भी नहीं बीते वे
आज भी वे भागते दौड़ते जीवन की लय मिलाते
जब भी चोटिल होता हूँ थकने लगता हूँ
जाने कहाँ से पहुँचती है खबर उन तक

झटपट आ जाते हैं सिरहाने मेरे !

जब उम्मीद खत्म होने को होती है / सुभाष राय

४.

जब उम्मीद खत्म होने को होती है

तभी मिट्टी की सतह तोड़कर एक अंकुर

बाहर निकल आता है सूरज से

आंखें मिलाता हुआ


जब उम्मीद खत्म होने को होती है

तभी जलते रेगिस्तान में एक नदी बह 

निकलती है मृत्यु का ताप 

सोखती हुई


जब उम्मीद खत्म होने को होती है

तभी जमींदोज इमारत के मलबे से एक

शिशु की पुकार फूट पड़ती है जीवन 

का अहसास कराती हुई


जब उम्मीद खत्म होने को होती है

तभी धीरे से आत्मा उतर आती है आंखों में 

‌एक पूरी उम्र जीने की ख्वाहिश में

चमकती हुई।



५.

उम्मीद' / मनकामना शुक्ल पथिक
"""""""

सृष्टि के आरंभ से ही जुड़ा है
सम्बन्ध, मानव का उम्मीदों से!
जैसे मनु का था सतरूपा से
एक नएपन की उद्दाम,अतृप्त 
आकांक्षाओं की अमूर्त्त भविष्यमत्ता से
वहीं-वहीं !
जैसे आत्मा का शरीर से!
उम्मीदें रहेंगी तभी तो, रहेगा जीवन
पृथ्वी, आकाश व प्रकाशित ग्रहों की तरह, 
रहेगा अड़िग सत्य भी
शिराओं में स्पंदित लहू के सदृश
प्रलय प्रवाह में भी जीवंतमय बने रहने का संदेश!
आत्मा रहेगी ही कहाँ ?
जब शरीर ही नही रहेगा !
उम्मीदें हमें हौशले देती हैं,
खोल देती हैं, तमाम नाकामयाबियों के मध्य कामयाबी का एक रहस्यमय द्वार
क्षितिज के उस पार भी,
और ले जाती हैं हमें अपने मुकाम तक
मोक्ष के अंतिम सोपानों पर ।





संकलनकर्ता :-
नाम : गोलेन्द्र पटेल
{बीए~तृतीय वर्ष , काशी हिंदू विश्वविद्यालय , वाराणसी}
ह्वाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com

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                                             -अशेष शुभकामनाएं।


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