गंगा को जगाओ, देश को बचाओ
गंगा यात्रा की रिपोर्ट
(२०१३-२०१४)
१
गंगा का समय
यह यात्रा नवम्बर २०१३ में आरम्भ हुई थी।
गंगोत्री से गंगनानी, उत्तरकाशी ,टिहरी और देवप्रयाग होते हरिद्वार तक पैदल चलकर आया। आगे भी पैदल जाने की ही योजना थी पर हरिद्वार आने के बाद मित्रों ने सायकिल दे दी और मेरी पदयात्रा सायकिल यात्रा में बदल गई।सायकिल मिलने के बाद, उसके साथ कुछ दिन चलने के बाद यह समझ में आया कि सायकिल अनिवार्यता थी।
पदयात्रा तब ही संभव है जब कंधे पर फ़कीरों की तरह बस एक झोला हो, एक धोती ,एक गमछा और सर्दियां न हो।लेखकीय जिम्मेदारी, लैपटाप मोबाईल कैमरा और ठंड के कपडों के साथ मेरे सामान का वजन सात किलों से अधिक हो गया था और पहाड की चढाई पर मुझे झुककर चलना पडता था। सायकिल मात्र से मुझे राहत मिली।
मैं सायकिल पर चलता था।
जीवन के पडाव बदल जाते है तो साधन भी बदल जाते है।
पूरे बीस वर्षो के बाद यात्रा में इस तरह सायकिल से जुडना सुखद लगा। कन्नौज,
बिठूर, कडा, बनारस, बलिया ,पटना ,भागलपुर फ़रक्का और मुर्शिदाबाद, मायापुर होते,गांव गांव की हवा में सांस लेते, घाट घाट का पानी पीते चार महीना और तेईस दिन की अनवरत यात्रा के बाद सकुशल मैं गंगासागर पहुंच गया। इस प्रवाह में गंगोत्री और गंगा सागर के बीच गंगा और उसके आस पास की प्रकृति, संस्कृति,जन का हाल देखते मुझे पांच राज्यों उतराखंड, उतरप्रदेश ,बिहार झारखंड और बंगाल से होकर गुजरना पडा। रात्रि विश्राम के लिए रास्ते में लगभग सौ केन्द्रो पर रूकना पडा जहां खान पान और रहन सहन का स्तर देखा। तीस से अधिक केन्द्रों पर लोगों ने मेरे अनुभव सुने और संवेदित हुए। सौ से अधिक अखबारों में मेरे यात्रा की खबर छपी और एक हजार से अधिक लोग फ़ेस बुक पर मेरे साथ यात्रा करते रहे। राह में लोगों का जो प्यार और जो आत्मीयता मिली वह मेरे लिए जीवन की अन मोल थाती है।
इस राह में बहुत कुछ देखा|
एक रचना कार के रूप में जानता था की यथार्थ वही रहता है, समय बदलता है और भाषा बदलती है | पहले मैंने गंगा के समय को देखा | यह नया समय था | गंगा चिल्ला चिल्ला कर बता रही थी की इस समय मे कही जनतंत्र नहीं है , लोक तन्त्र भी नही है | लोकतंत्र के चारो स्तम्भ गुलामी की चादर ओढ़ कर सो गए है | यह समय प्रकृति की लुट का है , भ्रस्ट आचार का है ,जाति वाद , गुंडई और बाजार से मिलकर उसी तरह बना है जैसे पंच तत्वों से मिलकर यह दुनिया बनी है|
इनकी भाषा आक्रामक और जीवन विरोधी है|
इसने अपना हित साधने के लिए गंगा को वहां पहुचा दिया है जहा से वापस करने के लिए एक और भागीरथ प्रयत्न की आवश्यकता होगी | गंगा का समय देश का भी समय है |
गंगा बंधी
देश बंधा
हर आदमी बंधा है
गंगा विभाजित हुई
देश विभाजित हुआ
हर आदमी बिभाजित हुआ है
गंगा प्रदूषित हुई
देश प्रदूषित हुआ
हर आदमी प्रदूषित हुआ है
गंगा पर गाद जम रही है हुई
देश पर गाद जम रही है
हर आदमी पर गाद जम रही है
गंगा का समय देश के समय के माप का पैमाना है | यह गंगा समय है |
२
गंगा काल का तट है।
गंगा तट, गंगा के काल का भी तट है।
वहां पर वैदिक काल से लेकर आज तक समय के पहिए के इतने निशान है जिनकी गणना नहीं की जा सकती। गंगा की कहानी सभ्यता की कहानी है। अथर्व वेद में इसे पहली बार परिभाषित किया गया। किसी नदी को देखने के लिए चार जगहों को देखना चाहिए।
नदी का गर्भ
नदी का घाट
नदी का तट
नदी का बाट
अथर्व वेद की परिभाषा वाली गंगा हमारी मानक गंगा है।
कोई पूछे कि हमारी गंगा कैसी हो तो मेरे पास यहीं जबाब है। वैदिक काल में इसे औषधिय गुण वाली नदी कहा गया है। यह तीनो ताप से मुक्त करने वाली नदी है | बौद्ध धर्म को हटाने के लिए मोक्ष तीर्थ बना दिया गया को कालांतर में पंडा गिरी मे बदल गया और चल पडा, मोक्ष का रोजगार।
आज जैसे शहर में मकान बनवाने की होड है वैसे ही उस समय गंगा के तट पर बसने की होड लग गई और गंगा ने अपना बाट और तट खो दिया। आज वह संसाधन से नाला तक आ चुकी है और अपना घाट और गर्भ भी खो चुकी है।
गंगा गंगोत्री से निकलती है और गंगासागर तक लगभग २५०० किलोमीटर की दूरी तय करती है तब बंगाल की खाडी में मिलती है। उसकी राह में पांच प्रदेश आते है उत्तराखंड, यूपी , बिहार, झारखंड और बंगाल। हर प्रदेश में गंगा के अलग अलग संकट है और अलग अलग तरह से खतरनाक है। गंगा को गंदा करने का संकट तो बस कन्नौज और बनारस के बीच का है, लेकिन नेता, अखबार और टी बी चैनलो को बस गंदगी नजर आती है। इस संकट को सामने खडा किया जा रहा है जैसे २५०० किलोमीटर की सारी गंगा गंदी हो गई हो।
एक खास क्षेत्र के संकट के आवरण में सारे संकटो को राजसत्ता द्वारा छुपाया जा रहा है। इसकी पहचान हमें जरूर करनी चाहिए।सरकारे गंगा के संकट का गलत डायग्नोसिस कर रहीं हैं। रोग गर्भ में है इलाज तट का कर रही है। उसकी नाक इतनी भोथरी हो चुकी है कि उसे नदी और नाला के बीच अंतर नहीं समझ में आ रहा है। हमारी चेतना पर इस तरह गाद जम चुकी है कि हमें प्रलय का खतरा नहीं दिख रहा है।
३
गंगा मां है
या जल संसाधन
गंगा आज कल चर्चा के केन्द्र में है।
अखबार से टीबी। टॊ बी से सडक और सडक से संसद तक।
जब २०१३ में मैंने गंगा यात्रा आरम्भ की थी तो सन्नाटा था। गहरा सन्नाटा। हिमालय में हादसे की एक लहर आई और इस तरह गुजर गई थी जैसे कुछ न हुआ हो। जिनके परिजन मारे गए वे रोकर चुप हो गए। जैसे हादसे के बाद कभी कभी कोई शव कहीं फ़ंसा कहीं अटका मिल जाता था उसी तरह गंगा के बारे में कभी कोई खबर मिल जाती थी। चार माह तेईस दिन की यात्रा के बाद जब वापस लौट कर आ गया हूं, वह सन्नाटा टूट रहा है और मुझे महसूस हो रहा कि गंगा की राजनीतिक भूमिका आरम्भ हो चुकी है, वह इतने बडे देश में चुनाव का मुद्दा बन चुकी है । इसका परिणाम क्या होगा नहीं पता पर किसे यह सुनकर अच्छा न लगेगा कि यह देश एक बार फ़िर गंगा की राजनीति के दांव पर है। आज की तारीख में उसकी इतनी भूमिका कम नहीं है कि वह जाग गई है।
गंगा की राजनीतिक भूमिका आरम्भ हो चुकी है।
वह चुनाव का मुद्दा बन चुकी है ।
उपर से देख कर यहीं लगता है कि सरकार अपनी नदियों के प्रति संवेदनशील है।उसकी नदी, उसके पहाड, उसकी भाषा, उसकी संस्कृति के संकट की चर्चा हो तो यह जबाब है दुनिया के इतिहास का अन्त हो चुका है, संस्कृतियों का अन्त हो चुका, कविताओं का अंत हो चुका और दुनिया एक ध्रुवीय हो चुकी है। सांख्य और पातंजलि के वंशज अगर यह सोचे कि एक नदी क्या चाहती है?
एक नदी की आदम इच्छा है अविरल बहना।
एक नदी के लिए जितना किया जाएगा उतना ही गडबड होगा।
हम जरूर जानना चाहेंगे कि सरकार नदी की इस आदिम इच्छा का कितना सम्मान करती है और उसकी कारवाई या किनके पक्ष में जाती है। हमें यह परखना होगा कि बाजार की राह हवा में उडकर आई राजसत्ता की यह संवेदन शीलता कैसी है ? एक नदी के रूप में गंगा के संकट को देखने का उनका नजरिया आखिर क्या है ?
कहीं वह बची हुई इस गंगा को परोक्ष रूप मे निजी हाथो को बेचतो नही रहे। हम उस स्थिति में नहीं है कि गंगा के अविरलता की बात भी कर सके। गंगा सागर जाते जाते गंगा की ताकत इतनी कम हो जाती है कि वह अपने पांव चलकर समुद्र तक नही पहुंच सकती। आज जब सभी ठान ले कि गंगा अविरल होगी तो इस देश के शहरो और सरकार को गंगा के उपर से अपनी निर्भरता कम करने में और उन्हें खत्म करने में वर्षो लग जाऎंगे।
सरकारो ने अब तक जो संवेदनशीलता दिखाई है उसे बहुत डर लगता है और यकीन तो होता नही। इस देश की बडी लूट इन नदियो के नाम पर हुई है। नदियों पर पुल बांध नहर घाट सफ़ाई संयंत्र और बंदरगाह के नाम पर बडी लूट हुई है और यह लूट गंगा की मौत के लिए जिम्मेदार है। इसलिए इस यात्रा के बाद जो कुछ देख कर आया हूं, जो कुछ समझ में आया है,क्रिया के स्तर पर सरकारों के चरित्र का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है।संकेत साफ़ है।सत्ता में आने के बाद जो गंगा को मां कहकर संबोधित कर रहे है, गंगा के हालत पर आठ आठ आंसू बहा रहे है. वे अपने आचरण में गंगाके जल को अंग्रेजों के लीक पर चलते हुए संसाधन ही मानते है इसलिए उसकी नीयत पर शक वाजिब है। इस के दर्जनों उदाहरण इस पुस्तक के पिछले तीन भाग में दे चुका हूं और साबित कर चुका हूं कि आजादी के बाद जो सरकारे बनी है वे अंग्रेजों से ज्यादा क्रूर है और आठ गुना लुटेरी है।कांग्रेस हो या भाजपा या कोई राजनीतिक दल चरित्र में बहुत फ़र्क नहीं है।
अब हम आजाद है।
देश आजाद है।
हमारी चुनी हुई सरकारें है मगर गंगा में पानी नहीं रहता?
पहाड में भी बांध के ही दर्शन होते है।उसके परिणाम क्या है , अगर आप जाकर टिहरी के आसपास के किसी गांव को देखे।विल्सन ने पशुओं के मांस ,खाल और लकडॊ का व्यापार किया था। विल्सन की तरह हमारी सरकार अब वहां के लोगो के खाल और मांस का व्यापार कर रही है।अब भी गंगा विल्सन की है और देश भी उसी विल्सन का है। राजा ने छह हजार की सलाना लीज पर दिया था, हमारे राजा साहब एक एक मेगावाट विजली के उत्पादन का परमिशन देने के लिए कंपनियो से एक करोड लेते थे, यह जाने कब की बात है। उन्हे इस बात की परवाह नही कि उनके आगमन से इस इलाके का चिराग ही बुझ गया। लोक गंगा को मां कहता है , सरकार जल संसाधन कहती है।अगर आप चाहते है कि यह गंगा घाटी बनी रहे तो निर्णय लेने का यह आखिरी वक्त है।
४
अपने तटों के बीच
नहीं है गंगा
गंगा को उसके तटों के भीतर नहीं देखा जा सकता।
गंगा अब अपनी तटों के बीच नहीं बहती। वहां नाला और रसायनिक जल बहता है। उसका असली प्रवाह अपने दोंनो ओर निवास कर रहे लोगों के दुख और उनकी जीवन शैली मे समझ में आता है।
राह में मुझे एक कैंसर पीडित महिला मिली।
उसके स्तन में कैंसर था।
उसने मुझे बताया कि उसके कैंसर के लिए गंगा जिम्मेदार है।
मैंने महसूस किया कि जिस तरह का कैंसर उसके स्तन में था ,उसी तरह का बल्कि उससे बडा कैंसर उसके परिवार में था।उसके बेटे दवा नहीं लाते,उसकी बहुंए उसका घाव नहीं धोती, ताना मारती है और पति को यह कहने से कोई रोक नहीं पाता कि यह तुम्हारे कर्मों का फ़ल है। उसकी बात कोई नहीं सुनता। उसके दुख का बयान कर सकूं, मेरे पास शब्द नहीं हैं।
यह कैंसर वहां के समाज में भी दिखा।रिश्ते टूट रहे हैं, घर टूट रहे हैं ,समाज टूट रहा है और सब कुछ जैसे विखर गया है। उस औरत का दर्द मुझे हर जगह दिखा।उसे पीने के लिए शुद्ध जल नहीं मिलता। वह आर्सेनिक जल पीकर रहती है , उसकी छाती गल गई है, उसके शरीर से बदबू आती है।सरकार की ओर से उसे कोई दवा नहीं मिलती।उसके लिए कोई राहत इस प्रजातंत्र में कहीं नहीं है। न सरकार , न धर्म. न समाज,न घर और न खुद, उसके लिए कहीं कोई आश्वासन तक नहीं है।उसका जीवन उसके शरीर से एक युद्ध है। इस युद्ध में वह अकेली नहीं बल्कि पूरी गंगा घाटी की औरतें और मर्द है।
अब अगर गंगा की राजनीतिक भूमिका तब तक पुरी नहीं होगी जब तक उसके दोनों तटों पर बसे लोगों के जीवन को प्रवाह में न शामिल किया जाय।
५
गंगा के संकट और समाधान
चार महीनों तक गंगा के साथ रहा।
स्वर्ग लोक की उंचाईयो से मृत्युलोक और पाताल लोक की गहराई तक यात्रा करते हुए, गंगा के अनगिनत संकटों को प्रबृतियों की तरह देखने और गहन विश्लेषण के बाद मुझे मूलत: चार संकट नजर आए।
बंधन,
विभाजन
प्रदूषण,
गाद
और भराव
ये संकट नदी को मौत तक पहुंचा देते है।
इन अर्थों में गंगा मौत के बहुत करीब है।
बंधन
अगर कल्पना मे चित्रकार से कह दिया जाय कि एक चित्र बनाकर दिखाओ कि इस गंगा घाटी में गंगा और उसकी सहायक नदियों पर किनने बांध है और वह चित्र कैसा लगता है और तब खुद से पूछें कि इतने सारे बंधनों में बंधी गंगा क्या राष्ट्रीय नदी हो सकती है। क्या यह नदी न्यायालय से मानवीय अधिकार प्राप्त नदी हो सकती है ।
देश गुलाम था, यहां के लोग गुलाम थे।
अंग्रेजो ने गंगा के साथ वही सलूक कियाजो यहां के लोगों के साथ किया। गंगा के साथ सरकार का अंग्रेजो वाला रिश्ता आज भी है। आजाद होने बाद गंगा को तो पता ही नही चला कि यह सब और इतना सब चुप के चुपके कैसे और कब हो गया। गंगोत्री से हरिद्वार तक की यात्रा में गंगा बस गंगनानी के उपर ही दिखती है इसके बाद गंगा का दर्श न तो बस झील दर्शन है। केदार नाथ और बद्रीनाथ के राह पर भी बांधो के ही दर्शन होते है ।जो यात्री जाते है , वहां का अतीत सुनते है और बस लूट के आते है। मन ही मन कोसते है कि हमारी गंगा को झील में बदल दिया। गंगा का संकट तो जल के चरित्र का संकट है। अब कोई लडकी गंगा बनना नही चाहती है। आने वाले समय में जल संकट भयानक रूप लेने वाला है।एक आदमी ने मुझ से एक सवाल पूछा?
जिस जल को सूरज की किरणे गर्म कर वायु बनाती है।
उडाकर दूर उंचे आसमान में ले जाती है।
जमाकर वर्फ़ बनाती है।
गलाकर जल बनाती है और वह शुद्ध जल पीने के लिए देती है। वह जल से पूरी गंगा घाटी को रसमय रखती है। अगर नदी और लोगों के बीच से सरकार हट जाय तो गंगा ही नहीं सारी नदिया वापस अपने रूप में आ सकती है और हमारा जल चक्र ठीक हो सकता है।
इस बंधन के घाटे का आकलन नहीं हो सकता।
अगर हम इसका आकलन करते है तो तीन विचार आते है। इस बंधन के कारण या तो मुर्खता हो सकती है जो समझ नहीं पा रही कि इसके कारण हिमालय के जल स्रोत सूख रहे है और धरती का जल स्तर नीचे जा रहा है। इसका दूसरा कारण अदूरदशिता हो सकता है जो नेहरू में भी उतनी ही थी जितनी आज के राजनेताओं में जिन्होंने इस नदी बांध को तीर्थ की उपमा दी और आज इस हाल में पहुंचा दिया कि मरणासन्न है।इस यात्रा में यह जानकर चकित हुआ कि इसमे न तो मुर्खता है और न ही अदूरदर्षिता है यह लूट का तरीका है।
गांव में रात को डकैत आते थे।
घर के लोगों की पहले पिटाई करते थे और बांध देते थे। किसी को बांध दो तो लूटना आसान हो जाता है। गंगा को जहां जहां बांधा गया है वहां जितनी जल की लूट हुई है उतनी कमीशन की भी। इसमे जितने देशी लोग शामिल है उतने विदेशी भी ।वे कर्ज देते है और कमीशन देकर काम करने के बहाने अपना पैसा वापस ले जाते है। विजली परियोजना के लिए गंगा को बांध दिया।
बस एक मात्र लाभ है कि हमें विजली मिलती है।
आईए एक नजर घाटे पर डालते है। गंगा की मिट्टी जो हिमालय से चलती है, बांध में जाकर रूक जाती है और बिहार के किसानो को इसका लाभ नहीं मिल पाता टनल में गुजरते गंगा के जल को पानी और धूप नहीं मिलता । झील में पानी जाकर रूक जाता है और बाहर निकल ने के कंपनी के मालिक की ओर कातर निगाहों से एकट्क देखता रहता है। और प्रदूषित होता है। प्रोटेक्स न वाल न होने के कारण पानी पहाड में रिसकर जाता है। कई गांव गिरकर झील में समा चुके है। यह इससे भी खतरनाक खबर है कि हिमालय की कापर प्लेट गल चुकी है। हिमालय खतरे में है। गांव लगभग खाली हो चुके है। अकेले टिहरी में इतना पानी जमा है कि अगर पानी निकला तो ऎतिहासिक हादसे का कारक होगा। हरिद्वार तिनके की तरह बह जाएगा, दिल्ली भी नहीं बचेगी। यह भूकंप क्षेत्र है यह जानते हुए ये बांध बनाए गए। इसे बनाने वालो की दाद देनी पडेगी जिन्होने विस्थापितो की सूची मे पाईलट बाबा का नाम डाल दिया। क्या हुआ , कैसे हुआ सोचने के वजाय, जो हो चुका उसे भूलकर अब नए बांधो की मंजूरी नही देनी चाहिए। पुराने बांधो को धीरे धीरे चरण बद्ध ढंग से खाली कर देना चाहिए। विजली बनाने के बहुत तरीके हो सकते हैं गंगा बनाने का कोई तरीका हमारे पास नहीं है। हादसे से सबक नहीं लिया गया तो परिणाम भयावह हो सकते है।
विभाजन
जहां जहां गंगा बंधी है, वहीं पर विभाजित भी हुई है। पहाड में बिभाजित होने के बाद झील में सड कर टनल में गई है और अपना औषधिय गुण खोकर वापस आई है। हरिद्वार, बिजनौर और नरोरा आते आते पूरी तरह लुट गई है। कानपुर तक गंगा का जल खेतों में है, नदी के पाट में नहीं है। गंगा का जल उद्योगों में है क्योकि हर उद्योग को माल धोने के लिए भारी मात्रा में जल की आवश्यकता होती है।
औद्योगिक क्रांति इंग्लैड में हो चुकी था और जल संसाधन हो चुका था।
भारतीय जीवन में पंच तत्व चिंतन का जोर था और यहां जल को वह मान दिया गया जो देवताओ को मिलता है। हरिद्वार में जमीन पर उतरते ही गंगा के जल की लूट मच जाती है।सरकार गंग नहर से खेतों की सिचाई और दिल्ली के निवासियो के पीने के लिए सारा जल ले जाती है। वही हरिद्वार नहर से तीन धाराए अलग से निकलती है। एक धारा पुराने श्मशान के लिए, दूसरी धारा आश्रमो के दरवाजो पर चक्कर लगाने के लिए और तीसरी धारा खेती और हरिद्वार का नाला धोने के लिए। इसमें से जो थोडा सा जल बचता है जो गंगा की मूल धारा मिलता है और आगे जाता है।
उत्तर प्रदेश में नेता साफ़ कहते है की नाहर वोट देती है गंगा नहीं |
पूरे उत्तर प्रदेश में जिस तरह नहरो का जाल बिछा है उसके बाद गंगा मे नालों और रसायन का पानी भी नही बचता। नरोरा एटमिक प्लांट से निकलने वाली गंगा का हाल यह होता है उसे बकरी पैदल पार कर जाती है।
प्रदूषण
अगर गंगा में प्रदूषण गंगोत्री से ही आरम्भ हो जाता है।
गंगोत्री में गंगा के मंदिर का नाला सबसे पहले गंगा को प्रदूषित करता है।
उसके बाद गंगा तट पर जितने भी शहर बने है,जितने आश्रम बने है सबका नाला गंगा में गिरता है। इसकी शुरूआत पुराण काल में ही हो गई थी जब वैदिक मर्यादा का उलंघन कर गंगा का बाट तोड दिया गया था और तट पर लोग बसने लगे थे। पहले गंगा के तट पर देवता आए फ़िर राजा और अब तो नगर बस गए है। सबका नाला गंगा में गिरता है।
आगे जब हम गंगा के प्रदूषण की बात करते है तो सिर्फ़ गंगा ही नहीं उन तमाम नदियों के प्रदूषण के संकट की बात करनी होगी जो गंगा में आकर मिलती है। कन्नौज में जहां राम गंगा और काली नदी आ कर मिलती है वहां गंगा पूरी तरह से नाला बन जाती है। इसके चार कारक है।
1. जल की कमी
2. सहायक नदियां
3. नगर और उद्योग
4. धार्मिक क्रिया कलाप
अगर गंगा में जल की मात्रा रहे तो वह बहाव के कारण, मिट्टी और हवा के कारण अपने को कुछ स्बच्छ कर सकती है। मगर जिस आपाधापी में गंगा के किनारे नगर बसाए गए, उद्योग लगाए गए, उसके जल निकास के लिए आज भी हमारे पास कोई जल निकास नीति नहीं है।सफ़ाई के लिए जितने संयंत्र है उसमें एक भी सही ढंग से काम नहीं करता। वह भी महज ठेका प्रणाली का शिकार होकर रह गया है।
इसे समझने के लिए मैंने कई जगहों की यात्रा की और उसी क्रम में अहमदाबाद भी गया। अहमदाबाद का मल जल वहां की नदी में नहीं जाता बल्कि उसका शोधन होता है। वहां से निकलने वाला जल खेतों में सिंचाई के लिए जाता है और मल का खाद बनता है जो ३०० रूपए किलो बिकता है और लाभ में है।
यह विज्ञान का समय है।
आज कोई भी वस्तु त्याज्य नहीं है। हर शहर से निकलने वाले मल जल से वहां की विजली जलाई जा सकती है। जिस नगर के नाले गंगा में या किसी नदी में गिरते है वहां की नगर पालिका लोगो से टैक्स लेती है कि वे जल मल निकासी की ब्यवस्था करेंगे। क्या लोग इसलिए टैक्स देते है कि आप हमारा मल गंगा में गिरा दे। अगर शहर और उद्योग से प्राप्त गंदे जल को प्रत्येक शहर में नगर पालिका ऎसी योजना भी दी जाय कि कैसे उसे उर्वरक के रूप में बदलकर आस पास के खेतो में उसका इस्तेमाल किया जाय।
टेम्स नदी को लंदन की गंगा कहा जाता है। लंदन टेम्स के किनारे है। आबादी बढ़ने के
साथ ही टेम्स नदी में भी प्रदूषण बढ़ता गया और वह मरने के कागार पर खडी हो गई। सफाई के अभियान शुरू किए गए …लेकिन सफ़लता तब मिली जब महीने मेंए क दिन जहां से टेम्स नदी गुजरती है …लोग सफाई करते हैं। लोगों ने टेम्स लौटा दिया। डेढ़ सौ साल पहले जैसी है।
यह अभियान हमारी छ्ठ का अनुकरण था।
गंगा नदी की सफ़ाई को मासिक पर्व बना दिया जाय। यह सब कुछ हो सकता है पर
बिना नाक और बिना आंख के इन नेताओं को कैसे समझाया जाय कि नदी और नाले में फ़र्क होता है।
गाद
गाद को समझने के लिए गंगा का पथ और प्रवाह समझना होगा।
जिस पथ पर मैंने यात्रा की वह गंगा का सदियों पुराना पथ था, जिस प्रवाह के साथ यात्रा की वह गंगा का प्रवाह था। पथ तो वहीं था और प्रवाह वह नहीं था। इसे समझने के लिए समुद्र तल से उंचाई और दूरी को समझना पडेगा क्योंकि समुद्र तल मानक है। यह पृथवी गोल है। उंचाई मापने के लिए समुद्र तल का इस्तेमाल किया जाता है। यह भी माना जाता है कि पूरी दुनिया में समुद्र का तल एक होता है इसलिए उंचाई मापने के लिए समुद्र के जल से अच्छा मानक दूसरा नहीं है।
समुद्र तल से गंगोत्री की उंचाई- ३४१५ मीटर है,
केदार नाथ की उंचाई ३५८४ मीटर
बद्री नाथ की उंचाई ३३०० मीटर है।
समुद्र तल से हरिद्वार की उंचाई-२५० मीटर है
समुद्र तल से बनारस की उंचाई-८१ मीटर।
समुद्र तल से भागलपुर की उंचाई ५२ मीटर है
समुद्र तल से फ़रक्का की उंचाई १२ मीटर है
समुद्र तल से कलकत्ता की उंचाई ९ मीटर
गंगोत्री से हरिद्वार की दूरी ३०० किलोमीटर
हरिद्वार से बनारस की दूरी लगभग ८०० किलोमीटर है।
बनारस से भागलपुर दूरी ६०० किलोमीटर है।
भागलपुर से फ़रक्का की दूरी १५० किलोमीटर है
फ़रक्का से कलकत्ता की दूरी ३०० किलोमीटर है।
गंगा की जितनी धाराएं है वे गंगोत्री, केदार नाथ और बद्री नाथ की ओर से आती है जो ३३०० मीटर से उपर है। हरिद्वार जब गंगा आती है तो ३००० मीटर की उंचाई से जैसे लुढकती आती है। पहाड में टनल बनाने के काम इसी लिए होता है कि इस उंचाई से उसके उतरने की गति का इस्तेमाल कर सके।
हरिद्वार से वाराणसी की दूरी लगभग ८०० किलोमीटर है।
समुद्र तल से बनारस की उंचाई ८१ मीटर है। यानी गंगा हर मीटर की दूरी ३ सेन्टीमीटर की ढलान के साथ करती है। वाराणसी से भागलपुर और कलकता उसका प्रवाह घटता जाता है मगर उसका पाट चौडा होता जाता है । बक्सर के बाद गंगा का पाट दो किलोमीटर से बढता हुआ ८ किलोमीटर तक हो जाता है। कलकता तक समुद्र की लहरे आती है और कई बार ऎसी घटनाए हुई जब गंगा में नहाते लोगों को समुद्र खींच कर ले गया है और बडी कठिनाई से लोगों के प्राण बचाए गए है।
जब वेग कम होगा और पाट बढेगा तो यहां जल का कचरा जमता है। यह
कचरा मल का नहीं बल्कि भारी और नकली रसायनों का है। गंगा के पास इतना पानी नहीं रहता कि वह अपने जल से उस गाद को बहा सके। इसके फ़लस्वरूप नदी के बीच गाद जम जाती है और वह किनारे से होकर बहने लगती है, इसके कारण गंगा का पाट चौडा होता जाता है कई धाराओं में बंट जाती है और कटाव होने लगता है।
कटाव के कारण हजारों गांव के लोग विस्थापित होते है।
गाद पर दियारा क्षेत्र बनता है जो अपराधियो का स्वर्ग बन जाता है।
गाद से रसायन भू तल जल में समाकर बीमारियों का कारण बनता है।
नदी के तट पर बोल्डर गिराने के वजाय उसके गर्भ को साफ़ कर दिया जाय तो नदी अपनी मूल धारा में रहेगी। गंगा गर्भ, गंगा तट और गंगा क्षेत्र का सीमांकन किया जाना चाहिए।यह सच्चाई है कि बाढ में भी नदी उसी जगह तक जाती है, जहां कभी उसकी धारा थी। अगर बनारस तक यानी समुद्र तल से ८१ मीटर की उंचाई तक बाढ का असर दिखता है तो समझा जा सकता है कि गंगा में कितना गाद जमा है।
भराव
झारखंड के दो जिले साहबगंज और राज महल गंगा तट पर बसे है। यहां गंगा का प्रवाह प्रति कोस आठ ईंच है। इस इलाके में हजारो क्रशर मशीन लगे है। पत्थर तो बेच देते है मगर मिट्टी बारिश में बहकर गंगा में समा जाती है। इस भराव और फ़रक्का बांध के कारण पानी नही निकल पाता और बाढ आती है तो विहार को डूबा जाती है। फ़रक्का में हजारों एकड लंबा चौडा मिट्टी का द्वीप बन चुका है।
इस इलाके से क्रशर उद्योग को हटा देना चाहिए।
अगर जरूरी हो तो मिट्टी का भी अलग उपयोग किया जाना चाहिए ताकि मिट्टी गंगा में न जा सके।फ़रक्का बांध बनाने के बाद वह इंजीनियर जिसने बांध बनाया था, आज यह बयान दे रहा है कि फ़रक्का में यह नहीं बनना चाहिए था। यह गलत हुआ किन्तु उसे गलत कहने वाला इंजीनियर गुमनाम जिन्दगी जीकर मर गया। हल्दिया की भी वही स्थिति हो गई है जो उसके पहले के बंदरगाह हुगली की थी।
समाधान
अगर संकट है तो समाधान भी है।
भारतीय संस्क्रुति के पास ही इसका समाधान है। इसका समाधान कपिल मुनि के पास है। उन्होने कहा कि प्रकृति का सम्यक ज्ञान ही मोक्ष है।कर्ता पुरूष नहीं होता ,प्रकृति होती है। हमारे ऋषि कहते है कि
गुणानां परमं रूपं नदृष्टिपथ मृच्छति
यतु दृष्टिपथं प्राप्तं तन्मायै वसुतुच्छकम।
अगर गुणों में साम्य हो तो प्रकृति के परिणाम दिखाई नहीं देते। अगर विषम हो तो परिणाम दिखाई देते है और जीवन पर उसका असर दिखाई देता है। यह उसी तरह है जैसे माया। विषम परिणाम विनाशी होता है। पुरूष का यज्ञ प्रकृति को साम्य अवस्था में लाने का दूसरा नाम है।
भारतीय दर्शन इसे समझाने के लिए पूछता है |
गंगा का दुःख क्या है ?
वह मरण शय्या पर है |
गंगा के दुःख का कारण क्या है ?
पानी रोकना और नाला गिरना
समाधान क्या है ?
नाला रोको ,पानी छोडो|
जल चक्र से नाता जोडो।
सुख की अवस्था कैसी हो ?
गर्भ हो, घाट हो ,तट हो ,बाट हो और गंगा का मान हो |
गंगा ही नहीं तमाम नदियों पर बंधन विभाजन,प्रदूषण और गाद के कारण उसके विषम परिणाम साफ़ साफ़ दिखाई दे रहे है। राज्यों का अर्सेनिक मैप और राज्य का माप बराबर हो चुका है। यह विषमता २५०० किलोमीटर के प्रवाह में अनगिनत है।
६ गंगा की जंग
किसी भी जंग के चार नियम होते हैं।
दुश्मन की पहचान
दुश्मन की ताकत का अनुमान
दुश्मन की ताकत के बराबर अपनी ताकत को ले आना
जंग के मुद्दे की पहचान
१गंगा के दुश्मन की पहचान हमने कर ली है।
मुगल काल से आज तक इसका विस्तार है। हमारा दुश्मन कोई व्यक्ति नहीं, सरकारे है। अकबर ने जल जमींदारी यानी जलादारी प्रथा आरम्भ की तब, विल्सन ने हिमालय लुटा तब, कटले ने हरिद्वार आवर नरोरा में बाँधा तब और आजादी के बाद जब अपनी सरकार बन गई उसके बाद तो उसका हाल कहने के लायक नहीं है | गंगा की हालत के लिए किसी एक काल खंड की सत्ता को जिम्मेदार नहीं मान सकते फ़िर भी जो सत्ता में है या होगा वो ही गंगा को जीवन दान दे सकता है । दुश्मन की ताकत वो कानून है जिसका इस्तेमाल कर वे नदियों को बांध रहे है ,विभाजित आवर प्रदूषित कर रहे है और नदियों को मार रहे है। दो तरह के कानून है। पहला कानून जो नदियों के हित में है जिसे सरकार लागू नहीं करती। दूसरे वे कानून जिसकी आड में वे नदियों को मारते है।
दुश्मन की ताकत का अनुमान होने के साथ यह भी पता चल गया की नहरे वोट देती है गंगा वोट नहीं देती| जिस दिन सरकारों को यह पता चल जाय की गंगा वोट देती है तो उसकी हालत बदल जाएगी |यही वह जगह है जहाँ हमें दूशमन की ताकत के बरव्बर गंगा की ताकत को लाना पड़ेगा| जब दबाव की राजनीति से ऊपर के लोग गंगा का पानी ले लेते है तो गंगा को हासिल करने के लिए वह ताकत हासिल करनी पड़ेगी|
जिस तरह पिछले दो साल में मानसून का रवैया बदला है उसे देखते हुए लगता है की गंगा की जंग का समय आ गया है |
दो ही विकल्प है।
एक या तो गंगा घाटी नष्ट हो जाय या दुनिया का नायक बन जाय। अगर हम जन दबाव बनाकर सरकार की इच्छा शक्ति को जगा दे तो गंगा की जंग जीत सकते है और बता सकते है कि जब दुनिया में अंधेरा था रोशनी गंगा के ताट आई थी।
हम कह सकते है
गंगा को जगाओ
देश को बचाओ
-नीलय जी उपाध्याय
{गंगा यात्री , वरिष्ठ कवि , आलोचक व समाज सेवी}
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