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गोलेन्द्र पटेल की 40 कविताएँ :-
1.
पुदीना की पहचान
•••••••••••••••••••
दुख की दुपहरिया में
मुर्झाया मोथा देख रहा है
मेंड़ की ओर
मकोय पककर गिर रही है
नीचे
(जैसे थककर गिर रहे हैं लोग
तपती सड़क पर...)
और
हाँ,यही सच है कि पानी बिन
ककड़ियों की कलियाँ सूख रही हैं
कोहड़ों का फूल झर रहा है
गाजर गा रही है गम के गीत
भिंड़ी भूल रही है
भंटा के भय से
मिर्च से सीखा हुआ मंत्र
मूली सुन रही है मिट्टी का गान
बाड़े में बोड़े की बात न पूछो
तेज़ हवा से टूटा डम्फल
ताड़ ने छेड़ा खड़खड़ाहट-का तान
ध्यान से देख रही है दूब
झमड़े पर झूल रही हैं अनेक सब्जियाँ
(जैसे - कुनरू , करैला, नेनुआ, केदुआ, सतपुतिया, सेम , लौकी...)
पास में पालक-पथरी-चरी-चौराई चुप हैं
कोमल पत्तियों पर प्यासे बैठे पतंगें कह रहे हैं
इस कोरोना काल में
पुदीने की पहचान करना कितना कठिन हो गया है
आह! आज धनिया खोटते-खोटते
खोट लिया मैंने खुद का दुख!
(©गोलेन्द्र पटेल
25-04-2021)
2.
घिरनी
•••••••
फोन पर शहर की काकी ने कहा है
कल से कल में पानी नहीं आ रहा है उनके यहाँ
अम्माँ! आँखों का पानी सूख गया है
भरकुंडी में है कीचड़
खाली बाल्टी रो रही है
जगत पर असहाय पड़ी डोरी क्या करे?
आह! जनता की तरह मौन है घिरनी
और तुम हँस रही हो।
3.
गुढ़ी
•••••
लौनी गेहूँ का हो या धान का
बोझा बाँधने के लिए - गुढ़ी
बूढ़ी ही पुरवाती है
बहू बाँकी से ऐंठती है पुआल
और पीड़ा उसकी कलाई !
4.
थ्रेसर
••••••
थ्रेसर में कटा मजदूर का दायाँ हाथ
देखकर
ट्रैक्टर का मालिक मौन है
और अन्यात्मा दुखी
उसके साथियों की संवेदना समझा रही है
किसान को
कि रक्त तो भूसा सोख गया है
किंतु गेहूँ में हड्डियों के बुरादे और माँस के लोथड़े
साफ दिखाई दे रहे हैं
कराहता हुआ मन कुछ कहे
तो बुरा मत मानना
बातों के बोझ से दबा दिमाग
बोलता है / और बोल रहा है
न तर्क , न तत्थ
सिर्फ भावना है
दो के संवादों के बीच का सेतु
सत्य के सागर में
नौकाविहार करना कठिन है
किंतु हम कर रहे हैं
थ्रेसर पर पुनः चढ़ कर -
बुजुर्ग कहते हैं
कि दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा होता है
तो फिर कुछ लोग रोटी से खेलते क्यों हैं
क्या उनके नाम भी रोटी पर लिखे होते हैं
जो हलक में उतरने से पहले ही छिन लेते हैं
खेलने के लिए
बताओ न दिल्ली के दादा
गेहूँ की कटाई कब दोगे?
5.
ठेले पर ठोकरें
•••••••••••••••••
तीसी चना सरसों रहर आदि काटते वक्त
उनके डंठल के ठूँठ चुभ जाते हैं पाँव में
फसलें जब जाती हैं मंडी
तब अनगिनत असहनीय ठोकरें लगती हैं
एक किसान को - उसकी उम्मीदों के छाँव में
उसकी आँखों के सामने ठेले पर ठोकरें बिकने लगती हैं -
घाव के भाव
और उसके आँसुओं के मूल्य तय करती है
उस बाजार की बोली
खेत की खूँटियाँ कह रही हैं
उसके घाव की जननी वे नहीं हैं
वे सड़कें हैं जिससे वह गया है उस मंडी !
6.
ईर्ष्या की खेती
••••••••••••••••
मिट्टी के मिठास को सोख
जिद के ज़मीन पर
उगी है
इच्छाओं के ईख
खेत में
चुपचाप चेफा छिल रही है
चरित्र
और चुह रही है
ईर्ष्या
छिलके पर
मक्खियाँ भिनभिना रही हैं
और द्वेष देख रहा है
मचान से दूर
बहुत दूर
चरती हुई निंदा की नीलगाय !
7.
किसान है क्रोध
•••••••••••••••••
निंदा की नज़र
तेज है
इच्छा के विरुद्ध भिनभिना रही हैं
बाज़ार की मक्खियाँ
अभिमान की आवाज़ है
एक दिन स्पर्द्धा के साथ
चरित्र चखती है
इमली और इमरती का स्वाद
द्वेष के दुकान पर
और घृणा के घड़े से पीती है पानी
गर्व के गिलास में
ईर्ष्या अपने
इब्न के लिए लेकर खड़ी है
राजनीति का रस
प्रतिद्वन्द्विता के पथ पर
कुढ़न की खेती का
किसान है क्रोध !
8.
"जोंक"
-----------
रोपनी जब करते हैं कर्षित किसान ;
तब रक्त चूसते हैं जोंक!
चूहे फसल नहीं चरते
फसल चरते हैं
साँड और नीलगाय.....
चूहे तो बस संग्रह करते हैं
गहरे गोदामीय बिल में!
टिड्डे पत्तियों के साथ
पुरुषार्थ को चाट जाते हैं
आपस में युद्ध कर
काले कौए मक्का बाजरा बांट खाते हैं!
प्यासी धूप
पसीना पीती है खेत में
जोंक की भाँति!
अंत में अक्सर ही
कर्ज के कच्चे खट्टे कायफल दिख जाते हैं
सिवान के हरे पेड़ पर लटके हुए!
इसे ही कभी कभी ढोता है एक किसान
सड़क से संसद तक की अपनी उड़ान में!
9.
उम्मीद की उपज
•••••••••••••••••
उठो वत्स!
भोर से ही
जिंदगी का बोझ ढोना
किसान होने की पहली शर्त है
धान उगा
प्राण उगा
मुस्कान उगी
पहचान उगी
और उग रही
उम्मीद की किरण
सुबह सुबह
हमारे छोटे हो रहे
खेत से….!
10.
उर्वी की ऊर्जा
••••••••••••••
उम्मीद का उत्सव है
उक्ति-युक्ति उछल-कूद रही है
उपज के ऊपर
उर है उर्वर
घास के पास बैठी ऊढ़ा उठ कर
ऊन बुन रही है
उमंग चुह रही है ऊख
ओस बटोर रही है उषा
उल्का गिरती है
उत्तर में
अंदर से बाहर आता है अक्षर
ऊसर में
स्वर उगाने
उद्भावना उड़ती है हवा में
उर्वी की ऊर्जा
उपेक्षित की भरती है उदर
उद्देश्य है साफ
ऊष्मा देती है उपहार में उजाला
अंधेरे से है उम्मीद।।
11.
ऊख
•••••••
(१)
प्रजा को
प्रजातंत्र की मशीन में पेरने से
रस नहीं रक्त निकलता है साहब
रस तो
हड्डियों को तोड़ने
नसों को निचोड़ने से
प्राप्त होता है
(२)
बार बार कई बार
बंजर को जोतने-कोड़ने से
ज़मीन हो जाती है उर्वर
मिट्टी में धँसी जड़ें
श्रम की गंध सोखती हैं
खेत में
उम्मीदें उपजाती हैं ऊख
(३)
कोल्हू के बैल होते हैं जब कर्षित किसान
तब खाँड़ खाती है दुनिया
और आपके दोनों हाथों में होता है गुड़!
12.
सावधान
-----------------------------
हे कृषक!
तुम्हारे केंचुओं को
काट रहे हैं - "केकड़े"
सावधान!
ग्रामीण योजनाओं के "गोजरे"
चिपक रहे हैं -
गाँधी के 'अंतिम गले'
सावधान!
विकास के "बिच्छुएँ"
डंक मार रहे हैं - 'पैरों तले'
सावधान!
श्रमिक!
विश्राम के बिस्तर पर मत सोना
डस रहे हैं - "साँप"
सावधान!
हे कृषका!
सुख की छाती पर
गिर रही हैं - "छिपकलियाँ"
सावधान!
श्रम के रस
चूस रहे हैं - "भौंरें"
सावधान!
फिलहाल बदलाव में
बदल रहे हैं - "गिरगिट नेतागण"
सावधान!
13.
किसान की गुलेल
•••••••••••••••••••
गुलेल है
गाँव की गांडीव
चीख है
शब्दभेदी गोली
लक्ष्य है
दूर दिल्ली के वृक्ष पर!
बाण पकड़ लेता है बाज़
पर विषबोली नहीं
गुरु
गरुड़ भी मरेंगे
देख लेना
एक दिन
राजनीति के रक्त से बुझेगी
ग्रामीण गांडीव की
प्यास!
14.
*सफ़र*
सरसराहट संसद तक बिन विश्राम सफ़र करेगी----------------------------------------------------------
तिर्रियाँ पकड़ रही हैं
गाँव की कच्ची उम्र
तितलियों के पीछे दौड़ रही है
पकड़ने की इच्छा
अबोध बच्चियों का!
बच्चें काँचे खेल रहे हैं
सामने वृद्ध नीम के डाल पर बैठी है
मायूसी और मौन
मादा नीलकंठ बहुत दिन बाद दिखी है
दो रोज़ पहले मैना दिखी थी इसी डाल पर उदास
और इसी डाल पर अक्सर बैठती हैं चुप्पी चिड़ियाँ!
कोयल कूक रही है
शांत पत्तियाँ सुन रही हैं
सुबह का सरसराहट व शाम का चहचहाहट चीख हैं
क्रमशः हवा और पाखी का
चहचहाहट चार कोस तक जाएगी
फिर टकराएगी चट्टानों और पर्वतों से
फिर जाएगी ; चौराहों पर कुछ क्षण रुक
चलती चली जाएगी सड़क धर
सरसराहट संसद तक बिन विश्राम किए!
15.
मेरे मुल्क की मीडिया
•••••••••••••••••••••
बिच्छू के बिल में
नेवला और सर्प की सलाह पर
चूहों के केस की सुनवाई कर रहे हैं-
गोहटा!
गिरगिट और गोजर सभा के सम्मानित सदस्य हैं
काने कुत्ते अंगरक्षक हैं
बहरी बिल्लियाँ बिल के बाहर बंदूक लेकर खड़ी हैं
टिड्डे पिला रहे हैं चाय-पानी
गुप्तचर कौएं कुछ कह रहे हैं
साँड़ समर्थन में सिर हिला रहे हैं
नीलगाय नृत्य कर रही हैं
छिपकलियाँ सुन रही हैं संवाद-
सेनापति सर्प की
मंत्री नेवला की
राजा गोहटा की....
अंत में केंचुआ किसान को देता है श्रधांजलि
खेत में
और मुर्गा मौन हो जाता है
जिसे प्रजातंत्र कहता है मेरा प्यारा पुत्र
मेरे मुल्क की मीडिया!
16.
कविता की जमीन
•••••••••••••••••••
कविता के लिए
अज्ञेय आकाश से शब्द उठाते हैं
केदारनाथ धूल से
श्रीप्रकाश शुक्ल रेत से
पहला - निर्वात है
कह नहीं सकता
ताकना तुम
तर्क के तह में सत्य दिखेगा
दूसरी - गुलाब है
गंध आ रही है
नाक में
तीसरी - नदी है
जिसमें एक नाव है
जो औंधे मुंह लेटी पड़ी है !
17.
देह विमर्श--------------
जब
स्त्री ढोती है
गर्भ में सृष्टि
तब
परिवार का पुरुषत्व
उसे श्रद्धा के पलकों पर
धर
धरती का सारा सुख देना चाहता है
घर ;
एक कविता
जो बंजर जमीन और सूखी नदी का है
समय की समीक्षा-- 'शरीर-विमर्श'
सतीत्व के संकेत
सत्य को भूल
उसे बाँझ की संज्ञा दी।("कवि के भीतर स्त्री" से)
18.
चिहुँकती चिट्ठी
•••••••••••••••••
बर्फ़ का कोहरिया साड़ी
ठंड का देह ढंक
लहरा रही है लहरों-सी
स्मृतियों के डार पर
हिमालय की हवा
नदी में चलती नाव का घाव
सहलाती हुई
होंठ चूमती है चुपचाप
क्षितिज
वासना के वैश्विक वृक्ष पर
वसंत का वस्त्र
हटाता हुआ देखता है
बात बात में
चेतन से निकलती है
चेतना की भाप
पत्तियाँ गिरती हैं नीचे
रूह काँपने लगती है
खड़खड़ाहट खत रचती है
सूर्योदयी सरसराहट के नाम
समुद्री तट पर
एक सफेद चिड़िया उड़ान भरी है
संसद की ओर
गिद्ध-चील ऊपर ही
छिनना चाहते हैं
खून का खत
मंत्री बाज का कहना है
गरुड़ का आदेश आकाश में
विष्णु का आदेश है
आकाशीय प्रजा सह रही है
शिकारी पक्षियों का अत्याचार
चिड़िया का गला काट दिया राजा
रक्त के छींटे गिर रहे हैं
रेगिस्तानी धरा पर
अन्य खुश हैं
विष्णु के आदेश सुन कर
मौसम कोई भी हो
कमजोर....
सदैव कराहते हैं
कर्ज के चोट से
इससे मुक्ति का एक ही उपाय है
अपने एक वोट से
बदल दो लोकतंत्र का राजा
शिक्षित शिक्षा से
शर्मनाक व्यवस्था
पर वास्तव में
आकाशीय सत्ता तानाशाही सत्ता है
इसमें वोट और नोट का संबंध धरती-सा नहीं है
चिट्ठी चिहुँक रही है
चहचहाहट के स्वर में सुबह सुबह
मैं क्या करूँ?
19.
मुसहरिन माँ
•••••••••••••••
धूप में सूप से
धूल फटकारती मुसहरिन माँ को देखते
महसूस किया है भूख की भयानक पीड़ा
और सूँघा मूसकइल मिट्टी में गेहूँ की गंध
जिसमें जिंदगी का स्वाद है
चूहा बड़ी मशक्कत से चुराया है
(जिसे चुराने के चक्कर में अनेक चूहों को खाना पड़ा जहर)
अपने और अपनों के लिए
आह! न उसका गेह रहा न गेहूँ
अब उसके भूख का क्या होगा?
उस माँ का आँसू पूछ रहा है स्वात्मा से
यह मैंने क्या किया?
मैं कितना निष्ठुर हूँ
दूसरे के भूखे बच्चों का अन्न खा रही हूँ
और खिला रही हूँ अपने चारों बच्चियों को
सर पर सूर्य खड़ा है
सामने कंकाल पड़ा है
उन चूहों का
जो विष युक्त स्वाद चखे हैं
बिल के बाहर
अपने बच्चों से पहले
आज मेरी बारी है साहब!
20.
गड़ेरिया
•••••••••
१)
एक गड़ेरिये के
इशारे पर
खेत की फ़सलें
चर रही हैं
भेड़ें
भेड़ों के साथ
मेंड़ पर
वह भयभीत है
पर उसकी आँखें खुली ताक रही हैं
दूर
बहुत दूर
दिल्ली की ओर
२)
घर पर बैठे
खेतिहर के मन में
एक ही प्रश्न है
इस बार क्या होगा?
हर वर्ष
मेरी मचान उड़ जाती है
आँधियों में
बिजूकों का पता नहीं चलता
और
मेरे हिस्से का हर्ष
नहीं रहता
मेरे हृदय में
क्या
इसलिए कि मैं हलधर हूँ
३)
भेड़ हाँकना आसान नहीं है
हलधर
हीरे हिर्य होरना
बाँ..बाँ..बायें...दायें
चिल्लाते क्यों हो
तुम्हारे नाधे
बैलें
समझदार हैं
४)
मेरी भेड़ें भूल जाती हैं
अपनी राह
मैं हाँक रहा हूँ
सही दिशा में
मुझे चलने दो
गुरु
मैं गड़ेरिया हूँ
भारत का !
21.
लकड़हारिन
(बचपन से बुढ़ापे तक बाँस)
••••••••••••••••••••••••••••••
तवा तटस्थ है चूल्हा उदास
पटरियों पर बिखर गया है भात
कूड़ादान में रोती है रोटी
भूख नोचती है आँत
पेट ताक रहा है गैर का पैर
खैर जनतंत्र के जंगल में
एक लड़की बिन रही है लकड़ी
जहाँ अक्सर भूखे होते हैं
हिंसक और खूँखार जानवर
यहाँ तक कि राष्ट्रीय पशु बाघ भी
हवा तेज चलती है
पत्तियाँ गिरती हैं नीचे
जिसमें छुपे होते हैं साँप बिच्छू गोजर
जरा सी खड़खड़ाहट से काँप जाती है रूह
हाथ से जब जब उठाती है वह लड़की लकड़ी
मैं डर जाता हूँ...!
22.
श्रम का स्वाद
••••••••••••••
गाँव से शहर के गोदाम में गेहूँ?
गरीबों के पक्ष में बोलने वाला गेहूँ
एक दिन गोदाम से कहा
ऐसा क्यों होता है
कि अक्सर अकेले में अनाज
सम्पन्न से पूछता है
जो तुम खा रहे हो
क्या तुम्हें पता है
कि वह किस जमीन का उपज है
उसमें किसके श्रम की स्वाद है
इतनी ख़ुशबू कहाँ से आई?
तुम हो कि
ठूँसे जा रहे हो रोटी
निःशब्द!
23.
मूर्तिकारिन
•••••••••••••
राजमंदिरों के महात्माओं
मौन मूर्तिकार की स्त्री हूँ
समय की छेनी-हथौड़ी से
स्वयं को गढ़ रही हूँ
चुप्पी तोड़ रही है चिंगारी!
सूरज को लगा है गरहन
लालटेनों के तेल खत्म हो गए हैं
चारो ओर अंधेरा है
कहर रहे हैं हर शहर
समुद्र की तूफानी हवा आ गई है गाँव
दीये बुझ रहे हैं तेजी से
मणि निगल रहे हैं साँप
और आम चीख चली -
दिल्ली!
24.
👁️आँख👁️
••••••••••••••
1.
सिर्फ और सिर्फ देखने के लिए नहीं होती है आँख
फिर भी देखो तो ऐसे जैसे देखता है कोई रचनाकार
2.
दृष्टि होती है तो उसकी अपनी दुनिया भी होती है
जब भी दिखते हैं तारे दिन में, वह गुनगुनाती है आशा-गीत
3.
दोपहरी में रेगिस्तानी राहों पर दौड़ती हैं प्यासी नजरें
पुरवाई पछुआ से पूछती है, ऐसा क्यों?
4.
धूल-धक्कड़ के बवंडर में बचानी है आँख
वक्त पर धूपिया चश्मा लेना अच्छा होगा
यही कहेगी हर अनुभव भरी, पकी उम्र
5.
आम आँखों की तरह नहीं होती है दिल्ली की आँख
वह बिल्ली की तरह होती है हर आँख का रास्ता काटती
6.
अलग-अलग आँखों के लिए अलग-अलग
परिभाषाएँ हैं देखने की क्रिया की
कभी आँखें नीचे होती हैं, कभी ऊपर
कभी सफेद होती हैं तो कभी लाल !
25.
गोड़िन
•••••••
कुओं की भरकुंडी प्यास रही हैं
चोर खोल ले जा रहे हैं चपाकल
नलकूपों को नगद चाहिए पैसे ;
गोड़िन का गोड़ भारी है
गला सूख रहा है!
निःशुल्क है नदी का पानी
भरसाँय झोंक रही है भूख
आग पी रही हैं आँखें
कउरनी कउर रही है कविता ;
जो दाने ममत्व पाना चाहते हैं
उछल उछल कर जा रहे हैं आँचल में
और जो उचक उचक कर देख रहे हैं माथे पर पसीना
वे गिर रहे हैं कर्ज़ की कड़ाही में
मेरा मक्का मटर भून गया
चना चावल बाकी है!
कोयरी टोला में कोई टेघर गया है
अर्थी का पाथेय -
लाई भून रही हैं
जिसे छिड़कने हैं अंतिम सफ़र में
भूख के विरुद्ध!
सभी दाना भुनाने वाले जा रहे हैं कोयरीटोला
आदमी जवान है
डेढ़ बरस और तीन बरस की बच्चियाँ देह से लिपट कर रो रही हैं
चीख रही हैं चिल्ला रही हैं कह रही हैं उठा पापा जागा पापा.....
उसकी औरत को एक वर्ष पहले ही डँस लिया था साँप
हे देवी-देवताओं!
देहात की देहांत दृश्य देख दिल दहल गया
आह विधवा व्यथा!
गोड़ भी छोड़ गया है गर्भ में प्यार की निशानी
गोड़िन के नयन से निकली है गंगा
प्यासी पथराई उम्मीदों के विरुद्ध!
26.
जवानी का जंग
••••••••••••••••
बुरे समय में
जिंदगी का कोई पृष्ठ खोल कर
उँघते उँघते पढ़ना
स्वप्न में
जागते रहना है
शासक के शान में
सुबह से शाम तक
संसदीय सड़क पर सांत्वना का सूखा सागौन सिंचना
वन में
राजनीति का रोना है
अंधेरे में
जुगनूँ की देह ढोती है रौशनी
जानने और पहचानने के बीच बँधी रस्सी पर
नयन की नायिका नींद का नृत्य करना
नाटक के नाव का
नदी से
किनारे लगना है
फोकस में
घड़ी की सूई सुख-दुख पर जाती है बारबार
जिद्दी जीत जाता है
रण में
जवानी का जंग
समस्या के सरहद पर खड़े सिपाही
समर में
लड़ना चाहते हैं
पर सेनापति के आदेश पर देखते रहते हैं
सफर में
उम्र का उतार-चढ़ाव
दूरबीन वही है
दृश्य बदल रहा है
किले की काई संकेत दे रही है
कि शहंशाह के कुल का पतन निश्चित है
दीवारे ढहेंगी
दरबार खाली करो
दिल्ली दूह रही है
बिसुकी गाय
दोपहर में
प्रजा का देवता श्रीकृष्ण नाराज हैं
कवि के भाँति!
27.
कोहारिन काकी की कला
•••••••••••••••••••••••••••
लटक रहा है
मानस के सिकहर पर
मक्खन से भरा
मथुरा का मार्मिक मटका
इस पर उत्कीर्ण है
कोहारिन काकी की कला।
गंध सूँघ रहा है बम-बिलार
बिल्ली थक कर बैठी है नीचे
मक्खियाँ भिनभिना रही हैं
चूहे चढ़ कर चाट रहे हैं मक्खन
अंततः बम-बिलार फोड़ दिया घर का घड़ा।
पूर्वजों ने ठीक ही कहा है
कला का महत्व मनुष्य जानते हैं
जानवर नहीं।
जानवर तो अपना ही जोतते रहते हैं
काकी ठीक कहती हैं
भूख कला को जन्म देती है।
कुछ भी हो
बम-बिलार बलवान के साथ साथ चतुर भी है
क्योंकि वह मक्खन और चूहे को एकसाथ खा रहा है।
28.
सब ठीक होगा
•••••••••••••••••
धैर्य अस्वस्थ है
रिश्तों की रस्सी से बाँधी जा रही है राय
दुविधा दूर हुई
कठिन काल में कवि का कथन कृपा है
सब ठीक होगा
अशेष शुभकामनाएं
प्रेम ,स्नेह व सहानुभूति सक्रिय हैं
जीवन की पाठशाला में
बुरे दिन व्यर्थ नहीं हुए
कोठरी में कैद कोविद ने दिया
अंधेरे में गाने के लिए रौशनी का गीत
आँधी-तूफ़ान का मौसम है
खुले में दीपक का बुझना तय है
अक्सर ऐसे ही समय में संसदीय सड़क पर
शब्दों के छाते उलट जाते हैं
और छड़ी फिसल जाती है
अचानक आदमी गिर जाता है
वह देखता है जब आँखें खोल कर
तब किले की ओर
बीमारी की बिजली चमक रही होती है
और आश्वासन के आवाज़ कान में सुनाई देती है
गिरा हुआ आदमी खुद खड़ा होता है
और अपनी पूरी ताकत के साथ
शेष सफर के लिए निकल पड़ता है।
29.
नदी बीच मछुआरिन
••••••••••••••••••••••••
जलदेवी की तपस्या से
मछुआरे को मिल गया है मोक्ष
नदी बीच स्थिर है नाव
मछुआरिन फेंकती है जब जाल
तब केकड़े काट देते हैं
मछलियाँ कहती हैं
माता मुझे अभी मुक्ति नहीं चाहिए-
नदी से!
30.
बारिश के मौसम में ओस नहीं आँसू गिरता है
•••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
एक किसान
मूसलाधार बारिश में
बायें हाथ में छाता थामे
दायें में लाठी
मौन जा रहा था
मेंड़ पर
मेंड़ बिछलहर थी!
लड़खड़ाते-सम्भलते...
अंततः गिरते ही देखा एक शब्द
घास पर पड़ा है
उसने उठाया
और पीछे खड़े कवि को दे दिया
कवि ने शब्द लेकर कविता दिया
उसने उस कविता को एक आलोचक को थमा दिया
आलोचक ने उसे कहानी कहकर
पुनः किसान के पास पहुँचा दिया
उसने उस कहानी को एक आचार्य को दिया
आचार्य ने निबंध कहकर वापस लौटा दिया
अंत में उसने उस निबंध को एक नेता को दिया
नेता ने भाषण समझ कर जनता के बीच दिया
जनता रो रही है
किसान समझ गया
यह आकाश से गिरा
पूर्वजों की आँसू है
जो कभी इसी मेंड़ पर भूख से तड़प कर मरे हैं
बारिश के मौसम में ओस नहीं
आँसू गिरता है!
31.
खटकिन
••••••••••••••••••••••••••
बेटी सब्जी बेच रही है
आवारे कुत्ते पड़े हैं पीछे
खटकिन की खोपड़ी पर है
एक टोकरी
जिसमें है -
जातीय जीवन!
गवईं गर्भवती पूछती
खट्टा खाद्य इमली है?
भूख के बगीचे में
खटिक खुरपी से छील रहा है घास
खुला खर्च खुरच रहा है ख़ास-
घर का घाव!
खड़े हैं
चौराहे पर यमराज दूत -
कोरोनापॉजिटव
प्यासा पुत्र ठेला पर रस पेर रहा है
दूसरों के लिए
बहू बतखों को चारा डाल रही है
मुर्गा-मुर्गी कैद हैं
दरबों में!
सूअर सड़क पर घूम रहे हैं
गंदगी से दूर बैठ
पोते खेल रहे हैं खेल
गोटियाँ उछाल रही हैं पोतियाँ
और कवि अचकचा कर देख रहा है चुपचाप
दर्द-दृश्य-दयनीय दशा!
32.
रणभेरी
••••••••••••
गूँज उठी रणभेरी
काशी कब से खड़ी पुकार रही
पत्रकार निज कर में कलम पकड़ो
गंगा की आवाज़ हुई
स्वच्छ रहो और रहने दो
आओ तुम भी स्वच्छता अभियान से जुड़ो न करो देरी
गूँज उठी रणभेरी
घाटवॉक के फक्कड़ प्रेमी
तानाबाना की गाना
कबीर तुलसी रैदास के दोहें
सुनने आना जी आना
घाट पर आना --- माँ गंगा दे रही है टेरी
गूँज उठी रणभेरी
बच्चे बूढ़े जवान
सस्वर गुनगुना रहे हैं गान
उर में उठ रही उमंगें
नदी में छिड़ गई तरंगी-तान
नौका विहार कर रही है आत्मा मेरी
गूँज उठी रणभेरी
सड़कों पर है चहलपहल
रेतों पर है आशा की आकृति
आकाश में उठ रहा है धुआँ
हाथों में हैं प्रसाद प्रेमचंद केदारनाथ की कृति
आज अख़बारों में लग गयी हैं ख़बरों की ढेरी
गूँज उठी रणभेरी
पढ़ो प्रेम से ढ़ाई आखर
सुनो धैर्य से चिड़ियों का चहचहाहट
देखो नदी में डूबा सूरज
रात्रि के आगमन की आहट
पहचान रही है नाविक तेरी पतवार हिलोरें हेरी
गूँज उठी रणभेरी
धीरे धीरे
जिंदगी की नाव पहुँच रही है किनारे
देख रहे हैं चाँद-तारे
तीरे-तीरे
मणिकर्णिका से आया मन देता मंगल-फेरी
गूँज उठी रणभेरी
33.
*"अनुप्रास अलंकार' में : 'म' से 'माँ"*•••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
_______★माँ★_______
मैं मुख मन्थन मधु!
मधुर मंगल मृदुल माँ!
महान महन्त मातृत्व महिमा!
मुख्य मग मार्गदर्शक महान!
मानव मेरी महत्व मान!
मुझसे मोह माया मुक्ति!
मंजिल मजहब मोहब्बत मस्ती
मिलता मनोहर मजेदार ममता!
मनुष्य मानो मूझे महकता!
मर्म महक मीठी मरहम!
माता माई मईया मम!
मन-माँझी महाकाव्य महतारी!
मत मार्मिक मणि मतारी!
महामंत्र मख मठरी माँ!
मिट्टी मतलब मेरी माँ!
मतभेद मिटाती मेरी माँ!
मधुपर्क मधुमय मयुखी मनुजा !
मनोभूमि मसि मार्तंड मुनिजा!
मर्ष महि महेरी माँ!
मंच मंजरी मेरी माँ!
34.
पाँव पुजाई प्रतियोगिता
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कुछ अंड बंड ही सही
पर बात एकदम सही है
कि देवताओं को दिल नहीं होता
वे दिल से कोई निर्णय नहीं करते
उनके दिमाग में केवल और केवल देवता होने का भान है
पाँव पुजाई प्रतियोगिता में
उनका पाँव सबसे पहले जो छुयेगा
उसका सम्मान है
झुंड के बीच उनके मुंड पर
अब वे क्या करें
जिनकी यादत हो गयी है पाँव छूना
जिन्हें संस्कार में सीखाया गया
कि बड़ो का पाँव छूना
उन्हें सम्मान देना है
क्या इन्हें
उपर्युक्त प्रतिभागियों के श्रेणी में रखना अच्छा है?
इन्हें भय है
कि देवता और देखने वाला
इन्हें भी प्रतिभागी न समझ ले
फिर भी यादत से मजबूर पाँव छू लेते हैं
कुछ जो देवता नहीं
पर दिव्यात्मा तो जरूर हैं
क्योंकि इन्हें भी भय है
कि कहीं इन्हें उन देवताओं के वर्ग में न रखा जाए
ये तो रहें मनुष्यता के मार्गदर्शक
जिनसे अक्सर मुलाकाते होती रहती है
अब आईये उनके पास
जिन्हें पाँव पुजाई से कुछ फर्क नहीं पड़ता
कि पाँव कौन छू रहा है
बस बस बस ब...स
खुश रहो! मस्त रहो! स्वस्थ रहो!...
यही संदेश है
कि मनुष्य को मनुष्य की तरह जीना चाहिए
न देवता , न दिव्यात्मा
हम मनुष्य हैं-
सामान्य मनुष्य!
35.
दुख में दोस्त
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रेणु राजस्थान से आई हो, तो देखो
प्रकृति में दोस्ती का दोहन कैसे कर रहे हैं नये दोस्त
चलो गाँव की ओर
मोथे से दूब की दोस्ती देखकर
कुश दुखी है
पथरी प्रसव पीड़ा में
पतलो से कह रही है
पालक प्रसन्न है
धनिये के पास हरी क्यारी में
पानी है
परंतु प्यासा आलू रोता रहा रात भर
मेथी के पत्ते पर टिका है
भंटा का टपका हुआ आँसू
मूली गाजर चुकंदर प्याज एक-दूसरे से हैं नाराज
फिर भी सलाद में नफरत भूल जाते हैं साथी
लेहसुन को लड़ते देख
लौकी हँस रही है नीम के डाली पर लटक कर
नेनुआ केदुआ तरोई सतपुतिया करैला एवं अन्य
झमड़े पर फहरा रहे हैं विजय का झंडा
कुनरू की करुण कहानी सुन रही है परोरा
सूरन सोया है मेंड़ के किनारे
चौराई-चरी चुप हैं
फलों के पेड़ कुछ दूरी पर क्या बतिया रहे हैं
सुनना चाहता है सूरजमुखी
धूप में धूल से नहाई लू
ककड़ियों के कलियों पर कुलबुला रही है
फूट फूट फूटकर रो रहा है खेत में
मेरे दोस्त किसान की तरह!..
36.
नोनियाँ
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मौसम लू का है
चौराई-पालक क्यारी में हैं नहीं
फिर माँ किस घास का बना है - साग
चिलचिलाती धूप में
करती रही दिनभर निराई-गुड़ाई -
घाम में काम
पेट की चिंता चेहरे पर है
चाम जला रही है चूल्हे की आग
बताओ न माँ
साग किस घास की है?
श्रम का नमकीन स्वाद है इसमें
भूखी आत्मा तृप्त हुई
नाम है - नोनियाँ !
37.
भट्टे पर भूखी भूषा
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(भट्टे पर भूखे पेट काम करने वाली :
भूषा के बहाने पियक्कड़ पुरुषों से परेशान परिवार की यथार्थ)
आँसुओं में गूँथी हुई अपनी आशाओं के आटें
तकलीफ के तवे पर
रो रो कर
रोटी के सदृश
पो पो कर
नशेबाज पति के पत्तल पर रखती है
भट्टे पर ईंट पाथने वाली
भूषा
नाम की एक असहाय औरत ;
माथे पर श्रम की सूक्ति है
चेहरे पर थकान
आँखों में भय है
और
उदर में दौड़ रहा है ऊँट
बाहर बच्चें चख रहे हैं
मिट्टी का स्वाद
भीतर सारी रोटियाँ
उनके पिता के पेट में पच रही हैं
लौटते वक्त
उसके थरिया में देखा दुख की दरिया है
जिसे वह पी रही है चुपचाप
और मेरे मुख से निकला निम्न वाक्य
कितने पीड़ादायक होते हैं
पियक्कड़ पति-पुत्र-पिता
परिवार के लिए !
38.
भों भों से भय
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ट्रेन के आगेबकरी की तरह
मातृभाषा में
काहें
मेमिया
रहे हो
हे बैलों
तुम्हारा बें-बाँय चिल्लाना
दिन-पर-दिन
सड़क के सरकारी
सीटीयों में
गुम होता जा रहा है
तुमसे अच्छे
तो कुत्ते हैं
जिनके भौंकते पर
मैं क्या
वे भी डरते हैं
39.
माँ को मूर्खता का पाठ पढ़ता बचपन
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जन मूर्ख-दिवस पर रो रहा है मेरा मन
माँ को मूर्खता का पाठ पढ़ता बचपन
लौट रहा है स्मृतियों की गठरी लेकर
हृदय के किसी कोने में विश्राम के लिए
लंगोटिया यारों के संग
गुल्ली-डंडा होला-पाती बुल्ली-कऽ-बुल्ला
तरह-तरह के खुरपाती खेलों का खुल्लम-खुल्ला
तड़क-भड़क ताजी तरंग
गाजर-गुजरिया लुका-छिपी डाकू-पुलिस
गोली-सोली टीवी-उवी खो-खो सो-खो किस-
किस को याद करूँ सब में सामिल है
एक ही बहाना - झूठ
माई मैदान जात हई
जैसे हम माँ को मूर्ख बनाते थे बचपन में
आज कोई हमें बना रहा है
हम क्या करें
माँ बन जायें
या फिर पिता की तरह उसे समझायें
ना समझे तो कान भी ऐंठें
और घुड़कें-सुड़कें!
40.
मैं माली नहीं , मजदूर हूँ !
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सामने सूरजमुखी
देख रहा है
सूरज को
गुड़हल पर बैठी गौरया
सूँघ रही है
गेंदे का गंध
चमेली पर चुपचाप
चढ़ रही हैं
चींटियाँ
और
आम से
चिखुरी उड़ाना चाहती है
चेतना की चिड़िया
दिल्ली की ओर
चहचहाहट गूँज रही है
हवा में
मैं देख रहा हूँ
आजकल
साहित्य के सरोवर में
खिला है
क्रोध का कमल
और
कविता के क्यारी में
गुस्से का गुलाब
दोनों में से
उनके
स्वागत के लिए
किसे चुनूँ
मैं माली नहीं
मजदूर हूँ...!
©गोलेन्द्र पटेल
◆संक्षिप्त परिचय◆
नाम: गोलेन्द्र पटेल
शिक्षा: काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्ययनरत(हिंदी आनर्स : स्नातक अंतिम वर्ष का छात्र)
जन्मतिथि: 05 अगस्त ,1999 ई.
माता: श्रीमती उत्तम देवी
पिता: श्री नंदलाल
जन्भूमि: खजूरगाँव, साहुपुरी, चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत 221009
कर्मभूमि: वाराणसी, उत्तर प्रदेश, भारत
शौक/पेशा: लेखन/कवि,लेखक व दिव्यांगसेवी (दृष्टिबाधित विद्यार्थियों का सेवक)
भाष: हिंदी
विविध: रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होती रहती हैं और कविताओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद भी । फिलहाल गोलेन्द्र की कविताओं पर कुछ सुप्रसिद्ध वरिष्ठ एवं युवा आलोचकों का लेख जारी है।
मोबाइल नंबर: 8429249326
ईमेल: corojivi@gmail.com
जन्म स्थान : ग्राम-खजूरगाँव , पोस्ट-साहुपुरी , जिला-चंदौली , उत्तर प्रदेश , भारत , 221009,शिक्षा : काशी हिंदू विश्वविद्यालय का छात्र(हिंदी आनर्स),माता-उत्तम देवी ,पिता-नंदलाल , मो.नं. : 8429249326,ईमेल : corojivi@gmail.com
गोलेन्द्र पटेल की फोटोज :-
कवि : गोलेन्द्र पटेल(काशी हिंदू विश्वविद्यालय का छात्र)
माता : उत्तम देवी
पिता : नन्दलाल
भाषा : हिंदी
विधा : कविता व कहानी
पता :-
ग्राम - खजूरगाँव
पोस्ट - साहुपुरी
जिला - चंदौली
राज्य - उत्तर प्रदेश , भारत 221009
संपर्क सूत्र :-
--Golendra Patel
BHU , Varanasi , Uttar Pradesh , India
©©©©©©■कॉपीराइट : सर्वाधिक सुरक्षित■©©©©©©
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दृष्टिबाधित विद्यार्थी साथियों का यूट्यूब चैनल लिंक :-
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