Thursday, 14 August 2025

स्वतंत्रता दिवस 2025 – ओजस्वी भाषण

 स्वतंत्रता दिवस 2025 – ओजस्वी भाषण

नमस्ते, 

प्रिय सम्मानित मंच,
प्रिय गुरुजन, 
प्रिय साथियों,
मेरे प्यारे देशवासियों!  


आज हम 15 अगस्त 2025 को, स्वतंत्र भारत की 79वीं वर्षगाँठ पर, तिरंगे की शान में सिर झुकाकर, हृदय गर्व से भरकर खड़े हैं। यह दिन केवल उत्सव नहीं, बल्कि हमारे शहीदों की कुर्बानियों, संघर्षों और बलिदानों का पावन स्मरण है।

हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने लहू से वह इतिहास लिखा, जिसमें गुलामी की जंजीरों को तोड़कर आत्मसम्मान, समानता और न्याय का नया सवेरा रचा गया। यह आज़ादी हमें यूँ ही नहीं मिली—इसके पीछे हजारों क्रांतिकारियों का बलिदान और अनगिनत सपनों की आहुति है।

आज का भारत केवल अतीत पर गर्व करने वाला नहीं, बल्कि भविष्य को संवारने का संकल्प लेने वाला भारत है। हमें जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र की सीमाओं को तोड़कर एक ऐसे भारत का निर्माण करना है, जो विज्ञान, शिक्षा, समानता और मानवीय मूल्यों में विश्व का मार्गदर्शन करे। आज का भारत एक नई ऊर्जा, नई आशा और नई दिशा के साथ विश्व मंच पर अग्रसर है। हमारी संस्कृति, हमारी एकता और हमारी प्रगति विश्व के लिए प्रेरणा है। 

याद रखिए—स्वतंत्रता का अर्थ केवल शासन से मुक्ति नहीं, बल्कि हर नागरिक के जीवन में भय और भेदभाव से आज़ादी है। जब तक देश का अंतिम व्यक्ति भी सम्मान और अवसर में बराबर नहीं होगा, हमारा स्वतंत्रता संग्राम अधूरा है।

यह हमारा भारत है—विविधता में एकता का प्रतीक, प्रगति का ध्वजवाहक और विश्व शांति का दूत। तो आइए, एकजुट होकर, अपने देश को नई ऊंचाइयों तक ले जाएं। 

आइए, आज हम शपथ लें—हम अपने देश को भ्रष्टाचार, अन्याय, अज्ञानता और असमानता से मुक्त करेंगे; हम केवल उपभोक्ता नहीं, बल्कि निर्माता बनेंगे; हम केवल सपने नहीं देखेंगे, बल्कि उन्हें साकार करेंगे।

हम संकल्प लें कि 2025 में हम एक ऐसे भारत का निर्माण करेंगे, जहां हर नागरिक को शिक्षा, स्वास्थ्य और अवसर की समानता मिले। जहां हमारी युवा शक्ति नवाचार और प्रगति का नेतृत्व करे। जहां हम पर्यावरण की रक्षा करें और अपनी सांस्कृतिक धरोहर को गर्व से संजोएं। 

अंत में, इतना ही कि 
“हम युवा हैं 
हममें है वायु की उमंग 
कलम रुको मत, 
तुम झुको मत
चलते रहना हमारे संग।”



जय हिन्द!
वन्दे मातरम्!



—गोलेन्द्र पटेल 

Wednesday, 13 August 2025

अहिल्या — जो अब भी जीवित हैं : गोलेन्द्र पटेल

अहिल्या — जो अब भी जीवित हैं


इतिहास ने तुम्हें
रानी, धर्मनिष्ठा, शिवभक्त, लोकमाता कहा।
मैं देखता हूँ —
एक स्त्री,
जो राजसिंहासन को
लोहे की तख़्ती नहीं,
अन्न और आश्रय की थाली बनाकर
प्रजा के सामने रख देती थी।

मैं तुम्हें देखता हूँ
खेत की मेड़ पर खड़ी,
जहाँ दलित और आदिवासी की हथेलियाँ
तुम्हारी नीतियों की तरह खुली थीं —
बिना ताले, बिना पहरे।

तुम मालवा की महारानी नहीं,
मालवा की बेटी थीं —
जो सिंहासन पर बैठकर
सिंहासन तोड़ देतीं,
अगर वह जनता की पीठ पर रखा हो।

तुम्हारा राज्य
सोने का महल नहीं,
मालवा का हर गाँव था —
जहाँ नहरें नसों की तरह बहती थीं
और न्याय
किसी किताब का अध्याय नहीं,
लोगों का रोज़ का साँस लेना था।

तुमने कभी नहीं कहा —
"मैं ब्राह्मण हूँ, मैं क्षत्राणी हूँ"।
तुमने कहा —
"भंगी, भील, गोंड, ग्वाल, दलित, किसान, मज़दूर, व्यापारी
सबके माथे पर समान सूरज उगेगा"।

मालवा की धूप में
तुम्हारे हाथ
नक्शे नहीं खींचते,
खेतों में पानी की नसें बनाते थे।

पति की चिता की आग
तुम्हारे पाँव की ज़ंजीर नहीं बनी —
वह आग
तुम्हारी आँखों में उतरकर
एक नए युग का मशाल बन गई।

हाँ, तुमने मंदिर बनवाए —
पर वे मंदिर
सिर्फ़ पत्थर के नहीं थे,
वे थे हर उस खेत के,
जहाँ भूख पूजा में बदल जाती थी;
हर उस सड़क के,
जहाँ व्यापारी बिना डर के चलते थे;
हर उस पंचायत के,
जहाँ न्याय
जाति के तराज़ू में नहीं तौला जाता था।

तुम्हारी राजनीति का धर्म था —
धर्म को राजनीति से बचाना।
तुम्हारी आस्था का मूल था —
सत्ता को प्रजा के पैरों तले बिछा देना।

तुम्हारा धर्म
मंदिर का घंटा नहीं था —
वह भूखी थाली में रोटी पहुँचाना था।
तुम्हारा राष्ट्रवाद
झंडे का रंग नहीं था —
यह यक़ीन था
कि कोई भूख से न मरे,
कोई जात से न झुके।

तुम जानती थीं —
समानता का अर्थ
कानून लिख देना नहीं,
बल्कि
उस दरवाज़े को खोल देना है
जिसके लिए चाबी का सपना भी नहीं था।

आज,
जब शहर
सीमेंट की कब्रगाह बन रहे हैं,
न्याय
विज्ञापन की पंक्ति है,
सत्ता
जाति और धर्म के बाड़े में
मवेशियों-सी बाँटी जा रही है —
अहिल्या
इतिहास से उतरकर
हमारे कंधे पर हाथ रखती हैं, कहती हैं —
"सिंहासन के पाँव काटो,
हल का फाल तेज़ करो,
कलम को धार दो।"

अहिल्या —
तुम समय से परे हो।
तुम्हारी आवाज़
भीलों के जंगलों में गूँजती है,
दलित बस्तियों में धड़कती है,
किसानों की साँस में बसती है।

तुम रानी नहीं,
तुम वह पंक्ति हो
जिसे हम हर लड़ाई में
झंडे की तरह उठाएँगे।

तुम वह आवाज़ हो
जो ताज को ठुकराती है
और विनय में कहती है —

"मैं वही हूँ,
जिसने मालवा की गद्दी पर बैठकर
उसकी ऊन नोचकर रजाई बुनी थी,
जिसमें हर जात, हर भूख, हर आँसू
सर्दी से बच सके।

मैंने राजा की तरह नहीं,
किसान की तरह सोचा —
ज़मीन पर पानी चाहिए,
पानी पर हक़ चाहिए,
हक़ पर पहरा नहीं,
पहरादार चाहिए
जो भूख को भगा सके।

मुझे मत कहो
केवल मंदिर बनाने वाली महारानी।
मेरे मंदिर
पत्थर के नहीं,
भीलों के हक़ में खड़े जंगल थे,
दलितों की मिली ज़मीन थी,
वे हँसती बच्चियाँ थीं
जिन्हें बेचने की थाली
मैंने उलट दी थी।

हाँ, मैं शिवभक्त थी,
पर मेरा शिव
सत्ता के दरबार में नहीं,
प्यासे खेत में हल चलाते किसान में था,
गोंड, ग्वाल, कुर्मी, कोरी, कुम्हार की हथेली में था
जो मिट्टी को रोटी में बदलते थे।

आज तुम
जाति के नाम पर दीवार खड़ी करते हो,
धर्म के नाम पर खून बहाते हो,
न्याय को नीलामी में बेचते हो —
तो सुनो,
अगर मैं ज़िंदा होती,
संसद के दरवाज़े पर
भीलों की कुल्हाड़ी, दलितों की लाठी
ठोक देती,
ताकि समझ सको —
राजनीति का धर्म
सत्ता का नशा नहीं,
जनता का भरोसा है।

आज तुम्हारी संसद
जाति की बाड़ में घिरी है,
कानून
कॉरपोरेट की मुहर के बिना पास नहीं होते,
मीडिया
सत्ता की गोद में बैठा
सत्य को चुप कराता है।
अगर मैं ज़िंदा होती —
इन तीनों के दरवाज़े पर
भीलों की कुल्हाड़ी,
दलितों की लाठी,
और औरतों की आवाज़
एक साथ बजा देती।

तुमने धर्म को
हथियार बनाया,
मैंने उसे
सिर उठाने का साहस बनाया।
तुमने राजनीति
बाज़ार में बेची,
मैंने उसे
अनाज की तरह
हर घर में बाँटा।

तुम सोने का ताज पहनो,
मैं खेत की धूल माथे पर लगाऊँगी।
तुम घोड़ों की सेना रखो,
मैं औरतों की फौज बनाऊँगी —
जो भूख से बड़ी किसी ताक़त को नहीं मानेगी।

अगर मैं आऊँ,
तुम्हारे क़ानूनों की किताब तोड़कर
गाँव की चौपाल में रख दूँगी,
ताकि न्याय
मुट्ठी भर लोगों की मेज़ से नहीं,
जनता के हाथ से लिखा जाए।

मैं अहिल्या हूँ —
इतिहास में मत ढूँढो।
मैं वहीं हूँ
जहाँ किसान कर्ज़ से मर रहा है,
जहाँ दलित लड़की
स्कूल से लौटते हुए रोकी जाती है,
जहाँ भील
अपनी ज़मीन से बेदख़ल हो रहा है।

याद रखो —
अहिल्या मर नहीं सकती।
मैं हर दलित बस्ती में हूँ
जहाँ पुलिस के बूट की आहट डर बनती है।

तुम सोचते हो
मैं मर चुकी हूँ।
पर सच यह है —
मैं हर हथेली में ज़िंदा हूँ
जो सत्ता से कहती है —
"हम बराबर हैं, और बराबर ही रहेंगे।"

मैं सिंहासन नहीं,
समानता चाहती हूँ।
मेरा धर्म —
भूख मिटाना,
जात की दीवार तोड़ना।

मेरे मंदिर —
दलित की ज़मीन,
किसान का खेत,
भील का जंगल।

जो सत्ता
न्याय बेचती है,
उसकी गद्दी
गली के चौराहे पर
उलट दूँगी।

तुम ताज पहन लो,
मैं औरतों को
हथियार दूँगी —
हक़ का, रोटी का,
बराबरी का।

अहिल्या हूँ मैं —
मर नहीं सकती।
जहाँ भी अन्याय होगा,
वहीं खड़ी मिलूँगी।

(© गोलेन्द्र पटेल / 31-05-2025)

★★★


रचनाकार: गोलेन्द्र पटेल (पूर्व शिक्षार्थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।/बहुजन कवि, जनपक्षधर्मी लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com

Tuesday, 12 August 2025

नांगेली का घोषणापत्र : गोलेन्द्र पटेल (Nangeli Ka Ghoshanapatra : Golendra Patel)

 

नांगेली का घोषणापत्र

केरल के तट से उठी थी एक आग,
नाम था — नांगेली।
उसकी देह पर दो गुलाब नहीं,
दो कर-रसीदें माँगता था साम्राज्य।

इतिहास
सिर्फ़ पत्थरों पर खुदी तारीख़ नहीं होता,
कभी-कभी वह
केले के पत्ते पर रखे
काटे हुए स्तनों से भी लिखा जाता है।

इतिहास ने कहा —
"तुम्हारे स्तन हैं,
तो तुम्हारी कीमत है।"
राजा ने फरमान लिखा,
पुजारी ने उंगलियों से नाप लिया,
और कानून ने कहा —
"ढकना चाहो तो टैक्स दो।"

मूलाक्रम —
यह शब्द सिर्फ़ मलयालम का नहीं,
बल्कि हर भाषा का अभिशाप है,
जहाँ औरत की देह
मंदिर में चढ़ावे,
बाज़ार में माल
और राज्य में कर योग्य संपत्ति बन जाती है।

जिसका हिसाब
राजपुरोहित की उंगलियाँ
स्तनों को टटोल कर करती थीं।
जितना बड़ा आकार,
उतना भारी टैक्स —
मानो
स्तन सिर्फ़
दूध देने का अंग नहीं,
बल्कि जाति की कीमत चुकाने का औज़ार हों।

नांगेली की मौत से
कानून तो टूटा,
पर हथियार नहीं टूटे —
बस नाम बदल गए।
ब्रेस्ट टैक्स गया,
लेकिन ब्रेस्ट ऐड आ गए।
राजा चला गया,
लेकिन ब्रांड-राज आ गया।
आज भी देह बिकती है —
कभी जाति की दरों पर,
कभी बाज़ार की डिस्काउंट सेल में।

इतिहास की क्रांतिधर्मी चीख —
नांगेली,
तुम्हारे स्तन अब भी नापे जा रहे हैं —
मॉडलिंग में,
मूवी में
और उस घर के भीतर
जहाँ पितृसत्ता ने टैक्स हटाकर
छूट की कीमत रख दी है।

लेकिन सुन लो,
तुम्हारी आग बुझी नहीं है।
वो हर औरत के भीतर जल रही है
जो कहती है —
"मेरी देह, मेरा हक़
और तुम्हारा कानून,
तुम्हारा बाज़ार —
दोनों को मैं जला दूँगी।"

मैं नांगेली —
एड़वा जाति की बेटी,
तुम्हारे कानून की कटोरी में
अपने स्तन रख चुकी हूँ।

सुन लो —
मेरी देह किसी राजा का खेत नहीं,
जहाँ फसल नापकर कर लिया जाए।
मेरे स्तन
तुम्हारे टैक्स के लिए नहीं,
मेरी संतान और मेरे सपनों के लिए हैं।

मैंने टैक्स नहीं दिया —
अपना जीवन दे दिया।
और यह सौदा
हर बार दोहराऊँगी,
जब भी कोई कानून
मेरे शरीर की कीमत तय करेगा।

अब मेरी आग
हर बहुजन बेटी के भीतर है।
हम ढकेंगे, हम खोलेंगे,
हम पहनेंगे, हम उतारेंगे —
लेकिन फ़ैसला हमारा होगा।

तुम्हारे कानून,
तुम्हारा धर्म,
तुम्हारा बाज़ार —
सबको चिता में झोंक दूँगी।

मेरी देह मेरी है।
तुम्हारा टैक्स,
तुम्हारा नाप-जोख,
तुम्हारा राज —
सब हराम है।

खून बहता गया,
राजा का कानून
उस खून में डूबता गया।
नांगेली गिर पड़ी,
लेकिन खड़ी रही उसकी आग
उसके पति की आँखों में,
जो उसी चिता में कूद पड़ा —
भारतीय इतिहास में
पहला 'सती' पुरुष बनकर।

नांगेली,
तुम्हारे काटे हुए स्तनों की
गवाही आज भी हवा में है।
वे कहते हैं —
कपड़े का अधिकार
सिर्फ़ कपड़े का नहीं,
इंसान होने का अधिकार है
और जो इसके लिए लड़ा,
उसका नाम
तुम्हारे रक्त से लिखा जाएगा —
जब तक
इतिहास के माथे से
यह नंगापन मिट न जाए।

—गोलेन्द्र पटेल 

रचनाकार: गोलेन्द्र पटेल (पूर्व शिक्षार्थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।/बहुजन कवि, जनपक्षधर्मी लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)

डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com


Saturday, 9 August 2025

फूलन देवी पर केंद्रित कविताएँ : गोलेन्द्र पटेल

 

फूलन — चंबल से संसद तक

बीहड़ों की साँसों में गूँजता था उनका नाम,
अन्याय के अंधेरों में चमकती थी उनकी आँखों की ज्वाला।
वो आई थीं, आँसू बहाने नहीं —
बल्कि इतिहास की दीवारों पर गोली से लिखने।

जिन्हें बचपन ने जंजीरों में बाँधना चाहा,
उन्हें चट्टानों ने तलवार बना दिया।
रात की दरिंदगी को दिन की अदालत में घसीटा,
और फैसले बंदूक की नली से सुनाए।

वो समझ चुकी थीं —
बाल्टी में बैठकर बाल्टी नहीं उठाई जाती।
इसलिए उन्होंने 
धर्म का वह झूठा आसमान छोड़ दिया
जहाँ चार रंगों में बाँटी जाती थी इंसान की रौशनी।
उन्होंने अपनाया बुद्ध का मार्ग,
जहाँ मानवता एक है और सम्मान जन्मसिद्ध अधिकार।

उनकी हर साँस चेतावनी थी —
कि पीड़ित जब उठता है,
तो सामंतों के महल हिल जाते हैं।
उनका हर कदम एक उद्घोष था —
"औरत सहने के लिए नहीं,
अन्याय मिटाने के लिए जन्म लेती है।"

टाइम मैगज़ीन ने नाम दिया "महान विद्रोही",
पर उनकी पहचान केवल किताबों में नहीं,
बल्कि उन आँखों में है
जो अब डर के साये में नहीं झपकतीं।

चंबल की रानी, संसद की शेरनी,
वो न गोली से डरती थीं,
न गिद्धों की गालियों से।
क्योंकि फूलन मिट्टी, लोहा, पत्थर, आग से बनी थीं—
और ऐसी चीज़ों को इतिहास कभी ख़ामोश नहीं करता।

आज, उनकी जयंती पर,
हम कसम खाते हैं —
ज़ुल्म सहना बंद करेंगे,
समानता का रास्ता चुनेंगे,
और हर फूलन के सपने को
आवाज़ देंगे।


फूलन घोषणापत्र

फूलन नाम नहीं—विद्रोह हैं!
बीहड़ों में जन्मीं, सत्ता को चीर गईं,
जाति के अहंकार को गोली में पिघला दिया,
मनुवादी मंदिर ढहा दिया।

बलात्कार का बदला लिया,
अन्याय की नींव हिला दी,
गाँव से संसद तक आग फैलाई,
वंचितों के लिए रास्ता बनाया।

बुद्ध की करुणा, रविदास का स्वप्न,
अंबेडकर का संविधान—
तीनों की ज्वाला बनकर जलीं,
और नारी के नवयुग को गढ़ा।

मनिपुर की चीखों से उठेंगी नई फूलनें,
दरिंदों का अंत करेंगी,
जंजीरों को तोड़ेंगी,
समानता की मशाल जलाएंगी।

हम कसम खाते हैं—
हर चिंगारी को फूलन बनाएंगे,
हर अन्याय का जवाब देंगे,
और इस धरती को बराबरी का घर बनाएंगे!

—गोलेन्द्र पटेल 


★★★


रचनाकार: गोलेन्द्र पटेल (पूर्व शिक्षार्थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।/बहुजन कवि, जनपक्षधर्मी लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com


Thursday, 7 August 2025

‘स्त्री मुक्ति: ब्रालेस आंदोलन’ : गोलेन्द्र पटेल

 

स्त्री मुक्ति: ब्रालेस आंदोलन
—गोलेन्द्र पटेल 


1. बीजवपन:

देह न बंधन, देह न बोझा, 
देह न चुप रह जाए रोज़ा।
ब्रा न हो तो शिष्ट न मानी, 
कैसी यह मर्यादा प्रानी?

अमेरिका की लहर चली थी, 
सौंदर्य-बंधन हिलती डली थी।
“नो मोर मिस” का नारा फूटा, 
झूठी मर्यादा से नाता टूटा।

ब्रा नहीं तो कैसा शर्मीला? 
किसने बांधा स्त्री का जीला?
कॉर्सेट, मेकअप, ऐड़ी भारी, 
सब बंधन हैं तन की क्यारी।

‘फ्रीडम ट्रैश’ में फेंके धागे, 
टूटे तब जकड़े सब भागे।
शरीर न हो कैद-ख़यालों में, 
आज़ादी हो चाल-ढालों में।

भारत आया वह संदेशा, 
मगर यहाँ था भिन्न उपदेशा।
परिधान में बसी शालीनता, 
कपड़ों से मापी नारीता।

सोशल मीडीया ने स्वर लाया, 
कुछ ने ही वह ढाँचा हिलाया।
शहरों में थोड़ी चुप बग़ावत, 
गाँवों में अब भी विरासत।

बोल नहीं पर मौन विद्रोह है, 
निज इच्छा में जो अनुग्रह है।
नोब्रा, माईबॉडी बन नारा, 
स्त्रियों ने फिर सच उजारा।

पुरुष-दृष्टि की काई तोड़ी, 
लज्जा की सीमाएँ छोड़ी।
नारी अब अपनी परिभाषा, 
देह बने प्रतिकार की भाषा।

मुक्त नारी का तन है ध्वज सा, 
देह न हो झुकने लायक़ सा।
शरीर नहीं कोई अपराधी, 
लाज नहीं वह स्वप्न समाधि।

जो पहनें, उनकी भी वाणी,
जो न पहनें, उनकी कहानी।
चुप प्रतिकारों से यह धारा, 
बढ़ रही है नारी उजियारा।

2. आरंभ:

नारी मुक्ति का गीत सुनाऊँ,  
शरीर स्वतंत्रता की बात उठाऊँ।  
ब्रालेस आंदोलन उभरा जब,  
नारी अस्मिता ने पाया रब।  

साठ के दशक में पश्चिम जागा,  
मिस अमेरिका के बंधन भागा।  
स्वतंत्रता की कचरा पेटी में,  
ब्रा फेंक बेड़ी तोड़ी थी।  

पुरुष दृष्टि के मानदंड टूटे,  
नारी देह के बंधन रूठे।  
शालीनता की थोपी रीत,  
विरोध में उठी नारी प्रीत।  

भारत में यह लहर सीमित रही,  
रूढ़ि की दीवार ने रोकी सही।  
शहरी नारी ने उठाई बात,  
सोशल मीडिया पर जगी मुलाकात।  

आज़ादी की यह अलख जगाए,  
नारीवादी विमर्श को सजाए।  
शरीर पर हक़, स्वयं की चाह,  
नारी अस्मिता का नव परचम लहक।

ब्रालेस आंदोलन की बात निराली,  
नहीं बस ब्रा छोड़ने की गाली।  
स्त्री देह को यौनिकरण से मुक्ति,  
स्वायत्तता की चाह, स्वतंत्र भक्ति।  

भारत में परंपरा जड़ जमा गहरी,  
सामाजिक मानदंड बंधन की डोरी।  
यहाँ आंदोलन का रूप है न्यारा,  
स्वतंत्रता का सपना, मन उजियारा।

न केवल ब्रा से मुक्ति बात,  
देह न हो यौनिक सौगात।  
शारीरिक हो निज अधिकार,  
यह आंदोलन दे पुकार।

भारत में है रूप अनोखा,  
जहाँ नियमों ने गढ़ा रोखा।  
संस्कृति की गहरी हैं जड़ें,  
पर चेतनाएं रचें लहरें।

स्त्री देह को जिस्म समझाया,  
सभ्य दिखे, ऐसा ठहराया।  
ब्रा में बंधन, अस्मिता खोई,  
पितृसत्ता की जंजीरें रोई।

नारी को समझा तन का रूप,  
उसकी देह बनी है भूप।  
मात्र यौनता, केवल सौंदर्य,  
भोग्य बनी वह, छिन गया गौरव।

स्तनों को कसती ब्रा की पीर,  
बाँध दिए जो देह के तीर।  
स्वाभाविकता का वह हरण,  
पहनाया असहज आवरण।

दो कप सिले, बेमेल बनाए,  
स्त्रीत्व के प्रतीक घृणित सजाए।  
नारी हृदय की स्वतंत्र चाहत,  
ब्रा ठुँसे, दबे वह राहत।

3. वस्त्र और पितृदृष्टि:

देह सभ्य हो, यह चाहत क्यों?  
क्यों हर दृष्टि में दाहत क्यों?  
शब्द न बोले, बोली देह,  
इस मौन यंत्रणा की प्रेय।

सभ्यता की जो है परिभाषा,  
वह पितृसत्ता की अभिलाषा।  
कपड़े हों 'शालीन' सदा,  
कब तक ढोएँ ये विधि-खदा?

भारत देश में रूढ़ि गहरी,  
परंपराएँ बंधन की जंजीरी।  
साड़ी-कमीज में ब्रा अनिवार्य,  
स्वास्थ्य-आराम पर नियम भारी।

साठ के दशक, पश्चिम जागा,  
स्त्रीवादी लहर ने बंधन भागा।  
ब्रा बनी दमन का एक प्रतीक,  
जलाए गए, उभरा वह गीत।

4. ब्रालेस आंदोलन का स्वर:

ब्रालेस मूवमेंट, बंधन तोड़े,  
सामाजिक नियमों को झटकोरे।  
नारी स्वायत्त, स्वीकारे देह,  
सौंदर्य प्राकृत, न मानदंड नेह।

उठा सवाल यह स्त्रियों से,  
क्या ब्रा जरूरी है कद-कद से?  
कसावट, जलन, रक्त प्रवाह,  
स्वास्थ्य बना अब प्रतिरोध राह।

‘नो ब्रा डे’ की लहर चली,  
स्त्रियों की टोली में जली।  
‘फ्री द निप्पल’ हुआ प्रतीक,  
बोला ‘अब न सहें अधिक’।

मिस अमेरिका में विरोध हुआ था,  
दमनकारी वस्त्र जलाना चाहा।  
हालाँकि जलना था अतिशयोक्ति,  
स्वतंत्रता की थी वह सत्य भक्ति।

आइसलैंड में छात्राएँ जागीं,  
टॉपलेस होकर, बंधन को त्यागीं।  
नो ब्रा डे, तीस देशों में गाया,  
हैशटैग से नारी ने ठहराया। 

सबीना बोली, घुटन है ब्रा में,  
स्वतंत्र देह की चाहत सदा में।  
निप्पल सबके, शर्म कैसी आए,  
चुनाव नारी का, वह स्वीकार लाए।  

5. भारत में आंदोलन की गूंज:

भारत में चुनौती, नजरें ताने,  
‘अश्लील’ कह समाज ठहराने।  
सुरक्षा का डर, उत्पीड़न भारी,  
स्त्री की राह में रुकावट सारी।

परंपराओं की भूमि यह भारी,  
जहाँ लाज बनी है संसारी।  
साड़ी के भीतर भी अनिवार्य,  
ब्रा न हो तो अश्लील विचार।

घूरा जाता, कहा बेहया,  
स्त्री है क्या कोई दशा?  
‘संस्कृति’ का पहरा भारी,  
नारी कैसे हो खुदचारी?

सोशल मीडिया ने दी नई सैर,  
फ्रीथेनिपल बनी आवाज़ गैर।  
नारी देह को यौनिकरण मुक्त,  
स्वायत्तता की राह बनी सुखद।

नाइजीरिया में नियम अनघट,  
ब्रा बिना परीक्षा में रट।  
आक्रोश जगा, बहस छिड़ी भारी,  
नारी स्वतंत्रता की पुकार सारी। 

भारत में धारा दो नौ चार,  
‘अश्लील’ कह, देती उत्पीड़न मार।  
उर्वशी बुटालिया, लेखन में बोली,  
देह पर नियंत्रण, पितृसत्ता खोली।

मिशेल रॉबर्ट्स ने ठहराया,  
ब्रा बंधन, समाज ने बनाया।  
कैद की कहानी, देह की सजा,  
नारी अस्मिता का दर्द बजा।

ब्रालेस होना, स्वतंत्रता गाना,  
देह को अपनाना, मुक्ति ठाना।  
स्त्री की चाहत, बिना बंधन जीना,  
प्राकृतिक सौंदर्य, उसे अपनाना। 

6. वस्तुकरण और प्रतिरोध:


स्तनों को बना जो बाज़ार,  
उनकी देखभाल बना व्यापार।  
सुंदरता की एक कसौटी,  
ब्रह्मण-पावन ब्रा की बोटी।

पर नारी ने यह ठाना,  
अब निज तन पर ही है थाना।  
न होंगे झुकाव से परिभाषित,  
न ही वस्त्रों से अनुशासित।

आइरिस यंग की बात सुनाए,  
ब्रा बाधा, देह को मिटाए।  
प्राकृतिक हिलन, स्तन का सौंदर्य,  
नारी की चाहत, बने वह मंदर।

7. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

कंचुकी पुरानी, क्रोचेट भारी,  
रीढ़ को तोड़े, देह को मारी।  
विश्वयुद्ध में धातु की कमी आई,  
कपड़े की ब्रा, तब मुक्ति लाई।।  

कारखानों में नारी ने गाया,  
ब्रा की जरूरत, सबने ठहराया।  
सूती-नायलॉन, रेशम की सैर,  
आत्मविश्वास की बनी वह गैर।

औशवित्स में कैदी की पीड़ा,  
बोरे से सिली, ब्रा की क्रीड़ा।  
एस.एस. ने सजा दी थी भारी,  
नारी देह पर पितृसत्ता सारी।

क्रोचेट, कंचुकी, तार-पिंजरा,  
ब्रह्मा ने यह कब चाहा ज़रा?  
रीढ़ दबे, पर देह दिखे,  
यही था सौंदर्य का निकष लिखे।

युद्धों में भी औरत जिए,  
बिना सुविधा, चुपचाप सहे।  
कैंपों की पीड़ा, बोरे की ब्रा,  
क्या यह मानवता की कथा?

8. स्त्री का आत्मबोध:

पहला हुक जो पुरुष खोले,  
स्मृति बनी वह तन-मन तोले।  
वह क्षण, वह अनुभव की आंच,  
देती है नारी को पहचान।

स्त्री जो देह को समर्पित करे,  
उसमें लाज नहीं, बस विश्‍वास भरे।  
वह प्रेम हो या आत्म-प्रसाद,  
देह न बने कोई अपवाद।

एम्मा वॉटसन ने दी थी हुंकार,  
स्त्रीवाद है विकल्प, न मार-संघार।  
स्वतंत्रता की राह, समानता आधार,  
स्तन से क्या, मुक्ति का संसार।

सवाना ब्राउन की यूट्यूब सैर,  
‘फ्री द निप्पल’ बनी पुकार गैर।  
लीना एस्को ने फिल्म बनाई,  
नारी मुक्ति की राह दिखाई।

9. विज्ञापन और संस्कृति का यथार्थ:

विज्ञापन कहते, ब्रा है जरूरी,  
‘अपूर्ण’ बिना इसके नारी पूरी।  
दोहरा मापदंड पुरुष-नारी में,  
लैंगिक असमानता सदा भारी में।

बिना ब्रा हो ‘अपूर्ण’ दिखाई,  
यह सोच बनी है साजिश भाई।  
स्त्रीत्व की बनावट झूठ,  
जिससे हो नारी सदैव लूट।

विज्ञापन का झूठा रूप,  
नारी को बाँध रहा है खूब।  
बाजार बना है निर्णयकर्ता,  
स्त्री बने बस उपभोक्ता।

फिर भी बदला, जागी नारी,  
स्वास्थ्य की राह, बनी सारी।  
डिजाइनर कपड़े, बिना ब्रा सजे,  
आराम-स्वतंत्रता, अब वह बजे।

10. पितृसत्ता और अपराधबोध:

ब्रा न पहनने पर हो दंड,  
पता चले कौन है प्रचंड।  
धारा 294 से दफा,  
पहनावा बना अपराध वफा।

घरों में कपड़े सुखाए छिपा,  
स्त्री दिखाए नहीं तन-निपा।  
पुण्य न देखे मातृत्व में,  
लाज खोजे बस वस्त्र में।

स्त्री की निर्वस्त्रता, दर्द गहरा,  
लज्जा ढँकी, पत्तों से पहरा।  
सभ्यता ने बंधन को अपनाया,  
नारी के सौंदर्य को ठहराया। 

पुरुष नग्नता, पौरुष का गान,  
स्त्री की लज्जा, बनी बाजार ठान।  
म्यूजियम में, वस्त्र ना दिखाए,  
नारी सम्मान को, मृत्यु में पाए।।  

11. आत्मनिर्णय की चेतना:

नारी कहे यह मेरा तन,  
न ही कोई है वस्त्र-बंधन।  
क्या पहनूँ और क्या न पहनूँ,  
इसका निर्णय स्वयं में गहनूँ।

पितृसत्ता कहे यह राजनीति,  
हर आंदोलन को कहे कृति।  
पर आत्मा की यह पुकार,  
तन पर अधिकार हो खुद धार।

प्रेमी के लिए, देह का उपहार,  
सम्मान में बंधा, स्नेह आधार।  
स्त्री की प्रकृति, प्रेम में जीना,  
पितृसत्ता को, उसने ना साधा।

12. भविष्य का आह्वान:

धीरे-धीरे बदलेगा समय,  
फूटेगा तम का अंतर्द्वंद्व।  
कपड़े नहीं बनेंगे परख,  
स्वीकृति होगी नारी स्वच्छ।

स्त्री बन सकेगी वह जो चाहे,  
बिना झिझक और बिना राहे।  
नारीवाद न हो सिर्फ़ बात,  
बने व्यवहार में नई जात।

ब्रा का हुक, पहला स्पर्श प्यारा,  
नारी हृदय में, स्मृति वह न्यारा।  
संतान को दूध, देह की सैर,  
आत्मविश्वास में, नारी गौरव गैर।

13. मुक्ति की पुकार:

स्त्री मुक्ति की राह बनाए,  
ब्रालेस मूवमेंट, बंधन मिटाए।  
नारी अस्मिता, स्वतंत्रता गाना,  
समानता का, सपना सजाना।  

नारी की देह न हो पहरा,  
उस पर हो उसका ही बसेरा।  
ब्रालेस हो या वस्त्रयुक्त,  
स्वतंत्रता का हो यह युक्त।

बोलो साथ – “अब देह हमारी”,  
नहीं किसी की निगरानी सारी।  
हमें न चाहिए स्वीकृति, शपथ,  
बस देह की हो निज़ामत स्पष्ट।

★★★

रचनाकार: गोलेन्द्र पटेल (पूर्व शिक्षार्थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।/जनपक्षधर्मी कवि-लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)

डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।

पिन कोड : 221009

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com


संदर्भ ग्रंथ सूची:-

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Wednesday, 6 August 2025

गमछे का रंग (कविता) : गोलेन्द्र पटेल

 

♠[रूप—1]


**गमछे का रंग** 
 
जब मैं
सफ़ेद गमछा डाल निकलता हूँ,
लोग कहते— "यह तो अब कांग्रेसी हो गया है!"
भगवा लपेटूँ,
तो बोल उठते— "भाजपाई लग रहा है।"
लाल पहनूँ,
तो फुसफुसाहट होती— "सपाई निकला!"
नीला ओढ़ूँ,
तो तंज उभरता— "बसपा का प्रतीक है!"
हरा लहराए,
तो चुटकी बजती— "आरजेडी का समर्थक है!"
पीला बाँधूँ,
तो कोई कहता— "जनसुराज का एजेंट है",
कोई बोले— "राजभर का आदमी है।"
 
 
मैं
किसी भी रंग का गमछा ओढ़ लूँ,
हर बार
मुझे किसी न किसी पार्टी से जोड़ दिया जाता है।
 
 
अब तो
रंग भी संदेह बन गए हैं,
गमछा भी विचारधारा!
 
 
मैं
सर्वोच्च न्यायालय से प्रार्थना करता हूँ—
इस रंगभेद की राजनीति से मुझे मुक्त करें।
क्योंकि मैं
सिर्फ़ एक व्यक्ति नहीं,
एक गाँव हूँ—
जिसके हर घर में हर रंग के लोग रहते हैं।

 

♠[रूप—2]
**गमछे का रंग**  
 
सफेद गमछा लहराऊँ,  
लोग चिल्लाएँ, "कांग्रेसी आया!"  
भगवा गमछा कंधे पर डालूँ,  
कहें, "यह तो भाजपाई हो गया!"  
 
 
लाल गमछा लूँ, सपाई ठहरूँ,  
नीला लूँ, बसपाई कहलाऊँ।  
हरा गमछा कंधे पर आए,  
"RJD का सिपाही!"—लोग चिल्लाए।  
 
 
पीला गमछा जो लहरा जाये,  
जनसुराज या राजभर का कहलाये।  
हर रंग में बँटता मेरा नाम,  
पार्टी का ठप्पा, बन गया मेरा काम।  
 
 
सर्वोच्च न्यायालय से गुहार लगाऊँ,  
रंगों की कैद से आज़ादी पाऊँ।  
न रंगों में बँटूँ, न पार्टी में बँधूँ,  
मैं सिर्फ़ इंसान हूँ, गाँव का गान हूँ।  

 

♠[रूप—3]
**गमछे का रंग**  
 
जब मैं सफेद गमछा लेकर निकलता हूँ
तो लोग कहते हैं कि यह तो कांग्रेसी हो गया है
जब मैं भगवा गमछा लेकर निकलता हूँ
तो लोग कहते हैं कि यह तो भाजपाई हो गया है
जब मैं लाल गमछा लेकर निकलता हूँ
तो लोग कहते हैं कि यह तो सपाई हो गया है
जब मैं नीला गमछा लेकर निकलता हूँ
तो लोग कहते हैं कि यह तो बसपाई हो गया है
जब मैं हरा गमछा लेकर निकलता हूँ
तो लोग कहते हैं कि यह तो RJD का हो गया है
जब मैं पीला गमछा लेकर निकलता हूँ
लोग कहते हैं कि यह तो जनसुराज का हो गया है
या फिर राजभर का आदमी हो गया है
मैं किसी भी रंग का गमछा लेकर निकलूँ
लोग मुझे किसी न किसी पार्टी से जोड़ दे रहे हैं 
 
मैं सर्वोच्च न्यायालय से निवेदन करता हूँ
कि वे इस गंभीर समस्या पर ध्यान दें
ताकि मैं किसी भी रंग का गमछा लेकर निकल सकूँ
और लोग मुझे पार्टी विशेष से न जोड़ें
मैं सिर्फ़ एक व्यक्ति नहीं, गाँव हूँ। 
 
—गोलेन्द्र पटेल

 

संपर्क: गोलेन्द्र पटेल (पूर्व शिक्षार्थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।/जनपक्षधर्मी कवि-लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com

Saturday, 2 August 2025

कल्कि (खण्डकाव्य)

 

“हमारा ‘कल्कि’ खंडकाव्य धार्मिक मिथकों को समकालीन संदर्भों में पुनर्व्याख्या करता है। यह काव्य केवल एक धार्मिक कथा का पुनर्पाठ नहीं है, बल्कि यह समाज, विज्ञान और संस्कृति के प्रति एक गहरी चेतना को दर्शाता है। हमारे कवि का वैचारिक दृष्टिकोण, जिसमें परंपरागत मिथकों की आलोचना, बौद्ध धर्म की पुनर्व्याख्या और सामूहिक नायकत्व पर बल दिया गया है, यह खंडकाव्य न केवल साहित्यिक दृष्टि से पठनीय है, बल्कि यह एक सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना की अभिव्यक्ति भी है, जो पाठकों को सोचने और प्रश्न उठाने के लिए प्रेरित करता है।

‘कल्कि’ एक ऐसी रचना है, जो परंपरा और आधुनिकता के बीच एक संवाद स्थापित करती है और यह सिद्ध करती है कि साहित्य न केवल मनोरंजन का साधन है, बल्कि यह समाज को दिशा देने और चेतना जगाने का भी एक शक्तिशाली माध्यम है। यह खंडकाव्य, आस्था के अनुकरण से आगे बढ़ते हुए, मानव विवेक के अवतरण की वकालत करता है — और यही इसकी सबसे बड़ी शक्ति है।”

कल्कि (खण्डकाव्य)

—गोलेन्द्र पटेल 

विष्णु के दस अवतार, जग में आए बार-बार,  

मत्स्य रूप धरा प्रभु ने, बचाया धरती का आधार।  

कूर्म वराह नरसिंह, वामन रूप अपार,  

परशुराम बलशाली, किए पापियों का संहार।  


राम कृष्ण जग विख्यात, बुद्ध शांति के अवतार,  

कल्कि आएंगे अंत में, मिटाएंगे जग का दुख भयंकर।  

दस रूप प्रभु के पावन, भक्तों के रखवाले,  

हर युग में रक्षा करते, विष्णु हैं जग के पाले।


मत्स्य बने जब प्रलय घनेरा, वेद बचाए धीर,

जलचर रूप लिए प्रभु ने, किया सृष्टि का पीर।

कूर्म रूप धरें जब धरणी, नीचे जाए धसे,

मंथन करता क्षीर सागर, अमृत वरषा बसे।


वराह उठाए भू अधो में, दैत्यों ने जो धँसाई,

धरती को पुनि स्थान दिया, उभरी जग की छाई।

नरसिंह बने खंभ फाड़ के, दैत्य हिरन्य संहारे,

भक्त प्रहलाद बचाए तब, धर्म सदा के तारे।


कल्कि अवतार, विष्णु के दसवें रूप महान,  

कलियुग अंत में आएंगे, करेंगे पाप निदान।  

देवदत्त घोड़े सवार, तलवार हाथ में धार,  

दुष्टों का संहार करें, स्थापित करेंगे प्यार।  


संभल ग्राम में जन्म लें, विष्णु यश पिता नाम,  

सुमति माता, धर्म रक्षक, करें सतयुग प्रणाम।  

अधर्म नाश, धर्म स्थापन, सतयुग लाएंगे साथ,  

कल्कि कथा भविष्य की, देती आशा और पाथ।  


कल्कि अवतार अंतिम हैं, विष्णु रूप की बात,

धर्म हेतु आना उन्हें, पापों की औकात।

जब कलियुग में पाप का, होगा प्रबल प्रवाह,

धरा धरेगा धर्म फिर, कर दुष्टों की थाह।


घोड़ा होगा देवदत्त, उज्ज्वल उसका रंग,

हाथ लिए तलवार को, करेंगे पाप भंग।

धर्म पुनः स्थापित करें, करें अधर्म नष्ट,

संघर्षों से जाग उठे, फिर से नीति-पृष्ठ।


संभल ग्राम कहलाएगा, पुण्य भूमि विशेष,

कल्कि वहीं जन्मेंगे, नव युग लाएँ शेष।

विष्णु यश होंगे पितृजन, मातृ नाम सुमति,

साधुजन के हित उठे, कल्कि रूप की गति।


जब कल्कि तलवार लिए, करें महा प्रहार,

सतयुग फिर से लौट आए, मिट जाए संहार।

शंख नहीं, ना पुष्प हैं, ना है कोई वेद,

धार लिए हैं तेज की, अब तलवार-वेद।


भविष्यदर्शी ऋषि कहें, यह सत्यावधान,

धर्म करेगा कल्कि से, फिर नव निर्माण।

यह आख्यान नहीं मात्र, चेतावनी की रेख,

पुनरुत्थान धर्म का, है कल्कि की लेख।


सफेद घोड़े पर सवार, कल्कि की बात,  

फिल्म यूट्यूब पे दौड़ती, करती सबको मात।  

घुड़सवारों की सेना संग, मुक्ति का संदेश,  

भक्तों के उद्धार को, चलता दिव्य विशेष।  


कुलीनतंत्र का सपना, छिपा विशेष में,  

कल्कि की प्रतीक्षा में, बैठे लोग निश्छल में।  

युक्ति का मखौल करें, कुदरत को भूल गए,  

करिश्मों की आँखें, अंधी होकर झूल गए।  


दिव्यांगों की मुक्ति को, बनता नव सन्देश,

पर सपनों में छिपा है, कुलीनों का क्लेश।

भविष्य की परिकल्पना, है विषैली बात,

कल्कि बना विशेषजन, भरे अहंकार घात।


जनसंख्या की भीड़ में, समाधान न दिखे,  

संतति-निरोध यंत्र, बनाया मनुज इच्छे।  

कुदरत के नियम को, नकारें लोग आज,  

विज्ञान की राहों को, ठुकराए बिन काज।  


युक्ति-तर्क को हँस रहे, बैठे चुप इन्सान,

देख न पाते चमत्कार, खो बैठे पहचान।

जनसंख्या सीमा की, न युक्ति मान पाएँ,

इच्छा बिना बने यंत्र, कैसे उसे अपनाएँ?


पूर्वजों ने शिशु रक्षा, खतना सा काम किया,  

विज्ञान आधारित उत्पाद, अब न स्वीकार किया।  

रोमांच की चाह में, प्रलय को देखें लोग,  

पर्यावरण नष्ट हो, समझ न आए भोग।  


खतना रीत पुरातन, कहते विज्ञानहीन,

अनुसंधान न माने, बौने उनके मीन।

प्रलय दिवस की चाह में, आँखें हैं बेकार,

जीवन-भू के नाश को, करते हैं स्वीकार।


वृद्धि मानव की सहे, संसाधन अब चुक,

तर्कों से डरते सभी, करते युक्ति की धुक।

युद्ध-विपद से बचाव को, बढ़ती है आबादी,

कुदरत को फोड़े रहें, व्यर्थ हवा की सादी।


रोग-युद्ध में मरने की, तुलना जो करें,  

संख्या-वृद्धि सुरक्षा, मध्यकाल बोध करें।  

कुदरत को अपराधी, बनाए यह विचार,  

सृष्टि चक्र फट जाए, जैसे पंप बेकार।  


चीथड़े में उड़े सृष्टि, देखें लोग यही,  

दंगाई भीड़ बन जाए, समाधान वही।  

कल्कि तलवार सवार, प्रलय की राह देखें,  

आत्महंता अंत की, कामना में रहें।  


ट्यूब फटेगा जल्द ही, पंप रहे भरते,

चीथड़ों में उड़ते खुद, हँस-हँस कर मरते।

घुड़सवार तलवार लिए, आए प्रलय समान,

भीड़ वही हल खोजती, जिससे मिटे जहान।


घुड़सवार की प्रतीक्षा, मन में भारी मौन,

कामना है एक साथ, अंत-आरंभ को पौन।

लेकिन इनके मध्य में, कल्कि स्वयं छिपा,

जो विज्ञान की लौ जला, हर संकट में टिका।


नया युग आरंभ की, प्रत्याशा मन में,  

कयामत का सपना, बस छाया जन में।  

पर बीच में छिपे हैं, वैज्ञानिक ऋषि-वर,  

टाटा-मस्क सा नायक, करता विश्व डगर।  


रतन टाटा, एलन हैं, कल्कि रूप धरते,

बचाने को धरा सभी, अपने कर्म करते।

संस्था में अवतार हैं, युग परिवर्तक आम,

नायक कोई एक नहीं, जनता ही भगवान।


यू-ट्यूब पर दौड़ रही, कल्कि बनी मिसाल,

रेल-सेना संग चला, घोड़े पर भूतलकाल।

नाम न जाने जो मगर, बदलें जग निर्माण,

उन अनाम कल्कियों से, चलता युग परिवर्तन।


वैष्णवी रूपांतरण, व्यापार सा चले,  

दुनिया बचाने का, हर जन को बल मिले।  

नहीं एक नायक पर, सारी जिम्मेदारी,  

हर आम जन के नाम, बदलने की कारी।  


मानव-जाति पैदा करे, कल्कि अनगिनत,  

सामूहिक अंशदान से, दुनिया बदले सतत।  

अनाम कल्कियों का, योगदान है महान,  

धरती की रक्षा का, हर जन का सम्मान।  


पांडुरंग वह नाम था, बुद्ध स्वरूप महान,

विष्णु कह कर ढाँप दी, ब्राह्मणवाद की जान।

निरंजन ही बुद्ध थे, ज्ञान रूप गुणगान,

विष्णु बना कर लेख में, बदल दिया विधान।


पांडुरंग, निरंजन, बुद्ध के नाम सुहाय,  

साजिश रच विष्णु संग, अवतार बताय।

विठ्ठल को विष्णु कह, रचा गया छल भारी,  

बौद्ध साहित्य मोल ले, मिटायी बात सारी।


बुद्ध कहा विष्णु अवतार, रचा गया यह खेल,

धर्मों की पहचान पर, साज़िश भारी ठेल।

तथागत के बाद में, आए जो मैत्रेय,

उन्हें कहा कल्कि फिर, यह भी चाल विद्रेय।


बुद्ध मतों की धार को, मोड़ा धर्म विष्णु,

बौद्ध विचारों पर पड़ा, पाखंडी पंज निश्छु।

मैत्री, करुणा, शांति के, प्रतिनिधि जो ठहरे,

उन्हें बना तलवारधारी, अर्थों को ही गहरे।।


कल्कि कहा मैत्रेय को, तोड़ा सत्य महान,

बुद्ध विरोधी सोच का, यह अंतिम प्रमाण।

बुद्ध न थे अवतार पर, कह दिया अवतारी।

चुप रहे विद्वान सब, कथा बनी सरकारी।


मैत्रेय का लोकपथ, करुणा से है युक्त,

घोड़े वाली कल्पना, बौद्ध भाव की वुक्त।

युवक कवि की चेतना, दे विचार का तेज,

तोड़े मिथक जाल सब, कहे नया सन्देश।


मैत्रेय बुद्ध अवतार, तथागत का अंत,  

भविष्य का बुद्ध कहें, पूजित सबके संत।  

विष्णु का नौवां रूप, बुद्ध को हिंदू मान,  

साजिश गहरी रच गई, कल्कि कहे सम्मान।


सत्य बौद्ध का गुम हुआ, मिथ्याओं का ताज,

विठ्ठल में बुद्ध लुप्त हैं, ब्राह्मणवाद की साज।

बुद्ध बने अवतार जब, खो गई वो चेत,

धर्म क्रांति की ध्वजा, झुकी गई अचेत।


जिन्हें कहा था शून्य स्वर, करुणा का संवाद,

उनको देव बनाकर अब, छिपा लिया उत्प्राद।

निरपेक्षता बुद्ध की, खो गई भक्तिवाद,

सत्य खोज को हर लिया, चालाक पुरोहितवाद।


गोलेन्द्र की दृष्टि में, यह इतिहास का भंग,

बुद्ध नहीं विष्णु कभी, न विठ्ठल पांडुरंग।

निरंजन विष्णु नहीं, बुद्ध सत्य पहचान,

मिथ्या बातों से ढँका, उनका तेज महान।

★★★

रचनाकार: गोलेन्द्र पटेल (पूर्व शिक्षार्थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।/जनपक्षधर्मी कवि-लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)

डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।

पिन कोड : 221009

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com


स्वतंत्रता दिवस 2025 – ओजस्वी भाषण

  स्वतंत्रता दिवस 2025 – ओजस्वी भाषण नमस्ते,  प्रिय सम्मानित मंच, प्रिय गुरुजन,  प्रिय साथियों, मेरे प्यारे देशवासियों!   आज हम 15 अगस्त 202...