प्रकृति-प्रेमी कवि गोलेन्द्र पटेल की दो कविताएँ
(डॉ० उदय प्रताप पाल भैय्या के सुपुत्र प्रिय अहिंसक जी के साथ खेलते हुए गोलेन्द्र पटेल)1).
हम बच्चे के साथ खेल रहे हैं
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हम अनुभव से बुजुर्ग हैं
पर, अभिव्यक्ति से जवान
बच्चों के साथ खेलना
खिलना ही नहीं,
बल्कि बचपन की स्मृतियों से मिलना भी है
और कुछ खुलना भी!
शिशु के साथ खेलने में जो मज़ा है
वह शब्दों के साथ खेलने में नहीं
हम बच्चे के साथ खेल रहे हैं
हम बच्चे को खेला रहे हैं
हमारे खेल में हार-जीत नहीं है
सिर्फ़ पत्थर में प्राण फूँकने वाली स्मित मुस्कान है
जो बुद्ध की प्रतिमा में है
या फिर उन महापुरुषों की मूर्तियों में
जो मानवीय मशाल हैं
बच्चे बुढ़ापे की
ढाल हैं
जैसे शब्द बुरे समय में!
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2).
शिशु ही तो शब्द हैं!
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पिता जब लेते हैं कंधे पर
पहाड़ के उस पार की धरती, आसमान, सागर दिखता है
अभी तक मैंने सिर्फ़ और सिर्फ़ शिशु और शब्द से प्रेम किया है
क्योंकि यही दोनों सुखकर्ता और दुखहर्ता हैं
मैंने जब भी किसी शिशु को गोद लिया है
मैंने महसूस किया है
कि मैंने अपने समय का सबसे ताकतवर शब्द उठाया है
वैसे ही जैसे माँ उठाती है शिशु को...
जहाँ भाषा में निश्छल प्रेम
पिता के मौन प्रगीत हैं
वहाँ वात्सल्यभूमि और भाव के बीच
धूल से तर शिशु शब्द ही तो हैं!
शिशु लोरी की लय समझते हैं, शब्द नहीं!
शिशु और बूढ़े दोनों ही शब्दों के करीब हैं
बूढ़े बचपन की स्मृतियों के सहारे नये स्वप्न देखते हैं
और शिशु ममता के सहारे वायु को उलट देते हैं— युवा!
बिहड़ में नंगे पाँव दौड़ने वाले बच्चे
पक्की सड़कों पर
कंकड़, कंक्रीट, गिट्टी से नहीं घबराते हैं
ऐसे ही बच्चे गरीबी के गड्ढे लाँघ जाते हैं
बहरहाल, बच्चों के साथ बच्चा होने में जो सुकून मिलता है
वह सुकून और कहीं नहीं मिलता?
मैं अपने भीतर के बच्चे को ज़िंदा रखा हूँ
मुझमें अनगढ़ता, अल्हड़ता और बचपना कूट-कूटकर भरा है
मगर मुझमें अक्खड़ता, फक्कड़ता और घुमक्कड़ता भी ख़ूब हैं!
मैं प्रकृति-प्रेमी की गोद में शिशु होना चाहता हूँ
मुझे कविता को माँ और कहानी को नानी कहना अच्छा लगता है
मैं माँ की गोद में हूँ पिता!
(©गोलेन्द्र पटेल / 28-04-2024)
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