पहाड़ी कवि गोलेन्द्र पटेल की तीन कविताएँ:-
1).
अरावली : पत्थरों की स्मृति, मनुष्यों की भूल
नदी कहती है,
मैं एक पहाड़ी कवयित्री हूँ
इसीलिए मैं जानती हूँ कि पहाड़ के टूटने का दर्द
जंगल के उजड़ने से अधिक ख़तरनाक है!
पानी चीखता है,
मैं एक पहाड़ की उम्र लिख रहा हूँ
दो अरब पचास करोड़ वर्षों की चुप्पी
जिसे आज सौ मीटर की छड़ी से नापा जा रहा है
इतिहास की रीढ़
अब राजस्व नक्शों में सिकुड़ गई है
अरावली
कोई सिर्फ़ पहाड़ी नहीं है
यह उत्तर भारत की साँसों का फेफड़ा है
रेगिस्तान के मुँह पर रखा गया
एक पुराना, थका हुआ हाथ
यह हाथ हटेगा
तो दिल्ली की साँसें
रेत से भर जाएँगी
यह वही पर्वतमाला है
जिसने समय के हर तानाशाह को देखा
हिमालय के जन्म से पहले
और हमारी सरकारों के जन्म से बहुत पहले
जब कोई अदालत नहीं थी
तब भी यह चट्टान
पानी को थामे खड़ी थी।
अब कहा जा रहा है
जो सौ मीटर से कम है
वह पहाड़ नहीं
जो पाँच सौ मीटर से दूर है
वह अरावली नहीं
जैसे प्रकृति
ड्राफ्टिंग स्केल से बनी हो
जैसे जंगल
फ़ाइलों की भाषा समझते हों
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
एक वाक्य है
लेकिन उसके नीचे
पूरे जंगल दबे हैं
कानून कहता है,
“भ्रम दूर हुआ।”
धरती पूछती है,
“मेरा क्या?”
खनन
अब सिर्फ़ पत्थर नहीं निकालता
वह समय की परतें उधेड़ता है
पहाड़ का सीना
ड्रिल मशीन से नहीं
हमारी चुप्पी से फटता है
हर विस्फोट के साथ
एक बोरवेल और गहरा हो जाता है
एक बच्चा
और प्यासा।
अरावली
धूल की भाषा जानती है
वह जानती है
किस दिशा से रेगिस्तान चलता है
किस रात में
स्मॉग जन्म लेता है
PM2.5
किसी प्रयोगशाला का शब्द नहीं
यह एक बीमार फेफड़ा है
जो खाँसते हुए
शहर बन गया है
कहते हैं,
“विकास ज़रूरी है।”
लेकिन यह विकास
किसके लिए है?
खनन माफिया के ट्रक
आधी रात को निकलते हैं
सुबह अख़बार में
सूरज निकलता है
और हम कहते हैं
सब ठीक है।
अरावली चार राज्यों में है
और चारों में सत्ता एक-सी
इसलिए चुप्पी भी
एक-सी है
अगर पहाड़
किसी अल्पसंख्यक का होता
तो शायद
पहले ही तोड़ दिया जाता
अब भी तोड़ा जा रहा है
बस नाम बदल कर
कहा जाता है,
“जनता जागे तो…”
लेकिन जनता
दो हज़ार साल पुरानी
कहानियों में व्यस्त है
उसे यह नहीं बताया गया
कि उसका पानी
किस पहाड़ से आता है
उसकी हवा
किस दरार से बची हुई है।
अरावली
को बचाना
किसी पार्टी का एजेंडा नहीं
यह जीवन का न्यूनतम कार्यक्रम है
यह वह पाठ है
जो भूगोल नहीं
भविष्य पढ़ाता है
और अगर सच में
सब कुछ तोड़ना ही है
तो शुरुआत
रायसीना हिल से करो
राष्ट्रपति भवन
भी अरावली का ही हिस्सा है
खोद कर देखो
शायद वहाँ
सोना मिले
या कम से कम
हमारी शर्म
क्योंकि
जब माँझी ही नाव डुबो दे
तो नदी को दोष मत दो
अरावली गिर रही है
और हम
तालियाँ बजा रहे हैं
यह सोचकर
कि फैसला पत्थर पर नहीं
काग़ज़ पर लिखा गया है
लेकिन याद रखो
काग़ज़ जल सकता है
पत्थर भी टूट सकता है
पर जब हवा ज़हरीली हो जाए
और पानी स्मृति बन जाए
तो इतिहास
किसी अदालत में
पुनर्विचार याचिका
दायर नहीं करता
अरावली
अब कविता नहीं माँगती
वह
हमसे एक सवाल पूछती है
क्या तुम्हारा विकास
मेरी मौत से होकर ही गुज़रेगा?
2).
अरावली-प्रसंग: प्रतिरोध की पुकार
दो अरब वर्षों की चुप्पी, शिला में लिखी कथा,
धरती की पहली धड़कन, समय ने मानी सदा।
वलित पर्वत की वृद्ध काया, इतिहासों की नींव,
मानव से पहले जन्मी, भूगोलों की है रीढ़।
यह केवल ऊँचाई नहीं, यह जीवन की दीवार,
थार के मुख पर अडिग खड़ी, अरावली प्राचीन धार॥
गुजरात से दिल्ली तक फैली, अस्थियों जैसी रेखा,
राजस्थान, हरियाणा में बसी, जल-वायु की लेखा।
गुरु-शिखर की ऊँचाई पर, ठहरा समय अडोल,
माउंट आबू की हरियाली में, साँस लेता भूगोल।
यह ढाल हटी तो रेत चले, शहरों तक भर जाएगी,
उत्तर भारत की सभ्यता, धूल में गुम हो जाएगी॥
अब सौ मीटर का मापदंड, पहाड़ों को तोलेगा,
इससे नीचे जो बचा, जंगल न वह बोलेगा।
कानून कहे—यह स्पष्टता है, भ्रम अब दूर हुआ,
धरती पूछे—मेरे घावों का मूल्य किसने छुआ?
नक़्शों में जो मिट जाता है, क्या वह नष्ट नहीं?
परिभाषा से प्रकृति का सच बदलता नहीं॥
कहते हैं—नब्बे प्रतिशत अब भी सुरक्षित है,
पर खनन की भूखी आँखों का तर्क असुरक्षित है।
राजस्थान की हड्डियाँ टूटीं, पहाड़ हुआ अपूर्ण,
अब शेष पहाड़ियों पर भी, संकट खड़ा संपूर्ण।
पट्टे नए नहीं देंगे—यह वाक्य काग़ज़ी है,
ज़मीन पर जो हो रहा है, वह सच्चाई नग्न खड़ी है॥
अरावली जल सोखती है, हर बूँद को रखती थाम,
धरती के गुप्त भंडारों का करती शांत इंतज़ाम।
खनन ने पहाड़ सपाट किए, जल-मार्ग भटक गया,
हज़ार-हज़ार फीट गहरे, बोरवेल भी सूख गया।
अब गर्मी ऋतु नहीं रही, दंड बनकर आती है,
शहरों में जलती देहों पर, धूप हथौड़ा बरसाती है॥
यह केवल पत्थर नहीं टूटे, जीवन भी बिखरा है,
वन, जीव और पक्षी-पथ का संतुलन उजड़ा है।
तेंदुआ, मोर, हाइना की राहें संकरी हुईं,
मानव से टकरा कर उनकी नियति भटकी हुई।
चंबल-लूणी की धाराएँ, बदलीं अपना स्वभाव,
मिट्टी बह कर नदियों में, लाई बाढ़ और अभाव॥
दिल्ली राजधानी बनी थी, अरावली-यमुना संग,
एक ओर पर्वत की ढाल, दूजी ओर जल का रंग।
आज वही संतुलन टूटा, हवा विषैली भारी,
स्मॉग में घुटती साँसें, आँकड़े बोले लाचारी।
जहाँ बैरियर मज़बूत रहे, धूल न पाई राह,
यहाँ पहाड़ कमज़ोर पड़े, इसलिए दम घुटा आह॥
चार राज्यों में फैली अरावली, चारों में सत्ता,
पर पहाड़ टूटते देख भी, मौन रही जन-व्यवस्था।
जो बोलें—विकास ज़रूरी, वे भविष्य भूल गए,
काग़ज़ी लाभ की खातिर, जीवन-आधार खोद गए।
जनता की चुप्पी भी एक, निर्णय बन जाती है,
जो धीरे-धीरे विनाश का द्वार खोल जाती है॥
सेव अरावली की आवाज़, फाइलों से बाहर आई,
हस्ताक्षर बोले—यह केवल याचिका नहीं, लड़ाई।
ख़तरा फैसले में कम है, दुरुपयोग में अधिक,
नीति-नीयत तय करेगी, बचेगा या होगा विकृत।
यदि आज नहीं चेते हम, तो कल इतिहास कहेगा,
मनुष्य ने अपना भविष्य, स्वयं खोद कर लेगा॥
अरावली केवल पर्वत नहीं, यह जीवन का शपथ-पत्र,
जल, वायु, मिट्टी का संयुक्त, अटल सभ्यता-सूत्र।
इसे बचाना कविता नहीं, यह नैतिक उत्तरदायित्व,
पीढ़ियों की प्यास बचाना, यही सच्चा राष्ट्रकर्म।
जो पहाड़ गिरते देख भी, मौन धारण कर जाएगा,
वह आने वाले कल में, इतिहास से लज्जित कहलाएगा॥
3).
अरावली : मीटर में न समाने वाला पहाड़
धरती जब
अपनी पहली साँस को
शब्द नहीं, चट्टान में ढाल रही थी
जब समय अभी कैलेंडर नहीं था
और इतिहास की कॉपी कोरा काग़ज़
तब एक वृद्ध पहाड़
धीरे-धीरे खड़ा हुआ
नाम नहीं
पर काम था उसका
रोकना
रेत को
लू को
अंधी हवाओं को
और मनुष्य के जन्म से बहुत पहले
मनुष्य के विनाश को
वह अरावली थी।
आज अदालत में
उसकी ऊँचाई नापी जा रही है
मीटर से
जैसे पहाड़ नहीं
कोई अवैध निर्माण हो
जिसे नियमों की रेखा से
मिटाया जा सके
पूछा गया,
“सौ मीटर से कम?”
तो उत्तर आया,
“फिर यह पहाड़ नहीं।”
अरावली मुस्कुराई
दो सौ करोड़ साल पुरानी
मुस्कान थी वह
जिसे मशीनें नहीं समझ पाईं
उसे याद है
जब थार ने
पहली बार आगे बढ़ने की कोशिश की थी
जब रेत ने
खेतों का सपना देखा था
तब उसने
अपनी छोटी-छोटी पहाड़ियों से
दीवार बना ली थी
कोई क़िला नहीं
कोई फौज नहीं
बस चुपचाप खड़ी भूगोल की रीढ़।
आज उसी चुप्पी को
अपराध माना जा रहा है
कहा जा रहा है,
“छोटी पहाड़ियाँ काट दो,
बड़ी तो बची रहेंगी।”
कोई यह नहीं पूछता
कि दीवार में
ईंट छोटी होती है या बड़ी
या बस
ज़रूरी होती है
अगर एक ईंट गिरी
तो हवा रास्ता ढूँढ लेगी
रेत नक़्शे बदल देगी
और शहर
जो आज एयर-कंडीशनर में
सभ्यता का भ्रम पाल रहे हैं
कल अपने ही फेफड़ों से
माफ़ी माँगेंगे।
अरावली सिर्फ़ पत्थर नहीं है
वह पानी की स्मृति है
जो चट्टानों से
धरती के गर्भ में उतरती है
वह जंगलों की
अधूरी प्रार्थना है
जहाँ पक्षी अब भी मानते हैं
कि इंसान पूरी तरह क्रूर नहीं हुआ
सौ मीटर के नीचे
तालाब हैं
ओरण हैं
घास है
जिस पर गायें चरती हैं
और सभ्यता को
दूध का स्वाद याद दिलाती हैं
सौ मीटर के नीचे
घरों की नींव है
खेती की लकीरें हैं
जनजातियों की कहानियाँ हैं
जो विकास शब्द सुनकर
अभी भी डर जाती हैं
लेकिन विकास कहता है,
“मुझे जगह चाहिए।”
और सत्ता
नशे में डूबी
पहाड़ को भी
व्यापार समझ बैठती है
हँसदेव हो या अरावली
नाम बदलते हैं
मुनाफ़ा नहीं।
कोई कहता है,
“खनन कहाँ नहीं होना चाहिए?”
सही सवाल यह नहीं
सवाल यह है
क्या हर ज़रूरत
हर कीमत पर जायज़ है?
क्या हम वही सभ्यता हैं
जो मोबाइल चार्ज करने के लिए
पूरा पहाड़ काट दे
और फिर कहे,
“नेटवर्क नहीं आ रहा”?
अरावली खड़ी है
अब भी
लेकिन अब
वह पहाड़ नहीं मानी जाती
और जिसे मानना बंद कर दिया जाए
उसे बचाने की ज़रूरत
काग़ज़ों में नहीं पड़ती।
कल
जब मानसून रास्ता भटकेगा
जब टैंकर संस्कृति
राजधानी का राष्ट्रगान बनेगी
जब बच्चे पूछेंगे,
“रेगिस्तान क्या होता है?”
और किताबों में
दिल्ली की तस्वीर दिखेगी
तब शायद
हमें सौ मीटर की परिभाषा
बहुत छोटी लगेगी
अरावली कहती है,
“मुझे पहचान नहीं,
संरक्षण चाहिए।
मैं ऊँची नहीं,
लेकिन अनिवार्य हूँ।
मैं बूढ़ी हूँ,
पर बेकार नहीं।”
अगर आज
हमने उसे खो दिया
तो आने वाली पीढ़ियाँ
हमसे ऊँचाई नहीं पूछेंगी
वे पूछेंगी
“जिसने तुम्हें सदियों तक बचाया,
तुमने उसे
क्यों नहीं बचाया?”
खामोशी अब विकल्प नहीं।
यह कविता भी
एक पहाड़ी है
शायद सौ मीटर से कम
पर अगर इसे काट दिया गया
तो समझ लेना
रेत रास्ते में है।
★★★
रचनाकार: गोलेन्द्र पटेल (युवा कवि-लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)
संपर्क सूत्र :-
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
मोबाइल नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com
(नोट: सभी तस्वीरें साभार: गूगल, फेसबुक।)





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