"भूमंडलीकरण के दुष्परिणामों से सचेत करती हैं, नब्बे के दशक की हिंदी कविताएँ"
नब्बे के दशक के कविताओं की अपनी एक अलग ही भूमिका रही है।
इस दौर के कवियों की कविताओं में मानवीय मूल्यों को बचाये रखने की जद्दोजहद दिखाई देती है।
इस दौर के कवियों ने अपने लिए कविताएँ नही लिखी, बल्कि अपनी सामाजिक चिंताओं को, समस्याओं को, विसंगतियों को और समाज की सोच-विचार को साझा करने के लिए पाठकों से संवाद स्थापित करती हैं।
भूमंडलीकरण की कविता यानी कि इन कवियों की कविताएँ भूमंडलीकरण के दुष्परिणामों से सचेत करने वाली कविताएँ हैं। साथ ही बाजारवादी अर्थव्यवस्था व उपभोक्तावादी संस्कृति के दुष्परिणामों और मनुष्य तथा मनुष्यता विरोधी सद्वृत्तियों को उखाड़ फेंकने एवं संवेदन हीनता व संवादहीनता तथा रोबोटीय विकास के विरुद्ध होने वाली कविता है।
यहीं नहीं नब्बे के दशक की कविताएँ पतनोन्मुखी, सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक स्थितियों का खुलासा करने वाली कविताएँ हैं। जो अपने समय की गहरी पड़ताल करती हुई समकालीन सवालों से टकराती भी हैं। ख़ासकर मदन कश्यप, श्रीप्रकाश शुक्ल व जितेंद्र श्रीवास्तव की कविताओं के किसी भी संग्रह की आप कविताओं को पढ़ कर देख सकते हैं। इन कवियों के सन्दर्भ में सबसे बड़ी बात यह है, कि इन कवियों की कविताएं परम्परा और नवीनता दोनों को साथ ले कर चलने वाली कविताएँ हैं।
उक्त बातें प्रसिद्ध आलोचक अरुण होता ने अपने वक्तव्य में कही। वे विगत दिनों कंचनजंघा के फेसबुक पेज के पटल पर " भूमंडलीकरण और हिन्दी कविता" विषय पर एकल व्याख्यान दे रहे थे। बताते चलें कि कंचनजंघा ई-जर्नल जो कि सिक्किम प्रांत से निकलने वाली हिंदी की एकमात्र पहली पत्रिका है, जिसके संपादक, सचिव प्रदीप त्रिपाठी जी हैं।
मंच से अपनी बातों को साझा करते हुए अरुण होता ने कहा कि भूमंडलीकरण के परिपेक्ष्य में 1990 हम यूँ कह लें कि जिसकी सुरुवात 1989 से ही आरंभ होते हुए जो कि 1992 में पूरी तरह से लागू हो चुकी थी। उन्होंने हिंदी कविता पर बात करते हुए कहा कि उन घटनाओं ने हिंदी कविता को बहुत ही गहरे प्रभावित किया है। 1970 के आस पास जो नक्सलवादी आंदोलन हुवा उसका बहुत बड़ा प्रभाव हिंदी कविता पर भी पड़ा। उस दौर में धूमिल सबसे बड़े कवि के रूप में सामने आते हैं। और धूमिल के साथ-साथ कुमार विकल, वेणु गोपाल, आलोकधन्वा, ज्ञानेन्द्रपति, गोरख पाण्डेय आदि कवियों ने कविता को एक नया रूप दिया। नयी भाषा, नए शिल्प प्रदान किए जिससे कविता के क्षेत्र में एक व्यापक बदलाव आया। उस दौर में मारक मुहावरों का भी प्रयोग व्यापक स्तर पर हुवा है।
मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल आदि कवि इसी दौर के प्रखर कवि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
आगे वे कवि मदन कश्यप की कविताओं पर चर्चा करते हुए कहते हैं कि वे हिंदी कविता में 1972 में ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके होते हैं।
पहली घटना जो नक्सलवाड़ी ने जो हिंदी कविता को प्रभावित किया था।
दूसरी घटना ये की नेशनल इमरजेंसी (राष्ट्रीय आपातकाल) रहा। उन्होंने कहा कि उस दौर में जो कवि सक्रिय थे, जो ख़ासकर आज भी सक्रिय हैं। जैसे ज्ञानेन्द्र पति जी व आलोकधन्वा जी की काफ़ी तारीफ भी करते हैं। उन्होंने कहा कि 1975 से 80 के बीच में जो कवि आए उन्होंने हिंदी कविता को समृद्धि प्रदाना की, इस संदर्भ में वे राजेश जोशी, अरुण कमल, उदय प्रकाश , विष्णु नागर व इब्बार रब्बी जी का नाम लेते हैं।
इसी बीच जीवन व कविता के रिश्तों की बात करते हुए कहा कि 1975 से 80 तक आते-आते इन कवियों ने जीवन व रिश्तों के बदलावों को नए ढंग से परिभाषित करते हैं।
इसी कालखंड में 1990 की कविताओं पर फ़ोकस करते हुए वे कहते हैं कि, यह नब्बे का दशक जो कि समकालीन हिंदी कविता का दूसरे दौर के रूप में सुरु हो जाता है।
वे थोड़ा असहज होते हुए कहते हैं कि 'भूमंडलीकरण' यह बहुत ही लुभावन शब्द दिया गया है।
यह विश्वग्राम, ग्लोवल मार्केट, विश्वबाजार संयुक्तराष्ट्र संघ के द्वारा प्रचारित हुवा, और इसी दशक में बहुत बड़ा परिवर्तन भी हुवा।
सोवियत संघ के विघटन के बाद पूरी दुनिया बदल गयी थी। जो दो शक्तियों में विभाजित थी।
उन्होंने कहा कि उस दौर में भूमंडलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण, आदि के नाम पर बहुत कुछ कहा गया, बहुत कुछ भरमाया गया। उस दौर में भारतीयों को ही नही बल्कि पूरी दुनिया को भटकाया गया। भारतियों को खासतौर पर यह कहा गया कि अयम चेति परो वेति गणना लघु चेतसाम्
उदार परितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम।
के सन्दर्भों का हवाला देते हुए बाबू रविन्द्र नाथ ठाकुर के अथैव विश्व भारती का भी जिक्र करते हैं।
उन्होंने कहा कि वसुधैव कुटुम्बकम की भावना भी प्रचारित तभी होगी जब भूमंडलीकरण होगा तभी। लेकिन इसके दुष्परिणाम भी तो हुए हैं, बुरे असर भी तो पड़े हैं, जिसे हम सब अच्छी तरह से जानते हैं।
इसी बीच वे कवि केदारनाथ सिंह जी के नए संग्रह जो 2014 की भी भूमंडलीकरण के संदर्भ में चर्चा करते हैं।
उन्होंने कहा कि इस भूमंडलीकरण की बातों को जितनी जल्दी व ज्यादे हिंदी के कवियों ने लिखा उतना किसी अन्य भाषा के कवियों ने नही समझा।
वे इसी बीच बद्रीनारायण की भी चर्चा करते हैं और 1990 के दौर में लिखी कविताओं के महत्वों को भी दर्शाते हैं।
उन्होंने कहा कि चाहे अस्सी के दशक का दौर हो या नब्बे का या फिर 2000 के कवियों ने, पर इस दौर के कवियों ने जो भी दिया है वह समाज मे घटित घटनाओं का प्रत्यक्षीकरण है। जिसे हम उस दौर की कविताओं में स्पष्ट तौर पर देख सकते हैं। उन्होंने समकालीन हिंदी कविता को एक जाग्रतावस्था की कविता कहा।
उन्होंने कहा कि भूमंडलीकरण में बाजार ही सब कुछ होगा। लाभ व हानि के बारे में हमे बाजार ही सब कुछ बताएगा। इस संदर्भ में वे कहते हैं कि बाज़ार मूल्य ऐसा मूल्य है जहाँ मनुष्यता व मानवता, इंसानियत सबके सब बौने पड़ गए।
वे भूमंडलीकरण के सन्दर्भों पर थोड़ा तंज भी कसते हैं और कहते हैं कि अगर सबकी एक भाषा, खान-पान सब कुछ एक हो जाये तो गरीबी ही नहीं रहेगी।
तब तो पूरी दुनिया विश्वग्राम में तब्दील हो जाएगी।
उन्होंने कहा कि इन चालाकियों को इन नब्बे के दशक के कवियों ने समझा और उसे अपनी रचनाओं में व्यक्त भी किया।
फिर उन्होंने महत्वपूर्ण कवियों ख़ासकर केदारनाथ सिंह, मदन कश्यप, जितेंद्र श्रीवास्तव व श्रीप्रकाश शुक्ल को केंद्रित करते हुए कहा कि इन चार कवियों को लेने का कारण यह है कि इन कवियों ने यह नही कहा कि भूमंडलीकरण यथार्थ है बल्कि, उसके यथार्थ को न नकारते हुए उस बाज़ार को पहचाना और इन कवियों की कविताओं से यह बात छन कर
आती है कि आप बाज़ार को दे क्या रहे हैं, और उसके बदले आप क्या ले रहे हैं।
इस तरह रोबोटिय विकास है उसे इन कवियों ने स्वीकार नहीं किया ।
वे कहते हैं कि आप इन कवियों के किसी भी संग्रह को ख़ासकर कवि ने कहा सीरीज की कविताओं को छोड़कर अन्य संग्रह व कविताओं में कि इसकी कोई भी कविता एक ही ढ़र्रे की नही होगी। उसमे समय-समाज की अलग-अलग जो चिंताएं व संवेदनाएं हैं, और उन सम्वेदनाओं में सांद्रता है। और मनुष्य को लेकर मानवीयता को लेकर मानव जाति, हरिजन, आदिवासीजीवन की विसंगतियों और उनकी चिंताएं हैं। साथ ही आदमी के प्रति एक व्यापक दृष्टि है। इन कवियों की दृष्टि समय व समाज के लिए कितने प्रासंगिक हैं ऐसा उनकीरचनाओं में देखा जा सकता है।
उन्होंने कहा कि साम्प्रदायिकताएँ पहले भी होती थी पूंजीवाद का प्रभाव पड़ते ही जो साम्प्रदायिकता हुई और जो विकेंद्रीकरण की राजनीति हुई है, उसे नब्बे के दशक के कवियों की कविताओं में देखा जा सकता है।
वे कहते हैं कि भूमंडलीकरण के दुष्प्रभावों को इन कवियों ने बहुत ही युक्तिसंगत ढंग से वे पाठकों के सामने प्रस्तुत करते हैं। हरिजन, दलित, आदिवासी व जनजातियों के प्रति इन कवियों की दृष्टि समय व समाज के लिए प्रासंगिक है। इसी बीच के केदारनाथ सिंह जी की कविता 'दाने' पढ़ते हैं। नहीं हम मंडी नहीं जाएंगे खलिहान से उठते हुए कहते हैं दाने
जाएंगे तो फिर लौटकर नहीं आएँगे
जाते- जाते कहते जाते हैं दाने
अगर आये भी तो तुम हमें पहचान नहीं पाओगे अपनी अंतिम चिट्ठी में लिख भेजते हैं दाने
इसके बाद महीनों तक बस्ती में कोई चिट्ठी नहीं आती..!
इस प्रकार वे बाजारवादी शक्तियों का खुलासा करते हैं। और उनकी जनहित का काम कविता के माध्य्म से....
एक अद्भुत दृश्य था
मेह बरसकर खुल चुका था खेत जुटने को तैयार थे......को भी पढ़ते हैं।
उन्होंने कहा कि 1990 के दशक की कवियों की समकालीन हिंदी कविता में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उस दौर के कवियों ने कविता को एक मुकाम दिलाई है। क्योंकि वे कवि जहाँ कहीं एक ओर लोक से जुड़ते हैं तो एक ओर किसानों, दलितों आदिवासियों की पीड़ा मो रेखांकित करते हैं। इसी क्रम में लोक के साथ उस दौर की कविताओं में आई राजनीतिक चेतना की भी बातें करते हैं। इस तरह के कवियों में
वे मदन कश्यप, के साथ दोनों कवियों जितेंद्र श्रीवास्तव व श्रीप्रकाश शुक्ल जी की चर्चा करते हैं। वे कहते हैं कि इन कवियों ने आपने जीवनानुभव को सर्वाधिक प्राथमिकता दी। और पाठकों तक साझा किए। इस दौर में वैश्विक आयाम देने वाली कवितायेँ भी लिखी गयी। और झारखण्ड, गोरखपुर, गाज़ीपुर व बनारस जैसे स्थानीयता व उसकी भौगोलिकता को समेटा गया।
जाहिर सी बात है कि जब मैं इन सभी नामों को ले रहा होता हूँ तो यहां किसी भौगोलिक छेत्र का नाम नहीं है इस तरह ये कवि अपनी समृत्तयों को बचाने का प्रयास और अपनी जड़ों को बचाने का प्रयास बार बार करते हैं।
भूमंडलीकरण के दौर में जो हमारे रिश्ते हैं मनुष्य से मनुष्यता को जोड़ने और उसे और मजबूत करने का प्रयास इन कवियों ने किया है।
इस तरह इन कवियों द्वारा रिश्तों को लेकर लिखी गई। इसका मतलब यह नही की यह सिर्फ आपसी रिश्तों पर ही लिखा गया है। बल्कि इसका सम्बन्ध सखा मित्र पाठक व आमजन तक है। और यह आम जन से होते हुए एक लंबे परिदृश्य पर में आ जाते हैं इस तरह से वे पूरे विश्व से रिस्ता कायम करती हैं इन तीनों कवियो की कविताओं ने बहुत ही सलीके से संवेदना के धरातन पर उतर कर अपनी रचना धर्मिता को निभाया है। वे निराला केदारनाथ अग्रवाल व नागार्जुन के दौर की कविताओं का जिक्र करते हुए है कहा कि इस तरह के दौर में जो कविताएँ लिखी गयी उस तरह की कविताएं पुनः नहीं आया रही थी। जिसे आज नब्बे के दशक में देखा जा सकता है। इन कवियों की कविताओं में दाम्पत्य जीवन के चित्रण देखा जा सकता है। इन कवियों की कविताएं विश्वस्नीय लगती है। जो अपनी रचना अपने जीवन व अपने लेखन में अंतर नही रखता। इन कवियों में मानवीय मूल्यों को बचाये रखने की जद्दोजहद दिखाई देती है। इसमे से किसी भी लेखक के लिसी संग्रह को आप पढ़िए, क्षीरसागर में नींद हो या पनसोखा है इंद्र धनुष, या फिर सूरज को अंगूठा हो क्योंकि इन संग्रह की हरेक कविताएं ऐसी हैं। जो पाठकों से संवाद स्थापित करती नजर आरती हैं। इन कवियों ने अपने लिए कविताएँ नहीं लिखी बल्कि सामजिक चिंताओं को समस्याओं को विसंगतियों को, अंतर्विरोधों को व समय समाज की सोच विचार को साझा करने के लिए पाठकों से संवाद स्थापित करती हैं। इन कवियों के कविताओं पर लोक पक्ष पर भी विस्तृत चर्चा करते हैं और श्रीप्रकाश शुक्ल के काव्य संग्रह जहाँ सब शहर नही होते, बोली बात, ओरहन और अन्य कविताएँ, में उनके काव्य विवेक को स्पष्ट रूप से देख जा सकता है। साथ ही नए काव्य संग्रह जो कि सेतु प्रकाशन से प्रकाशित है 'क्षीरसागर में नींद' के पक्का महल की कई कविताओं का पाठ भी करते हैं।
और कहते हैं कि तीनों कवि मानवीय भावों के कवि हैं। श्रीप्रकाश शुक्ल की रचनाओं में मानवीय भावों का सर्वाधिक महत्व पाया जाता है।
उन्होंने कहा कि भूमंडलीकरण के इन अर्थों को इन तीनों कवियों ने बिल्कुल सही ढंग से समझा और अपनी रचनात्मक्ता में उसे समाहित भी किया। जहां भूमंडलीकरण बाजारवाद का सच है। लेकिन कहीं काट भी है जिसे समझना पडेगा। अपने विचारों को समझना पड़ेगा। और हम जहां से आते हैं वहां के लोगों को जानना पड़ेगा। इसी बीच वे मदन कश्यप की कविता क्या सचमुच मुल्क उन मदारियों का है। जो बजा रहे हैं भूमंडलीकरण की डुग डुगी और उआँ सपेरों का जो बेच रहे हैं जाती व धर्म का ज़हर याफिर अपना ही देश....! इस तरह कवि की विशेषताओं को इंगित करते हैं।
साथ ही जितेन्द्र जी की कविताओं का हवाला देते हुए बोलते हैं कि इनकी कविताएँ ही हैं जो इन्हें अन्य कवियों से भिन्न बनाये रखती हैं। इन कवियों की रचनाओं में विचारों की सांद्रता दृष्टिगत होती है। और समाज के प्रति सम्बद्धता भी दिखाई देती है। साथ ही अभिव्यक्ति की असहजता भी है। उसके साथ-साथ भाषिक उत्कर्ष भी दृष्टिगोचर होता है जो तमाम पाठकों को खुद से जोड़े रखती है। इस तरह उनका संग्रह पाठकों की उम्मीदों पर खरा उतरता है। इन तीनों कविओं का एक स्वप्न है पर उसका संबंध सिर्फ और सिर्फ स्वयं से नहीं है बल्कि यहबुनके सपनों का वृहत्तर पैमाना है। वे कवि अपने सपनों के माध्यम से सामाजिक सरोकारों से जुड़े रहते हैं जिनमे समाज की संकल्पना छिपी है। उन सपनों में रचनाकार का जीवन दृष्टि समाहित रहता है। इसी बीच वे निम्न कवियों के तुकांत कविताओं के साथ-साथ अतुकांत कविताओं पर भी चर्चा करते हैं। और यह भी कहते हैं कि ये कवि जिस आजादी की बात करते हैं वह मानव जीवन के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। मेरे इस आजादी का अभिप्राय देश की 1950 की आजादी से नही बल्कि व्यक्ति की आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक आजादी से है। इस तरह इन तीनों कवियाओं ने किसी भी चीज को अपने पर हावी नही होने दिया है। इनकी रचनाओं में विचार व संवेदना का मणिकांचन प्रयोग मिलता है।
वे इन्हीं तीनों कवियों के संदर्भ में कहते हैं कि बहुत अंधेरा है। घुटन है। पर इन्हीं कवियों की कविताएँ संभावनाओं का द्वार खोल देती हैं। वे नागार्जुन के सन्दर्भों का हवाला देते हुए कवि जितेन्द्र के संग्रह सूरज को अंगूठा का जिक्र करते हैं और कहते हैं कि सूरज एक शक्ति है जो कि सत्ता का केंद्र है, उसका प्रतीक है। उसे बिल्कुल धत्ता बताते हुए नागार्जुन के शब्दों में 'हो न सके नाकाम/लेकिन संघर्ष जारी रखेंगे/ उन्हीं के बच्चे उन्हीं के बेटे..!
वे आगे कहते हैं कि इसी तरह मदन जी अपनी डॉलर कविता में लिखते हैं कि उसे यहां तक कि अमेरिका तक को अस्वीकार करते हैं।
और ज्ञानेंद्र जी ने तो संशयात्मा 2004 में संयुक्त राष्ट्र संघ व अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष को उभरता हुवा अंडकोष कहा है। उस शक्ति को पराभव करने का जो सपना होता है वह जितेन्द्र की कविताओं में खास बनता है। इस तरह से हम जब 'क्षीरसागर में नींद' व ओरहन व अन्य कविताएँ में लेते हैं तो जितेन्द्र की दिल्ली नींद में जिसमे सत्ता व व्यवस्था है समय व समाज का हस्तक्षेप है क्षीरसागर में नींद हमारा देश है और सत्ता के लोग विष्णु हैं/और वे पूरी तरह से सोए हुए हैं/ नहीं भी सोए हुए हैं/ इस तरह से भारतीयों को देशवासियों को और गहन अंध गर्त में धकेल रहे हैं/
आगे वे श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताओं पर संवाद कायम करते हुए कहते हैं कि लोक से लोक परम्पराओं से जुड़ी कविताएँ हैं तो श्रीप्रकाश शुक्ल के यहां हैं। उसे आप अगर जानना चाहते हैं
या उनकी रचनाओं के अंतर को जानना चाहते हैं तो आप उनके नए काव्यसंग्रह जो कि सेतु प्रकाशन से हाल ही में छप कर आया है। 'क्षीरसागर में नींद' को पढ़िए! औऱ उसमे पक्का महल की कविताओं को पढ़िए। उसमे जय प्रकाश हो या लालू यादव के चाय की दुकान को पढ़िए। साथ ही ओरहन व अन्य कविताएँ की भी कविओं को भी पढ़ना होगा। इस दौरान वे उनकी पक्का महाल में खेल! कविता भी पढ़ते हैं। एक खुला हुवा बाजार है/ जो दबी हुई आकांक्षाओं की तरह/ आक्रामक है और फाइलने को आतुर/ खेलो कितना खेलोगे चुन्नू मुन्नू/एक बस्ती का उजड़ना भी तो आख़िर खेल ही है/ हरियाली हवा व रोशनी के नाम पर...! वे कहते हैं कि और सत्ता के खेल में हम बिना जाने समझे जुड़ते चले जा रहे हैं और उसे शेयर करते जा रहे हैं। इसी बीच वे युवा आलोचक कमलेश वर्मा के द्वारा श्रीप्रकाश शुक्ल के गाजीपुर व बनारस केंद्रित कविताओं पर संवेद पत्रिका में छपे एक लेख का भी जिक्र करते हैं।
जाग्रत कवियों की बात करते हुए अरुण होता जी कहते हैं कि जितेंद्र हों या मदन भाई या श्रीप्रकाश शुक्ल हों या उनके परवर्ती या पूर्ववर्ती अन्य कवि ही क्यों न हों पर उसमे जो जाग्रत कवि होगा वो ही उस खेल को उभरेगा उन चित्रों को उभारेगा। दुश्चक्रों को उभारेगा। तभी वह कविता महत्वपूर्ण होकर पाठकों, हमारे बीच आएगी। साथ ही कहते हैं कि जितेन्द्र जी व मदन भाई अपनी कवितामे जिसे बुलडोजर कहते हैं, श्रीप्रकाश शुक्ल उसे जेसीबी का नाम देते हैं।
वे कहते हैं कि ये जेसीबी विकास के नारों का प्रतिनिधि है। जो सब कुछ तहस नहस कर देने वाला, अस्त व्यस्त कर देने वाला एक दैत्याकार है। जो भूमंडलीकरण का प्रतिनिधि है। इस तरह नब्बे के दशक के इन तीनों कवियों को उन्होंने मानवीय भावों का कवि कहा, मानवीय सम्बंधों का कवि कहा। इस तरह श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताओं में मानवीय भावों का सर्वाधिक महत्व पाया जाता है। इसी बीच वे उनकी 'यातना एक ज़िद है' और 'बुरे दिनों के ख्वाब' कविता का भी पाठ करते हैं।
यातना एक ज़िद है/जो यातना में होता है बहुत जिद्दी होता है/जैसे कि हमारे पुरखे/जिनकी ज़िद ही उन असंख्य घावों के लिए मरहम थी/ जो तब मिले थे जब वे/काला पानी की काल कोठरी से अपनी माटी को पुकार रहे थे...! वे यह भी कहते हैं कि अगर हम शुक्ल जी के राजनीतिक चेतना की बात करें तो उनके 'ओरहन और अन्य कविताएँ' तथा 'बोली बात' जिसमे एक लंबी कविता " देश के प्रधानमंत्री के नाम देश के एक नागरिक का खत"जिसमे उनकी राजनीतिक चेतना मुखरित हुई स्पष्ट दिखाई देती है। वे कहते हैं कि हालांकि यह कविता 4 वर्ष पूर्व प्रधानमंत्री के नाम लिखी गयी थी पर आगे के प्रधानमंत्री पर भी सटीक बैठती है। इस तरह से श्रीप्रकाश शुक्ल राजनीतिक चेतना के संदर्भ में एक समर्थ कवि हैं। इस तरह वे श्रीप्रकाश शुक्ल की तुलना नागार्जुन से करते हैं।
और वे इन तीनों कवियों को लेकर सजग हैं । और कहते हैं कि इन कवियों की कविताएं भूमंडलीकरण की काट हैं। एक शब्दों में कहें तो आंखें खोलने वाली कविताएँ हैं। था भूमंडलीकरण के सच की उभार की कविता की संज्ञा देते हैं। साथ ही यह भी कहते हैं कि नब्बे के दशक के इन कवियों पर बहुत ही महत्वपूर्ण काम किया जा सकता है।
आज कविता के नाम पर निबंध लिखा जा रहा है। मेरा उन कवियों से आग्रह है कि वे इन तीनों कवियों की काव्य संग्रह व कविताओं को पढ़े।
इसी बीच समकालीन हिंदी कविता का जिक्र करते हुए वे एक साथ तीन से चार पीढ़ी के सक्रिय कवियों का नाम लेते हैं। और कहते हैं कि इस दौर में इन कवियों ने ख़ासकर राजेश जोशी, बद्रीनारायण, कात्यायनी, निलय उपाध्याय सविता सिंह, कुमार अंबुज, चंद्रकांत देवताले, अनिल मिश्र, अनिल त्रिपाठी, सुभाष राय, लीलाधर मंडलोई, अनिता वर्मा, इंदु जैन अनुराधा सिंह, सोनी पांडेय, लवली गोस्वामी, रश्मि भारद्वाज, निशांत, विमलेश त्रिपाठी, अनुज लुगून व जसिंता केरकेट्टा यहां तक कि कुमार मंगलम व एकदम युवा गोलेन्द्र पटेल की भी कविताएँ समय समाज पर अपना अगल पहचान छोड़ने में कामयाब रही हैं।
उन्होंने मदन जितेंद्र व श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताओं को आँखें खोलने वाली कविता कहा तथा इन तीनों कवियों को भूमंडलीकरण के सच को व उसे उभारने वाले कवि का दर्जा देते हैं। अंत मे श्रोताओं से सुझाव मांगते हुए कार्यक्रम के समापन की घोषणा करते हैं।
ईमेल : corojivi@gmail.com
Whatsapp : 8429249326
Golendra Patel
BHU
तुम तो ग़ज़ब के तकनिकी कौशल सम्पन्न निकले गोलेन्द्र!एक दम टेक्नोक्रैट😊
ReplyDeleteतुम तो ग़ज़ब के तकनिकी कौशल सम्पन्न निकले गोलेन्द्र!एक दम टेक्नोक्रैट😊
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