बाढ़ और श्रीप्रकाश शुक्ल पर केंद्रित युवा कवि गोलेन्द्र पटेल की चार कविताएँ :-
{फोटो साभार : कुमार मंगलम}1.
रेत डूब
वरुणा और असि के द्वाब में बसी काशी
अब हो चुकी है बासी
इन्हें सरकारी कागजों में घोषित कर दिया गया है नाला
धर्म की नगरी को नगरपालिका की गायों की तरह दुह रहा है साला
बच्चे माँ की कोख में ठूँस रहे हैं पत्थर
लोग अवैध कब्जा किये जा रहे हैं नदियों का किनारा
और दहाड़ मारकर रो रही है
कबीर का लहरतारा
बुद्ध और रैदास सुन रहे हैं रुदन का स्वर
तुलसी घाट पर 'राग नया अनुराग नया'सुन रही है गंगा
अपने शब्दसाधक पुत्र श्रीप्रकाश शुक्ल से
मैं त्रिनेत्र की आँखों में देख रहा हूँ
उत्तर और दक्खिन का दुख
और सोच रहा हूँ
कि जैसे बाढ़ में डूब जाता है खेत
ठीक वैसे ही
अपने आँसू में
डूब गयी है रेत
{फोटो साभार : गुरुवर डॉ. विजयनाथ मिश्र}हालात के मारे लोगों को
लहरें लात मार रही हैं
और टूट रहा है लोक का लय
जहां मेरे गुरु गढ़ रहे हैं पक्का महाल में मानस का मंदिर
जिसमें उस देवता की मूर्ति बसी है
जो कभी मरा है बेघर होकर
रो.. रो.. कर!
रचना : 12/08/2021
2
कभी- कभी दुख का चेहरा धरे आ जाता है उजास
घोंसलों में मौन पक्षी, चुप खड़े बबूल
चारों तरफ गंगधार, डूबा घर दुआर
ट्रैक्टर पर बैठ निज घर को निहार रहा वो कवि
जो तूफ़ानों से लड़ता रहा, लहरों से भी
अडिग, अविचलित श्रीप्रकाश शुक्ल
समय की आहट मिल रही नदी के कल कल में
आयी है शिव की सलाह मान कवि के घर
अनुग्रह जताने, उसका जो किया उसने
जब उजाड़ा जा रहा था तटग्राम धू-धू
अंधेरे के आक्रमण के विरुद्ध जो डटा रहा
वह गुरु मेरे, डूबते गांवों, घरों की पीड़ा
पर चिंतित, कुछ ऊंचाई से मुस्करा रहे
जान रहे वे, कि क्यों आयी है गंगा माई द्वार पास
कभी- कभी दुख का चेहरा धरे आ जाता है उजास
रचना : 11/08/2021
साभार : जनसंदेश टाइम्स, लखनऊ (सं. डॉ. सुभाष राय)3.
मल्लू मल्लाह
(अपने काव्यगुरु श्रीप्रकाश शुक्ल को समर्पित)
मेरे समय के शब्द हैं मेरे गुरु
यह मैं नहीं
उनकी कविताएँ कह रही हैं
उस मल्लू मल्लाह से
जिसकी नाव खड़ी है किनारे
और कुछ इधर-उधर औंधी पड़ी हैं
उसकी मँड़ई में लालटेन भभक रही है
भूख के भूगोल में जन्म ले रहा है भय
भकुआई भँवरी आ गयी है पास
हिलोरों से हताश हो रही है
तटीय जिंदगी
नगर पालिका के कूड़े की मानिंद
बिखर गई है गंदगी
मणिकर्णिका पर धुआँ ही धुआँ है
घाटों पर पसर गया है दुख
आह! शिव!
सावन में टूट जाता है विश्वास!
गंगा की गोद में हँसने वाले बच्चे रोने लगते हैं
बिलखते बिलखते भूखे पेट सोने लगते हैं
उसके जैसे अनेक लोगों का चूल्हा
विस्थापित हो रहा है
कोई कह रहा है कि
बाढ़ में बोझ है अपना आँसू
इसे छोड़ दो नदी में
मेरे गुरु वही आँसू
कविता की कटोरी में इकट्ठा कर रहे हैं
जिसमें इनसानियत की इंक घोलकर
कभी लिखा जाएगा काशी का इतिहास।
रचना : 13/08/2021
4.
उस पार
सब्र का बाँध टूटते ही ध्वस्त होता है नदी का धैर्य
जन जन के जिगर में गूँजता है गर्जन तर्जन
हवा हँस हँस कहती है कि
हरियाने का हुनर दिखा रही हैं हिलोरें
सीख लो सरोवर
बाढ़ में सागर से संस्कार
तरंगें होती हैं जिसकी ताकतवर
उसे नहीं होता है किसी भी प्रकार का कोई अहंकार
चेतना की चट्टान जब सह नहीं पा रही है पानी का प्रहार
शब्दसाधक श्रीप्रकाश शुक्ल समय के श्यामपट पर समझा रहे हैं
कि निराशा की नदी में जो खे रहे हैं पतवार
लोगों की पीड़ा उन्हें धक्का देकर पहुँचा रही है उस पार!
रचना : 12/08/2021
{संपादक : गोलेन्द्र पटेल}नाम : गोलेन्द्र पटेल
{युवा कवि व लेखक : साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक}
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com
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