Monday, 23 August 2021

बाढ़-दर्शन की कविताओं पर आत्मकथ्य : गोलेन्द्र पटेल

बाढ़-दर्शन की कविताओं पर आत्मकथ्य : गोलेन्द्र पटेल
{नोट : यह आलेख गुरुवर डॉ. कमलेश वर्मा के मार्गदर्शन में पुनः प्रस्तुत किया जाएगा}
{डॉ. कमलेश वर्मा }

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कविता क्या है? कविता क्या नहीं है? कविता कहाँ है? कविता कहाँ नहीं है?....इस तरह के तमाम प्रश्नों पर प्राचीन काल से लेकर आज तक के अनेक विद्वानों ने विचार किये हैं और करते रहेंगे। खैर, यहाँ किसी विशेष विद्वान के माध्यम से चर्चा न कर के खुद मैं कविता के विषय में क्या सोचता हूँ। मैं उसका कुछ अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ :-

प्रत्येक जीव का जीवन एक लीला है जो ईश्वरीय सत्ता से संचालित होती है। इसी सत्ता से सृष्टि का जीवन है। अतः जीवन ही कविता है। दूसरे शब्दों में, कविता मानवीय प्रकृति की प्रतिक्रिया का प्रदीप है जिससे जिंदगी ज्योतिर्मय होती है। सच तो यह है कि कविता कवि की तीसरी दृष्टि है जिससे वह दुनिया को देखता है, परखता है, समझता है, अपने आप को जानता है और पहचानता है। अर्थात् कविता परिभाषा की परिधि से परे परिक्रमा करने वाली संवेदना से संचालित प्रकाशपुंज है। यह अनुभूति का आलोक है। यह संवेदनाओं का सार्थक गान है। यह अत्यंत संवेदनशील एवं गतिशील विधा है। वर्तमान की त्रासदी से पीड़ित आत्मा के लिए कविता एक प्रकार की औषधि है जिसकी कोरोजीविता उसे स्वस्थ और समृद्ध करने में अहम भूमिका अदा करती है। इस वैश्विक महामारी में वह समाज के विसंगतियों एवं मानसिक विकृतियों को दूर कर के मानवीय सुंगध को सार्वभौमिक करने में सफल रही है।

कविता और गीत के संदर्भ में कोरोजीवी कविता के सूत्रधार मेरे काव्यगुरु श्रीप्रकाश शुक्ल कहते हैं कि "कविता मनुष्य की चेतना की उदात्त अभिव्यक्ति होती है जबकि गीत उसके भाव जगत का एक तकनीकी कौशल।" यही उदात्त अभिव्यक्ति और कौशल ही बाढ़ की विभीषिका में हमारे महामंत्र हैं। अतः कविता की कंठी को फेरते हुए हमारा समय इसी का उच्चारण कर रहा है।

मनुष्य की वृत्तियों पर सभ्यता के नये-नये आवरण आज इस कदर चढ़ गये हैं कि सोशल मीडिया पर कविताओं की बाढ़ हमें दिखाई दे रही है। अब एक अच्छे कवि और एक अच्छी कविता की खोज करना बहुत ही श्रमसाध्य कार्य हो गया है। इस संदर्भ में मुझे आचार्य रामचंद्र शुक्ल का सुप्रसिद्ध निबंध  ‘कविता क्या है?’ में लिखी आगामी पंक्ति याद आ रही है कि ‘ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नये-नये आवरण चढ़ते जायेंगे त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि कर्म कठिन हो जाएगा।’ 

इसी विडंबना को रेखांकित करते हुए मेरे मार्गदशक कवि सुभाष राय कहते हैं कि "केवल कवि होने से आप कवि रहेंगे। इस सूत्र पर अब कवियों का भरोसा बहुत कम रह गया है। जब से कविता के लिए छंद और लय की बंदिश ढीली पड़ी, किसी के लिए भी कवि बन जाना सहज हो गया। सोशल मीडिया पर बहुत सारे ऐसे लोग कविताएं पोस्ट करते नजर आते हैं, जो कवि नहीं हैं लेकिन उन्हें इतना ज्ञान हो गया है कवि होना कुछ विशिष्ट होना है। वे विशिष्ट होने के लिए कवि दिखना चाहते हैं और कवि दिखने के लिए हर संभव मारग अपनाते हैं।"

ऐसे में मैं खुद के भीतर के कवि को ढूँढ रहा हूँ और कविता लिखना सीख रहा हूँ। मैं कविता क्यों लिखना सीख रहा हूँ। यह मेरे लिए भी उतना ही जटिल एवं टेढ़ा सवाल है जितना कि इसका जवाब देना। बहरहाल, बस यह समझ लीजिए कि मैं कविता को लिख नहीं रहा हूँ बल्कि जी रहा हूँ। मेरे भीतर का कवि भीतरी आवाज के साथ साथ बाहरी आवाज बार बार सुनना चाह रहा है। और वह बिना बोर होये बार बार सुन रहा है। अर्थप्रवणता में धरती की धुन, हवा की सरसराहट, गगन का गर्जन, तरंगों का तर्जन, सन्नाटे की सिसकी,  चुप्पी की चीख, एवं गमी की गूँज सुन रहा है। और सुन रहा है समय के स्वर में तड़पती आत्मा की तान एवं रुदन का गान। जहाँ है निराशा में निराकरण के शब्द। जिससे मैं कविता गढ़ रहा हूँ।  मेरा काव्य संसार केवल मेरा नहीं है वह हर असहाय आदमी का है जिसकी आँखों में मैं अक्सर झाँका करता हूँ।

मेरा कवि मन कविता के लिए नये शब्दों की तलाश में लोक की ओर चला जाता है और वहाँ से गँवई गंध में सना हुआ शब्द चुन कर अनुभव के आकाश में जहाज की तरह उड़ना चाहता है। जिसमें मेरी जिज्ञासा एक पोयटिक पायलट की तरह बैठना चाहती है। सृजनात्मक सृष्टि की संवेदनाएँ मेरे साहित्यिक संस्कार को परिष्कृत कर रही हैं। इसलिए मेरी कविताओं की जड़ें जमीन में गहराई तक धँसी हुई हैं। और धँस रही हैं। सकारात्मक संभावनाओं के सुमन की तरह पुष्पित होने वाली औषधि है मेरी कविता। उसकी प्रत्येक पंखुड़ी में पीड़ा का पराग है। 
जिसका स्वाद चखना ही सहृदयों के लिए आनंद की अनुभूति है। तो उसके दर्द के लिए कड़वी दवा भी।

अंत में इतना ही कहना चाहता हूँ कि कविता की बाढ़ में मेरी भी कुछ कविताएँ बहेंगी। इसका मुझे दुःख नहीं है। मुझे दुःख इस बात की है कि जिस सुंदर शब्द की तलाश मैं कर रहा हूँ वह अभी तक मुझे मिला ही नहीं। शायद यह खोज जिंदगी भर जारी रहेगी। समय का शब्द ही साहित्य है और कवि का काव्य भी। इस संदर्भ में मुझे रघुवीर सहाय के काव्य संकलन “सीढ़ियों पर धूप में” की भूमिका में कवि-चिंतक अज्ञेय द्वारा लिखी गयी पंक्ति याद आ रही है कि “काव्य सबसे पहले शब्द है। और सबसे अंत में भी यही बात बच जाती है कि काव्य शब्द है।”

बाढ़-दर्शन
(केंद्र में काव्यगुरु) //

प्रिय मित्रों! सहृदय साथियों!  
                                       विश्व के मानचित्र में भौगोलिक दृष्टि से हमारा प्यारा भारत एक प्राकृतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक विविधताओं वाला देश है। वृहद भौगोलिक आकार, पर्यावरणीय विविधताओं और सांस्कृतिक बहुलता के कारण भारत को "भारतीय उपमहाद्वीप" और "अनेकता में एकता वाली धरती" के संज्ञान से संबोधित किया जाता रहा है। भारत में अनेक तरह की प्राकृत आपदाएं हैं लेकिन इन आपदाओं में सबसे अधिक प्रभावशाली एवं प्रलयंकारी बाढ़ है। दुनिया के कई देश बाढ़ से प्रत्येक वर्ष ग्रसित होते हैं और उसके विभीषिका की अग्नि में जन-धन , जमीन-जंगल, एवं जान-माल सब कुछ जलकर चिता की राख की तरह जल में बह जाते हैं। सभी सपनें स्वाहा हो जाते हैं। जीवन को अत्यधिक क्षति पहुँचती है। इस होनी की हानि से उबरना बहुत ही कठिन हो जाता है किसी भी देश के लिए।

भारत में बाढ़ लगभग हर साल आती है। इसकी उत्पत्ति और इसके क्षेत्रीय फैलाव में कहीं न कहीं आधुनिक मानव एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। मानवीय क्रियाकलापों , अँधाधुँध वन कटाव, अवैज्ञानिक कृषि पद्धतियाँ, प्राकृतिक अपवाह तंत्रों का अवरुद्ध होना तथा नदी के तटीय क्षेत्रों में अवैध कब्जा और बाढ़ कृत मैदानों में मकानों की बनने की वजह से बाढ़ की तीव्रता, परिमाण और विध्वंसता बढ़ रही हैं। समय के साथ परिवर्तन होना नियति है जिसका सकारात्मक पक्ष जीवन के लिए जितना लाभदायक है उससे कहीं अधिक नकारात्मक पक्ष विनाशकारी है।  नदियाँ नहरों में परिवर्तित हो रही हैं और कुछ नालों में भी। गाँव के विशाल सरोवर बउली में तब्दील हो चुकी हैं। बहुत से ताल-तलई-तालाब पट गये हैं। जिसकी वजह से भी बारिश के मौसम में बाढ़ की विभीषिका को विनाशकारिता के लिए शक्ति प्राप्त होती है। 

असम, पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तराखंड राज्य सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में से हैं। इसके अतिरिक्त उत्तर-भारत की जादातर नदियाँ विशेषकर पंजाब और उत्तर प्रदेश में बाढ़ लाती हैं। इधर पिछले कुछ दशकों से आकास्मिक बारिश वगैरह की वजह से राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश में भी बाढ़ आई हैं। लौटती मानसूनों की वजह से दक्षिण भारत में भी कभी कभी अचानक तेज बारिश होती है और बाढ़ जैसी स्थितियाँ हमारे सामने नज़र आती हैं। वहाँ की नदियाँ जलमग्न होकर आसपास की तटीय जिंदगी को प्रभावित करती हैं। अतः बाढ़ का मुख्य कारण भारतीय मानसून की अनिश्चितता तथा वर्षा ऋतु के चार महीनों में भारी जलप्रवाह है।

बाढ़ की वजह से समाज का सबसे निचला तबका, गरीब, मजदूर एवं किसान प्रभावित होते हैं। बाढ़ जन-धन के साथ साथ प्रकृति को भी क्षति पहुचाती है। बाढ़ जब आती है तो वह संकट का संगीत और तबाही की तान कल-कलाहटी स्वर में सुनाती है। जहाँ नदियों की नाराजगी बजाती है बारिश की बाँसुरी। हमें रुदन का गान सुनाई देता है। और सरसराहटी धड़कन की धुन में असहाय की सिसकन भी। स्पष्ट हो जाता है स्वर। हमें पता चलता है कि किसानों के सपनों को और तटीय जिंदगी की उम्मीदों को डूबो देती है बाढ़।

हम बाढ़ में बहुत से मंदिरों , महजीदों और मनुष्यों को भी डूबते देखते हैं और देखते हैं कि बेजुबान जानवर भी डूब-डूबकर बेमौत मर जाते हैं। इसी बीच नदियां अपनी यात्रा के दौरान व्यवस्था को आइना दिखाती हैं और राजनीति के वास्तविक रूप से हमारा परिचय भी कराती हैं। बहरहाल, हम  जलमग्न नदियों के बहाने असहाय आँखों में बाढ़ का दर्शन कर रहे हैं। आजकल आप देख-सुन रहे हैं कि खबरें आ रही हैं। यू.पी. में  वाराणसी-प्रयागराज समेत लगभग 24 जिलों के 1200+ गाँव बाढ़ के चपेट में हैं। बनारस में गंगा अपना पिछला रिकॉर्ड तोड़ दी है वह लगभग 72+ मीटर की ऊँचाई तय कर ली है। इस शहर में कुल 88 घाट हैं और सब डूब गये हैं। गंगा के तटीय गाँवों में पानी घूसने की वजह से हजारों एकड़ जमीन की फसलें बर्बाद हो गयी हैं। साथ ही साथ शहर की दुसरी नदी वरुणा किनारे रामेश्वर, लक्ष्मीपुर, परसीपुर, रसुलपुर, जगापट्टी, नेवादा, औसानपुर, पाण्डेपुर, खंडा, तेंदुई, सत्तनपुर, गोसाईपुर इत्यादि गाँव की फसलें भी जलमग्न हैं। 

बिहार से बनारस तक के बाढ़-दर्शन में हमने देखा कि कैसे बाढ़ में बेजुबान, भँवर में भगवान एवं आँसुओं में इंसान डूब रहे हैं। कोरोनाकाल में शहर से गाँव लौटे हुए मजदूरगण पुनः नये छत की तलाश में अन्यत्र विस्थापित हो रहे हैं। विस्थापन का दोहरा दर्द जनता सह रही है। और इसी विस्थापनी विभीषिका को रेखांकित करते हुए कवि केदारनाथ सिंह अपनी कविता 'पानी में घिरे हुए लोग' में लिखते हैं कि 
"पानी में घिरे हुए लोग/प्रार्थना नहीं करते /वे पूरे विश्वास से देखते हैं पानी को/और एक दिन/बिना किसी सूचना के/खच्चर, बैल या भैंस की पीठ पर/घर-असबाब लादकर/चल देते हैं कहीं और।" 

इस दोहरी त्रासदी का शिकार पशुओं तक को होना पड़ा है। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों से पंक्षीगण जिन क्षेत्रों में विस्थापित हुए हैं। वहाँ उनके लिए चारा नहीं है। सब चहचहाने के बजाय चिहुँक रहे हैं। मेरे इलाकों में कौए उन पंक्षियों को नये घोंसले का निमार्ण करने से रोक रहे हैं। कर्कश काँव काँव से साफ स्पष्ट हो रहा है कि सब मिलकर उन्हें भगा रहे हैं।

विचारणीय बात यह है कि जिन लोगों का घर ढह गये हैं, अनाज नष्ट हो गये हैं। जीविका के सारे स्थाई साधन धाराप्रवाह में प्रवाहित हो गये, गाय-भैंस, बकरी-बकरा, मुर्गी-मुर्गा एवं सब कुछ नष्ट हो गये हैं। उनके ऊपर क्या बीत रही है। उनके दुःख-दर्द के कल्पना मात्र से हमारी रूह कांप जा रही है। जिसका कोई अपना डूब गया है। बहुत से बच्चे अनाथ हो गए हैं बहुत से माता पिता अपने बच्चे खो दिये इस बाढ़ में।
 दिल को चिर देने वाले दृश्य हमारी नजरों के सामने आ रही है। जैसे ढहे हुए घरों में दबी लाशें, डूब रही विधवा माता के साथ नवजात शिशु, एक अबोध बच्ची और एक छोटा बच्चा, हर दृश्य हृदय को झकझोर रहे हैं। हम इन्हीं दिल चिरने वाली चित्रों को, दृश्यों को देख रहे हैं। और उन्हें कविता में सुरक्षित रखने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें कविताओं में खींच रहे हैं। मैं "बाढ़" शीर्षक नामक कविता लिख कर रो ही रहा था कि गुरुवर श्रीप्रकाश शुक्ल की एक तस्वीर मेरे हाथ लगी। जिसमें वे एक ट्रैक्टर के इंजन पर बैठ कर अपने घर को अत्यंत आत्मीयता के साथ निहार रहे हैं और चारों ओर जल ही जल दिखाई दे रहा है। यानी गंगा स्वयं उनके द्वार पर आ गयी है। 

मैं अपने गुरु की उस अवस्था का अवलोकन करने का प्रयास कर हूँ और सोच रहा हूँ कि आखिर बाढ़ में कवि किस का दर्शन कर रहा है। अपने घर का जहाँ नदी कुछ क्षण विश्राम करना चाहती है। मैं कभी कल्पना में, तो कभी यथार्थ के नदी में गोता लगाने लगा। फिर ठहर कर मैंने देखा कि  "गंगा में गुरु" से लेकर "गुरु की आँखों में गंगा" का दर्शन कर रहा हूँ, मैं। उस दर्शन को, मैं कविता की वाटिका में औषधि के पौधों की तरह रोप रहा हूँ। जिसकी पत्तियाँ, जड़ें, फल-फूल एवं टहनियाँ आदि एक दिन हमें इसी तरह के दृश्यों के दर्द से छुटकारा दिलाएगी।

हिंदी के तमाम कवि अपनी कविताओं में 'काशी में आई बाढ़' का सजीव चित्रण किये हैं। बहुत ही आदर के साथ केदारनाथ सिंह, त्रिलोचन व ज्ञानेंद्रपति आदि कवियों का नाम लिया जा सकता है। "बनारस में बाढ़ और हिंदी कविता" नामक आलेख में इस बिंदु पर अलग से विचार-विमर्श व अध्ययन-अनुशीलन किया जाएगा।
(क्रमशः)
©गोलेन्द्र पटेल
प्रकाशन तिथि : 23/08/2021
                                                   {संपादक : गोलेन्द्र पटेल}

नाम : गोलेन्द्र पटेल

{युवा कवि व लेखक : साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक}

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com




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